Thursday 29 October 2015

वेदो की रचना कब और कैसे हुई ?

वेदो की रचना कब और कैसे हुई ?
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ब्रिटेनकी sacred books of east पुस्तक माला में मेक्समूलर ने ऋग्वेद की रचना ईसा से 1200 वर्ष पूर्व बताते है साथ में वह यह भी कहते है की यह तिथि निश्चित नहीं है क्यों की वेदो का कालनिर्धारित करना सरल कार्य नही है कदाचित् ही कोई इस बात का पता लगा सके की वेदो की रचना कब हुई थी कोलब्रुकस विलसन ,कीथ आदि की राय मेक्समूलर से मिलती है हॉग आर्कबिशप ऋग्वेद का काल ईसा से 2000 वर्ष पूर्व मानते है किन्तु कोई प्रमाणिक तर्क नही कोई अखंडणीय युक्ति नही सम्भवतया इनकी युक्ति का आधार यह है की बाइबल के अनुसार 6 हजार से 7 हजार वर्ष पूर्व सृष्टि की रचना हुई थी इस लिए इनके भीतर ही कोई पदार्थ रचा गया होगा (अर्थात इनलोगो की सोच और अनुमान उनकी बाईबल के इर्द गिर्द ही घूमता है इसके बाहर निकलने की चेष्टा इन विद्वानों ने कभी नही की )
कल्पसूत्रो में विवाह प्रकरण में "ध्रुव इव स्थिरा भव् "वाक्य आया है इस पर प्रसिद्ध जर्मन ज्योतिषी जैकोबी ने लिखा है की पहले ध्रुव तारा अधिक चमकीला और स्थिर था इसकी अवस्था की तिथि ईसा से 2700 वर्ष पूर्व की है इसतरह कल्प सूत्रो का निर्माण 4700 वर्ष पूर्व हुआ ज्योतिर्विज्ञान अर्थात नक्षत्रो और ग्रहो के आकाशीय स्थिति के आधार पर जैकोबी ने वेदो का निर्माण काल 6500 से अधिक सिद्ध किया ।
लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ,रामकृष्ण भण्डार,शंकर पाण्डुरंग ,शंकर बालकृष्ण दीक्षित ने बिदेशियो की अंधानुकरण छोड़ स्वयं वेदो का कालअन्वेषण किया लोक मान्य बालगंगाधर तिलक ने खोज की 
की ब्राह्मणगर्न्थो के समय कृतिका नामक नक्षत्र से नक्षत्रो की गाड़ना होता था और कृतिका नक्षत्र ही सब नक्षत्रो में आदि गिना जाता था उनदिनों कृतिका नक्षत्र में दिन रात बराबर होते थे आजकल 21 मार्च और 23 सितम्बर दिन रात बराबर होते है और सूर्य अश्विनी नक्षत्र में रहता है खगोल और ज्योतिर्विज्ञानो के अनुसार यह परिवर्तन आज से 4500 वर्ष पूर्व हुआ था इसलिए 4500 वार्ष पूर्व ब्राह्मण ग्रन्थ बने ।
मन्त्र संहिताओं के समय नक्षत्रो की गड़ना मृगशिरा ही सबसे पहले गिना जाता था और इसी नक्षत्र के सूर्य में दिनरात बराबर होते थे खगोल और ज्योतिष के अनुसार आज से 6500 वर्ष पूर्व ये स्थिति थी फलतः संहिताएं 6500 वर्ष पूर्व बनी लोकमान्य के मत से 2000 वर्षो में सारे मन्त्र रचे गए इसतरह कुछ प्राचीन ऋचाएं 8500 वर्ष पूर्व रची गई मृगशिरा में वसन्त की समाप्ति होना ही इस दिशा में लोकमान्य की सबसे बड़ी युक्ति और आधार है ।
अलेक्जेंडर (सिकंदर ) के समय ग्रीक विद्वानों ने अनेक वंशावलियों का जो संग्रह किया था उनके अनुसार चन्द्रगुप्त तक 154 राज वंश 6457 वर्ष भारत में राज्य कर चुके थे इन समस्त राजवंशो के पहले ही वेदो की रचना हो चुकी थी इस आधार पर वेदो की रचना 8000 वर्षो का हुआ ।
पूना के नारायण भवनराव ने भुगर्भशात्र के प्रमाण के आधार पर ऋग्वेदीय निर्माण काल 9000 वर्षो का सिद्ध किया ।
ऋग्वेद (10/136/5) में पूर्व और पश्चिम समुद्रो का उल्लेख मिलता है पूर्व समुद्र पंजाब के ठीक पूर्व में 
समस्त गांगेय प्रदेश को आच्छादित करके अवस्थित था इसके भीतर ही पाञ्चाल ,कोशल,वत्स् ,मगध ,बिदेह,ये सारे भूभाग समुद्र गर्भ में थे पश्चिम समुद्र कदाचित् अरब सागर था ऋग्वेद के दो मंत्रो में (10/47/2 और 9/33/6) में चार समुद्रो का उल्लेख है इस प्रकार आर्य निवास के पूर्व ,पश्चिम,उत्तर ,दक्षिण, चार समुद्र थे उत्तरी समुद्र बाहलिक और फारस के उत्तरी भाग में तुर्किस्तान जो प्राकृतिक कारणों से शुष्क हो कर इन दिनों कृष्णह्नद(Black sea ,) कश्यप ह्नद ( caspean sea ,) अराल ह्नद(sea of aral )और बल्काह्नद ( lake Balkash) के रूपो में अवस्थित है भूगोल वेत्ताओं ने इनका नाम एशियाई भूमध्य सागर रखा है इसके उत्तर में आर्कटिक महासागर था इसके पास ही वर्तमान भूमध्य सागर था एशियाई समुद्र का तल ऊँचा तथा यूरोपीय सागर तल निचा था प्राकृतिक परिवर्तनों ने जब वासफारस का मार्ग बना डाला तब एशियाई समुद्र का जल यूरोपीय समुद्र में चला गया और एशियाई समुद्र नष्ट सा हो गया इसके अंश उक्त ह्नदो के रूप में हो गए दक्षिणी समुद्र का नाम राजपुताना समुद्र था (imperial cazetteer of india vol -1) इसी में वह सरस्वती नदी गिरती थी जिनके तटो पर सैकड़ो वेद मन्त्र बने थे प्राकृतिक कारणों से राजपुताना समुद्र और सरस्वती नदी सुख गई आज भी राजपुताना के गर्भ में खारे जल की सांभर आदि झील और नमक की तथे मरुभूमि में बिलुप्त राजपुताना समुद्र की साक्ष्य दे रही है H-G -WELLS -ने अपने THE OUTLINE OF HISTORY में 25 हजार से 50 हजार के वर्षो के बिश्व का नक्शा दिया है उसमे ऐसे समुद्रो का आस्तित्व 25 हजार से 50 हजार वर्षो के बिच माना गया है गांगेय प्रदेश सरस्वती नदी और चारो समुद्र के सम्बन्ध में भूगर्भशास्त्रो का मत है की 25 हजार वर्षो से लेकर 75 हजार वर्षो के भीतर ये सब लुप्त गुप्त और रूपांतरित हुए है इन्ही और ऐसे अन्य प्रमाणों से अमल करने पर ऋग्वेद का निर्माण काल 66 हजार वर्षो का अविनाश चन्द्र दाश ने 75 हजार वर्षो का माना है प्रोफ़ेसर लौटुसिंह गौतम के सामान कुछ कट्टर सनातनी ऐतिहासिक तो ऋग्वेद का रचना काल 4 लाख 32 हजार वर्ष माना है इनके प्रमाण आप्तवचन ही अधिक है जिन यूरोपीय ने वैदिक साहित्य के बारे में लेखनी उठाई है उन सब ने कालनिर्णय पर बड़ी माथापच्ची की है वैदिक उपदेश क्या है उनकी अपूर्वता क्या है उनका प्रतिपाद्य क्या है वैदिक संस्कृति क्या है इन सब बातो पर कम ध्यान दिया गया है और कालनिर्णय पर अधिक इसी उलझन को समझ कर प्रसिद्ध जर्मन विद्वान श्लेगल ने पहले ही लिख दिया की वेद सबसे प्राचीनतम ग्रन्थ है जिसका समय निश्चित नही किया जा सकता परंतु सबसे मुख्य बात लिखी है प्रसिद्ध जर्मन वेद विद्यार्थी वेबरने उन्होंने कहा की वेद का रचना काल निश्चित नही किया जा सकता है ये उस तिथि के बने हुए है जहाँ तक पहुचने के लिए हमारे पास उपयुक्त साधन नही है बर्तमान प्रमाण राशि हम लोगो को उस समय के उन्नत शिखर पर पहुचाने में असमर्थ है यह उन वेबर साहब की राय है जिन्होंने अपना अधिकाँश जीवन वेदाध्ययन में बिताये है ।
प्रस्तुति -------:( वैदिक साहित्य )
( भारतीय ज्ञान पीठ काशी )
( पं रामगोविंद त्रिपाठी )
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वैदिक मन्त्रो का निर्माणकाल निर्धारित करना मात्र प्रयास ही हो सकता है क्यों की श्रुतियां ( वैदिक मन्त्र) स्पष्ट कहती है ।

निःश्वसितमेतद्यदृग्वेदोयजुर्वेदःसामवेदोऽथर्वाङ्गिरस इतिहासः पुराणंविद्या उपनिषदः(बृहदारण्यक उपनिषद)
ऋग्वेद यजुर्वेद अथर्वेद इतिहास पुराण उपनिषद विद्या सभी ईश्वर के निस्वास् से निकला हुआ है 
वेदो नारायण साक्षात् ( वेद ही नारायण का रूप है )
अतः उनका काल निर्धारण करना मूढ़ता का ही परिचायक हो सकता है ।
एवं वैदिक मन्त्रो का रचना किसी ने नही किया उन मंत्रो को दिब्य दृष्टि द्वारा दर्शन किया गया था ।
ऋषिदर्शनात् ( निरुक्त नैगम काण्ड २/११)
अर्थात _ मन्त्रद्रष्टा को ऋषि कहते है 
इससे ये प्रमाणित होता है की मन्त्रो की रचना किसी नेे नही किया ऋषियो मात्र उनका दर्शन किया था

उपनिषद पर महात्माओ के बिचार

स्वामी विवेकानन्द—: 'मैं उपनिषदों को पढ़ता हूँ, तो मेरे आंसू बहने लगते है। यह कितना महान ज्ञान है? हमारे लिए यह आवश्यक है कि उपनिषदों में सन्निहित तेजस्विता को अपने जीवन में विशेष रूप से धारण करें। हमें शक्ति चाहिए। शक्ति के बिना काम नहीं चलेगा। यह शक्ति कहां से प्राप्त हो? उपनिषदें ही शक्ति की खानें हैं। उनमें ऐसी शक्ति भरी पड़ी है, जो सम्पूर्ण विश्व को बल, शौर्य एवं नवजीवन प्रदान कर सकें। उपनिषदें किसी भी देश, जाति, मत व सम्प्रदाय का भेद किये बिना हर दीन, दुर्बल, दुखी और दलित प्राणी को पुकार-पुकार कर कहती हैं- उठो, अपने पैरों पर खड़े हो जाओ और बन्धनों को काट डालो। शारीरिक स्वाधीनता, मानसिक स्वाधीनता, अध्यात्मिक स्वाधीनता- यही उपनिषदों का मूल मन्त्र है।'

कवि रविन्द्रनाथ टैगोर–: 'चक्षु-सम्पन्न व्यक्ति देखेगें कि भारत का ब्रह्मज्ञान समस्त पृथिवी का धर्म बनने लगा है। प्रातः कालीन सूर्य की अरुणिम किरणों से पूर्व दिशा आलोकित होने लगी है। परन्तु जब वह सूर्य मध्याह्र गगन में प्रकाशित होगा, तब उस समय उसकी दीप्ति से समग्र भू-मण्डल दीप्तिमय हो उठेगा।'
डा॰ सर्वपल्ली राधाकृष्णन–'उपनिषदों को जो भी मूल संस्कृत में पढ़ता है, वह मानव आत्मा और परम सत्य के गुह्य और पवित्र सम्बन्धों को उजागर करने वाले उनके बहुत से उद्गारों के उत्कर्ष, काव्य और प्रबल सम्मोहन से मुग्ध हो जाता है और उसमें बहने लगता है।'

सन्त विनोवा भावे—: 'उपनिषदों की महिमा अनेकों ने गायी है। हिमालय जैसा पर्वत और उपनिषदों- जैसी कोई पुस्तक नहीं है, परन्तु उपनिषद कोई साधारण पुस्तक नहीं है, वह एक दर्शन है। यद्यपि उस दर्शन को शब्दों में अंकित करने का प्रयत्न किया गया है, तथापि शब्दों के क़दम लड़खड़ा गये हैं। केवल निष्ठा के चिन्ह उभरे है। उस निष्ठा के शब्दों की सहायता से ह्रदय में भरकर, शब्दों को दूर हटाकर अनुभव किया जाये, तभी उपनिषदों का बोध हो सकता है। मेरे जीवन में 'गीता' ने 'मां का स्थान लिया है। वह स्थान तो उसी का है। लेकिन मैं जानता हूं कि उपनिषद मेरी मां की भी है। उसी श्रद्धा से मेरा उपनिषदों का मनन, निदिध्यासन पिछले बत्तीस वर्षों से चल रहा है।*
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गोविन्दबल्लभ –: 'उपनिषद सनातन दार्शनिक ज्ञान के मूल स्त्रोत है। वे केवल प्रखरतम बुद्धि का ही परिणाम नहीं है, अपितु प्राचीन ॠषियों की अनुभूतियों के फल हैं।'
भारतीय मनीषियों द्वारा जितने भी दर्शनों का उल्लेख मिलता है, उन सभी में वैदिक मन्त्रों में निहित ज्ञान का प्रादुर्भाव हुआ है। सांख्य तथा वेदान्त (उपनिषद) में ही नहीं, जैन और बौद्ध-दर्शनों में भी इसे देखा जा सकता है। भारतीय संस्कृति से उपनिषदों का अविच्छिन्न सम्बन्ध है। इनके अध्ययन से भारतीय संस्कृति के अध्यात्मिक स्वरूप का सच्चा ज्ञान हमें प्राप्त होता है।
पाश्चात्य विद्वानों की दृष्टि में उपनिषद

केवल भारतीय जिज्ञासुओं की ध्यान ही उपनिषदों की ओर नहीं गया है, अनेक पाश्चात्य विद्वानों को भी उपनिषदों को पढ़ने और समझने का अवसर प्राप्त हुआ है। तभी वे इन उपनिषदों में छिपे ज्ञान के उदात्त स्वरूप से प्रभावित हुए है। इन उपनिषदों की समुन्नत विचारधारा, उदात्त चिन्तन, धार्मिक अनुभूति तथा अध्यात्मिक जगत की रहस्यमयी गूढ़ अभिव्य्क्तियों से वे चमत्कृत होते रहे हैं और मुक्त कण्ठ से इनकी प्रशंसा करते आये हैं।

अरबदेशीय विद्वान अलबरुनी—:'उपनिषदों की सार-स्वरूपा 'गीता' भारतीय ज्ञान की महानता रचना है।'

दारा शिकोह—: 'मैने क़ुरान, तौरेत, इञ्जील, जुबर आदि ग्रन्थ पढ़े। उनमें ईश्वर सम्बन्धी जो वर्णन है, उनसे मन की प्यास नहीं बुझी। तब हिन्दुओं की ईश्वरीय पुस्तकें पढ़ीं। इनमें से उपनिषदों का ज्ञान ऐसा है, जिससे आत्मा को शाश्वत शान्ति तथा आनन्द की प्राप्ति होती है। हज़रत नबी ने भी एक आयत में इन्हीं प्राचीन रहस्यमय पुस्तकों के सम्बन्ध में संकेत किया है।*'
जर्मन दार्शनिक आर्थर शोपेन हॉवर— : 'मेरा दार्शनिक मत उपनिषदों के मूल तत्त्वों के द्वारा विशेष रूप से प्रभावित है। मैं समझता हूं कि उपनिषदों के द्वारा वैदिक-साहित्य के साथ परिचय होना, वर्तमान शताब्दी का सनसे बड़ा लाभ है, जो इससे पहले किसी भी शताब्दी को प्राप्त नहीं हुआ। मुझे आशा है कि चौदहवीं शताब्दी में ग्रीक-साहित्य के पुनर्जागरण से यूरोपीय-साहित्य की जो उन्नति हुई थी, उसमें संस्कृत-साहित्यका प्रभाव, उसकी अपेक्षा कम फल देने वाला नहीं था। यदि पाठक प्राचीन भारतीय ज्ञान में दीक्षित हो सकें और गम्भीर उदारता के साथ उसे ग्रहण कर सकें, तो मैं जो कुछ भी कहना चाहता हूं, उसे वे अच्छी तरह से समझ सकेंगे उपनिषदों में सर्वत्र कितनी सुन्दरता के साथ वेदों के भाव प्रकाशित हैं। जो कोई भी उपनिषदों के फ़ारसी, लैटिन अनुवाद का ध्यानपूर्वक अध्ययन करेगा, वह उपनिषदों की अनुपम भाव-धारा से निश्चित रूप से परिचित होगा। उसकी एक-एक पंक्ति कितनी सुदृढ़, सुनिर्दिष्ट और सुसमञ्जस अर्थ प्रकट करती है, इसे देखकर आंखें खुली रह जाती है। प्रत्येक वाक्य से अत्यन्त गम्भीर भावों का समूह और विचारों का आवेग प्रकट होता चला जाता है। सम्पूर्ण ग्रन्थ अत्यन्त उच्च, पवित्र और एकान्तिक अनुभूतियों से ओतप्रोत हैं। सम्पूर्ण भू-मण्डल पर मूल उपनिषदों के समान इतना अधिक फलोत्पादक और उच्च भावोद्दीपक ग्रन्थ कही नहीं हैं। इन्होंने मुझे जीवन में शान्ति प्रदान की है और मरते समय भी यह मुझे शान्ति प्रदान करेंगे।'
शोपेन हॉवर ने आगे भी कहा— 'भारत में हमारे धर्म की जड़े कभी नहीं गड़ेंगी। मानव-जाति की ‘पौराणिक प्रज्ञा’ गैलीलियो की घटनाओं से कभी निराकृत नहीं होगी, वरन भारतीय ज्ञान की धारा यूरोप में प्रवाहित होगी तथा हमारे ज्ञान और विचारों में आमूल परिवर्तन ला देगी। उपनिषदों के प्रत्येक वाक्य से गहन मौलिक और उदात्त विचार प्रस्फुटित होते हैं और सभी कुछ एक विचित्र, उच्च, पवित्र और एकाग्र भावना से अनुप्राणित हो जाता है। समस्त संसार में उपनिषदों-जैसा कल्याणकारी व आत्मा को उन्नत करने वाला कोई दूसरा ग्रन्थ नहीं है। ये सर्वोच्च प्रतिभा के पुष्प हैं। देर-सवेर ये लोगों की आस्था के आधार बनकर रहेंगे।' शोपेन हॉवर के उपरान्त अनेक पाश्चात्य विद्वानों ने उपनिषदों पर गहन विचार किया और उनकी महिमा को गाया।

इमर्सन—: 'पाश्चात्य विचार निश्चय ही वेदान्त के द्वारा अनुप्राणित हैं।'

प्रो॰ ह्यूम—: 'सुकरात, अरस्तु, अफ़लातून आदि कितने ही दार्शनिक के ग्रन्थ मैंने ध्यानपूर्वक पढ़े है, परन्तु जैसी शान्तिमयी आत्मविद्या मैंने उपनिषदों में पायी, वैसी और कहीं देखने को नहीं मिली।*'

प्रो॰ जी॰ आर्क—: 'मनुष्य की आत्मिक, मानसिक और सामाजिक गुत्थियां किस प्रकार सुलझ सकती है, इसका ज्ञान उपनिषदों से ही मिल सकता है। यह शिक्षा इतनी सत्य, शिव और सुन्दर है कि अन्तरात्मा की गहराई तक उसका प्रवेश हो जाता है। जब मनुष्य सांसरिक दुःखो और चिन्ताओं से घिरा हो, तो उसे शान्ति और सहारा देने के अमोघ साधन के रूप में उपनिषद ही सहायक हो सक्ते है।*'

डा॰ एनीबेसेंट—: ‘भारतीय उपनिषद ज्ञान मानव चेतना की सर्वोच्च देन है।'
बेबर— 'भारतीय उपनिषद ईश्वरीय ज्ञान के महानतम ग्रन्थ हैं। इनसे सच्ची आत्मिक शान्ति प्राप्त होती है। विश्व-साहित्य की ये अमूल्य धरोहर है।*'