Wednesday 12 August 2020

श्रीकृष्ण

 #श्रीकृष्ण


#रानू_विश्वकर्मा  जी प्रश्न करते है  :--- क्या श्रीकृष्ण भगवन् है ? क्या वे जगत के पालनहार है ?? 

साथ ही साथ वे आक्षेप भी लगाते है श्रीकृष्ण भगवन् नही वह तो ईश्वर के फरिस्ते है श्रीकृष्ण तो मृत्यु को प्राप्त हुए जिनकी मृत्यु हो वह ईश्वर कैसे ??

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Ranu Vishwakarma  जी के शंकाओं का समाधान 

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यह समस्त चराचर जगत जिससे उतपन्न होता है  जिनके आश्रय से जीवित रहते है अन्त में बिनाशोउन्मुख होकर जिनमे लीन होते है  वही ब्रह्म है ।

आप समस्त हेय गुणों से रहित समस्त कल्याणगुणो को धारण करने वाले सर्वज्ञ,सत्यसङ्कल्प, अकाशात्मा

सर्वकर्मा ,सर्वकाम,सर्वगन्ध,सर्वरस ,से परिपूर्ण पूर्णानंद बिकार,जरा मृत्यु से रहित निष्कलंक ,निरंजन,निर्विध्न,अमृत का सेतु है आप की नाना प्रकार की शक्ति सुनी जाती है ज्ञान,बल,क्रिया जो आप का स्वभाविकि गुण है 

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यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते । येन जातानि जीवन्ति । यत्प्रयन्त्यभिसंविशन्ति । तद्विजिज्ञासस्व । तद् ब्रह्मेति ।(तैत्तरीय उपनिषद)


सत्यसङ्कल्प आकाशात्मा सर्वकर्मा सर्वकामः सर्वगन्धः सर्वरसः (छा०उ०३/१४/२)

य आत्मापहतपाप्मा विजरो विमृत्युर्विशोको विजिघत्सोऽपिपासः सत्यकामः सत्यसङ्कल्पः सोऽन्वेष्टव्यः (छा०उ०८/७/१)

निष्कलं निष्क्रियंशान्तं निरवद्यं निरञ्जनम् । अमृतस्य परंसेतुं (श्वे ०उ० ६/१९)


परास्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च (श्वे०उ०६/८)

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समस्त शक्तियों का जो नियमन करते है वही ईश्वर है इस कार्यकारण से ही शाश्त्रो में आप को ईश्वर ,प्रभु,भगवन्  आदि नामों से कहे गए है निखिल विरुद्धाविरुद्ध शक्तिमत्तत्व ही भगवन् है ।


सम्पूर्ण ऐश्वर्य , वीर्य ( जगत् को धारण करने की शक्तिविशेष ) , यश ,श्री ,समस्त ज्ञान , और परिपूर्ण वैराग्य । 


“ऐश्वर्यस्य समग्रस्य वीर्यस्य यशसः श्रियः । ज्ञानवैराग्ययोश्चैव षण्णां भग इतीरणा ।।”

—विष्णु पुराण ,६/५/७४ ,


अब ये छहों गुण जिसमे नित्य रहते हैं ,उन्हें भगवान् कहते हैं ।


भगोस्ति अस्मिन् इति भगवान्, यहाँ भग शब्द से मतुप् प्रत्यय नित्य सम्बन्ध बतलाने के लिए हुआ है । अर्थात् पूर्वोक्त छहों गुण जिनमे हमेशा रहते हैं ,उन्हें भगवान् कहा जाता है |मतुप् प्रत्यय नित्य योग (सम्बन्ध ) बतलाने के लिए होता है –यह तथ्य वैयाकरण भलीभांति जानते है


“भूमनिन्दाप्रशन्सासु नित्ययोगेतिशायने |संसर्गेस्ति विवक्षायां भवन्ति मतुबादयः ||”

-सिद्धान्तकौमुदी , पा.सू .५/२/९४ पर वार्तिक,

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कुछ अल्पज्ञ अल्पश्रुत भ्रांत वादियों  का कहना है  कि श्रीकृष्ण भगवन् नही है  वे ईश्वर के (दूत) प्रतिनिधि है ।

उनके बिषय में मैं बस इतना ही कहूंगा कि पूर्णप्रज्ञ त्रिकालदर्शी महर्षि वेदव्यास के प्रज्ञा के आगे विश्व के सभी विद्वान बौना है  फिर अल्पज्ञ अल्पश्रुतो का तो कहना ही क्या ।

केवल वेदव्यास ही क्यो वेदविद्  परशुराम,भीष्म,द्रोणाचार्य,कृपाचार्य,विदुर,अश्वथामा,कर्ण, राजा शल्य,युधिष्ठिर,भीम,अर्जुन,नकुल,सहदेव,धृतराष्ट्र,तथा द्वापर युग के समस्त नृपगण जो वेद विशारद है वे भगवन् श्रीकृष्ण की परमतत्व होने की पुष्टि करते है तथा भगवन् श्रीकृष्ण के बिभूतियो का गायन मुक्त कण्ठ से करते है वे सभी वेद विद्या में निपुण थे  वे यह  जानते थे कि श्रीकृष्ण षड् गुण ऐश्वर्यों से परिपूर्ण भगवद् तत्व है क्या उनके समकक्ष आज के सभी विद्वान क्षण मात्र भी टिक पाएंगे ??


सभी सुहृदयजनो का एक ही उत्तर होगा नही ।


ईश्वर के प्रतिनिधि(दूत) ईश्वर के आदेशों का पालन मात्र ही करते है जबकि ईश्वर समस्त चराचर सृष्टि का सञ्चालन ।

ईश्वर के प्रतिनिधि भगवद् तत्व की व्याख्या  श्रुतिस्मृति प्रोक्त आचरणों से परिपूर्ण वेदादि बिषयो के व्याख्याकार होते है 

भूत भविष्य के द्रष्टा हो सकते है परन्तु सञ्चालक कर्ता नही ।

द्वापर युग मे भगवन् श्रीकृष्ण के समकालीन वेद विशारद महात्मन श्रीकृष्ण के बिषय में क्या कहते है आइये देखते है ।

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●महर्षि वेद व्यास 


आदिदेवो जगन्नाथो लोककर्ता स्वयं प्रभुः (महाभारत द्रोणपर्व  २०१)


●महर्षि मार्केण्डेय 


स एष कृष्णो वार्ष्णेय: पुरणपुरुषों विभु: (महाभारत वनपर्व   / ५४)

सर्वेषामेव भूतानां पिता माता च माधवा: (महाभारत वनपर्व )


●ब्राह्मणशिरोमणि परशुराम 


निर्माता सर्वलोकानामीश्वरः सर्वकर्मवित्। (महाभारत उद्योग पर्व ९६/ ४६)


●भीष्म द्वरा श्रीकृष्ण की स्तुति

अनाद्यन्तं परं ब्रह्म न देवा नर्षयो विदू (महाभारत शांतिपर्व ४१/१८)

यस्मिन् विश्वानि भूतानि तिष्ठन्ति च विशन्ति च (महाभारत शांतिपर्व ४१/२१)


यस्मिँल्लोका: स्फुरन्ति में जले शकुनयो यथा 

ऋतमेकारक्षरं ब्रह्म यत् यत् सदसतो: परम्   (महाभारत शांतिपर्व ४१/३४)

●सञ्जय  द्वारा श्रीकृष्ण के बिभूतियो का गायन


मनसैव विशिष्टात्मा नयत्यात्मवशं वशी (महाभारत उद्योगपर्व  ६८/५)

यतः कृष्णस्ततो जयः  (महाभारत उद्योग पर्व ६८ /९)

कालचक्रं जगच्चक्रं युगचक्रं च केशवः। (महाभारत उद्योग पर्व ६८/१२)


●युधिष्ठित द्वरा श्रीकृष्ण की स्तुति 

नमस्ते देवदेवेश सनातन विशातन।

विष्णो जिष्णो हरे कृष्ण वैकुण्ठ पुरुषोत्तम। (महाभारत द्रोणपर्व ८३/१८)

●अर्जुन द्वरा श्रीकृष्ण का ईश्वरत्व की।पुष्टि


क्षेत्रज्ञः सर्वभूतानामादिरन्तश्च केशव ।

निधानं तपसां कृष्ण यज्ञस्त्वं च सनातनः । (महाभारत वन पर्व  १२/१७)


●धृतराष्ट्र द्वरा श्रीकृष्ण ही जगत के हितकर्ता है 

त्वमेव पुण्डरीकाक्ष सर्वस्य जगतो हितः।(महाभारत उद्योग पर्व १३०/१७)


साथ ही साथ कौराव सभा मे बैठे समस्त नृपगण के समक्ष श्रीकृष्ण ने अपना दिब्य रूप का दर्शन भी कराया था ।

अश्वथामा के ब्रह्मास्त्र से उत्तरा के गर्भ का नष्ट होना पश्चात श्रीकृष्ण द्वरा गर्भ में परीक्षित को पुनः जीवन दान देना क्या उनके बिभूतियो का गायन करने करते कण्ठ भी मौन हो जाय फिर भी उनके बिभूतियो का अन्त न होगा ।

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वही  कुरान में आये अल्लाह के बिषय में भी जरा प्रकाश डाल दे 


कुरान में अल्लाह के बिषय में केवल मात्र मोहम्मद सल्लाह ही प्रमाण है कोई अन्य नही उस काल खण्ड में अल्लाह के बिषय में न किसी को अनुभूति ही हुई और न ही कोई साक्षी बने यह वैसा ही है जैसे एक ब्यक्ति ने कहा सामने वाले पहाड़ी पर सिंह रहता है उसे सुन कर उसके मित्र ,सुहृदज़न मान लिए जबकि न तो कभी उसने सिंह की गर्जना सुनी न ही उनलोगों को सिंह होने का अनुभूति ही हुआ 


मनुष्य ,भ्रम,प्रमाद,विप्रलिप्सा,कर्णपाटव, ईर्ष्या ,लोभ जनित बिषयो से ग्रसित होता है ,एक ही बिषय में यदि कोई एक ही ब्यक्ति प्रमाण हो तो उसकी प्रामाणिकता में भी सन्देह होना निर्विवाद है  ऐसे प्रमाणों को आज के न्यायव्यवस्था भी नही मानती उन्हें भी विटनेश (साक्षी) की आवश्यकता होती है  और अल्लाह के बिषय में मुहम्मद को छोड़ कोई अन्य ब्यक्ति साक्षी भी नही ।

  ऐसे में मोहम्मद सल्लाह ने अल्लाह के बिषय में झूठ नही कहा इसकी प्रमाणिकता कौन तय करे ?


जबकि श्रीकृष्ण के ब्रह्मबिषय में उनके समकालीन समस्त नृपगण ,ऋषि ,मुनि जन ने उनके दिब्यता को देखा अनुभव किया जाना ततपश्चात सभी का एक ही  मत स्प्ष्ट रहा कि श्रीकृष्ण स्वयं परमेश्वर है 


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मैने अन्य ग्रन्थों का साक्ष्य इस लिए नही दिया कि महाभारत में आये हुए पात्र सभी के सभी भगवन् श्रीकृष्ण के समकालीन थे


 श्रीकृष्ण की भगवद् तत्व का विवेचन समस्त  पुराण आदि ग्रन्थों में निहित है जिनमे श्रीकृष्ण को परम तत्व कहा गया है 

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अल्पज्ञ अल्पश्रुत भ्रांत वादियों  का आक्षेप है कि श्रीकृष्ण ने मृत्यु को प्राप्त किया तो वह भगवन् कैसे ???

प्रथमतः स्प्ष्ट कर देना चाहता हूं कि श्रीकृष्ण अवध्य है 

अवध्यौ वदत: कृष्णो (महाभारत कर्ण पर्व ४१/७९)

क्यो की उनका जन्मकर्म ही दिब्य है 

जन्म कर्म च मे दिव्यम् (गीता) वे अपनी योगमाया शक्ति से आविर्भावित होते है

प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय संभवाम्यात्ममायया। (गीता)  


ब्रह्मादि देवता मेरे प्रभवको यानी अतिशय प्रभुत्वशक्तिको अथवा प्रभव यानी मेरी उत्पत्तिको नहीं जानते और भृगु आदि महर्षि भी ( मेरे प्रभवको ) नहीं जानते। 


न मे विदु: सुरगणाः प्रभवं न महर्षयः (गीता)


भगवन् श्रीकृष्ण का विग्रह सच्चिदानंद स्वरूप पाञ्चभौतिक तत्व से परे  दिब्य  तत्वो से बना है जिसका छेदन का सामर्थ्य  स्वयं काल भी न करें  फिर अन्य तत्वो की बात ही क्या , धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र समरांगण में भीष्म,द्रोण,कर्ण अश्वथामा जैसे मृत्यु को भी जीत लेने वाले योद्धा भी जिन्हें मृत्यु  छू न सके उन जैसे योद्धाओं ने भी श्रीकृष्ण के बाल भी बांका न कर सके अपितु स्वयं श्रीकृष्ण ने ही सबके प्राणों का हरण भी किये  


मयैवैते निहताः पूर्वमेव (श्रीमद्भागवद्गीता ११/३३ )


फिर उस परात्पर के बिनाश के बिषय में सोचना भी अल्पज्ञता का ही संकेत है

 समस्त कार्य पूर्ण होने के पश्चात भगवन् स्वेच्छा से अपने शरीर का त्याग कर  परमधाम को प्राप्त हुए थे ।


देवोपि सन्देहविमोक्षहेतो-र्निमित्तमैच्छत्सकलार्थतत्त्ववित्।।

स सन्निरुद्धेन्द्रियवाङ्मनास्तुशिश्ये महायोगमुपेत्य कृष्णः। (मौसल पर्व )

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नान्तोऽस्ति मम दिव्यानां विभूतीनां(१०/४०)


जिनकी बिभूतियाँ अनन्त हो उनके बिभूतियो का दिग्दर्शन कौन करा पाए उनके बिभूतियो को न तो देवगण ही जानते है न ऋषि गण ही जानते है वे भी नेति नेति कह कर मौन हो जाते है उस परब्रह्म के बिषय में हम जैसे क्षुद्र प्राणी अपने शब्दों से जितना भी लिख ले वह अंश मात्र ही होगा 


 #रानू_विश्वकर्मा द्वारा उठाये गए प्रश्नों का स्क्रीनशॉट कॉमेंट्स बॉक्स में आप सभी मित्रगण देख सकते है 

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उस परब्रह्म पुरुषोत्तम के बिषय में मेरा मत् यही है 

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मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति (गीता)

वासुदेवः सर्वमिति (गीता)


शैलेन्द्र सिंह


Saturday 11 July 2020

स्त्रियां और वेद

#शंका_समाधान

#शंका:-- स्त्रियों को वेदाध्ययन में अधिकार क्यो नही ?जबकि गार्गी, मैत्रेयी, लोपामुद्रा जैसी कई विदुषियां हुई हैं जो स्वयं वेदो के मन्त्रद्रष्टा भी रह चुकी है ऐसे में स्त्रियों को वेदाध्ययन में अनाधिकार क्यो ?

#समाधान:-- मन्त्रद्रष्टा वे है जो यमनियम आदि का आचरण कर  अपने तपःपूत के बल पर मन्त्रो का साक्षात्कार करते है

ऋषिर्मन्त्रद्रष्टा ॥ गत्यर्थत्वात् ऋषेर्ज्ञानार्थत्वात् मन्त्रं दृष्टवन्तः ऋषयः ॥' ( श्वेतवनवासिरचितवृत्तौ उणादिसूत्रं ४॥१२९ द्रष्टव्यम्)

वेद कहता है तपस्या से ब्रह्म को जानो क्योंकि तप ही ब्रह्म है – तपसा ब्रह्म विजिज्ञासस्व| तपो ब्रह्मेति| – तैत्तिरीयोपनिषत् / भृगुवल्ली / ०

इतिहास पुराणाभ्यां वेदं समुपवृंहयेत्। बिभेत्यल्प श्रुताद् वेदो मामयं प्रहरिष्यति।। अर्थात् इतिहास पुराण से ही वेद को समझना चाहिए। इनको नहीं जानने वाले से वेद भी डरता है कि यह मेरी हत्या कर देगा।

स्त्रियों के लिए स्वधर्मपालन पतिशुश्रूषा ही तप है यज्ञ है

नास्ति यज्ञः स्त्रियाः कश्चिन्न श्राद्धं नोप्रवासकम्।
धर्मः स्वभर्तृशुश्रूषा तया स्वर्गं जयन्त्युत।।(महाभारत अनुशाशन पर्व ४६/१३)

स्त्रीभिरनायासं पतिशुश्रूषयैव हि ।।(विष्णु पुराण ६-२-३५ )

 नास्ति स्त्रीणां पृथग्यज्ञो न व्रतं नाप्युपोषणम् ।
पतिं शुश्रूषते येन तेन स्वर्गे महीयते । (मनुस्मृति ५/१५५)

धर्मशास्त्रों में स्प्ष्ट कहा है स्त्री तन ,मन ,धन से अपनी पति की सेवा करे वही उसका यज्ञ ,तप,व्रत है उसी से वे अनायास धर्म की सिद्धि प्राप्त कर लेती है   मन्वादि प्रबल शास्त्र प्रमाणों से सिद्ध है कि अपनी तपस्या से पूर्वकाल में स्त्रियां वेद मन्त्रो का साक्षात्कार कर लेती थी उनकी तपस्या क्या है ? स्वधर्म पर चलने से उनको वेद्य तत्त्व का ज्ञान हो जाता था वो तपस्या है स्वधर्मपालन, देव, द्विज, गुरु, प्राज्ञों का पूजन , आर्जव , इन्द्रियों पर निग्रह , अहिंसा , इसी से वे स्त्रियाँ सिद्धि  को प्राप्त कर लेती थी ऐसे में यह सिद्ध नही होता कि स्त्रियी को वेदाध्यन में अधिकार हो क्यो की स्मृति, इतिहास ,पुराणादि समस्त धर्म शास्त्र में स्त्रियों को वेदाध्ययन का अनाधिकारी ही कहा क्यो की #तमुपनीय (छा०उ०) श्रुतियों का स्प्ष्ट आज्ञा है वेदविद्या में प्रवेश करने के पूर्व उपनयन सँस्कार आवश्यक है बिना उपनयन के वेदविद्या में प्रवेश का अधिकार तो ब्राह्मणो तक को नही फिर जिनका उपनयन ही न हो उसको वेदविद्या में अधिकार कैसे ? स्त्रियों के उपनयन संस्कार के बिषय में इतिहास,पुराणादि शास्त्रो में अभाव है ।

अमन्त्रिका तु कार्येयं स्त्रीणां आवृदशेषतः ।। (मनुस्मृति)

वैवाहिको विधिः स्त्रीणां संस्कारो वैदिकः स्मृतः (मनुस्मृति)

 जिस कारण वेदाध्ययन का उन्हें अधिकारी नही माना गया है

 वेदे पत्नीं वाचयति न स्तृणाति (शङ्खायन श्रौतसूत्रम् ८/१२/९)

स्त्रीशूद्रद्विजबन्धूनां त्रयी न श्रुतिगोचरा " ( श्रीमद्भागवत १.४.२५)


Friday 10 July 2020

गुरु_लक्षण_और_स्कूली_शिक्षक_भाग_3



तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ।(गीता)

श्रुतिप्रामाण्यतो विद्वान्स्वधर्मे निविशेत वै ।
श्रुतिस्मृत्युदितं धर्मं अनुतिष्ठन्हि मानवः ।। (मनुस्मृति)

कार्याकार्यव्यवस्था में शास्त्र ही प्रमाण है जन्म से लेकर मृत्यु पर्यंत जितने भी संस्कार है उनमें शास्त्रो का स्पष्ट घन्टाघोष है की कैसे उसे आचरण में लाया जाए फिर वेदविद्या आदि तथा आचार्यो के प्रति शास्त्र मौन कैसे रहे ?
लौकिक तथा पारलौकिक कल्याण हेतु मोक्षरूपी विद्या प्रदान करने वाले गुरु अथवा आचार्य का लक्षण क्या है और कौन इसका अधिकारी है शाश्त्रो ने बृहदरूप से इस पर प्रकाश डाला है

एतद्‍देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मन:।
  स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन पृथिव्यां सर्वमानवा:॥(मनुस्मृति)
जो अग्रजन्मा है उसी से पृथ्वी के सभी मानव अपना आचार बिचार सीखें ।

ब्राह्मण सभी वर्णो में।अग्रजन्मा है
ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद् (ऋग्वेद)
उत्तमाङ्गोद्भवाज्ज्येष्ठ्याद्ब्रह्मणश्चैव धारणात् ।
सर्वस्यैवास्य सर्गस्य धर्मतो ब्राह्मणः प्रभुः (मनुस्मृति १.९३ )

वेदादि शास्त्रो में ब्राह्मण को मुख कहा गया है !
वाक् और बुद्धि  ही अंग प्रत्यंग से लेकर साम्राज्य तक का शाशन करता है यह दृष्टान्त जगत में देखा जाता है जिस कारण किस वर्ण का क्या आचरण है यह ब्राह्मण से ही जानना चाहिए क्यो ?
क्योकि
वर्णानां ब्राह्मणः प्रभुः (मनुस्मृति १०.३ )
उत्पत्तिरेव विप्रस्य मूर्तिर्धर्मस्य शाश्वती ।(मनुस्मृति )
ब्राह्मणो जायमानो हि पृथिव्यां अधिजायते ।(मनुस्मृति)
पृथग्धर्माः पृथक्शौचास्तेषां तु ब्राह्मणो वरः।।(महाभारत -- आदिपर्व ८१/२०)

ब्राह्मण स्वयं धर्म स्वरूप है ।
जिस कारण श्रुतिस्मृति आदि ग्रन्थों में ब्राह्मण के सानिध्य में ही  अध्ययन अध्यापन और आचार बिचार की शिक्षा ग्रहण करने का आदेश दिया गया है

गुरुर्हि सर्वभूतानां ब्राह्मणः(महाभारत आदिपर्व १/२८/३५)
अधीयीरंस्त्रयो वर्णाः स्वकर्मस्था द्विजातयः ।
प्रब्रूयाद्ब्राह्मणस्त्वेषां नेतराविति निश्चयः । ।
सर्वेषां ब्राह्मणो विद्याद्वृत्त्युपायान्यथाविधि ।
प्रब्रूयादितरेभ्यश्च स्वयं चैव तथा भवेत् । । (मनुस्मृति १०/१-२)
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् (श्रीमद्भागवतगीता १८- ४२ )
वृत्त्यर्थं याजयेदज्वान्यानन्यानध्यापयेत् तथा ।
कुर्यात् प्रतिग्रहादानं गुर्वर्थं न्यायतो द्रिजः (विष्णु पुराण ३/२३ )
सास्त्रज्ञा नित्य है और सास्त्रज्ञा मानने वाला ही ईश्वर का आराधना करता है सास्त्र द्रोही नही विष्णुपुराण का उद्घोष है अब उसे न मान मनमाना आचरण को ही धर्म मान ले तो उससे बड़ी और मूर्खता क्या ।

वर्णास्वमेषु ये धर्माः शास्त्रोक्ता नृपसत्तम ।
तेषु तिष्ठन् नरो विष्णुमाराधयति नान्यथा ।(विष्णु पुराण ३/ १९ )
कहाँ श्रुतिस्मृति प्रोक्त वर्णाश्रमधर्म  आचरित गुरु तो कहाँ  भौतिक शिक्षा के बल पर प्राप्त किया हुआ संवैधानिक पद  अतः यह नीतान्त भ्रामक प्रचार है कि स्कूली शिक्षक और गुरु समतुल्य है


श्रोतीय_गुरू_और_स्कूली_शिक्षक_भाग__2



जीवो को जो मोक्ष मिलता है वह जीवो का एक प्रकार से जन्म ही है जिससे जीव के स्वरूप का पूर्ण बिकाश होता है , सांसारिक जन्म और मोक्षरूपी जन्म में यही अन्तर है ,
मोक्षरूपी जन्म सांसारिक जन्मो को नष्ट कर देता है  क्यो की मोक्ष पद पर पहुचने पर जीव को पुनः संसार मे जन्म लेना नही पड़ता ,
 इस प्रकार अन्यान्य जन्मो को नष्ट करने वाले मोक्षरूपी विशिष्ट जन्म का प्रदान करना श्रीभगवन का असाधारण कार्य है यह विशेषता श्रीभगवन में ही है वैसी ही विशेषता आचार्य  में है, क्यो की आचार्य सांसारिक जन्मो को नष्ट करने वाले विद्याजन्म का प्रदान करते है ,
श्री भगवन भक्तो को दिब्य दृष्टि देने में सामर्थ्य रखते है वैसे ही आचार्य भी दिब्य दृष्टि देने में समर्थ है अतएव शिष्य आचार्य के द्वरा अनुपदिष्ट अर्थो को समझने की क्षमता रखते है आचार्य प्रवर श्रीवेदव्यास
जी ने सञ्जय को दिब्य दृष्टि और दिब्य श्रोत प्रदान किया था जिससे सञ्जय विश्वरूप को देखने और गीतोपदेश को सुनने में समर्थ हुए थे इससे सिद्ध होता है कि दिब्य दृष्टि देने में ईश्वर और आचार्य दोनों ही सामर्थ्य रखते है ।

दिब्य दृष्टि तथा मोक्ष रूपी विद्या की प्राप्ति श्रोतीय गुरु से ही प्राप्त हो सकता है भौतिकवादी शिक्षकों से नही भौतिक वादी शिक्षक केवल मात्र उदर पूर्ति तक ही सीमित है
अतः यह कहना नीतान्त भ्रामक है कि श्रोतीय गुरु और भौतिक शिक्षविद दोनों समतुल्य है ।

भाग 3 कल प्रसारित किया जाएगा ।


श्रोतीय गुरु और स्कूली शिक्षक



भारतीय जनमानस में आज समस्त बुद्धिजीवी गण इस विचार से ग्रसित है कि शिक्षक ही गुरु है ।
यह एक प्रकार का भ्रांत है गुरु और शिक्षक में भेद है ।
गुरु वे होते है जो श्रोतीय है जो श्रुतिस्मृति प्रोक्त अध्यात्म ज्ञान से परिपूर्ण वेदविद्या में पारंगत है जिन्हें समस्त संस्कार का ज्ञान हो यज्ञयाज्ञ उपनयन संस्कार आदि कर्मकाण्ड  किस कालखण्ड में किस नक्षत्रादि के लग्न में किया जाय तो मनुष्य का लौकिक और पारलौकिक कल्याण निश्चित हो जाय जो जन्ममरण बन्धन से मुक्त करने में सहायक हो जिस प्रकार ईश्वर दिब्य दृष्टि देने में सामर्थ्य है उसी प्रकार एक श्रोतीय गुरु दिब्य विद्या देने में समर्थ है जिससे शिष्य भूतभविष्य के द्रष्टा बन सके ये गुरु के स्वाभाविक लक्षण है जो शिक्षकों में नगण्य है ।

 वही  आजकल के स्कूली शिक्षक भौतिक शिक्षा को ही लक्ष्य मान कर केवल लौकिक सुख तक सीमित मात्र है एक ऐसी शिक्षा जो केवल मात्र उदर पोषण तक ही सीमित है ,
 न ही पारलौकिक कल्याण न ही अध्यात्म चर्मोत्कर्ष की अनुभूति न ही भविष्परिणामी व्यवस्था पर कोई विशेष व्यवस्था

अतःस्कूली शिक्षकों को गुरु के समतुल्य कहना निश्चय ही भ्रांत है ।

आज भाग 1



Tuesday 9 June 2020

राष्ट्रीय धर्म

अपना राष्ट्रिय धर्म क्या है ?
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आप पूछ सकते हैं कि यह भी कोई प्रश्न है भला ? परन्तु यह प्रश्न बनता है । जब भाषा राष्ट्रिय हो सकती है फल फूल , पशु पक्षी , नदी नाले , झंडा और पार्टियाँ तक राष्ट्रिय हो सकती है तो फिर धर्म ने ही कया बिगाडा है , धर्म क्यो नहीं राष्ट्रिय हो सकता ?
आप कहेंगे कि हमारा कोई धर्म राष्ट्रिय इसलिये नहीं हो सकता क्योंकि हम धर्मनिरपेक्ष हैं ।परन्तु प्रश्न तो फिर भी वही है कि हम धर्म निरपेक्ष क्यों हैं  ?  आप कहेंगे कि इस देश में अनेक धर्म हैं इसलिये किसी एक धर्म को राष्ट्रिय नहीं बनाया जा सकता , परन्तु यही बात तो भाषा आदि के सम्बन्ध में भी कहीं ही जा सकती है । इस देश में भाषायें अनेक हैं ,फिर भी उनमें से एक भाषा को राष्ट्रभाषा स्वीकर किया गया है । अनेक ध्वज हैं  , फिर भी एक ध्वज को राष्ट्रध्वज स्वीकार किया गया है ।अनेक गीत हैं , फिर भी उनमें से एक गीत को राष्ट्रगीत स्वीकार किया गया है ।इसी तरह अनेक धर्मों के होते हुए भी किसी एक धर्म को राष्ट्रिय धर्म या राष्ट्रधर्म क्यों नहीं स्वीकार किया जा सकता ?
आप कहेंगे कि भाई हम तो सर्वधर्मसमभाव में विश्वास करते हैं । हमारे लिये धर्मनिरपेक्षता का यही अर्थ है कि हमारे लिये सभी धर्म समान हैं । परन्तु क्या इसका मतलब यह नहीं हुआ कि आपके लिये धर्म तो सभी समान हैं परन्तु भाषा आदि कुछ भी समान नहीं हैं ।अब यदि भाषा आदि कुछ भी समान नहीं है तो फिर धर्म ही कैसे समान हो गये ? और यदि सभी भाषा आदि के एक समान होने पर भी उनमें से एक राष्ट्रभाषा हो सकती है , एक राष्ट्रगीत हो सकता है , राष्ट्रिय पशु पक्षी तक हो सकते है तो उसी तरह सभी धर्मों के भी एकसमान होने पर भी उनमें से कोई एक राष्ट्रधर्म क्यों नहीं हो सकता ? सभी नागरिकों की समानता को स्वीकार  करने पर भी उनमें से कोई एक ही राष्ट्रपति , प्रधानमन्त्री , मन्त्री ,मुख्यमन्त्री , एम् पी , एम् एल् ए आदि बनता है ।इससे यह सिद्ध होता है कि समानता सर्वांश में नहीं होती । यदि सर्वांश में समानता हो तो पदार्थों में भेद ही समाप्त हो जाये ।पदार्थों की विशेषता ही उन्हें एक दूसरे से अलग करती है ।इसी विशेषता के आधार पर ही पदार्थों के साथ व्यवहार होता है । कोई पदार्थ उपादेय होता है तो कोई हेय तो कोई उपेक्ष्य ।सभी समान हों तो क्यों कोई हेय है तो दूसरा उपादेय ? फिर तो क्यों किसी विशेष गीत , विशेष ध्वज , विशेष पशु , विशेष पक्षी को ही राष्ट्रिय स्वीकार किया गया ? इसलिये मानना पडेगा कि पदार्थों में किसी अंश में समानता होती है तो किसी अंश में विशेषता भी होती है । उसी विशेषता केआधार पर ही किसी भाषा को राष्ट्रभाषा , किसी ध्वज को राष्ट्रध्वज और किसी गीत को राष्ट्रगीत स्वीकार किया गया  है ।अब प्रश्न यह उठता है कि वह कौन सी विशेषता हो सकती है जिसके कारण कोई भी चीज  राष्ट्रिय बनती है , कोई एक गीत राष्ट्रगीत बनता है तो कोई एक ध्वज ही राष्ट्रध्वज बनता है ? इस प्रश्न का यही उत्तर सम्भव है कि जिस किसी वस्तु या पदार्थ का सम्बन्ध पूरे राष्ट्र के साथ हो ,जिससे किसी राष्ट्र के निवासियों में अपने राष्ट्र की एकता और अखंडता का बोध हो  और उसके प्रति श्रद्धाभाव उत्पन्न हो , उसे राष्ट्रिय माना जाना चाहिये ।
अब जरा सोचो ,यह विशेषता अपने राष्ट्रध्वज , राष्ट्रगीत  , राष्ट्रभाषा  , राष्ट्रिय पशु , राष्ट्रिय पक्षी आदि आदि में है क्या ? ध्वज तो एक जड पदार्थ है । वह भला कैसे किसी पदार्थ के स्वरूप का बोध करा सकता है और यदि बोध नही करा सकता तो फिर उसके प्रति श्रद्धाभाव कैसे पैदा करेगा ? यही बात पशु पक्षी आदि जितनो के ऊपर राष्ट्रिय का सिक्का लगा है , सभी के विषय में कही जा सकती है ।अब रही बात राष्ट्रगीत की , तो गीत कोई भी हो , वह शब्द स्वरूप होता हैै , और शब्द बोधक  होता है  इसलिये  जनगणमन  यह गीत भी बोधक तो है मगर किसका ? क्या यह गीत इस देश के नाम और स्वरूप का तथा इसदेश के माहात्म्य का बोध कराता है ? नहीं कराता । इस गीत में भारत शब्द तो है , लेकिन ,ध्यान दीजिये कि इस गीत में जय भारत की नहीं बल्कि भारतभाग्यविधाता की बोली गयी है ।इस भारतभाग्यविधाता को जनगणमन अधिनायक कहा गया है ।यह जनगणमन अधिनायक क्या होता है ? अधिनायक शब्द का  संस्कृत में प्रयोग नहीं होता ,हिन्दी में होता है और हिन्दी में यह उसी अर्थ में प्रयुक्त होता है जिस अर्थ में अंग्रेजी का डिक्टेटर या उर्दू का तानाशाह प्रयुक्त होता है। तो इस गीत में जनगण के मन के अधिनायक अर्थात् तानाशाह की जय यह कह कर बोली गयी है कि वह भारत के भाग्य का विधाता है ।अब वह तानाशाह कौन है यह तो इस गीत में स्पष्ट नहीं है पर यह एकदम स्पष्ट है कि इसमें भारत की जय तो नहीं ही बोली गयी है ।तो फिर इस गीत का सम्बन्ध  भारत नाम के राष्ट्र के साथ कैसे हुआ ? आखिर कोई वस्तु राष्ट्रिय तभी हो सकती है जब उसका सम्बन्ध पूरे राष्ट्र के साथ हो और उससे उस राष्ट्र की एकता और अखंडता के बोध के साथ उनके प्रति श्रद्धा भाव उत्पन्न हो  । यह एकदम स्पष्ट है कि अपने इस देश में  ध्वज आदि जितनी भी वस्तुओं के पूर्व राष्ट्र शब्द लगा कर उन्हें राष्ट्रिय बताने की कोशिश होती है  , उनकी तरह ही यह गीत भी राष्ट्रीयता की कसौटी पर खरा नहीं उतरता , फिर भी  इन पर राष्ट्रीय होने का लेबल लगा दिया गया है ।ये क्यों राष्ट्रिय हैं ? इनके राष्ट्रिय होने का मतलब ही क्या है ? यदि बिना किसी मतलब के ही ये राष्ट्रिय है तो फिर धर्म भी क्यों नहीं राष्ट्रिय माना जाता  , जब कि इन सभी राष्ट्रगीत ,राष्टध्वज आदि से एकदम विपरीत धर्म में तो वे सारी विशेषताएँ विद्यमान हैं जिनके कारण किसी वस्तु को राष्ट्रिय स्वीकार किया जा सके ? यदि धर्म में नहीं हैं तो फिर ध्वज गीत आदि किसी भी वस्तु में नहीं  हैं ।
यह सोचने की , विचार  करने की बात है  --- क्या इस देश का इतिहास 1947  से शुरू होता है ? क्या 1947 से पूर्व इस देश का अस्तित्व नहीं था ? यदि नहीं था तो फिर 15 अगस्त को स्वतन्त्रता दिवस क्यों मनाते हो ? फिर तो 15 अगस्त को इस देश का जन्मदिवस मनाओ । लेकिन नहीं ,  15 अगस्त को इस देश का जन्मदिवस नहीं मनाया जाता , स्वतन्त्रतादिवस मनाया जाता है ।अब जरा सोचो कि स्वतन्त्र कौन होता है ? स्वतन्त्र वही होता है जो परतन्त्र रहा हो । यदि यह देश 15 अगस्त 1947 के पूर्व था ही नहीं तो फिर वह कौन परतन्त्र था जो स्वतन्त्र हुआ ? यदि वह परतन्त्र यह देश ही था तो इससे यह सिद्ध होगया कि 15 अगस्त 1947  के पूर्व भी यह देश था ।अब सोचने की बात है कि  15 अगस्त 1947 तक यह देश था और भारत था और एक था तो कैसे था ?  क्या इस संविधान की वजह से था ? क्या इस तिरंगे झंडे के कारण था ? या फिर इस जनगणमन अधिनायक के कारण था ? गांधी के कारण था ? पटेल के कारण था ? या फिर नेहरू और अम्बेडकर जैसों के कारण था ?  स्पष्ट है कि इनमें से कुछ भी नहीं था  फिर भी यह देश भारत था कि नहीं ? और भारत था तो एक और अखण्ड तो था ही ,भले ही इसके छोटे छोटे अनेक टुकडों पर अनेक राजा राज्य करते रहे हों ।आज भी देश में अनेक राज्य हैं , उन राज्यों में अलग अलग पार्टियों की सरकारें हैं  , लेकिन उन सबसे ऊपर केन्द्र में भी एक सरकार है , यह फर्क तो है । 1947 से पूर्व इस देश में कोई केन्द्रिय प्रशासन नहीं था , यह सच है , लेकिन इसके साथ यह भी सच है कि केन्द्रिय प्रशासन न होने और  छोटी छोटी रियासतों में बंटे होने के बावजूद यह देश भारत के रूप में तो एक था ही । इतिहास उठा कर देख जाइये , ऐसा कोई कालखण्ड नहीं मिलेगा जब किसी के भी द्वारा इस देश के किसी भी अंश को भारत न मानने की बात कही गयी हो ।तो फिर जब कि यह भारत के रूप में ही एक था अखण्ड था तो यह जिज्ञासा स्वाभाविक है कि यह देश ऐसा कैसे था ?

यह मेरे बाल्यावस्था के समय की बात है । उस समय काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के नाम पर विवाद खडा हो गया ।कुछ लोग इसमें हिन्दू शब्द के समावेश पर आपत्ति जताते हुए कह रहे थे कि इसका यह नाम अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय के जवाब में रखा गया  है । अब हिन्दुस्तान में मुस्लिम  विश्वविद्यालय तो किसी हद तक समझ में आ सकता है ,  लेकिन हिन्दुस्तान में हिन्दू  विश्वविद्यालय । यह नाम बदला जाना चाहिये । इसके लिये पक्ष विपक्ष में दलीलें दी  जा रही थीं ।अखबारों में लेख छप रहे थे । इसी प्रसंग में एक अखबार ने एक बार एक ईंट की फोटो छापी । उस ईंट पर लिखा था  का  हि  वि  , अर्थात् काशी हिन्दू विश्वविद्यालय । जैसा कि किसी भी ईंट पर उसके ब्राण्ड का नाम उसके सांचे में ही  डाल देते है , ठीक उसी तरह ।उस अखबार ने नीचे टिप्पणी करते हुए लिखा कि  काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से हिन्दू शब्द हटाओ , कितना हटाओगे , इसकी तो एक एक ईंट पर काशी हिन्दू विश्वविद्यालय लिखा हुआ है , कहाँ तक हटाओगे ?

इसे पढ कर मेरे मन में विचार आया कि किसी देश का स्वरूप और उसकी एकता अखण्डता तभी तक बने रह सकते हैं जब तक उस देशके एक एक नागरिक बच्चे बच्चे के मन बुद्धि मे उस देश के स्वरूप और एकता अखण्डता  की अमिट छाप पडी हो ।और जहाँ तक इस देश का सम्बन्ध है , इसे एक धर्म ने ही सम्भव बनाया ।कैसे ? इस धर्म ने अपने प्रत्येक आचरण अपनी प्रत्येक क्रिया के प्रारम्भ में संकल्प को अनिवार्य कर दिया । संकल्प ,जिसमें जरूरी होता था कि कर्ता अपने प्रत्येक संकल्प में  उस कर्म , उस कर्म के प्रयोजन के साथ साथ  उस देश और काल काभी उच्चारण करे , जिस देश और काल में वह उस कर्म को करने जा रहा है ।इसके परिणामस्वरूप बने संकल्प के इस स्वरूप को जरा देखिये -----
हरि : ओम्  तत्सदद्यैतस्य श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य अद्य ब्रह्मणो द्वितीये  परार्द्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे अष्टाविम्शतितमे कलियुगे कलिप्रथमचरणे जम्बूद्वीपे भारतवर्षे भरतखण्डे आर्यावर्तैकदेशान्तर्गते पुण्यक्षेत्रे ..... 
यह  संकल्प इस धर्म के स्वरूप में इस तरह समाविष्ट था कि इस धर्म के नाम पर होने वाली कोई भी क्रिया शुरू ही इससे होती थी  , इसके बिना उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी ।स्नान से पहले संकल्प  , सन्ध्यावन्दनसे पहले संकल्प , ब्रह्मयज्ञ से पहले संकल्प , तर्पण से पहले संकल्प ,  देवपूजन से पहले संकल्प , बलिवैश्वदेव से पहले संकल्प , माने कुछ भी धार्मिक कर्म करो तो पहले संकल्प और इस संकल्प मे देश के नाम का उच्चारण करते हुए बोलना  ---भारतवर्षे भरतखण्डे , भारतवर्षे भरतखण्डे ।कौन सा देश भारतवर्ष है यह भी इसी धर्म ने ही बता रखा था ---

उत्तरं यत् समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम् । वर्षं तद् भारतं नाम भारती यत्र संतति : ।।
                                                                               विष्णुपुराण ।
अर्थात् पृथ्वी का वह भाग भारतवर्ष है जो हिमालय के दक्षिञण में और  समुद्र के उत्तर में स्थित है और  जहाँ उत्पन्न हुए लोगों को भारती कहा जाता है ।   

भारते S पि वर्षे भगवान्नरनारायणाख्य आकल्पान्तमुपचितधर्मज्ञानवैराग्यैश्वर्योपशमो परमात्मोपलम्भनमनुग्रहायात्मवतामनुकम्पया तपोS व्यक्तगतिश्चरति । तं भगवान्नारदो वर्णाश्रमवतीभिर्भारतीभि : प्रजाभि : भगवत्प्रोक्ताभ्याम् साङ्ख्ययोगाभ्याम् भगवदनुभावोपवर्णनं सावर्णेरुपदेक्ष्यमाण : परमभक्तिभावेनोपसरति ।

                                                                             श्रीमद्भागवत

 इसी धर्म ने इस देश के स्वरूप का वर्णन करते हुए इसकी महिमा बतायी ---

भारतेSप्यस्मिन् वर्षे सरिच्छैला : सन्ति बहवो मलयो मंगलप्रस्थो मैनाकस्त्रिकूट ऋषभ : कूटक :  कोल्लक : सह्यो देवगिरिर्ऋष्यमूक : श्रीशैलो वेङ्कटो महेन्द्रो वारिधारो विन्ध्य : शुक्तिमानृक्षगिरि : पारियात्रो द्रोणश्चित्रकूटो गोवर्धनो रैवतक : ककुभो नीलो गोकामुख इन्द्रकील : कामगिरिरिति चान्ये चशतसहस्रश : शैलास्तेषाम्  नितम्बप्रभवा नदा नद्यश्चसन्त्यसंख्याता : ।एतासामपो  भारत्य : प्रजा : नामभिरेव पुनन्तीनामात्मना चोपस्पृशन्ति । चन्द्रवसा ताम्रपर्णी अवटोदा कृतमाला वैहायसी कावेरी वेणी पयस्विनी शर्करावर्ता तुङ्गभद्रा कृष्णा वेण्या भीमरथी गोदावरी निर्विन्ध्या पयोष्णी तापी रेवा सुरसा नर्मदा चर्मण्वती सिन्धुरन्ध : शोणश्च नदौ महानदी वेदस्मृतिर्ऋषिकुल्या त्रिसामा कौशिकी मन्दाकिनी यमुना सरस्वती दृषद्वती गोमती सरयू रोधस्वती सप्तवती सुषोमा शतद्रूश्चन्द्रभागा  मरुद्वृधा वितस्ता असिक्नी विश्वेति महानद्य : ।अस्मिन्नेव वर्षे पुरुषैर्लब्धजन्मभि : शुक्ललोहितकृष्णवर्णेन स्वारब्धेन कर्मणा दिव्यमानुषनारकगतयो बह्व्य आत्मन आनुपूर्व्येण सर्वा ह्येव सर्वेषाम् विधीयन्ते यथावर्णविधानमपवर्गश्चापि भवति ।

इस धर्म ने ही इस देश की महिमा का  , देखिये जरा कैसा अद्भुत वर्णन किया है ----

एतदेव हि देवा गायन्ति ----

अहो अमीषाम् किमकारि शोभनम् प्रसन्न एषाम् स्विदुत स्वयं हरि : ।
यैर्जन्म लब्धं नृषु भारताजिरे मुकुन्दसेवौपयिकं स्पृहा हि न : ।। 

देवता भी भारतवर्ष में उत्पन्न हुए मनुष्यों की इस प्रकार महिमा गाते हैँ -----
अहा जिन जीवों ने भारत वर्ष में भगवान् की सेवा के योग्य मनुष्यजन्म  प्राप्त किया है , उन्होंने ऐसा क्या पुण्य किया है ? अथवा इनप र स्वयं श्रीहरि ही प्रसन्न हो गये हैं । इस परम सौभाग्य के लिये तो निरन्तर हम भी तरसते रहते हैं । 

कल्पायुषाम् स्थानजयात् पुनर्भवात् क्षणायुषाम् भारतभूजयो वरम् ।
क्षणेन मर्त्येन कृतं मनस्विन : संन्यस्य संयान्त्यभयं पदं हरे : ।।

यह स्वर्ग तो क्या --- जहाँ के निवासियों की एक एक कल्प की आयु होती है , किन्तु जहाँ से फिर संसारचक्र में लौटना पडता है , उन ब्रह्मलोकादि की अपेक्षा भी भारत भूमि में थोडी आयुवाला होकर जन्म लेना अच्छा है , क्योंकि यहाँ धीर पुरुष एक क्षण में ही अपने इस मर्त्यशरीर से किये हुए सम्पूर्ण कर्म श्रीभगवान् को अर्पण कर के उनका अभयपद प्राप्त कर सकता है ।

यद्यत्र न : स्वर्गसुखावशेषितं स्विष्टस्य सूक्तस्य कृतस्य शोभनम् ।
तेनाजनाभे स्मृतिमज्जन्म न : स्याद् वर्षे हरिर्भजताम् शं तनोति ।।

अत : स्वर्गसुख भोग लेने के बाद हमारे पूर्वकृत यज्ञ प्रवचन और शुभ कर्मों से यदि कुछ भी पुण्य बचा हो तो उसके प्रभाव से हमें इस भारतवर्ष मे भगवान् की स्मृति से युक्त मनुष्य जन्म मिले क्योंकि श्री हरि अपना भजन करने वाले का सब प्रका र से कल्याण करते हैं ।

यह एक धर्म ही है जो इस देश का स्वरूप ही नहीं बताता , इसके महत्त्व का वर्णन करते हुए अपने अस्तित्व को ही इसके अस्तित्व के साथ जोड देता है ----तत्रापि भारतमेव वर्षं कर्मक्षेत्रम्  ---- भागवत  5 , 17 , 11 , भारतवर्ष ही कर्मक्षेत्र है , माने इस धर्म के आचरण का फल किसी को तभी मिलेगा जब वह इस धर्म का आचरण इसी देश में करे । यह देश मात्र एक देश नहीं है , यह तो एक खेत है जिसमें धर्म की खेती होती है ।धर्म की दृष्टि से यह बहुत उपजाऊ खेत है ।जैसे किसी खेत मे गेहूँ  बहुत अच्छा पैदा होता है तो कहीं बाजरे की  पैदावार अच्छी होती है। काश्मीर में केसर पैदा होती है  , मैसूर में चन्दन पैदा होता है  , हिमाचल मे सेव और आसाम में चाय की खेती बढिया होती है ।  वैसे ही इस धर्म के धर्मशास्त्र कहते है कि इस धर्म को पैदा करने के लिये सबसे बढिया खेत यह भारतवर्ष ही है ।इस धर्म की खेती अर्थात् इस धर्म का आचरण इस देश में करने पर धर्म की पैदावार जबर्दस्त होती है , उसका फल जबर्दस्त  मिलता है ।
धर्मशास्त्रो के इस वर्णन का और अपने माननेवालो को दिये गये आदेश का , विधान का ही यह प्रभाव था कि इस देश के मूलनिवासी सभी वर्णाश्रमी ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शूद्र अपने प्रतिदिन के सभी लौकिक पारलौकिक कार्यो के प्रारम्भ में  देश के उल्लेख के रू प में इस देश के नाम का उच्चारण अवश्य करते थे ।भारतवर्षे भरतखण्डे ये दो शब्द इस देश के बच्चे बच्चे की जुबान पर रहते थे  । इस तरह इसदेश की जो इमारत बनायी गयी थी उसकी ईंट ईंट पर लिखा हुआ था  ---- भारतवर्ष  ।कोई कैसे मिटा सकता था  इस लिखे हुए को  । इसलिये राजनैतिक दृष्टि से भले ही इस देश के अलग अलग भागों पर अलग अलग राजाओं का शासन रहा हो , देश की दृष्टि से यह हमेशा से ही भारतवर्ष के रूप मे एक बना रहा । यह इस धर्म का , इस धर्म के शास्त्रों का परभाव नहीं था तो फिर किसका था ?और आज भी इस धर्म का पालन करने वालों के लिये यह देश भारतवर्ष ही है ,  देश  जो हिमालय के दक्षिण मे  और  समुद्र के उत्तर में फैला हुआ है ।इस धर्म को माननेवाला , इसका पालन करने वाला , अफगानिस्तान से बर्मा तक और  इधर तिब्बत से लेकर लंका तक के भू भाग में कहीं भी बैठा हो , अपने धर्म के अनुष्ठान के प्रारम्भ में संकल्प करते समय देश काल का उच्चारण करते हुए यही बोलेगा और बोलता भी है  ----- भार त वर्षे भरतखण्डे  आर्यावर्तैकदेशान्तर्गते पुण्यक्षेत्रे , भले ही  राजनेताओं की करतूतों से वह भू भाग  भारत न रह कर कुछ और कहलाने लगा हो  ।उदाहरण के लिये नेपाल को ही ले लीजिए । राजनैतिक दृष्टि से नेपाल भारत नहीं है , लेकिन मेरे क ई नेपाली मित्रों से मैंने पूछा तो उन्होंने बताया कि वे नेपाल में भी सन्ध्यावन्दनादि कर्म करते समय संकल्प में यही बोलते है ----- भारतवर्षे  भरतखण्डे आर्यावर्तैकदेशान्तर्गते पुण्यक्षेत्रे नेपालप्रदेशे  .....।   अब जरा सोचिए , नेपाल में तो अभी कुछ लोग बचे हुए हैं जिनका धर्म  उन्हें सिखाता है कि यह भूभाग  भारत ही है  ,मतलब यह कि नेपालरूपी प्रासाद जिन ईटों से बना है उनमे से बहुत कम ही ऐसी  ईंटें बची है जिनपर भारतवर्ष  लिखा हुआ है । शेष ईंटों को लोग या तो उठा ले गये , या फिर उन पर लिखे हुए शब्द भारतवर्ष को मिटा कुछ और लिख दिया , कही अफगानिस्तान लिखदिया और कहीं पाकिस्तान लिख दिया ।भारतवर्ष के इस विशाल प्रासाद का जो भाग अभी भारतवर्ष के रूप में बचा हुआ है  वह इसलिये क्योंकि अभी इस प्रासाद के कुछ भागों की ईंटों पर भारतवर्ष  लिखा हुआ है ।कुछ वर्णाश्रमी हैं जो अभी भी अपने प्रत्येक धार्मिक कृत्य के प्रारम्भ में संकल्प करते समय बोलते हैं , उन्हें बोलना पडता है --- भारतवर्षे भरतखण्डे आर्यावर्तैकदेशान्तर्गते पुण्यक्षेत्रे  ।
तो इसतरह आपने देखा , यही एक धर्म है जिसने इस देश को  भारतवर्ष बनाया और एक बनाया । इस धर्म के कारण ही आज भी यह देश भारतवर्ष है और एक है और आगे भी यदि यह देश भारतवर्ष के रूप में एक रहेगा तो इस धर्म के कारण ही रहेगा । यह देश भारतवर्ष केरूप में एक इसलिये नहीं है कि इसका झंडा तिरंगा है या इसका गान जनगणमन है , या इसका  पशु सिंह है और पक्षी मोर है  । यह देश भारतवर्ष के रूप में एक इसलिये भी नहीं है कि इस देश का एक  तथाकथित धर्मनिरपेक्ष संविधान है । यह देश  भारतवर्ष के रूप में एक इसलिये है क्योंकि इस देश के निवासी उस धर्म का अनुष्ठान ,उस धर्म का आचरण करते है , उस धर्म को मानते है  जिसका प्रतिपादन , जिसका शासन मन्त्रब्राह्मणात्मक षडंग वेद , तदनुसारिणी स्मृतियो पुराणों उपनिषदों रामायण महाभारतादि ग्रन्थों से होता है  , और जो यह सिखाता है कि यह देश जो कि हिमालय से लंका तक और अफगानिस्तान से बर्मा तक फैला हुआ है , भारतवर्ष है  ---- येषाम् खलु महायोगी भरतो ज्येष्ठ : श्रेष्ठगुण आसीद्येनेदं वर्षं भारतमिति व्यपदिशन्ति ---- भागवत ।  कोई कुरान , कोई बाईबल  या फिर और कोई  भी इस तरह का ग्रन्थ इस तरह न तो इस देश का स्वरूप बताता है और न ही इसकी महिमा का इस तरह तो क्या किसी भी तरह से वर्णन करता है । और वर्णन नहीं करता तो जो भी कोई  इन ग्रन्थों का अनुयायी होगा , इन ग्रन्थों के अनुसार अपने जीवन को अपने विचारों को ढालता होगा  वह क्यों इस देश के नाम रूप एकता अखण्डता के प्रति श्रद्धाभाव रखेगा ? ये वेदादि शास्त्र ही हैं जो इस देश के महत्त्व का प्रतिपादन करते हैं , इसलिये इस देश के लिये राष्ट्रिय कहे जाने योग्य यदि कुछ हो सकता है  तो वह वह धर्म ही हो सकता है जिसका प्रतिपादन  षडंग वेद और तदनुसारी ग्रन्थ करते है । यदि यह धर्म राष्ट्रिय नहीं हैै तो फिर कोई झंडा डंडा , कोई गीत संगीत  , कोई पशु पक्षी या फिर इस देश के स्वरूप संस्कृति सभ्यता और इतिहास से सर्वथा अनभिज्ञ कुछ लोगों के द्वारा लिखी गयी कोई पुस्तक ही  राष्ट्रिय कैसे हो सकते हैं  ? ऐसे धर्म से इस देश के निरपेक्ष होने का एक ही अर्थ है ---यह देश आत्महत्या कर रहा है ।

धर्मस्य फलमिच्छन्ति धर्मम् नेच्छन्ति मानवा : ।
                                                  फलं  पापस्य नेच्छन्ति पापं कुर्वन्ति यत्नत : ।।

Monday 18 May 2020

सत्यकाम जबाला



सत्यकाम जबाला को लेकर जो भ्रांतियां फैलाई गई है वह निराधार तथा समाज को दिग्भ्रमित करनेवाला है ।
वे तथाकथित बुद्धिजीवी बिषयो का अध्ययन न तो तन्मयता से ही करते है न हीं पूर्णरूपेण और इन्ही आधे अधूरे अध्ययन के बल पर कुतर्क करते फिरते है ।
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●पूर्वपक्ष :-- सत्यकाम का पुत्र जबाला एक दासी पुत्र था  सत्य काम ब्राह्मणो की परिचर्या करती थी और परिचर्या का अधिकार शूद्रों का है अतः जबाला शुद्र हुए

●उत्तर पक्ष :-- परिचर्या शब्द से यह अर्थ लेना न्याय संगत नही की जो परिचर्या करे वह शुद्र ही हो ब्राह्मणो के परिचर्या का अधिकार समस्त वर्णो को प्राप्त है ।

●नम्बर •१:-- कठ उपनिषद में बटुक बालक नचिकेता का परिचर्या स्वयं यमराज ने की तो क्या यमराज शुद्र हो गए ?

●नम्बर •२:-- भगवन श्री कृष्ण (जिनका आविर्भाव क्षत्रिय कुल में हुआ था)  उन्होंने स्वयं ब्राह्मणश्रेष्ठ सुदामा जि की परिचर्या की तो क्या श्रीकृष्ण जी शुद्र हुए ?

●नम्बर •३ :-- सूर्यवंशी कुल शिरोमणि भगवन श्रीरामचन्द्र और लक्ष्मण जी ने विश्वामित्र ऋषि के सेवार्थ लिए उपस्थित हुए थे क्या वे शुद्र थे ?

●नम्बर• ४:--- माता कुन्ती एक क्षत्राणी होते हुए भी दुर्वाशा ऋषि की परिचर्या की थी क्या वे शुद्रा थी ?

यहाँ तक तो यह स्प्ष्ट हो गया कि ब्राह्मणो की परिचर्या का अधिकार समस्त वर्णो का है ।
अब आते है उनके वर्ण बिषय पर
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ऋषिगण पूर्णप्रज्ञ भूतभविष्य के द्रष्टा  समस्त ज्ञान उनके हस्तामलक होते थे   ऋषि स्वयं दिब्य होते है जो दिब्य हो उनपर लेश मात्र भी शङ्का करना श्रुतियों पर सन्देह करना होगा ऐसे में श्रुतियों की नित्यता भी बाधित हो जाएगी  ऐतरेय ब्राह्मण में स्प्ष्ट कहा गया है

■--: ऋषयो देव्या (ऐतरेय ब्राह्मण २/२७)

जो स्वयं दिब्य हो उनकी वाणी भी दिब्यता से ओत प्रोत होती है वे कभी भी न तो मिथ्या आचरण ही करते है और न ही उनके कथनों में मिथ्याभास ही होता है ऋग्वेद की यह ऋचा स्प्ष्ट कहती है कि पूर्व में जितने भी ऋषि हुए वे मिथ्या आचरण अथवा मिथ्या भाषण नही करते

■--: ये चि॒द्धि पूर्व॑ ऋत॒साप॒ आस॑न्त्सा॒कं दे॒वेभि॒रव॑दन्नृ॒तानि॑ ।(ऋ १/१७९/२)

फिर छनदोग्य उपनिषद में महर्षि गौतम के वचनों पर सन्देह उतपन्न करना श्रुतियों के आज्ञाओ का भंग करना होगा 
छनदोग्य उपनिषद में महर्षि गौतम ने जबाला के बिषय में स्प्ष्ट कहा है

■--:नैतदब्राह्मणो  तमुपनीय (छा०उ०४/४/५) 

(हे ब्राह्मण आओ मैं तुम्हारा उपनयन संस्कार करवाता हूँ ।)

महर्षि गौतम ने जबाला को स्प्ष्ट रुप से ब्राह्मण कहा है   और कुछ अल्पज्ञ अल्पश्रुत  बस तर्को के माध्यम से अपना मनोरथ सिद्ध करने की कुचेष्टा करते है ।
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आजकल निज मत मतान्तरों से सनातन धर्म शास्त्रों का अर्थ किया जा रहा यह दुर्भाग्य पूर्ण है जब कि वेदों का शंखध्वनि है ।

वि॒द्वांसा॒विद्दुरः॑ पृच्छे॒दवि॑द्वानि॒त्थाप॑रो अचे॒ताः ।
नू चि॒न्नु मर्ते॒ अक्रौ॑ ॥[ऋ १/१२०/२]

सदैव वेदादि शाश्त्रो के विद्वान आचार्यो से पूछ का ही सत्य असत्य का निर्णय आचरण करना चाहिए ।


Thursday 23 April 2020

आर्यसमाजी


स्वामी दयानंद सरस्वती आर्यसमाज के संस्थापक माने जाते है स्वामी दयानन्द सरस्वती कृत पुस्तक सत्यार्थप्रकाश ही आर्यसमाज  का मूल ग्रन्थ माना जाता है आर्यसमाज स्वयं को सबसे बड़ा वैदिक धर्मी बताते है(यह भी एक तरह का झूठ ही है)
स्वामीदयनन्द सरस्वती ने सत्यार्थ प्रकाश के पृष्ठ संख्या  ३६१
में स्वीकार किया है कि महाभारत ग्रन्थ में जो जो श्लोक आये है वह सत्य है तथा उन्होंने सत्यार्थ प्रकाश में अपने मत को प्रमाणित करने के लिए   सबसे ज्यादा प्रमाण मनुस्मृति ग्रन्थों से ही दिया है और उसी मनुस्मृति को आर्यसमाजी प्रक्षिप्त मानते है अब जो ग्रन्थ प्रक्षिप्त हो तो भला उस ग्रन्थ से  ही अपने मतों को पुष्टि हेतु प्रमाण में क्यो रखेंगे ? आप स्मृतिआदि ग्रन्थों को प्रक्षिप्त भी कहेंगे और प्रमाण भी उसी ग्रन्थों से देंगे ये तो अर्धकुक्कुट न्याय हुआ  । स्वामी दयानन्द ने महाभारत के बिषय में भी ऐसा ही कहा जबकि पृष्ठा संख्या ३६१ में पहले वे स्वीकार करते है कि महाभारत में आये हुए  सभी श्लोक सत्य है  वही फिर आगे यह भी लिख देते है कि महाभारत में मिलावट हुआ है लगता है सत्यार्थ प्रकाश जब लिखने बैठे थे तब भांग पी कर ही बैठे होंगे ।
 लेकिन दयानन्द सरस्वती ने उसका युक्ति युक्त कोई प्रमाण  दे न सके , बस केवल लिख मारे बिना प्रमाणों के किसी विषयवस्तु को मिथ्या कह देने मात्र से वह मिथ्या नही हो जाता जब तक उसे प्रमाणित न किया जाय ,
आज के सम्बिधान अनुसार भी यदि किसी दोषी को दण्ड देना हो तो उसे भी सम्बिधान अनुरूप दण्ड और सम्बिधान के दायरे में रह कर ही उनके दोषों पर सत्य और मिथ्या का बिचार किया जाता है , और जब तक उसका दोष परिपुष्ट न होगा तब तक उसे उस दोष के लिए दण्ड भी नही दिया जा सकता अन्यथा वह अन्याय के श्रेणी में आजाता है ।
ठीक उसी प्रकार स्वामी दयानन्द ने सनातन धर्म ग्रन्थों को प्रक्षेपित कहा बिना यह प्रमाणित किये की उस उस ग्रन्थों में किसने मिलावट किया तथा किस कालखण्ड में   किया और वे कौन कौन से श्लोक है इसका विवरण बिना दिए ही वे ढोल पीटते रहे । वस्तुतः आर्यसमाज की भीत भी इसी पुराण और स्मृति आदि ग्रन्थों के आड़ लेकर खड़ा है । स्वामी दयानन्द सरस्वती के पूर्व इस भारत भूखण्ड में कई बिभूतियो का अवतरित हुआ जिन्होंने इतिहासपुराण स्मृति आदि ग्रन्थों को मुक्तकण्ठ से प्रमाणिकता स्वीकार की चाहे वह गौड़ापाद हो वा कुमारिल भट्ट हो अथवा शङ्कराचार्य हो वा यमुनाचार्य हो अथवा रामानुजाचार्य हो वा  माधवाचार्य हो अथवा वल्लभाचार्य, वा वाचस्पति मिश्र तथा निम्बार्काचार्य ।
वेद सर्वसाधारण के लिए अत्यंयत दुरूह है वेद की जितनी भी ऋचाएं है वे अपने आप में दिब्य  और प्रभावकारी है यह ऋचाओ के उच्चारण में जरा सा भी भेद अपकल्याण का कारक बन सकता है इस लिए वेदो  को समझने के लिए अनादिकाल से चली आरही परम्पराप्राप्त आचार्यो के सानिध्य में षडाङ्गो के माध्यम से ही समझा जाता है उसी वेद को सरल रूप में समझने के लिए हमे इतिहास पुराण स्मृति आदि ग्रन्थों का सहारा लेना पड़ता है ।
एक माता यदि अपने बालक को गन्ने की गुल्ला देने के बजाय उसे मिश्री देती है तो भला इसमें माता का क्या दोष ?  बालक के प्रसन्न और सुरक्षित रखने के लिए आप उस माता को क्या कहेंगे ??इसे कहने की आवश्यकता सायद मुझे भी नही है ।
ठीक जिन जिन वर्णो का वेदादि ग्रन्थों में अधिकार नही तद्वत वर्णसमुदाय के लिए इतिहासपुराणादि,स्मृति ग्रन्थ ही वह मार्ग बचता है जिस धर्म के सूक्ष्म रूप को समझा जा सके ।

ईतिहासपुराणं पञ्चमं वेदानां वेदं  (छान्दोग्य उपनिषद)

स्वयं श्रुतियों में इतिहास पुराणादि को पञ्चम वेद कहा गया है क्यो की बिना इतिहास पुराणादि के वेद को समझना क्लिष्ट है

इसी बिषय को महाभारत में कहा गया है

इतिहासपुराणाभ्यां वेदं समुपबृंहयेत् (महाभारत आदिपर्व)

वेदो के अर्थ को निर्णय करने वाला इतिहास एवं पुराण के ही शब्द विचारणीय है ।
 ऐसे में श्रुतिस्मृति सम्मत बिषयों को न मान कर श्रुतिस्मृति विरुद्ध पाखण्ड का प्रचार आर्यसमाज द्वारा किया गया ।

जिस प्रोपेगैंडा को ईशाई मिशनरी तथा इस्लामिक मत   फैलाने में असफल रहे उसी प्रोपेगैंडा को स्वामी दयानन्द के जरिये प्रचार किया गया ताकि हिन्दूओ में वर्णाश्रमधर्म के विरुद्ध विखण्डन का बीज बोया जा सके और हिन्दुओ को खण्ड खण्ड में बांटा जाय इसी कारण इतिहासपुराण स्मृति आदि ग्रन्थों के बिषय में भ्रामक प्रचार किया गया ,
की इन सभी ग्रन्थों में मिलावट किया गया है अतः इतिहासपुराणादि बिषय अब पठन पाठन में नही रहा इससे उन लोगो के प्रति मन मे सन्देह उतपन्न हुआ जिन्हें वेदो से भिन्न इतिहासपुराणा आदि ग्रन्थों के श्रवण और अध्ययन में अधिकार था जिससे तद् तद् वर्णसमुदाय अपने स्वधर्म को समझते थे और पालन भी करते थे ऐसे में उन उन वर्णसमुदाय के मन मे सन्देह उतपन्न करना ही एक मात्र मार्ग शेष बचा था क्यो की भारतीयों को गुलाम बना कर भी ईशाई और इस्लामिक शाशनकर्ता मानसिक रूप से भारतीयों को गुलाम न बना सका  भारतीय मानसिक रूप से दृढ़संकल्प वाले थे और उसके दृढ़ संकल्प को भेदन कैसे किया जाय इसके लिए उसे कोई ऐसे ब्यक्ति की तलाश थी जो इस काम को पूरा कर सके ऐसे में स्वामी दयानन्द उनके बैचारिकता को पोषण देने वाला बना ।
 जिन्हें अपने स्वधर्म और अपने धर्मग्रन्थो पर अटूट श्रद्धा था ।उन उन वर्णाश्रमधर्मियो के मन में यह शंका का बीज बोया गया कि तुम्हारे ग्रन्थ जाली और प्रक्षिप्त है
और आज जनसाधारण में लगभग यह बात घर कर गई है कि इतिहासपुराणादि ग्रन्थों में मिलावट हुई है इसी बात का सहारा लेकर ईशाई मिशनरी और इस्लाम धर्म अपने मनोरथ में लगभग सफल हुए ।
आर्यसामज वेदादि धर्म के रक्षक नही अपितु भक्षक बन कर उभरा और सनातन धर्म को शनै शनै क्षरण करता गया ।

Sunday 5 April 2020

माता शबरी

#माता_शबरी_शंका_समाधान

श्रीरामचन्द्र आदि रामायण के बिषय में प्रथम प्रमाण वाल्मीकि रामायण का ही माना जाता है देवऋषि नारद तथा ब्रह्मादि देवताओं के आशीर्वचन से महर्षि वाल्मीकि को तपोबल से श्रीरामचन्द्र ,माता सीता दसरथ,आदि राक्षसों का प्रकट और गुप्त चरित्र साक्षात्कार हुआ था ।जिसको उन्होंने श्लोकबद्ध कर इस महा काब्य को जनकल्याणर्थ प्रकाशित किया ।

रामस्य चरितम् कृत्स्नम् कुरु त्वम् ऋषिसत्तम ।
धर्मात्मनो भगवतो लोके रामस्य धीमतः ॥१-२-३२॥
वृत्तम् कथय धीरस्य यथा ते नारदात् श्रुतम् ।
रहस्यम् च प्रकाशम् च यद् वृत्तम् तस्य धीमतः ॥१-२-३३॥
रामस्य सह सौमित्रे राक्षसानाम् च सर्वशः ।
वैदेह्याः च एव यद् वृत्तम् प्रकाशम् यदि वा रहः ॥१-२-३४॥
तत् च अपि अविदितम् सर्वम् विदितम् ते भविष्यति ।
न ते वाक् अनृता काव्ये काचित् अत्र भविष्यति ॥
कुरु रामकथाम् पुण्याम् श्लोक बद्धाम् मनोरमाम् ।१-२-३५॥
राम लक्ष्मण सीताभिः राज्ञा दशरथेन च ।
स भार्येण स राष्ट्रेण यत् प्राप्तम् तत्र तत्त्वतः ॥१-३-३॥
हसितम् भाषितम् च एव गतिर्यायत् च चेष्टितम् ।
तत् सर्वम् धर्म वीर्येण यथावत् संप्रपश्यति ॥१-३-४॥
स्त्री तृतीयेन च तथा यत् प्राप्तम् चरता वने ।
सत्यसन्धेन रामेण तत्सर्वम् च अन्ववेक्षत ॥१-३-५॥
ततः पश्यति धर्मात्मा तत् सर्वम् योगमास्थितः ।
पुरा यत् तत्र निर्वृत्तम् पाणाव आमलकम् यथा ॥१-३-६॥

इसी महाकाब्य में माता शबरी का भी वर्णन है समय समय पर माता शबरी को लेकर लोग भांति भांति से अपने बिचारो को प्रकट किया और करते भी रहेंगे ।की माता शबरी शुद्रा थी ,तो कोई कहता है माता शबरी भील जाती से थी ,मुण्डे मुण्डे मति:भिन्ना ।

उसी बिषय को लेकर हम यहाँ बिचार करेंगे ।

वाल्मीकि रामायण में माता शबरी मतङ्ग मुनि के आश्रम में गुरुओं और ऋषियों की सेवाशुश्रूषा करने वाली बताई गई है ।

●--गुरु शुश्रूषा सफला चारुभाषिणि (वा०रा०आ०७४/९)

आश्रम शब्द अपने आप में शुचिता ,मर्यादानुकूल आचरण, वेदादि विद्याओं का अध्यय अध्यापन का स्थान माना जाता है ऐसे में माता शबरी के आश्रम में निवास होने का अर्थ यही होता है कि उनका आचरण मर्यादानुकूल ,शुचिता, अध्ययनध्यापन के विद्याओं में   बाधा न पड़े होना सिद्ध होता है ।

●--धर्मसूत्र तथा स्मृतियों में कहा गया है कि ।
#श्मशाने_चाध्य्यनं_वर्जयेत_शुद्रायां_तू_यदा_परस्परं_भवति
#तदैवाSनध्याय_न_समानागरे_नापिशम्याप्रसादिति ।

●--श्मशानवच्छुद्रपतितौ (आपस्तम्ब १/३/९/९)
●--समानागार इत्येक (आपस्तम्ब धर्मसूत्र १/३/९/१०)
●--शुद्रायां तू प्रेक्षणप्रतिपेक्षणयोरेवाSनध्याय (आपस्तम्ब धर्मसूत्र १/३/९/११)

ऐस में माता शबरी का शुद्रा अथवा चाण्डाल होना  इस मत का यहाँ ध्वंस हो जाता है ऋषि महर्षि गण पूर्णप्रज्ञ होते थे ऐसे में उन्हें अपने आश्रम की शुचिता अशुचिता का बोध कैसे न हो की आश्रम में किस किस कुलगोत्रादि के लोग रहे ।
अब आगे आते है

वाल्मीकि रामायण के अरण्यकाण्ड मे माता शबरी को सिद्धा तपस्वी कहा गया है ।
●--तापसी पृष्ठा सा सिद्धा सिद्धसम्मता  (वा०रा०आ७४/१०)

 सिद्धियां उन्हें ही प्राप्त हो सकती है जो अपने वर्णाश्रमधर्म का पालन अक्षरसः करता हो ।
●--स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः।(गीता१८/४५)
●--कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः। (गीता ३/२०)

अपने-अपने कर्ममें तत्परतापूर्वक लगा हुआ मनुष्य सम्यक् सिद्धि-को प्राप्त कर लेता है महाराज जनकादि भी अपने वर्णोचित कर्म से ही सिद्धियां प्राप्त की थी ।
अब यहाँ प्रसंग यह भी उठ सकता है कि माता शबरी हो न हो क्षत्रिय कुल अथवा वैश्य कुल से होगी इस लिए उन्हें भी सिद्धियां प्राप्त हुई ।

परन्तु वाल्मीकि रामायण में माता शबरी के बिषय में जन्मादि वृतान्त  का अभाव है जिससे इसका निर्णय भी कठिन हो जाता है ऐसे में श्रुतिस्मृतिआदि ग्रन्थों में ब्राह्मण ,क्षत्रिय,वैश्य,बिशेष को लेकर आये हुए बिषयों पर बिचार करना आवश्यक हो जाता है ।
जैसे
●---गुरुर्हि सर्वभूतानां ब्राह्मणः (महाभारत आदिपर्व)
●---अध्यापनं याजनं च विशुद्धाच्च प्रतिग्रहः ।।
विप्रस्य जीविका प्रोक्ता (स्कन्दपुराण वैष्णवखण्ड २०/२८)
●--उपनीय तु यः शिष्यं वेदं अध्यापयेद्द्विजः ।
सकल्पं सरहस्यं च तं आचार्यं प्रचक्षते । । (मनुस्मृति २/१४०)

इस न्याय से ब्राह्मण से भिन्न अन्य कोई भी वर्ण का अधिकार गुरु ,आचार्यत्व तथा अध्यापन आदि में अधिकार नही ठीक वैसे ही कृष्णमृगचर्म का धारण करना केवल मात्र ब्राह्मणो का ही अधिकार है ।
क्षत्रिय,वैश्य के लिए अलग अलग वस्त्रों का विधान है ।

●--हारिणमैणेयं वा कृष्णं ब्राह्मणस्य (आपस्तम्ब धर्मसूत्र१/३/३)
●--कार्ष्णरौरवबास्तानि चर्माणि ब्रह्मचारिणः ।
वसीरन्नानुपूर्व्येण शाणक्षौमाविकानि च । । (मनुस्मृति २.४१ )

माता शबरी को वाल्मीकि रामायण में कृष्णमृगचर्म धारण करने वाली बताई गई है ।

●--जटिला चीरकृष्णाजिनाम्बरा (वा०रा०७४/३२)

ऐसे में आप सभी पाठकगण बिचार करें कि माता शबरी किस वर्ण से थी

यदि मुझ अल्पज्ञ से कोई त्रुटि हो तो विद्जन छमा करें


Friday 28 February 2020

शोषण

स्वर्णो ने बहुत शोषण किया है साहब

अंगिरस, आपस्तम्भ, अत्रि, बॄहस्पति, बौधायन, दक्ष, गौतम, वत्स,हरित, कात्यायन, लिखित, पाराशर, समवर्त, शंख, शत्तप, ऊषानस, वशिष्ठ, विष्णु, व्यास, यज्ञवल्क्य तथा यम तक
आद्य शङ्कराचार्य से लेकर रामानुजाचार्य तक , आचार्य पाणिनि से लेकर आर्यभट्ट तक ,आचार्य चाणक्य से लेकर सायणाचार्य तक ,
वाचस्पति मिश्र से लेकर करपात्री महाराज तक
मंगल पांडेय से लेकर चन्द्रशेखर आजाद तक ,बीर सावरकर से लेकर पण्डित मदन मोहन मालवीय तक , चैतन्य महाप्रभु से लेकर श्यामाप्रसाद मुखर्जी तक
इस पवित्र भूखण्ड भारत को पुष्पित पल्लवित करने विश्व के अध्यात्म ज्ञान का प्रकाश पुञ्ज बनाने तथा इस राष्ट्र को अंग्रेजो की बेड़ियों से मुक्ति दिलाने में ब्राह्मणों का योगदान नही था क्यो की ये सभी ब्राह्मण अन्य वर्णो के शोषण में लगे हुए थे .........
क्या इन ब्राह्मणों के बिना आप इस भारतवर्ष की कल्पना तक कर सकते है ???
घिन आता है ऐसे मानसिक से ग्रसित लोगो से जो यह कहते है कि ब्राह्मणों ने तो अन्य वर्णो का शोषण किया .....
इतने कष्टप्रद वचनों को सुनकर भी ब्राह्मण आज भी अपने यजमानो की मंगलकामना की प्रार्थनाएं करता है .....
मैं गर्व करता हूँ इन ब्राह्मणों पर जिन्होंने ने आज तक सनातन धर्म को अक्षुण बनाये रखने में अपना सम्पूर्ण जीवन वैदिक सनातन धर्म और राष्ट्र के प्रति निश्चल भावना से समर्पित किया ...

Friday 7 February 2020

माता सीता का वन गमन


श्रीराम चन्द्र केवल मात्र सीता का पति ही नही अपितु अयोध्या के अधिपति भी थे ऐसे में उसका यह दायित्व भी बनता था कि अयोध्या के प्रत्येक प्रजा सुख, समृद्ध ,संशयशील रहित  रहे तभी राजा अश्वमेघयज्ञ के अधिकारी होता है जिस राज्य में प्रजा दुःख,  ईर्ष्या, संशयशील हो उस राजा को यह अधिकार नही की वह अश्वमेघयज्ञादि कर स्वयं को चक्रवर्ती सम्राट घोषित करें अयोध्या का यह इतिहास रहा है कि इक्ष्वाकु कुल के  शाशन काल  में वैश्या,  चोर,मद्यप, जुआड़ी ,  नही था फिर श्रीरामचन्द्र जी के शाशनकाल में यदि प्रजा संशयशील हो तो राजा का यह नैतिक कर्तब्य बनता है कि उसका निवारण करें अन्यथा युगों युग की कीर्ति पर कंलक लग सकता है ।
अतः श्रीरामचन्द्र जी का सीता का वनगमन का निर्णय लेना धर्म सम्मत है ।
शास्त्रो में उपदिष्ट है कि

#यद्यदाचरति_श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो_जनः।
#स_यत्प्रमाणं_कुरुते_लोकस्तदनुवर्तते (गीता )

श्रेष्ठ पुरुष जैसा आचरण करता है अन्य लोग भी वैसा ही अनुकरण करते हैं वह पुरुष जो कुछ प्रमाण कर देता है लोग भी उसका अनुसरण करते हैं ।
ऐसे में अयोध्य्या में किसी ने राम और सीता के मध्य कोई प्रश्न उठाया तो उसका निवारण करना राजा का प्रथम कर्तब्य बन जाता है अन्यथा राज्य में व्यभिचार बढ़ने की सम्भवना बढ़ती है ।
माता जानकी के कुटिल विरोधी समाज ने भी लवकुश के कंठो से  श्रीरामकथा का गान सुन उनका भक्त हो कर पश्चाताप के अश्रुधाराओं से अपने कल्मषों को धो डाला यह राघवेन्द्र की नीति ही थी जिसके फलस्वरूप ये घटनाएं घटित हुई जो काम किसी दण्डबिधान और प्रोपोगेंडा से कभी सम्भव न था वही श्रीरामचन्द्र जी के नीतियों से ही सुसम्पन्न हुआ जो महर्षि बाल्मीकि के माध्यम से लवकुश द्वरा  जनता के समक्ष माता जानकी के पवित्रता और निर्मलता का ज्ञान कराया ।
माता जानकी श्रीरामचन्द्र की काया की छाया थी राम रूप भानु की प्रभा एवं रामरूप चन्द्र की चंद्रिका थी रामरूप ईश्वर की महाशक्ति रूपा की प्रकृति थी एवं आनंदसिन्धु श्रीराम की माधुर्यसार सर्वस्य की अधिष्ठात्री महालक्ष्मी थी वाहिरङ्ग दृष्टि से रामसीता का विप्रयोग सम्भव था परन्तु अंतरंग दृष्टि से तो यह विप्रयोग सम्भव ही नही था इस लोए लङ्का में जैसे सीता की छाया रह सकती थी वैसे ही सीता बनवास में भी  सीता की छाया ही थी वस्तुतः अमृत में मधुरिमा का पार्थक्य जैसे असम्भव है ठीक वैसे ही श्रीराम सीता का पार्थक्य असम्भव है ।

#अनन्या_हि_मया_सीता_भास्करेण_प्रभा_यथा ।(बाल्मीकि रामायण)

परन्तु स्नेह और प्रेम उद्वेग में राम ने कर्तब्य से बिचलित न होने की प्रतिज्ञा ले रखी थी वे किसी भी स्नेह ,दया या मोह, सुख के लोभ में पड़कर लोकाराधन प्रजारञ्जन के कार्य से कैसे बिमुख हो सकते थे और उन्होंने सीता का भी इसी में हित समझा और वह हुआ भी इस कठोरता का आश्रयण कोई बिना महर्षि बाल्मीकि का समागम नही हो सकता था सीता के सुपुत्र लवकुश इस प्रकार के संस्कारी ,विद्वान, बलवान,धनुष्मान,कीर्तिमान तथा प्रतिभावान नही बनते सीता का कष्ट राम का ही कष्ट था श्रीरामचन्द्र ने सीता को बनवास देकर स्वयं को कष्ट में डाला सीता के निर्मल ,निष्कंल्क परमपवित्र उज्ज्वल चरित्र संसार के सामने उपस्थित किया ।
श्रीराम ने अनन्त  अद्भुत अनुराग के साथ ही सीता को वनवास देकर सीता को भी अवसर दिया कि वो महर्षियों के मुखारविन्द से अध्यात्मचर्चा श्रवण कर सके और समाधिनिष्ठ होकर आध्यात्मिक उच्च स्थिति की पारमार्थ साधना में  प्रतिष्ठित हो इसप्रकार प्रजारंजन के साथ परमार्थ भी सम्पन्न हो ।उत्तराधिकारी लवकुश की उच्च स्थिति के लिए सीता का चरित्र उज्ज्वल निष्कलंक होना आवश्यक था राजमहलों में पालन पोषण एवं संस्कारो के अपेक्षा आरणक्य ऋषियों के आश्रम के पालनपोषण एवं संस्कार बहुत अधिक महत्वपूर्ण होता है इसलिए अपने उत्तराधिकारी पुत्रो का उत्कृष्ट संस्कार एवं उत्कृष्ट शक्तिशाली चरित्र का निर्माण हो सके इस कार्य मे सीता का वनवास अत्यधिक उपयोगी था ।