Tuesday 15 November 2022

बिकाश दिब्यकीर्ति मत भञ्जन



आखिर बिकास दिब्यकीर्ति ने श्रीमद्वाल्मीकी रामायण से  उन प्रसङ्गो को उपदिष्ट क्यो नही किया ?

महाभारत में आये हुए रामोख्यान पर्व से ही क्यो किया ?

स्वान  की दृष्टि जूठन पर ही रहती ,और बिकाश दिब्यकीर्ति ने भी अपनी मानसिकता से स्वान होने का ही परिचय दिया ।


वामपंथी गिरोह को यदि सबसे ज्यादा चिढ़ है तो  मर्यादा पुरुषोत्तम राम से जो भारतीय संस्कृति के रोम रोम में बसता है  वही राम जो साक्षात धर्म स्वरूप है वही राम जिनकी यशोगान की गाथा युगों युगों से प्रवाहमान है यह पहली बार नही हुआ है हर कालखण्डन में ऐसे दूषण माता सीता की पवित्रता और श्रीरामचन्द्र की मर्यादाओं को तार तार करने का भरपूर प्रयास किया है ।

जिस प्रकार समस्त प्राणियों को आह्लादित करने वाला सूर्य चमगादड़ो और उल्लुओं को नही रुचता ठीक उसी प्रकार मर्यादापुरुषोत्तम श्रीरामचन्द्र धर्मदूषको को नही रुचता क्यो की धर्मदूषको को दण्ड देने का ही कार्य भगवन् श्रीरामचन्द्र ने किया था ।

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■● रावण वध के पश्चात   जनकनन्दिनी जब श्रीरामचन्द्र के समक्ष उपस्थित हुई तो ।

मर्यादापुरुषोत्तम श्रीरामचन्द्र जी ने सीता को ग्रहण करने से मना कर दिया

ठीक यही वृतान्त महाभारत के रामोपख्यान पर्व में आया है 

श्रीमद्वाल्मीकी रामायण और महाभारत में तद्वत बिषयों को लेकर व्याख्यान करने की शैली भी भिन्न भिन्न है इस लिए स्वाध्यायादी अल्पता के कारण लोगो मे तद्वत बिषयों को लेकर भ्रम होना भी स्वाभाविक है ।


श्रुतियों का मत है कि जिस मंत्र बिषय आदि के द्रष्टा जो ऋषि है वही उस बिषय में प्रामाणिक माने जाएंगे ।

अतः महर्षि वाल्मीकि कृत रामायण ही श्रीरामचन्द्र माता सीता दसरथ आदि के बिषय में भी प्रामाणिक माने जाएंगे क्यो की चतुर्मुखी ब्रह्मा के अनुग्रह से ही श्रीरामचन्द्र माता सीता के गुप्त और प्रकट चरित्र का ज्ञान महर्षि वाल्मीकि को हुआ था ।


वृत्तं कथय धीरस्य यथा ते नारदाच्छ्रुतम् ।

रहस्यं च प्रकाशं च यद् वृत्तं तस्य धीमतः ॥

रामस्य सहसौमित्रे राक्षसानां च सर्वशः ।

वैदेह्याश्चैव यद् वृत्तं प्रकाशं यदि वा रहः ।। (वा० रा०बालकाण्ड २/३३/३४)


 फिर हम भला तद्गत बिषयों के लिए अन्य का अनुगमन क्यो करें ?

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श्रीरामचन्द्र साक्षात धर्म स्वरूप है #रामो_विग्रहवान्_धर्मः


 उनका एक एक आचरण धर्मानुकूल होने से ग्राह्य है महाभारत में ही स्वयं श्रीरामचन्द्र के धर्मसम्मत निर्णय को ऋषिमुनि देवगण प्रसंसा करते है ।


■● पुत्र नैतदिहाश्चर्यं त्वयि राजर्षिधर्मणि। (महाभारत०रामोपख्यान पर्व    २९१/३०)


श्रीरामचन्द्र ने ऐसा क्यो किया ??

लोकापवाद के भय से यदि ऐसा न करते तो उन्हें ब्यभिचारी पुरुष होने का कलङ्क लगता जो युगों युगों से चले आरहे इक्ष्वाकु वंश के कीर्ति को ध्वस्त करता जिसका मार्जन भी न हो पाए 

श्रीमद्वाल्मीकी रामायण में इसी बिषयों को स्पष्टता से दर्शाया है ।


■●-जनवादभयाद्राज्ञो बभूव हृदयं द्विधा | (वा०रा युद्ध काण्ड ११५/११)

●-लोकापवाद के भय से श्रीरामचन्द्र का हृदय विदीर्ण हो रहा था 


० वही महारत में इसी बिषय को भिन्न शैली में दर्शाया गया है 


■● रामो वैदेहीं परामर्शविशङ्कितः (महाभारत रामोपख्यान २९१/१०)

●- श्रीरामचन्द्र जी को जनकनन्दिनी में सन्देश हुआ कि पर पुरुष के स्पर्श से सीता अपवित्र तो न हो गयी ?


इस लिए श्रीरामचन्द्र ने ऐसा वचन कहा  धर्म सिद्धांत को जानने वाला कोई भी पुरुष दूसरे के हाथ मे पड़ी हुई नारी को मुहूर्तभर के लिए भी कैसे ग्रहण कर सकता है तुम्हारा आचनर बिचार शुद्ध रह गया हो अथवा असुद्ध अब मैं तुम्हे अपने उपयोग में नही ले सकता ठीक उसी तरह जैसे कुत्ते के द्वारा चाटे गए पवित्र हविष्य को कोई ग्रहण नही करता ।


■●-कथं ह्यस्मद्विधो जातु जानन्धर्मविनिश्चयम्।

परहस्तगतां नारीं मुहूर्तमपि धारयेत् ।।(महाभारत रामोपख्यान २९१ १२)

सुवृत्तामसुवृत्तां वाऽप्यहं त्वामद्य मैथिलि।

■●-नोत्सहे परिभोगाय श्वावलीढं हविर्यथा ।।(महाभारत रामोपख्यान २९१/१३)


पूर्व और पश्चात में आये हुए श्लोकों से स्पष्ट हो जाता है कि श्रीरामचन्द्र का कथन धर्म सम्मत था जिसके बिषय में दिब्यकीर्ति ने उपदिष्ट न कर केवल एक ही श्लोक की कुटिलता पूर्वक व्यख्या कर लोगो मे भ्रामकता फैलाया ।


■●-पुत्र नैतदिहाश्चर्यं त्वयि राजर्षिधर्मणि। (महाभारत०रामोपख्यान पर्व    २९१/३०)


●-हे राम तुम राजऋषियो के धर्म पर चलने वाले हो अतः तुममें ऐसा सद्विचार होना आश्चर्य की बात नही ।


श्रीमद्वाल्मीकी रामायण में माता सीता स्वयं की पवित्रता का प्रमाण समस्त लोगो के सामने अग्निपरीक्षा दे कर की वही महाभारत में माता सीता के शुद्धि के बिषय में समस्त देवताओं स्वीकार किया और श्रीरामचन्द्र से माता जानकी को ग्रहण करने को कहा ।

(महाभारत रामोपख्यान पर्व अध्याय २९१)

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बिकाश दिब्यकीर्ति जैसे धूर्त सम्पूर्ण प्रसङ्ग को न दर्शा कर केवल एक श्लोक के माध्यम से अपनी अपने मनोरथ को सिद्ध करने की जो कुचेष्टा की इससे उसके विक्षिप्त मानसिकता का ही प्रकाशन होता है 

और कुछ नही ।

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एक ही बिषय को ऋषिमुनिगण भिन्न भिन्न शैली में व्याख्यान करते है जिससे भ्रम उतपन्न होना स्वभाविक है इस लिए श्रुतियाँ बार बार घोषणा करती है


■● वि॒द्वांसा॒विद्दुरः॑ पृच्छे॒दवि॑द्वानि॒त्थाप॑रो अचे॒ताः ।


नू चि॒न्नु मर्ते॒ अक्रौ॑ ॥[ऋ १/१२०/२]


■●आचार्यवान् पुरुषो हि वेद । (छान्दोग्य उपनिषद)


■● तद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत् समित्पाणि: श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम् । (मुंडकोपनिषद् ) 


शैलेन्द्र सिंह

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