Thursday 22 February 2024

माता सीता और श्रीरामचन्द्र विवाह शंका समाधान



धर्मद्रोही वामपन्थी पँचमक्कार गैंग माता सीता की आयु पर प्रश्नचिन्ह तो खड़ा करते है परन्तु श्रीरामचन्द्र के आयु बिषय पर मौन हो जाते है इसे ही अर्धकुकूट न्याय कहा जाता है 

____________________________________________


अरण्यकाण्ड का का वह प्रसङ्ग जिस पर प्रश्नचिन्ह खड़ा किया जाता है ।


■●-उषित्वा द्वादश समा इक्ष्वाकूणां निवेशने। भुञ्जाना मानुषान् भोगान् सर्वकामसमृद्धिनी॥ तत्र त्रयोदशे वर्षे राजाऽमन्त्रयत प्रभुः। अभिषेचयितुं रामं समेतो राजमन्त्रिभिः (वा०रा०अरण्यकाण्ड ४७/४-५)

■●-मम भर्ता महातेजा वयसा पञ्चविंशकः॥ 

 अष्टादश हि वर्षाणि मम जन्मनि गण्यते।( वा०रा०अरण्यकाण्ड ४७/१०)

विवाह के पश्चात  बारह वर्षों तक इक्क्षवाकु वंशी महाराज दशरथ के महल में रह कर मैंने अपने पति के साथ सभी मानवोचित भोग भोगे  मैं वहाँ सदा मनोवांच्छित सुख सुविधाओं से सम्पन्न रही हूं ।

वनगमन के समय मेरे महातेजस्वी पति की आयु पच्चीस वर्ष की थी और उस समय मेरा जन्मकाल से लेकर वनगमन काल तक मेरी अवस्था वर्षगड़ना के अनुसार अठारह वर्ष की थी  !


■-- इन प्रसङ्गो से स्पष्ट प्रमाणित होता है कि जनकनन्दिनी का जब विवाह हुआ था तब उनकी आयु मात्र 6 वर्ष रही थी ।

_________________________________________________

अब आते है जनकनन्दिनी माता सीता और मर्यादापुरुषोत्तम श्रीरामचन्द्र की विवाह सम्बन्धी विषयो पर ।

★-महर्षि विश्वामित्र सिद्धियां प्राप्त करने हेतु  यज्ञ का सम्पादन कर रहे थे और उस  यज्ञ को असुरों से रक्षण के लिए  महाराज दशरथ के राजमहल में गए और  श्रीरामचन्द्र को अपने साथ ले जाने को उद्धत हुए उस समय श्रीरामचन्द्र की आयु क्या थी यह महाराज दशरथ अपने श्रीमुख से कहते है ।


●- हे महर्षे मेरा यह कमलनयन श्रीरामचन्द्र  अभी पूरे १६ वर्ष का भी नही हुआ मैं इनमें राक्षसों से युद्ध करने की योग्यता भी नही देखता अतः आप मुझे ले चलिए एक बालक को नही 


■●-ऊनषोडशवर्षो मे रामो राजीवलोचनः ।

बालो ह्यकृतविद्यश्च न च वेत्ति बलाबलम् । (वा०रा० १/२०/२ & ७)


यहाँ महाराज दशरथ श्रीरामचन्द्र के आयु पर संकेत मात्र करते है कि श्रीरामचन्द्र अभी किशोरोवस्था तक भी नही पंहुचा है ।

तो प्रश्न उठता है कि श्रीरामचन्द्र की आयु क्या थी जब उनका माता जानकी के साथ जब विवाह हुआ था ।

_________________________________________________

माता जानकी युद्धकाण्ड में कहती है कि 


■●--बालां बालेन सम्प्राप्तां भार्यां मां सहचारिणीम्॥(युद्धकाण्ड ३२/ २०


आप बाल्यकाल में ही मुझे पत्नी रूप में प्राप्त किया था तब मेरी भी अवस्था बाल्य रूप ही था ।


अतः जब माता जानकी का मर्यादापुरुषोत्तम श्रीरामचन्द्र के साथ पाणिग्रहण संस्कार हुआ था तब दोनों ही बालक बालिका थे ।

______________________________________________


●-मारीच श्रीरामचन्द्र से रावण के बिषय में कहते है ।


■-- श्रीरामचन्द्र जी जब विश्वामित्र के यज्ञ सिद्धि हेतु उनके यज्ञो की रक्षा हेतु धनुषबाण लिए खड़े थे उस समय श्रीरामचन्द्र के जवानी के लक्षण (चिन्ह) प्रकट नही हुए थे वे शोभाशाली बालक के रूप में दिखाई देते थे उस समय श्रीरामचन्द्र का उदीप्त तेज उस दण्डकारण्य की शोभा बढ़ाते हुए नवोदित बालचंद्र के समान दिख पड़ते थे ।


■●--अजातव्यञ्जनः श्रीमान् बालः श्यामः शुभेक्षणः (अरण्यकाण्ड )

■●-- रामो बालचन्द्र इवोदितः॥ (अरण्यकाण्ड ३८/१४-१५)

■●--बालोऽयमिति राघवम्। (अरण्यकाण्ड  ३८/१८)


यहाँ मारीच स्पष्ट रूप से कह रहे है कि जब दण्डकारण्य में श्रीरामचन्द्र विश्वामित्र के कार्यसिद्धि हेतु धनुषबाण लिए खड़े थे तब उनकी अवस्था नवोदितबालचन्द्र के सामान था ।

ठीक इसी अध्य्याय के श्लोक संख्या ६ में तो श्रीरामचन्द्र जी के स्पष्टरूप से  आयु का ही व्याखान किया है 


■●--ऊनद्वादशवर्षोऽयमकृतास्त्रश्च राघवः॥ (अरण्यकाण्ड ३८/६)


मारीच :-- रघुकुलनंदन श्रीराम की आयु अभी बारह वर्ष से भी कम है 


अब यहाँ यह तो यह सिद्ध हो गया कि जब जनकनन्दिनी जानकी के साथ श्रीरामचन्द्र के साथ पाणिग्रहण संस्कार हुआ था तब श्रीरामचन्द्र की  आयु १२ वर्ष से भी कम था ।


इस बिषय की सिद्धि अरण्यकाण्ड के उस प्रसङ्ग से भी प्रमाणित हो जाता है जहाँ माता जानकी कहती है विवाह के पश्चात १२ वर्षो तक महाराज दसरथ के महल में समस्त मानवोचित भोग भोगे और तेरहवे वर्ष में महाराज दशरथ ने श्रीरामचन्द्र का राज्यभिषेख करने का निर्णय लिया  यहाँ १२+१३ का योग करें तो २५ वर्ष का योग निकलता है जब श्रीरामचन्द्र का दण्डकारण्य मिला था ।


और माता सीता भी ठीक यही बात कह रही है कि 


■●-मम भर्ता महातेजा वयसा पञ्चविंशकः(अरण्यकाण्ड ४७/१०)


_____________________________________________


■--विशेष

उषित्वा द्वादश समा इक्ष्वाकूणां निवेशने 

 भुञ्जाना मानुषान् भोगान् सर्वकामसमृद्धिनी(अरण्यकाण्ड४७/४-५)


अरण्यकाण्ड के इस श्लोक को लेकर वामपंथियों के पेट मे।सबसे ज्यादा दर्द उठता है अस्तु उनके कुमातो का खण्डन 


■●--बालां बालेन सम्प्राप्तां भार्यां (युद्धकाण्ड)


■●--अजातव्यञ्जनः श्रीमान् बालः श्यामः शुभेक्षणः (अरण्यकाण्ड)


■●--बालोऽयमिति राघवम्। (अरण्यकाण्ड  )


श्लोक से हो जाता है   बालक ,बालिकाओं में कामदेव की जागृति किशोरोवस्था के पश्चात ही होता है ।

अस्तु बालक बालिकाओं में काम वासना ढूढ़ना मूर्खता नही तो और क्या है ?  बिचार करे ।


#भुञ्जाना_मानुषान्_भोगान्_सर्वकामसमृद्धिनी  


से वही अर्थ ग्राह्य है जो समयानुकूल हो एक बालक ,बालिका को बाल्यकाल में क्या चाहिए ?? 

 बालक बालिका खिलौने गुड्डे गुड़िया ,पाकर ही स्वयं को धन्य समझने लगते है इस लिए तो यहाँ माता जानकी कहती है


 #भुञ्जाना_मानुषान्_भोगान्_सर्वकामसमृद्धिनी 


लेकिन वामपंथियों को क्या कहे नाम ही है वाम ,पन्थ अर्थात उल्टे रास्ते चलने वाला तो यहाँ भी वामपन्थी उल्टा अर्थ ही ग्रहण करता है 


एक बालक बालिका में सख्य सखा भाव का सम्बंध होता है काम पिपासा का नही जहाँ काम का वेग ही नही वहाँ काम का बिकार उतपन्न कैसे हो ??

उसका भी तो हेतु चाहिए न कि केवल मात्र दोषारोपण से ही बिषयों की सिद्धि हो जाय ??

यदि दोषारोपण मात्र से ही बिषयों की सिद्धि हो जाय तब तो न्यायिक व्यवस्था में ही दोष उतपन्न हो जाय जिसका परिहार सम्भव ही नही ।


इस लिए श्रुतिस्मृति का घोषवाक्य है ।


■●-आचार्यवान् पुरुषो  वेद । (छान्दोग्य उपनिषद)


■●--तद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत् समित्पाणि: श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम्  (मुंडकोपनिषद् ) 

■●-तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः (गीता)


वामपंथियों द्वारा उठाये गए प्रश्नों से विचलित न हो परम्पराप्राप्त आचार्यो के सानिध्य ग्रहण करें ।


उल्टे राह चलने वाले वामपन्थी आप को उल्टा मार्ग ही बतलायेंगे ।

आचार्यो के सानिध्य न प्राप्त होना एवं स्वाध्यायआदि अल्पता के कारण लोगो मे तद्वत बिषयों को लेकर भ्रम उतपन्न होना स्वाभाविक है ।


शैलेन्द्र सिंह

Monday 12 February 2024

गौतम बुद्ध के गृहत्याग का सच भाग --२

 


सिद्धार्थ गौतम (बुद्ध ) के बिषय में गृहत्याग की जो कथाएं प्रचलित है वह बौद्ध भिक्षु अश्वघोष कृत बुद्ध चरित्र से है अश्वघोष प्रथम शताब्दी के अंत एवं द्वितीय शताब्दी के आरंभ में हुए थे ऐसा माना जाता है 


 अश्वघोष ने अपनी  बुद्ध चरित्र की  रचना महर्षि वाल्मीकि कृत रामायण ,का अनुकरण कर किया रामोपख्यान का  इंडोनेशिया ,थाईलैंड,मोरिशश ,म्यंमार,सहित समस्त एशियाई देशों में गहरा प्रभाव रहा है भारत मे तो श्रीराम भारतीयों के रोम रोम में बसते है जिस कारण अश्वघोष भी इससे अछूता न रहा ,

इसी प्रभाव के कारण ही अश्वघोष ने बुद्ध चरित्र में , रामोपाख्यान  का  अनुकरण किया ताकि भविष्य में बुद्ध की भी प्रसिद्धि श्रीरामचन्द्र की भांति ख्यापित किया जा सके  सिद्धार्थ गौतम को श्रीरामचन्द्र की भांति ख्यापित करने के पीछे अश्वघोष की उत्कट अभिलाषा ही सिद्धार्थ गौतम के मूल इतिहास को मिटा डाला और एक काल्पनिक गाथा रच डाला जो कालक्रम के प्रवाह में सत्य की भांति ख्यापित भी हुआ ।

बुद्ध के गृहत्याग बिषय पर मैं सदा से संसयशील रहा हूँ हो सकता है आप सब मेरे बिचारो से सहमत न हो परन्तु तद्गत बिषयों को लेकर मन्थन अवश्य किया जा सकता है ।


सिद्धार्थ गौतम के गृहत्याग के बिषय में जो कथाएं प्रचलित है मुझे वे निराधार लगते है ।

जरा जन्म मरण जैसे बिषयों के लेकर द्रवित हो गृह का त्याग कर तपस्या के लिए चल पड़े और निर्वाण को प्राप्त हुए ।

सिद्धार्थ गौतम के जीवनी पर लिखी गयी सबसे प्राचिन पुस्तक बुद्ध चरित्र है जो लगभग प्रथम शताब्दी में बौद्ध भिक्षु  अश्वघोष द्वारा रची गयी थी। 


__________________________________________________

अश्वघोष कृत बुद्ध चरित्र में आये हुए प्रसङ्ग विचारणीय है 


___________________________________________________

■-प्रसङ्ग संख्या ●--१


■--वयश्च कौमारमतीत्य मध्यं सम्प्राप्य बालः स हि राजसूनुः । अल्पैरहोभिर्बहुवर्षगम्या जग्राह विद्याः स्वकुलानुरूपाः ॥( २।२४)


■--नाध्यैष्ट दुःखाय परस्य विद्यां ज्ञानं शिवं यत्तु तदध्यगीष्ट । स्वाभ्यः प्रजाभ्यो हि यथा तथैव सर्वप्रजाभ्यः शिवमाशशंसे ॥ (२।३५)


■--आर्षाण्यचारीत्परमव्रतानि (२/४३)


सिद्धार्थ गैतम ने सास्त्रनुकूल समय पर उपनयन संस्कार से संकरित हो अपने कुल परम्परा के अनुरूप विद्या आदि का अध्यय किया था एवं ऋषियों सम्बंधित समस्त व्रत और तपो का भी पालन किया था कुशाग्र बुद्धि होने के कारण अल्पकाल में ही समस्त विद्याओं का अध्ययन पूर्ण कर चुका था ।

______________________________________________________


■-प्रसङ्ग संख्या ●--२


अश्वघोष कृत बुद्ध चरित्र के  तृतीय सर्ग   श्लोक संख्या २८ से लेकर श्लोक संख्या ६० तक महत्वपूर्ण है  जहाँ किस हेतु से सिद्धार्थ गौतम ने गृहत्याग किया था ।


■●--सिद्धार्थ गौतम ने  बृद्ध ,रोग से ग्रसित रोगी ,एवं मृत ब्यक्ति को देख ब्याकुल हो उठा और गृह त्याग कर वन की ओर चल पड़ा ।

गौतम बुद्ध ने जब गृह त्याग किया था उस वक़्त तक उनका विवाह हो चुका था और एक पुत्र लाभ भी हुआ था अतः स्पष्ट है कि उनकी आयु अब लगभग 30 वर्ष की हो चली होगी ।


__________________________________________________

समीक्षा :-- सिद्धार्थ गौतम का समयानुकूल उपनयन संस्कार होना ये दर्शाता है की वे उस कुल में जन्मे थे जो विशुद्ध वैदिक धर्मी थे ,अनादिकाल से आरही वंश परम्परा कुल परम्परा के अनुकूल ही सिद्धार्थ गौतम का संस्कार एवं अध्ययनादि हुआ था बड़े ही अल्पकाल में सिद्धार्थ गौतम अध्ययनादि को पूर्ण कर लिया था अश्वघोष ने द्वितीय सर्ग के  श्लोक संख्या २४ में  #अल्पैरहोभिर्बहुवर्षगम्याजग्राह विद्याः स्वकुलानुरूपाः

लिख कर स्पष्ट किया है साथ ही साथ द्वितीय सर्ग के श्लोक संख्या ४३ में पुनः इसकी पुष्टि की है ।

अब आगे आते है 

आत्म तत्व ,जन्म मृत्यु  ,जड़ चेतन आदि  बिषय को लेकर जितना बिषद उल्लेख वैदिक धर्म मे हुआ उतना उल्लेख विश्व के किसी भी साहित्य में नही है । अतः ऐसा सम्भव ही नही की सिद्धार्थ गौतम के अध्ययन काल मे इन जैसे प्रश्नों अथवा बिषयों का उल्लेख न हुआ हो अथवा उस कालखण्ड में किस बृद्ध अथवा रोगी अथवा मृत ब्यक्ति को न देखा हो ।

 श्रुतिस्मृति इतिहासपुराणादि षड्दर्शन जैसे समुच्चय ग्रन्थ आत्मतत्व का विवेचन करता है श्रुतियों में नचिकेता जैसा बालक भी यमराज से मृत्यु का रहस्य पूछता है मृत्यु के नाम से द्रवित नही होता तो पुराण जैसे अयाख्यानों में प्रह्लाद जैसा दृढ़भक्त बालक भी मृत्यु के नाम से विचलित न हो होलिका के  गोद मे बैठ जाता है अतः जिन बिषयों को लेकर बाल्यकाल में अध्ययन के समय होना चाहिए था वही संशय  युवास्था में होना और उससे द्रवित होकर गृहत्याग करना हास्यस्पद लगता है ।


शैलेन्द्र सिंह

Friday 12 January 2024

■--मंदिर प्रसाद एक शास्त्रीय दृष्टिकोण

 ■-- मन्दिर प्रसाद एक शास्त्रीय दृष्टिकोण 



■-शिरस्त्वण्डं निगदितं कलशं मूर्धजं स्मृतं ॥

कण्ठं कण्ठमिति ज्ञेयं स्कन्धं वेदी निगद्येते ।

पायूपस्थे प्रणाले तु त्वक्सुधा परिकीर्तिता ॥

■-मुखं द्वारं भवेदस्य प्रतिमा जीव उच्यते ।

तच्छक्तिं पिण्डिकां विद्धि प्रकृतिं च तदाकृतिं ॥

निश्चलत्वञ्च गर्भोस्या अधिष्ठाता तु केशवः ।

■-एवमेव हरिः साक्षात्प्रासादत्वेन संस्थितः ॥(अग्निपुराण ६१/२३-२६)


मन्दिर का गुम्बज भाग ही देव् विग्रह का सिर है और कलश ही मन्दिर में प्रतिष्ठित देव् विग्रह  के बाल है मन्दिर का कण्ठ ही देव् विग्रह का कण्ठ है ,वेदी ही मंदिर में प्रतिष्ठित देव् विग्रह के स्कंध है नालियां ही देव् विग्रह के पायु और उपस्थ है मन्दिर का चूना ही मन्दिर में प्रतिष्ठित देव् विग्रह का चर्म है मन्दिर का द्वार ही देव् विग्रह का मुख है तथा मन्दिर की प्रतिमा ही मन्दिर प्रसाद का जीव है उसकी पिण्डिका ही शक्ति समझो तथा मन्दिर की आकृति ही मन्दिर की प्रकृति है निश्चलता ही उसका गर्भ होता है और उसके अधिष्ठाता भगवान केशव है इस तरह से भगवान श्रीहरि: स्वयं मन्दिर के रूप में स्थित होते है ।


शैलेन्द्र सिंह

Sunday 30 July 2023

शिवलिङ्ग बिषय भ्रांति का भ्रमोछेदन



शब्द अर्थों के प्रतिपादक होते है शब्दों के कारण ही हमे अर्थ (बिषय) का बोध होता है   शब्दो के मूल अर्थ का त्याग कर यदि हम मनमाना अर्थ ग्रहण करने लगे  तो अतिव्यापति  दोष लगेगा जिससे शब्दार्थ मर्यादा भी भंग हो और हम किसी निश्चित बिषय पर एकमत होंने से रहे ।

जन समुदाय में आज शिवलिङ्ग बिषय को लेकर जो भ्रांतियां वयाप्त हुई हैं वह शब्द के मूल अर्थों का त्याग कर मनमाना अर्थ ग्रहण करने के कारण ही हुआ है ।


●लिङ्ग शब्द का अर्थ संस्कृत शब्दकोश में चिन्ह प्रतीक,लक्षण ही लिया गया है 

यदि जिज्ञासा का भाव हो तो आप संस्कृत हिंदी शब्दकोश पर जाकर स्वयं ही इस तथ्य की पुष्टि कर सकते है ।

 मैं अपनी ओर से  संस्कृत हिंदी शब्दकोष का लिंक भी दे रहा हूँ चाहे तो वहाँ सर्च कर देख ले ।


https://sanskritdictionary.com/?iencoding=iast&q=%E0%A4%B2%E0%A4%BF%E0%A4%99%E0%A5%8D%E0%A4%97&lang=sans&action=Search


अस्तु न्याया,वैशेषिक, सांख्य,मीमांसादी  सिद्धांत में सभी के सभी आचार्यो ने  लिङ्ग का अर्थ चिन्ह रूप में ही ग्रहण किया यथा धूम्र अग्नि का लिंग है तो

 इच्छा,द्वेष,प्रयत्न, सुख,दुख,ज्ञान  आत्मा का लिंग ।

इंद्रियों के अपने अपने बिषयों से जो सम्बन्ध है एवं उससे भिन्न ज्ञान की उत्पति मन का लिङ्ग (लक्षण) है ।

निष्क्रमण और प्रवेश यह आकाश का लिङ्ग (लक्षण)है 


●इच्छाद्वेषप्रयत्नसुखदुःखज्ञानानि आत्मनः लिङ्गम् (न्याय दर्शन)

●युगपत्ज्ञानानुत्पत्तिः मनसः लिङ्गम् ।(न्याय दर्शन )

●निष्क्रमणं प्रवेशनमित्याकाशस्य लिङ्गम् ।( वैशेषिक-२,१.२० )

●अव्यक्तं त्रिगुणाल्लिङ्गात् । (सांख्यसूत्र-१.१३६)


  लिङ्ग शब्द से लोकप्रसिद्ध मांसचर्ममय  शिश्न यदि ग्रहण करें तो अर्थ का अनर्थ ही होगा 

और तद्वत  बिषयों की सिद्धि भी न हो ।


 

________________________________________________


शिवमहापुराण में शिवलिङ्ग को अव्यक्त अगोचर कहा गया है जो तत्वबिषय इन्द्रिय प्रमाण का बिषय ही नही उस तत्वबिशेष को पंचभौतिक मांसचर्ममय स्थूल शिश्न मानना ही मूढ़ता का परिचायक है ! 


●अनिर्देश्यं च तद्रूपमनाम कर्मवर्जितम् ।।

अलिंगं लिंगतां प्राप्तं ध्यानमार्गेप्यगोचरम् ।।(रुद्रसंहिता ७/६६)


●तो प्रश  उठता है कि शिवलिंग आखिर है क्या ?


जिससे इस सम्पूर्ण चराचरात्मक जगत् उत्पन्न होता है एवं 

जिसमे यह समस्त निखिल जगत् का लय हो जाता है वही लिंग पद वाच्य है ।


●लिंगेप्रसूतिकर्तारं (विद्येश्वर संहिता १६/१०६)

●लयनाल्लिंगमित्युक्तं तत्रैव निखिलं जगत् ।।(रुद्रसंहिता १०/ ३८ ।।)

_____________________________________________________


 पुराणों  में जहां भी शिवलिङ्ग विषय पर व्यक्तरूप से वर्णन आया है वहाँ वहाँ  ज्योतिर्मय अग्निस्वरूपा ही ग्रहण किया गया है ।

जिसकी तेजोमयी शक्ति तिनोलोको को भस्मीभूत करने वाला कहा गया है ।


●ज्योतिर्लिंगे महादिव्ये वर्णिते ते महामुने।। (शतरुद्र संहिता ४२/२१)

●गौतमस्य प्रार्थनया ज्योतिर्लिंग स्वरूपतः (शतरुद्रसंहिता ४२/३४)


●तल्लिंगेनाखिलं दग्धं भुवनं सचराचरम् (रु०सं० सतीखण्ड २९/२४)


शिवमहापुराण के विद्येश्वरसंहिता  खण्ड में ब्रह्मा और विष्णु के मध्य श्रेष्ठतम होने का विवाद होने लगा तो उन दोनों के मध्य तेजोमय महाग्नि स्तम्भ प्रकट हुआ ।


●महानलस्तंभविभीषणाकृतिर्बभूव तन्मध्यतले स निष्कलः ।

ते अस्त्रे चापि सज्वाले लोकसंहरणक्षमे ।

निपतेतुः क्षणे नैव ह्याविर्भूते महानले (विद्येश्वर संहिता ७/११-१२)


ब्रह्मा विष्णु के मध्य प्रकट हुए महाग्नि स्तम्भ को देख आश्चर्यचकित हो ब्रह्मा विष्णु ने कहा यह इन्द्रिय अगोचर अग्निरूपा क्या उठा जो अनादि है 


●अतींद्रि यमिदं स्तंभमग्निरूपं किमुत्थितम् (विद्येश्वर संहिता ७/१३)

●अनाद्यंतमिदं स्तंभम (विद्येश्वर संहिता ९/१९)


 ब्रह्मा विष्णु जैसे देवता भी उस अव्यक्त अगोचर महाग्निरूपा स्तम्भ को समझने में अस्क्य रहे तो हम जैसे क्षुद्र बुद्धि वाले मनुष्यो की क्या औकात जो उस तत्वबिषय को समझ पाए !

जो अनादि अनन्त है उस ब्रह्मतत्त्व को पूर्णरूप से जानने में भला कौन सम्सर्थ ??

 जिसका आदि और अंत न तो ब्रह्मा ही पा सके और न ही विष्णु ।उस तत्व बिषय को लेकर अल्पज्ञ अल्पश्रुत भ्रान्तवादियो का कहना है कि 

शिवलिङ्ग  पंचभौतिक मांसमय स्थूल शिश्न है  ।


अस्तु चिन्मय आदिपुरुष ही शिवलिङ्ग है समस्त पीठ अम्बामय है भगवन शङ्कर कहते है कि जो संसार के मूलकारण महाचैतन्य को और लोक को लिङ्गात्मक जानकर पूजन करता है वही मेरा प्रिय है ।

लिङ्ग चिन्ह है सर्वस्वरूप की पूजा कैसे हो इसलिए लिङ्ग की कल्पना है आदि एवं अंत मे जगत् अण्डाकृति ही रहता है अतएव ब्रह्माण्ड की आकृति ही शिवलिङ्ग है यज्ञिको के यहाँ वेदी की स्त्रीरूप, में कुण्ड को योनि रूप में , और अग्नि रुद्र की लिङ्ग रूप में उपासना होती है ।

शिवलिङ्ग में विश्व प्रसूता की दृष्टि से अर्चना करनी चाहिए क्यो की सम्पूर्ण जगत् में किसी भी प्रकार के गुण,कर्म,द्रव्य - लिङ्ग ,और योनि (कारण) के बिना सम्भव ही नही ।

जो जगत् के सृष्टि, स्थिति,लय, के कारण है उस तत्व विशेष को पाञ्चभौतिक मांसचर्ममय शिश्न मानना  मूर्खता की पराकाष्ठा ही है ।


#शैलेन्द्र_सिंह

Tuesday 15 November 2022

बिकाश दिब्यकीर्ति मत भञ्जन



आखिर बिकास दिब्यकीर्ति ने श्रीमद्वाल्मीकी रामायण से  उन प्रसङ्गो को उपदिष्ट क्यो नही किया ?

महाभारत में आये हुए रामोख्यान पर्व से ही क्यो किया ?

स्वान  की दृष्टि जूठन पर ही रहती ,और बिकाश दिब्यकीर्ति ने भी अपनी मानसिकता से स्वान होने का ही परिचय दिया ।


वामपंथी गिरोह को यदि सबसे ज्यादा चिढ़ है तो  मर्यादा पुरुषोत्तम राम से जो भारतीय संस्कृति के रोम रोम में बसता है  वही राम जो साक्षात धर्म स्वरूप है वही राम जिनकी यशोगान की गाथा युगों युगों से प्रवाहमान है यह पहली बार नही हुआ है हर कालखण्डन में ऐसे दूषण माता सीता की पवित्रता और श्रीरामचन्द्र की मर्यादाओं को तार तार करने का भरपूर प्रयास किया है ।

जिस प्रकार समस्त प्राणियों को आह्लादित करने वाला सूर्य चमगादड़ो और उल्लुओं को नही रुचता ठीक उसी प्रकार मर्यादापुरुषोत्तम श्रीरामचन्द्र धर्मदूषको को नही रुचता क्यो की धर्मदूषको को दण्ड देने का ही कार्य भगवन् श्रीरामचन्द्र ने किया था ।

_________________________________________________

■● रावण वध के पश्चात   जनकनन्दिनी जब श्रीरामचन्द्र के समक्ष उपस्थित हुई तो ।

मर्यादापुरुषोत्तम श्रीरामचन्द्र जी ने सीता को ग्रहण करने से मना कर दिया

ठीक यही वृतान्त महाभारत के रामोपख्यान पर्व में आया है 

श्रीमद्वाल्मीकी रामायण और महाभारत में तद्वत बिषयों को लेकर व्याख्यान करने की शैली भी भिन्न भिन्न है इस लिए स्वाध्यायादी अल्पता के कारण लोगो मे तद्वत बिषयों को लेकर भ्रम होना भी स्वाभाविक है ।


श्रुतियों का मत है कि जिस मंत्र बिषय आदि के द्रष्टा जो ऋषि है वही उस बिषय में प्रामाणिक माने जाएंगे ।

अतः महर्षि वाल्मीकि कृत रामायण ही श्रीरामचन्द्र माता सीता दसरथ आदि के बिषय में भी प्रामाणिक माने जाएंगे क्यो की चतुर्मुखी ब्रह्मा के अनुग्रह से ही श्रीरामचन्द्र माता सीता के गुप्त और प्रकट चरित्र का ज्ञान महर्षि वाल्मीकि को हुआ था ।


वृत्तं कथय धीरस्य यथा ते नारदाच्छ्रुतम् ।

रहस्यं च प्रकाशं च यद् वृत्तं तस्य धीमतः ॥

रामस्य सहसौमित्रे राक्षसानां च सर्वशः ।

वैदेह्याश्चैव यद् वृत्तं प्रकाशं यदि वा रहः ।। (वा० रा०बालकाण्ड २/३३/३४)


 फिर हम भला तद्गत बिषयों के लिए अन्य का अनुगमन क्यो करें ?

__________________________________________________

श्रीरामचन्द्र साक्षात धर्म स्वरूप है #रामो_विग्रहवान्_धर्मः


 उनका एक एक आचरण धर्मानुकूल होने से ग्राह्य है महाभारत में ही स्वयं श्रीरामचन्द्र के धर्मसम्मत निर्णय को ऋषिमुनि देवगण प्रसंसा करते है ।


■● पुत्र नैतदिहाश्चर्यं त्वयि राजर्षिधर्मणि। (महाभारत०रामोपख्यान पर्व    २९१/३०)


श्रीरामचन्द्र ने ऐसा क्यो किया ??

लोकापवाद के भय से यदि ऐसा न करते तो उन्हें ब्यभिचारी पुरुष होने का कलङ्क लगता जो युगों युगों से चले आरहे इक्ष्वाकु वंश के कीर्ति को ध्वस्त करता जिसका मार्जन भी न हो पाए 

श्रीमद्वाल्मीकी रामायण में इसी बिषयों को स्पष्टता से दर्शाया है ।


■●-जनवादभयाद्राज्ञो बभूव हृदयं द्विधा | (वा०रा युद्ध काण्ड ११५/११)

●-लोकापवाद के भय से श्रीरामचन्द्र का हृदय विदीर्ण हो रहा था 


० वही महारत में इसी बिषय को भिन्न शैली में दर्शाया गया है 


■● रामो वैदेहीं परामर्शविशङ्कितः (महाभारत रामोपख्यान २९१/१०)

●- श्रीरामचन्द्र जी को जनकनन्दिनी में सन्देश हुआ कि पर पुरुष के स्पर्श से सीता अपवित्र तो न हो गयी ?


इस लिए श्रीरामचन्द्र ने ऐसा वचन कहा  धर्म सिद्धांत को जानने वाला कोई भी पुरुष दूसरे के हाथ मे पड़ी हुई नारी को मुहूर्तभर के लिए भी कैसे ग्रहण कर सकता है तुम्हारा आचनर बिचार शुद्ध रह गया हो अथवा असुद्ध अब मैं तुम्हे अपने उपयोग में नही ले सकता ठीक उसी तरह जैसे कुत्ते के द्वारा चाटे गए पवित्र हविष्य को कोई ग्रहण नही करता ।


■●-कथं ह्यस्मद्विधो जातु जानन्धर्मविनिश्चयम्।

परहस्तगतां नारीं मुहूर्तमपि धारयेत् ।।(महाभारत रामोपख्यान २९१ १२)

सुवृत्तामसुवृत्तां वाऽप्यहं त्वामद्य मैथिलि।

■●-नोत्सहे परिभोगाय श्वावलीढं हविर्यथा ।।(महाभारत रामोपख्यान २९१/१३)


पूर्व और पश्चात में आये हुए श्लोकों से स्पष्ट हो जाता है कि श्रीरामचन्द्र का कथन धर्म सम्मत था जिसके बिषय में दिब्यकीर्ति ने उपदिष्ट न कर केवल एक ही श्लोक की कुटिलता पूर्वक व्यख्या कर लोगो मे भ्रामकता फैलाया ।


■●-पुत्र नैतदिहाश्चर्यं त्वयि राजर्षिधर्मणि। (महाभारत०रामोपख्यान पर्व    २९१/३०)


●-हे राम तुम राजऋषियो के धर्म पर चलने वाले हो अतः तुममें ऐसा सद्विचार होना आश्चर्य की बात नही ।


श्रीमद्वाल्मीकी रामायण में माता सीता स्वयं की पवित्रता का प्रमाण समस्त लोगो के सामने अग्निपरीक्षा दे कर की वही महाभारत में माता सीता के शुद्धि के बिषय में समस्त देवताओं स्वीकार किया और श्रीरामचन्द्र से माता जानकी को ग्रहण करने को कहा ।

(महाभारत रामोपख्यान पर्व अध्याय २९१)

___________________________________________________


बिकाश दिब्यकीर्ति जैसे धूर्त सम्पूर्ण प्रसङ्ग को न दर्शा कर केवल एक श्लोक के माध्यम से अपनी अपने मनोरथ को सिद्ध करने की जो कुचेष्टा की इससे उसके विक्षिप्त मानसिकता का ही प्रकाशन होता है 

और कुछ नही ।

___________________________________________________

एक ही बिषय को ऋषिमुनिगण भिन्न भिन्न शैली में व्याख्यान करते है जिससे भ्रम उतपन्न होना स्वभाविक है इस लिए श्रुतियाँ बार बार घोषणा करती है


■● वि॒द्वांसा॒विद्दुरः॑ पृच्छे॒दवि॑द्वानि॒त्थाप॑रो अचे॒ताः ।


नू चि॒न्नु मर्ते॒ अक्रौ॑ ॥[ऋ १/१२०/२]


■●आचार्यवान् पुरुषो हि वेद । (छान्दोग्य उपनिषद)


■● तद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत् समित्पाणि: श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम् । (मुंडकोपनिषद् ) 


शैलेन्द्र सिंह

Wednesday 11 May 2022

माता सीता अयोनिजा थी

 #माता_सीता_के_विषय_में_अज्ञता


वरुण पाण्डेय शिवाय जी के इस पोस्ट पर कुल 51 लोगो ने सहमति जताई है जिसका हमने स्क्रीनशॉट लगाया है ।



शिष्ट पुरुषों का लक्षण है कि धर्मादि बिषयों पर सप्रमाण आपने कथनों को रखा जाय तो वह सम्मानीय होता है पाण्डेय जी ने जिन मुख्य बिषयों के ओर संकेत किया है वह मुझे युक्तियुक्त जान नही पड़ते यदि कोई युक्तियुक्त प्रमाण हो तो पाण्डेय जी प्रकाशित कर अपने प्रतिज्ञा वाक्य को सिद्ध करें 

नम्बर एक (१) माता सीता का जन्म यज्ञ योग्य क्षेत्रमण्डल का हल से कर्षण करने से उनका प्रकाट्य नही हुआ था 

नम्बर (२) यदि माता सीता भूमिजा नही थी तो इसका स्पष्ट अर्थ निकलता है कि माता सीता साधारण स्त्रियों की भांति योनिज है ।

________________________________________________________


वाल्मीकि रामायण के विरुद्ध जितने भी वृत्तांत है वह अनादर्णीय है ।


इतिहासो में वाल्मीकि रामायण श्रेष्ठ है 

■--नास्ति रामायणात् परम् (स्कंद पुराण उत्तर खण्ड रा०आ० ५/२१)

क्यो की 

■--रामायणमादिकाव्य सर्वेदार्थ सम्मतं (स्कंद पुराण उत्तर खण्ड रा०आ० ५/६४)

_____________________________________________


■--धर्मस्य_सूक्ष्मतवाद्_गतिं (महाभारत)

धर्म की गति अति सूक्ष्म है अतः हम जैसे अल्पज्ञ अल्पश्रुतो में भ्रम होना स्वाभाविक भी है ।

इस लिए श्रुतियों ने स्पष्ट घोषणा की है 


■-वि॒द्वांसा॒विद्दुरः॑ पृच्छे॒दवि॑द्वानि॒त्थाप॑रो अचे॒ताः ।


नू चि॒न्नु मर्ते॒ अक्रौ॑ ॥[ऋ १/१२०/२]


■-आचार्यवान् पुरुषो  वेद । (छान्दोग्य उपनिषद)


■--तद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत् समित्पाणि: श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम् । (मुंडकोपनिषद् ) 

अतः धर्मादि बिषयों पर निज मतमतान्तर के वशीभूत हो बिषयों के अर्थ का अनर्थ करना शास्त्रो की हत्या करने जैसा बीभत्स पाप का कारण होता है ।

■--बिभेत्यल्पश्रुताद् वेदो मामयं प्रहरिष्यति (महाभारत आदिपर्व)


_________________________________________________

माता जानकी का आविर्भाव साधारण स्त्रियों की भांति नही हुआ   वे तो  अयोनिजा है 

जो भगवती देवी जगत् जननी है जो शक्ति स्वरूपा महामाया है जो समस्त जगत् की प्रसूता है उनकी प्रसूता भला कौन हो ??

इस लिए शास्त्रो में उस जगत् जननी को अयोनिजा होने का दिग्दर्शन भी कराता है तिमिर रोग से ग्रसित व्यक्ति को समस्त बिषयों में ही खोंट दिखे तो इसमें भला शास्त्र का क्या दोष ??


■---अयोनिजां हि मां ज्ञात्वा नाध्यगच्छद्विचिन्तयन् (वा०रा०२/११८/ )


■--वीर्य शुल्का इति मे कन्या स्थापिता इयम् अयोनिजा (वा०रा १/६६/१४)


माता जानकी के अयोनिजा होने की घोषणा केवल मात्र वाल्मीकि कृत रामायण ही नही अपितु विष्णुधर्मोत्तर पुराण भी करता है 


■---भूय सीता समुत्पन्ना जनकस्य महात्मनः ।। 

अयोनिजा महाभागा कर्षतो यज्ञमेदिनीम् (विष्णु धर्मोत्तर पुराण )

_______________________________________________

जो जगत् जननी दिव्य स्वरूपा है उनका आविर्भाव भी दिव्य ही होगा 

न कि साधारण स्त्रियों की भांति ??


माता जानकी जब देवी अनुसूया के मध्य सम्वाद होता है तो माता सीता कहती है ।


■--तस्य लाङ्गलहस्तस्य कर्षत: क्षेत्रमण्डलम् । 

अहं किलोत्थिता भित्त्वा जगतीं नृपते: सुता (वा०रा० २/११८/२८)


महाराज जनक यज्ञ के योग्य क्षेत्र को हाथ मे हल लेकर जोत रहे थे उसी समय मैं भूमि से बाहर प्रकट हुई ।


माता सीता द्वारा  ठीक यही वृतान्त अग्नि परीक्षण के प्रसङ्ग में भी कहा गया है 


■--उत्थिता मेदिनीं भित्वा क्षेत्रे हलमुखक्षते |

पद्मरेणुनिभैः कीर्णा शुभैः केदारपांसुभिः॥ (रामायण सुन्दर काण्ड सर्ग १८)

केवल वाल्मीकि रामायण ही क्यो वेदव्यास कृत पद्मपुराण में भी यही कथा देखने को मिलता है ।


■--अथ लोकेश्वरी लक्ष्मीर्जनकस्य निवेशने ।

शुभक्षेत्रे हलोद्धाते सुनासीरे शुभेक्षणे ॥ (पद्मपुराण ६/२४२/१००)

________________________________________________


माता जानकी के बिषय में मिथिला नरेश जनक महर्षि विश्वामित्र से कहते है 


■--अथ मे कृषतः क्षेत्रम् लांगलात् उत्थिता मम ॥

क्षेत्रम् शोधयता लब्ध्वा नाम्ना सीता इति विश्रुता ।

भू तलात् उत्थिता सा तु व्यवर्धत मम आत्मजा ॥ (वा०रा०१/६६/१३-१४)


राजा जनक के बिषय में श्री हरि: स्वयं घोषणा करते है 


कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः (गीता)


अतः मिथिला नरेश स्वप्न में भी मिथ्या भाषण न किया होगा फिर तो भूत भविष्य के द्रष्टा महर्षि विश्वामित्र के समक्ष मिथ्या भाषण कैसे करते ??

______________________________________________

माता जानकी के बिषय में वरुण पाण्डेय द्वारा अपुष्ट अप्रामाणिक कथनों के बिषय में विद्वजन बिचार करें ।।

यदि मुझसे  कोई त्रुटि हो तो विद्जनो से अनुरोध है कि विनम्रता पूर्वक उन त्रुटियों को रेखांकित करें धन्यवाद 


#शैलेन्द्र_सिंह

Monday 14 March 2022

गौतम बुद्ध के गृहत्याग का सच









सिद्धार्थ गौतम  के गृहत्याग के बिषय में जो कथाएं प्रचलित है वह यह है 

एक दिन जब वह भ्रमण पर निकले तो उन्होंने एक वृद्ध को देखा जिसकी कमर झुकी हुई थी और वह लगातार खांसता हुआ लाठी के सहारे चला जा रहा था। थोड़ी आगे एक मरीज को कष्ट से कराहते देख उनका मन बेचैन हो उठा। उसके बाद उन्होंने एक मृतक की अर्थी देखी, जिसके पीछे उसके परिजन विलाप करते जा रहे थे।


ये सभी दृश्य देख उनका मन क्षोभ और वितृष्णा से भर उठा, और गृहत्याग कर   परिव्रज्या ग्रहण किया  जब सिद्धार्थ गौतम ने परिव्रज्या ग्रहण किया तब उनकी आयु 29 वर्ष की थी । 

----------------------------■■■-------------------------------

■-सिद्धार्थ गौतम ने 29 वर्ष की आयु होने पर ही  एक बृद्ध ,रोगी और मृत व्यक्ति को पहली बार देखा होगा  यह व्याख्या तर्क की कसौटी पर कसने पर खरी उतरती प्रतीत नहीं होती. त्रिपिटक के किसी भी ग्रन्थ में भी गृहत्याग के इस कथानक का कहीं उल्लेख तक नहीं है.

■-पुनश्च प्रश्न उठेगा की फिर उनके परिव्रज्या की कथाओं का श्रोत क्या है और किसने उसे लिखा ??

सिद्धार्थ गौतम के मृत्यु के 1000 वर्ष पश्चात भदन्त बुद्धघोष इन कथाओं का सृजन किया और उसे प्रचारित प्रसारित किया ।

■--सिद्धार्थ गौतम ने परिव्रज्या के बिषय में सुतनिपात के खुद्दक निकाय में स्वयं कहते है ।

मुझे शस्त्र धारण करना भयावह लगा यह जनता कैसे झगड़ती है देखो मुझमे संवेग कैसे उतपन्न हुआ यह मैं बताता हूँ अपर्याप्त पानी मे जैसे मछलियां छटपटाती है वैसे एक दूसरे के बिरोध करके छपटाने वाली प्रजा को देख कर मेरे अन्तःकरण में भय उतपन्न हुआ चारो ओर का जगत् असार दिखाई देने लगा सभी दिशाएं कांप रही है ऐसा लग एयर उसमे आश्रय का स्थान खोजने पर निर्भय स्थान नही मिला क्यो की अंत तक सारी जनता को परस्पर विरुद्ध देख कर मेरा जी ऊब गया ।


संवेनं कित्त्यिस्सामि यथा संविजितं मया ॥ 

फ़न्दमानं पजं दिस्वा मच्छे अप्पोदके यथा ।

अज्जमज्जेहि व्यारुद्धे दिस्वा मं भयमाविसि ॥

समन्तसरो लोको, दिसा सब्बा समेरिता ।

इच्छं भवन्मत्तनो नाद्द्सासिं अनोसितं ।(खुद्दक निकाय )

----------------------------■■■--------------------------------

■--सिद्धार्थ गौतम के गृहत्याग के पीछे का सच ---

शाक्यो की राजधानी का नाम कपिलवस्तु था जहाँ सिद्धार्थ गौतम का जन्म हुआ था ।

शाक्यो का अपना संघ हुआ करता था और इस संघ से जुड़े हुए व्यक्ति को संघ के नीतियों आदर्शो एवं शाक्यो के रक्षण हेतु प्रतिबद्ध होना पड़ता था । इस संघ के सदस्य बनने के लिए न्यूनतम आयु  20 वर्ष  का था  संघ में दीक्षित होने के पूर्व संघ के नीतियों आदर्शो से  परिचय कराया जाता था उन नीति आदर्शो के रक्षण के लिए प्रतिज्ञाबद्ध होना पड़ता था उसके पश्चात जनमत संग्रह के द्वारा यह सुनिश्चित होता था कि अमुक व्यक्ति संघ से जुड़ सकता है अथवा नही ।

सिद्धार्थ गौतम को अपने वर्णाश्रम धर्म अनुसार वेद वेदाङ्ग एवं क्षात्र धर्म अनुरूप शिक्षण दिक्षण हुआ था सिद्धार्थ गौतम जब 20 वर्ष के हुए तब संघ से जुड़ने के लिए आमंत्रण भेजा गया सिद्धार्थ गौतम ने उस आमंत्रण को स्वीकार कर संघ में जुड़ने के इच्छुक हुए ।

संघ के सेनानायक ने संघ के नीतियों आदर्शो को सिद्धार्थ गौतम के समक्ष प्रेसित किया सिद्धार्थ गौतम संघ के नीति आदर्शो को पढ़ कर पूर्ण रूप से संतुष्ट हुए एवं भरी सभा मे प्रतिज्ञा ली कि मैं संघ के नीतियों आदर्शो का पालन अक्षरसः रूप से करूँगा यदि किसी भी प्रकार से मैं दोषी पाया जाता हूँ तो संघ अपने नीतियों के अनुरूप मुझे दण्ड का भागी भी बना सकता है ।

----------------------------■■■---------------------------------


संघ से जुड़े सिद्धार्थ गौतम को अब 8 से 9 वर्ष बीत चुके थे यही वह समय था जब सिद्धार्थ गौतम के जीवन मे वह घटनाएं घटती है फलस्वरूप उन्हें मजबूरन गृहत्याग करना पड़ा ।

शाक्यो के राज्य से सटा हुआ कोलियों का राज्य था रोहिणी नदी दोनों राज्यो के विभाजक रेखा थी ।

शाक्यो और कोलियों दोनों ही अपने राज्य में सिंचाई के लिए रोहिणी नदी के ऊपर दोनों राज्य निर्भर था ।

पानी को लेकर ही शाक्यो और कोलियों के मध्य झगड़ा हुआ और बात यहाँ तक आ पहुची की दोनों के मध्य युद्ध का माहौल बना ।

इस बिषय को लेकर शाक्यो ने संघ का अधिवेशन बुलाया और उस सभा मे सभी ने अपने अपने पक्ष का प्रस्ताव रखा ।

संघ के सेनानायक युद्ध के पक्ष में था और सिद्धार्थ गौतम युद्ध के विरुद्ध अपना मत दिया की युद्ध समस्या का हल नही है ।

इस बिषय को लेकर पुनः जनमत संग्रह हुआ ।

जनमत संग्रह में संघ के सेनानायक को ही प्रधानता मिली और सिद्धार्थ गौतम का पक्ष बहुत बड़े बहुमत से अमान्य सिद्ध हुआ 

दूसरे दिन सेनानायक ने संघ की पुनः सभा बुलाई ।

जब सिद्धार्थ गौतम ने देखा कि जनमत संग्रह में उसे पराजय का मुह देखना पड़ा तब सभा को सम्बोधित करते हुए सिद्धार्थ गौतम ने कहा मैत्रो आप जो चाहो कर सकते हो आप के साथ जनमत संग्रह है लेकिन मुझे खेद के साथ यह कहना पड़ रहा है कि मैं आप सभी के मत का बिरोध करता हूँ मैं किसी भी प्रकार से युद्ध मे भाग नही लूंगा 

तब संघ के सेनानायक ने सिद्धार्थ गौतम को सम्बोधन करते हुए कहा सिद्धार्थ उस शपथ को तुम याद करो जब संघ के सदस्य बनते समय ग्रहण किया था ।

यदि तुम अपने वचनों का पालन न करोगे तो तुम दण्ड का भागी भी बन सकते हो ।

संघ अपनी आज्ञा की अवहेलना करने वाले को फांसी की सजा अथवा देशनिकाला घोषित भी किया जा सकता है ।

केवल इतना ही नही संघ तुम्हारे परिवार को सामाजिक बहिष्कार भी कर सकता है ।

इस लिए इन तीनो में से एक का चुनाव तुम कर सकते हो

(१) सेना में भर्ती हो युद्ध मे भाग लो 

(२) फांसी पर लटकना अथवा देशनिकाला स्वीकार करो 

(३) अपने परिवार का सामाजिक बहिष्कार एवं खेतो की जब्ती 


सेनानायक के इन वचनों को सुन कर सिद्धार्थ गौतम ने कहा कृपया मेरे परिवार को दण्डित न करे उसका सामाजिक बहिष्कार न करें वे निर्दोष है मैं अपराधी हूँ ।

इस लिए दण्ड का पात्र भी मैं ही हूँ ।

इस लिए मैंने एक आसान रास्ता चुना है  की मैं परिव्राजक बन देश से बाहर चला जाऊं ।

---------------------------------■■■------------------------------

सिद्धार्थ गौतम संघ के नीतियों के विरुद्ध गया फलस्वरूप वे दण्ड के पात्र भी बने और देश निकाला घोषित किया गया जिसे परिव्रज्या के नाम से प्रचारित प्रसारित किया गया ।

मैंने अपने प्रमाण में जिन लेखों का उद्धरण दिया है उस पुस्तक का स्क्रीन शॉट भी प्रेसित कर रहा हूँ ताकि लोग यह न समझे कि मैंने अपने मतों की पुष्टि के लिए केवल कपोलकल्पित शब्दो का सहारा लिया ।

पुस्तक के लेखक :--बौद्धाचार्य भदन्त आनन्द कौशल्यायन 

एवं श्रीमान भीमराव अंबेडकर जी है ।

इनके लेखों को अब तक बौद्ध मत के किसी भी सम्प्रदाय ने खण्डन नही किया क्यो की वे भी जानते है कि बुद्ध के परिव्रज्या ग्रहण के बिषय में त्रिपिटिक आदि ग्रन्थों में कोई उल्लेख नही है ।


#शैलेन्द्र_सिंह