Tuesday 6 December 2016

पाणिनि कालीन भारत

पाणिनि सूत्रों में पठित निश्चित स्थान नामो की सहायता से पाणिनि कालीन भौगोलिक बिस्तार का परिचय मिलता है उत्तर पश्चिम में कापिषी(४/२/६९) का उल्लेख मिलता है यह नगरी प्राचीन काल में अतिप्रसिद्ध राजधानी थी काबुल से लगभग ५० मिल उत्तर इसके प्राचीन अवशेष मिलते है यहाँ से प्राप्त एक शिलालेख में इसे कपिषा कहा गया है आजकल इसका नाम बेग्राम है कापिषि से भी और उत्तर में कम्बोज (४/१/१७५ पा ०सूत्र) जनपद था जहाँ इस समय मध्य एशिया का पामीर पठार है कम्बोज के पूर्व में तारिम नदी के समीप कूचा प्रदेश था जो सम्भवतः वहीँ है जिसे पाणिनि ने कुच वार (४/३/९४) में कहा है तक्षशिला के दक्षिण पूर्व में मद्र जनपद (४/२/१३१) था जिसकी राजधानी शाकल (बर्तमान) स्यालकोट थी मद्र के दक्षिण में उशीनर (४/२/११८) और शिबि जनपद थे बर्तमान पंजाब का उत्तर पूर्वी भाग जो चंबा से कांगड़ा तक फैला हुआ है प्राचीन त्रिगर्त देश था सतलुज,व्यास,और रावी,इन तीन नदियों की घाटियों के कारण इसका नाम त्रिगर्त पड़ा (पा०सूत्र ५/३/११६)दक्षिण पूर्व पंजाब में थानेश्वर कैथल करनाल पानीपत का भूभाग भरत जनपद था इसी का दूसरा नाम प्राच्य भरत (पा०सूत्र ४/२/११३) भी था क्यों की यहीं से देश के उदीच्य और प्राच्य इन दो खण्डों की सीमाएं बंट जाती थी दिल्ली मेरठ का प्रदेश कुरु जनपद (४/१/१७२) कहलाता था उसकी राजधानी हस्तिनापुर था अष्टाध्यायी में उसका रूप हस्तिनापुर (४/२/१०१) है गंगा और रामगंगा के बीच में प्रत्यग्रथ  नामक जनपद(४/११७१) था जिसे पांचाल भी कहा जाता था मध्यप्रदेश में कोशल (४/१/१७१) और काशी (४/२/११६) जनपदों का नाम उल्लेख किया गया है इससे पूर्व में मगध (४/१/१७०) जनपद था पूर्वी समुद्र तट पर कलिंग देश था इस समय महानदी बहती है (४/१/१७०) में पाणिनि में सुरमस जनपद का नामोउल्लेख किया है इसकी पहचान असम प्रांत की सुरमा नदी की घाटी और गिरी प्रदेश से की जा सकती है इस प्रकार पश्चिम में कम्बोज (पामीर) से लेकर पूरब के कामरूप असम के छोर तक फैले हुए जनपदों का तांता अष्टध्य्यायी में पाया जाता है पश्चिम के समुद्रतटवर्ती कच्छ जनपद (४/२/१३३) और दक्षिणमे गोदावरी तटवर्ती अस्मक जनपद (४/१/१७३) का भी नामोउल्लेख था  अस्मक की राजधानी प्रतिष्ठान थी जो गोदावरी के बाएं किनारे बम्बई और हैदराबाद की सीमा पर बर्तमान पैठण है कलिंग और अस्मक एक ही अक्षांश रेखा पर थे उत्तर के पहाड़ में हिमालय का नाम हिमवत (४/४/११२) आया है पाणिनि को भारतीय समुद्रों का भी परिचय था  कर्क की अयनांश रेखा कच्छ भुज से अनार्ट अवंति जनपदों को पार करती हुई सुरमस तक चली गई है इसके दक्षिण में भारतवर्ष का भूभाग अंतरयन कहलाता था पाणिनि ने देश के उदीच्य और प्राच्य इन दो भागो  का उल्लेख किया है इन दोनों के बीच भरत जनपद था जहाँ इस समय कुरुक्षेत्र है प्राच्य भरत पद पर पतञ्जलि ने लिखा है कि वस्तुतः प्राच्य देश भरत के पूरब से प्रारम्भ होता था पाणिनि ने शरावती नदी का उल्लेख (शारदीनां च ६/३/१२०)किया है नागेश के एक प्राचीन श्लोक का प्रमाण देते हुए लिखा है कि शरावती प्राच्य और उदीच्य देशों की बिच की सीमा थी अमरकोश से ज्ञात होता है कि गुप्त काल में भी शरावती उदीच्य और प्राच्य के बीच की सीमा मानी जाती थी और वही प्राची और उदीच्य की सीमा को अलग करती थी पाणिनि की दृष्टि में प्राच्य और उदीच्य दोनों प्रदेशो में बोली जाने वाली भाषा  शिष्टसम्मत थी उसके शब्द ब्याकरण के बिषय थे शब्दो के शुद्ध रूप जानने के लिए जिस लोक का प्रमाण दिया जाता था वह यही था गांधार और वाहीक दोनों मिलकर उदीच्य कहलाते थे सिंधु और शतद्रु तक का प्रदेश वाहीक था जिसके अंतर्गत मद्र उशीनर और त्रिगर्त थे तीन मुख्य भाग थे तक्षशिला से काबुल तक का प्रदेश गांधार कहलाता था पाणिनि की समकालीन संस्कृत भाषा  का क्षेत्र गांधार से प्राच्य तक फैला हुआ था पाणिनि लगभग पांचवी शताब्दी बिक्रम पूर्व में हुए थे उसके लगभग दो शती पीछे यवनों का और शको का आगमन इस देश में हुआ था शक और यवन के कारण बाल्हीक और गंधार प्रदेश भारतवर्ष के राजनैतिक सिमा से कुछ काल के लिए अलग हो गए थे और उसके साथ संस्कृत सम्बन्ध में ढील पड़ने लगे थे और इस लिए पतञ्जलि भाष्य में शक और यवनों के प्रदेश को आर्याव्रत को बाहर कहा और भाषा भेद के कारण उन्हें शिष्ट संस्कृत क्षेत्र से अलग समझा पतञ्जलि के दृष्टि में आर्याव्रत की शिष्टजनो की भाषा प्रतिमानित संस्कृत थी और तत्कालीन संकुचित आर्यवर्त हिमालय के दक्षिण परियात्र पर्वत के उत्तर आदर्श के पूर्व और कालक वन पश्चिम अवस्थित था आदर्श प्रायः आदर्शन या सरस्वती नदी को सुख जाने (विनशन) का प्रदेश समझाजाता है किन्तु काशिका में उसे एक जनपद के नाम से कहा गया है (४/२/१२४) और नागेश ने उसे कुरुक्षेत्र की पहाड़ी कहा है कालका वन पाली साहित्य के अनुसार साकेत एक भाग था इस प्रकार हम देखते है की राजनैतिक कारणों से पतञ्जलि के समय आर्याव्रत की सीमाएं काफी सिकुड़ गई थी पतञ्जलि ने शक यवन किष्किन्धा गब्दिक और सौर्यकौंच को आर्याव्रत को सीमा से बाहर कहा एक
किष्किन्धा गोरखपुर में था जिसे पाली साहित्य में खुखुन्दो कहा चंबा रियासत के गद्दी प्रदेश के प्राचीन नाम गाब्दिक था और वह पतञ्जलि के समय बाहर समझा जाता था किन्तु पाणिनि के समय गंधार से मगध तक संस्कृत भाषा का अखण्ड प्रवाह फैला हुआ था उसी समय प्राच्य और उदीच्य दो स्वाभाविक भाग माने जाते थे ।

Tuesday 29 November 2016

भारतीय संस्कृति व सभ्यता बिश्व ब्यापक है

भारतीय संस्कृति व सभ्यता बिश्व ब्यापक है
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भारतीय संस्कृति व सभ्यता विश्व की प्राचीनतम संस्कृतियों में से एक है। मध्यप्रदेश के भीमबेटका में पाए गए 25 हजार वर्ष पुराने शैलचित्र, नर्मदा घाटी में की गई खुदाई तथा मेहरगढ़ के अलावा कुछ अन्य नृवंशीय एवं पुरातत्वीय प्रमाणों से यह सिद्ध हो चुका है कि भारत की भूमि आदिमानव की प्राचीनतम कर्मभूमि रही है। यहीं से मानव ने अन्य जगहों पर बसाहट करने व वैदिक धर्म की नींव रखी थी।
आज से 3,500 वर्ष पूर्व जो सभ्यताएं जीवित थीं उनको पाश्चात्य इतिहासकारों ने ‘प्राचीन सभ्यताएं’ मानकर ही मानव इतिहास और समाज का विश्‍लेषण किया, लेकिन उनका यह विश्लेषण एकदम गलत और ईसाई धर्म को स्थापित करने वाला था। इसके लिए उन्होंने ऐसे कई तथ्य नकारे, जो प्राचीन भारत और चीन के इतिहास को महान बताते हैं और ईसा बाद के समाज से कहीं ज्यादा उन्हें सभ्य सिद्ध करते हैं।
प्राचीन सभ्यताओं पर अब कुछ ज्यादा ही शोध होने लगे हैं और उनसे नई-नई बातें निकलकर आ रही हैं, मसलन कि उनका एलियन से संबंध था और वे भी बिजली उत्पादन की तकनीक जानते थे। धरती पर फैली प्राचीन सभ्यताओं के बात करें तो धरती के पश्चिमी छोर पर रोम, ग्रीस और मिस्र देश की सभ्यताओं के नाम लिए जाते हैं तो पूर्वी छोर पर चीन का नाम लिया जाता है। मध्य में स्थित भारत की चर्चाभर करके उसे छोड़ दिया जाता है। क्यों? क्योंकि भारत को जानने से उनके समाज और धर्म के सारे मापदंड गिरने लगते हैं, तो वे नहीं चाहते हैं कि भारत और उसके धर्म का सच लोगों के सामने आए। लेकिन सच कब तक छिपा रहेगा?
दुनियाभर की प्राचीन सभ्यताओं से हिन्दू धर्म का क्या कनेक्शन था? या कि संपूर्ण धरती पर हिन्दू वैदिक धर्म ने ही लोगों को सभ्य बनाने के लिए अलग-अलग क्षेत्रों में धार्मिक विचारधारा की नए नए रूप में स्थापना की थी? आज दुनियाभर की धार्मिक संस्कृति और समाज में हिन्दू धर्म की झलक देखी जा सकती है चाहे वह यहूदी धर्म हो, पारसी धर्म हो या ईसाई-इस्लाम धर्म हो।
ईसा से 2300-2150 वर्ष पूर्व सुमेरिया, 2000-400 वर्ष पूर्व बेबिलोनिया, 2000-250 ईसा पूर्व ईरान, 2000-150 ईसा पूर्व मिस्र (इजिप्ट), 1450-500 ईसा पूर्व असीरिया, 1450-150 ईसा पूर्व ग्रीस (यूनान), 800-500 ईसा पूर्व रोम की सभ्यताएं विद्यमान थीं। उक्त सभी से पूर्व महाभारत का युद्ध लड़ा गया था इसका मतलब कि 3500 ईसा पूर्व भारत में एक पूर्ण विकसित सभ्यता थी।

सिन्धु-सरस्वती घाटी की सभ्यता (5000-3500 ईसा पूर्व) : हिमालय से निकलकर सिन्धु नदी अरब के समुद्र में गिर जाती है। प्राचीनकाल में इस नदी के आसपास फैली सभ्यता को ही सिन्धु घाटी की सभ्यता कहते हैं। इस नदी के किनारे के दो स्थानों हड़प्पा और मोहनजोदड़ो (पाकिस्तान) में की गई खुदाई में सबसे प्राचीन और पूरी तरह विकसित नगर और सभ्यता के अवशेष मिले। इसके बाद चन्हूदड़ों, लोथल, रोपड़, कालीबंगा (राजस्थान), सूरकोटदा, आलमगीरपुर (मेरठ), बणावली (हरियाणा), धौलावीरा (गुजरात), अलीमुराद (सिंध प्रांत), कच्छ (गुजरात), रंगपुर (गुजरात), मकरान तट (बलूचिस्तान), गुमला (अफगान-पाक सीमा) आदि जगहों पर खुदाई करके प्राचीनकालीन कई अवशेष इकट्ठे किए गए। अब इसे सैंधव सभ्यता कहा जाता है।
हड़प्पा तथा मोहनजोदड़ो में असंख्य देवियों की मूर्तियां प्राप्त हुई हैं। ये मूर्तियां मातृदेवी या प्रकृति देवी की हैं। प्राचीनकाल से ही मातृ या प्रकृति की पूजा भारतीय करते रहे हैं और आधुनिक काल में भी कर रहे हैं। यहां हुई खुदाई से पता चला है कि हिन्दू धर्म की प्राचीनकाल में कैसी स्थिति थी। सिन्धु घाटी की सभ्यता को दुनिया की सबसे रहस्यमयी सभ्यता माना जाता है, क्योंकि इसके पतन के कारणों का अभी तक खुलासा नहीं हुआ है।
इतना तो तय है कि इस काल में महाभारत का युद्ध इसी क्षेत्र में हुआ था। लोगों के बीच हिंसा, संक्रामक रोगों और जलवायु परिवर्तन ने करीब 4 हजार साल पहले सिन्धु घाटी या हड़प्पा सभ्यता का खात्मा करने में एक बड़ी भूमिका निभाई थी। यह दावा एक नए अध्ययन में किया गया है।

नॉर्थ कैरोलिना स्थित एप्पलचियान स्टेट यूनिवर्सिटी में नृविज्ञान (एन्थ्रोपोलॉजी) की एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. ग्वेन रॉबिन्स शुग ने एक बयान में कहा कि जलवायु, आर्थिक और सामाजिक परिवर्तनों, सभी ने शहरीकरण और सभ्यता के खात्मे की प्रक्रिया में भूमिका निभाई, लेकिन इस बारे में बहुत कम ही जानकारी है कि इन बदलावों ने मानव आबादी को किस तरह प्रभावित किया।
आज जिस हिस्से को पाकिस्तान और अफगानिस्तान कहा जाता है, महाभारतकाल में इसे पांचाल, गांधार, मद्र, कुरु और कंबोज की स्थली कहा जाता था। अयोध्या और मथुरा से लेकर कंबोज (अफगानिस्तान का उत्तर इलाका) तक आर्यावर्त के बीच वाले खंड में कुरुक्षेत्र था, जहां यह युद्ध हुआ। आजकल यह हरियाणा का एक छोटा-सा क्षेत्र है।
उस काल में सिन्धु और सरस्वती नदी के पास ही लोग रहते थे। सिन्धु और सरस्वती के बीच के क्षेत्र में कई विकसित नगर बसे हुए थे। यहीं पर सिन्धु घाटी की सभ्यता और मोहनजोदड़ो के शहर भी बसे थे। मोहनजोदड़ो सिन्धु नदी के दो टापुओं पर स्थित है।
जब पुरातत्व शास्त्रियों ने पिछली शताब्दी में मोहनजोदड़ो स्थल की खुदाई के अवशेषों का निरीक्षण किया था तो उन्होंने देखा कि वहां की गलियों में नरकंकाल पड़े थे। कई अस्थिपंजर चित अवस्था में लेटे थे और कई अस्थिपंजरों ने एक-दूसरे के हाथ इस तरह पकड़ रखे थे मानो किसी विपत्ति ने उन्हें अचानक उस अवस्था में पहुंचा दिया था।
उन नरकंकालों पर उसी प्रकार की रेडियो एक्टिविटी के चिह्न थे, जैसे कि जापानी नगर हिरोशिमा और नागासाकी के कंकालों पर एटम बम विस्फोट के पश्चात देखे गए थे। मोहनजोदड़ो स्थल के अवशेषों पर नाइट्रिफिकेशन के जो चिह्न पाए गए थे, उसका कोई स्पष्ट कारण नहीं था, क्योंकि ऐसी अवस्था केवल अणु बम के विस्फोट के पश्चात ही हो सकती है। उल्लेखनीय है कि महाभारत में अश्‍वत्थामा ने ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया था जिसके चलते आकाश में कई सूर्यों की चमक पैदा हुई थी।
सुमेरिया2300-2150 : सुमेर सभ्यता को ही मेसोपोटामिया की सभ्यता कहा जाता है। मेसोपोटामिया का अर्थ होता है- दो नदियों के बीच की भूमि। दजला (टिगरिस) और फुरात (इयुफ़्रेट्स) नदियों के बीच के क्षेत्र को कहते हैं। इसी तरह सिन्धु और सरस्वती के बीच की भूमि पर ही आर्य रहते थे। इसमें आधुनिक इराक, उत्तर-पूर्वी सीरिया, दक्षिण-पूर्वी तुर्की तथा ईरान के कुजेस्तान प्रांत के क्षेत्र शामिल हैं। इस क्षेत्र में ही सुमेर, अक्कदी, बेबिलोन तथा असीरिया की सभ्यताएं अस्तित्व में थीं। अक्कादियन साम्राज्य की राजधानी बेबिलोन थी अतः इसे बेबिलोनियन सभ्यता भी कहा जाता है। यहां के बाद की जातियां क्षेत्र तुर्क, कुर्द, यजीदी, आशूरी (असीरियाई), सबाईन, हित्ती, आदि सभी ययाति, भृगु, अत्रि वंश की मानी गई हैं।
सुमेरिया की सभ्यता और संस्कृति का विकास फारस की खाड़ी के उत्तर में दजला और फरात नदियों के कछारों में हुआ था। सुमेरियन सभ्यता के प्रमुख शहर ऊर, किश, निपुर, एरेक, एरिडि, लारसा, लगाश, निसीन, निनिवेह आदि थे। निपुर इस सभ्यता का सर्वप्रमुख नगर था जिसका काल लगभग 5262 ईपू बताया जाता है। इस नगर का प्रमुख देवता एनलिल समस्त देश में पूजनीय माना जाता था।
सुमेरिया निवासी भी आस्तिक और मूर्तिपूजक थे। वे भी मंदिरों का निर्माण कर उनमें अपने इष्ट देवताओं कि मूर्तियां स्थापित कर उसकी पूजा-अर्चना करते थे। हिन्दू संस्कृति पर आधारित यह सभ्यता ईसा पूर्व 2000 के पूर्व ही समाप्त हो गई।

सुमेरिया वालों का वर्ष हिन्दुओं जैसा ही 12 मासों का था। उनकी मास गणना भी चन्द्रमा की गति पर आधारित थी। इस कारण हर तीसरे वर्ष एक माह बढ़ता था, जो हिन्दुओं के अधिकमास जैसा ही था। हिन्दुओं के समान ही अष्टमी और पूर्णिमा का वे बड़े उत्साह से स्वागत करते थे।
सुमेरियावासियों का संबंध सिन्धु घाटी के लोगों से घनिष्ठ था, क्योंकि यहां कुछ ऐसी मुद्राएं पाई गई हैं, जो सिन्धु घाटी में पाई गई थीं। पश्चिम के इतिहासकार मानते हैं कि सिन्धु सभ्यता सुमेरियन सभ्यता का उपनिवेश स्थान था जबकि समेल लोग पूर्व को अपना उद्गम मानते थे। सुमेर के भारत के साथ व्यापारिक संबंध थे।
प्रसिद्ध इतिहासवेत्ता लैंगडन के अनुसार मोहनजोदड़ो की लिपि और मुहरें, सुमेरी लिपि और मुहरों से एकदम मिलती हैं। सुमेर के प्राचीन शहर ऊर में भारत में बने चूने-मिट्टी के बर्तन पाए गए हैं। मोहनजोदड़ो की सांड (नंदी) की मूर्ति सुमेर के पवित्र वृषभ से मिलती है और हड़प्पा में मिले सिंगारदान की बनावट ऊर में मिले सिंगारदान जैसी है। इन सबके आधार पर कहा जा सकता है कि सुमेर सभ्यता के लोग भी हिन्दू धर्म का पालन करते थे। ‘सुमेर’ शब्द भी हमें पौराणिक पर्वत सुमेरु की याद दिलाता है। बेबिलोनिया (2000-400 ईसा पूर्व) : सुमेरी सभ्यता के पतन के बाद इस क्षेत्र में बाबुली या बेबिलोनियन सभ्यता पल्लवित हुई। अक्कादियन साम्राज्य की राजधानी बेबिलोन थी, उसके प्रसिद्ध सम्राट् हम्मुराबी (हाबुचन्द्र) ने अत्यंत प्राचीन कानून और दंड संहिता बनाई। बेबिलोनियन सभ्यता की प्रमुख विशेषता हम्मुराबी की (2123-2080 ईपू) दंड संहिता है। बेबिलोनियन सभ्यता का प्रमुख ग्रंथ्र गिल्गामेश महाकाव्य था। गिल्गामेश (2700 ईपू) प्राचीन उरुक (वर्तमान इराक में) जन्म एक युवा राजा था।
इस सभ्यता के लोग हिन्दु्ओं के समान ही पूजा प्रात: और सायं अर्घ्य, तेल, धूप, अभ्यंग, दीप, नेवैद्य आदि लगाकर करते थे। ईसा पूर्व 18वीं शताब्दी के वहां के कसाइट राजाओं के नामों में वैदिक देवताओं के सूर्य, अग्नि, मरूत आदि नाम मिलते हैं। वहां के हिट्टाइट और मिनानी राजाओं के बीच हुई संधियों में गवाह के रूप में इंद्र, वरुण, मित्र, नासत्य के नाम मिलते हैं। इससे स्पष्ट होता है कि बेबिलोनिया के लोग भी हिन्दू धर्म का ही पालन करते थे।
अलअपरना में मिले शिलालेखों में सीरिया, फिलिस्तीन के राजाओं के नाम भारतीय राजाओं के समान है। असीरिया शब्द असुर का बिगड़ा रूप है। बेबिलोन की प्राचीन गुफाओं में पुरातात्विक खोज में जो भित्तिचित्र मिले हैं, उनमें भगवान शिव के भक्त, वेदों के उत्सुक गायक तथा हिन्दू देवी-देवताओं की उपासना करते हुए उत्कीर्ण किया गया है।
असीरिया(1450-500 ईसा पूर्व) : असीरिया को पहले अश्शूर कहा जाता था। अश्शूर प्राचीन मेसोपोटामिया का एक साम्राज्य था। यह असुर शब्द का अपभ्रंश है। यह दजला नदी के ऊपरी हिस्से में अश्शूर साम्राज्य में स्थित था। इसके बाद यह साम्राज्य फारस के हखामनी वंश के शासकों के अधीन आ गया।
असीरिया निवासी सूर्यपूजक थे और वहां के राजा अपने आपको सूर्य का वंशज मानते थे। अथर्वण संप्रदाय में भारत में अंगीकृत अथर्वणि चिकित्सा यहां भी प्रचार में थी।
अथर्ववेद का बहुत-सा भाग असीरिया में प्रचलित था। होम, यज्ञ, वशीकरण, भूतविद्या आदि प्रकार प्रचलित थे। आयुर्वेद के अष्टांगों में तथा चरक संहिता के इंद्रिय स्थान के दूताधिकार अध्याय में इन विषयों का विवेचन किया गया है।

ईरान(2000-2500 ईसा पूर्व) : ईरान को प्राचीनकाल में पारस्य देश कहा जाता था। आर्याण से ईरान शब्द की उत्पत्ति हुई है। ईसा की 7वीं शताब्दी में जब खलीफाओं का आक्रमण बढ़ गया, तब अधिकतर को इस्लाम अपनाना पड़ा और जो नहीं चाहते थे अपनाना उन्हें अपने ही देश को छोड़कर दूसरे देशों में शरण लेना पड़ी। यहां का मूल धर्म तो वैदिक धर्म ही था लेकिन जरथुस्त्र में वेदों पर आधारित पारसी धर्म की शुरुआत हुई। प्राचीनकाल में आर्यों का एक समूह ईरान में ही रहता था। ईरान में वेदकालीन धर्म और संस्कृति का गहरा प्रभाव था।
जरथुष्ट्र को ऋग्वेद के अंगिरा, बृहस्पति आदि ऋषियों का समकालिक माना जाता है। वे ईरानी आर्यों के स्पीतमा कुटुम्ब के पौरुषहस्प के पुत्र थे। इतिहासकारों का मत है कि जरथुस्त्र 1700-1500 ईपू के बीच हुए थे। यह लगभग वही काल था, जबकि राजा सुदास का आर्यावर्त में शासन था और दूसरी ओर हजरत इब्राहीम अपने धर्म का प्रचार-प्रसार कर रहे थे।
पारसियों का धर्मग्रंथ ‘जेंद अवेस्ता’ है, जो ऋग्वैदिक संस्कृत की ही एक पुरातन शाखा अवेस्ता भाषा में लिखा गया है। यही कारण है कि ऋग्वेद और अवेस्ता में बहुत से शब्दों की समानता है। अत्यंत प्राचीन युग के पारसियों और वैदिक आर्यों की प्रार्थना, उपासना और कर्मकांड में कोई भेद नजर नहीं आता। वे अग्नि, सूर्य, वायु आदि प्रकृति तत्वों की उपासना और अग्निहोत्र कर्म करते थे। मिथ्र (मित्रासूर्य), वयु (वायु), होम (सोम), अरमइति (अमति), अद्दमन् (अर्यमन), नइर्य-संह (नराशंस) आदि उनके भी देवता थे। वे भी बड़े-बड़े यश्न (यज्ञ) करते, सोमपान करते और अथ्रवन् (अथर्वन्) नामक याजक (ब्राह्मण) काठ से काठ रगड़कर अग्नि उत्पन्न करते थे। उनकी भाषा भी उसी एक मूल आर्य भाषा से उत्पन्न थी जिससे वैदिक और लौकिक संस्कृत निकली है। अवेस्ता में भारतीय प्रदेशों और नदियों के नाम भी हैं, जैसे हफ्तहिन्दु (सप्तसिन्धु), हरव्वेती (सरस्वती), हरयू (सरयू), पंजाब इत्यादि। मिस्र (इजिप्ट- 2000-150 ईसा पूर्व) : मिस्र बहुत ही प्राचीन देश है। यहां के पिरामिडों की प्रसिद्धि और प्राचीनता के बारे में सभी जानते हैं। ये पिरामिड प्राचीन सभ्यता के गवाह हैं। प्राचीन मिस्र नील नदी के किनारे बसा है। यह उत्तर में भूमध्य सागर, उत्तर-पूर्व में गाजा पट्टी और इसराइल, पूर्व में लाल सागर, पश्चिम में लीबिया एवं दक्षिण में सूडान से घिरा हुआ है।

यहां का शहर इजिप्ट प्राचीन सभ्यताओं और अफ्रीका, अरब, रोमन आदि लोगों का मिलन स्थल है। यह प्राचीन विश्‍व का प्रमुख व्यापारिक और धार्मिक केंद्र रहा है। मिस्र के भारत से गहरे संबंध रहे हैं। यहां पर फराओं राजाओं का बहुत काल तक शासन रहा है। माना जाता है कि इससे पहले यादवों के गजपत, भूपद, अधिपद नाम के तीन भाइयों का राज था। गजपद के अपने भाइयों से झगड़े के चलते उसने मिस्र छोड़कर अफगानिस्तान के पास एक गजपद नगर बसाया था। गजपद बहुत शक्तिशाली था।
मिस्र में सूर्य को सर्वश्रेष्ठ चिकित्सा देवता के रूप में माना जाता है। भारतीयों ने कहा है- आरोग्यं भास्करादिच्छेत। यहां अनेक औषधियां भारत से मंगाई जाती थीं। भारतीय और मिस्र की भाषाओं में बहुत से शब्द और उनके अर्थ समान है, जैसे हरी (सूर्य)- होरस, ईश्वरी- ईसिस, शिव- सेव, श्वेत- सेत, क्षत्रिय- खेत, शरद- सरदी आदि। मिस्र के पुरोहितों की वेशभूषा भारतीय पुरोहितों व पंडितों की तरह है। उनकी मूर्तियों पर भी वैष्णवी तिलक लगा हुआ मिलता है। एलोरा की गुफा और इजिप्ट की एक गुफा में पाई गई नक्काशी और गुफा के प्रकार में आश्चर्यजनक रूप से समानता है।
मिस्र के प्रसिद्ध पिरामिड वहां के राजाओं की एक प्रकार की कब्रें हैं। भारतीयों को इस विद्या की उत्तम जानकारी थी। उन्होंने राजा दशरथ का शव उनके पुत्र भरत के कैकेय प्रदेश से अयोध्या आने तक सुरक्षित रखा था।
यूनान (ग्रीस- 1450-150) : यूनान और भारत के तो बहुत प्राचीनकाल से ही संबंध रहे हैं। यूनानी देवी और देवताओं में बहुत हद तक समानताएं हैं। उनका संबंध सितारों से है, उसी तरह जिस तरह की हिन्दू देवी-देवताओं का है।
ग्रीस देश के महाकवि होमर ने ईसा की 8वीं शताब्दी में ‘ओडिसी’ नामक महाकाव्य लिखा था जिसमें उसने अपने समय की देश स्थिति का वर्णन किया है। इस ग्रंथ से पता चलता है कि आयुर्वेद की ‘दैव व्यपाश्रय’ पद्धति वहां प्रचलित थी। उसकी दूसरी पुस्तक ‘इलियाड’ में भारतीय शल्य चिकित्सा के उपयोग का भी वर्णन है।
डॉ. रॉयल अपनी पुस्तक ‘सिविलाइजेशन इन इंडिया’ में लिखते हैं कि ‘विश्व की प्रथम चिकित्सा प्रणाली के लिए हम हिन्दुओं के ऋणी हैं।’ ग्रीस की वैद्यकीय चिकित्सा पर भारतीय आयुर्वेद का प्रभाव प्रत्यक्षतः तथा परोक्षतः (मिस्र, ईरान आदि के माध्यमों से) पड़ा था। डोरोथिया चैम्पलीन लिखते हैं- ‘भारतीय आयुर्वेद के शरीर विज्ञान में कोई भी विदेशी शब्द नहीं है जबकि पाश्चात्य शरीर विज्ञान पर भारत की छाप स्पष्ट दिखाई देती है।’
सर में मस्तिष्क के ऊपर के भाग को आयुर्वेद में शिरोब्रह्म कहते हैं, वह ग्रीस और रोम में ‘सेरेब्रम’ हो गया है। वैसे ही मस्तिष्क के पीछे का भाग शिरोविलोम ‘सेरिबैलम’ और हृद ‘हार्ट’ हो गए हैं। घोड़ों पर सवार होकर रोगियों की चिकित्सा करने वाले भारतीय अश्विनीकुमारों के युग्म जैसे ‘कैक्टस और पोलुपस’ ग्रीक युग्म घोड़ों पर सवार होकर रोगियों की रक्षा करते हैं।
प्रसिद्ध इतिहासकार मोनियर विलियम्स ने स्पष्ट बताया है कि यूरोप के प्रथम दार्शनिक प्लेटो और पायथागोरस दोनों दर्शनशास्त्र के विषय में सब तरह से भारतवासियों के ऋणी हैं। पाइथागोरस के नाम से प्रसिद्ध प्रमेय भारत के बौधायन शुल्ब सूत्र में बहुत पहले से ही विद्यमान है। रोम(800-500 ईसा बाद) : रोमन सभ्यता के पास खुद का स्वयं का कुछ नहीं था। उसके पास जो भी ज्ञान था वह मिस्र, भारत और यूनान का दिया हुआ था। रोमनों ने ही भारतीय पंचांग और कैलेंडर को देखकर अपना खुद का एक कैलेंडर बनाया।

रोम का साम्राज्य पूरे यूरोप में फैला हुआ होने के कारण रोम की सभ्यता का प्रभाव सारे यूरोप पर पड़ा इसलिए यहां पर केवल एक ही उदाहरण दिया जा सकता रहा है- रोम के मुद्रसकन लोगों के देवता ‘तितिया’ के अस्त्र का वर्णन भारत के इंद्र के वज्र जैसा ही है।
इतिहासकारों के अनुसार बहुत से भारतीय घूमते-घूमते संसार के अनेक देशों में पहुंचे। वे स्वयं को ‘रोम’ कहते थे और उनकी भाषा रोमानी थी, परंतु यूरोप में उन्हें ‘जिप्सी’ कहा जाता था। वे वर्तमान समय के पाकिस्तान और अफगानिस्तान आदि को पार कर पश्चिम की ओर निकल गए थे। वहां से ईरान और इराक होते हुए वे तुर्की पहुंचे। फारस, तौरस की पहाड़ी और कुस्तुन्तुनिया होते हुए वे यूरोप के अनेक देशों में फैल गए।
इस अवधि में वे लोग यह तो भूल गए कि वे कहां के निवासी हैं, परंतु उन्होंने अपनी भाषा, रहन-सहन के ढंग, रीति-रिवाज और व्यवसाय आदि को नहीं छोड़ा। रोम लोगों को उनके नृत्य और संगीत के लिए जाना जाता है। कहा जाता है कि हर एक रोम गायक और अद्भुत कलाकार होता है।
वास्तव में ईसा युग की प्रथम तीन शताब्दियों में भारत का पश्चिम के साथ लाभप्रद समुद्री व्यापार हुआ जिनमें रोम साम्राज्य प्रमुख था। रोम भारतीय सामान का सर्वोत्तम ग्राहक था। यह व्यापार दक्षिण भारत के साथ हुआ, जो कोयम्बटूर और मदुराई में मिले रोम के सिक्कों से सिद्ध होता है। धार्मिक इतिहासकारों के अनुसार राजा विक्रमादित्य से रोम का राजा प्रतिद्वंद्विता रखता था। विक्रमादित्य को ज्योतिष और खगोल विज्ञान में बहुत रुचि थी। वराहमिहिर जैसे विद्वान उनके काल में थे। उनके प्रयासों के चलते ही आज दुनिया ने खगोल में उन्नति की।
हरिदत्त शर्मा ज्योति विश्वकोष के अनुसार राजा विक्रमादित्य ने ही अपना दिल्ली में एक ‘ध्रुव स्तंभ’ बनवाया था जिसे आज ‘कुतुब मीनार’ कहते हैं। दरअसल, यह ध्रुव स्तंभ ‘हिन्दू नक्षत्र निरीक्षण केंद्र’ है। कुतुब मीनार के आसपास दोनों पहाड़ियों के बीच से ही सूर्यास्त होता है। वराहमिहिर के अनुसार 21 जून को सूर्य ठीक इसके ऊपर से निकलता है। कुतुबुद्दीन लुटेरा तो मात्र 4 साल ही भारत में रहा और चला ‍गया, जबकि यह कुतुब मीनार (ध्रुव स्तंभ) 2 हजार वर्ष पुराना‍ सि‍द्ध किया गया है।
माया सभ्यता (250 ईस्वीसे900 ईस्वी) : अमेरिका की प्राचीन माया सभ्यता ग्वाटेमाला, मैक्सिको, होंडुरास तथा यूकाटन प्रायद्वीप में स्थापित थी। यह एक कृषि पर आधारित सभ्यता थी। 250 ईस्वी से 900 ईस्वी के बीच माया सभ्यता अपने चरम पर थी। इस सभ्यता में खगोल शास्त्र, गणित और कालचक्र को काफी महत्व दिया जाता था। मैक्सिको इस सभ्यता का गढ़ था। आज भी यहां इस सभ्यता के अनुयायी रहते हैं।
यूं तो इस इलाके में ईसा से 10 हजार साल पहले से बसावट शुरू होने के प्रमाण मिले हैं और 1800 साल ईसा पूर्व से प्रशांत महासागर के तटीय इलाक़ों में गांव भी बसने शुरू हो चुके थे। लेकिन कुछ पुरातत्ववेत्ताओं का मानना है कि ईसा से कोई एक हजार साल पहले माया सभ्यता के लोगों ने आनुष्ठानिक इमारतें बनाना शुरू कर दिया था और 600 साल ईसा पूर्व तक बहुत से परिसर बना लिए थे। सन् 250 से 900 के बीच विशाल स्तर पर भवन निर्माण कार्य हुआ, शहर बसे। उनकी सबसे उल्लेखनीय इमारतें पिरामिड हैं, जो उन्होंने धार्मिक केंद्रों में बनाईं लेकिन फिर सन् 900 के बाद माया सभ्यता के इन नगरों का ह्रास होने लगा और नगर खाली हो गए।
माया सभ्यता का पंचांग 3114 ईसा पूर्व शुरू किया गया था। इस कैलेंडर में हर 394 वर्ष के बाद बाकतुन नाम के एक काल का अंत होता है। 21 दिसबंर, 2012 को उस कैलेंडर का 13वां बाकतुन खत्म हो जाएगा। हालांकि माया सभ्यता के बारे में कहा जाता है कि यह भी सिन्धु घाटी और मिस्र की सभ्यताओं की तरह सबसे रहस्यमयी सभ्यता है, जो अपने भीतर कई अनसुलझे रहस्य समेटे हुए है।
अमेरिकन इतिहासकार मानते हैं‍ कि भारतीय आर्यों ने ही अमेरिका महाद्वीप पर सबसे पहले बस्तियां बनाई थीं। अमेरिका के रेड इंडियन वहां के आदि निवासी माने जाते हैं और हिन्दू संस्कृति वहां पर आज से हजारों साल पहले पहुंच गई थी। माना जाता है कि यह बसाहट महाभारतकाल में हुई थी।

हिन्दू  अमेरिकन महाद्वीप के बोलीविया (वर्तमान में पेरू और चिली) में हिन्दुओं ने प्राचीनकाल में अपनी बस्तियां बनाईं और कृषि का भी विकास किया। यहां के प्राचीन मंदिरों के द्वार पर विरोचन, सूर्य द्वार, चन्द्र द्वार, नाग आदि सब कुछ हिन्दू धर्म समान हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका की आधिकारिक सेना ने नेटिव अमेरिकन की एक 45वी मिलिट्री इन्फैंट्री डिवीजन का चिह्न एक पीले रंग का स्वास्तिक था। नाजियों की घटना के बाद इसे हटाकर उन्होंने गरूड़ का चिह्न अपनाया।

Wednesday 9 November 2016

दास शब्द शुद्र का ही वाचक नही है भक्त और सेवक को भी दासान्त नाम से सम्बोधन किया जाता है

नाम वैष्णवहेतुत्वम मुखमित्येतदुच्यते योजयेन्नाम दासान्तं भगवन्नामपूर्वकम् ।। ( पाराशरीय धर्मशास्त्र उत्तरखण्ड अध्याय 2 श्लोक 49 )
यह नाम संस्कार वैष्णव का मुख्य कारण कहा है इससे भगवन्नामपूर्वक दासान्त नाम सब का रखना चाहिए
और बृद्धहारित स्मृति में कहा है की
दद्यात्तन्नाम दासान्तं भगवन्नामपूर्वकम् (बृद्धहारित स्मृति)
आचार्य भगवन्नाम पूर्वक दासान्त नाम शिष्य के लिए दे ।
दासभुतमिदं तस्य ब्रह्माद्यम सकलंजगत् (पद्मपुराण उत्तरखण्ड ६ अध्याय २२६ श्लोक ९२)
परमात्मा के ब्रह्मादिक समस्त दास है । दास केवल शुद्रो को ही नही कहते सेवक को भी कहते है क्यों की अमरकोश में लिखा है कि
(दासः सेवकशूद्रयो ) अमरकोश
दास शब्द सेवक और शूद्र दोनों का वाचक है नाम संस्कार में दास नाम सेवक का ही ग्रहण होता है  ।

दासो ऽहं कोसलेन्द्रस्य रामस्याक्लिष्टकर्मणः । हनुमान् शत्रुसैन्यानां निहन्ता मारुतात्मजः ।।( बाल्मीकि रामायण  ५.४३.९।। )
शुद्ध कर्म करने वाले कौशलयेन्द्र श्रीराम चन्द्र जी का मै सेवक हूँ सत्रुओं की सेना को मारनेवाला पवनसुत हनुमान हूँ ।
श्रीपद्मनाभ पुरुषोत्तम देहि दास्यम ( पाण्डवगी० श्लोक२५)
हे पद्मनाभ हे पुरुषोत्तम मेरे लिए आप अपनी दासता को दीजिये
दास्येन च गृहाण माम् (नारद प०)
अपनी दासता के लिए मुझे ग्रहण कीजिये ।
दासभूताःस्वतःसर्वे ह्यात्मन:परमात्मनः
नान्यथा लक्षणं तेषां बन्धे च मोक्ष विद्यते (पाराशर)
सब जीव निश्चय कर के परमात्मा के स्वतः सिद्ध दासः है उन जीवात्माओं के बन्धन या मोक्ष में कोई और लक्षण नही ।
दास्यमेव परं धर्म दास्यमेव परम् हितम दास्येनैव भवेन्मुक्तिरन्यथा निरयं वज्रेत ( हारित्स्मृति)
भागवत की दासता सर्वश्रेष्ठ धर्म है तथा दासता ही श्रेष्ठ हित है और दासता से ही मुक्ति होती है तथा भगवन की दासता न होने से जीव नरक को प्राप्त होता है ।
ब्रह्मशुत्र में लिखा है कि
ब्रह्मदासा ब्रह्मदासा ब्रह्मैवेमेकितवा ( ब्रह्मशुत्र)
जीव ब्रह्म का दास है  सेवक है और ये कितव है ।
और देखिये यजुर्वेद संहिता में लिखा है ।
यस्यायं विश्व आर्यो दासा (यजुर्वेद० अ ०३३० मण्डल०८२)
जिस परमात्मा के यह संसार और श्रेष्ठ ब्राह्मणादि दास है ।

सृष्टि और विष्णु

यह संपूर्ण विश्व एक ही अखण्ड विज्ञानघन सत्ता का विकास है चाहे वह ब्रह्म कल्प हो या पद्मकल्प और वराहकल्प भारतीय वाङ्ग्मय में इस विज्ञानात्मक ब्रह्माण्डीय बिकास को कथा रूप के माध्यम से बड़े ही सहज भाव से स्पष्ट किया है यह अन्नतस्तारकित व्योमपथ ही क्षीर समुद्र है इसका मध्याकर्षण क्षेत्र ही उसकी संकर्षणात्मक शेषशय्या है या विश्वरूप से व्यापक व्यपनशील महासत्ता विष्लृ व्यापतौ धातु से निष्पन्न महाविष्णु है जो दिङ्निर्देशक की दृष्टि से आकाशगंगा का केंद्र भाग भी कहा जाता है । सृष्टि के आदिकारण या स्वेत महाविष्णु है यहाँ कमल नाल का रूपक ( आज के भौतिक वैज्ञानिक का बिचार ) साइफन ट्यूब की तरह है जिसके माध्यम से ब्रह्माण्डीय द्रब्य का निक्षेप व्योमपथ पर होता है विज्ञान आज व्हाइट होल के साथ साइफन सिस्टम की कल्पना कर रहा है जिससे विश्व द्रब्य का निक्षेप हुआ है इस नाल पर कमल यहाँ ब्रह्माण्डीय द्रब्य की प्रथम बिकासवस्था का संकेत है कमल पर बिराजमान ब्रह्मा सृष्टि से लेकर उसके पौरुषेय बिकास तक का संपूर्ण प्रतिनिधि है जो इस बहिर्भूत ब्रह्माण्डीय द्रब्य की चरम विकसित अवस्था के स्वरुप को स्पष्ट करता है ब्रह्मा के  चार मुख पौरुषेय प्रज्ञा के चतुर्मुखी  व सर्वतोमुखी बिकाश के सूचक है प्रतीकों से युक्त इनकी चार भुजाएं धर्म ,अर्थ,काम,मोक्ष, इन चारों अर्थो को स्पष्ट करती है ये भारतीय वाङ्ग्मय में पुरुषार्थ या पुरुष के अर्थरूप में सर्वत्र प्रसिद्ध है पुरुषार्थ का अर्थ है -- पुरुष की सक्रियता कर्मक्षमता के संदर्भ में व्यापक अर्थबोध जो उपयुक्त चारभागो में विभक्त ब्रह्मा के चारो हाथो द्वारा स्पष्ट किया गया है ।क्षीरसागर पर विश्वद्रब्य का वाचक महाविष्णु अकेले नही विश्वद्रब्य को परिणामोन्मुख करने वाली श्रीरूपा माहशक्ति वहां विद्यमान है देवऋषि नारद वीणा सहित वहां सन्मुख है नार ,का, अर्थ , जल  द का अर्थ है  देनेवाला । जगत और जीवन दोनों  का आधार जल है इस लिए यहाँ देवऋषि नारद इस विज्ञान कथा में प्रस्तुत है । विश्व का निर्माता और संचालकतत्व  नाद  है  सारीसृष्टि नादमुखर है संपूर्ण ब्रह्माण्ड संगीत से आपूरित है अतः देवऋषि के हाथ में वीणा अपने प्रतिकभुत विज्ञानर्थ को स्पष्ट करती है इस अन्तस्तारकित (interstellar) आकाशरूपी क्षीरसागर में मध्याकर्षण क्षेत्र स्वरुप शेषशय्या पर सोया हुआ महाविष्णु विशिष्ट प्रतीकों से युक्त है जिनमे एक तो नाभि से होता बहिर्भूत होता हुआ द्रब्यस्थानीय कमलनाल है जिस पर पूर्ण पुरुष ब्रह्मा है जिनका उल्लेख हम ऊपर कर चुके विष्णु स्वयं अपने चार हाथो में चक्र, गदा, पद्म, और शंख से युक्त है विष्णु का सुदर्शन चक्र इन ब्रह्माण्डीय द्रव्यो की सर्वदा विद्यमान चक्रगति है वही विश्वद्रब्य को संपूर्ण ब्रह्माण्डीय बिकाश में बदलती है यही विष्णु के हाथ में घूमते हुए सुदर्शनचक्र का निदानभुत अर्थ है गदा सृष्टि के विकास में उत्पन्न होने वाली अवरोधक के अप्रसारण का प्रतिक है कमल ब्रह्माण्डीय संरचना का प्रतिक है नाभोगंगा के  बिस्तार को  वैज्ञानिक एक मुख्य प्रोजेक्शन थाल की तरह देखते है ऋषियों ने कोटि कोटि ब्रह्माण्डो की सर्वतोमुखी व्यापति को लक्ष्य में रख कर एक कमल की तरह देखा शंख जैव सृष्टि का प्रतिक है पृथ्वी के प्रारम्भिक बिकाश  के इतिहास में शंख प्रतिनिधि रूप है विष्णु के उदर से सम्भूत होने के कारण उपादान कारण की दृष्टि से सृष्टि के प्रत्येक कण को विष्णु कहा गया है पदार्थ की मौलिक स्वरुप की दृष्टि से इस # सर्वम # को सर्वं विष्णुमयं जगत् कहा जाता है यह विश्व महा विष्णु तत्व की समष्टि है विष्णु शब्द का व्याकरण  वा विज्ञानलभ्य अर्थ है -- एक अद्वितिय व्यापनशीलतत्व आकाशगंगा में फैले हुए अनेक छोटे बड़े तारे स्वयं हिरण्यगर्भ विष्णु है जो सृष्टि की संरचना में बिस्फोटक्रम से प्रवृत होते है ये सभी आदि हिरण्यगर्भ विष्णु से बहिर्भूत होते हुए तारो के रूप में प्रोद् भासित हो रहे है हमारा सूर्य भी एक मध्यम परिणाम हिरण्यगर्भ विष्णु है संरचनात्मक कालभेद के अनुसार इसके मण्डल की द्रब्यम्य स्थितियां बदलती रहती है उसी के अनुसार उसका वर्णभेद वा रंगभेद होता है


नाभोभौतिक विज्ञान (astrophysics) के आचार्य अनन्त दूरियों पर विस्तीर्ण इन हिरण्यगर्भो के वर्ण भेद द्वारा इनके द्रब्यमय क्रियात्मक स्वरुप को निर्धारण करता है भारतीय पुराण परम्परा के अनुसार विष्णु स्वेतवर्ण विशिष्ट है तत्वतः स्वेत होते हुए भी वे कालद्रब्य के फलस्वरूप उपाधिभेद से कभी रक्त वर्ण तो कभी कृष्णवर्ण प्रतीत होते है इस वर्ण परिवर्तन के अनुसार उस एक ही तत्व के तीन नाम है

१-स्वेतवर्ण -- विष्णु
२- रक्तवर्ण -- ब्रह्मा
३- कृष्णवर्ण --शिव  वा रूद्र

भागवत पुराण के अनुसार यही उस एक तत्व की वर्ण व्यवस्था वा रंगभेद स्थिति है

स त्वम त्रिलोकस्थितये विभर्षि शुक्लम् खलु वर्णात्मन ।
सर्गाय रक्तं रजसोपबृंहितं कृष्णम् च वर्णं तमसा जनात्यये ।।
यह स्वेतवर्ण विष्णु ही विज्ञान की दृष्टि से देखा जाय तो white hole  का परम भारस्वरूप है जिससे हिरण्यगर्भ की सृष्टि होती है कृष्णवर्ण रूद्र ही  black hole  का पर्याय है जो अपने ही भीतर सब कुछ निगल लेता है यही  black hole  कालान्तर में स्वेत विष्णु white hole के रूप में पुनः प्रस्तुत होता है श्रुति में यह विज्ञान बड़े ही स्पष्ट शब्दों में कहा गया है यह रूद्र ही सभी शक्ति स्वरुप देवो को उतपन्न करता है

यो देवानां प्रभवश्चोद्भवश्च विश्वाधिपो रुद्रो महर्षिः । हिरण्यगर्भं पश्यत जायमानं स नो बुद्ध्या शुभया संयुनक्तु ॥श्वेताश्वर उपनिषद ४/ १२ ॥
रूद्र को विश्व के आधारतत्व के रूप में ग्रहण करते हुए श्रुति उसके क्रियात्मक स्वरुप का उल्लेख इस प्रकार करती है वह रूद्र अपनी नियामक शक्ति द्वारा सभी लोको का नियमन करता हुआ अन्य का आश्रय नही लेता वह संहार रूप वा संकोच रूप होकर  सभी जीवो के भीतर संस्थित है वही प्रलयकाल में इन सब को अपने भीतर समेट लेता है यहाँ मन्त्र में रूद्र की क्रियात्मक अवस्था को स्पष्ट करने के लिए संचुकोच क्रिया विशेषतया ध्यान देने योग्य है संचुकोच का शाब्दिक अर्थ है - अपने में संकुचित कर लिया जो black hole की प्रमुख क्रियात्मक अवस्था है

एको हि रुद्रो न द्वितीयाय तस्थुर्य इमांल्लोकानीशत ईशनीभिः । प्रत्यङ्जनास्तिष्ठति सञ्चुकोचान्तकाले संसृज्य विश्वा भुवनानि गोपाः ॥श्वेताश्वरौपनिषत्  ३/२।।
अंतिम पंक्ति का संकेत white hole के सृजन अर्थ में है पिछले मन्त्र में इसे शब्दतः स्पष्ट कर दिया गया है
#हिरण्यगर्भ जनयामास पूर्वम #
अर्थात प्रलय के पूर्व रूद्र ने ही हिरण्यगर्भ को उतपन्न किया था यह देखाजाय तो रूद्र की घोर मूर्ति है श्रुति में अघोर मूर्ति का नाम विष्णु है इसे यों भी कहा जा सकता है विष्णु ही अवर्ण (वर्णरहित) या कृष्णमूर्ति रूद्र है कृष्णवर्ण दृष्टि का अविषय होने के कारण अवर्ण कृष्ण या ब्लैक है यही अर्थ है यहाँ उपनिषद में स्पष्ट हुआ है रूद्र अवर्ण या कृष्ण वर्ण होते हुए भी निहित अर्थ वाला है -अर्थात प्रयोजन युक्त वाला है इस लिए सृष्टि के प्रयोजन काल में अनेक प्रकार के शक्तियों के सर्जनात्मक समन्वय के द्वारा अनेक रूप और रंग धारण कर लेता है तात्विक दृष्टि से देखा जाय तो वह ब्रह्मा - विष्णु आदि विभिन्न भेदो से भेद्य नही है अन्त में वह रूद्र ही इस विश्व को अपने भीतर विलीन कर लेता है यहाँ व्येति पद -वी + एती जिसका अर्थ है विलीन हो जाना या विशेष रूप से लीन हो जाना  निम्नमंत्र का स्पष्ट एवम संक्षिप्त अर्थ है जो रंग रूप आदि से रहित होकर भी छिपे हुए प्रयोजन से युक्त होने के कारण विविध शक्तियों के सम्बन्ध से विश्व के प्रारम्भ में अनेक रूप और रंग धारण कर लेता है एवम अन्त में संपूर्ण उसमे विलीन हो जाता है वह परम देव् एक है वह हमें शुभ बुद्धि से युक्त करे ।
य एकोSवर्ण बहुदाशक्तियोगाद् वर्णानानेकान निहितार्थों दधाती ।
वी चैती चान्तो विश्वमादौ स देव्: स न बुद्धया शुभाया संयुक्तु ।।
इससे आगे के तीन मन्त्रो में एक ही तत्व के  अनेक प्रतिनिधि रूपो के नाम गिनाये गए है यह रूद्र ही सृष्टिकाल में अग्नि और आदित्य बन जाता है यही वायु और चंद्रमा जल और बीर्य बन जाता है यही प्रजपति है इसे ही ब्रह्म कहा गया है यह विश्व एक ही अद्वितिय संकोचधर्मी रूद्र तत्व का विस्तार है यहाँ तक की यह एक तत्व ही सनातन काल यात्रा में स्त्री पुरुष कुमार कुमारी भी बन जाता है यही नीले हरे और लालरंग वाले पतंग व तारे के रूप में प्रकट हो जाते है यही बादल ऋतू और समुद्र बन जाता है यही इस अनादि प्रकृति का जनक है