Sunday 30 July 2023

शिवलिङ्ग बिषय भ्रांति का भ्रमोछेदन



शब्द अर्थों के प्रतिपादक होते है शब्दों के कारण ही हमे अर्थ (बिषय) का बोध होता है   शब्दो के मूल अर्थ का त्याग कर यदि हम मनमाना अर्थ ग्रहण करने लगे  तो अतिव्यापति  दोष लगेगा जिससे शब्दार्थ मर्यादा भी भंग हो और हम किसी निश्चित बिषय पर एकमत होंने से रहे ।

जन समुदाय में आज शिवलिङ्ग बिषय को लेकर जो भ्रांतियां वयाप्त हुई हैं वह शब्द के मूल अर्थों का त्याग कर मनमाना अर्थ ग्रहण करने के कारण ही हुआ है ।


●लिङ्ग शब्द का अर्थ संस्कृत शब्दकोश में चिन्ह प्रतीक,लक्षण ही लिया गया है 

यदि जिज्ञासा का भाव हो तो आप संस्कृत हिंदी शब्दकोश पर जाकर स्वयं ही इस तथ्य की पुष्टि कर सकते है ।

 मैं अपनी ओर से  संस्कृत हिंदी शब्दकोष का लिंक भी दे रहा हूँ चाहे तो वहाँ सर्च कर देख ले ।


https://sanskritdictionary.com/?iencoding=iast&q=%E0%A4%B2%E0%A4%BF%E0%A4%99%E0%A5%8D%E0%A4%97&lang=sans&action=Search


अस्तु न्याया,वैशेषिक, सांख्य,मीमांसादी  सिद्धांत में सभी के सभी आचार्यो ने  लिङ्ग का अर्थ चिन्ह रूप में ही ग्रहण किया यथा धूम्र अग्नि का लिंग है तो

 इच्छा,द्वेष,प्रयत्न, सुख,दुख,ज्ञान  आत्मा का लिंग ।

इंद्रियों के अपने अपने बिषयों से जो सम्बन्ध है एवं उससे भिन्न ज्ञान की उत्पति मन का लिङ्ग (लक्षण) है ।

निष्क्रमण और प्रवेश यह आकाश का लिङ्ग (लक्षण)है 


●इच्छाद्वेषप्रयत्नसुखदुःखज्ञानानि आत्मनः लिङ्गम् (न्याय दर्शन)

●युगपत्ज्ञानानुत्पत्तिः मनसः लिङ्गम् ।(न्याय दर्शन )

●निष्क्रमणं प्रवेशनमित्याकाशस्य लिङ्गम् ।( वैशेषिक-२,१.२० )

●अव्यक्तं त्रिगुणाल्लिङ्गात् । (सांख्यसूत्र-१.१३६)


  लिङ्ग शब्द से लोकप्रसिद्ध मांसचर्ममय  शिश्न यदि ग्रहण करें तो अर्थ का अनर्थ ही होगा 

और तद्वत  बिषयों की सिद्धि भी न हो ।


 

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शिवमहापुराण में शिवलिङ्ग को अव्यक्त अगोचर कहा गया है जो तत्वबिषय इन्द्रिय प्रमाण का बिषय ही नही उस तत्वबिशेष को पंचभौतिक मांसचर्ममय स्थूल शिश्न मानना ही मूढ़ता का परिचायक है ! 


●अनिर्देश्यं च तद्रूपमनाम कर्मवर्जितम् ।।

अलिंगं लिंगतां प्राप्तं ध्यानमार्गेप्यगोचरम् ।।(रुद्रसंहिता ७/६६)


●तो प्रश  उठता है कि शिवलिंग आखिर है क्या ?


जिससे इस सम्पूर्ण चराचरात्मक जगत् उत्पन्न होता है एवं 

जिसमे यह समस्त निखिल जगत् का लय हो जाता है वही लिंग पद वाच्य है ।


●लिंगेप्रसूतिकर्तारं (विद्येश्वर संहिता १६/१०६)

●लयनाल्लिंगमित्युक्तं तत्रैव निखिलं जगत् ।।(रुद्रसंहिता १०/ ३८ ।।)

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 पुराणों  में जहां भी शिवलिङ्ग विषय पर व्यक्तरूप से वर्णन आया है वहाँ वहाँ  ज्योतिर्मय अग्निस्वरूपा ही ग्रहण किया गया है ।

जिसकी तेजोमयी शक्ति तिनोलोको को भस्मीभूत करने वाला कहा गया है ।


●ज्योतिर्लिंगे महादिव्ये वर्णिते ते महामुने।। (शतरुद्र संहिता ४२/२१)

●गौतमस्य प्रार्थनया ज्योतिर्लिंग स्वरूपतः (शतरुद्रसंहिता ४२/३४)


●तल्लिंगेनाखिलं दग्धं भुवनं सचराचरम् (रु०सं० सतीखण्ड २९/२४)


शिवमहापुराण के विद्येश्वरसंहिता  खण्ड में ब्रह्मा और विष्णु के मध्य श्रेष्ठतम होने का विवाद होने लगा तो उन दोनों के मध्य तेजोमय महाग्नि स्तम्भ प्रकट हुआ ।


●महानलस्तंभविभीषणाकृतिर्बभूव तन्मध्यतले स निष्कलः ।

ते अस्त्रे चापि सज्वाले लोकसंहरणक्षमे ।

निपतेतुः क्षणे नैव ह्याविर्भूते महानले (विद्येश्वर संहिता ७/११-१२)


ब्रह्मा विष्णु के मध्य प्रकट हुए महाग्नि स्तम्भ को देख आश्चर्यचकित हो ब्रह्मा विष्णु ने कहा यह इन्द्रिय अगोचर अग्निरूपा क्या उठा जो अनादि है 


●अतींद्रि यमिदं स्तंभमग्निरूपं किमुत्थितम् (विद्येश्वर संहिता ७/१३)

●अनाद्यंतमिदं स्तंभम (विद्येश्वर संहिता ९/१९)


 ब्रह्मा विष्णु जैसे देवता भी उस अव्यक्त अगोचर महाग्निरूपा स्तम्भ को समझने में अस्क्य रहे तो हम जैसे क्षुद्र बुद्धि वाले मनुष्यो की क्या औकात जो उस तत्वबिषय को समझ पाए !

जो अनादि अनन्त है उस ब्रह्मतत्त्व को पूर्णरूप से जानने में भला कौन सम्सर्थ ??

 जिसका आदि और अंत न तो ब्रह्मा ही पा सके और न ही विष्णु ।उस तत्व बिषय को लेकर अल्पज्ञ अल्पश्रुत भ्रान्तवादियो का कहना है कि 

शिवलिङ्ग  पंचभौतिक मांसमय स्थूल शिश्न है  ।


अस्तु चिन्मय आदिपुरुष ही शिवलिङ्ग है समस्त पीठ अम्बामय है भगवन शङ्कर कहते है कि जो संसार के मूलकारण महाचैतन्य को और लोक को लिङ्गात्मक जानकर पूजन करता है वही मेरा प्रिय है ।

लिङ्ग चिन्ह है सर्वस्वरूप की पूजा कैसे हो इसलिए लिङ्ग की कल्पना है आदि एवं अंत मे जगत् अण्डाकृति ही रहता है अतएव ब्रह्माण्ड की आकृति ही शिवलिङ्ग है यज्ञिको के यहाँ वेदी की स्त्रीरूप, में कुण्ड को योनि रूप में , और अग्नि रुद्र की लिङ्ग रूप में उपासना होती है ।

शिवलिङ्ग में विश्व प्रसूता की दृष्टि से अर्चना करनी चाहिए क्यो की सम्पूर्ण जगत् में किसी भी प्रकार के गुण,कर्म,द्रव्य - लिङ्ग ,और योनि (कारण) के बिना सम्भव ही नही ।

जो जगत् के सृष्टि, स्थिति,लय, के कारण है उस तत्व विशेष को पाञ्चभौतिक मांसचर्ममय शिश्न मानना  मूर्खता की पराकाष्ठा ही है ।


#शैलेन्द्र_सिंह