Tuesday 6 December 2016

पाणिनि कालीन भारत

पाणिनि सूत्रों में पठित निश्चित स्थान नामो की सहायता से पाणिनि कालीन भौगोलिक बिस्तार का परिचय मिलता है उत्तर पश्चिम में कापिषी(४/२/६९) का उल्लेख मिलता है यह नगरी प्राचीन काल में अतिप्रसिद्ध राजधानी थी काबुल से लगभग ५० मिल उत्तर इसके प्राचीन अवशेष मिलते है यहाँ से प्राप्त एक शिलालेख में इसे कपिषा कहा गया है आजकल इसका नाम बेग्राम है कापिषि से भी और उत्तर में कम्बोज (४/१/१७५ पा ०सूत्र) जनपद था जहाँ इस समय मध्य एशिया का पामीर पठार है कम्बोज के पूर्व में तारिम नदी के समीप कूचा प्रदेश था जो सम्भवतः वहीँ है जिसे पाणिनि ने कुच वार (४/३/९४) में कहा है तक्षशिला के दक्षिण पूर्व में मद्र जनपद (४/२/१३१) था जिसकी राजधानी शाकल (बर्तमान) स्यालकोट थी मद्र के दक्षिण में उशीनर (४/२/११८) और शिबि जनपद थे बर्तमान पंजाब का उत्तर पूर्वी भाग जो चंबा से कांगड़ा तक फैला हुआ है प्राचीन त्रिगर्त देश था सतलुज,व्यास,और रावी,इन तीन नदियों की घाटियों के कारण इसका नाम त्रिगर्त पड़ा (पा०सूत्र ५/३/११६)दक्षिण पूर्व पंजाब में थानेश्वर कैथल करनाल पानीपत का भूभाग भरत जनपद था इसी का दूसरा नाम प्राच्य भरत (पा०सूत्र ४/२/११३) भी था क्यों की यहीं से देश के उदीच्य और प्राच्य इन दो खण्डों की सीमाएं बंट जाती थी दिल्ली मेरठ का प्रदेश कुरु जनपद (४/१/१७२) कहलाता था उसकी राजधानी हस्तिनापुर था अष्टाध्यायी में उसका रूप हस्तिनापुर (४/२/१०१) है गंगा और रामगंगा के बीच में प्रत्यग्रथ  नामक जनपद(४/११७१) था जिसे पांचाल भी कहा जाता था मध्यप्रदेश में कोशल (४/१/१७१) और काशी (४/२/११६) जनपदों का नाम उल्लेख किया गया है इससे पूर्व में मगध (४/१/१७०) जनपद था पूर्वी समुद्र तट पर कलिंग देश था इस समय महानदी बहती है (४/१/१७०) में पाणिनि में सुरमस जनपद का नामोउल्लेख किया है इसकी पहचान असम प्रांत की सुरमा नदी की घाटी और गिरी प्रदेश से की जा सकती है इस प्रकार पश्चिम में कम्बोज (पामीर) से लेकर पूरब के कामरूप असम के छोर तक फैले हुए जनपदों का तांता अष्टध्य्यायी में पाया जाता है पश्चिम के समुद्रतटवर्ती कच्छ जनपद (४/२/१३३) और दक्षिणमे गोदावरी तटवर्ती अस्मक जनपद (४/१/१७३) का भी नामोउल्लेख था  अस्मक की राजधानी प्रतिष्ठान थी जो गोदावरी के बाएं किनारे बम्बई और हैदराबाद की सीमा पर बर्तमान पैठण है कलिंग और अस्मक एक ही अक्षांश रेखा पर थे उत्तर के पहाड़ में हिमालय का नाम हिमवत (४/४/११२) आया है पाणिनि को भारतीय समुद्रों का भी परिचय था  कर्क की अयनांश रेखा कच्छ भुज से अनार्ट अवंति जनपदों को पार करती हुई सुरमस तक चली गई है इसके दक्षिण में भारतवर्ष का भूभाग अंतरयन कहलाता था पाणिनि ने देश के उदीच्य और प्राच्य इन दो भागो  का उल्लेख किया है इन दोनों के बीच भरत जनपद था जहाँ इस समय कुरुक्षेत्र है प्राच्य भरत पद पर पतञ्जलि ने लिखा है कि वस्तुतः प्राच्य देश भरत के पूरब से प्रारम्भ होता था पाणिनि ने शरावती नदी का उल्लेख (शारदीनां च ६/३/१२०)किया है नागेश के एक प्राचीन श्लोक का प्रमाण देते हुए लिखा है कि शरावती प्राच्य और उदीच्य देशों की बिच की सीमा थी अमरकोश से ज्ञात होता है कि गुप्त काल में भी शरावती उदीच्य और प्राच्य के बीच की सीमा मानी जाती थी और वही प्राची और उदीच्य की सीमा को अलग करती थी पाणिनि की दृष्टि में प्राच्य और उदीच्य दोनों प्रदेशो में बोली जाने वाली भाषा  शिष्टसम्मत थी उसके शब्द ब्याकरण के बिषय थे शब्दो के शुद्ध रूप जानने के लिए जिस लोक का प्रमाण दिया जाता था वह यही था गांधार और वाहीक दोनों मिलकर उदीच्य कहलाते थे सिंधु और शतद्रु तक का प्रदेश वाहीक था जिसके अंतर्गत मद्र उशीनर और त्रिगर्त थे तीन मुख्य भाग थे तक्षशिला से काबुल तक का प्रदेश गांधार कहलाता था पाणिनि की समकालीन संस्कृत भाषा  का क्षेत्र गांधार से प्राच्य तक फैला हुआ था पाणिनि लगभग पांचवी शताब्दी बिक्रम पूर्व में हुए थे उसके लगभग दो शती पीछे यवनों का और शको का आगमन इस देश में हुआ था शक और यवन के कारण बाल्हीक और गंधार प्रदेश भारतवर्ष के राजनैतिक सिमा से कुछ काल के लिए अलग हो गए थे और उसके साथ संस्कृत सम्बन्ध में ढील पड़ने लगे थे और इस लिए पतञ्जलि भाष्य में शक और यवनों के प्रदेश को आर्याव्रत को बाहर कहा और भाषा भेद के कारण उन्हें शिष्ट संस्कृत क्षेत्र से अलग समझा पतञ्जलि के दृष्टि में आर्याव्रत की शिष्टजनो की भाषा प्रतिमानित संस्कृत थी और तत्कालीन संकुचित आर्यवर्त हिमालय के दक्षिण परियात्र पर्वत के उत्तर आदर्श के पूर्व और कालक वन पश्चिम अवस्थित था आदर्श प्रायः आदर्शन या सरस्वती नदी को सुख जाने (विनशन) का प्रदेश समझाजाता है किन्तु काशिका में उसे एक जनपद के नाम से कहा गया है (४/२/१२४) और नागेश ने उसे कुरुक्षेत्र की पहाड़ी कहा है कालका वन पाली साहित्य के अनुसार साकेत एक भाग था इस प्रकार हम देखते है की राजनैतिक कारणों से पतञ्जलि के समय आर्याव्रत की सीमाएं काफी सिकुड़ गई थी पतञ्जलि ने शक यवन किष्किन्धा गब्दिक और सौर्यकौंच को आर्याव्रत को सीमा से बाहर कहा एक
किष्किन्धा गोरखपुर में था जिसे पाली साहित्य में खुखुन्दो कहा चंबा रियासत के गद्दी प्रदेश के प्राचीन नाम गाब्दिक था और वह पतञ्जलि के समय बाहर समझा जाता था किन्तु पाणिनि के समय गंधार से मगध तक संस्कृत भाषा का अखण्ड प्रवाह फैला हुआ था उसी समय प्राच्य और उदीच्य दो स्वाभाविक भाग माने जाते थे ।