एक तरफ थी हजारों वर्ष पुरानी अजेय-अपराजेय एवं विराट भारतीय संस्कृति और दूसरी तरफ थे आधुनिकता एवं ईसाई धर्म का झंडा लिए गोरे महाशय अंग्रेज ।
वे भारत की भूमि पर तो राज कर रहे थे परन्तु भारतीयों के दिल और दिमाग पर राज था अपने धर्म, अपनी संस्कृति, अपनी परम्पराओं और अपने महा पुरुषों का ।
इसीलिए वे अंग्रेज जीतकर भी हार का अनुभव कर रहे थे।
भारत के सम्पूर्ण पराजय में सबसे बड़ी बाधा थी यहाँ के लोगों की अपराजेय मानसिकता ।
उनका राजा भले ही कोई भी हो परन्तु वे समझते थे उनका मूल और विस्तार है प्राचिनत्तम सनातन धर्म-संस्कृति ।
वे अपने धर्म, संस्कृति, परम्परा, इतिहास एवं अपने महापुरुषों के प्रति अगाध प्रेम और श्रद्धा से परिपूर्ण थे ।
अंग्रेजों के सामने यही लक्ष्य था की भारतीयों के इस अद्भुत श्रद्धा भाव को खंडित कर इन्हें यूरोपियन संस्कृति में एवं ईसा के धर्म में किस प्रकार दीक्षित, शिक्षित किया जाये।
इस काम में नियुक्त किये गए लार्ड मैकाले।
ईसा सम्वत १८३४ में लार्ड मैकाले भारत के शिक्षा प्रमुख बनकर भारत आये।
उनके पास गुप्त योजना थी और उसको लागु करने की लगन भी।
वे बिना लडे भारतीयता को पराजित करने के मिशन पर थे। वे सभी भारतीयोंको मानसिक रूप से गुलाम बनाना चाहते थे ।
उन्होंने पारम्परिक शिक्षा संस्थानों को अनुदान देना बंध कर दिया और अंग्रेजी स्कुलो में भारतीयता के जड़ों को खोदनेवाली शिक्षा का प्रारम्भ कर दिया ।
उन्होंने १२-१०-१८३६ में अपने पिता को पत्र लिखा था कि "मैंने बनायीं पद्धति से यहाँ शिक्षा का क्रम चलता रहा तो आगामी ३० सालों में बंगाल में एक भी हिन्दू नही बचेगा, सभी ख्रिस्ती बन जायेंगे या फिर केवल पोलिशी के लिए नाम मात्र हिन्दू-पोलिटिकल हिन्दू बने रहेंगे ।
धर्म पर या अपने धर्मशास्त्र वेदों पर उनकी श्रद्धा कतिपय नही रहेगी।
स्पष्ट रूप से हिन्दू धर्म में हस्तक्षेप किये बिना, बाहर से उनकी स्वतन्त्रता कायम रखते हुए हमारा उद्देश्य पूरा सफल होगा ।''
निश्चित रूप से भारतीय संविधान के सेक्युलरिज्म और धर्म श्रद्धाविहीन हिंदुत्व का मूल मैकाले के इस पत्र में स्पष्ट दिखाई देता है ।
इस प्रकार अंग्रेज ईसाईयोंने योजनापूर्वक भारतीयता के शिक्षा पद्धति को आमूलचूल बदल डाला ।
इसप्रकार सैन्य बल से अपराजित, अतुलनीय भारत मैकाले की शिक्षा निति से पराजित हो गया ।
दुःख की बात है की आज भी बाह्य रूप से भारत स्वतंत्र दिखने पर भी दिल और दिमाग के रूप से स्वतंत्र नही हो पाया है ।
आर्य और द्रविड़ का सिद्धान्त भी अंग्रेजों के इन्ही निति पर आधारित था ।
वे हमारी सांस्कृतिक एकता को तोड़कर हमारे स्वतंत्रता के विचारों को ख़तम करना चाहते थे ।
वे उन विचार के द्वारा हमें समझाना चाह रहे थे की आप लोग आर्य और अनार्यों में बटे हुए हो और दूसरी बात आप लोग भी बाहर से आये है और हम भी ।
फिर कौन किस को भगाए? अंतर केवल इतना है की आप हम से थोड़ा पहले आये है और हम थोड़े बाद में।
मैक्समूलर के शब्दों में ~~
india has been conquered once ,but india must be conquered again and second conquest should de a conquest by aducation....
इन सब के मूल में अंग्रेजो की वे अति गोपनीय नीतियाँ थी जो हमें मानसिक रूप से गुलाम बनाना चाहते थे ।
उन नीतियों से अंग्रेजों को कितना लाभ हुआ यह तो पता नही है परन्तु हमारी ही मुर्खता से हम उनसे परास्त हो गए।
आज हम भारतीय भले ही दिखाई पड़ते है परन्तु दिल और दिमाग से अंग्रेज की प्रतिमूर्ति है ।
पंडित जवाहर लाल नेहरू, मोहम्मद अलि जिन्ना आदि जैसे लोग अंग्रेजों के इस कूटनीति के ही उत्पाद थे ।
वे ऊपर से भारतीय नजर आते थे परन्तु अन्दर से, अन्तर्मन से अंग्रेजों को भी मात देनेवाले अंग्रेज थे ।
आज सभी क्षेत्र के लोग, चाहे वे राजनैतिक पार्टियां हो, सामाजिक संस्थान हो या धर्म संस्थान चलानेवाले साधू संत कारक पुरुष, इन सब पर अंग्रेजियत का असर साफ दिखाई देता है...क्योंकि ये धर्म संस्थानों को चलानेवाले लोग भी तो इसी समाज से आते है. आज तो इनकी कोई गिनती ही नहीं है, हर जगह हम यूरोपियन की तरह आचरण कर रहे है ।
मैकाले जीत रहा है और हम हार रहे हैं, परन्तु हमारी हार अंतिम नहीं है , हम जित के लिए संघर्ष जारी रखे हुए है ।
वे भारत की भूमि पर तो राज कर रहे थे परन्तु भारतीयों के दिल और दिमाग पर राज था अपने धर्म, अपनी संस्कृति, अपनी परम्पराओं और अपने महा पुरुषों का ।
इसीलिए वे अंग्रेज जीतकर भी हार का अनुभव कर रहे थे।
भारत के सम्पूर्ण पराजय में सबसे बड़ी बाधा थी यहाँ के लोगों की अपराजेय मानसिकता ।
उनका राजा भले ही कोई भी हो परन्तु वे समझते थे उनका मूल और विस्तार है प्राचिनत्तम सनातन धर्म-संस्कृति ।
वे अपने धर्म, संस्कृति, परम्परा, इतिहास एवं अपने महापुरुषों के प्रति अगाध प्रेम और श्रद्धा से परिपूर्ण थे ।
अंग्रेजों के सामने यही लक्ष्य था की भारतीयों के इस अद्भुत श्रद्धा भाव को खंडित कर इन्हें यूरोपियन संस्कृति में एवं ईसा के धर्म में किस प्रकार दीक्षित, शिक्षित किया जाये।
इस काम में नियुक्त किये गए लार्ड मैकाले।
ईसा सम्वत १८३४ में लार्ड मैकाले भारत के शिक्षा प्रमुख बनकर भारत आये।
उनके पास गुप्त योजना थी और उसको लागु करने की लगन भी।
वे बिना लडे भारतीयता को पराजित करने के मिशन पर थे। वे सभी भारतीयोंको मानसिक रूप से गुलाम बनाना चाहते थे ।
उन्होंने पारम्परिक शिक्षा संस्थानों को अनुदान देना बंध कर दिया और अंग्रेजी स्कुलो में भारतीयता के जड़ों को खोदनेवाली शिक्षा का प्रारम्भ कर दिया ।
उन्होंने १२-१०-१८३६ में अपने पिता को पत्र लिखा था कि "मैंने बनायीं पद्धति से यहाँ शिक्षा का क्रम चलता रहा तो आगामी ३० सालों में बंगाल में एक भी हिन्दू नही बचेगा, सभी ख्रिस्ती बन जायेंगे या फिर केवल पोलिशी के लिए नाम मात्र हिन्दू-पोलिटिकल हिन्दू बने रहेंगे ।
धर्म पर या अपने धर्मशास्त्र वेदों पर उनकी श्रद्धा कतिपय नही रहेगी।
स्पष्ट रूप से हिन्दू धर्म में हस्तक्षेप किये बिना, बाहर से उनकी स्वतन्त्रता कायम रखते हुए हमारा उद्देश्य पूरा सफल होगा ।''
निश्चित रूप से भारतीय संविधान के सेक्युलरिज्म और धर्म श्रद्धाविहीन हिंदुत्व का मूल मैकाले के इस पत्र में स्पष्ट दिखाई देता है ।
इस प्रकार अंग्रेज ईसाईयोंने योजनापूर्वक भारतीयता के शिक्षा पद्धति को आमूलचूल बदल डाला ।
इसप्रकार सैन्य बल से अपराजित, अतुलनीय भारत मैकाले की शिक्षा निति से पराजित हो गया ।
दुःख की बात है की आज भी बाह्य रूप से भारत स्वतंत्र दिखने पर भी दिल और दिमाग के रूप से स्वतंत्र नही हो पाया है ।
आर्य और द्रविड़ का सिद्धान्त भी अंग्रेजों के इन्ही निति पर आधारित था ।
वे हमारी सांस्कृतिक एकता को तोड़कर हमारे स्वतंत्रता के विचारों को ख़तम करना चाहते थे ।
वे उन विचार के द्वारा हमें समझाना चाह रहे थे की आप लोग आर्य और अनार्यों में बटे हुए हो और दूसरी बात आप लोग भी बाहर से आये है और हम भी ।
फिर कौन किस को भगाए? अंतर केवल इतना है की आप हम से थोड़ा पहले आये है और हम थोड़े बाद में।
मैक्समूलर के शब्दों में ~~
india has been conquered once ,but india must be conquered again and second conquest should de a conquest by aducation....
इन सब के मूल में अंग्रेजो की वे अति गोपनीय नीतियाँ थी जो हमें मानसिक रूप से गुलाम बनाना चाहते थे ।
उन नीतियों से अंग्रेजों को कितना लाभ हुआ यह तो पता नही है परन्तु हमारी ही मुर्खता से हम उनसे परास्त हो गए।
आज हम भारतीय भले ही दिखाई पड़ते है परन्तु दिल और दिमाग से अंग्रेज की प्रतिमूर्ति है ।
पंडित जवाहर लाल नेहरू, मोहम्मद अलि जिन्ना आदि जैसे लोग अंग्रेजों के इस कूटनीति के ही उत्पाद थे ।
वे ऊपर से भारतीय नजर आते थे परन्तु अन्दर से, अन्तर्मन से अंग्रेजों को भी मात देनेवाले अंग्रेज थे ।
आज सभी क्षेत्र के लोग, चाहे वे राजनैतिक पार्टियां हो, सामाजिक संस्थान हो या धर्म संस्थान चलानेवाले साधू संत कारक पुरुष, इन सब पर अंग्रेजियत का असर साफ दिखाई देता है...क्योंकि ये धर्म संस्थानों को चलानेवाले लोग भी तो इसी समाज से आते है. आज तो इनकी कोई गिनती ही नहीं है, हर जगह हम यूरोपियन की तरह आचरण कर रहे है ।
मैकाले जीत रहा है और हम हार रहे हैं, परन्तु हमारी हार अंतिम नहीं है , हम जित के लिए संघर्ष जारी रखे हुए है ।