Tuesday 9 June 2020

राष्ट्रीय धर्म

अपना राष्ट्रिय धर्म क्या है ?
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आप पूछ सकते हैं कि यह भी कोई प्रश्न है भला ? परन्तु यह प्रश्न बनता है । जब भाषा राष्ट्रिय हो सकती है फल फूल , पशु पक्षी , नदी नाले , झंडा और पार्टियाँ तक राष्ट्रिय हो सकती है तो फिर धर्म ने ही कया बिगाडा है , धर्म क्यो नहीं राष्ट्रिय हो सकता ?
आप कहेंगे कि हमारा कोई धर्म राष्ट्रिय इसलिये नहीं हो सकता क्योंकि हम धर्मनिरपेक्ष हैं ।परन्तु प्रश्न तो फिर भी वही है कि हम धर्म निरपेक्ष क्यों हैं  ?  आप कहेंगे कि इस देश में अनेक धर्म हैं इसलिये किसी एक धर्म को राष्ट्रिय नहीं बनाया जा सकता , परन्तु यही बात तो भाषा आदि के सम्बन्ध में भी कहीं ही जा सकती है । इस देश में भाषायें अनेक हैं ,फिर भी उनमें से एक भाषा को राष्ट्रभाषा स्वीकर किया गया है । अनेक ध्वज हैं  , फिर भी एक ध्वज को राष्ट्रध्वज स्वीकार किया गया है ।अनेक गीत हैं , फिर भी उनमें से एक गीत को राष्ट्रगीत स्वीकार किया गया है ।इसी तरह अनेक धर्मों के होते हुए भी किसी एक धर्म को राष्ट्रिय धर्म या राष्ट्रधर्म क्यों नहीं स्वीकार किया जा सकता ?
आप कहेंगे कि भाई हम तो सर्वधर्मसमभाव में विश्वास करते हैं । हमारे लिये धर्मनिरपेक्षता का यही अर्थ है कि हमारे लिये सभी धर्म समान हैं । परन्तु क्या इसका मतलब यह नहीं हुआ कि आपके लिये धर्म तो सभी समान हैं परन्तु भाषा आदि कुछ भी समान नहीं हैं ।अब यदि भाषा आदि कुछ भी समान नहीं है तो फिर धर्म ही कैसे समान हो गये ? और यदि सभी भाषा आदि के एक समान होने पर भी उनमें से एक राष्ट्रभाषा हो सकती है , एक राष्ट्रगीत हो सकता है , राष्ट्रिय पशु पक्षी तक हो सकते है तो उसी तरह सभी धर्मों के भी एकसमान होने पर भी उनमें से कोई एक राष्ट्रधर्म क्यों नहीं हो सकता ? सभी नागरिकों की समानता को स्वीकार  करने पर भी उनमें से कोई एक ही राष्ट्रपति , प्रधानमन्त्री , मन्त्री ,मुख्यमन्त्री , एम् पी , एम् एल् ए आदि बनता है ।इससे यह सिद्ध होता है कि समानता सर्वांश में नहीं होती । यदि सर्वांश में समानता हो तो पदार्थों में भेद ही समाप्त हो जाये ।पदार्थों की विशेषता ही उन्हें एक दूसरे से अलग करती है ।इसी विशेषता के आधार पर ही पदार्थों के साथ व्यवहार होता है । कोई पदार्थ उपादेय होता है तो कोई हेय तो कोई उपेक्ष्य ।सभी समान हों तो क्यों कोई हेय है तो दूसरा उपादेय ? फिर तो क्यों किसी विशेष गीत , विशेष ध्वज , विशेष पशु , विशेष पक्षी को ही राष्ट्रिय स्वीकार किया गया ? इसलिये मानना पडेगा कि पदार्थों में किसी अंश में समानता होती है तो किसी अंश में विशेषता भी होती है । उसी विशेषता केआधार पर ही किसी भाषा को राष्ट्रभाषा , किसी ध्वज को राष्ट्रध्वज और किसी गीत को राष्ट्रगीत स्वीकार किया गया  है ।अब प्रश्न यह उठता है कि वह कौन सी विशेषता हो सकती है जिसके कारण कोई भी चीज  राष्ट्रिय बनती है , कोई एक गीत राष्ट्रगीत बनता है तो कोई एक ध्वज ही राष्ट्रध्वज बनता है ? इस प्रश्न का यही उत्तर सम्भव है कि जिस किसी वस्तु या पदार्थ का सम्बन्ध पूरे राष्ट्र के साथ हो ,जिससे किसी राष्ट्र के निवासियों में अपने राष्ट्र की एकता और अखंडता का बोध हो  और उसके प्रति श्रद्धाभाव उत्पन्न हो , उसे राष्ट्रिय माना जाना चाहिये ।
अब जरा सोचो ,यह विशेषता अपने राष्ट्रध्वज , राष्ट्रगीत  , राष्ट्रभाषा  , राष्ट्रिय पशु , राष्ट्रिय पक्षी आदि आदि में है क्या ? ध्वज तो एक जड पदार्थ है । वह भला कैसे किसी पदार्थ के स्वरूप का बोध करा सकता है और यदि बोध नही करा सकता तो फिर उसके प्रति श्रद्धाभाव कैसे पैदा करेगा ? यही बात पशु पक्षी आदि जितनो के ऊपर राष्ट्रिय का सिक्का लगा है , सभी के विषय में कही जा सकती है ।अब रही बात राष्ट्रगीत की , तो गीत कोई भी हो , वह शब्द स्वरूप होता हैै , और शब्द बोधक  होता है  इसलिये  जनगणमन  यह गीत भी बोधक तो है मगर किसका ? क्या यह गीत इस देश के नाम और स्वरूप का तथा इसदेश के माहात्म्य का बोध कराता है ? नहीं कराता । इस गीत में भारत शब्द तो है , लेकिन ,ध्यान दीजिये कि इस गीत में जय भारत की नहीं बल्कि भारतभाग्यविधाता की बोली गयी है ।इस भारतभाग्यविधाता को जनगणमन अधिनायक कहा गया है ।यह जनगणमन अधिनायक क्या होता है ? अधिनायक शब्द का  संस्कृत में प्रयोग नहीं होता ,हिन्दी में होता है और हिन्दी में यह उसी अर्थ में प्रयुक्त होता है जिस अर्थ में अंग्रेजी का डिक्टेटर या उर्दू का तानाशाह प्रयुक्त होता है। तो इस गीत में जनगण के मन के अधिनायक अर्थात् तानाशाह की जय यह कह कर बोली गयी है कि वह भारत के भाग्य का विधाता है ।अब वह तानाशाह कौन है यह तो इस गीत में स्पष्ट नहीं है पर यह एकदम स्पष्ट है कि इसमें भारत की जय तो नहीं ही बोली गयी है ।तो फिर इस गीत का सम्बन्ध  भारत नाम के राष्ट्र के साथ कैसे हुआ ? आखिर कोई वस्तु राष्ट्रिय तभी हो सकती है जब उसका सम्बन्ध पूरे राष्ट्र के साथ हो और उससे उस राष्ट्र की एकता और अखंडता के बोध के साथ उनके प्रति श्रद्धा भाव उत्पन्न हो  । यह एकदम स्पष्ट है कि अपने इस देश में  ध्वज आदि जितनी भी वस्तुओं के पूर्व राष्ट्र शब्द लगा कर उन्हें राष्ट्रिय बताने की कोशिश होती है  , उनकी तरह ही यह गीत भी राष्ट्रीयता की कसौटी पर खरा नहीं उतरता , फिर भी  इन पर राष्ट्रीय होने का लेबल लगा दिया गया है ।ये क्यों राष्ट्रिय हैं ? इनके राष्ट्रिय होने का मतलब ही क्या है ? यदि बिना किसी मतलब के ही ये राष्ट्रिय है तो फिर धर्म भी क्यों नहीं राष्ट्रिय माना जाता  , जब कि इन सभी राष्ट्रगीत ,राष्टध्वज आदि से एकदम विपरीत धर्म में तो वे सारी विशेषताएँ विद्यमान हैं जिनके कारण किसी वस्तु को राष्ट्रिय स्वीकार किया जा सके ? यदि धर्म में नहीं हैं तो फिर ध्वज गीत आदि किसी भी वस्तु में नहीं  हैं ।
यह सोचने की , विचार  करने की बात है  --- क्या इस देश का इतिहास 1947  से शुरू होता है ? क्या 1947 से पूर्व इस देश का अस्तित्व नहीं था ? यदि नहीं था तो फिर 15 अगस्त को स्वतन्त्रता दिवस क्यों मनाते हो ? फिर तो 15 अगस्त को इस देश का जन्मदिवस मनाओ । लेकिन नहीं ,  15 अगस्त को इस देश का जन्मदिवस नहीं मनाया जाता , स्वतन्त्रतादिवस मनाया जाता है ।अब जरा सोचो कि स्वतन्त्र कौन होता है ? स्वतन्त्र वही होता है जो परतन्त्र रहा हो । यदि यह देश 15 अगस्त 1947 के पूर्व था ही नहीं तो फिर वह कौन परतन्त्र था जो स्वतन्त्र हुआ ? यदि वह परतन्त्र यह देश ही था तो इससे यह सिद्ध होगया कि 15 अगस्त 1947  के पूर्व भी यह देश था ।अब सोचने की बात है कि  15 अगस्त 1947 तक यह देश था और भारत था और एक था तो कैसे था ?  क्या इस संविधान की वजह से था ? क्या इस तिरंगे झंडे के कारण था ? या फिर इस जनगणमन अधिनायक के कारण था ? गांधी के कारण था ? पटेल के कारण था ? या फिर नेहरू और अम्बेडकर जैसों के कारण था ?  स्पष्ट है कि इनमें से कुछ भी नहीं था  फिर भी यह देश भारत था कि नहीं ? और भारत था तो एक और अखण्ड तो था ही ,भले ही इसके छोटे छोटे अनेक टुकडों पर अनेक राजा राज्य करते रहे हों ।आज भी देश में अनेक राज्य हैं , उन राज्यों में अलग अलग पार्टियों की सरकारें हैं  , लेकिन उन सबसे ऊपर केन्द्र में भी एक सरकार है , यह फर्क तो है । 1947 से पूर्व इस देश में कोई केन्द्रिय प्रशासन नहीं था , यह सच है , लेकिन इसके साथ यह भी सच है कि केन्द्रिय प्रशासन न होने और  छोटी छोटी रियासतों में बंटे होने के बावजूद यह देश भारत के रूप में तो एक था ही । इतिहास उठा कर देख जाइये , ऐसा कोई कालखण्ड नहीं मिलेगा जब किसी के भी द्वारा इस देश के किसी भी अंश को भारत न मानने की बात कही गयी हो ।तो फिर जब कि यह भारत के रूप में ही एक था अखण्ड था तो यह जिज्ञासा स्वाभाविक है कि यह देश ऐसा कैसे था ?

यह मेरे बाल्यावस्था के समय की बात है । उस समय काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के नाम पर विवाद खडा हो गया ।कुछ लोग इसमें हिन्दू शब्द के समावेश पर आपत्ति जताते हुए कह रहे थे कि इसका यह नाम अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय के जवाब में रखा गया  है । अब हिन्दुस्तान में मुस्लिम  विश्वविद्यालय तो किसी हद तक समझ में आ सकता है ,  लेकिन हिन्दुस्तान में हिन्दू  विश्वविद्यालय । यह नाम बदला जाना चाहिये । इसके लिये पक्ष विपक्ष में दलीलें दी  जा रही थीं ।अखबारों में लेख छप रहे थे । इसी प्रसंग में एक अखबार ने एक बार एक ईंट की फोटो छापी । उस ईंट पर लिखा था  का  हि  वि  , अर्थात् काशी हिन्दू विश्वविद्यालय । जैसा कि किसी भी ईंट पर उसके ब्राण्ड का नाम उसके सांचे में ही  डाल देते है , ठीक उसी तरह ।उस अखबार ने नीचे टिप्पणी करते हुए लिखा कि  काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से हिन्दू शब्द हटाओ , कितना हटाओगे , इसकी तो एक एक ईंट पर काशी हिन्दू विश्वविद्यालय लिखा हुआ है , कहाँ तक हटाओगे ?

इसे पढ कर मेरे मन में विचार आया कि किसी देश का स्वरूप और उसकी एकता अखण्डता तभी तक बने रह सकते हैं जब तक उस देशके एक एक नागरिक बच्चे बच्चे के मन बुद्धि मे उस देश के स्वरूप और एकता अखण्डता  की अमिट छाप पडी हो ।और जहाँ तक इस देश का सम्बन्ध है , इसे एक धर्म ने ही सम्भव बनाया ।कैसे ? इस धर्म ने अपने प्रत्येक आचरण अपनी प्रत्येक क्रिया के प्रारम्भ में संकल्प को अनिवार्य कर दिया । संकल्प ,जिसमें जरूरी होता था कि कर्ता अपने प्रत्येक संकल्प में  उस कर्म , उस कर्म के प्रयोजन के साथ साथ  उस देश और काल काभी उच्चारण करे , जिस देश और काल में वह उस कर्म को करने जा रहा है ।इसके परिणामस्वरूप बने संकल्प के इस स्वरूप को जरा देखिये -----
हरि : ओम्  तत्सदद्यैतस्य श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य अद्य ब्रह्मणो द्वितीये  परार्द्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे अष्टाविम्शतितमे कलियुगे कलिप्रथमचरणे जम्बूद्वीपे भारतवर्षे भरतखण्डे आर्यावर्तैकदेशान्तर्गते पुण्यक्षेत्रे ..... 
यह  संकल्प इस धर्म के स्वरूप में इस तरह समाविष्ट था कि इस धर्म के नाम पर होने वाली कोई भी क्रिया शुरू ही इससे होती थी  , इसके बिना उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी ।स्नान से पहले संकल्प  , सन्ध्यावन्दनसे पहले संकल्प , ब्रह्मयज्ञ से पहले संकल्प , तर्पण से पहले संकल्प ,  देवपूजन से पहले संकल्प , बलिवैश्वदेव से पहले संकल्प , माने कुछ भी धार्मिक कर्म करो तो पहले संकल्प और इस संकल्प मे देश के नाम का उच्चारण करते हुए बोलना  ---भारतवर्षे भरतखण्डे , भारतवर्षे भरतखण्डे ।कौन सा देश भारतवर्ष है यह भी इसी धर्म ने ही बता रखा था ---

उत्तरं यत् समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम् । वर्षं तद् भारतं नाम भारती यत्र संतति : ।।
                                                                               विष्णुपुराण ।
अर्थात् पृथ्वी का वह भाग भारतवर्ष है जो हिमालय के दक्षिञण में और  समुद्र के उत्तर में स्थित है और  जहाँ उत्पन्न हुए लोगों को भारती कहा जाता है ।   

भारते S पि वर्षे भगवान्नरनारायणाख्य आकल्पान्तमुपचितधर्मज्ञानवैराग्यैश्वर्योपशमो परमात्मोपलम्भनमनुग्रहायात्मवतामनुकम्पया तपोS व्यक्तगतिश्चरति । तं भगवान्नारदो वर्णाश्रमवतीभिर्भारतीभि : प्रजाभि : भगवत्प्रोक्ताभ्याम् साङ्ख्ययोगाभ्याम् भगवदनुभावोपवर्णनं सावर्णेरुपदेक्ष्यमाण : परमभक्तिभावेनोपसरति ।

                                                                             श्रीमद्भागवत

 इसी धर्म ने इस देश के स्वरूप का वर्णन करते हुए इसकी महिमा बतायी ---

भारतेSप्यस्मिन् वर्षे सरिच्छैला : सन्ति बहवो मलयो मंगलप्रस्थो मैनाकस्त्रिकूट ऋषभ : कूटक :  कोल्लक : सह्यो देवगिरिर्ऋष्यमूक : श्रीशैलो वेङ्कटो महेन्द्रो वारिधारो विन्ध्य : शुक्तिमानृक्षगिरि : पारियात्रो द्रोणश्चित्रकूटो गोवर्धनो रैवतक : ककुभो नीलो गोकामुख इन्द्रकील : कामगिरिरिति चान्ये चशतसहस्रश : शैलास्तेषाम्  नितम्बप्रभवा नदा नद्यश्चसन्त्यसंख्याता : ।एतासामपो  भारत्य : प्रजा : नामभिरेव पुनन्तीनामात्मना चोपस्पृशन्ति । चन्द्रवसा ताम्रपर्णी अवटोदा कृतमाला वैहायसी कावेरी वेणी पयस्विनी शर्करावर्ता तुङ्गभद्रा कृष्णा वेण्या भीमरथी गोदावरी निर्विन्ध्या पयोष्णी तापी रेवा सुरसा नर्मदा चर्मण्वती सिन्धुरन्ध : शोणश्च नदौ महानदी वेदस्मृतिर्ऋषिकुल्या त्रिसामा कौशिकी मन्दाकिनी यमुना सरस्वती दृषद्वती गोमती सरयू रोधस्वती सप्तवती सुषोमा शतद्रूश्चन्द्रभागा  मरुद्वृधा वितस्ता असिक्नी विश्वेति महानद्य : ।अस्मिन्नेव वर्षे पुरुषैर्लब्धजन्मभि : शुक्ललोहितकृष्णवर्णेन स्वारब्धेन कर्मणा दिव्यमानुषनारकगतयो बह्व्य आत्मन आनुपूर्व्येण सर्वा ह्येव सर्वेषाम् विधीयन्ते यथावर्णविधानमपवर्गश्चापि भवति ।

इस धर्म ने ही इस देश की महिमा का  , देखिये जरा कैसा अद्भुत वर्णन किया है ----

एतदेव हि देवा गायन्ति ----

अहो अमीषाम् किमकारि शोभनम् प्रसन्न एषाम् स्विदुत स्वयं हरि : ।
यैर्जन्म लब्धं नृषु भारताजिरे मुकुन्दसेवौपयिकं स्पृहा हि न : ।। 

देवता भी भारतवर्ष में उत्पन्न हुए मनुष्यों की इस प्रकार महिमा गाते हैँ -----
अहा जिन जीवों ने भारत वर्ष में भगवान् की सेवा के योग्य मनुष्यजन्म  प्राप्त किया है , उन्होंने ऐसा क्या पुण्य किया है ? अथवा इनप र स्वयं श्रीहरि ही प्रसन्न हो गये हैं । इस परम सौभाग्य के लिये तो निरन्तर हम भी तरसते रहते हैं । 

कल्पायुषाम् स्थानजयात् पुनर्भवात् क्षणायुषाम् भारतभूजयो वरम् ।
क्षणेन मर्त्येन कृतं मनस्विन : संन्यस्य संयान्त्यभयं पदं हरे : ।।

यह स्वर्ग तो क्या --- जहाँ के निवासियों की एक एक कल्प की आयु होती है , किन्तु जहाँ से फिर संसारचक्र में लौटना पडता है , उन ब्रह्मलोकादि की अपेक्षा भी भारत भूमि में थोडी आयुवाला होकर जन्म लेना अच्छा है , क्योंकि यहाँ धीर पुरुष एक क्षण में ही अपने इस मर्त्यशरीर से किये हुए सम्पूर्ण कर्म श्रीभगवान् को अर्पण कर के उनका अभयपद प्राप्त कर सकता है ।

यद्यत्र न : स्वर्गसुखावशेषितं स्विष्टस्य सूक्तस्य कृतस्य शोभनम् ।
तेनाजनाभे स्मृतिमज्जन्म न : स्याद् वर्षे हरिर्भजताम् शं तनोति ।।

अत : स्वर्गसुख भोग लेने के बाद हमारे पूर्वकृत यज्ञ प्रवचन और शुभ कर्मों से यदि कुछ भी पुण्य बचा हो तो उसके प्रभाव से हमें इस भारतवर्ष मे भगवान् की स्मृति से युक्त मनुष्य जन्म मिले क्योंकि श्री हरि अपना भजन करने वाले का सब प्रका र से कल्याण करते हैं ।

यह एक धर्म ही है जो इस देश का स्वरूप ही नहीं बताता , इसके महत्त्व का वर्णन करते हुए अपने अस्तित्व को ही इसके अस्तित्व के साथ जोड देता है ----तत्रापि भारतमेव वर्षं कर्मक्षेत्रम्  ---- भागवत  5 , 17 , 11 , भारतवर्ष ही कर्मक्षेत्र है , माने इस धर्म के आचरण का फल किसी को तभी मिलेगा जब वह इस धर्म का आचरण इसी देश में करे । यह देश मात्र एक देश नहीं है , यह तो एक खेत है जिसमें धर्म की खेती होती है ।धर्म की दृष्टि से यह बहुत उपजाऊ खेत है ।जैसे किसी खेत मे गेहूँ  बहुत अच्छा पैदा होता है तो कहीं बाजरे की  पैदावार अच्छी होती है। काश्मीर में केसर पैदा होती है  , मैसूर में चन्दन पैदा होता है  , हिमाचल मे सेव और आसाम में चाय की खेती बढिया होती है ।  वैसे ही इस धर्म के धर्मशास्त्र कहते है कि इस धर्म को पैदा करने के लिये सबसे बढिया खेत यह भारतवर्ष ही है ।इस धर्म की खेती अर्थात् इस धर्म का आचरण इस देश में करने पर धर्म की पैदावार जबर्दस्त होती है , उसका फल जबर्दस्त  मिलता है ।
धर्मशास्त्रो के इस वर्णन का और अपने माननेवालो को दिये गये आदेश का , विधान का ही यह प्रभाव था कि इस देश के मूलनिवासी सभी वर्णाश्रमी ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शूद्र अपने प्रतिदिन के सभी लौकिक पारलौकिक कार्यो के प्रारम्भ में  देश के उल्लेख के रू प में इस देश के नाम का उच्चारण अवश्य करते थे ।भारतवर्षे भरतखण्डे ये दो शब्द इस देश के बच्चे बच्चे की जुबान पर रहते थे  । इस तरह इसदेश की जो इमारत बनायी गयी थी उसकी ईंट ईंट पर लिखा हुआ था  ---- भारतवर्ष  ।कोई कैसे मिटा सकता था  इस लिखे हुए को  । इसलिये राजनैतिक दृष्टि से भले ही इस देश के अलग अलग भागों पर अलग अलग राजाओं का शासन रहा हो , देश की दृष्टि से यह हमेशा से ही भारतवर्ष के रूप मे एक बना रहा । यह इस धर्म का , इस धर्म के शास्त्रों का परभाव नहीं था तो फिर किसका था ?और आज भी इस धर्म का पालन करने वालों के लिये यह देश भारतवर्ष ही है ,  देश  जो हिमालय के दक्षिण मे  और  समुद्र के उत्तर में फैला हुआ है ।इस धर्म को माननेवाला , इसका पालन करने वाला , अफगानिस्तान से बर्मा तक और  इधर तिब्बत से लेकर लंका तक के भू भाग में कहीं भी बैठा हो , अपने धर्म के अनुष्ठान के प्रारम्भ में संकल्प करते समय देश काल का उच्चारण करते हुए यही बोलेगा और बोलता भी है  ----- भार त वर्षे भरतखण्डे  आर्यावर्तैकदेशान्तर्गते पुण्यक्षेत्रे , भले ही  राजनेताओं की करतूतों से वह भू भाग  भारत न रह कर कुछ और कहलाने लगा हो  ।उदाहरण के लिये नेपाल को ही ले लीजिए । राजनैतिक दृष्टि से नेपाल भारत नहीं है , लेकिन मेरे क ई नेपाली मित्रों से मैंने पूछा तो उन्होंने बताया कि वे नेपाल में भी सन्ध्यावन्दनादि कर्म करते समय संकल्प में यही बोलते है ----- भारतवर्षे  भरतखण्डे आर्यावर्तैकदेशान्तर्गते पुण्यक्षेत्रे नेपालप्रदेशे  .....।   अब जरा सोचिए , नेपाल में तो अभी कुछ लोग बचे हुए हैं जिनका धर्म  उन्हें सिखाता है कि यह भूभाग  भारत ही है  ,मतलब यह कि नेपालरूपी प्रासाद जिन ईटों से बना है उनमे से बहुत कम ही ऐसी  ईंटें बची है जिनपर भारतवर्ष  लिखा हुआ है । शेष ईंटों को लोग या तो उठा ले गये , या फिर उन पर लिखे हुए शब्द भारतवर्ष को मिटा कुछ और लिख दिया , कही अफगानिस्तान लिखदिया और कहीं पाकिस्तान लिख दिया ।भारतवर्ष के इस विशाल प्रासाद का जो भाग अभी भारतवर्ष के रूप में बचा हुआ है  वह इसलिये क्योंकि अभी इस प्रासाद के कुछ भागों की ईंटों पर भारतवर्ष  लिखा हुआ है ।कुछ वर्णाश्रमी हैं जो अभी भी अपने प्रत्येक धार्मिक कृत्य के प्रारम्भ में संकल्प करते समय बोलते हैं , उन्हें बोलना पडता है --- भारतवर्षे भरतखण्डे आर्यावर्तैकदेशान्तर्गते पुण्यक्षेत्रे  ।
तो इसतरह आपने देखा , यही एक धर्म है जिसने इस देश को  भारतवर्ष बनाया और एक बनाया । इस धर्म के कारण ही आज भी यह देश भारतवर्ष है और एक है और आगे भी यदि यह देश भारतवर्ष के रूप में एक रहेगा तो इस धर्म के कारण ही रहेगा । यह देश भारतवर्ष केरूप में एक इसलिये नहीं है कि इसका झंडा तिरंगा है या इसका गान जनगणमन है , या इसका  पशु सिंह है और पक्षी मोर है  । यह देश भारतवर्ष के रूप में एक इसलिये भी नहीं है कि इस देश का एक  तथाकथित धर्मनिरपेक्ष संविधान है । यह देश  भारतवर्ष के रूप में एक इसलिये है क्योंकि इस देश के निवासी उस धर्म का अनुष्ठान ,उस धर्म का आचरण करते है , उस धर्म को मानते है  जिसका प्रतिपादन , जिसका शासन मन्त्रब्राह्मणात्मक षडंग वेद , तदनुसारिणी स्मृतियो पुराणों उपनिषदों रामायण महाभारतादि ग्रन्थों से होता है  , और जो यह सिखाता है कि यह देश जो कि हिमालय से लंका तक और अफगानिस्तान से बर्मा तक फैला हुआ है , भारतवर्ष है  ---- येषाम् खलु महायोगी भरतो ज्येष्ठ : श्रेष्ठगुण आसीद्येनेदं वर्षं भारतमिति व्यपदिशन्ति ---- भागवत ।  कोई कुरान , कोई बाईबल  या फिर और कोई  भी इस तरह का ग्रन्थ इस तरह न तो इस देश का स्वरूप बताता है और न ही इसकी महिमा का इस तरह तो क्या किसी भी तरह से वर्णन करता है । और वर्णन नहीं करता तो जो भी कोई  इन ग्रन्थों का अनुयायी होगा , इन ग्रन्थों के अनुसार अपने जीवन को अपने विचारों को ढालता होगा  वह क्यों इस देश के नाम रूप एकता अखण्डता के प्रति श्रद्धाभाव रखेगा ? ये वेदादि शास्त्र ही हैं जो इस देश के महत्त्व का प्रतिपादन करते हैं , इसलिये इस देश के लिये राष्ट्रिय कहे जाने योग्य यदि कुछ हो सकता है  तो वह वह धर्म ही हो सकता है जिसका प्रतिपादन  षडंग वेद और तदनुसारी ग्रन्थ करते है । यदि यह धर्म राष्ट्रिय नहीं हैै तो फिर कोई झंडा डंडा , कोई गीत संगीत  , कोई पशु पक्षी या फिर इस देश के स्वरूप संस्कृति सभ्यता और इतिहास से सर्वथा अनभिज्ञ कुछ लोगों के द्वारा लिखी गयी कोई पुस्तक ही  राष्ट्रिय कैसे हो सकते हैं  ? ऐसे धर्म से इस देश के निरपेक्ष होने का एक ही अर्थ है ---यह देश आत्महत्या कर रहा है ।

धर्मस्य फलमिच्छन्ति धर्मम् नेच्छन्ति मानवा : ।
                                                  फलं  पापस्य नेच्छन्ति पापं कुर्वन्ति यत्नत : ।।