Saturday 11 July 2020

स्त्रियां और वेद

#शंका_समाधान

#शंका:-- स्त्रियों को वेदाध्ययन में अधिकार क्यो नही ?जबकि गार्गी, मैत्रेयी, लोपामुद्रा जैसी कई विदुषियां हुई हैं जो स्वयं वेदो के मन्त्रद्रष्टा भी रह चुकी है ऐसे में स्त्रियों को वेदाध्ययन में अनाधिकार क्यो ?

#समाधान:-- मन्त्रद्रष्टा वे है जो यमनियम आदि का आचरण कर  अपने तपःपूत के बल पर मन्त्रो का साक्षात्कार करते है

ऋषिर्मन्त्रद्रष्टा ॥ गत्यर्थत्वात् ऋषेर्ज्ञानार्थत्वात् मन्त्रं दृष्टवन्तः ऋषयः ॥' ( श्वेतवनवासिरचितवृत्तौ उणादिसूत्रं ४॥१२९ द्रष्टव्यम्)

वेद कहता है तपस्या से ब्रह्म को जानो क्योंकि तप ही ब्रह्म है – तपसा ब्रह्म विजिज्ञासस्व| तपो ब्रह्मेति| – तैत्तिरीयोपनिषत् / भृगुवल्ली / ०

इतिहास पुराणाभ्यां वेदं समुपवृंहयेत्। बिभेत्यल्प श्रुताद् वेदो मामयं प्रहरिष्यति।। अर्थात् इतिहास पुराण से ही वेद को समझना चाहिए। इनको नहीं जानने वाले से वेद भी डरता है कि यह मेरी हत्या कर देगा।

स्त्रियों के लिए स्वधर्मपालन पतिशुश्रूषा ही तप है यज्ञ है

नास्ति यज्ञः स्त्रियाः कश्चिन्न श्राद्धं नोप्रवासकम्।
धर्मः स्वभर्तृशुश्रूषा तया स्वर्गं जयन्त्युत।।(महाभारत अनुशाशन पर्व ४६/१३)

स्त्रीभिरनायासं पतिशुश्रूषयैव हि ।।(विष्णु पुराण ६-२-३५ )

 नास्ति स्त्रीणां पृथग्यज्ञो न व्रतं नाप्युपोषणम् ।
पतिं शुश्रूषते येन तेन स्वर्गे महीयते । (मनुस्मृति ५/१५५)

धर्मशास्त्रों में स्प्ष्ट कहा है स्त्री तन ,मन ,धन से अपनी पति की सेवा करे वही उसका यज्ञ ,तप,व्रत है उसी से वे अनायास धर्म की सिद्धि प्राप्त कर लेती है   मन्वादि प्रबल शास्त्र प्रमाणों से सिद्ध है कि अपनी तपस्या से पूर्वकाल में स्त्रियां वेद मन्त्रो का साक्षात्कार कर लेती थी उनकी तपस्या क्या है ? स्वधर्म पर चलने से उनको वेद्य तत्त्व का ज्ञान हो जाता था वो तपस्या है स्वधर्मपालन, देव, द्विज, गुरु, प्राज्ञों का पूजन , आर्जव , इन्द्रियों पर निग्रह , अहिंसा , इसी से वे स्त्रियाँ सिद्धि  को प्राप्त कर लेती थी ऐसे में यह सिद्ध नही होता कि स्त्रियी को वेदाध्यन में अधिकार हो क्यो की स्मृति, इतिहास ,पुराणादि समस्त धर्म शास्त्र में स्त्रियों को वेदाध्ययन का अनाधिकारी ही कहा क्यो की #तमुपनीय (छा०उ०) श्रुतियों का स्प्ष्ट आज्ञा है वेदविद्या में प्रवेश करने के पूर्व उपनयन सँस्कार आवश्यक है बिना उपनयन के वेदविद्या में प्रवेश का अधिकार तो ब्राह्मणो तक को नही फिर जिनका उपनयन ही न हो उसको वेदविद्या में अधिकार कैसे ? स्त्रियों के उपनयन संस्कार के बिषय में इतिहास,पुराणादि शास्त्रो में अभाव है ।

अमन्त्रिका तु कार्येयं स्त्रीणां आवृदशेषतः ।। (मनुस्मृति)

वैवाहिको विधिः स्त्रीणां संस्कारो वैदिकः स्मृतः (मनुस्मृति)

 जिस कारण वेदाध्ययन का उन्हें अधिकारी नही माना गया है

 वेदे पत्नीं वाचयति न स्तृणाति (शङ्खायन श्रौतसूत्रम् ८/१२/९)

स्त्रीशूद्रद्विजबन्धूनां त्रयी न श्रुतिगोचरा " ( श्रीमद्भागवत १.४.२५)


Friday 10 July 2020

गुरु_लक्षण_और_स्कूली_शिक्षक_भाग_3



तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ।(गीता)

श्रुतिप्रामाण्यतो विद्वान्स्वधर्मे निविशेत वै ।
श्रुतिस्मृत्युदितं धर्मं अनुतिष्ठन्हि मानवः ।। (मनुस्मृति)

कार्याकार्यव्यवस्था में शास्त्र ही प्रमाण है जन्म से लेकर मृत्यु पर्यंत जितने भी संस्कार है उनमें शास्त्रो का स्पष्ट घन्टाघोष है की कैसे उसे आचरण में लाया जाए फिर वेदविद्या आदि तथा आचार्यो के प्रति शास्त्र मौन कैसे रहे ?
लौकिक तथा पारलौकिक कल्याण हेतु मोक्षरूपी विद्या प्रदान करने वाले गुरु अथवा आचार्य का लक्षण क्या है और कौन इसका अधिकारी है शाश्त्रो ने बृहदरूप से इस पर प्रकाश डाला है

एतद्‍देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मन:।
  स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन पृथिव्यां सर्वमानवा:॥(मनुस्मृति)
जो अग्रजन्मा है उसी से पृथ्वी के सभी मानव अपना आचार बिचार सीखें ।

ब्राह्मण सभी वर्णो में।अग्रजन्मा है
ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद् (ऋग्वेद)
उत्तमाङ्गोद्भवाज्ज्येष्ठ्याद्ब्रह्मणश्चैव धारणात् ।
सर्वस्यैवास्य सर्गस्य धर्मतो ब्राह्मणः प्रभुः (मनुस्मृति १.९३ )

वेदादि शास्त्रो में ब्राह्मण को मुख कहा गया है !
वाक् और बुद्धि  ही अंग प्रत्यंग से लेकर साम्राज्य तक का शाशन करता है यह दृष्टान्त जगत में देखा जाता है जिस कारण किस वर्ण का क्या आचरण है यह ब्राह्मण से ही जानना चाहिए क्यो ?
क्योकि
वर्णानां ब्राह्मणः प्रभुः (मनुस्मृति १०.३ )
उत्पत्तिरेव विप्रस्य मूर्तिर्धर्मस्य शाश्वती ।(मनुस्मृति )
ब्राह्मणो जायमानो हि पृथिव्यां अधिजायते ।(मनुस्मृति)
पृथग्धर्माः पृथक्शौचास्तेषां तु ब्राह्मणो वरः।।(महाभारत -- आदिपर्व ८१/२०)

ब्राह्मण स्वयं धर्म स्वरूप है ।
जिस कारण श्रुतिस्मृति आदि ग्रन्थों में ब्राह्मण के सानिध्य में ही  अध्ययन अध्यापन और आचार बिचार की शिक्षा ग्रहण करने का आदेश दिया गया है

गुरुर्हि सर्वभूतानां ब्राह्मणः(महाभारत आदिपर्व १/२८/३५)
अधीयीरंस्त्रयो वर्णाः स्वकर्मस्था द्विजातयः ।
प्रब्रूयाद्ब्राह्मणस्त्वेषां नेतराविति निश्चयः । ।
सर्वेषां ब्राह्मणो विद्याद्वृत्त्युपायान्यथाविधि ।
प्रब्रूयादितरेभ्यश्च स्वयं चैव तथा भवेत् । । (मनुस्मृति १०/१-२)
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् (श्रीमद्भागवतगीता १८- ४२ )
वृत्त्यर्थं याजयेदज्वान्यानन्यानध्यापयेत् तथा ।
कुर्यात् प्रतिग्रहादानं गुर्वर्थं न्यायतो द्रिजः (विष्णु पुराण ३/२३ )
सास्त्रज्ञा नित्य है और सास्त्रज्ञा मानने वाला ही ईश्वर का आराधना करता है सास्त्र द्रोही नही विष्णुपुराण का उद्घोष है अब उसे न मान मनमाना आचरण को ही धर्म मान ले तो उससे बड़ी और मूर्खता क्या ।

वर्णास्वमेषु ये धर्माः शास्त्रोक्ता नृपसत्तम ।
तेषु तिष्ठन् नरो विष्णुमाराधयति नान्यथा ।(विष्णु पुराण ३/ १९ )
कहाँ श्रुतिस्मृति प्रोक्त वर्णाश्रमधर्म  आचरित गुरु तो कहाँ  भौतिक शिक्षा के बल पर प्राप्त किया हुआ संवैधानिक पद  अतः यह नीतान्त भ्रामक प्रचार है कि स्कूली शिक्षक और गुरु समतुल्य है


श्रोतीय_गुरू_और_स्कूली_शिक्षक_भाग__2



जीवो को जो मोक्ष मिलता है वह जीवो का एक प्रकार से जन्म ही है जिससे जीव के स्वरूप का पूर्ण बिकाश होता है , सांसारिक जन्म और मोक्षरूपी जन्म में यही अन्तर है ,
मोक्षरूपी जन्म सांसारिक जन्मो को नष्ट कर देता है  क्यो की मोक्ष पद पर पहुचने पर जीव को पुनः संसार मे जन्म लेना नही पड़ता ,
 इस प्रकार अन्यान्य जन्मो को नष्ट करने वाले मोक्षरूपी विशिष्ट जन्म का प्रदान करना श्रीभगवन का असाधारण कार्य है यह विशेषता श्रीभगवन में ही है वैसी ही विशेषता आचार्य  में है, क्यो की आचार्य सांसारिक जन्मो को नष्ट करने वाले विद्याजन्म का प्रदान करते है ,
श्री भगवन भक्तो को दिब्य दृष्टि देने में सामर्थ्य रखते है वैसे ही आचार्य भी दिब्य दृष्टि देने में समर्थ है अतएव शिष्य आचार्य के द्वरा अनुपदिष्ट अर्थो को समझने की क्षमता रखते है आचार्य प्रवर श्रीवेदव्यास
जी ने सञ्जय को दिब्य दृष्टि और दिब्य श्रोत प्रदान किया था जिससे सञ्जय विश्वरूप को देखने और गीतोपदेश को सुनने में समर्थ हुए थे इससे सिद्ध होता है कि दिब्य दृष्टि देने में ईश्वर और आचार्य दोनों ही सामर्थ्य रखते है ।

दिब्य दृष्टि तथा मोक्ष रूपी विद्या की प्राप्ति श्रोतीय गुरु से ही प्राप्त हो सकता है भौतिकवादी शिक्षकों से नही भौतिक वादी शिक्षक केवल मात्र उदर पूर्ति तक ही सीमित है
अतः यह कहना नीतान्त भ्रामक है कि श्रोतीय गुरु और भौतिक शिक्षविद दोनों समतुल्य है ।

भाग 3 कल प्रसारित किया जाएगा ।


श्रोतीय गुरु और स्कूली शिक्षक



भारतीय जनमानस में आज समस्त बुद्धिजीवी गण इस विचार से ग्रसित है कि शिक्षक ही गुरु है ।
यह एक प्रकार का भ्रांत है गुरु और शिक्षक में भेद है ।
गुरु वे होते है जो श्रोतीय है जो श्रुतिस्मृति प्रोक्त अध्यात्म ज्ञान से परिपूर्ण वेदविद्या में पारंगत है जिन्हें समस्त संस्कार का ज्ञान हो यज्ञयाज्ञ उपनयन संस्कार आदि कर्मकाण्ड  किस कालखण्ड में किस नक्षत्रादि के लग्न में किया जाय तो मनुष्य का लौकिक और पारलौकिक कल्याण निश्चित हो जाय जो जन्ममरण बन्धन से मुक्त करने में सहायक हो जिस प्रकार ईश्वर दिब्य दृष्टि देने में सामर्थ्य है उसी प्रकार एक श्रोतीय गुरु दिब्य विद्या देने में समर्थ है जिससे शिष्य भूतभविष्य के द्रष्टा बन सके ये गुरु के स्वाभाविक लक्षण है जो शिक्षकों में नगण्य है ।

 वही  आजकल के स्कूली शिक्षक भौतिक शिक्षा को ही लक्ष्य मान कर केवल लौकिक सुख तक सीमित मात्र है एक ऐसी शिक्षा जो केवल मात्र उदर पोषण तक ही सीमित है ,
 न ही पारलौकिक कल्याण न ही अध्यात्म चर्मोत्कर्ष की अनुभूति न ही भविष्परिणामी व्यवस्था पर कोई विशेष व्यवस्था

अतःस्कूली शिक्षकों को गुरु के समतुल्य कहना निश्चय ही भ्रांत है ।

आज भाग 1