Friday 25 October 2019

सनातन संस्कृति

एक तरफ थी हजारों वर्ष पुरानी अजेय-अपराजेय एवं विराट भारतीय संस्कृति और दूसरी तरफ थे आधुनिकता एवं ईसाई धर्म का झंडा लिए गोरे महाशय अंग्रेज ।

वे भारत की भूमि पर तो राज कर रहे थे परन्तु भारतीयों के दिल और दिमाग पर राज था अपने धर्म, अपनी संस्कृति, अपनी परम्पराओं और अपने महा पुरुषों का ।

इसीलिए वे अंग्रेज जीतकर भी हार का अनुभव कर रहे थे।
भारत के सम्पूर्ण पराजय में सबसे बड़ी बाधा थी यहाँ के लोगों की अपराजेय मानसिकता ।

उनका राजा भले ही कोई भी हो परन्तु वे समझते थे उनका मूल और विस्तार है प्राचिनत्तम सनातन धर्म-संस्कृति ।

 वे अपने धर्म, संस्कृति, परम्परा, इतिहास एवं अपने महापुरुषों के प्रति अगाध प्रेम और श्रद्धा से परिपूर्ण थे ।

अंग्रेजों के सामने यही लक्ष्य था की भारतीयों के इस अद्भुत श्रद्धा भाव को खंडित कर इन्हें यूरोपियन संस्कृति में एवं ईसा के धर्म में किस प्रकार दीक्षित, शिक्षित किया जाये।
इस काम में नियुक्त किये गए लार्ड मैकाले।

ईसा सम्वत १८३४ में लार्ड मैकाले भारत के शिक्षा प्रमुख बनकर भारत आये।
उनके पास गुप्त योजना थी और उसको लागु करने की लगन भी।

वे बिना लडे भारतीयता को पराजित करने के मिशन पर थे। वे सभी भारतीयोंको मानसिक रूप से गुलाम बनाना चाहते थे ।

उन्होंने पारम्परिक शिक्षा संस्थानों को अनुदान देना बंध कर दिया और अंग्रेजी स्कुलो में भारतीयता के जड़ों को खोदनेवाली शिक्षा का प्रारम्भ कर दिया ।

उन्होंने  १२-१०-१८३६ में अपने पिता को पत्र लिखा था कि   "मैंने बनायीं पद्धति से यहाँ शिक्षा का क्रम चलता रहा तो आगामी ३० सालों में बंगाल में एक भी हिन्दू नही बचेगा, सभी ख्रिस्ती बन जायेंगे या  फिर केवल पोलिशी के लिए नाम मात्र हिन्दू-पोलिटिकल हिन्दू बने रहेंगे ।

धर्म पर या अपने धर्मशास्त्र वेदों पर उनकी श्रद्धा कतिपय नही रहेगी।
स्पष्ट रूप से हिन्दू धर्म में हस्तक्षेप किये बिना, बाहर से उनकी स्वतन्त्रता कायम रखते हुए हमारा उद्देश्य पूरा सफल होगा ।''

निश्चित रूप से भारतीय संविधान के सेक्युलरिज्म और धर्म श्रद्धाविहीन हिंदुत्व का मूल मैकाले के इस पत्र में स्पष्ट दिखाई देता है ।

इस प्रकार अंग्रेज  ईसाईयोंने योजनापूर्वक भारतीयता के शिक्षा पद्धति को आमूलचूल बदल डाला ।

इसप्रकार सैन्य बल से अपराजित, अतुलनीय भारत मैकाले की शिक्षा  निति से पराजित हो गया ।

दुःख की बात है की आज भी बाह्य रूप से भारत स्वतंत्र दिखने पर भी दिल और दिमाग के रूप से स्वतंत्र नही हो पाया है ।

आर्य और द्रविड़ का सिद्धान्त भी अंग्रेजों के इन्ही निति पर आधारित था ।
वे हमारी सांस्कृतिक एकता को तोड़कर हमारे स्वतंत्रता के विचारों को ख़तम करना चाहते थे ।

वे उन विचार के द्वारा हमें समझाना चाह रहे थे की  आप लोग आर्य और अनार्यों में बटे हुए हो और दूसरी बात आप लोग भी बाहर से आये है और हम भी ।

फिर कौन किस को भगाए? अंतर केवल इतना है की आप हम से थोड़ा पहले आये है और हम थोड़े बाद में।

मैक्समूलर के शब्दों में ~~ 

india has been conquered once ,but india must be conquered again and second conquest should de a conquest by aducation....     

इन सब के मूल में अंग्रेजो की वे अति गोपनीय नीतियाँ थी जो हमें मानसिक रूप से गुलाम बनाना चाहते थे ।

उन नीतियों से अंग्रेजों को कितना लाभ हुआ यह तो पता नही है परन्तु हमारी ही मुर्खता से हम उनसे परास्त हो गए।

आज हम भारतीय भले ही दिखाई पड़ते है परन्तु दिल और दिमाग से अंग्रेज की प्रतिमूर्ति है ।

पंडित जवाहर लाल नेहरू, मोहम्मद अलि जिन्ना आदि जैसे लोग अंग्रेजों के इस कूटनीति के ही उत्पाद थे ।

वे ऊपर से भारतीय नजर आते थे परन्तु अन्दर से, अन्तर्मन से अंग्रेजों को भी मात देनेवाले अंग्रेज थे ।

आज सभी क्षेत्र के लोग, चाहे वे राजनैतिक पार्टियां हो, सामाजिक संस्थान हो या धर्म संस्थान चलानेवाले साधू संत कारक पुरुष, इन सब पर अंग्रेजियत का असर साफ दिखाई देता है...क्योंकि ये धर्म संस्थानों को चलानेवाले लोग भी तो इसी समाज से आते है. आज तो इनकी कोई गिनती ही नहीं है,  हर जगह हम यूरोपियन की तरह आचरण कर रहे है ।

मैकाले जीत रहा है और हम हार रहे हैं,    परन्तु हमारी हार अंतिम नहीं है , हम जित के लिए संघर्ष जारी रखे हुए है ।

Monday 16 September 2019

श्राद्ध बिशेष



#प्रश्न:---श्राद्ध क्या है ?

#उत्तर:----पितर पितृ (पा.) रक्षण करना इस धातुसे पितृ शब्द की उत्पत्ती हुई है। अत: पितर ही अपने कुलकी रक्षा करता है इसलिए श्राध्दादि कर्मसे उन्हे संतूष्ट करना चाहिए।
श्रुतिस्मृति सम्मत वचनों से मृत पितरों के निमित पितृदेवो के पूजनार्थ होम पिण्डदान आदि ब्राह्मणभोजन रूप जो सत्कर्म है वही शास्त्रोक्त श्राद्ध शब्द का मुख्य भावार्थ है प्रजा के कल्याणार्थ श्रुतिस्मृति ने जिस शुभकर्म का उपदेश किया उसी का नाम श्राद्ध पितृयज्ञ है ।जैसे देवयज्ञ में इन्द्रादि देवताओ का पूजन सत्कार होता है और आहवनीय अग्नि उनके तृपत्यर्थ होम का आधार है वैसे ही इस पितृयज्ञ में पितृदेव का पूजन सत्कार और उनके तृपत्यर्थ होम का आधार अग्नि की जगह ब्राह्मणो का मुख है ।

श्राद्धं वा पितृयज्ञ स्यात् (कात्यायन स्मृति १३/४)
श्राद्धं तत्कर्म शास्त्रत: (अमरकोश २/७/२१)

अथर्ववेद में मृत पितरों को तृप्ति (खिलाने) के लिए आह्वानार्थ  अग्नि से प्रार्थना की गई है
ये निखाता ये परोप्ता ये दग्धा ये चोद्धिताः ।
सर्वांस्तान् अग्न आ वह पितॄन् हविषे अत्तवे ॥(अथर्ववेद १८/२/३४)
महाभारत आदिपर्व में भी अग्नि की उक्ति है
वेदोक्तेन विधानेन मयि यद्धूयते हविः।
देवताः पितरश्चैव तेन तृप्ता भवन्ति वै।।
देवताः पितरश्चैव भुञ्जते मयि यद्भुतम्।
देवतानां पितॄणां च मुखमेतदहं स्मृतम्।।
मन्मुखेनैव हूयन्ते भुञ्जते च हुतं हविः।।(महाभारत आदिपर्व ७/७-१०-११)

#प्रश्न :--- श्राद्ध में पितरों की तृप्ति हेतु हम ब्राह्मणो के ही मुख में कव्य  क्यो दे अग्नि को क्यो नही ?

#उत्तर :--   ब्राह्मणो के हव्य कव्य में अग्नि के बाद उन्ही का अधिकार है क्यो की  ब्राह्मण स्वयं अग्नि स्वरूप है

विद्यातपःसमृद्धेषु हुतं विप्रमुखाग्निषु (मनुस्मृति ३/९८)

अग्नि और ब्राह्मण की सहोदरता में स्वयं वेद ही प्रमाण है
ब्राह्मणोSस्य मुखमासीद् (ऋग्वेद)
मुखादग्निरजायत (यजुर्वेद)
इसलिए शास्त्रो में ब्राह्मणो को आग्नेय या अग्नि कहा गया है ।तभी मीमांसा दर्शन के (१/४/२४) सूत्र के साबर भाष्य में अग्नयो वै ब्राह्मणः पर प्रकाश डालने के लिए इस प्रकार प्रश्नोत्तर प्रक्रिया की गई है ।
(प्रश्न:-- आग्नेयेषु (ब्राह्मणेषु) अग्नेयादिशब्दा:केन्प्रकारेण ?
(उ ० :-- गुणवादेन ।(प्रश्न ) को गुणवाद: (उ०) अग्नि सम्बन्ध:
(प्रश्न) कथम् (उ०) एकजातीयत्वाद् (अग्निब्राह्मणयो:) (प्रश्न) किमेकजातीयत्वं (उ०) प्रजापतिरकामयत-- प्रजा:सृजयमिति स मुखतसि्त्रवृतं निरभिमित तमग्निर्देवता अन्वसृज्यत.....ब्राह्मणो मनुष्याणां तस्मात ते मुख्या: मुखतोSन्वसृज्यन्त यहाँ पर अग्नि और ब्राह्मण की एकजातीय स्प्ष्ट शब्दो मे कहि गयी है ।
स्मृतियों में कहा गया है कि अग्नि न हो तो ब्राह्मणो को ही कव्य दे दे ।
अग्न्यभावे तु विप्रस्य पाणावेवोपपादयेत् ।
यो ह्यग्निः स द्विजो विप्रैर्मन्त्रदर्शिभिरुच्यते । ।(मनुस्मृति ३/२१२)
यह कहकर यहाँ हेतु दिया गया है । इस लिए श्राद्ध हेतु यहाँ अग्नि वा ब्राह्मणो को ही खिलाना लिखा है ।
गां विप्रं अजं अग्निं वा प्राशयेदप्सु वा क्षिपेत्  (मनुस्मृति३/२६०)
प्रश्न :--- हम मनुस्मृति को ही प्रमाण क्यो माने ??
उत्तर:-- क्यो की शास्त्रो में मनुस्मृति को ही प्रमाण माना गया है ऐसा स्वयं वेदवचन है ।
यद् वै किञ्च मनुरवदत् तद् भेषजम्  (तैत्तिरीय सं०२/२/१०/२)
मनु र्वै यत्किञ्चावदत्तत्भेषज्यायै (ताण्ड्य-महाब्रा०२३/१६/१७)
अथापि निष्प्रचमेव मानव्यो हि प्रजाः।" (ऋग्वे० १/८०/१६) ।
और ऐसा केवल मनुस्मृति ही क्यो स्वयं वेद में ही उपदिष्ट है ।

ब्राह्मणो ह वा इमम् अग्निं वैश्वानरं बभार (गोपथ ब्राह्मण १/२/२०)
अग्नि ब्राह्मणामाविवेश (अथर्ववेद १९/५९/२)
वैश्वानरः प्रविशत्यतिथिर्ब्राह्मणो (काठोपनिषद् )
इसका ऐतिहासिक प्रमाण महाभारत में भी देखना चाहिए  निषाद के अचारवाले ब्राह्मण को निगलने के समय गरुण के कण्ठ में अग्निदाह होने लगा था ।
प्रश्न :-- पितृपक्ष कृष्ण पक्ष में क्यो करते है शुक्लपक्ष में क्यो नही ??
उत्तर :-- क्यो की कृष्णपक्ष ही पितरों का दिन होता है और शुक्लपक्ष पितरों का रात ।
कर्मचेष्टास्वहः कृष्णः शुक्लः स्वप्नाय शर्वरी । ।(मनुस्मृति १/६६)

#प्रश्न :--- श्राद में केवल पुत्रो का ही अधिकार क्यो ?

#उत्तर :---  क्यो की पुत्र ही अपने पितरों को नरक से रक्षा करता है पुत्र श्राद्ध के जरिये अपने पितरों को क्लेशसागर से उद्धार करता है ।
पुत्र इति पुत-नामकात् नरकात् त्रायते। ऐतरेयब्राह्मणे पुत्रस्य भव्या प्रशंसा समाजे वीरसन्ततेः मूल्याङ्कनाय पर्यासममन्यत । पितरः पुत्रैः क्लेशसागराद् उद्धत्तुं समर्थाः भवन्ति । पुत्रः अात्मनः जन्म गृहीत्वा आत्मस्वरूपमेव भवति । सोऽन्नेन पूरिताः तरिः भवति यः संसृतिसागरात्समुद्धर्तुं नितान्तः समर्थो भवति — ‘स वै लोकोऽवदावदः ।' पुत्रः स्वर्गलोकस्य प्रतीको भवति, तस्य निन्दा कदापि न कर्त्तव्या । ‘ज्योतिर्हि पुत्रः परमे व्योमन्’, ‘नापुत्रस्य लोकोऽस्ति' इत्येतानि श्रुतिवाक्यानि पुत्रस्य सामाजिकमूल्यस्य परिकल्पनायाः कतिपयानि निदर्शनान्येव सन्ति ।

#प्रश्न:--श्राद्ध क्यो किया जाय ?

#उत्तर:--पिण्ड और जलदान की क्रिया के लोप हो जाने से पितर पतित हो जाते है ।
पतन्ति पितरो ह्येषांलुप्तपिण्डोदकक्रियाः(गीता १/४२)

शैलेन्द्र सिंह

पाठकगण से अनुरोध है कि यदि कोई त्रुटि हो तो अवश्य सूचित करें ।

Monday 9 September 2019

सरस्वती नदी आखिर कहाँ गई

#सरस्वती_नदी_आखिर_कहाँ_गई ?
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भारतीय जीवन एवं साधना में अप्रतिम महत्व रखने वाली सरस्वती भारतीय सभ्यता के उषाकाल से लेकर अद्यपर्यन्त अपने आप में ही नहीं,प्रत्युत अपनी अर्थ,परिधि एवं सम्बन्धों के विस्तार के कारण भी अत्यन्त महत्वपूर्ण रही हैlसरस्वती शब्द की व्युत्पति गत्यर्थक सृ धातु से असुन प्रत्यय के योग से निष्पन्न होता है शब्द सरस,जिसका अर्थ होता है गतिशील जलlसरस का अर्थ गतिशीलता के कारण जल भी हो सकता है,लेकिन केवल जल ही गतिशील नहीं होता,ज्ञान भी गतिशील होता हैlसूर्य-रश्मि भी गतिशील होती हैlअतः सरस का अर्थ ज्ञान, वाणी (अन्तःप्रेरणा की वाणी), ज्योति, सूर्य-रश्मि, यज्ञ ज्वाला, आदि भी किया गया हैlज्ञान के आधार पर सरस्वती का अर्थ सर्वत्र और सर्वज्ञानमय परमात्मा भी हो जाती हैlआदिकाव्य ऋग्वेद में सरस्वती नाम देवता (विभिन्न वैदिक देवता एक ही देव के भिन्न-भिन्न दिव्यगुणों के कारण अनेक नाम अर्थात सरस्वती मात्र देवता,परमात्मा का सूचक नाम मात्र है,दृश्य रूप भौतिक नदी विशेष नहीं है) तथा नदी वत दोनों ही रूपों में प्रयुक्त हुआ हैlसरस्वती शब्द का अर्थ करते हुए यास्क ने निरुक्त में लिखा है-
वाङ नामान्युत्तराणि सप्तपञ्चाशत् वाक्क्स्मात् वचेः l तत्र सरस्वतीत्येत्स्य नदीवद् देवतावच्चा निगमा भवन्ति l
तद्यद् देवतावदुपरिष्टातद् व्याख्यास्यामः l अथैतन्न्दीवत ll
-निरूक्त २/७/२३
अर्थात- वाक् शब्द के सत्तावन रूप कहे गये हैंlवाक् के उन सत्तावन रूपों में एक रूप सरस्वती हैlवेदों में सरस्वती शब्द का प्रयोग देवतावत् और नदीवत् आया हैlनदीवत् अर्थात नदी की भान्ति (नदी नहीं) बहने वालीlसायन एवं निघण्टुकार ने भी सरस्वती के नदी एवं देवता दोनों दोनों रूप स्वीकार किये हैंlयास्काचार्य की उक्ति सरस्वती – सरस इत्युदकनाम सर्तेस्तद्वती (निरूक्त ९/३/२४) से यह स्पष्ट नहीं होता कि उनका अभिप्राय नदी विशेष है अथवा सामान्य नदियों से अथवा जलाशयों से परिपूर्ण भूमि सेl फिर कतिपय विद्वानों ने इसे सरस्वती नाम की नदी विशेष अर्थ (रूप) में स्वीकार किया हैlऋग्वेद में यास्कानुसार केवल छः मन्त्रों में ही सरस्वती नदी रूप में वर्णित है,शेष वर्णन उसके देवता रूप विषयक हैंlऋग्वेद में सरस्वती का नाम प्रथम वाक् देवता के रूप में प्रयुक्त हुआ है या नदी के लिये यह आज भी विद्वानों के मध्य विवाद के विषय बना हुआ हैlयद्यपि मनुस्मृति १/२१ के अनुसार सरस्वती के देवता रूप की कल्पना ही पहले होनी चाहिये तथापि कतिपय विद्वानों के अनुसार बाद में देवता रूप के आधार पर ही नदी विशेष के लिये सरस्वती नाम प्रचलित हुआlउनके अनुसार ऋग्वेद की सरस्वती मात्र एक दिव्य अन्तःप्रेरणा की देवी, वाणी की देवी ही नहीं वरन प्राचीन आर्य जगत की सात नदियों में से एक भी हैl
वैदिक विचार
विद्वानों का विचार है कि ऋग्वैदिक काल में सिन्धु और सरस्वती दो नदियाँ थींlऋग्वेद में अनेक स्थलों पर दोनों नदियों का साथ-साथ वर्णन तो उल्लेख है ही विशालता में भी दोनों एक सी कही गईं हैंlफिर भी सिन्धु के अपेक्षतया सरस्वती को ही अधिक महिमामयी एवं महत्वशालिनी माना गया हैlऋग्वेद के अनुसार सरस्वती की अवस्थिति यमुना और शतुद्रि (सतलज) के मध्य (यमुने सरस्वति शतुद्रि) थीlऋग्वेद में सरस्वती के लिये प्रयुक्त विशेषण सप्तनदीरूपिणी, सप्तभगिनीसेविता, सप्तस्वसा, सप्तधातु आदि हैंlसरस्वती से सम्बद्ध ऋग्वेद में उल्लिखित स्थान अथवा व्यक्ति सभी भारतीय हैंlऋग्वेद ७/९५/२ में सरस्वति का पर्वत से उद्भूत हो समुद्रपर्यन्त प्रवाहित होने का उल्लेख मिलता हैlभूमि सर्वेक्षण के कई प्रतिवेदनों अर्थात रिपोर्टों से प्रमाणित होता है कि लुप्त सरस्वती कभी पँजाब, हरियाणा और उत्तरी राजस्थान से प्रवाहित होने वाली विशाल नदी थीlस्पेस एप्लीकेशनसेंटर और फिजिकल लेबोरेट्री द्वारा प्रस्तुत लैंड सैटेलाईट इमेजरी एरियल फोटोग्राफ्स से भी सरस्वती की ऋग्वैदिक स्थिति की पुष्टि होती हैl
ऋग्वेद में सरस्वती के उल्लेखों वाले मन्त्रों को दृष्टिगोचर करने से इस सत्य का सत्यापन होता है कि ऋग्वैदिक सभ्यता का उद्भव एवं विकास सरस्वती के काँठे में ही हुआ था,वह सारस्वत प्रदेश की सभ्यता थीlबाद में यह सभ्यता क्षेत्र विस्तार के क्रम में मुख्यतः पश्चिमाभिमुख होकर एवं कुछ दूर तक पूर्व की ओर बढती हैlसभ्यता का केन्द्र सरस्वती तट से सिन्धु एवं उसके सहायिकाओं के तट पर पहुँचता है और इस सिलसिले में इसकी व्यापारिक गतिविधियों का व्यापक विस्तार होता हैlकहा जाता है कि सारस्वत प्रदेश के अग्रजन्माओं की आधिभौतिक एवं आध्यात्मिक उन्नति का श्रेय सरस्वती नदी को ही थाlपशुपालक व कृषिजीवी जहाँ सरस्वती के तटीय वनों और उपजाऊ भूमि से आधिभौतिक उन्नति कर रहे थे,वहीँ ऋषि-मुनिगण इसके तट पर सामगायन कर याजिकीय अनुष्ठानों द्वारा आध्यात्मिक उत्कर्ष कर रहे थेl

ऋग्वेद के सूक्तों से इस सत्य का सत्यापन होता है कि सरस्वती नदी नाहन पहाड़ियों से आगे आदिबदरी के निकट निकलकर पँजाब, हरियाणा, उत्तरी-पश्चिमी राजस्थान में प्रवाहित होती हुई समुद्र में प्रभाष क्षेत्र में मिलती हैlइसकी स्थिति यमुना और शतुद्रि के मध्य (ऋग्वेद १०/७५/५) किन्तु दृषद्वती (चितांग) के पश्चिम (ऋग्वेद ७/९५/२) कही गई हैlइसकी उत्पति दैवी (असुर्या ऋग्वेद ७/९६/१) भी मानी गई हैlब्राह्मण ग्रन्थों,श्रौतसूत्रों एवं पुराणादि ग्रन्थों में सरस्वती का उद्गम स्थान प्लक्ष प्राश्रवण कहा गया हैlयमुना नदी के उद्गम स्थल को प्लाक्षावतरण कहा गया हैlऋग्वेद में सरस्वती सम्बन्धी (करीब) पैंतीस मन्त्र अंकित हैं,जिनमें से तीन ऋग्वेद ६/६१,ऋग्वेद ७/९५ और ७/९६ स्तुतियाँ हैंlविविध मन्त्रों में सरस्वती की अपरिमित जलराशि,अनवरत बदलती रहने वाली प्रचण्ड वेगवती धारा,भयंकर गर्जना,उससे होने वाले संभावित खतरों,महनीयता आदि के भी जीवन्त वर्णन हैंl(ऋग्वेद ६/६१/३, ६/६१/८, ६/६१/११,६/६१/१३)सरस्वती प्रचण्ड वेगवाली होने के साथ ही सर्वाधिक जलराशि वाली होने के कारण बाढ़ के समय इसका पाट इतना चौड़ा और विस्तृत हो जाता है कि यह आक्षितिज फैली हुई प्रतीत होती हैlऋग्वेद६/६१/७ में अंकित है कि सरस्वती कूल किनारों को तोड़ती हुई बहुधा अपना प्रवाह बदल लेती हैl
प्रसविणी सरस्वती
ऋग्वेद १०/६४/९ में में सरस्वती,सरयू सिन्धु की गणना बड़े नदों में हुई है जिसमें ऋग्वेद ७/३६/३ में सरस्वती ही सरिताओं की प्रसविणी कही गई हैlऋग्वेद ६/६१/१२ में अंकित है कि सरस्वती में सात नदियों के मिलने के कारण सप्तधातु एवं ऋग्वेद ६/६१/१० में सप्तस्वसा कही गई हैlऋग्वेद ७/९६/३ के अनुसार सरस्वती सदा कल्याण ही करती हैlसरस्वती का जल सदा और सबको पवित्र करने वाला हैlयह पूषा की तरह पोषक अन्न देने वाली हैlअन्यान्य नदियों की तुलना में यह सबसे अधिक धन-धान्य प्रदायिनी हैlऋग्वेद ७/९६/३ में यह अन्नदात्री, अन्न्मयी एवं वाजिनीवती कही गई हैlधन, समृद्धि, ज्ञान प्रदायिनी होने के कारण ही सरस्वती को वाजिनीवती कहा गया हैlसरस्वती के माध्यम से नहुष ने अकूत धन-सम्पदा अर्जित की थीlइसी कारण धन-धन्य प्राप्ति के लिये सरस्वती की प्रार्थना करने की परिपाटी बाद में चल पड़ीlसरस्वती का जल स्वच्छ एवं सुस्वादु होने के कारण अन्नोत्पादिका होने के परिणामस्वरूप यह कल्याणकारिणी एवं धन-धान्य प्रदायिनी कही गई हैlसरस्वती अग्रजन्माओं की भूमि प्रदायिनी कही गई हैlऋग्वेद ६/६१/३ एवं ८/२१/१८ के अनुसार सारस्वत प्रदेश की प्राचीनता सिद्ध होती हैlसरस्वती के तट पर एक प्रसिद्द राजा और पञ्चजन निवास करते हैं जिन तटवासियों को सरस्वती स्मृद्धि प्रदान करती हैlऋग्वेद ६/६१/७ के अनुसार वृत्र का संहार सरस्वती तट पर हुआ था जिसके कारण इसकी नाम वृत्रघ्नी भी हुईlसर्वप्रथम यज्ञाग्नि सरस्वती तट पर प्रज्वलित हुई थीlतटवासी भरतों ने सर्वप्रथम अग्नि जलाई थीlइसी कारण सरस्वती का एक नाम भारती भी हुईlसरस्वती तट से ही अग्नि का अन्यत्र विस्तार भी हुआlफलतः सरस्वती के साथ ही दृषद्वती और आपया के तटों पर भी यज्ञों का संपादन होने लगाlनदियों में सरस्वती की इतनी महिमा मणि गई है कि इसे नदीतमे ही नहीं अम्बितमे और देवितमे भी घोषित करते हुए कहा गया है –
अम्बितमे नदीतमे देवितमे सरस्वती l
प्रशस्ता इव स्मसि प्रशस्तिम्ब नस्कृधि ll
-ऋग्वेद २/४१/६

ऋग्वेद ७/९६/१ में सरस्वती की महता गायन करने वशिष्ठ को आदेश देते हुए ऋषि कहते हैं, हे वशिष्ठ! तुम नदियों से बलवती सरस्वती के लिये वृहद स्तोत्र का गायन करोlऋग्वेद ६/६१/१० के अनुसार सरस्वती के स्तुतिगायकों ने अपने पूर्वजों द्वारा भी इसके स्तुति का उल्लेख किया है l इससे भी सरस्वती तट पर वैदिकों के निवास की प्राचीनता का संकेत मिलता हैlकतिपय विद्वान कहते हैं, भरतों की आदिम वासभूमि सरस्वती तटवर्त्ती भूमि (सारस्वत प्रदेश) ही थी जहाँ उन्होंने सर्वप्रथम यज्ञाग्नि जलाई थीlमैकडानल के अनुसार भी सूर्यवंशियों की प्राचीन वासभूमि भी जलाई थी, किन्तु विद्वानों के अनुसार सरस्वती के उद्गम स्थान पर हिमराशि का गलकर समाप्त हो जाने, जलग्रहण क्षेत्र से ही अन्य नदियों के द्वारा सरस्वती के जल का कर्षण कर लिये जाने आदि भौगोलिक कारणों से ख्य्यातिप्राप्त और पुण्यतमा सरस्वती का प्रवाह बहुधा परिवर्तित होता रहता थाlसम्भवतः उद्गम स्थल से सरस्वती का जल यमुना ने ही सबसे अधिक कर्षित किया होगाlइसी कारण यह मान्यता बनी कि प्रयाग में यमुना के साथ ही गुप्त रूप से सरस्वती भी गंगा में मिलती हैlभौगोलिक कारणों से सरस्वती वैदिक काल में ही क्षीण होते-होते सूखने भी लगी थीlफलतः उस समय तक उसका जो धार्मिक-आध्यात्मिक महत्व कायम हो चुका था वह तो आगे भी मान्य रहा,परन्तु उसका सामाजिक-आर्थिक,आधिभौतिक महत्व घटता गयाlउत्तर वैदिक कालीन साहित्यों में धार्मिक-आध्यात्मिक दृष्टियों से सरस्वती एवं उसके तटवर्ती स्थानों के उल्लेख अंकित हैं,लेकिन आधिभौतिक महत्व के साक्ष्यों का प्रायः अभाव ही हैlलाट्टायानी श्रौतसूत्र में कहा है –
सरस्वती नाम नदी प्रत्यकस्त्रोत प्रवहति, तस्याः प्रागपर भागौसर्वलोके प्रत्यक्षौ ,
मध्यमस्तभागः भूम्यन्तःनिमग्नः प्रवहति,नासौ केनचिद् तद्धिनशनमुच्यते ll
-लाट्टायन श्रौतसूत्र १०/१५/१
अर्थात - सरस्वती पश्चिमोभिमुख हो प्रवाहित होती हैlउसका आरम्भिक एवं अन्तिम भाग सबके लिये दृश्य हैlमध्यभाग पृथ्वी में अन्तर्निहित है जो किसी को भी दिखलाई नहीं पड़ताlलाट्टायन श्रौतसूत्र में उद्धृत इस सन्दर्भ से सरस्वती के लुप्त होने का संकेत मिलता हैlसरस्वती के मरुभूमि में समाहित होने अथवा सूखने के काल के सम्बन्ध में विद्वानों का अनुमान है कि ब्राह्मण ग्रन्थों के काल में रेतीले स्थलों में अन्तर्निहित हो गईlकुछ विद्वान यह भी कहते हैं कि ऐतरेय ब्राह्मण के काल में अथवा उसके पूर्व ही सरस्वती सुख चुकी थीlविज्ञान के अनेकानेक नवीन सोच भी इस तथ्य की पुष्टि करते हैंlब्राह्मण ग्रन्थों एवं श्रौत सूत्रों से ज्ञात होता है कि सरस्वती के तट पर धार्मिक-आध्यात्मिक कृत्यों का संपादन भी किया जाता है,थाlसरस्वती एवं दृषद्वती (चिनांग)के संगम पर भी अपां नपात इष्टि में पक्वचरू की आहुति देने का विधान भी अंकित हैlकात्यायन श्रौतसूत्र २४/६/६ के अनुसार सरस्वती दृषद्वती का संगम दृशद्वात्याय्यव कहा जाता थाlकात्यायन श्रौतसूत्र के ही २३/१/१२-१३ में अंकित है कि उक्त संगम पर ही अग्निकाम इष्टि भी संपादित होती थीlताण्ड्य ब्राह्मण २५/१६/११-१२ आपस्तम्ब के अनुसार सरस्वती तट पर तीन सारस्वत सत्र मित्र एवं वरुण के सम्मान में, इन्द्र एवं मित्र के सम्मान में, अर्यमा के सम्मान में किये जाते थेl

उद्गम स्थान
सरस्वती का उद्गम स्थान जैमिनीय ब्राह्मण ४/२६/१२ के अनुसार प्लक्ष प्रास्त्रवन, एवं आश्वलायन श्रौतसूत्र १२/६/१ के अनुसर प्लाक्ष प्रस्त्रवन कहा जाता हैlयमुना का उद्गम स्थल प्लाक्षावतरणभी इसके पास ही थाlमहाभारत वनपर्व १२९/१३-१४-२१-२३ से स्पष्ट भाष होता है कि यमुना क्ले उद्गम स्थल प्लाक्षातरण के निकट ही सरस्वती भी प्रवाहित थी, जसी स्थान पर सरस्वती भूमि के गर्त्त में अन्तर्निहित हुई वह ताण्डय ब्राह्मण २५/१०/६ के अनुसार विनशन (सम्प्रति कोलायत, बीकानेर के दक्षिण-पश्चिम-दक्षिण) कहा जाता थाlसरस्वती-प्रवाह के लुप्त होने को विनशन तथा कई बार इसकी धारा पुनः प्रकट हो जाती थी,जिसे उद्भेद कहा जाता थाlसरस्वती प्रवाह के लुप्त हो जाने की स्थिति में सरस्वती के सूखे तट पर विनशन में किसी धार्मिक अनुष्ठन अथवा यज्ञादि के दीक्षा लेने का विधान थाlकात्यायन श्रौतसूत्र में अंकित है कि दीक्षा शुक्ल पक्ष की सप्तमी को होती थीlसरस्वती के लुप्त होने के स्थान विनाशन से प्लक्ष प्रास्त्रवन की दूरी उन दिनों घुड़सवारी के माध्यम से चौवालीस दिनों में पूरी की जाती थीlअनुष्ठान करने वाले प्लक्ष प्रास्त्रवन पहुँच कर ही अनुष्ठान समाप्ति एवं कारपचव देश में प्रवाहित यमुना में (सरस्वती में जल होने पर भी उसमें नहीं) अवभृथ स्नान करने का विधान थाlकात्यायन श्रौतसूत्र १०/१०/१ के अनुसार कुरुक्षेत्र के परीण नामक समुद्रतटीय स्थान पर श्रौतयज्ञ किये जाते थेlआश्वलायन श्रौतसूत्र के अनुसार विनशन से प्रक्षिप्त शय्या की दूरी पर यजमानों के द्वारा एक दिन में व्यतीत किया जाता थाlऐतरेय ब्राह्मण ८/१ की गाथानुसार सरस्वती तट विनशन पर ऋषियों द्वारा सम्पादित सत्र से  जन्म लिये (उत्पन्न) कवष नामक दासीपुत्र को प्यास से तड़प-तड़प कर मर जाने के लिये मरुभूमि में छोड़ दिए जाने पर कवष ने अपां नपात (ऋग्वेद १०/३०) स्तुति की जिससे प्रसन्न होकर उसके रक्षार्थ सरस्वती उसे घेरते हुए प्रकट हुई उसे परिसरक नाम से जाना जाता हैlमहाभारत वनपर्व ८३/७५ एवं वामन पुराण सरोवर महात्म्य १५/२० में सरक कहा गया हैlमहाराज मनु के समय में सरस्वती एवं दृषद्वती के मध्य का प्रदेश देवकृतयोनि के नाम से जाना जाता हैl

पुराणादि ग्रन्थों में सरस्वती के नदी रूप की अपेक्षा देवतारूप को अत्यधिक महत्व प्रदान करते हुए कहा गया है कि सरस्वती का प्रवाह हालाँकि सूख गया था फिर भी उसका परम्परागत महत्व पौराणिक काल में भी कायम थाlभौगोलिक कारणों से सरस्वती के प्रवाह क्रम में हुए परिवर्तन को पुराणादि ग्रन्थों में शाप तथा वरदान की कथाओं से महिमामण्डित करने के साथ ही धार्मिक स्वरुप प्रदान किया गया हैlसरस्वती तटवर्ती कई स्थानों को तीर्थ रूप में वर्णन करते हुए उनके यात्राओं का जिक्र किया गया हैlमहाभारत में धौम्य पुलस्त्य, पाण्डव और बलराम की तीर्थयात्राएँ भी पुराणों की साक्ष्यता को ही प्रमाणित एवं पुष्ट करती हैlसरस्वती के नदी रूप का वर्णन महभारत वनपर्व अध्याय ८३, ८४, १२९ एवं शल्य पर्व अध्याय ३५-५५, एवं वामन पुराण सरोवर महात्म्य, ब्रह्म पुराण,कूर्म पुराण , पद्म पुराण, वृह्न्नारदीय पुराण, स्कन्द पुराण, वृह्द्धर्म पुराण, ब्रह्मवैवर्त पुराण (प्रकृति खण्ड) आदि ग्रन्थों में अंकित हैंlमहभारत में पाण्डव तीर्थयात्रा के क्रम में कहा गया है कि यमुना के उद्गम स्थल प्लाक्षवतरण से पुण्यसलिला सरस्वती दिखलाई पडती हैlइससे स्पष्ट पत्ता चलता है कि सरस्वती का उद्गम स्थल प्लक्ष प्रास्त्रवण यमुना के उद्गम स्थल प्लाक्षावतरण के नजदीक ही थीlवामन पुराण सरोवर महात्म्य ११/३ एवं महाभारत वनपर्व ८४/७ एवं शल्य पर्व ५४/११ के अनुसार सरस्वती की उत्पति के सम्बन्ध सौगन्धिक वन के आगे प्लक्ष (पांकड़) वृक्ष की जड़ की बांबी प्लक्ष प्रास्त्रवण से कही गई हैl महाभारत शल्य पर्व ४२/३० एवं वामन पूर्ण सरोवर महात्म्य १९/१३ में सरस्वती को ब्रह्मा की सरोवर से उत्पन्न होना भी कहा हैl

पुराणों में वेदों की भान्ति प्लक्ष प्रास्त्रवण तीर्थरूप में स्वीकृत है लेकिन ब्रह्मा का सरोवर इस रूप में मान्य न हो सका हैlब्रह्म पुराण में सरस्वती नदी को अग्नि ने स्पष्टतः ब्रह्मा की कन्या तान्देवान्कन्या कहा है इसके साथ ही ब्रह्मा ने इसे स्वीकार भी किया हैl(ब्रह्म पुराण १०/२०१, २०३, २०४) l महाभारत शल्य पर्व ३५/७७ एवं वन पर्व ८२/६० के अनुसर ब्रह्मा के सरोवर से उद्भुत पश्चिमाभिमुख हो प्रवाहित होती हुई सरस्वती पश्चिमी समुद्र में जिस स्थान पर मिलती थी,वह सरस्वती समुद्र संगम तीर्थ के नाम से विख्यात थाlब्रह्म पुराण १०१/२१० के अनुसार भी अग्नि को समुद्र तक ले जाने की पौराणिक आख्यान से भी सरस्वती का समुद्र से मिलना सिद्ध होता हैlसरस्वती के द्वारा अग्नि को समुद्र तक पहुँचाये जाने की यह कथा थोड़े अन्तर से ब्रह्मपुराण में भी अंकित है तथा सरस्वती के सूखने का एक कारण अग्नि को समुद्र तक पहुँचाया जाना भी माना गया हैl
ऋग्वेद की भान्ति ही पुराणों में भी सरस्वती को महानदी,हजारों पर्वतों को विदीर्ण करने वाली,सर्व लोगों की माता आदि कहा गया हैlमहाभारत शल्य पर्व ३८/२२ एवं वृहन्नारदीय पुराण १/८४/८० के अनुसार सरस्वती का उद्गम स्थल हिमालय किवां हिमालय का रमणीय शिखर हैlवामन पुराण सरोवर महात्म्य १३/६-८ एवं वृहन्नारदीय पुराण २/६४/१९ मे अंकित है कि सरस्वती पहाड़ों से उत्तर द्वैतवन से होती हुई कुरुक्षेत्र के रन्तुक नामक स्थान से पश्चिमोभिमुख होकर प्रवाहित होती हैlकुरुक्षेत्र में प्रवाहित होने वाली अन्य नदियाँ बरसाती हैं लेकिन सरस्वती में सालों भर जल प्रवाहित रहता हैlविद्वानों के अनुसार कुरुक्षेत्र से पश्चिमी समुद्र के बीच सरस्वती का प्रवाह रेगिस्तान में खो चुका था,फिर भी अनेकानेक स्थलों पर उपलब्ध उसके अवशेषों को तीर्थों की मान्यता मिल चुकी थीlप्राचीन समय में द्वारावती से कुरुक्षेत्र तक जाने का प्रमुख मार्ग सरस्वती तट के साथ-साथ ही थाlभागवतपुराण में दो बार श्रीकृष्ण के हस्तिनापुर से द्वारिका और दूसरी बार द्वारिका से हस्तिनापुर आने के समय इस मार्ग का वर्णन अंकित हैlबलराम की द्वारिका से कुरुक्षेत्र की तीर्थयात्रा का मार्ग भी यही रहा हैlइन यात्राओं के क्रम में प्रभास तीर्थ, चमसोद्भेद, शिवोद्भेद, नागोद्भेद, शशयान,उद्पान अथवा सरस्वती कूप,विनशन, सुभूमिक अथवा गन्धर्ववती तीर्थ, गर्गस्त्रोत, शंखतीर्थ, द्वैतवन,नागधन्वा, द्वैपायन सरोवर तीर्थ आदि का नाम महाभारत के वनपर्व एवं शल्य पर्व में अंकित हैंlइन तीर्थों में चमसोद्भेद,शिवोद्भेद और नागोद्भेद ऐसे स्थल हैं जहाँ लुप्त सरस्वती पुनः प्रकट हुई थीlविद्वान कहते हैं, सरस्वती का पराचिन मार्ग यही है जो सूख जाने पर भी कतिपय विशिष्टताओं के कारण तीर्थ रूप में मान्य हो गयेlउद्पान अथवा सरस्वती कूपतीर्थ के सम्बन्ध में महाभारत शल्य पर्व ३५/९० के अनुसार वहाँ औषधियाँ (वृक्ष लताओं) की स्निग्धता और भूमि आर्द्रता से सरस्वती का अनुमान होता हैl शल्य पर्व के अध्याय ४२ के अनुसार वशिष्ठोद्वाह (सरस्वती-अरुणा संगम) से सरस्वती तीर्थ (विश्वामित्र आश्रम) तक सरस्वती द्वारा वशिष्ठ को प्रवाहित कर ले जाने से इसके वेगवती होने का प्रमाण मिलता है लेकिन विश्वामित्र के शाप से वशिष्ठोद्वाह में सरस्वती का जल एक वर्ष के लिये अपवित्र एवं रक्तयुक्त हो जाता हैlमहाभारत शल्यपर्व ४३/१६ एवं वामन पुराण (स० म०) १९/३० के अनुसार ऋषियों के वरदान से सरस्वती नदी पुनः पवित्र और शुद्ध हो गईlइसी प्रकार महाभारत शल्य पर्व ४३/६ एवं वमन पुराण सरोवर महात्म्य १९/३० में पश्चिम-दक्षिण अभिमुखी सरस्वती के वैसे ही किसी घटना के कारण नागधन्वा तीर्थ से पूर्वाभिमुख होने की कथा भी अंकित हैlइसे आलंकारिक रूप में नैमिषारण्यवासी ऋषियों पर सरस्वती की कथा के रूप में महाभारत शल्य परत्व ३७/३६-६० में कहा गया हैl

विद्वानों के अनुसार सरस्वती-प्रवाह के किन्हीं भौतिक कारणों के परिणामस्वरुप सूख जाने, दूषित एवं शुद्ध होने की कथाओं को पुराणों में शाप एवं वरदान की कथाओं से महिमामण्डित किया गया हैlब्रह्मपुराण १०१/११ के अनुसार उर्वशी के आग्रह पर ब्रह्मसुता सरस्वती पुरुरवा से मिलीlपुरुरवा के साथ सरस्वती के मेल-जोल और उनके घर आने-जाने की बात ब्रह्मा )पिता को अनुचित लगीlइस पर उन्होंने सरस्वती को महानदी होने का शाप दे दियाlइसी अध्याय के सोलहवें श्लोक में ब्रह्मा के शाप से शाप-मोचन हेतु प्राप्त वरदान के कारण सरस्वती के दृश्य एवं अदृश्य दो रूपों की हो जाने की कथा हैlब्रह्मवैवर्त पुराण में अंकित है कि देवी सरस्वती को गंगा के शाप के कारण नदी रूप में अवतरित होना पद थाlमहाभारत शल्य पर्व ३७/१-२ में विनशन तीर्थ के वर्णन में सरस्वती-प्रवाह के सूखने का कारण दुष्कर्म परायण शूद्रों और आभीरों के प्रति द्वेष की कथा अंकित हैlशान्ति पर्व १८५/१५ में सरस्वती के चारों वर्णों के लिये एकमात्र देवी कहा गया हैlमहाभारत में ही अन्यत्र सरस्वती के सूखने का कारण उतथ्य ऋषि का शाप भी कहा हैlमहाभारत पुराणादि ग्रन्थों में ऋषियोंके आह्वान पर विभिन्न स्थानों पर सरस्वती के प्रकट होने की कथा कही गई हैlइसके साथ ही विविध स्थानों प्रकट उन छोटी नदी-कल्याओं को सरस्वती नदी की पवित्रता, महता आदि के साथ जोड़ा गया हैlमहाभारत शल्य पर्व अध्याय ३८ एवं वामन पुराण सरोवर महात्म्य अध्याय १६ में ब्रह्मा के आह्वान पर पुष्कर में सुप्रभा,सत्रयाजी मुनियों के कहने पर नैमिशारण्य में कांचनाक्षी, गय के आह्वान पर गया में विशाला, उद्दालक आदि ऋषियों के आह्वान पर उत्तर कोशल में मनोरमा, कुरु के आह्वान पर कुरुक्षेत्र में सुरेणु तथा दक्ष के आह्वान पर गंगाद्वार, वाशिष्ठ के आह्वान पर कुरुक्षेत्र में ओधवती तथा ब्रह्मा के आह्वान पर हिमालय में विमलोदका नाम से सरस्वती के प्रकट होने की कथा अंकित हैlमंकणक ऋषि ने उपर्युक्त सातों सरस्वतियों (नदियों) को कुरुक्षेत्र में आह्वान कर जिस स्थान पर स्थापित किया था वह सप्त सरस्वती तीर्थ के नाम से प्रसिद्ध हैl

वैदिक साहित्यों में अंकित सरस्वती नदी को पौराणिक काल में सूख जाने के पश्चात पुराणादि ग्रन्थों में अनेकानेक स्थानों पर पुण्यसलिला एवं सरित्श्रेष्ठ कहते हुए अत्यन्त महता प्रदान की गई है तथा पुराणों में ही सरस्वती के देवी रूप में मान्यता भी पूर्णता को प्राप्त होती हैlअनेक ऋषियों के स्तुति इसके प्रमाण ही हैंlमहाभारत शल्य पर्व अध्याय ४२ एवं वामन पुराण सरोवर महात्म्य अध्याय १९ में वशिष्ठ ऋषि सरस्वती नदी को स्तुति करते हुए उसे पुष्टि,कीर्ति, धृत्ति, बुद्धि, उमा,वाणी और स्वाहा,क्षमा, कान्ति,स्वधा आदि जगत् को अपने अधीन रखने वाली एवं सभी प्राणियों में चार रूपों- परा, पश्यन्ति, मध्यमा और बैखरी में निवास करने वाली कहा हैlयह स्तुति सरस्वती को नदी रूप की अपेक्षा देवता रूप को ही महिमामण्डित करता हैl
वेद-पुराणादि ग्रन्थों में अंकित इन वर्णनों से कतिपय विद्वानों के अनुसार सरस्वती मूलतः नदी थी जो हिमालय से निकलकर  पश्चिमी समुद्र में जा मिलती थीlकालान्तर में भौगोलिक कारणों से सरस्वती सूख गई फिर भी उसकी दृश्य भौतिक नदी रूप से होने वाले अनगिनत लाभों को देखते हुए वैदिक एवं पौराणिक श्लोकों में उसे नदीतमे और अम्बितमे ही नहीं देवितमे भी स्वीकार किया गया है

Monday 22 July 2019

जौहर एवं सतीप्रथा



स्प्ष्ट कर देना चाहता हूं कि जौहर अथवा सतीप्रथा सनातन धर्म की मूल संस्कृतियां नही थी परन्तु समय की गति में कुछ इस तरह का मोड़ आया कि इस प्रथा का जन्म हुआ ताकि सामाजिक पवित्रता तथा गर्भदुषिता से बचा जाए ||
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जौहर अथवा सती प्रथा के बिषय में कुछ तथाकथित बुद्धिजीवियों ने निकृष्ट और भ्रामकता का प्रचार इस कदर किया गया कि जनमानस में इस प्रथा के बिषय में बिपरीत विचारधारा की जड़े जनमानस को  जकड़ ली , जौहर और सती प्रथा का मूल उद्देश्य का ही लोप हो चुका ,
कहना न होगा कि विधवा माँ और बहनों को  दुराचारी कामोद्दीपन से उद्विग्न पुरुष  उन माताओ और बहनों को किस दृष्टिकोण से देखता होगा और समय का लाभ मिलते ही वे अपने कुकृत्य कार्य को भी पूरा करने के लिए हर वह षड्यंत्र अपनाता होगा जो एक दुराचारी पुरुष के लक्षण होते है , इस सत्यता को स्वीकार करने से कोई भी ब्यक्ति पीछे नही हट सकता जब आज समाज की परिस्थिति यह हो सकती है तो बिचार करिए कि उस कालखण्ड में क्या हुआ होगा जब यवन ,और अरब के लुटेरो ने यहाँ के पुरुषों का सर कलम कर उनकी माताओ बेटियों ,बहुओंऔर बहनों को अपने हरम में जबरन ले गया होगा और भेड़ियों के मानिंद उसे नोच नोच कर खाया होगा ।
जौहर और सती प्रथा स्वेच्छा से लिया गया निर्णय था  उन माताओ और बहनों का जिन्होंने यह निर्णय कीया की हम मृत्यु का वरण करेंगे परन्तु अपने गर्भ को दूषित न करेंगे ,

हमे गर्व होना चाहिए कि भारत के उन बीरो ने अपने मातृभूमि और अपने धर्म के राक्षण हेतु मृत्यु का वरण किया जिन्होंने ने मृत्यु का वरण किया होगा उनकी बहू बेटियों को संरक्षण प्रदान करने वाला उस समय मे कौन होगा ?
सायद कोई नही ,यवन और अरब के बर्बर लुटेरो ने अपने साथ स्त्रियों को नही लाया था वह तो यहाँ युद्ध मे बन्दि बनाये हुए  तथा जीते गए उन उन माताओ और बहनों को उठा कर अपने हरम में ले गया होगा उनसे बलात्कार किया होगा उनसे अवांछनीय संताने उतपन्न किया होगा ,ऐसी दशा में भारत के वीरांगनाओं ने जो शस्त्र विहीन युद्ध छेड़ा वह धर्म और बुद्धि बल का ही परिचायक बना उन उन माताओ और बहनों ने जो निर्णय लिया वह आत्ति सलाघ्नीय थी कि उनके गर्भ में मलेच्छो का बीज न पले और अवांछनीय सन्तानो को जन्म न दे ,उनका यह निर्णय अपने कुल और मर्यादा का रक्षण करने  वाला हुआ भारत की नारियां उन पुरुषो से भी आगे निकली जो बर्बर लुटेरो से  युद्ध और भय के कारण इस्लाम स्वीकार किया होगा ।
जौहर और सती प्रथा का यह निर्णय  तीब्रगति से बढ़ती हुई इस्लामिक जनसंख्या पर अंकुश लगाया अन्यथा आज भारत मे हिन्दू अल्पसंख्यक होते मुस्लिम नही ।
भारत के उन वीरांगनाओं ने स्वधर्म का पालन करते हुए स्वेच्छा से मृत्यु का वरण किया बनिस्पत उन मलेच्छो के हरम में जाने से , उन उन माताओ और बहनों को अपने स्वधर्म का बोध था परन्तु आज के तथाकथित बुद्धिजीवियों ने जौहर और सती प्रथा का मूल उद्देश्यों के प्रचार न कर उसे निकृष्ट दिखाने का जो प्रयास किया है वह अतिनिन्दनीय है
यवन,अरब, ईशायत ,ने सनातन धर्म को निकृष्ट दिखाने हेतु हर तरह का षड्यंत्र अपनाया उन षडयंत्रो का शिकार भारत के प्रबुद्ध पढ़े लिखे भी शिकार हुए और उनके सुर ताल में हाँ मे हाँ मिलाकर सनातन धर्म के सनातन संस्कृतियों पर वज्राघात किया भारत के माताओ और बहनों द्वारा शस्त्र विहीन ययुद्ध ने ही यहाँ के हिन्दुओ को बाहुल्य बनाये रखा यदि वे माताएं और बहने उन मलेच्छो का बीज अपने गर्भ में पालती तो भारत का दृश्य आज कुछ और ही होता ।
धन्य है यह भारत भूमि जहाँ समय समय पर माता सीता ,अग्निकन्या द्रोपदी ,झांसी जैसे अनेको दिब्य विभूतियों को जन्म दिया जिन्होंने अपने अपने तरीके से युद्ध लड़ कर दुष्टात्माओं का सर्वनाश किया ।
सत् सत् नमन है उन माताओ और बहनों को जिसने शस्त्रविहीन युद्ध मे भाग लिया और स्वेच्छा से मृत्यु का वरण कर इस्लामिक जनशख़्या पर अंकुश लगाया ।

गुरु पूर्णिमा और वेदव्यास

गुरुपूर्णिमा

आषाढ़ पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा कहते है । इसे व्यासपूर्णिमा  भी कहा जाता है । इसी दिन भगवान व्यास का जन्म हुआ था । इस  श्वेतवाराह कल्प के वैवस्वत मन्वंतर  में २८ द्वापर अब तक बीत चुके हैं | अत एव व्यास भी २८ हो चुके हैं जिनमे ब्रह्मा,  वशिष्ठ,  वाल्मीकि ,शक्ति ,पराशर और अंतिम व्यास भगवान कृष्ण द्वैपायन मुख्य हैं  । इनका नाम  परस्पर सम्बन्ध होने के कारण मैंने लिया है ।

यह गुरुपूर्णिमा भगवान कृष्ण द्वैपायन की  जन्म तिथि है  । इसलिए इस व्यासपूर्णिमा को गुरुपूर्णिमा भी कहा जाता  है .क्योंकि  भगवान व्यास की ही प्रदर्शित पद्धति का उनके परवर्ती कवियों एवं विद्वानों ने अनुसरण किया है । इसीलिये कहते है की जो कुछ विद्वानों ने लिखा है वह व्यास जी का उच्छिष्ट ही है ----

"व्यासोच्छिष्टं  जगत् सर्वम् ।।"

२८व्यासों में यही भगवान नारायण के साक्षात अवतार हैं ---

"कृष्णद्वैपायनं  व्यासं विद्धि नारायणं प्रभुम् ।।" ---विष्णु पुराण ३/४/५.

इनकी सबसे  बड़ी विशेषता यह है कि  इनकी परंपरा में कई व्यास हो चुके है जैसे भगवान ब्रह्मा, वशिष्ठ, शक्ति और इनके पिता स्वयं पराशर । अर्थात आज तक इनकी परंपरा में जो प्रकट हुए वे व्यास ही हुए हैं इसलिए परंपरा से चले आ रहे सभी ज्ञानों की प्राप्ति इन्हें सरलतया हो गयी  और श्रीहरि  के अवतार वाला  वैशिष्ट्य तो इनमें है ही । इनके उपदेष्टा गुरु देवर्षि नारद जी हैं । नारद जी के ४ शिष्य हैं २ बालक और २ वृद्ध,.बालक शिष्यों में ध्रुव तथा प्रह्लाद आते हैं और वृद्ध शिष्यों में भगवान वाल्मीकि और ये व्यास जी !                                                 

व्यासजी के अवतार का कारण

पहले १०० करोड़ श्लोकों का एक ही पुराण था जो लोकस्रष्टा ब्रह्मा जी के मुख से प्रकट हुआ ---

"पुराणां सर्वशास्त्राणां प्रथमं ब्रह्मणा स्मृतम् । नित्यं शब्दमयं पुण्यं शतकोटिप्रविस्तरम् ।।"-मत्स्य पुराण ३/३-४,

यह अति विशाल था जो आज हम लोगों के द्वारा  धारण =पढकर स्मरण नहीं किया जा  सकता था । इसीलिए व्यासजी का अवतरण होता है कि उसे 4लाख श्लोकों में संक्षिप्त करके हम लोगों को सुख पूर्वक  धारण योग्य बना दें । मत्स्यपुराण में इस तथ्य का  इस प्रकार उद्घाटन किया गया है--

"कालेनाग्रहणं  दृष्ट्वा पुराणस्य ततो नृप । व्यास रूपमहं कृत्वा संहरामि युगे युगे ।। चतुर्लक्षप्रमाणेन  द्वापरे द्वापरे सदा ।।

---53/8-9,

इस श्लोक की व्याख्या करते हुए भगवन्नामकौमुदीकार श्रीलक्ष्मीधर जी लिखते हैं –

"पूर्वसिद्धमेव पुराणम् सुखग्रहणाय संकलयामीत्यर्थः ।"

अर्थात् पूर्वकाल से विद्यमान पुराण का सुखपूर्वक ज्ञान कराने के लिए मैं संक्षिप्तरूप में इसका संकलन करता हूँ । आज भी १०० करोड़ श्लोकों का पुराण ब्रह्मलोक में स्थित है । देखें  –स्कन्द पुराण आ० रे० १/२८-२९ !

वेदों के विषय में भी यही  स्थिति है प्राणियों के तेज बुद्धि बल आदि को अल्प देखकर व्यासजी वेदों का विभाजन करते है जिससे लोग सुख पूर्वक उसे धारण कर सकें ---

"हिताय सर्वभूतानां वेदभेदान्  करोति सः ---विष्णु पुराण ३/३/६.

जिन लोगो का  अधिकार वेदों मे नही माना गया है ऐसे लोगोके लिये धर्म आदि का  ज्ञान कराने हेतु विपुलकाय महाभारत की  रचना भगवान व्यास  ने  की ।  पातंजलयोग दर्शन पर व्यास भाष्य लिखकर ये योगमार्ग को सर्व सुलभ कर दिए । उपनिषदों के गाम्भीर्य में डूब जाने वाले मनीषियो के अवलंबन हेतु ब्रह्मसूत्रों की रचना करके उपनिषद महासागर के संतरण हेतु ब्रह्मसूत्र रूपी सुदृढ़ नौका प्रदान करके जो उपकार भगवान बादरायण ने किया है उसका ऋण  न तो आचार्य शंकर न श्रीरामानुज न  आचार्य श्रीरामानंद आदि ही उतार सकते हैं । भगवद्गीता तो  महाभारत के ही अंतर्गत है  इसलिए हम उसकी पृथक चर्चा नहीं कर रहे हैं  । इन्हीं महत्वपूर्ण कार्यों के लिए भगवान व्यास का अवतरण होता है  !

माता –पिता

चेदि देश में एक राजा थे जिनका नाम था उपरिचर वसु  उनकी पत्नी का नाम गिरिका था वे परम सौंदर्यवती थीं । महाराज देवराज इन्द्र की उपासना से एक दिव्य विमान प्राप्त किये थे  जिससे इधर उधर सपत्नीक विचरण  करते थे! एक दिन महाराज आखेट हेतु गहन वन  में प्रवेश किये अधिक दूर निकल जाने से समयानुसार राजमहल  पहुँचने की संभावना नहीं थी ।  उन्हें ध्यान आया कि महारानी गिरिका ऋतुस्नाता  हैं आज उनके समीप पहुचना आवश्यक है ।

उधर  पत्नी का चिंतन और  इधर वसंत की  शीतल मंद सुगंध वायु दोनों ने मिलकर महाराज के धैर्य को डिगा दिया । अंततः उनके तेज का स्खलन हो गया, धार्मिक नृप ने सोचा की मेरे तेज का स्खलन निरर्थक नहीं हो सकता –ऐसा दृढ़ निश्चय करके उसे पत्रपुटक में रखकर स्वपोषित श्येन =बाज पक्षी को महारानी के पास पहुंचाने का निर्देश दिया । आकाश में उस पक्षी को  दूसरे श्येन ने देखा तो मांस समझकर आक्रमण कर बैठा । वह  रेतः पत्रपुटक सहित यमुना जी के जल में गिरा ।

उसमें मछली के रूप में अद्रिका नाम की एक अप्सरा रहती थी जो किसी ऋषि के शाप से मत्स्य योनि  को प्राप्त हुयी थी  वह उस तेज को निगल गई।  जिसके फलस्वरूप वह  गर्भवती हुई और अंत में जब मल्लाहों ने उसे पकड़कर  देखा तो  उसके उदर सेएक बालक और एक बालिका निकली । बालक को महाराज ने स्वयं ले लिया तथा उसका नाम मत्स्य रखा जो बाद में राजा बना ।

 बालिका में चूँकि मछली की गंध आती थी इसलिए उसे धीवरो ने लेकर लालन पालन किया यह कृष्ण वर्ण की थी इसीलिए लोग इसे काली भी कहते थे , वास्तविक नाम सत्यवती था ! द्वापर कलि की संधि का काल था ,इसके पिता भोजन कर रहे थे उसी समय  महर्षि पराशर पहुंचे और यमुना को पार करने के लिए नाविक को आवाज दिए ,विलम्ब होने से ऋषि क्रुद्ध हो जायेंगे इसलिए उसने पुत्री  सत्यवती को नौका द्वारा महर्षि को पार उतारने की आज्ञा दी ,सत्यवती ने  तत्काल पिता के मनोभाव को समझ लिया और नाव लेकर महर्षि के समीप पहुँच गयी ।

ऋषि के पादपद्मों में प्रणाम करके नौका में चढ़ने का संकेत किया । सर्वज्ञ महर्षि नौकारूढ़ हो गए , भगवच्चिन्तन करने वालो में अग्रगण्य ऋषि ने ध्यान  में देखा कि  इस समय इस देश मे इस मुहूर्त में यदि गर्भाधान किया जाय तो साक्षात नारायण  का अवतार होगा जिनसे विश्व का परम कल्याण होगा किन्तु मेरी पत्नी पास में है नहीं ,क्या करूँ ,जो पास में है वह अपरिणीता है और इसके शरीर से भयंकर दुर्गन्ध भी निकल रही है जिससे आज तक इसके साथ किसी ने विवाह तक नहीं किया ।

इसी ऊहापोह में पड़े महर्षि ने विश्व के भावी कल्याण को ध्यान में रखकर शीघ्र ही उसे सम्पूर्ण रहस्य बताया ,वह तो अपने दुर्गंधमय शरीर  के कारण स्वतः हीनभावना से ग्रस्त रहती थी ! जब अपने उदर से भगवान नारायण के प्रादुर्भाव का होना वह भी एक ब्रह्मवंशी सर्वज्ञ महर्षि के द्वारा सुनी तो उसका मनमयूर प्रसन्नता से नृत्य करने लगा !

   अब उसने अपने भावों को व्यक्त करते हुए प्रकाश की ओर संकेत किया ।  त्रिकालद्रष्टा महर्षि ने अपने  तीव्र तपोबल का प्रयोग झटिति किया कि कहीं वह दिव्य वेला निकल न जाय , संकल्प मात्र से सघन कुहरे की सृष्टि कर दी ,और भगवान का स्मरण करके गर्भाधान किया ।

विश्व कल्याण का कार्य तो हो गया किन्तु इस कन्या  का कन्यात्व भगवान के प्रकट होने बाद सुरक्षित रहे और इसके साथ विवाह हेतु बड़े से बड़े राजा लालायित रहें –इसकी व्यवस्था भी कर दी ,अब उसके शरीर से दुर्गन्ध की जगह सुगंध निकल रही थी । कुछ काल के उपरान्त भगवान व्यास का जन्म हुआ एक द्वीप में और ये कृष्ण वर्ण के थे जैसे माता  थी---

"काली पराशरात जज्ञे कृष्ण द्वैपायनं मुनिम्—"

अग्नि पुराण (कृष्ण वर्ण के कारण इनकी माता का एक उपनाम काली भी था )  इसलिए  रूप और स्थान को दृष्टि में रखकर इनका नाम कृष्णद्वैपायन पड़ा !

 यही भगवान कृष्णद्वैपायन हैं जिनका जन्म आषाढ़ पूर्णिमा को हुआ । विद्वज्जन तो इसे "व्यासपूर्णिमा" नाम से जानते है पर चूँकि व्यास जी ने विश्व के सकल कवियों लेखकों और अन्य ऋषियों की अपेक्षा इतना गुरुतर कार्य किया कि यह पूर्णिमा गुरुपूर्णिमा नाम से विख्यात हो गयी ।

 काशीवाशी आज भी वर्ष में एक बार व्यास काशी गाँव जाकर व्यास मंदिर में उनकी पूजा एवं दर्शन करते है । वहाँ  के विद्वानों में ऐसी प्रसिद्धि है कि वर्ष में एक बार जो काशी निवासी “व्यासकाशी” जाकर व्यास जी का दर्शन नहीं करता उसे काशीवास का फल नहीं मिलता है ।

हम लोग काशी में विद्याध्ययन काल में व्यासकाशी जाकर भगवान कृष्ण द्वैपायन का दर्शन किये हैं ,वहां बहुत बड़ा मेला लगता है  । इस पूर्णिमा को व्यासजी की पूजा अवश्य करनी चाहिए ।

जो लोग वर्ष में एकबार भी अपने गुरुदेव के समीप नहीं पहुँच सकते वे यदि गुरुपूर्णिमा को गुरु की पूजा कर लें तो कल्याण ही कल्याण है । भगवान बादरायण कि महिमा का वर्णन कोई नहीं कर सकता ---

वे चार मिख वाले न होकर भी लोकस्रष्टा ब्रह्मा हैं  चतुर्भुज न होकर भी द्विभुज दूसरे विष्णु हैं ५मुख तथा १५नेत्र न होने पर भी साक्षात भगवान शंकर हैं ----

"अचतुर्वदनो ब्रह्मा द्विबाहुरपरो  हरिः ! अभाललोचनः शङ्भुर्भगवान् बादरायणः ।।"

भगवद्बादरायणकृष्णद्वैपायनव्यासो विजयतेततराम्   


Thursday 18 July 2019

विश्वामित्र जन्मना ब्राह्मण थे

कथा का सारांश यह है कि विश्वामित्र के पिता का नाम गाधि था उनके कोई पुत्र नही था केवल एक कन्या थी उस कन्या का विवाह ऋचीक के साथ कर दी गई ,ऋचीक ऋषि ब्राह्मण थे गाधि की कन्या ने दीर्घकाल तक जब अपने पति की सेवा की तब ऋचीक ऋषि सन्तुष्ट हुए किसी महर्षि को संतुष्ट कर लेना सर्वलोकाधिपतीत्य प्राप्त होने से भी अधिक माना जाता था क्यो की सिद्ध तपस्वी के वरदान से सभी कुछ प्राप्त हो सकता है उस समाचार को सुन गाधि के पत्नी ने अपनी ने बेटी  से कहा की बेटी तु तो जानती है की तेरा कोई भाई नही है इस कारण तपस्वी महात्मा की कृपा से कोई प्रतापी पुत्र प्राप्त हो ऐसा कोई उपाय कर इसके पश्चात उसने अपने माता के कथनानुसार महर्षि रिची से जाकर कहा की एक ब्रह्मऋषि पुत्र मैं चाहती हूं और एक राजऋषि पुत्र मेरी माता चाहती है कृपा कर दोनों का मनोरथ पूरा कीजिये तब ऋचीक महर्षि ने यज्ञ किया उसमे दो प्रकार चरु बनाया जिसमे वेद मंत्र द्वारा दो प्रकार की शक्तियां  स्थापित कर के दोनों प्रकार के चरु को स्वपत्नी को देकर कहा की यह चरु तुम्हारे लिए है इसको खाने से वेदवेत्ता तेजस्वी ब्रह्मऋषि ब्राह्मण उतपन्न होगा और यह दूसरा चरु तुम्हारे माता के लिए है इसको खाने से प्रतापी क्षत्रिय उतपन्न होगा तब वह गाधि पुत्री उभय विध चरु अपने माता के पास लेकर गई और ऋषि द्वारा बताए हुए बिधान सहित सब वृतान्त अपनी माता से कहा इस पर् माता ने कहा बेटी तु जानती है कि तेरे लिए जो चरु दिया गया है वह अत्यंत ही महत्वपूर्ण होगा और तेरे भ्रात का  महत्व  अधिक हो यह तू भी अच्छे से मानती होगी तब तू अपना चरु मुझे दे दे और मेरा चरु चरु तू खा ले और बिधान भी परिवर्तन कर ले ,यह बिचार लड़की ने मान लिया और परिवर्तित बिधान के सहित बदला हुआ चरु दोनों ने खा लिया ,
और कुछ दिन पश्चात दोनों गर्भवती भी हुई ,ऋचीक ऋषि ने अपनी पत्नी के चेष्टा देख कर वह गुप्त वृतान्त जान लिया क्योकि गर्भवती की आकृति पर ब्रह्मतेज नही दिख पड़ा तब महर्षि ऋचीक ने कहा तुमलोगो ने बड़ा अनर्थ किया जो चरु बदल लिया अब इसका परिणाम यह होगा की तुम्हारी माता के गर्भ से ब्रह्मऋषि ब्राह्मण उतपन्न होगा और तुम्हारा पुत्र क्षत्रिय तेजवाला होगा फिर ऋचीक की पत्नी की अधिक प्रार्थना करने पर महर्षि ऋचीक ने कहा की तुम्हारा पुत्र ब्राह्मण तो होगा परन्तु चरु में क्षत्रतेज स्थापित किया गया है वह पुत्र में प्रादुर्भूत न होकर पौत्र में क्षत्रधर्म उग्रप्रताप प्रकट होगा इस कथन के अनुसार ऋचीक के पुत्र जन्मदग्नि महर्षि हुए और जन्मदग्नि से परशुराम हुए जो ऋचीक के पौत्र थे उनमें क्षत्रतेज प्रज्वलित हुआ सो प्रसिद्ध ही है इस उपाख्यान से सिद्ध हुआ कि महर्षि विश्वामित्र की उत्पत्ति महर्षि ऋचीक के उस चरु से हुआ जो वेदवक्ता ब्रह्मऋषि उतपन्न करने के लिए दिया गया था किन्तु क्षत्रिय के रजबीर्य  से यह उत्पती  नही हुई इसी कारण विश्वामित्र जन्म से ही ब्राह्मण थे यदि ऐसा होना असम्भव कहो तो इतिहास पुराणादि का मानना ही नही बनता उसको न माना जाय तो क्ष्ट्री से ब्राह्मण होना भी बन नही सकता ।
जिस इतिहास के आधार पर विश्वामित्र को क्षत्रिय होने की डुगडुगी पिटी जाती है वह इतिहास जैसे उस अंश में माना जाता है वैसे ही विश्वामित्र के उत्पति का इतिहास मानना पड़ेगा जो कि महाभारत में स्प्ष्ट कहा गया है कि उस गर्भ से ब्राह्मण बालक का जन्म होगा अब जिसकी उत्पति के पूर्व ही यह स्प्ष्ट हो जाता है कि जन्म लेने वाला बालक जन्मना ब्राह्मण होगा फिर उस पर् शंका करना ही निराधार है ।

Friday 12 July 2019

जाति वर्ण

शास्त्र क्या है?,  शास्त्र का महत्त्व क्या है? अाैर  शास्त्र की मर्यादा में सभी लाेगाें का रहना क्याें अावश्यक है? ।

वैदिक सनातन वर्णाश्रमधर्म की परम्परा में मूल शास्त्र वेद ही है । इसी लिए  वेद पढने के लिए द्विजातियाें का उपनयन अनिवार्य रूप में किया जाता है, शास्त्राेक्त विधि से वेद पढाया जाता है ।
वेद मन्त्रब्राह्मणात्मक है ।
वेद ऋग् वेद यजुर् वेद सामवेद अथर्ववेद करके चार विभागाें में विभक्त है । ऋग् वेदादि प्रत्येक विभाग की अनेक शाखाएं हैं ।
इस प्रकार का वेद ही मुख्य शास्त्र है । अतः कहा गया है कि
(क) न वेदशास्त्रादन्यत् तु किञ्चिच् छास्त्रं हि विद्यते ।
             (बृहद् याेगियाज्ञवल्क्यस्मृति १२।१ )।
(ख) नास्ति वेदात् परं शास्त्रम् । (अत्रिसंहिता, श्लाेक १५१ )।
(ग) न वेदेन समं शास्त्रम् । (पद्मपुराण ४।९४।३७) (अानन्दाश्रमसंस्करण) ।
(घ) यदन्यद् वेदवादेभ्यस् तदशास्त्रमिति श्रुतिः ।(महाभारत शान्तिपर्व २६९।५९)।
(ङ) यानीहाssगमशास्त्राणि याश् च काश् च प्रवृत्तयः ।
तानि वेदं पुरस्कृत्य प्रवृत्तानि यथाक्रमम् ।। (महाभारत, अनुशासनपर्व १२२।४)।
(च) सर्वज्ञात् सर्वशक्तेश् च मत्ताे वेदः समुत्थितः ।
अज्ञानस्य ममाsभावादप्रमाणा न च श्रुतिः ।।
स्मृतयश् च श्रुतेरर्थं गृहीत्वैव च निर्गताः ।
मन्वादीनां श्रुतीनां च ततः प्रामाण्यमिष्यते ।।( देवीभागवत ७। ३९।१६,१७ )।

इस मूल शास्त्ररूप वेद के  स्वरूप अर्थ प्रयाेग अाैर रहस्य काे समझने के उपाय के रूप में मुनियाें ने शिक्षा कल्प व्याकरण निरुक्त छन्दश्शास्त्र अाैर ज्याेतिष ये छह वेदाङ्ग हम लाेगाें काे दिए हैं ।
वेद का इन ही वेदाङ्गाें के प्रकाश से प्रकाशित अर्थ ही यथार्थ अाैर ग्राह्य माना जाता है ।

अतः ये ही वेदवेदाङ्ग मुख्य शास्त्र हैं । अन्य स्मृति-पुराण-रामायण-महाभारतादि के वचन ताे वेद में विहित उक्त सूचित अाकाङ्क्षित तथा वेद के अनुकूल अाैर अविराेधी अर्थ के प्रतिपादक हाेने पर ही धर्म में अाैर माेक्ष में प्रमाण माने जाते हैं ।
इस प्रकार  वेद अज्ञान भ्रम प्रमाद विप्रलिप्सा (लाेगाें काे ठगने की इच्छा) इत्यादि दाेष से रहित अाैर मनुष्याें के कल्याण का मार्ग का दर्शक हाेने से इसका वैदिक सनातन वर्णाश्रमधर्म में महत्त्व अत्यन्त प्रभूत (बहूत) है ।

इसी लिए वेद का अाैर वेदाेपजीवी वेदाङ्गस्मृत्यादि का महत्त्व सर्वत्र गाया गया है, जैसे--
१. वेदाे धर्ममूलम् ।(गाैतमधर्मसूत्र १।१।१) ।
२. वेदाेsखिलाे धर्ममूलम् ।(मनुस्मृति २।६) ।
३.धर्मं जिज्ञासमानानां प्रमाणं परमं श्रुतिः ।(मनुस्मृति २।१३) ।
४.न वेदानां परिभवान् न शाठ्येन न मायया ।
महत् प्राप्नाेति पुरुषाे ब्रह्मणि ब्रह्म विन्दति ।।(महाभारत, शान्तिपर्व २६९।१९)।
५.यथा गङ्गासमा पुण्या नदी लाेके न विद्यते ।
तथा वेदसमं मानं नास्ति तत्र न संशयः ।।(सूतसंहिता,यज्ञवैभवखण्ड २०।३७) ।
६.मूलस्तमभाे भवेद् वेदः शाखाश् चाsन्यानि यानि तु ।
मूले ह्युपासिते सम्यग् फलं भवति नाsन्यथा ।।(बृहद् याेगियाज्ञवल्क्यस्मृति१२।२५) ।
७.न च वेदादृते शास्त्रं किञ्चिद् धर्माsभिधायकम् ।
याेsन्यत्र रमते साेsसाै न सम्भाष्याे द्विजातिभिः ।।
तस्मात् सर्वप्रयत्नेन धर्मार्थं वेदमाश्रयेत् ।
धर्मेण सहितं ज्ञानं परं ब्रह्म प्रकाशयेत् ।।(कूर्मपुराण १।१२।२६०,२७४) ।
८. न हि प्रवृत्तिर् विष्णाेस् तु विना वेदं प्रवर्तते ।
परेषां स्वस्य वा सृष्टाै श्रुतिप्रामाण्यवान् प्रभुः ।।(स्कन्दपुराण, वैष्णवखण्ड २।११।५) ।
९.वेदप्रणिहिताे धर्माे ह्यधर्मस् तद्विपर्ययः ।
वेदाे नारायणः साक्षात् स्वयम्भूरिति सुश्रुम ।।( भागवत ६।१।४०) ।
१०.वेदा मे परमं चक्षुर् वेदा मे परमं बलम् ।
वेदा मे परमं धाम वेदा मे ब्रह्म चाेत्तरम् ।। (महाभारत, शान्तिपर्व ३४७।३२) ।
११.साधु वाsप्यथवाsसाधुः प्रमाणं नः श्रुतिः परा ।(स्कन्दपुराण १।२।४०।८२) ।
१२.धर्मशब्दाsभिधेयेर्थे प्रमाणं श्रुतिरेव नः ।
परमाे याेगपर्यन्ताे धर्मः श्रुतिशिराेगतः ।।( शिवपुराण ७।१।३२।५,६)।
१३.अतीन्द्रियेsर्थे धर्मे च तथाsधर्मे परात्मनि ।
प्रमाणं वेद एवैकः खलु नाsन्यत् तपाेधन ।।(पराशरपुराण १७।१९) ।
१४.रूपाsवलाेकने चक्षुर् यथाsसाधारणं भवेत् ।
तथा धर्मादिविज्ञाने वेदाेsसाधारणः परः ।।(स्कन्द. सूतसंहिता,सूतगीता३।३३) ।
१५.पितृ-देव-मनुष्याणां वेदश् चक्षुस् तवेश्वर ।
श्रेयस् त्वनुपलब्धेर्थे साध्यसाधनयाेरपि ।।(भागवत ११।२०।४ )।
१६. सर्वथा वेद एवासाै धर्ममार्गप्रमाणकः ।(देवीभागवत ११।१।२६) ।
१७.नाsवेदविन् मनुते तं बृहन्तम् ।(तैत्तिरीयब्राह्मण ३।१२।६।७) ।
१८. तत् प्रमाणं बादरायणस्यानपेक्षत्वात् ।(जैमिनीयधर्ममीमांसासूत्र १।१।५) ।
१९.अतीन्द्रियेर्थे धर्मादाै शिवे परमकारणे ।
श्रुतिरेव सदा मानं स्मृतिस् तदनुसारिणी।।(स्कन्द.सूतसंहिता,सूतगीता ८।१९)।
२०.पुराणाद्युक्तधर्माणां नानादानादिरूपिणाम् ।
सुकृतत्वं वदन्त्येते न धर्मत्वं तु वैदिकाः ।।
( लाैगाक्षिस्मृति,स्मृतिसन्दर्भ,षष्ठ भाग, पृष्ठ २७५) ।
२१.अमीमांसा बहिःशास्त्रा ये चाsन्ये वेदवर्जिताः ।
ते यद् ब्रूयुर् न तत् कुर्याद् वेदाद् धर्माे विधीयते।।     (शुक्लयजुर्वेदीयनिगमपरिशिष्ट)।
२२. यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः ।
 न स सिद्धिमवाप्नाेति न सुखं न परां गतिम् ।।
 तस्माच् छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याsकार्यव्यवस्थिताै।
ज्ञात्वा शास्त्रविधानाेक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि ।।(गीता १६।२३,२४) ।
२३. श्रुतिस्  तु वेदाे विज्ञेयाे धर्मशास्त्रं तु वै स्मृतिः।
ते सर्वार्थेष्वमीमांस्ये ताभ्यां धर्माे हि निर्बभाै ।।
याेsवमन्येत ते मूले हेतुशास्त्राश्रयाद् द्विजः ।
स साधुभिर् बहिष्कार्याे नास्तिकाे वेदनिन्दकः।।
(मनुस्मृति २।१०।११, विष्णुधर्माेत्तरपुराण ३।१३३।६१,६२) ।
२४.अप्रामाण्यं च वेदानामार्षाणां चैव कुत्सनम् ।
अव्यवस्था च सर्वत्र एतन् नाशनमात्मनः ।।(वासिष्ठधर्मसूत्र१२।४१) ।
२५.अप्रामाण्यं च वेदानां शास्त्राणां चाsभिलङ्घनम्।
अव्यवस्था च सर्वत्र तद् वै नाशनमात्मनः ।।(महाभारत,शान्तिपर्व ७९।१९) ।
२६.अप्रामाण्यं च वेदानां शास्त्राणां चाsभिलङ्घनम्।
अव्यवस्था च सर्वत्र एतन् नाशनमात्मनः ।।(महाभारत,अनुशासनपर्व ३७।१) ।
२७.लाेकाे निरङ्कुशःसर्वाे मर्यादालङ्घने रतः।
मर्यादा स्थापिता तेन शास्त्रं वीक्ष्य महर्षिभिः ।।
(स्कन्दपुराण,अावन्त्यखण्ड ३।१४६।४१)।
२८.न चाssगमादृते धर्मस् तर्केण व्यवतिष्ठते ।
ऋषीणामपि यद् ज्ञानं तदप्यागमहेतुकम् ।।(वाक्यपदीय १।३०) ।
२९.यथायथा हि पुरुषः शास्त्रं समधिगच्छति ।
तथातथा विजानाति विज्ञानं चाsस्य राेचते ।।(मनुस्मृति ४।२०)।
३०यथायथा हि पुरुषः शास्त्रं समधिगच्छति ।
तथातथा विजानाति विज्ञानं चाsस्य राेचते ।।
अविज्ञानादयाेगाे हि पुरुषस्याेपजायते ।
विज्ञानादपि याेगश् च याेगाे भूतिकरः परः ।।
(महाभारत, शान्तिपर्व १३०।१०,११)।
३१.शब्दप्रमाणका वयम्, यच् छब्द अाह तदस्माकं प्रमाणम् ।
(पतञ्जलिकृत पाणिनीयव्याकरणभाष्य ,पस्पशाह्निक २।१।१, वार्तिक ५) ।
.३२.ये नियाेगांश् च शास्त्राेक्तान् धर्माsधर्मविमिश्रितान् ।
पालयन्तीह ये वैश्य न ते यान्ति यमालयम् ।।(पद्मपुराण,स्वर्गखण्ड,३१।३९) ।
३३.प्रवृत्ताै च निवृत्ताै च श्रुतिशास्त्राेक्तमेव च ।
अाचरन्ति महात्मानस् ते नराः स्वर्गगामिनः।।
(पद्मपुराण,भूमिखण्ड ९६।३६,पातालखण्ड.९६।८९,९०) ।
३४.क्रिया च शास्त्रनिर्दिष्टा रागद्वेषविवर्जिता ।
कर्तव्याsहरहः श्रद्धापुरस्कारेण शक्तितः ।।(मार्कण्डेयपुराण १६।५९,६०) ।
२४.एवं सर्वेन्द्रियारम्भान् वेदपूर्वान् समाचरेत् ।
ब्राह्मणाे भूतिसम्पन्नाे य इच्छेद् भूतिमात्मनः ।।(हरिवंश ३।२४।१५) ।
३५.प्रवृत्तिं वचनात् कुर्वन् निवृत्तिमपि कर्मणाम् ।
एवं व्यवहरन् नित्यं गृहस्थाेsपि हि मुच्यते ।।(प्रजापतिस्मृति,श्लाेक १४६) ।
३६.यद् विना धर्मशास्त्रेण प्रायश्चित्तं विधीयते ।
न तेन शुद्धिमाप्नाेति प्रायश्चित्ते कृतेsपि सः ।।
         (पाराशरमाधवीय,प्रथमभाग,पृष्ठ १०२) ।
३७.वचः पूर्वमुदाहार्यं यथाेक्तं धर्मवक्तृभिः ।
पश्चात् कार्याsनुसारेण शक्त्या कुर्युरनुग्रहम् ।।
न हि तेषामतिक्रम्य वचनानि महात्मनाम् ।
प्रज्ञानैरपि विद्वद्भिः शक्यमन्यत् प्रभाषितुम् ।।
(पाराशरमाधवीय,प्रथमभाग,पृष्ठ १६२) ।
३८. अश्राैत-स्मार्त-विहितं प्रायश्चित्तं वदन्ति ये ।
तान् धर्मविघ्नकर्तृंश् च राजा दण्डेन पीडयेत् ।।(यमस्मृति, श्लाेक ५९) ।
३९.ज्याैतिषं व्यवहारं च प्रायश्चित्तं चिकित्सितम् ।
विना शास्त्रेण याे ब्रूयात् तमाहुर् ब्रह्मघातकम् ।।
(हेमाद्रिकृत चतुर्वर्गचिन्तामणि, प्रायश्चित्ताध्याय,पृष्ठ ९८७) ।
४०.चित्तं च वित्तं च नृणां विशुद्धं शस्तश् च कालः कथिताे विधिश् च ।
पात्रं यथाेकतं परमा च भक्तिर् नृणां प्रयच्छन्त्यभिवाञ्छितानि ।।
(वराहपुराण१३।४८,विष्णुपुराण३।१४।२०,स्कन्दपुराण,अावन्त्यखण्ड १।१६।२२)।
४१.यथाेक्तं कुरुते यस् तु विधिवत् सुकृतं नरः ।
स्वल्पं मुनिवरश्रेष्ठ मेरुतुल्यं फलं भवेत् ।।
विधिहीनं तु यः कुर्यात् सुकृतं मेरुमात्रकम् ।
अणुमात्रं तदाप्नाेति फलं धर्मस्य नारद ।।(पद्मपुराण, उत्तरखण्ड ६१।१३,१४) ।
४२.स्नानं दानं जपाे हाेमाे देवपूजा द्विजाsर्चनम् ।
अक्षयं जायते सर्वं विधिवच् चेद् भवेत् कृतम् ।।
       (स्कन्दपुराण,प्रभासखण्ड२।१३।१०)।
४३.विधिदृष्टं तु यत् कर्म कराेत्यविधिना तु यः ।
न फलं किञ्चिदाप्नाेति क्लेशमात्रं तु तस्य तत् ।।....
श्रद्धा-विधि-समायुक्तं कर्म यत् क्रियते नृभिः ।
शुचिशुद्धेन भावेन तदानन्त्याय कल्पते ।।
विधिहीनं भावदुष्टं कृतमश्रद्धया च यत् ।
तद् हरन्त्यसुरास् तस्य मूढस्य त्वकृतात्मनः ।।
( याेगयाज्ञवल्क्यवचन, हेमाद्रिकृत चतुर्वर्गचिन्तामणि,श्राद्धकल्पखण्ड,पृष्ठ ८८३,८८४) ।
४४.यः कश्चित् कुरुते धर्मं विधिं हित्वा दुरात्मवान् ।
न तत्फलमवाप्नाेति कुर्वाणाेsपि विधिच्युतः ।।
(लघुहारीतस्मृति,३।३,स्मृतिसन्दर्भ,पृष्ठ ९७९) ।
४५.स्वाsभिप्रायकृतं कर्म विधि-विज्ञान-वर्जितम् ।
क्रीडाकर्मेव बालानां तत् सर्वं स्यान् निरर्थकम् ।।
(अाङ्गिरसस्मृति,उत्तराङ्गिरस १।१०,स्मृतिसन्दर्भ पञ्चमभाग,पृष्ठ ३०६६,पाराशरमाधवीय,प्रथमभाग,पृष्ठ २९१) ।
४६.पूर्वं निश्चित्य शास्त्रार्थं यथावत् कर्मकारकः ।
अवेदनिन्दकाे धीमानधिकारी व्रतादिषु ।।
(हेमाद्रिकृत चतुर्वर्गचिन्तामणि,व्रतखण्ड,प्रथमभाग,पृष्ठ ३२५) ।
४७.देशं कालं युक्तपात्रं युक्तं चाsयुक्तमृव च ।
शास्त्रदृष्ट्या समालाेच्य पश्चाद् धर्मं समाचरेत् ।।
(लाेहितस्मृति,श्लाेक ५२६,५२७)।
४८.तत् समाप्य यथाेद्दिष्टं पूर्वकर्म समाहितः ।
दातुं निर्वपणं सम्यग् यथावदहमारभम् ।।
ततस् तं दर्भविन्यासं भित्त्वा सुरुचिराङ्गदः ।
प्रलम्बाभरणाे बाहुरुदतिष्ठद् विशां पते ।।
तमुत्थितमहं दृष्ट्वा परं विस्मयमागमम् ।
प्रतिग्रहीता साक्षान् मे पितेति भरतर्षभ ।।
तताे मे पुनरेवासीत् संज्ञा संचिन्त्य शास्त्रतः ।
नाsयं वेदुषु विहिताे विधिर् हस्त इति प्रभाे ।।
पिण्डाे देयाे नरेणेह तताे मतिरभून् मम।
साक्षान् नेह मनुष्यस्य पिण्डं हि पितरः क्वचित् ।।
गृह्णन्ति विहितं चेत्थं पिण्डाे देयः कुशेष्विति ।
तताेsहं तदनादृत्य पितुर् हस्तनिदर्शनम् ।।
शास्त्र-प्रामाण्य-सूक्ष्मं तु विधिं पिण्डस्य संस्मरन् ।
तताे दर्भेषु तत् सर्वमददम् भरतर्षभ ।।
शास्त्र-मार्गा-sनुसारेण तद् विद्धि मनुजर्षभ ।
ततः साेsन्तर्हिताे बाहुः पितुर् मम जनाधिप ।।
तताे मां दर्शयामासुः स्वप्नान्ते पितरस् तथा ।
प्रीयमाणास् तु मामूचुः प्रीताः स्म भरतर्षभ ।।
विज्ञानेन तवानेन यन् न मुह्यसि धर्मतः ।
त्वया हि कुर्वता शास्त्रं प्रमाणमिह पार्थिव ।।
अात्मा धर्मः श्रुतं वेदाः पितरश् चर्षिभिः सह ।
साक्षात् पितामहाे ब्रह्मा गुरवाेथ प्रजापतिः ।।
प्रामाण्यमुपनीता वै स्थिताश् च न विचालिताः ।
तदिदं सम्यगारब्धं त्वयाsद्य भरतर्षभ ।।
(महाभारत, अनुशासनपर्व,अध्याय ८४, श्लाेक १४ से २५ तक) ।
४९.श्राद्धकाले मम पितुर् मया पिण्डः समुद्यतः ।
तं पिता मम हस्तेन भित्त्वा भूमिमयाचत ।।
हस्ताssभरण-पूर्णेन केयूराssभरणेन च ।
रक्ताsङ्गुलि-तलेनाsथ यथा दृष्टः पुरा मया ।।
नैष कल्पे विधिर् दृष्ट इति सञ्चिन्त्य चाsप्यहम् ।
कुशेष्वेव ततः पिण्डं दत्तवानविचारयन् ।।....
त्वया च भरतश्रेष्ठ वेदधर्माश्च शाश्वताः।
कृताः प्रमाणं प्रीतिश् च मम निर्वर्तिताsतुला ।।
तस्मात् तवाsहं सुप्रीतः प्रीत्या च वरमुत्तमम् ।
ददामि त्वं प्रतीच्छ त्वं त्रिषु लाेकेषु दुर्लभम् ।।
न ते प्रभविता मुत्युर् यावज् जीवितुमिच्छसि ।
त्वत्ताेsभ्यनुज्ञां सम्प्राप्य मृत्युः प्रभविता तव ।।
(हरिवंश १।१६।१९,२०,२१,..२७,२८,२९, शिवपुराण ५।४०।२१,२२,२३,२४,२५, २६,२७) ।
५०.रामाे रुद्रपदे श्राद्धे पिण्डदानाय चाेद्यतःः ।
पिता दशरथः स्वर्गात् प्रसार्य करमागतः ।।
नाsदात् पिण्डं करे रामाे ददाै रुद्रपदे ततः ।
शास्त्राsर्थातिक्रमाद् भीतं रामं दशरथाेsब्रवीत् ।।
तारिताेsहं त्वया पुत्र रुद्रलाेकमवाप्नुयाम् ।
हस्ते पिण्डप्रदानेन स्वर्गतिर् न हि मे भवेत् ।।
त्वं च राज्यं चिरं कृत्वा पालयित्वा द्विजान् प्रजाः ।
यज्ञान् सदक्षिणान् कृत्वा विष्णुलाेकं व्रजिष्यसि ।।
पुर्ययाेध्याजनैः सार्धं कृमि-कीटा-ssदिभिः सह ।
इत्युक्त्वाsथाे दशरथाे रुद्रलाेकं परं ययाै ।।
( वायुपुराण २।४९। ७५, ७६,७७,७८,७९, बृहन् नारदीयपुराण २।४६।४१,४२,४३,४४,४५) ।
५१.भीष्माे विष्णुपदे श्रेष्ठे अाहूय पितरं स्वकम् ।
श्राद्ध. कृत्वाेद्यताे दातुं पित्रादिभ्यश् च पिण्डकम् ।।
पितुर् विनिर्गताै हस्ताै गयाशिरसि शन्तनाेः ।
नाsदात् पिण्डं करे भीष्माे ददाै विष्णुपदे ततः ।।
(भीष्मः पिण्डं ददाै भूमाै नाsधिकारः करे यतः )
शन्तनुः प्राह सन्तुष्टः शास्त्रार्थे निश्चलाे भवान् ।
त्रिकालदृष्टिर् भवतु चाsन्ते विष्णुश् च ते गतिः ।।
स्वेच्छया मरणं चाsस्तु इत्युक्त्वा मुक्तिमागतः ।
( वायुपुराण २।४९।८२,८१,८२,८३, बृहन् नारदीयपुराण २।४६।३७,३८,३९,४०) ।
५२.शाेभा-साैकर्य-हेतूक्ति-कलिकाल-वशेन वा ।
यज्ञाेक्त-पशुहिंसादि-त्याग-भ्रान्तिमवाप्नुयुः ।।
(कुमारिलभट्टकृत तन्त्रवार्तिक १।३।४) ।
५३.तस्मादनुग्रहं पीडां तदभावमपास्य च ।
धर्माsधर्माsर्थिभिर् मृग्याै नित्यं विधि-निषेधकाै ।।
(कुमारिलभट्टकृत श्लाेकवार्तिक,चाेदनासूत्र,श्लाेक २४८।२४९)।
५४.एक एव चरेद् धर्मं नाsस्ति धर्मे सहायता ।
केवलं विधिमासाद्य सहायः किं करिष्यति ।।(महाभारत,शान्तिपर्व १९३।३२) ।
५५.मा स्माsधर्मेण लाेभेन लिप्सेथास् त्वं धनाssगमम् ।
मर्माsर्थावध्रुवाै तस्य याे न शास्त्र-पराे भवेत् ।।(महाभारत,शान्तिपर्व ७१।१३) ।
५६.न हि शास्त्रमविज्ञाय वृद्धाननुपसेव्य च ।
धर्माsर्थाै वेदितुं शक्याै बृहस्पतिसमैरपि ।।
(महाभारत,वनपर्व १५०।२६,उद्याेगपर्व ३९।४०)।
५७.पवित्रस्याsपवित्रस्याsशुद्ध्यशुद्ध्याेर् द्विजन्मनाम् ।
शास्त्रज्ञानां वाक्यमात्रमेकं मुख्यं निरूपकम् ।।
(लाैगाक्षिस्मृति,स्मृतिसन्दर्भ,षष्ठ भाग,पृष्ठ २७५, मनसुखराय माेर,५ क्लाइब राे,कल्कत्ता १,विक्रमसंवत् २०१३,इशवीय सन् १९५७) ।
५८.वेदशास्त्राण्यधीते यः शास्त्रार्थं च निषेवते ।
तदाsसाै वेदवित् प्राेक्ताे वचनं तस्य पावनम् ।।(अत्रिसंहिता, श्लाेक १४२,१४३) ।
५९.कर्म कर्तव्यमित्येव विहितेष्वेव कर्मसु ।
बन्धनं मनसाे नित्यं कर्मयाेगः स उच्यते ।।(त्रिशिखब्राह्मणाेपनिषत् २५,२६) ।
६०.व्रतं नाम वेदाेक्त-विधि-निषेधाsनुष्ठान-नैयत्यम् ।
(शाण्डिल्याेपनिषत् २,पृष्ठ ४१०) ।
६१.स्वाsनुभूतेश् च शास्त्रस्य गुराेश् चैवैकवाक्यता ।
यस्याsभ्यासेन तेनाssत्मा सततं चाsवलाेक्यते ।।(महाेपनिषत् ४।५) ।
६२.व्यवस्थिताssर्यमर्यादः कृत-वर्णा-ssश्रम-स्थितिः ।
त्रय्या हि रक्षिताे लाेकः प्रसीदति न सीदति ।।(काैटलीय अर्थशास्त्र,१।३।४) ।

अतः व्यक्ति कुटुम्ब कुल समाज राष्ट्र सभी के सुव्यवस्था से सभी काे धर्म अर्थ काम माेक्ष पुरुषार्थाें की साधना का सुअवसर प्राप्त हाेने की परिस्थिति बनाने के लिए वैदिकसनातनवर्णाश्रमधर्मानुयायी शुद्धकुलीन ब्राह्मणादि जनाें काे देश काल परिस्थिति स्वशक्ति के अनुकूल जितना  सम्भव हाेता है उतना वेदशास्त्र का ही विधान का अनुसरण करके स्ववर्णाश्रमधर्म का पालन करना चाहिए । वेदशास्त्र का अनादर करके वर्णाश्रमधर्म काे छाेडकर वर्णधर्ममर्यादा काे अाैर अाश्रमधर्ममर्यादा काे ताेडकर शास्त्रप्रामाण्य काे ध्वस्त करके मनमाना अाचरण नहीं करना चाहिए । वर्णाश्रमधर्म काे छाेडकर अन्य मार्ग में जाने पर नरक में जाना पडेगा । मनुस्मृति में कहा है कि --
स्वेभ्यःस्वेभ्यस् तु कर्मभ्यश् च्युता वर्णा ह्यनापदि ।
पापान् संसृत्य संसारान् प्रेष्यतां यान्ति शत्रुषु ।।
वान्ताश्युल्कामुखः प्रेताे विप्राे धर्मात् स्वकाच् च्युतः ।
अमेध्यकुणपाशी च क्षत्रियः कटपूतनः ।।
मैत्राक्षज्याेतिकः प्रेताे वैश्याे भवति पूयभुक् ।
चैलाशकश् च भवति शूद्राे धर्मात् स्वकाच् च्युतः ।।(मनुस्मति १२।७०,७१,७२।।
अन्यत्र भी कहा गया है--
श्रुतिस्  तु वेदाे विज्ञेयाे धर्मशास्त्रं तु वै स्मृतिः।
ते सर्वार्थेष्वमीमांस्ये ताभ्यां धर्माे हि निर्बभाै ।।
याेsवमन्येत ते मूले हेतुशास्त्राsश्रयाद् द्विजाः ।s
स साधुभिर् बहिष्कार्याे नरकाग्नेस्  तु भाजनम् ।।
( विष्णुधर्माेत्तरपुराण ३।१३३।६१,६२) ।
याे वेदधर्ममुज्झित्य वर्ततेsन्यप्रमाणतः ।
कुण्डानि तस्य शिक्षार्थं यमलाेके वसन्ति हि ।।(देवीभागवत ११।१।२७) ।
परविद्या अाैर अपरविद्या दाे विद्या वेदप्रतिपादित है, उनके क्षेत्र में अाैर नियम में भी भेद है, दाे क्षेत्राें के विषयाें का साङ्कर्य करके विचार करने से विषय का यथार्थ ज्ञान नहीं हाे सकता है । भ्रम ही फैलता है । अतः यह अविवेक त्याज्य है ।
वेदाध्ययनाध्यापन की यह व्यवस्था  अज्ञायमानादि पम्परागत वैदिक व्यवस्था है, किसी एक व्यक्ति की व्यवस्था नहीं है, एक व्यक्ति काे गालि देने से क्या हाेगा?  ब्राह्मणादि त्रैवर्णिक भी  गुरु से भी श्रद्धा विना गुरुशुश्रूषा विना धनबलादि से दम्भ के लिए वेद पढ लेता है ताे उस से प्राप्त धर्मज्ञान मान्य नहीं है , गुरु से सुने विना लिखित वा मुद्रित पुस्तक से ब्राह्मण भी वेद पद पढता है ताे वह भी मान्य नहीं है , किसी सीधे सादे ब्राह्मण गुरु से छलछद्मादि किसी प्रकार से शूद्र वेद प्राप्त करलेता है ताे वह भी मान्य नहीं है । यह वैदिक परम्परा है । वैदिकधर्मरक्षकशिराेमणि कुमारिलभट्टपाद  इस परम्परा काे स्पष्ट करके गए हैं । वे कहते हैं कि  तथैवान्यायविज्ञाताद् वेदाल् लेख्यादिपूर्वकाद् । शूद्रेणाधिगताद् वापि धर्मज्ञानं न सम्मतम् ।।(तन्त्रवार्तिक ) । यह वैदिक परम्परा किसी से बदलने का प्रयास करने से नहीं बदलता है । अार्यसमाजी दयानन्द  ने इस व्यवस्था काे बदलना चाहा, किन्तु सनातनी वैदिक ब्राह्मणाें से वह पाखण्ड ही माना गया, उस की व्यवस्था सनातनियाें के लिए सर्वथा अमान्य ही रही । अाज भी सर्वथा अमान्य ही है ।।
इस युग में अब्राह्मणकुल में जन्मा हुवा व्यक्ति इस जन्म में  ब्राहमण नहीं बन सकता है ।
सच्चरित्र से जीवनयापन करनेपर इसी जीवन में अादरणीय हाे सकते हैं, दूसरे जन्माें में ब्राह्मणजन्म पा सकते हैं । अनेकजन्मसंसिद्धस् तताे याति परां गतिम् ।(गीता६।४५) ।

Thursday 13 June 2019

आर्य समाजी



वैदिक सनातन वर्णाश्रमधर्मानुयायियाें में अाैर अार्यसमाजियाें मे महत्त्वपूर्ण प्रमुख भेद ।

 सनातनियाें के लिए
 तस्माच् छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थिताै ।
 ज्ञात्वा शास्त्रविधानाेक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि।।(गीता १६।२४) ।
 यह वचन अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है ।
  अाजकल   अत्यधिक सङ्ख्या में मिलने वाले  भाेगवादी देहात्मवादी लाेग ताे  सनातनियाें के मूल शास्त्र वेद का ही विराेध करदेते हैं । इसीप्रकार से  दयानन्द  भी  वैदिक सनातन जन्मना जातिवादी वर्णाश्रमधर्म का विराेध करके प्रकारान्तर  से वेदका ही विराेध कर देता है ।   

 अार्यसमाज का संस्थापक  दयानन्द ने  भी अाश्वलायनशाखा शाङ्खायनशाखा के ऋग्वेद काे, तैत्तिरीयशाखा मैत्रायणीयशाखा के कृष्णयजुर्वेद काे, जैमिनीयशाखा के सामवेद काे, पैप्पलादशाखा के अथर्ववेद काे परतःप्रमाण कहकर वस्तुतः वेद ही नहीं माना ।
  ब्राह्मणग्रन्थाें  काे श्राैतसूत्राें काे गृह्यसूत्राें काे भी न मान कर
पञ्चमहायज्ञविधि संस्कारविधि बनाकर उन का भी वस्तुतः विराेध ही किया ।

 क्या इसी से उक्त  सभी ग्रन्थ वेद के रूप में अमान्य अाैर त्याज्य हाेंगे?

  सनातनियाें की परम्परागत मान्यता है कि
     
विध्यर्थवादमन्त्रेतिकर्तव्यं ब्राह्मणादिभिः।
 कल्पसूत्रैकपठितं कर्म प्रामाण्यमृच्छति।।
 यत्रकुत्रस्थितं  वेदवाक्यं संगृह्य केवलम् ।
अस्य वाक्यस्यायमर्थ इति वक्ताज्ञ उच्यते ।।
(लाैगाक्षिस्मृति, स्मृतिसन्दर्भ, षष्ठभाग, पृष्ठ४०५,४०६)  ।

 इस दृष्टि से  अज्ञ मानेजाने वाले दयानन्द के वेदमन्त्राें के अर्थ सनातनियाें काे सर्वथा अमान्य हैं ।

दयानन्द ने वैदिक सनातनी परम्परा के सभी ग्रन्थाें में मनमाना प्रक्षेपादि का अाराेप करके सर्वत्र अनिश्चय की स्थति बनाने का प्रयास किया है ।

 सनातनी परम्परा में अधाेनिर्दिष्ट प्रमाण से  धर्म में मुख्य रूप में शब्द ही प्रमाण माने जाने से
''शास्त्रस्था वा तन्निमित्तत्वात्'' (जैमिनीय धर्ममीमांसासूत्र१।३।९),
''अशुद्धमिति चेच् छब्दात्'' (ब्रह्ममीमांसासूत्र ३।१।२५),
 ''शब्दप्रमाणका वयम् यच् छब्द अाह तद् अस्माकं प्रमाणम्'' (पाणिनीयव्याकरणभाष्य, पस्पशाह्निक वार्तिक ९, २।१।१ वार्तिक ५) शब्दप्रमाण अतिमहत्त्वपूर्ण है ।
 उसमें दयानन्द से  शब्दप्रमाण में ही अनिश्चय की स्थिति लाने का प्रयास किए जाने से दयानन्द के सत्यार्थप्रकाशादि ग्रन्थ सनातनियाें काे  अमान्य हैं ।

अतः सनातनियाें के लिए सत्यार्थप्रकाश के वेदादि शास्त्र विषय के सब ही कथन सुतराम् सर्वथा अमान्य है ।

Tuesday 4 June 2019

जरा सोचिए

जरा सोचिए !!!!!!!!!!!

ताज महल = मुसलमानों ने बनाया;
लाल किला = मुसलमानों ने बनाये
कुतुबमीनार = मुसलमानों ने बनाई;
चार मीनार = मुसलमानों ने बनाई;
गोल गुम्बज = मुसलमानों ने बनाया;
लाल दरवाजे = मुसलमानों ने बनाये;

ताजमहल के समकालीन 56 मुसलिम कंट्री में एक भी स्थापत्य कला का उदाहरण दिखला दो ? जो मुगल अऱब में एक दिवार नही बना पाए थे, वे जाहिल भारत आते ही ताजमहल और लालकिला, कुतुबमीनार कैसे बनाने लगे ? दरअसल बनाया नही बल्कि पहले से बनी चीजों को छीन अपना नाम इतिहास में लिखवाया है ।

चमार और भंगी भी मुसलमानो ने ही बनाये है, ...... क्यों ?

हिन्दू सनातन काल से चमड़े का प्रयोग अपवित्र मानता था। याद है वैदिक सन्त या वैदिक लोग अपने पैरों में लकडी की खड़ाऊ पहना करते थे, क्यों? क्योंकि चमडे का प्रयोग हिन्दू करता ही नही था, इसका सीधा सा मतलब है कि चमड़ा का काम करने वाली जाति चमार तो हिंदुओ ने बनायी नही । सीधी बात, मुस्लिम सेनाओ और लोगों को चमड़े की जरूरत होती थी, इसलिए युद्ब बंदियों को चमडे के काम में धकेलकर चमार बनाया गया। 36 बिरादरी को गाय का चमडा छीलने के कारण उन चर्मकारों का बहिष्कार कर दिया और वही आज अछूत बन गये । ये बहिस्कार जाति के कारण नही उनके घृणित कर्म के कारण हुआ था ।

दलितों पर अत्याचार किसने किया ? अछूत जातियाँ किसने बनाई ? हजारो साल से हिंदुओ मे परम्परा रही है खुले मे शौच जाने की । घर के अंदर शौचालय लोग अपवित्र मानते थे । आज भी गांव देहात मे लोग घर मे शौचालय नही बनाते उदाहरण स्वरूप आप टायलेट एक प्रेमकथा फिल्म देखलें। जबकि मुस्लिम काल मे मुस्लिमों में पर्दा प्रथा के कारण औरते खुले मे नही जाती थी, इसलिये मुसलमान अपने घरों के अंदर शौचालय बनाते थे तथा मैला फिकवाने के लिये जिन लोगो का प्रयोग हुआ वे मेहतर कहलाये । इन्ही निम्न कर्यो के कारण ये अछूत बने ।

अब सीधा सा मतलब ये है कि चमार और मेहतर समाज को बनाने का जिम्मेदार ब्राहण नही है और ब्राह्मण को निशाना बनाकर संस्कृत और संस्कृति को मिटाने की साजिश है और ये सब केवल मुसलमान ने वामपंथियो को साथ लेकर ही किया है

और एक बात ——
               उपरोक्तानुसार यहीं शतप्रतिशत सत्य भी हैं...
प्रमाण तो नहीं दे सकते...
लेकिन  राक्षसराज रावण के राक्षसी राज्य का अंत होने के बाद रावण की बहन सूर्पणखा अपना वंश बचाने के लिए  शिवलिंग (भगवान शिव का भक्त था रावण) लेकर गुरु शुक्राचार्य के साथ अरब देशों की ओर चली गई... उसे विभीषण से डर था....
सूर्पणखा की नाक और कान लक्ष्मण जी काट चुके थे...
इसीलिए वो हमेशा चेहरा ढक कर रहती थीं..
मुस्लिम महिलाए इसीलिए बुरका पहनतीं हैं...
शिव लिंग की पूजा करतीं थीं.. जो आज मक्का मदीना हैं................
 गुरु शुक्राचार्य थे.. इसीलिए शुक्रवार को पवित्र मानते हैं...............
 कबीलों मे रहते थे... अ. पना धर्म परिवार बढ़ाने के लिए आपस में ही शारिरिक संबंध बना लेते थे...........................
क्या सूर्पणखा+शुक्राचार्य के नाजायज रिश्ते से पैदा होने वाले नाजायज वंशज हैं मुसलमान.............।।

जय श्री राम

Monday 3 June 2019

हिन्दू संस्कृति की अजेयता


#हिन्दू_संस्कृति_की_अजेयता_और_वर्तमान_खतरा

बहुत आक्रमणों को झेला हमने, एक के बाद एक।
करते रहे संघर्ष पर हार कभी नहीं मानी।

मिश्र, फारस, यूनान, रोम, स्केंडनेविया ... सभी की संस्कृति का विनाश हुआ पर हिंदू अड़े रहे , लड़ते पिटते, हारते, जीतते... पर अड़े रहे।

कैसे? कहाँ से आई इतनी जिजीविषा??

क्या केवल योद्धाओं का संघर्ष?

अगर संघर्ष केवल योद्धाओं का था तो तुर्क जैसे प्रचंड योद्धा अरबों से कैसे हार गए पर मुट्ठी भर राजपूतों ने अरबों को खदेड़ दिया और लगातार 800 वर्षों तक तुर्कों का प्रतिरोध किया।

अगर संघर्ष केवल योद्धाओं का था तो वाइकिंग्स कैसे हार गए पर जाटों को कोई भी मुस्लिम सत्ता कभी दबा नहीं सकी?

अगर संघर्ष केवल योद्धाओं का था तो एक युद्ध में हार से पूरा ईरान मुस्लिम कैसे बन गया पर लाखों की मुगल फौज मुट्ठी भर मराठों व सिखों से पार ना पा सकी।

विश्व में हर कोई इस बात पर आश्चर्य करता है और इकबाल जैसा व्यक्ति अपने पूर्वार्द्ध काव्य जीवन में कह उठा था--

"कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी"

"इस बात" को इस "रहस्य" को जानने में ही हमारे दुश्मनों की रुचि रही है, वे जानना चाहते हैं इस रहस्य को ताकि वे हमारा शिकार आसानी से कर सकें।

"संस्कृति"

इसी शब्द में छिपा था सारा रहस्य जिसपर प्राचीन ऋषियों ने इस राष्ट्र की संकल्पना की थी।

राज छिपा था उन ब्राह्मणों के दुर्दम्य हठ में जिन्होंने घोर दरिद्रता में रहकर भी मुस्लिम शासकों का 'म्लेच्छ' कहकर तिरस्कार तो किया ही उन्हें इतना हीन, यहां तक कि चांडालों से भी ज्यादा अस्पृश्य घोषित कर दिया कि उनके साथ भोजन करने वाला भी अस्पृश्य हो जाता था। पूरे संसार के इतिहास में किसी भी शासक और सैन्य वर्ग का इतना भयंकर तिरस्कार किसी पराजित जाति ने नहीं किया होगा जितना ब्राह्मणों के नेतृत्व में हिंदुओं ने मुस्लिम शासकों का किया। इस तिरस्कार के कारण ही हिंदू पराजित होकर भी स्वयं को मुस्लिमो से श्रेष्ठ मानते रहे और उनमें कभी भी हीनताबोध नहीं जागा
(हालांकि इस नीति ने जड़ मूर्खतापूर्ण रूप भी धारण कर लिया।)

हिंदुओं के इस सतत प्रतिरोध का राज छिपा था उन भाटों, चारणो और लोकगायकों में भी जो हिंदू देवमंडल और महानायकों की गाथाओं को दो मुट्ठी अनाज के बदले एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंचाते रहे।

राज छिपा था उन मूर्ति, काष्ठ और लौह शिल्पकारों में जो भूखे मर गए पर अपनी कला को आक्रांताओं के हाथों बेचा नहीं और जब ये राजपूत योद्धा व ब्राह्मण वन बीहड़ो में दर दर भटके तो ब्राह्मणों, क्षत्रियों के साथ वे भी अस्पृश्यता, शोषण, तिरस्कार और अपमान सहकर भी परछाईं की तरह चले और बिना किसी लोभ या भय के हिंदुत्व पर दृढ़ बने रहे और अधिसंख्य आज भी बने हुए हैं।

इस रहस्य को मुस्लिम नहीं समझ सके तथा "पंथ" को "धर्म" समझकर उसके बाह्य प्रतीकों का विध्वंस करने में जुट गए।

मंदिर तोड़े, बौद्ध विहार तोड़े, जिनालय तोड़े पर वे कभी भी संस्कृति की आत्मा को नहीं तोड़ सके क्योंकि वह तो निहित थी उस ब्राह्मण में जो भूखे मर मर कर भी #तुलसी बनकर महाराणा प्रतापों को रामकथा से हौसला दे रहा था, मानसिंहों को फटकार रहा था और अकबरों का तिरस्कार कर रहा था।

वह #समर्थगुरु बनकर अखाड़ों में #शिवाओं को गढ़ रहा था। वह दक्षिण में #सायण और #विद्यारण्य बनकर वेदों की रक्षा कर रहा था। वह थोड़े से #सीदे के बदले संगीत, साहित्य और इतिहास को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंचा रहा था।

साथ ही हिंदुत्व की वास्तविक शक्ति निहित थी उन दलितों में जिन्होंने मुस्लिम सत्तावर्ग के 'इस्लामिक समानता' के ऑफर को ठुकरा दिया और शोषण व अत्याचार सहकर भी हिंदुत्व के ध्वज तले रहने में ही अपना गौरव माना।

इस प्रचंड हिंदू एकता के गर्भ से जन्मे वीर मराठे मावलों, राजपूतों, जाटों और सिखों ने मुस्लिम सत्ता को उखाड़ फेंका।

परंतु तभी आ धमके चालाकअंग्रेज उन्होंने 1857 के बाद हिंदुत्व की शक्ति को #पहचान लिया।

इतिहास के माध्यम से हमला प्रारंभ किया गया। आर्य-द्रविड़ वाद से विदेशी शासन के औचित्य को स्थापित किया गया।

हिंदुओं में "सदैव पराजित होने का हीनताबोध" भरा गया और मुस्लिमों में "श्रेष्ठतावाद व असुरक्षा" का बीज बोया गया।

फिर बारी आई हिंदू साहित्य व कला की जिन्हें सदैव पाश्चात्य मानकों पर तौलकर हीन ठहराया गया।

हिंदुओं के सामाजिक संस्कृति के नकारात्मक पहलुओं को चुन चुनकर रेखांकित किया गया और दोषी ठहराया गया ब्राह्मणों को कि एक बार #मस्तिष्क विकृत हो जाये तो हिंदुत्व का शेष शरीर कब तक संतुलित रहेगा।

इसी कारण हिंदू बौद्धिक वर्ग जिसमें अधिकांशतः ब्राह्मण ही थे, में से कुछ इसका शिकार हो गए और रही सही कसर मार्क्सवाद के आगमन ने पूरी कर दी।

श्रेष्ठतम ब्राह्मण मेधा अपनी ही संस्कृति के विरुद्ध पाश्चात्य व वामपंथी षड्यंत्र का अमोघ अस्त्र बनी और निगाह उठाकर देख लीजिये चारों ओर हिंदुत्व के विरुद्ध जहर उगलते वर्ग में सर्वाधिक व्यक्ति इसी वर्ग से मिलेंगे।

बौद्धिक प्रतिरोध भी सर्वाधिक ब्राह्मणों की ओर से ही आया परंतु उन्होंने कभी भी अपने इन स्वजातीय बंधुओं का वैसा बहिष्कार नहीं किया जैसा वे दलित जातियों का मामूली अपराधों पर अन्य जातियों का करते और इसी से आपसी संदेह और अविश्वास का प्रारंभ हुआ और इसका फायदा उठाया अंग्रेजों ने।

ब्रिटिशों और फिर कम्यूनिस्टों ने 'अपना जहर' हिंदुत्व के शरीर में भर दिया था जो असर दिखाने लगा। इतिहास, साहित्य व कला के हर क्षेत्र में ये #मारीच घुस गये और उन्होंने दो तरफा मार की। एक ओर तो उन्होंने भारतीय मूल्यों पर आधारित कला व साहित्य को हतोत्साहित किया वहीं विभाजन व विखंडनकारी साहित्य व कला को बढ़ावा दिया जिन्हें सदैव पाश्चात्य शक्तियों ने प्रोत्साहित किया। अरविंद अडिगा, अरुंधती रॉय, मकबूल फिदा हुसैन, सफदर हाशमी आदि इन्हीं मारीचों के मानस संतानें हैं।

नाजियों से नफरत करने का ढोंग करने वाले इन तथाकथित प्रगतिशीलों और लोकतंत्रवादियों का आदर्श गोबेल्स ही रहा है इसीलिये कॉंग्रेस को समर्थन देने के बदले इतिहास, साहित्य और कला संस्थाओं पर कब्जा कर लिया और उन्हें अपनी हिंदू द्रोही गतिविधियों का अड्डा बना दिया जिसका सर्वोत्तम उदाहरण जे एन यू और मध्यप्रदेश का भारतभवन है।

ब्रिटिशों और वामियों के इतिहास के हीन प्रस्तुतिकरण के कारण उत्पन्न पराजयबोध के कारण पहले से हीनमना हिंदू और अधिक हीनता प्रदर्शित करने लगे। प्रगतिशील और वैज्ञानिक दिखने के लिये हिंदू परंपराओं का और अधिक मजाक उड़ाया जाने लगा, भारतीय आदर्श चरित्र राम, कृष्ण और शिव में या तो खोट ढूंढे जाने लगे या फिर उन्हें काल्पनिक घोषित किया जाने लगा।

फिर आया उदारीकरण के नाम पर उपभोक्तावाद और आधुनिक इस्लामिक आतंकवाद का युग।

उपभोक्तावाद के प्रचार के लिए माध्यम बनी नारी देह जिसके लिये जन्म दिया गया नारीवाद और फेमनिज्म को।
मैत्रेयी पुष्पा, अरुंधती रॉय, द्युति सुदीप्ता जैसी कुंठित फेमनिस्ट, यौनिकता के चिरबुभुच्छित कॉमरेड्स, द्रौपदी सिंगार के छद्म नाम से लिखने वाले #नपुंसक_कवि और नारी शरीर पर लार टपकाने वाले स्त्रैण लोलुप पुरुषों ने दुर्गावती व गार्गी के स्थान पर सनी लियोनी व स्वरा भास्कर को भारतीय लड़कियों का आदर्श बना दिया।

इन धूर्त जमात के #नर_मादाओं ने राम, कृष्ण, युधिष्ठिर को सिर्फ कामुक शोषक पुरुष और सीता, राधा और द्रौपदी को पीड़ित नारी घोषित कर दिया।

इनकी धूर्तताओं की बानगी देखिये--

-- इनकी निगाह में हर स्त्री को यौन स्वतंत्रता होनी चाहिए लेकिन द्रौपदी की सहमति से पांडवों के साथ उनका विवाह स्त्री का शोषण है।

-- इनकी निगाह में पद्मिनी एक मामूली मूर्ख औरत थी लेकिन दिनरात पुरुषों को स्त्रिलोलुप ठहराते इस गैंग के मेम्बरों के लिए खिलजी और अकबर 'जुनूनी प्रेमी'।

-- इन्हें दुर्गावती और लक्ष्मीबाई में नारी सशक्तिकरण नजर नहीं आता बल्कि सनी लियोनी बनने में नारी सशक्तिकरण दिखाई देता है।

इन संस्कृति द्रोहियों ने नारी स्वतंत्रता की ओट में नारी देह को उसी बाजारवाद और पूंजीवाद के प्रसार का माध्यम बना दिया जिसके विरोध में ये क्रांति के तराने गाते नहीं थकते।

ऐसी स्थिति में कला की आधुनिकतम विधाम #सिनेमा इन गिद्धों की नजर से कैसे बच पाता और फिर वे तो पूर्व में ही वे सिनेमा का महत्व समझ गये और सिनेमा भी उसका शिकार बना। नेहरू की मेहरबानी से वे उस पर काबिज हो भी गये।

फिर तो जो सिनेमा जो उदात्त हिंदू चरित्रों राम कृष्ण हरिश्चन्द्र, महाराणा प्रताप, शिवाजी तथा हिंदू प्रतिरोध की घटनाओं जैसे संन्यासी विद्रोह का चित्रण कर रहा था वह प्रगतिशील सिनेमा के नाम पर केवल और केवल गरीबी, स्त्री दुर्दशा, सामाजिक शोषण को परोसने लगा।
कमर्शियल सिनेमा भी गरीबी को महिमामंडित किया जाने लगा। अमिताभ के दौर की फ़िल्मों को याद कीजिये कि किस तरह अमिताभ गरीबी को महिमामंडित करने वाले डायलॉग मारते थे और बेवकूफ पब्लिक खुश होकर डायलॉग्स पर तालियाँ बजाती थी।

50% सत्य होने के बावजूद सिनेमा में सर्वदा और शतप्रतिशत सत्य के रूप में अतिरेकपूर्ण ढंग से पंडित के नाम पर सिर्फ एक तोंद युक्त, कुटिल चेहरे वाले लालची पुजारी, ठाकुर के नाम पर सिर्फ एक अत्यचारी जमींदार, बनिये के नाम पर सिर्फ एक सूदखोर महाजन को चित्रित किया गया और दूसरी ओर इमाम साहब या चर्च के फादर को सदैव धर्मपरायण, दयालु और भव्य व्यक्तित्व के रूप में स्थापित किया गया।

अपने इस नैरेटिव को प्रारम्भिक रूप से सफलतापूर्वक स्थापित करने के बाद पहले उन्होंने अगला प्रहार किया भारतीय नारी पर जिसको उन्होंने ग्लैमर से ललचाया और इसमें एकता कपूर ने जाने अनजाने में उनकी मदद की।

नारी उन्मुक्तता के इस दौर में दाऊद के नेतृत्व में पाकिस्तान व सऊदी अरब ने मुंबई में बॉलीवुड पर नियंत्रण स्थापित कर लिया और फिर जोधा अकबर, ताजमहल, खिलजावत जैसी फिल्मों, अकबर द ग्रेट, नूरजहां, सत्यमेव जयते जैसे टी वी कार्यक्रम बनाये गए ताकि हिंदू लड़कियों को मुस्लिम लड़कों की ओर आकर्षित कर 'लव जेहाद' के माध्यम से अल्लाह मिंयाँ की खिदमत की जा सके और गजवा ए हिंद के सपने को साकार किया जा सके।

वरना कोई मुझे बताये कि आमिरखान ने कभी तीन तलाक, हलाला और बुर्के पर कुछ बोला हो।

मीडिया, सिनेमा और सोशल एक्टिविज्म पर इस्लामी व वैटिकन शक्तियों के शिकंजे के कारण ही लव जेहाद, धर्मांतरण, मुस्लिम इनमाइग्रेशन जैसे राष्ट्र विध्वंसक व हिंदुत्व विरोधी कार्यक्रम सफल हो रहे हैं। इधर भारत और हिंदुत्व के दुर्भाग्य से आंभी, जयचंद व मानसिंह जैसे राष्ट्रद्रोहियों की एक लंबी परंपरा रही है और बरखादत्त,प्रणय रॉय रविश कुमार, मुलायम, लालू , दिग्विजय, ममता बैनर्जी आदि उसी देशद्रोही परम्परा के वारिस हैं और इनके द्वारा समर्थित भीम-मीम का अपवित्र गठजोड़ उसका विस्तार।

अब हिंदुत्व पर इस भयानक चहुँ ओर हमले की गहनता और भयानकता को महसूस कर लीजिये और तय कर लीजिये उसका मुकाबला "भीमटा हाय हाय, "आरक्षण हाय हाय", "मोदी हाय हाय" के नारों से करना है या धीरता गंभीरता से रणनीति बनाकर और अपने पूर्वजों के तपस्या व संघर्ष के मार्ग पर चलकर, उनकी गलतियों का परिमार्जन करके, 'सर्व हिंदू सहोदरा' के मार्ग पर चलकर?????

खुद तय कर लीजिये।

Thursday 25 April 2019

ऐतरेय ब्राह्मण



ऐतरेय ब्राह्मण की कथा (Aitareya Brahmana Story)  :
मांडुकी नाम के एक ऋषि थे, उनकी पत्नी का नाम इतरा था। वे दोनों ही भगवान के भक्त थे तथा अत्यंत पवित्र जीवन व्यतीत कर रहे थे। दोनों ही एक-दूसरे का ध्यान रखते थे तथा हंसी-ख़ुशी से समय काटते थे। दुःख था तो केवल एक कि उनके कोई संतान नहीं थी। सोच-विचार के पश्चात पुत्र प्राप्ति की इच्छा से दोनों ने कठिन तपस्या की तथा भगवान से बार-बार पुत्र के लिए प्रार्थना की।

आखिर कुछ समय पश्चात भगवान ने उनकी तपस्या तथा प्रार्थना से प्रसन्न होकर उनकी इच्छा को पूरा कर दिया। उनके घर में एक पुत्र का जन्म हुआ जो अत्यंत सुंदर तथा आकर्षक था। वह बालक उनकी महान तपस्या का फल था। यद्यपि बचपन से ही वह बालक अलौकिक एवं चमत्कारपूर्ण घटनाओं का जनक था, लेकिन प्रायः चुप ही रहता था। काफी दिनों के पश्चात उसने बोलना शुरू किया। आश्चर्य की बात यह थी कि वह जब भी बोलता ‘वासुदेव, वासुदेव’ ही कहता। आठ वर्ष तक उसने ‘वासुदेव’ शब्द के अतिरिक्त और कोई शब्द नहीं कहा। वह आंखे बंद किये चुप बैठा ध्यान करता रहता। उसके चेहरे पर तेज बरसता तथा आंखों में तीव्र चमक थी।


आठवें ववर्ष में बालक का यज्ञोपवीत संस्कार कराया गया तथा पिता ने उसे वेद पढ़ाने का प्रयास किया। लेकिन उसने कुछ भी नहीं पढ़ा, बस ‘वासुदेव’ नाम का संकीर्तन करता रहता। पिता हताश हो गए और उसे मुर्ख समझते हुए उसकी ओर ध्यान देना बंद कर दिया। परिणाम स्वरूप उसकी माता की ओर से भी उन्होंने मुंह फेर लिया।

कुछ दिनों पश्चात मांडुकी ऋषि ने दूसरा विवाह कर लिया जिससे अनेक पुत्र हुए। बड़े होकर वे सभी वेदो के तथा कर्मकांड के महान ज्ञाता हुए। चारों ओर उन्ही की पूजा होती थी। बेचारी पूर्व पत्नी घर में ही उपेक्षित जीवन व्यतीत कर रही थी। उसके पुत्र ऐतरेय को इसका बिलकुल ध्यान नहीं था। वह हर समय भगवान ‘वासुदेव’ का नाम जपता रहता तथा एक मंदिर में पड़ा रहता।


एक दिन माँ को अति क्षोभ हुआ। वह मंदिर में ही अपने पुत्र के पास पहुंची और उससे कहने लगी-“तुम्हारे होने से मुझे क्या लाभ हुआ ? तुम्हें तो कोई पूछता ही नहीं है, मुझे भी सभी घृणा की दृष्टी से देखते है। बताओ ऐसे जिवन से क्या लाभ है।”

माता की ऐसी दुखपूर्ण बाते सुनकर ऐतरेय को कुछ ध्यान हुआ, वह बोला- “माँ ! तुम तो संसार में आसक्त हो जबकि यह संसार और इसके भोग सब नाशवान है, केवल भगवान का नाम ही सत्य है। उसी का में जाप करता हूं लेकिन अब मैं समझ गया हूं कि मेरा अपनी माँ के प्रति भी कुछ कर्तव्य है। मैं उसको अब पूरा करूंगा और तुम्हे ऐसे स्थान पर पदासीन करूंगा जहां अनेक यज्ञ करके भी नहीं पहुंचा जा सकता।”


ऐतरेय ने भगवान विष्णु की सच्चे ह्रदय से वेदों की विधियों के अनुसार स्तुति की। इससे भगवान विष्णु प्रसन्न हो गए। उन्होंने साक्षात प्रकट होकर ऐतरेय और उसकी माता को आशीर्वाद दिया- “पुत्र ! यद्यपि तुमने वेदो का अध्धयन नहीं किया है। लेकिन मेरी कृपा से तुम सभी वेदो के ज्ञाता और प्रकांड विद्वान हो जाओगे। तुम वेद के एक अज्ञात भाग की भी खोज करोगे। वह तुम्हारे नाम से ऐतरेय ब्राह्मण कहलायेगा। विवाह करो, गृहस्थी बसाओ तथा सभी कर्म करो, लेकिन सबको मुझे समर्पित कर दो अर्थात यह सोचकर करो कि मेरे आदेश से कर रहे हो। उनमे आसक्त मत होना, तब तुम संसार में नहीं फंसोगे। एक स्थान जो कोटितीर्थ कहलाता है, वहां जाओ। वहां पर हरिमेधा यज्ञ कर रहे है। तुम्हारे जैसे विद्वान की वहां आवश्यकता है। वहां जाने पर तुम्हारी माता की सभी इच्छाएं पूरी हो जाएगी।” इतना कहकर भगवान विष्णु अंतर्धान हो गए।

माता का ह्रदय अपने पुत्र के प्रति बजाय ममता के श्रद्धा से ओतप्रोत हो गया। उसी के कारण तो उसे भी भगवान के दर्शन हुए थे तथा अपनी माता के कारण ही उसने भगवान के नाम के अतिरिक्त कुछ न बोला था। अब दोनों माता और पुत्र भगवान की आज्ञा का पालन करते हुए हरिमेधा के यज्ञ में पहुंच गए। वहां ऐतरेय ने भगवान विष्णु से संबंधित प्रार्थना का गान किया। उसे सुनकर तथा उनके तेज और विद्व्ता से सभी उपस्थित विद्वान प्रभावित हो गए। हरिमेधा ने उन्हें ऊंचे आसन पर बैठाकर उनका परिचय प्राप्त किया तथा उनकी आवभगत की।


ऐतरेय ने यहीं पर वेद नवीन चालीस अध्यायों का पाठ किया। ये पाठ अभी तक पूरी तरह अज्ञात थे। बाद में ये पाठ ऐतरेय ब्राह्मण के नाम से विख्यात हुए। हरिमेधा ने ऐतरेय से अपनी पुत्री का विवाह कर दिया।

ऐतरेय की माता ने अपने पुत्र से जो कामना की थी, वह उसे प्राप्त हो गई थी। भगवान विष्णु की कृपा से ऐतरेय का नाम महर्षि ऐतरेय के रूप में सदा-सदा के लिए अमर हो गया।

Monday 22 April 2019

वासुदेव: सर्वम

वासुदेवः सर्वम्
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गीताप्रेमियों के लिए

            हमारी समस्या तब बढ़ जाती है जब हम श्रुति-शास्त्र के अनुभवों की अनदेखी करने लगते हैं । अब कहा "वासुदेवः सर्वम्" तो आपने सबको वासुदेव मान लिया, अपने को नहीं । यह तो भगवान ने कहा नहीं कि आपको छोड़कर बाकी सब मैं हूँ....! अगर नहीं कहा तो तो सबको वासुदेव मान लिया अपने को क्यों नहीं माना ? फिर वासुदेवः सर्वम् कैसे हुआ ? इसके अतिरिक्त देखिये--- "मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति" ७/७ यहाँ पर कहा मुझसे भिन्न अन्य नहीं है लेकिन यह भी संभव था कि मुझको छोड़कर अन्य कुछ भी श्रीभगवान से भिन्न नहीं है, इसीलिये कहा "किञ्चित्" अर्थात कुछ भी ऐसा नहीं है जो मुझसे भिन्न हो, इस जगत का निमित्त उपादन कारण मैं हूँ और आप भी जगत से भिन्न न होने के कारण मुझसे भिन्न नहीं हो, द्विविधा प्रकृति मुझसे अभिन्न है इसलिये आप भी मुझसे भिन्न नहीं हो ।

           आप जीवन धारण करते हो ? तो "जीवनं सर्वभूतेषु" अर्थात प्राणियों के जीवन का मूलभूत गुण प्राण मैं हूँ । प्राणों का मूल अन्न मैं हूँ "अन्नं वै प्राणः" । अन्न का मूल ब्रह्म मैं हूँ "अन्नं वै ब्रह्म" । अन्न से ही जीवन धारित होता है और वह अन्न मैं हूँ तो तुम मुझसे भिन्न कैसे हो गये ? इस शरीर को धारण करने वाली आत्मा मैं हूँ "अहमात्मा" १०/२० "क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि" १३/२ तुम जो अपने को जानने वाला मानते हो वह कोई और नहीं मैं स्वयं वासुदेव हूँ ऐसा जानो ।

          इस पर एक द्वैतवादी मित्र ने कहा कि इस शरीर में जानने वाले दो हैं । एक जीव और दूसरा आत्मा । जीव मात्र मन, बुद्धि, शरीर सहित संसार को जानता है और ईश्वर इस संसार सहित जीव को भी जानता है । अब इनसे पूछा जाये कि जीव अगर मात्र बुद्धि शरीर सहित संसार को ही यदि जानता है तो उसने कैसे जाना कि कोई ईश्वर है ? और अगर वह जानता है कि कोई ईश्वर है उसे प्राप्त करना चाहिए तो अनजान वस्तु के लिए मन में कल्पना भी नहीं हो सकती है तो प्राप्ति की बात कैसे की जा सकती है ? इसका मतलब जिसे आप जीव कह रहे हैं वह ईश्वर को भी जानता है, जानता है तो किस रूप में जानता है ? यदि जीव ईश्वर को जानता है तो ईश्वर व्याप्य और जीव व्यापक होगा और यदि ईश्वर जीव को जानता है तो जीव व्याप्य और ईश्वर व्यापक होगा । दोनो व्याप्त व्यापक हो नहीं सकते अतः आप कैसे कह सकते हैं कि ईश्वर ही जीव को जानता है जीव नहीं । आपकी ही बात से आपकी बात की हानि हो रही है । फिर श्रुति-शास्त्र सिद्धांत को चोट पहुंचे तो क्या आश्चर्य ?

           अतः आप जीव को ही व्याप्य कहेंगे ये स्वाभाविक है । अब विचार करो कि व्याप्य का अस्तित्व क्या है ? घड़ा है, जिस समय घड़ा दिख रहा है उस समय भी वह मिट्टी ही है क्योंकि घड़ा बनने से पहले भी मिट्टी ही थी और घड़ा बनने के बाद भी वह मिट्टी ही है । अगर आप घड़ा और मिट्टी अलग मानते हो तो हम कहते हैं घड़े से मिट्टी अलग करके फेंक और घड़ा ले जाओ । तो घड़ा बचेगा ? नहीं न ? इसी प्रकार जीव व्याप्य है ईश्वर व्यापक है, ईश्वर से भिन्न कोई जीव नहीं है क्योंकि व्याप्य व्यापक से भिन्न नहीं हो सकता । जीव प्रकाश्य है ईश्वर प्रकाशक है । जगत प्रकास्य प्रकासक रामू । मायाधीस ज्ञान गुन धामू ।। सब कर परम प्रकासक जोई । राम अनादि अवधपति सोई ।। सब कर परम प्रकाशक कहने का भव यह है कि जो द्विविधा प्रकृति भगवान ने बताया उसमें अपरा अर्थ जड़ का प्रकाशक परा अर्थात जीव है और और इन दोनों का प्रकाशक ब्रह्म है जैसा कि "अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा । ७/६ ।

              भगवान कहते हैं "जीवभूतां" ७/५ वह जीव है नहीं जीव भाव को प्राप्त हुआ है, उसने जीवत्व रूप उपाधि को स्वयं स्वीकार करके व्यापक अहंता का त्याग करके सीमित अहंता को स्वयं स्वीकार करके स्वयं को बांध लिया है । जब मुक्त होना चाहेगा तब सीमित अहंता को व्यापक अहंता में हवन करके, "त्वं" पदार्थ का "तत्" पदार्थ में लय करके "अहमात्मा" १०/२० के रूप में अपने आपको देखेगा । वह स्वयं सबका एक मात्र क्षेत्रज्ञ होगा । वह "वासुदेवः सर्वम्" के रूप में अपने आपको देखेगा । अर्थात वह मुझसे अभिन्न अपने को सर्वत्र मुझ व्यापक सर्वात्मा के रूप में जानेगा । वासुदेवः सर्वम् का यही भाव है । ओ३म् !

                                         

Tuesday 16 April 2019

हनुमान जी वानर थे या मनुष्य


वादी:--हनुमान जी को हम वेदों का विद्वान और उच्च
कोटि घोषित करने का प्रयास कर रहे हैं आप उन्हें
बन्दर बनाना चाहते हैं। आप विद्वान श्रेष्ठ हैं , यह
बताये की हनुमान जी का ज्यादा मान पशु बन्ने में हैं
अथवा विद्वान मनुष्य बनने में हैं।
ईश्वर ,देव और उपदेव में क्या अंतर हैं ? शास्त्र से प्रमाण करें

समाधान:--- हनुमानजी का ज्यादा मान पशु बन्ने में हैं अथवा विद्वान
मनुष्य बनने में हैं।" --इसका उत्तर हमें स्वयं
महर्षि वाल्मीकि दे रहे हैं , रावण वध के विषय में
देवों की प्रार्थना पर ब्रह्मा जी ने स्वयं देवताओं
को वानर रूप में अपने समान पराक्रमी और बुद्धिमान
पुत्रों को उत्पन्न करने की आज्ञा दी --सृजध्वं
हरिरूपेण पुत्रान्स्तुल्यपराक्रमान् --वा.रा.
बा.का.१७/६,उन वानर वीरों में हनुमान जी पवन देव के
औरस पुत्र हुए --" मारुतस्यौरसः श्रीमान् हनूमान् नाम
वानरः " -१७/१६, ये सबसे अधिक बुद्धिमान और
बलवान हैं --" सर्व वानर मुख्येषुबुद्धिमान्
बलवानपि-१७/१७,इस प्रकार वहां अनेक देव
योनियों की स्त्रियों से वानरों की उत्पत्ति का वर्णन
है ,वानर राज सुग्रीव बालि | ये आज कल जैसे वानर नही थे ||
जहाँ प्रत्यक्ष प्रमाण की गति नही वहां परम आप्त
महर्षि वाल्मीकि के अतिरिक्त कौन है जो इस विषय
पर अन्यथा कल्पना करने का दुस्साहस कर सके |
अतः ये वानर ही थे , इन्हें हम न तो वानर बनाना चाहते हैं न मनुष्य ही | ये जो थे और हैं वह महर्षि के
वचनों से स्पष्ट है |आप्त पुरुषों के वचन से विरुद्ध
कोई कल्पना सत्य नही हो सकती , वह केवल
कल्पना ही रहेगी |
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आचार्य सियारामदास नैयायिक
भैया विवेक जी आपने पूंछा कि--" ? शास्त्र प्रमाण के साथ स्पष्ट कीजिये।"--यहाँ पर मैं आपसे
इतना ही कहना चाहता हूँ कि जब वाल्मीकि रामायण
जैसे प्रामाणिक इतिहास
जो सभी ऋषियों को प्रमाणतया मान्य है --
उसी का अपलाप करके हनुमान जी के स्वरूप को विकृत
करने का कुत्सित प्रयास किया गया तो पहले हमें यह
पता चले कि शास्त्र प्रमाण से यहाँ क्या अभिप्रेत
है ? जो सर्व मान्य था उसका अपलाप कर दिया गया |
विकृत करने वाले किसे शास्त्र मानते हैं ?
| क्या वाल्मीकि रामायण शास्त्र नही ? क्या उससे
समाज में किसके प्रति कैसा व्यवहार करना चाहिए --
यह शिक्षा नही मिलती ? जिन हनुमान
जी को आततायी दुराचारी राक्षस और स्वयं रावण
तथा ग्रंथकार महर्षि वाल्मीकि आदि उद्घोष पूर्वक
वानर कहकर उनके चरित्र का वर्णन किये , |
उनके ऊपर आक्षेप कर्ता ने तो कोई प्रमाण
नही दिया ,और हमने जो प्रमाण प्रस्तुत किया -उस
पर पुनः प्रमाण ? रही बात उपदेव की तो जैसे कुम्भ
और उपकुम्भ ये दो शब्द हैं | इनमे कुम्भ सब समझते
हैं पर उपकुम्भ ,व्याकरण का मर्मज्ञ ही समझ
सकता है --कुम्भस्य समीपम् उपकुम्भाम--कुम्भ के
जो समीप हो उसे उपकुम्भ कहते हैं  |
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आचार्य सियारामदास नैयायिक
इन्हें पशु समझने की भूल नही करनी चाहिए ,क्योंकि "
ज्ञानेन हीनः पशुभिः समानः -कहा गया है , और ये
वानर के आकार में होते हुए भी ज्ञान संपन्न हैं |
इसीलिये तो रावण भी  बोल पड़ा की मैं उसे
वानर नही मानता , " नह्यहं तं कपिं मन्ये
कर्मणा प्रति तर्कयन्--वा. रा. सु. का.-४६/६,ओर
भी --" नैवाहं तं कपिं मन्ये यथेयं
प्रस्तुता कथा --४६/७, मैं उसे वानर नही मानता जिस
प्रकार की घटना उसके और राक्षसों के विषय में
प्रस्तुत की गयी है | रावण की यह
स्थिति है तो आज कल के लोग हनुमान जी की उस
अद्भुत क्षमता को देखकर उन्हें वानर मानने को तैयार
न हों तो क्या आश्चर्य ?
देखिये --" तुम्हारा तेज वानर का नही है ,तुम केवल रूप
मात्र से वानर हो " --" नहि ते वानरं तेजो रूप मात्रं
हि वानरम् "|--सु,का,५०/१०, अब हनुमान
जी अपना परिचय देते हुये कहते हैं --" यह मेरी जाति है
अर्थात् मैं वानर जाति का हूँ ,मैं वानर हूँ ओर
यहाँ आया हूँ--" जातिरेव मम
त्वेषा वानरोsहमिहागतः "--सु .का . ५०/१४,अब इस
सुस्पष्ट वचन से जिसको हनुमान जी के कपि रूप में
संदेह रह जाय उसे ब्रह्मा जी भी नही समझा सकते!

Sunday 14 April 2019

महर्षि वेद व्यास और वाल्मीकि

श्रीमद्रामायणके रचयिता भगवान् वाल्मीकि और महाभारतके रचयिता भगवान् वेदव्यासजीके विषममें जितनी भ्रान्तियाँ हैं ,उतनी अन्य किसी क्रान्तदर्शी महर्षिके विषयमें नहीं ।
मैकालेकी अनौरस संतान वामपंथियोंने भगवान् वाल्मीकि और व्यासजीको किरात-भील-मल्लाह आदि बना दिया है ,जबकि यह शास्त्र विरुद्ध है ,असत्य है ।
आदिकवि भगवान् वाल्मीकि आदिकाव्य श्रीमद्वाल्मीकिरामायणमें स्वयंका परिचय देते हैं , वे किसी किरात-दस्यु कुलोत्पन्न नहीं थे ,अपितु ब्रह्मर्षि भृगुके वंशमें उत्पन्न ब्राह्मण थे । रामायणमें भार्गव वाल्मीकिने २४००० श्लोकोंमें श्रीराम उपाख्यान ‘रामायण’ लिखी ऐसा वर्णन है –
“संनिबद्धं हि श्लोकानां चतुर्विंशत्सहस्र कम् ! उपाख्यानशतं चैव भार्गवेण तपस्विना !! ( वाल्मीकिरामायण ७/९४/२५)
महाभारतमें भी आदिकवि वाल्मीकि को भार्गव (भृगुकुलोद्भव) कहा है , और यही भार्गव रामायणके रचनाकार हैं –
“श्लोकश्चापं पुरा गीतो भार्गवेण महात्मना !
आख्याते रामचरिते नृपति प्रति भारत !!” (महाभारत १२/५७/४०)
शिवपुराणमें यद्यपि उनको जन्मान्तरका चौर्य वृत्ति करने वाला बताया है तथापि वे भार्गव कुलोत्पन्न थे । भार्गव वंशमें लोहजङ्घ नामक ब्राह्मण थे ,उन्हीका दूसरा नाम ऋक्ष था । ब्राह्मण होकर भी चौर्य आदि कर्म करते थे और श्रीनारदजीकी सद् प्रेरणासे पुनः तपके द्वारा महर्षि हो गये ।
“भार्गवान्वयसम्भवः !!
लोहजङ्घो द्विजो ह्यासीद् ऋक्षनामोन्तरो हि स: !
ब्राह्मीं वृत्तिं परित्यज्य चोर कर्म समाचरेत् ! नारदेनोपदिष्टस्तु तपोनिष्ठां समाश्रितः !!
इत्यादि वचनोंसे भृंगु वंश में उत्पन्न लोहजगङ्घ ब्राह्मण जिसे ऋक्ष भी कहते थे , ब्राह्मण वृत्ति त्यागकर चोरी करने लगा था , फिर नारदजीकी प्रेरणासे तप करके पुनः ब्रह्मर्षि हो गये । उन्हें किरात-भील कुलोत्पन्न कहना अपराध है । २४ वे त्रेतायुगमें भगवान् श्रीराम हुए तब रामायणकी रचनाकर आदिकवि के रूपमें प्रसिद्ध हुए । विष्णुपुराणमें इन्हीं भृगुकुलोद्भव ऋभु वाल्मीकिको २४ वे द्वापरयुगमें वेदोंका विस्तार करने वाले २४वे व्याजजी कहा है –
“ऋक्षोऽभूद्भार्गववस्तस्माद्वाल्मीकिर्योऽभिधीयते (विष्णु०३/३/१८) । यही भार्गव ऋभु २४ वे व्यासजी पुनः ब्रह्माजीके पुत्र प्राचेतस वाल्मीकि हुए । श्रीमद्वाल्मीकिरामायणमें वाल्मीकि भगवान् श्रीरामचन्द्रको अपना परिचय देते हैं –
“प्रचेतसोऽहं दशमः पुत्रो राघवनन्दन ! (वाल्मीकिरामायण ७/९६/१८)
स्वयं को प्रचेताका दशवाँ पुत्र वाल्मीकि कहा है । ब्रह्मवैवर्तपुराणमें कहा है –
” कति कल्पान्तरेऽतीते स्रष्टु: सृष्टिविधौ पुनः !
य: पुत्रश्चेतसो धातु: बभूव मुनिपुङ्गव: !!
तेन प्रचेता इति च नाम चक्रे पितामह: !
– अर्थात् कल्पान्तरोंके बीतने पर सृष्टाके नवीन सृष्टि विधानमें ब्रह्माके चेतस से जो पुत्र उत्पन्न हुआ , उसे ही ब्रह्माके प्रकृष्ट चित्तसे आविर्भूत होनेके कारण प्रचेता कहा गया है ।
इसीलिए ब्रह्माके चेतससे उत्पन्न दशपुत्रोंमें वाल्मीकि प्राचेतस प्रसिद्ध हुए ।
मनु स्मृतिमें वर्णन है ब्रह्माजीने प्रचेता आदि दश पुत्र उत्पन्न किये –
“अहं प्रजाः सिसृक्षुस्तु तपस्तप्त्वा सुदुश्चरम् ! पतीत् प्रजानामसृजं महर्षीनादितो दश !! मरीचिमत्र्यङ्गिरसौ पुलसत्यं पुलहं क्रतुम् ! प्रचेतसं वसिष्ठं च भृगुं नारदमेव च !! (मनु०१/३४-३५) भगवान् वाल्मीकि जन्मान्तरमें भी ब्राह्मण (भार्गव) थे और आदिकवि वाल्मीकिके जन्ममें भी (प्राचेतस) ब्राह्मण थे !
शिवपुराणमें कहा है प्राचेतस वाल्मीकि ब्रह्माके पुत्रने श्रीमद्रामायणकी रचनाकी ।
” पुरा स्वायम्भुवो ह्यासीत् प्राचेतस महाद्युतिः ! ब्रह्मात्मजस्तु ब्रह्मर्षि तेन रामायणं कृतम् !! ”
महाभारतकार भगवान् श्रीकृष्णद्वैपायन वेदव्यासजी भी भील-मल्लाह नहीं वासिष्ठकुलोद्भव थे । व्यासजीकी माता सत्यवती अमावसु पितृकी मानसी कन्या अच्छोदा थीं , जिनका पितृलोकसे पतन होकर मर्त्यलोकमें कुरुवंशी महाराज चैद्योपरिचरवसुकी कन्या मत्स्यगन्धा के रूपमें जन्मी थीं । व्यासजीके पिता महर्षि पराशर भगवान् वसिष्ठके पौत्र और शक्तिके पुत्र थे ।
भगवान् व्यासजीकी माता सत्यवती भीष्मजीसे कहती हैं –
“यस्तु राजा वसुर्नाम श्रुतास्ते भरतर्षभ !
तस्य शुक्रादहं मत्स्याद् धृताकुक्षौ पुरा किला !!
मातरं मे जलाद् धृत्वा दाश: परमधर्मवित् !
मां तु स्वगृहमानीय दुहितृत्वे ह्यकल्पयत् !!
(महाभारत आदि पर्व १०४-६)
– भरत श्रेष्ठ ! तुमने महाराज वसुका नाम सुना होगा । पूर्वकालमें मैं उन्हीं के वीर्यसे उत्पन्न हुई थी । मुझे एक मछलीने अपने पेट में धारण किया था(इसीलिये मत्स्यकी गन्ध उनके शरीर से आती थी जिससे उनका नाम मत्स्यगन्धा प्रसिद्ध था ) । एक परम् धर्मज्ञ मल्लाहने जलसे मेरी माताको पकड़ा ,उसके पेट से मुझे निकाला और अपने घर लाकर अपनी पुत्री बनाकर रखा !”
इस वृत्तान्त से माता सत्यवती कुरुवंशी महाराज उपरिचरिवसुकी औरस पुत्री सिद्ध होती हैं , जिन्हें दाशराज मल्लाहने पालके बड़ा किया था ।
इन्हीं मत्स्यगन्धासे महर्षि पराशरने कन्यावस्थामें व्यासजी को उत्पन्न किया था ।
“पराशर्यो महायोगी स बभूव महानृषि: !
कन्यापुत्रो मम पुरा द्वैपायन इति श्रुतः !!” (आदिपर्व०१०४/१४)
भगवान् व्यासजी की माता क्षत्रिय राजा वसुपुत्री थीं और पिता महर्षि पराशर वासिष्ठ ब्राह्मण थे , फिर व्यासजी को मल्लाह ,केवट ,निषाद कहना निरीह मूर्खता ही नहीं ,महान् अपराध भी है ।