Tuesday 15 November 2022

बिकाश दिब्यकीर्ति मत भञ्जन



आखिर बिकास दिब्यकीर्ति ने श्रीमद्वाल्मीकी रामायण से  उन प्रसङ्गो को उपदिष्ट क्यो नही किया ?

महाभारत में आये हुए रामोख्यान पर्व से ही क्यो किया ?

स्वान  की दृष्टि जूठन पर ही रहती ,और बिकाश दिब्यकीर्ति ने भी अपनी मानसिकता से स्वान होने का ही परिचय दिया ।


वामपंथी गिरोह को यदि सबसे ज्यादा चिढ़ है तो  मर्यादा पुरुषोत्तम राम से जो भारतीय संस्कृति के रोम रोम में बसता है  वही राम जो साक्षात धर्म स्वरूप है वही राम जिनकी यशोगान की गाथा युगों युगों से प्रवाहमान है यह पहली बार नही हुआ है हर कालखण्डन में ऐसे दूषण माता सीता की पवित्रता और श्रीरामचन्द्र की मर्यादाओं को तार तार करने का भरपूर प्रयास किया है ।

जिस प्रकार समस्त प्राणियों को आह्लादित करने वाला सूर्य चमगादड़ो और उल्लुओं को नही रुचता ठीक उसी प्रकार मर्यादापुरुषोत्तम श्रीरामचन्द्र धर्मदूषको को नही रुचता क्यो की धर्मदूषको को दण्ड देने का ही कार्य भगवन् श्रीरामचन्द्र ने किया था ।

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■● रावण वध के पश्चात   जनकनन्दिनी जब श्रीरामचन्द्र के समक्ष उपस्थित हुई तो ।

मर्यादापुरुषोत्तम श्रीरामचन्द्र जी ने सीता को ग्रहण करने से मना कर दिया

ठीक यही वृतान्त महाभारत के रामोपख्यान पर्व में आया है 

श्रीमद्वाल्मीकी रामायण और महाभारत में तद्वत बिषयों को लेकर व्याख्यान करने की शैली भी भिन्न भिन्न है इस लिए स्वाध्यायादी अल्पता के कारण लोगो मे तद्वत बिषयों को लेकर भ्रम होना भी स्वाभाविक है ।


श्रुतियों का मत है कि जिस मंत्र बिषय आदि के द्रष्टा जो ऋषि है वही उस बिषय में प्रामाणिक माने जाएंगे ।

अतः महर्षि वाल्मीकि कृत रामायण ही श्रीरामचन्द्र माता सीता दसरथ आदि के बिषय में भी प्रामाणिक माने जाएंगे क्यो की चतुर्मुखी ब्रह्मा के अनुग्रह से ही श्रीरामचन्द्र माता सीता के गुप्त और प्रकट चरित्र का ज्ञान महर्षि वाल्मीकि को हुआ था ।


वृत्तं कथय धीरस्य यथा ते नारदाच्छ्रुतम् ।

रहस्यं च प्रकाशं च यद् वृत्तं तस्य धीमतः ॥

रामस्य सहसौमित्रे राक्षसानां च सर्वशः ।

वैदेह्याश्चैव यद् वृत्तं प्रकाशं यदि वा रहः ।। (वा० रा०बालकाण्ड २/३३/३४)


 फिर हम भला तद्गत बिषयों के लिए अन्य का अनुगमन क्यो करें ?

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श्रीरामचन्द्र साक्षात धर्म स्वरूप है #रामो_विग्रहवान्_धर्मः


 उनका एक एक आचरण धर्मानुकूल होने से ग्राह्य है महाभारत में ही स्वयं श्रीरामचन्द्र के धर्मसम्मत निर्णय को ऋषिमुनि देवगण प्रसंसा करते है ।


■● पुत्र नैतदिहाश्चर्यं त्वयि राजर्षिधर्मणि। (महाभारत०रामोपख्यान पर्व    २९१/३०)


श्रीरामचन्द्र ने ऐसा क्यो किया ??

लोकापवाद के भय से यदि ऐसा न करते तो उन्हें ब्यभिचारी पुरुष होने का कलङ्क लगता जो युगों युगों से चले आरहे इक्ष्वाकु वंश के कीर्ति को ध्वस्त करता जिसका मार्जन भी न हो पाए 

श्रीमद्वाल्मीकी रामायण में इसी बिषयों को स्पष्टता से दर्शाया है ।


■●-जनवादभयाद्राज्ञो बभूव हृदयं द्विधा | (वा०रा युद्ध काण्ड ११५/११)

●-लोकापवाद के भय से श्रीरामचन्द्र का हृदय विदीर्ण हो रहा था 


० वही महारत में इसी बिषय को भिन्न शैली में दर्शाया गया है 


■● रामो वैदेहीं परामर्शविशङ्कितः (महाभारत रामोपख्यान २९१/१०)

●- श्रीरामचन्द्र जी को जनकनन्दिनी में सन्देश हुआ कि पर पुरुष के स्पर्श से सीता अपवित्र तो न हो गयी ?


इस लिए श्रीरामचन्द्र ने ऐसा वचन कहा  धर्म सिद्धांत को जानने वाला कोई भी पुरुष दूसरे के हाथ मे पड़ी हुई नारी को मुहूर्तभर के लिए भी कैसे ग्रहण कर सकता है तुम्हारा आचनर बिचार शुद्ध रह गया हो अथवा असुद्ध अब मैं तुम्हे अपने उपयोग में नही ले सकता ठीक उसी तरह जैसे कुत्ते के द्वारा चाटे गए पवित्र हविष्य को कोई ग्रहण नही करता ।


■●-कथं ह्यस्मद्विधो जातु जानन्धर्मविनिश्चयम्।

परहस्तगतां नारीं मुहूर्तमपि धारयेत् ।।(महाभारत रामोपख्यान २९१ १२)

सुवृत्तामसुवृत्तां वाऽप्यहं त्वामद्य मैथिलि।

■●-नोत्सहे परिभोगाय श्वावलीढं हविर्यथा ।।(महाभारत रामोपख्यान २९१/१३)


पूर्व और पश्चात में आये हुए श्लोकों से स्पष्ट हो जाता है कि श्रीरामचन्द्र का कथन धर्म सम्मत था जिसके बिषय में दिब्यकीर्ति ने उपदिष्ट न कर केवल एक ही श्लोक की कुटिलता पूर्वक व्यख्या कर लोगो मे भ्रामकता फैलाया ।


■●-पुत्र नैतदिहाश्चर्यं त्वयि राजर्षिधर्मणि। (महाभारत०रामोपख्यान पर्व    २९१/३०)


●-हे राम तुम राजऋषियो के धर्म पर चलने वाले हो अतः तुममें ऐसा सद्विचार होना आश्चर्य की बात नही ।


श्रीमद्वाल्मीकी रामायण में माता सीता स्वयं की पवित्रता का प्रमाण समस्त लोगो के सामने अग्निपरीक्षा दे कर की वही महाभारत में माता सीता के शुद्धि के बिषय में समस्त देवताओं स्वीकार किया और श्रीरामचन्द्र से माता जानकी को ग्रहण करने को कहा ।

(महाभारत रामोपख्यान पर्व अध्याय २९१)

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बिकाश दिब्यकीर्ति जैसे धूर्त सम्पूर्ण प्रसङ्ग को न दर्शा कर केवल एक श्लोक के माध्यम से अपनी अपने मनोरथ को सिद्ध करने की जो कुचेष्टा की इससे उसके विक्षिप्त मानसिकता का ही प्रकाशन होता है 

और कुछ नही ।

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एक ही बिषय को ऋषिमुनिगण भिन्न भिन्न शैली में व्याख्यान करते है जिससे भ्रम उतपन्न होना स्वभाविक है इस लिए श्रुतियाँ बार बार घोषणा करती है


■● वि॒द्वांसा॒विद्दुरः॑ पृच्छे॒दवि॑द्वानि॒त्थाप॑रो अचे॒ताः ।


नू चि॒न्नु मर्ते॒ अक्रौ॑ ॥[ऋ १/१२०/२]


■●आचार्यवान् पुरुषो हि वेद । (छान्दोग्य उपनिषद)


■● तद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत् समित्पाणि: श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम् । (मुंडकोपनिषद् ) 


शैलेन्द्र सिंह

Wednesday 11 May 2022

माता सीता अयोनिजा थी

 #माता_सीता_के_विषय_में_अज्ञता


वरुण पाण्डेय शिवाय जी के इस पोस्ट पर कुल 51 लोगो ने सहमति जताई है जिसका हमने स्क्रीनशॉट लगाया है ।



शिष्ट पुरुषों का लक्षण है कि धर्मादि बिषयों पर सप्रमाण आपने कथनों को रखा जाय तो वह सम्मानीय होता है पाण्डेय जी ने जिन मुख्य बिषयों के ओर संकेत किया है वह मुझे युक्तियुक्त जान नही पड़ते यदि कोई युक्तियुक्त प्रमाण हो तो पाण्डेय जी प्रकाशित कर अपने प्रतिज्ञा वाक्य को सिद्ध करें 

नम्बर एक (१) माता सीता का जन्म यज्ञ योग्य क्षेत्रमण्डल का हल से कर्षण करने से उनका प्रकाट्य नही हुआ था 

नम्बर (२) यदि माता सीता भूमिजा नही थी तो इसका स्पष्ट अर्थ निकलता है कि माता सीता साधारण स्त्रियों की भांति योनिज है ।

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वाल्मीकि रामायण के विरुद्ध जितने भी वृत्तांत है वह अनादर्णीय है ।


इतिहासो में वाल्मीकि रामायण श्रेष्ठ है 

■--नास्ति रामायणात् परम् (स्कंद पुराण उत्तर खण्ड रा०आ० ५/२१)

क्यो की 

■--रामायणमादिकाव्य सर्वेदार्थ सम्मतं (स्कंद पुराण उत्तर खण्ड रा०आ० ५/६४)

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■--धर्मस्य_सूक्ष्मतवाद्_गतिं (महाभारत)

धर्म की गति अति सूक्ष्म है अतः हम जैसे अल्पज्ञ अल्पश्रुतो में भ्रम होना स्वाभाविक भी है ।

इस लिए श्रुतियों ने स्पष्ट घोषणा की है 


■-वि॒द्वांसा॒विद्दुरः॑ पृच्छे॒दवि॑द्वानि॒त्थाप॑रो अचे॒ताः ।


नू चि॒न्नु मर्ते॒ अक्रौ॑ ॥[ऋ १/१२०/२]


■-आचार्यवान् पुरुषो  वेद । (छान्दोग्य उपनिषद)


■--तद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत् समित्पाणि: श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम् । (मुंडकोपनिषद् ) 

अतः धर्मादि बिषयों पर निज मतमतान्तर के वशीभूत हो बिषयों के अर्थ का अनर्थ करना शास्त्रो की हत्या करने जैसा बीभत्स पाप का कारण होता है ।

■--बिभेत्यल्पश्रुताद् वेदो मामयं प्रहरिष्यति (महाभारत आदिपर्व)


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माता जानकी का आविर्भाव साधारण स्त्रियों की भांति नही हुआ   वे तो  अयोनिजा है 

जो भगवती देवी जगत् जननी है जो शक्ति स्वरूपा महामाया है जो समस्त जगत् की प्रसूता है उनकी प्रसूता भला कौन हो ??

इस लिए शास्त्रो में उस जगत् जननी को अयोनिजा होने का दिग्दर्शन भी कराता है तिमिर रोग से ग्रसित व्यक्ति को समस्त बिषयों में ही खोंट दिखे तो इसमें भला शास्त्र का क्या दोष ??


■---अयोनिजां हि मां ज्ञात्वा नाध्यगच्छद्विचिन्तयन् (वा०रा०२/११८/ )


■--वीर्य शुल्का इति मे कन्या स्थापिता इयम् अयोनिजा (वा०रा १/६६/१४)


माता जानकी के अयोनिजा होने की घोषणा केवल मात्र वाल्मीकि कृत रामायण ही नही अपितु विष्णुधर्मोत्तर पुराण भी करता है 


■---भूय सीता समुत्पन्ना जनकस्य महात्मनः ।। 

अयोनिजा महाभागा कर्षतो यज्ञमेदिनीम् (विष्णु धर्मोत्तर पुराण )

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जो जगत् जननी दिव्य स्वरूपा है उनका आविर्भाव भी दिव्य ही होगा 

न कि साधारण स्त्रियों की भांति ??


माता जानकी जब देवी अनुसूया के मध्य सम्वाद होता है तो माता सीता कहती है ।


■--तस्य लाङ्गलहस्तस्य कर्षत: क्षेत्रमण्डलम् । 

अहं किलोत्थिता भित्त्वा जगतीं नृपते: सुता (वा०रा० २/११८/२८)


महाराज जनक यज्ञ के योग्य क्षेत्र को हाथ मे हल लेकर जोत रहे थे उसी समय मैं भूमि से बाहर प्रकट हुई ।


माता सीता द्वारा  ठीक यही वृतान्त अग्नि परीक्षण के प्रसङ्ग में भी कहा गया है 


■--उत्थिता मेदिनीं भित्वा क्षेत्रे हलमुखक्षते |

पद्मरेणुनिभैः कीर्णा शुभैः केदारपांसुभिः॥ (रामायण सुन्दर काण्ड सर्ग १८)

केवल वाल्मीकि रामायण ही क्यो वेदव्यास कृत पद्मपुराण में भी यही कथा देखने को मिलता है ।


■--अथ लोकेश्वरी लक्ष्मीर्जनकस्य निवेशने ।

शुभक्षेत्रे हलोद्धाते सुनासीरे शुभेक्षणे ॥ (पद्मपुराण ६/२४२/१००)

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माता जानकी के बिषय में मिथिला नरेश जनक महर्षि विश्वामित्र से कहते है 


■--अथ मे कृषतः क्षेत्रम् लांगलात् उत्थिता मम ॥

क्षेत्रम् शोधयता लब्ध्वा नाम्ना सीता इति विश्रुता ।

भू तलात् उत्थिता सा तु व्यवर्धत मम आत्मजा ॥ (वा०रा०१/६६/१३-१४)


राजा जनक के बिषय में श्री हरि: स्वयं घोषणा करते है 


कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः (गीता)


अतः मिथिला नरेश स्वप्न में भी मिथ्या भाषण न किया होगा फिर तो भूत भविष्य के द्रष्टा महर्षि विश्वामित्र के समक्ष मिथ्या भाषण कैसे करते ??

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माता जानकी के बिषय में वरुण पाण्डेय द्वारा अपुष्ट अप्रामाणिक कथनों के बिषय में विद्वजन बिचार करें ।।

यदि मुझसे  कोई त्रुटि हो तो विद्जनो से अनुरोध है कि विनम्रता पूर्वक उन त्रुटियों को रेखांकित करें धन्यवाद 


#शैलेन्द्र_सिंह

Monday 14 March 2022

गौतम बुद्ध के गृहत्याग का सच









सिद्धार्थ गौतम  के गृहत्याग के बिषय में जो कथाएं प्रचलित है वह यह है 

एक दिन जब वह भ्रमण पर निकले तो उन्होंने एक वृद्ध को देखा जिसकी कमर झुकी हुई थी और वह लगातार खांसता हुआ लाठी के सहारे चला जा रहा था। थोड़ी आगे एक मरीज को कष्ट से कराहते देख उनका मन बेचैन हो उठा। उसके बाद उन्होंने एक मृतक की अर्थी देखी, जिसके पीछे उसके परिजन विलाप करते जा रहे थे।


ये सभी दृश्य देख उनका मन क्षोभ और वितृष्णा से भर उठा, और गृहत्याग कर   परिव्रज्या ग्रहण किया  जब सिद्धार्थ गौतम ने परिव्रज्या ग्रहण किया तब उनकी आयु 29 वर्ष की थी । 

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■-सिद्धार्थ गौतम ने 29 वर्ष की आयु होने पर ही  एक बृद्ध ,रोगी और मृत व्यक्ति को पहली बार देखा होगा  यह व्याख्या तर्क की कसौटी पर कसने पर खरी उतरती प्रतीत नहीं होती. त्रिपिटक के किसी भी ग्रन्थ में भी गृहत्याग के इस कथानक का कहीं उल्लेख तक नहीं है.

■-पुनश्च प्रश्न उठेगा की फिर उनके परिव्रज्या की कथाओं का श्रोत क्या है और किसने उसे लिखा ??

सिद्धार्थ गौतम के मृत्यु के 1000 वर्ष पश्चात भदन्त बुद्धघोष इन कथाओं का सृजन किया और उसे प्रचारित प्रसारित किया ।

■--सिद्धार्थ गौतम ने परिव्रज्या के बिषय में सुतनिपात के खुद्दक निकाय में स्वयं कहते है ।

मुझे शस्त्र धारण करना भयावह लगा यह जनता कैसे झगड़ती है देखो मुझमे संवेग कैसे उतपन्न हुआ यह मैं बताता हूँ अपर्याप्त पानी मे जैसे मछलियां छटपटाती है वैसे एक दूसरे के बिरोध करके छपटाने वाली प्रजा को देख कर मेरे अन्तःकरण में भय उतपन्न हुआ चारो ओर का जगत् असार दिखाई देने लगा सभी दिशाएं कांप रही है ऐसा लग एयर उसमे आश्रय का स्थान खोजने पर निर्भय स्थान नही मिला क्यो की अंत तक सारी जनता को परस्पर विरुद्ध देख कर मेरा जी ऊब गया ।


संवेनं कित्त्यिस्सामि यथा संविजितं मया ॥ 

फ़न्दमानं पजं दिस्वा मच्छे अप्पोदके यथा ।

अज्जमज्जेहि व्यारुद्धे दिस्वा मं भयमाविसि ॥

समन्तसरो लोको, दिसा सब्बा समेरिता ।

इच्छं भवन्मत्तनो नाद्द्सासिं अनोसितं ।(खुद्दक निकाय )

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■--सिद्धार्थ गौतम के गृहत्याग के पीछे का सच ---

शाक्यो की राजधानी का नाम कपिलवस्तु था जहाँ सिद्धार्थ गौतम का जन्म हुआ था ।

शाक्यो का अपना संघ हुआ करता था और इस संघ से जुड़े हुए व्यक्ति को संघ के नीतियों आदर्शो एवं शाक्यो के रक्षण हेतु प्रतिबद्ध होना पड़ता था । इस संघ के सदस्य बनने के लिए न्यूनतम आयु  20 वर्ष  का था  संघ में दीक्षित होने के पूर्व संघ के नीतियों आदर्शो से  परिचय कराया जाता था उन नीति आदर्शो के रक्षण के लिए प्रतिज्ञाबद्ध होना पड़ता था उसके पश्चात जनमत संग्रह के द्वारा यह सुनिश्चित होता था कि अमुक व्यक्ति संघ से जुड़ सकता है अथवा नही ।

सिद्धार्थ गौतम को अपने वर्णाश्रम धर्म अनुसार वेद वेदाङ्ग एवं क्षात्र धर्म अनुरूप शिक्षण दिक्षण हुआ था सिद्धार्थ गौतम जब 20 वर्ष के हुए तब संघ से जुड़ने के लिए आमंत्रण भेजा गया सिद्धार्थ गौतम ने उस आमंत्रण को स्वीकार कर संघ में जुड़ने के इच्छुक हुए ।

संघ के सेनानायक ने संघ के नीतियों आदर्शो को सिद्धार्थ गौतम के समक्ष प्रेसित किया सिद्धार्थ गौतम संघ के नीति आदर्शो को पढ़ कर पूर्ण रूप से संतुष्ट हुए एवं भरी सभा मे प्रतिज्ञा ली कि मैं संघ के नीतियों आदर्शो का पालन अक्षरसः रूप से करूँगा यदि किसी भी प्रकार से मैं दोषी पाया जाता हूँ तो संघ अपने नीतियों के अनुरूप मुझे दण्ड का भागी भी बना सकता है ।

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संघ से जुड़े सिद्धार्थ गौतम को अब 8 से 9 वर्ष बीत चुके थे यही वह समय था जब सिद्धार्थ गौतम के जीवन मे वह घटनाएं घटती है फलस्वरूप उन्हें मजबूरन गृहत्याग करना पड़ा ।

शाक्यो के राज्य से सटा हुआ कोलियों का राज्य था रोहिणी नदी दोनों राज्यो के विभाजक रेखा थी ।

शाक्यो और कोलियों दोनों ही अपने राज्य में सिंचाई के लिए रोहिणी नदी के ऊपर दोनों राज्य निर्भर था ।

पानी को लेकर ही शाक्यो और कोलियों के मध्य झगड़ा हुआ और बात यहाँ तक आ पहुची की दोनों के मध्य युद्ध का माहौल बना ।

इस बिषय को लेकर शाक्यो ने संघ का अधिवेशन बुलाया और उस सभा मे सभी ने अपने अपने पक्ष का प्रस्ताव रखा ।

संघ के सेनानायक युद्ध के पक्ष में था और सिद्धार्थ गौतम युद्ध के विरुद्ध अपना मत दिया की युद्ध समस्या का हल नही है ।

इस बिषय को लेकर पुनः जनमत संग्रह हुआ ।

जनमत संग्रह में संघ के सेनानायक को ही प्रधानता मिली और सिद्धार्थ गौतम का पक्ष बहुत बड़े बहुमत से अमान्य सिद्ध हुआ 

दूसरे दिन सेनानायक ने संघ की पुनः सभा बुलाई ।

जब सिद्धार्थ गौतम ने देखा कि जनमत संग्रह में उसे पराजय का मुह देखना पड़ा तब सभा को सम्बोधित करते हुए सिद्धार्थ गौतम ने कहा मैत्रो आप जो चाहो कर सकते हो आप के साथ जनमत संग्रह है लेकिन मुझे खेद के साथ यह कहना पड़ रहा है कि मैं आप सभी के मत का बिरोध करता हूँ मैं किसी भी प्रकार से युद्ध मे भाग नही लूंगा 

तब संघ के सेनानायक ने सिद्धार्थ गौतम को सम्बोधन करते हुए कहा सिद्धार्थ उस शपथ को तुम याद करो जब संघ के सदस्य बनते समय ग्रहण किया था ।

यदि तुम अपने वचनों का पालन न करोगे तो तुम दण्ड का भागी भी बन सकते हो ।

संघ अपनी आज्ञा की अवहेलना करने वाले को फांसी की सजा अथवा देशनिकाला घोषित भी किया जा सकता है ।

केवल इतना ही नही संघ तुम्हारे परिवार को सामाजिक बहिष्कार भी कर सकता है ।

इस लिए इन तीनो में से एक का चुनाव तुम कर सकते हो

(१) सेना में भर्ती हो युद्ध मे भाग लो 

(२) फांसी पर लटकना अथवा देशनिकाला स्वीकार करो 

(३) अपने परिवार का सामाजिक बहिष्कार एवं खेतो की जब्ती 


सेनानायक के इन वचनों को सुन कर सिद्धार्थ गौतम ने कहा कृपया मेरे परिवार को दण्डित न करे उसका सामाजिक बहिष्कार न करें वे निर्दोष है मैं अपराधी हूँ ।

इस लिए दण्ड का पात्र भी मैं ही हूँ ।

इस लिए मैंने एक आसान रास्ता चुना है  की मैं परिव्राजक बन देश से बाहर चला जाऊं ।

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सिद्धार्थ गौतम संघ के नीतियों के विरुद्ध गया फलस्वरूप वे दण्ड के पात्र भी बने और देश निकाला घोषित किया गया जिसे परिव्रज्या के नाम से प्रचारित प्रसारित किया गया ।

मैंने अपने प्रमाण में जिन लेखों का उद्धरण दिया है उस पुस्तक का स्क्रीन शॉट भी प्रेसित कर रहा हूँ ताकि लोग यह न समझे कि मैंने अपने मतों की पुष्टि के लिए केवल कपोलकल्पित शब्दो का सहारा लिया ।

पुस्तक के लेखक :--बौद्धाचार्य भदन्त आनन्द कौशल्यायन 

एवं श्रीमान भीमराव अंबेडकर जी है ।

इनके लेखों को अब तक बौद्ध मत के किसी भी सम्प्रदाय ने खण्डन नही किया क्यो की वे भी जानते है कि बुद्ध के परिव्रज्या ग्रहण के बिषय में त्रिपिटिक आदि ग्रन्थों में कोई उल्लेख नही है ।


#शैलेन्द्र_सिंह

Friday 11 March 2022

देवराज इंद्र को महर्षि गौतम का शाप देना



एक महाशय ये भी है #Shailesh_k_yadav


जो महर्षि गौतम पर आक्षेप लगा रहे  है कि अहिल्या को ही शाप दिया इंद्र को क्यो नही ।

 हिन्दुओ की सबसे बड़ी दुर्दशा तो यह है कि वे अपने अधिकार अनुरूप शास्त्रो का अध्ययन नही करते ।वामपन्थियों ,ईशाइयो ,इस्लामिक ,एवं तथाकथित बुद्धिजीवियो द्वरा प्रचारित ,प्रसारित बिषयों को तो पढ़ लेते है परन्तु बिषयों के मूल शास्त्रो को नही पढ़ते  , जिस कारण आज यह स्थिति बन पड़ी है धर्मद्रोही दुष्टों द्वरा प्रचारित बिषयों को ही सत्य मान कर उसे स्वीकार भी लेते है और हीन भावना से ग्रसित भी रहते ही ।

जिस कारण इन जैसे धर्मदूषको का बाजार भी चलता है ।

यदि #शैलेश_के_यादव जी  विशुद्ध हिन्दू होते तो वे अपने मुलशास्त्रो का ही अध्ययन किये होते ।

ऐसा न करने का एक कारण वर्णसंकरता भी हो सकता है ।


इसने जो आक्षेप लगाया है वह वाल्मीकि रामायण में स्प्ष्ट दर्शया गया है कि इंद्र द्वरा छल करने पर महर्षि गौतम ने इंद्र शाप दिया था ।

जब महर्षि गौतम इंद्र को शाप दे ही दिए तो भला श्रीरामचन्द्र पुनः उसे दण्ड क्यो दे ??

और वहाँ दण्ड देने का भी अधिकार महर्षि गौतम का था सो महर्षि गौतम ने दोनों को दण्ड दिया ।


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वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड सर्ग ४८ श्लोक संख्या -२८-२९


अकर्तव्यम् इदम् यस्मात् विफलः त्वम् भविष्यति ॥

गौतमेन एवम् उक्तस्य स रोषेण महात्मना ।

पेततुः वृषणौ भूमौ सहस्राक्षस्य तत् क्षणात् ॥


इससे बड़ा और दण्ड किसी के लिए क्या हो सकता है । 

कलिकाल में ऐसे लोग ही असुर है जो हमारे संस्कृतियों पर घात करते है जैसे त्रेता युग मे महर्षि विश्वामित्र को यज्ञादि कर्मकाण्ड में असुरगण बाधा देते थे वैसे ही आजकल ये लोग भी असुरगण ही है ।


#बिशेष:-- इतना ही कहूंगा कि अपने अपने वर्णाश्रमधर्मानुसार अध्ययन करते रहे तभी बिषयों के गूढ़ रहस्य को समझ पाएंगे और धर्मदूषको को उसका उत्तर दे पाएंगे ।


शैलेन्द्र सिंह

Thursday 17 February 2022

दयानंद सरस्वती मुखमर्दन

 #स्वामी_दयानंद_मुख_मर्दन


स्वामी दयानन्द सरस्वती ने सत्यार्थ प्रकाश के माध्यम से समाज मे ब्यभिचार फैलाने की कुचेष्टा की ताकि सनातन धर्म मे वर्णसंकरता को आसानी से फैलाया जा सके नियोग के माध्यम से , जिस भारत भूमि में सती सावित्री ,माता अनुसूया ,माता सीता के पवित्रता का गुणगान आज भी घर घर गाय जाता रहा है उसी भारत भूमि में बालिकाओं और स्त्रियों के चरित्रहनन का पाठ पढ़ाया जा रहा है सत्यार्थ प्रकाश के माध्यम से  |

स्वामी दयानन्द सरस्वती जानते थे कि हिन्दुओ में वेदो के प्रति अटूट श्रद्धा है हिन्दुओ की आस्था जितनी ईश्वर में है उससे भी कहीं ज्यादा आस्था वेदो के प्रति है इस लिए नियोग को सिद्ध करने के लिए वैदिक के दिब्य ऋचाओ को अपने कुबुद्धि द्वरा अनर्थ कर लोगो के मध्य  प्रचारित प्रसारित   किया ।

भले ही मन्त्रो के वास्तविक अर्थ को विकृत कर लोगो के समक्ष क्यो न परोसा जाय ,स्वामी दयानन्द सरस्वती ने ऋग्वेद के १० वे मण्डल के १० वां सूक्त के मन्त्र को आधार बनाया ,और मन्त्र को विकृत रूप से भाष्य कर प्रचारित किया ||  ताकि सामाजिक रूप से नियोग को मान्यता प्राप्त हो और कर्मणा जातिवाद को बढ़ावा मिले । स्वामी दयानन्द सरस्वती ने जिस मन्त्र को प्रमाण के रूप में प्रस्तुत किया वह मन्त्र भी अधूरा है और अपने कथनों को सिद्ध कर पाए इसके लिए दयानन्द ने मन्त्रो को कांटछांट कर उसकी व्याख्या भी कर दी जो यह है 


अन्यमि॑च्छस्व सुभगे॒ पतिं॒ मत् ॥ (ऋग्वेद १०/१०) 


दयानन्द भाष्यार्थ :-जब पति सन्तानोत्पत्ति में असमर्थ होवे तब अपनी स्त्री को आज्ञा दे हे सुभगे सौभाग्य की इच्छा करने हारी स्त्री तू मुझसे अन्य दूसरे पति की इच्छा कर क्यो की  अब मुझसे सन्तानोत्पत्ति न हो सकेगी तब स्त्री दूसरे से सम्बन्ध बना कर सन्तानोतप्ति करे ।

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अब आते है मूल बिषय पर :-- स्वामी दयानन्द सरस्वती ने जिस मन्त्र को कांट छांट कर व्याख्या की वह मन्त्र पूरा का पूरा यहाँ दिखलाया जा रहा है आप सब भी अवलोकन करें 


आ घा॒ ता ग॑च्छा॒नुत्त॑रा यु॒गानि॒ यत्र॑ जा॒मयः॑ कृ॒णव॒न्नजा॑मि ।


उप॑ बर्बृहि वृष॒भाय॑ बा॒हुम॒न्यमि॑च्छस्व सुभगे॒ पतिं॒ मत् ॥(ऋग्वेद १०/१०/१०)


भाष्यार्थ :-- यम अपने बहन यमी से कहता है 

(ता उत्तरा युगानी घा आगच्छान्) वह युग भविष्य में आ जाएंगे  (यत्र) जिसमे (जामयः) भगिनियां (अजामी कृणवन् ) बंधुत्व के बिहीन भ्राता को पति बनावेगी इसलिए हे (सुभगे) सुन्दरी 

(मत् अन्यं पतिं इच्छस्व) मुझसे भिन्न अन्य सुयोग्य वर को पति बनाने की इच्छा कर (बृषभाय बाहुं उप बर्बृहि ) बीर्य सेवन करने में समर्थ बाहु का आश्रय ले  ।


स्वामी दयानन्द ने भाई बहन के मध्य हुए सम्वाद को  पति पत्नी का सम्वाद बना डाला और लोगो के मध्य भ्रामकता का प्रचार किया की ( मैं सन्तानोतप्ति करने में असमर्थ हूँ इस लिए सन्तानोपत्ति के लिए तू किसी अन्य पुरुष से सम्बन्ध बना)


  किसी को यहाँ शंका हो सकती है कि यह भाई बहन का सम्वाद कैसे ??

किसी भी बिषय पर व्याख्या करने से पहले पूर्व में आये हुए प्रसंग का बिचार कर पश्चात आये हुए बिषयों की व्याख्या होती है दसवे मण्डल के पूरा का पूरा दसवां सूक्त सहोदरता की पुष्टि करता है ।  ऋग्वेद के दसवां मण्डल यम यमी सूक्त के नाम से जाना जाता है  यम यमी दोनों सहोदर (भाई बहन)  है यमी अपने भाई यम के सामने विवाह का प्रस्ताव रखता है  यम अपने बहन यमी को यह कहते हुए प्रस्ताव को ठुकरा देता है  की जो भ्राता अपने भगिनी को पत्नी रूप में स्वीकार करता है  समाज मे लोग उसे पापी कहते है अतः तू  मुझसे भिन्न किसी दूसरे सुयोग्य वीर्यवान पुरुष को पति बना  ऐसा दिब्य सन्देश को स्वामी दयानन्द ने विकृत कर भाई बहन के मध्य हुए सम्वाद को पतिपत्नी बना डाला ।

वेदो का सन्देश दिब्य अलौकिक अपौरुषेय है वेदो का एक एक शब्द दिब्य ज्ञान को प्रकाशित करने वाला जिसकी समानता विश्व का कोई भी पौरुषेय (मानवी कृत) पुस्तक समानता नही कर सकता उसी दिब्य सन्देशो को दयानन्द सरस्वती ने विकृत कर सनातन धर्म ग्रन्थों पर घात किया है ।

स्मृतिकारों ने ठीक ही कहा है कि वेद अल्पश्रुत से डरता है कि कहीं वे मेरी हत्या न कर दे ।

केवल इतना ही नही दयानन्द सरस्वती ने इसी चतुर्थ समुल्लास में स्त्रियों को 11 -11 पुरुषों से सम्बन्ध  बनाने को कहा है जैसे इस्लाम मे हलाला प्रथा है ठीक उसी प्रथा के चलन का वकालत दयानन्द सरस्वती ने किया है अपने बिचारो के माध्यम से और लोक में ढोल पीटा जाता है कि दयानन्द सरस्वती ने वैदिक धर्म की रक्षा की , यह सब कितना सही है आप सभी विद्वतजन बिचार करें  ||

सनातन धर्म अपने आप मे पवित्रता का द्योतक है इसमें अपवित्र बिचारो का कोई स्थान नही ।

शैलेन्द्र सिंह


Wednesday 16 February 2022

गुरु लक्षण और स्कूली शिक्षक भाग --3



तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ।(गीता)


श्रुतिप्रामाण्यतो विद्वान्स्वधर्मे निविशेत वै । 

श्रुतिस्मृत्युदितं धर्मं अनुतिष्ठन्हि मानवः ।। (मनुस्मृति)


कार्याकार्यव्यवस्था में शास्त्र ही प्रमाण है जन्म से लेकर मृत्यु पर्यंत जितने भी संस्कार है उनमें शास्त्रो का स्पष्ट घन्टाघोष है की कैसे उसे आचरण में लाया जाए फिर वेदविद्या आदि तथा आचार्यो के प्रति शास्त्र मौन कैसे रहे ?

लौकिक तथा पारलौकिक कल्याण हेतु मोक्षरूपी विद्या प्रदान करने वाले गुरु अथवा आचार्य का लक्षण क्या है और कौन इसका अधिकारी है शाश्त्रो ने बृहदरूप से इस पर प्रकाश डाला है 


एतद्‍देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मन:।

  स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन पृथिव्यां सर्वमानवा:॥(मनुस्मृति)

जो अग्रजन्मा है उसी से पृथ्वी के सभी मानव अपना आचार बिचार सीखें ।


ब्राह्मण सभी वर्णो में।अग्रजन्मा है 

ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद् (ऋग्वेद)

उत्तमाङ्गोद्भवाज्ज्येष्ठ्याद्ब्रह्मणश्चैव धारणात् ।

सर्वस्यैवास्य सर्गस्य धर्मतो ब्राह्मणः प्रभुः (मनुस्मृति १.९३ )


वेदादि शास्त्रो में ब्राह्मण को मुख कहा गया है !

वाक् और बुद्धि  ही अंग प्रत्यंग से लेकर साम्राज्य तक का शाशन करता है यह दृष्टान्त जगत में देखा जाता है जिस कारण किस वर्ण का क्या आचरण है यह ब्राह्मण से ही जानना चाहिए क्यो ?

क्योकि 

वर्णानां ब्राह्मणः प्रभुः (मनुस्मृति १०.३ )

उत्पत्तिरेव विप्रस्य मूर्तिर्धर्मस्य शाश्वती ।(मनुस्मृति )

ब्राह्मणो जायमानो हि पृथिव्यां अधिजायते ।(मनुस्मृति)

पृथग्धर्माः पृथक्शौचास्तेषां तु ब्राह्मणो वरः।।(महाभारत -- आदिपर्व ८१/२०)


ब्राह्मण स्वयं धर्म स्वरूप है । 

जिस कारण श्रुतिस्मृति आदि ग्रन्थों में ब्राह्मण के सानिध्य में ही  अध्ययन अध्यापन और आचार बिचार की शिक्षा ग्रहण करने का आदेश दिया गया है 


गुरुर्हि सर्वभूतानां ब्राह्मणः(महाभारत आदिपर्व १/२८/३५)

अधीयीरंस्त्रयो वर्णाः स्वकर्मस्था द्विजातयः ।

प्रब्रूयाद्ब्राह्मणस्त्वेषां नेतराविति निश्चयः । । 

सर्वेषां ब्राह्मणो विद्याद्वृत्त्युपायान्यथाविधि ।

प्रब्रूयादितरेभ्यश्च स्वयं चैव तथा भवेत् । । (मनुस्मृति १०/१-२)

ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् (श्रीमद्भागवतगीता १८- ४२ )

वृत्त्यर्थं याजयेदज्वान्यानन्यानध्यापयेत् तथा ।

कुर्यात् प्रतिग्रहादानं गुर्वर्थं न्यायतो द्रिजः (विष्णु पुराण ३/२३ )

सास्त्रज्ञा नित्य है और सास्त्रज्ञा मानने वाला ही ईश्वर का आराधना करता है सास्त्र द्रोही नही विष्णुपुराण का उद्घोष है अब उसे न मान मनमाना आचरण को ही धर्म मान ले तो उससे बड़ी और मूर्खता क्या ।


वर्णास्वमेषु ये धर्माः शास्त्रोक्ता नृपसत्तम ।

तेषु तिष्ठन् नरो विष्णुमाराधयति नान्यथा ।(विष्णु पुराण ३/ १९ )

कहाँ श्रुतिस्मृति प्रोक्त वर्णाश्रमधर्म  आचरित गुरु तो कहाँ  भौतिक शिक्षा के बल पर प्राप्त किया हुआ संवैधानिक पद  अतः यह नीतान्त भ्रामक प्रचार है कि स्कूली शिक्षक और गुरु समतुल्य है 

शैलेन्द्र सिंह

Monday 14 February 2022

भीमराव अंबेडकर एक भ्रामक तथ्य












भीमराव अम्बेडकर का जन्म एक सम्भ्रान्त परिवार में हुआ था भीमराव अम्बेडकर के दादा 

मालो जी सकपाल ईष्ट इण्डिया के अंतर्गत मुम्बई सेना में हवलदार पद पर विभूषित थे 

मालोजी सकपाल के दो संतान हुए जिनमे एक पुत्र  रामजी सकपाल और दूसरा पुत्री के रूप में मीरा बाई 

मालो जी सकपाल का पुत्र राम जी सकपाल सैनिक स्कूल के प्रधानाचार्य नियुक्त होते हुए सूबेदार मेजर पद पर विभूषित थे ।

ऐसे सम्भ्रान्त परिवार के बिषय में यह नैरेटिव गढ़ा जाता है कि भीमराव अम्बेडकर सहित उनके परिवार का शोषण हुआ ।

जिनके कुल के सदस्य सैनिक के महत्वपूर्ण पदों पर विभूषित उस कुल के शोषण तो क्या ऊंची आवाज में कोई बात तक न कर सके फिर ऐसे कैसे नैरेटिव गढ़ा गया कि उनके कुल का शोषण हुआ ??


हमने यहाँ भीमराव अम्बेडकर के बाल्यकाल से लेकर बृद्धावस्था तक के फोटो को शेयर भी किया है एक भी ऐसा फोटो नही जहाँ भीमराव अम्बेडकर सूटबूट में न हो ।

भीमराव अम्बेडकर एक सम्भ्रान्त परिवार से था उनके रहन सहन  वेशभूषा तथा उनका पठनपाठन भी विश्व के धनी विद्यालयों में हुई थी यह सर्वविदित है ।

उनकी जीवनी पढ़ने से ज्ञात होता है कि वे न तो शोषित ही थे और न ही अछूत ।

यदि शोषित होते तो इतने सम्भ्रान्त कैसे होते ?

और यदि उन्हें अछूत माना जाता तो उनकी शिक्षा दीक्षा एक ब्राह्मण के सानिध्य में कैसे हुई ??

फिर ऐसा क्या हुआ कि भीमराव अम्बेडकर हिन्दू धर्म के प्रति विषवमन किया ??

क्यो भारतीयों के जनमानस में यह जहर घोला की शुद्रो को शोषित किया जाता है उसे अछूत माना जाता है ??


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भगवन् के चरण कहे जाने वाले शुद्र अछूत कैसे हो सकते है ??

सनातन धर्म मे तो चरणों की महत्ता ऐसी की , की भगवद् विग्रह में चरणों की ही पूजा की जाती है मुखमण्डल की नही ।

 पूरा का पूरा शरीर इन्ही चरणों के स्तम्भ पर खड़ा होता है फिर उन्हें अछूत कैसे माना जाता ??

यदि ऐसा होता तो विदुर शुद्र होते हुए भी हस्तिनापुर जैसे महान साम्राज्य का महामन्त्री कैसे बना ?? 

इक्ष्वाकु वंश के राजा हरिश्चंद्र एक चाण्डाल के यहाँ नौकरी कैसे किया यदि अछूत माना जाता तो यह सम्भव ही न होता और यदि शोषित होता तो इक्ष्वाकु वंश के राजा को खरीदने का उस चाण्डाल के पास धन नही होता ।

अस्तु सनातन धर्म वर्णव्यवस्था शोषक नही पोषक है समस्त वर्णो को अपने अपने क्षेत्र में एकाधिकार प्राप्त था कोई भी वर्ण दूसरे वर्ण के व्यवस्था का अतिक्रमण नही करता था ।

तभी यह भारत भूमि आर्थिक रूप से सबसे सम्पन्न था और यवन ,अरब,तुर्क,ब्रिटिश भारत पर डाका डालने आये ।

प्रश्न तो बहुतेरे है ।

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दर्शल ऐसा इसलिए हुआ कि जिस आयु में  युवक अपने संस्कृतियो और संस्कारों के प्रति जिज्ञाशू होते है वे उसी आयु में  ईसाई बहुल देश अमेरिका चले गए तब उनकी उम्र महज 22 वर्ष की थी यही वह कालखण्ड था जब भारत मे क्राइस्ट मिशनरियों द्वरा सनातन संस्कृतियो पर प्रहार किया जा रहा था यहाँ के संस्कारों के प्रति लोगो मे विषवमन किया जारहा था और धर्मांतरण की होड़ लगी थी  जब भारत देश मे यह दृश्य चारो ओर था फिर ईसाई बहुल देशों में रह कर भीमराव अम्बेडकर के बिचारो में बदलाव कैसे न हो ???

अंग्रेजो ने जातिवाद का बीज इन्ही के माध्यम से बोया और भारत मे जातिवाद का फसल लहलहाने लगा ।

जिसका लाभ सभी मत पन्थो मजहबो को मिला जिसे जहां भी मौका मिला वे फसल काट (धर्मांतरण ) कर ले गए ।

और आज भी उसी फसल का बीज इस भारत भूमि में पसरा पड़ा है जब जिन्हें मौका मिलता है चुन लेते है ।

शैलेन्द्र सिंह

वैदिक हिंसा हिंसा नही

 त्रैगुण्यविषया_वेदा (गीता) 

 वेदे सर्वज्ञानमयो हि सः (मनुस्मृति)

वेद सात्विक ,राजसिक,तामसिक तीनो गुणों को भी मोक्ष प्रदान करने वाला है ऐसे में यदि अग्निषोमियदि के बिरोध करने वाले के  कथनों को माने तो ( तंत्र विद्या) वाममार्गी तो नरक के ही भागी होंगे फिर दुर्गा,काली आदि देवियों की स्तुत्य पशुबलि कर कौन ऐसा ब्यक्ति है जो नरक में जाने की इच्छा करेगा ?क्यो की वाममार्ग में बलि मान्य है ऐसे में वेद इन वाममार्गियों का उद्धार कैसे करेगा ?? 

ऐसे में त्रैगुण्यविषया वेदा से वेदों की सिद्धि कैसे हो ??तब तो वेद भी अमान्य हो जाएगा इस लिए वेद सात्विक राजसिक तामसिक मार्गो को भी मोक्षप्रदान करने के लिए भिन्न भिन्न मार्गो को प्रसस्त किया है 


इस लिए श्रुतियों का उद्घोष है #स्वर्गकामो_यजतेती_सततं_श्रूयते_श्रुति 


अग्निषोमियादिषु च न हिंशा पशो: निहिन्तरच्छागादिदेहिपरि त्यागपूर्वक कल्याणदेह स्वर्गादिप्राप्तकत्वश्रुते: संज्ञपनस्य


यज्ञाधारं जगतसर्व यज्ञो विश्वस्य जीवनम्

यज्ञो ही परमो धर्मो   यज्ञे सर्वप्रतिष्ठितम (इति श्रुति:)


अग्निषोमियादिषु च न हिंशा पशो: निहिन्तरच्छागादिदेहिपरि त्यागपूर्वक कल्याणदेह स्वर्गादिप्राप्तकत्वश्रुते: संज्ञपनस्य 


न वा एतन् म्रियसे नोत रिष्यसि देवं इदेषि पथिभिः शिवेभिः । 

यत्र यन्ति सुकृतो नापि दुष्कृतस्तत्र त्वा देवः सविता दधातु ॥ (यजुर्वेद)


अग्नीषोमीयं पशुमालभते (ऐतरेय ब्राह्मण २/३)

यज्ञोऽस्य भूत्यै सर्वस्य तस्माद्यज्ञे वधोऽवधः । ।

या वेदविहिता हिंसा नियतास्मिंश्चराचरे ।

अहिंसां एव तां विद्याद्वेदाद्धर्मो हि निर्बभौ ।(मनुस्मृति)

अनुग्रह:पशूनां ही संस्कारो विधिनोदित:(महाभारत शान्तिपर्व ४९/२८)

पशवश्चाथ धान्यं च यज्ञस्याङ्गमिति श्रुतिः।।(महाभारत मोक्षधर्म पर्व २६८/२०)

न हिनस्ति नारभते नाभिद्रुह्यति किंचन।

यज्ञैर्यष्टव्यमित्येव यो यजत्यफलेप्सया।।(महाभारत मोक्षधर्म पर्व  २६८/३१)

शैलेन्द्र सिंह


भीम+हिडिम्बा विवाह शंका समाधान

 भीम + हिडिम्बा विवाह शंका समाधान ।


विशाल मालवीय जी पढ़ते भी हो वा  केवल धूर्त समाजी की भांति आक्षेप करना ही जानते हो ??


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मया ह्युत्सृज्य सुहृदः स्वधर्मं स्वजनं तथा।

वृतोऽयं पुरुषव्याघ्रस्तव पुत्रः पतिः शुभे।। 

वीरेणाऽहं तथाऽनेन त्वया चापि यशस्विनी।

प्रत्याख्याता न जीवामि सत्यमेतद्ब्रवीमि ते।। 

यदर्हसि कृपां कर्तुं मयि त्वं वरवर्णिनि।

मत्वा मूढेति तन्मां त्वं भक्ता वाऽनुगतेति वा।।

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हिडिम्बा मन ही मन विक्रोदर को पति मान चुकी थी और केवल एक सन्तान उतपन्न होने तक भीम के साथ गन्धर्व विवाह के लिए अनुमोदन किया था यदि भीम वरण न करते तो वे आत्महत्या भी कर सकती थी ।


#न_जीवामि_सत्यमेतद्ब्रवीमि_ते

 यदि भीम गन्धर्व विवाह के लिए सहमत न होते तो स्त्री हत्या का पाप भी लगता साक्षात् धर्म के अंश स्वरूप  युधिष्ठिर जी स्पष्ट कहते है कि क्रुद्ध में आकर भी कभी स्त्री का वध न करे 


#क्रुद्धोऽपि_पुरुषव्याघ्र_भीम_मा_स्म_स्त्रियं_वधीः

हिडिम्बा के इस अनुमोदन के लिए माता कुन्ति भी विक्रोदर को आज्ञा देती है ।

यहाँ माता कुंती को 

#सर्वशास्त्रविशारदम् कहा गया है समस्त शास्त्रो के ज्ञाता माता कुंती द्वारा दिया गया आदेश धर्म विरुद्ध नही हो सकता अन्यथा माता कुंती को सर्वशास्त्रविशारद कह कर अलंकृत न किया गया होता ।

माता कुंती विक्रोदर को यह आज्ञा देती है कि एक सन्तान उतपन्न होने तक हिडिम्बा भीमसेन की सेवा में रहे ।


तस्यास्तद्वचनं श्रुत्वा कुन्ती वचनमब्रवीत्।। 

युधिष्ठिरं महाप्राज्ञं सर्वशास्त्रविशारदम्। 

त्वं हि धर्मभृतां श्रेष्ठो मयोक्तं शृणु भारत।। 

राक्षस्येषा हि वाक्येन धर्मं वदति साधु वै।

भावेन दुष्टा भीमं वै किं करिष्यति राक्षसी।। 

भजतां पाण्डवं वीरमपत्यार्थं यदीच्छसि।' (महाभारत आदिपर्व)

शैलेन्द्र सिंह


Friday 11 February 2022

स्वामी दयानंद सरस्वती का विज्ञान


स्वामी दयानन्द ने अपने सत्यार्थप्रकाश के पृष्ठ संख्या ४५-४६ में कहते है कि सन्ध्याकाल तथा प्रातः काल मे सबलोग मलमूत्र का त्याग करते है जिससे वायु में दुर्गंध फैल जाती है तो उस वायु की शुद्धि के लिए यज्ञ करें ताकि दुर्गन्धयुक्त वायु का शोधन हो सके  पता नही स्वामी जी के मनमस्तिस्क में उस वक़्त क्या चल रहा था यह तो वो ही जाने 

अस्तु स्वामीदयनन्द मतानुसार आर्यसमाजियों को यज्ञ करने के लिए उस स्थान बिशेष का चुनाव करना चाहिए जहाँ मलमूत्रादि ज्यादा हो अथवा जिस स्थान पर लोग बहुतायत में मलमूत्र का त्याग करते हो 

स्वामीदयानन्द सहित समस्त आर्यसमाजी शास्त्रो में आये हुए  आज्ञानिषेधाज्ञा की धज्जियां पदे पदे उड़ाई है और स्वयं को सबसे बड़े वैदिक धर्मी कहते नही थकते ।

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यज्ञ जो की पुरुषार्थ प्राप्ति का साधन है ,जिस वेदविहित कर्मकाण्ड  से समस्त सिद्धियां प्राप्त होती है ,जिस यज्ञ से देवगण ने असुरों को परास्त किया था, उस यज्ञबिशेष को लेकर स्थान तथा हविष्य आदि की शुद्धता के बिषय में शास्त्रो में भला बिचार कैसे न किया गया हो ।

महर्षि मनु मनुस्मृति में कहते है कि जहाँ अग्निहोत्रशाला हो उसके आसपास मलमूत्र का त्याग न करे ।

■ दूरादावसथान्मूत्रं दूरात्पादावसेचनम् ।

उच्छिष्टान्ननिषेकं च दूरादेव समाचरेत् । ।(मनुस्मृति ४/१५१)


■ परन्तु दयानन्द का मत है जहाँ मलमूत्र की अधिकता हो वहाँ यज्ञ हो 


वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड में भी इसी बिषय को लेकर एक प्रसङ्ग भी आया है महर्षि विश्वामित्र सिद्धियां प्राप्त करने हेतु यज्ञ का सम्पादन करते है  उस यज्ञ को बार बार विध्वंश करने के लिए मारीच तथा सुबाहु जैसे असुर यज्ञवेदी पर रक्त मांस की वर्षा कर देते थे जिससे यज्ञ की शुद्धि में बाधा पड़ती थी और यज्ञ सम्पन्न नही हो पाता था  अंततः विश्वामित्र ने यज्ञ विध्वंशकारियो को दण्ड देने हेतु तथा यज्ञ विधिविहित अनुरूप सम्पन्न हो इस लिए  वे अयोध्या के नरेश राजा दशरथ के पास जाते है और श्रीरामचन्द्र तथा लक्ष्मण को अपने साथ ले जाकर उन्हें यह भार सौपते है कि यज्ञ में किसी प्रकार का विध्न न पड़े ।


■ अहम् नियमम् आतिष्ठे सिध्द्यर्थम् पुरुषर्षभ ।

■ तस्य विघ्नकरौ द्वौ तु राक्षसौ काम रूपिणौ ॥

■ तौ मांस रुधिर ओघेण वेदिम् ताम् अभ्यवर्षताम् (वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड )


यज्ञ से क्या लाभ इस पर शास्त्रानुकूल बिचार करते है ।


स्वर्गकामो यजेत' इति वाक्यं श्रुत्वा ज्योतिष्टोमः स्वर्गरूपं फलं प्रति साधनमिति बोधो जायते । अनुष्ठिते च कर्मणि फलं प्राप्यत इति शास्त्रमेव प्रमाणम् ।


जिस विधिपूर्वक सदनुष्ठान से स्वर्ग की प्राप्ति तथा सम्पूर्ण विश्व का कल्याण  तथा आध्यात्मिकआधिदैविक-आधिभौतिक तीनों तापों का उन्मूलन, सरल हो जाये, जिस श्रेष्ठ अनुष्ठान से सुखविशिष्ट की प्राप्ति सहज हो जाये 

जिससे देवगण पूजे जाते हैं, जिस याग में देवगण पूजित होकर तृप्त हों, उसे यज्ञ कहते हैं ।

■यत्का॑मास्ते जुहु॒मस्तन्नो॑ अस्तु व॒यं स्या॑म॒ पत॑यो  (ऋग्वेद १० /१२१/१०)

■देवावीर्देवान्हविषा यजास्यग्ने (ऐतरेय ब्राह्मण १/२८)

■देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः।

■परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ।।

■ इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः। (गीता ३/११-१२)


इस शास्त्रवचन से यह सिद्ध हो जाता है कि यज्ञ से देवगण तृप्त हो याजक को स्वर्गादि सुखविशिष्ट समस्त इच्छित फल को प्रदान करते है यज्ञ बिशेष तथा उनसे प्राप्त होने वाली सिद्धियों को समस्त सास्त्र मुक्तकण्ठ से गायन करते है क्यो की यज्ञ साक्षात् परमेश्वर का ही स्वरूप है ।


यज्ञो वै विष्णुः।(तै.ब्रा.-ऐतरेय ब्राह्मण-सतपथ ब्राह्मण-तैत्तरीय संहिता ) 

केवल इतना ही नही यज्ञ न करने वाला ब्यक्ति के लिए तो यह लोक भी कल्याणकारी नही फिर भला परलोक कैसे कल्याणकारक हो ।

■नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यः कुरुसत्तम ॥ (गीता)

शैलेन्द्र सिंह


भ्रामकता के शिकार हिन्दू


हिन्दुओ के लिए वेद स्वतः प्रामाणसिद्ध है ईश्वर द्वरा प्रतिपादित बिषय भी यदि वेद विरुद्ध हो तो वे अप्रामाणिक माने जाते है यही वेद की वेदता और हिन्दू होने का प्रथमप्रामाण है ।


अल्पज्ञ अल्पश्रु भ्रामक ब्यक्तियो वामपंथियों ईसाइयों इस्लामिको  का कहना है कि शूद्रों को पढ़ने नही दिया जाता था उन्हें जानबूझ कर अशिक्षित रखा जाता था ताकि उसका शोषण कर सके ।

प्रथमतः स्प्ष्ट कर देना चाहता हूं कि वैदिक सनातन धर्म शोषणवादी नही अस्तु पोषणवादी है ऐसा कोई कर्मकाण्ड नही जहाँ समस्त वर्णों को आर्थिक रूप से लाभ नही मिलता हो इस पर मैं कई बार पोस्ट लिख चुका हूं अतः वही बिषय को पुनश्च यहाँ रखने का कोई अर्थ नही बनता  ।

दूसरी बात विद्यादि में शूद्रों का भी अधिकार था यह बात 

■ श्रुतिस्मृतिइतिहासपुराणादि से सिद्ध है ।

समावेदीय छन्दोग्य उपनिषद में राजा अश्वपति यह घोषणा करते है

कि मेरे राज्य में कोई भी अशिक्षित नही  , न ही कोई मूर्ख 


■ न मे स्तेनो जनपदे न कदर्यो न मद्यपः।

नानाहिताग्निर्ना विद्वान् न स्वैरी स्वैरिणी कुतः॥ (छान्दोग्य॰ ५ । ११ । १५)

केवल इतना ही नही त्रेतायुग में इक्ष्वाकु वंश के राजा दशरथ के शासनकाल में भी ऐसा कोई ब्यक्ति देखने को नही मिलता जो अशिक्षित हो ।


■ कामी वा न कदर्यो वा नृशंसः पुरुषः क्वचित् ।

द्रष्टुम् शक्यम् अयोध्यायाम् न अविद्वान् न च नास्तिकः ॥(वा0 रा0 १/६/८)


अयोध्या में कही कोई कामी,कृपण, क्रूर,अविद्वान,नास्तिक ब्यक्ति देखने को नही मिलता है ।

अतः इससे स्प्ष्ट प्रामाण हो जाता है कि विद्या आदि में शूद्रों का अधिकार था केवल इतना ही नही शिक्षा दर भी १००% थी तत्तकालीन शासनतंत्र के अधीन भारत के समस्त नागरिक शिक्षित नही है जबकि जिस कालखण्ड में श्रुतिस्मृतिइतिहासपुराणादि का प्रचार प्रसार ईस भूखण्ड पर पूर्णरूपेण था उस कालखण्ड में कोई भी ब्यक्ति अशिक्षित नही था ।

भारत जब यवनों अरबो तुर्को ब्रिटेन की दासता झेल रहा था उसीकालखण्ड में यह अशिक्षिता  व्याप्त हुई क्यो की गुरुकुलों को नष्ट करना विश्विद्यालयों को अग्निदाह करना ही मूल कारण रहा ।


 शूद्रों का तो शिल्पविद्या में एकक्षत्र राज था ।

वर्णाश्रमधर्मी होने का यही अर्थ होता है कि कोई भी किसी के अधिकारों का हनन न करें स्व स्व धर्म का पालन निष्पक्षता पूर्ण करें 

महाभारत जैसे अयाख्यानों में शूद्रकुल में जन्मे हुए विदुर को हस्तिनापुर जैसे साम्राज्य का महामन्त्री बनाया वे नीतिशास्त्र के ज्ञाता धर्माधर्म बिषयों के ज्ञाता तथा साक्षात् धर्म का अंश माना गया यदि सनातन धर्म शोषणवादी अशिक्षित रखने की नीति होती तो स्वधर्मपरायण विदुर को हस्तिनापुर जैसे साम्राज्य का महामन्त्री न बनाया होता ।

एकलब्य के बिषय को लेकर भी भ्रामक प्रचार किया गया है 

महाभारत में ही स्प्ष्ट लिखा है कि गुरु द्रोणाचार्य ने एकलब्य को वह विद्या प्रदान की जो न तो पाण्डवो, कौरवो और न ही अश्वथामा को प्रदान की थी ।

इक्ष्वाकु वंश के ही राजा हरिश्चंद्र एक चाण्डाल के यहाँ नौकरी किये अब बिचार कीजिये कि इक्ष्वाकु वंश के राजा को भी खरीदने का सामर्थ्य एक चाण्डाल के पास था कितना धन होगा उस चाण्डाल के पास ??

हमने कभी भी बिषयों पर सत्यासत्य बिचार नही किया अपितु हमने उसी को सत्य मान बैठा जिसका प्रचार वामी,कामी,इस्लामी,ईसाइयत,गैंग ने प्रचार किया और वे सफल भी हुए पाश्चात्यविद से लेकर भारत के हिन्दू इस बिषय पर भ्रामित है ।

इन सब मिथ्या बिषयों का प्रचार प्रसार भी इस लिए हुए की यवन ,तुर्क,अरब,(इस्लामी) यूरोप (ईसाइयों) ने जब धर्मान्तरण करने में असफल हुए तो वे इस तरह के भ्रामक प्रचार प्रसार किया ताकि विखण्डन का बीज बोया जा सके और धतमान्तरण रूपी खेल आसान हो जाय ।


शैलेन्द्र सिंह




Friday 28 January 2022

नेताजी सुभाषचन्द्र बोस

 ‘नेताजी सुभाषचन्द्र बोस’ का नाम लेते ही एक ऐसी तेजोमयी मूर्ति दृश्यपटल पर अंकित हो जाती है, जिसे अपने प्यारे देश भारत को एक क्षण के लिए भी पराधीन देखना सहन नहीं था। भारत को विदेशी पाश से मुक्त करने की ऐसी छटपटाहट समकालीन किसी अन्य नेता में शायद ही देखने को मिले। सुभाष हर दृष्टि से अनूठे थे। अपनी विलक्षण कार्यपद्धति, कूटनीतिक चरित्र और साम-दान-दण्ड-भेद— सभी नीतियों का समुचित उपयोग करते हुए शत्रु को समूल नष्ट करने की उनकी भावना उनको अनन्य वीरता के दिव्य अवतार और भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन के महानायक के रूप में खड़ा करती है, गाँधी और नेहरू उनके सामने क्या, दूर-दूर तक दिखाई नहीं देते।


भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन के इतिहास में सुभाष चन्द्र बोस किसी फि़ल्मी कथा के नायक के रूप में दिखाई देते हैं। जैसे वह विद्युत की तरह चमके और देदीप्यमान हुए और अचानक वह प्रकाश-पुंज कहीं लुप्त हो गया।


सन् 1939 में मो.क. गाँधी द्वारा ‘निजी हार’ मानने के बाद काँग्रेस से अलग होकर सुभाष ने आगामी छः वर्षों में क्या कुछ नहीं किया। अंग्रेज़ों को चकमा देकर कलकत्ता से गोमो, वहाँ से पेशावर, वहाँ से काबुल, फिर मास्को, वहाँ से बर्लिन जाकर उस युग के सबसे बड़े तानाशाह हिटलर से मिलना, जर्मनी में ‘आज़ाद हिंद रेडियो’ की स्थापना करना; वहाँ से जापान और सिंगापुर जाकर आज़ाद हिंद फौज़ का गठन करना, सिंगापुर में आज़ाद हिंद फौज़ के सर्वोच्च सेनापति (सुप्रीम कमाण्डर) के रूप में स्वाधीन भारत की अन्तरिम सरकार का गठन करना, खुद इस सरकार का राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और युद्धमंत्री बनना, इस सरकार को जर्मनी, जापान, फिलिपींस, कोरिया, चीन, इटली, मान्चुको और आयरलैण्ड द्वारा मान्यता देना; आज़ाद हिंद बैंक की स्थापना करके काग़ज़ी मुद्रा जारी करना; आज़ाद हिंद फौज़ का अंग्रेज़ों पर आक्रमण करके भारतीय प्रदेशों को अंग्रेज़ों से मुक्त कराना, फिर अचानक उस तेजपुंज का लोप हो जाना— यह सब एक स्वप्न की भाँति लगता है।


नेताजी सुभाष चन्द्र बोस-जैसे विलक्षण व्यक्तित्व कभी-कभी ही जन्म लेते हैं। उनके विषय में जितना कहा जाए, बहुत कम है। इतिहास की पुस्तकों में भी योजनाबद्ध रूप में गाँधी और नेहरू के अतिशय महिमामण्डन के बाद नेताजी को हमेशा तीसरे स्थान पर रखा जाता है, ताकि उनकी उज्ज्वल कीर्ति से देशवासी अनजान रहें। उनकी मृत्यु का विवरण भी देशवासियों से छिपाया गया है।


Thursday 27 January 2022

स्वामी दयानन्द सरस्वती मत भञ्जन




स्वामी दयानन्द सरस्वती सत्यार्थ प्रकाश जब लिखने बैठा था मानो वे भांग पी कर ही बैठा था ऐसा आप को भी विश्वास हो जाएगा सत्यार्थप्रकाश का स्क्रीनशॉट देख कर 

स्वामी दयानन्द अपने प्रथम समुल्लास के पृष्ठ संख्या  9 में  जो लिखा है वह उनकी  मूर्खता की पराकाष्ठा देखने को मिलता है ।

स्वामी दयानंद  कहते है की #ब्रह्मा_विष्णु_महादेव नामक पूर्वज विद्वान थे जो प्रब्रह्मपरमेश्वर की उपासना करते थे ||

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मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है कि स्वामी दयानन्द सरस्वती ने कभी भी ऋग वेदादि का मुख दर्शन भी न  किया हो यदि किया होता तो ऐसा कहने का दुःसाहस न करते ।

वेदो में स्पष्ट रूप से आया है कि जो इंद्र है वही ब्रह्मा है वही विष्णु है वही शिव है |


त्वम॑ग्न॒ इंद्रो॑ वृष॒भः स॒ताम॑सि॒ त्वं विष्णु॑रुरुगा॒यो न॑म॒स्यः॑ ।

त्वं ब्र॒ह्मा र॑यि॒विद्ब्र॑ह्मणस्पते॒ त्वं वि॑धर्तः सचसे॒ पुरं॑ध्या ॥(ऋ २/१/३)


त्वमिन्द्रस्त्वँ रुद्रस्त्वं विष्णुस्त्वं ब्रह्म त्वं प्रजापतिः (तैत्तरीय आरणक्यम् )

 स ब्रह्मा स शिवः स हरिः सेन्द्रः सोऽक्षरः परमः स्वराट् (नृसिंहतापनि उपनिषद )


श्रीमद्भगवद्गीता में भगवन स्वयं कहते है 

नान्तोऽस्ति मम दिव्यानां विभूतीनां (गीता)


उस परब्रह्म परमात्मा के दिब्य विभूतियों का अंत नही वही कार्यकारण रूप से ब्रह्मा ,विष्णु ,और शिव है ।

जिस कारण श्रुतियों में नेति नेति कह कर उस परब्रह्म परमात्मा के विभूतियों के अनन्त को दर्शाया है ||

सत्व ,रज:,तम: यह तीनों गुण प्रकृति के है एक परम पुरुष उक्त तीन गुणों से युक्त होकर इस विश्व की सृष्टि स्थिति एवं संहार हेतु  सत्व गुण से हरी: रजो गुण से ब्रह्मा,एवं तम गुण से हर संज्ञा को प्राप्त होते है ।

शैलेन्द्र सिंह

Friday 14 January 2022

योद्धा जिनकी वजह से हम बचे है।

 योद्धा जिनकी वजह से हम बचे है।



नाम था #कुमारिल_भट्ट इनका जन्म पंडित यज्ञेश्वर भट्ट एवं माता चंद्रकना (यजुर्वेदी ब्राम्हण ) के घर हुवा, इनके जन्म स्थान और जन्म वर्ष को लेकर अलग-अलग मत है कुछ विद्वानों के अनुसार कुमारिल भट्ट का जन्म उत्तरभारत वर्तमान के आसाम राज्य में हुआ था तो कुछ के अनुसार मिथिला में हुआ था, तारानाथ के अनुसार कुमारिल भट्ट का जन्म दक्षिण भारत में ६३५ इसवी के पास हुआ था तो एक अन्य विद्वान् कृपुस्वामी की अनुसार इनका काल ६००- ६५० ईसवी के आस पास का है ।


      एक प्रख्यात मत के अनुसार काशी में शिक्षा ग्रहण करने के दौरान एकदिन जब कुमारिल भट्ट भिक्षाटन के लिए निकले हुवे थे तब उनके सर पर कुछ ऊष्ण तरल की कुछ बुँदे गिरी जब उन्होंने ऊपर देखा तो एक स्त्री रो रही थी वह स्त्री कोई और नहीं बल्कि उस राज्य की रानी थी जो भगवान विष्णु की परम उपासक एवं वैदिक सनातन धर्म की अनुयायी थी। लेकिन राजा बौद्ध धर्म का अनुयायी था उस समय पूरा भारत बौद्धों की चपेट में यानि की पूरा बौद्धप्राय हो गया था नास्तिकता तेजी से बढ़ रही थी भारत देश विदेशी आक्रान्ताओं के लिए चारागाह बन गया था। राजा महाराजाओं का धर्म बौद्ध धर्म बन गया और प्रजा पर भी बिना उनकी इच्छा के बौद्ध धर्म को थोपा जा रहा था इसी से द्रवित होकर रानी रो रही थी जिसकी कुछ बुँदे कुमारिल भट्ट के सर  पर गिरी, जब कुमारिल भट्ट ने कारण पूछा तो रानी बोली “ किंकरोमिकगच्छामि    कोवेदानुद्ध्रिश्यती” अर्थात कहा जाऊं, वेदों का उद्धार कौन करेगा , कौन बचाएगा वैदिक धर्म ?यह सुनते ही विद्यार्थी कुमारिल भट्ट बोले “माँविषादबरारोहे ! भट्टाचारयोअस्मिभूतले”  अर्थात माँ विषद रहित रहो कुमारील भट्ट अभी इस भूतल पर है।


       इन बातों के बाद रानी ने कुमारिल भट्ट को आपने पास बुलाया और बौद्ध धर्म की अनेक कमियों के बारे में बताया लेकिन समस्या यह थी की कुमारिल भट्ट के पास बौद्ध धर्म के बारे में अधिक जानकारी नहीं थी वे वैदिक धर्म के प्रकाण्ड पण्डित तथा पूर्णतया अनुयायी थे। उन्होंने वेद, शास्त्रों तथा उपनिषदों का गहन अध्ययन किया था। उनका विश्वास था कि वैदिक तथ्य ही मानव जीवन को ऊँचा उठाने में समर्थ हो सकता है। किंतु जनता के सामने अपनी बात कहने तथा उसे मनवाने से पूर्व यह आवश्यक था कि उस प्रभाव को मिटाया जाय तो बौद्ध धर्म के नास्तिक विचारधारा के रूप में जन मानस में छाया हुआ था। उन्होंने प्रतिज्ञा की, कि - चाहे जो कठिनाई मेरा मार्ग अवरुद्ध करे- मैं वैदिक मान्यताओं का प्रचार प्रसार करने में कुछ भी कमी न रखूँगा।


      लेकिन इस मार्ग में सबसे बड़ी कठिनाई बौद्ध धर्मानुयायियों से शास्त्राथ करने से पहले स्वयं को बौद्ध धर्म का गहन अध्ययन न होना था। अतः इसके लिए कुमारिल भट्ट ने प्रतिज्ञा ली की सबसे पहले बौद्ध धर्म का गहन अध्ययन करेंगे इसके लिए वह उस समय के सबसे प्रख्यात विश्वविद्यालय तक्षशिला विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया और पूरे पाँच वर्षों तक बौद्ध धर्म का क्रमबद्ध व विशद् अध्ययन किया। जब शिक्षा पूर्ण हो गई तो चलने का अवसर आया। इस समय की प्रथा के अनुसार बौद्ध विश्वविद्यालयों के स्नातकों की यह प्रतिज्ञा करनी होती थी कि -” कि मैं आजीवन बौद्ध धर्म का प्रचार व प्रसार करूंगा तथा धर्म के प्रति आस्था रहूँगा।


लेकिन एक वैदिक ब्राम्हण के लिए झूठी प्रतिज्ञा मृत्यु के सामान होती है अतः कुमारिल भट्ट के सामने पुनः पहले से बड़ी समस्या आकर खड़ी  हो गयी, समस्या बड़ी ही गम्भीर तथा उलझनमय थी। करना तो था उन्हें वैदिक धर्म का प्रचार और बौद्ध धर्म का अध्ययन तो उन्होंने उनकी ही जड़े काटने के लिए किया था। झूठी प्रतिज्ञा का मतलब था कि गुरु के प्रति विश्वासघात तथा वचनभंग अतः आपत्ति धर्म के रूप में उन्होंने प्रतिज्ञा ली और बौद्ध धर्म का अपार ज्ञान लेकर वहाँ से चल दिये। लौटकर उन्होंने वैदिक धर्म का धुँआधार प्रचार करना शुरू कर दिया। जन जन तक वेदों का दिव्य संदेश पहुँचाया। फिर जहाँ भी विरोध की परिस्थिति उत्पन्न हुई वहाँ पर उन्होंने बौद्ध मान्यताओं का खण्डन किया। अपने गहन अध्ययन के आधार पर चुन चुन कर एक एक भ्रान्त बौद्ध मान्यता और वैदिक तथ्यों द्वारा काटा। बौद्ध मतावलम्बियों को खुला आमंत्रण दिया। शास्त्रार्थ के लिए बड़े से बड़े विद्वानों को अपने अगाध ज्ञान और विशद अध्ययन के आधार पर धर्म संबंधी विश्लेषणों तथा वाद विवादों में धराशायी किया। दिग्भ्रान्त जनता को नया मार्ग,नया प्रकाश और नयी प्रेरणाएँ दी।समस्त विज्ञ और प्रज्ञ समाज में यह साबित कर दिया कि वैदिक धर्म के प्रचार में उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन लगा दिया।


इस मध्य ही कुमारिल ने बौद्ध मत के खंडन के लिए सात ग्रंथों की रचना कर डाली और शिष्यों की एक विशाल मंडली खड़ी कर डाली। पुरे क्षेत्र में इनके नाम की चर्चा होने लगी और बौद्ध विद्वानों में हाहाकार मच गया वह कुमारिल भट्ट के नाम से ही घबराने लगे। जब यह घटनाएँ राजा तक पहुंची तो राजा कुमारिल भट्ट से मिलने के इच्छुक हुवे अवसर पाकर कुमारिल भट्ट भी राजा के यहाँ पहुंचे। यहाँ राजा की इच्छा के अनुसार विशाल सभा का आयोजन हुआ जिसमें शास्त्रार्थ होआ निर्धारित हुवाजिसमे एक तरफ बौद्ध विद्वानों की सेना दूसरी तरफ कुमारिल भट्ट और उनके शिष्यों की फ़ौज पूरा सभा स्थल दर्शकों एवं श्रोताओं से भरा हुआ शास्त्रार्थ की सुरुवात हुयी तर्क सुरु हुवे कुमारिल जी वेदों के साथ बौद्ध धर्म के भी ज्ञाता अतः बौद्ध धर्माचार्यों की एक न चलने दी। तभी सभास्थल के समीप एक वृक्ष पर कोयल कूक उठी उसी समय कुमारिल भट्ट ने एक श्लोक कहा जिसका अर्थ है  “अरे  कोयल  ! मलिन  , नीच  और श्रुति  –दूषक  काक  – कुल  से यदि  तेरा   सम्बन्ध  न हो, तो तु वास्तव  में प्रशंसा  के योग्य  है” यह व्यंग राजा और बौद्धों के लिए था राजा के लिए यूँ  कि ” हे राजन  ! मलिन  , नीच और वेद निंदक  लोगों  से यदि  तेरा  सम्बन्ध  न हो ,तो तू अवश्य ही प्रशंसा  के योग्य  है”। इस व्यंग्य  का मुख्य आशय  तो बोद्धों के लिए था  , इस कारण वह मन ही मन कुमारिल पर बहुत  चिढ़े ।


बौद्धों के वेद विरुद्ध  तर्कों  का कुमारिल ने खंडन किया तथा अपने पांडित्य  का प्रदर्शन  करते हुए वेदों की सभ्यता ,सत्यता,न्याय  प्रियता  ,सद्गुण , कर्मवाद , कर्मफल , उपासना ,मुक्ति  तथा व्यक्तित्व वाद आदि को इस उत्तमता  से सिद्ध  किया कि  प्रत्येक  व्यक्ति  को वेद की विमल  मूर्ति  के  दर्शन होने लगे। राजा सहित  सब लोग  कुमारिल की विद्वता  पर मोहित हो गए। सब ने स्वीकार  किया कि वेद ही मानवता  का सर्वोच्च व दिव्य   ज्ञान है। यह भी सिद्ध  हो गया की बौद्ध ज्ञान व सिद्धांत  सर्वथा  भ्रामक, भ्रान्ति  मूलक   व  अनिष्टकारी  हैं। इस से सब  संतुष्ट  हुए  और बोद्धों पर  धिक्कारें  व लानतें  पड़ने  से वह अपना मुंह  लटकाए   सभा  से चले  गए। इसके बाद वेद का ज्ञान  और यज्ञ कर्म पुनः सुरु हुवे और तेजी से बढ़ने लगे लेकिन कुमारिल भट्ट इतने में कहाँ संतुष्ट होने वाले थे उन्होंने तो बौद्धों का जड़ सहित समाप्त करने का संकल्प लिया था अतः वह अपने जैसे अनेक शिष्यबनाने सुरु किये।


लेकिन एक चिंता उन्हें सदैव सताती रहती थी, वह थी गुरुकुल में ली हुयी झूठी प्रतिज्ञा और गुरु से किया हुआ द्रोह अतः उन्होंने इसका प्रायश्चित करने का निर्णय लिया और शाश्त्रों में गुरुद्रोह की प्रायश्चित की सजा क्या होती है पढ़ा,जिसके अनुसार उन्होंने तुषानल (भूषे/धान के छिलके की आग) में देह त्यागने का निर्णय लिया जो की जलती नही अपितु सुलगती है और स्वयम को इसके लिए तैयार किया।तुषाग्नि में प्रवेश के लिए उन्होंने प्रयाग का चुनाव किया वर्तमान में यह स्थान झूंसी में है।


इस प्रायश्चित के हृदय स्पर्शी दृश्य को देखने देश के बड़े बड़े विद्वान आये थे । उनमें आदि शंकराचार्य भी थे। उन्होंने समझाया भी, कि आपको तो लोक हित के लिए वैसा करना पड़ा है। आपने स्वार्थ के लिए तो वैसा नहीं किया है । अतः इस प्रकार भयंकर प्रायश्चित मत कीजिए। लेकिन कुमारिल भट्ट ने मंद मंद मुस्कुराते हुवे उत्तर दिया “माना की मैंने धर्म की रक्षा एवं प्रचार के लिए ऐसा किया था लेकिन इस प्रकार की परमपरा का चलन नहीं होना चाहिए। हो सकता है की कोई मेरे मन की बात को न समझ के केवल ऊपरी बात का ही अनुकरण करने लग जाये। अगर ऐसा हुआ तो धर्म और सदाचार नष्ट ही हो जायेगा और तब इससे प्राप्त लाभ का कोई मोल नहीं रह जायेगा” अतः मेरा प्रायश्चित करना सर्वथा उचित है । उनके यह वाक्य कुमारील भट्ट की महानता को कई गुना बढ़ा देते हैं ।


इन्ही वाक्यों के साथ कुमारिल भट्ट तुषानल की अग्नि में प्रवेश कर गए। कहा जाता है की अदि शंकराचार्य द्वरा लिखित ग्रन्थ विद्वत समाज तब तक स्वीकार नहीं करेगा जब तक कुमारिल भट्ट उस पर टिपण्णी न कर दें लेकिन जब आदि शंकराचार्य उनके पास पहुंचे तब उनके पैर झुलस चुके थे अतः उन्होंने विधि का विधान न बदलते हुवे शंकराचार्य जी के शास्त्रार्थ के निवेदन पर कहा की मेरा शिष्य मंडल मिश्र भी मेरे सामान ज्ञानी है उससे शास्त्रार्थ करो मंडल मिश्र के साथ किया गया शास्त्रार्थ मेरे साथ किये गए शास्त्रार्थ के सामान ही माना जायेगा।

  इसी तरह वैदिक-सनातन धर्म के लिये हजारो-लाखो योद्धाओ ने अपना बलिदान किया है,धार्मिक नियमों की स्थापना की है तब जाकर आप अपने पूर्वजो के दिए नाम, थाती,संस्कृति, पूजा पद्धतियों,जीवन प्रणाली, राष्ट्रनूभूति के साथ बचे हैं नही तो आज बचे 198 देशो की तरह इस्लामी या ईसाई रूप में बदल चुके होते। ।


० शैलेन्द्र सिंह ०