Sunday 3 October 2021

कन्यादान




भारतीय परम्परा में वेद सनातन और अपौरुषेय हैं। वेद विश्व का प्रथम प्रकाश है, इसे विश्वमनीषा ने सर्वसम्मति से स्वीकार कर लिया है। 

सनातन संस्कृति व संस्कार  ईश्वरमूला होने से सद्मूला है, चिद्मूला है, आनन्दमूला है,


संस्कार का अर्थ है सजाना-संवारना, पूर्णता प्रदान करना।  इसके लिए उसके अन्दर दिव्य गुणों का आधान किया जाता है। 

 इसमें मुख्य 16 संस्कार हैं जिसके द्वारा मानव के

मूल दिव्य, परिपूर्ण स्वरूप को प्रकट करने की चेष्टा की जाती है और यह संस्कार

परम्परा गर्भाधान से प्रारम्भ हो जाती है और अन्त्येष्टि तक चलती है। यानी जीव

के आने के पूर्व से प्रारम्भ होकर जीव के जाने के बाद तक चलती है। गर्भाधान्

के द्वारा हम दिव्य आत्मा का आह्वान करते हैं, बुलाते हैं तो उसको बैठाने के

लिए स्थान शुद्धि, भावशुद्धि चाहिए। हम जहां- तहां , जैसे-तैसे नहीं बैठते। स्थान

को शुद्ध कर आसन लगाकर बैठते हैं। गर्भाधान द्वारा हम दिव्यात्मा-पुण्यात्मा

को

बुला

रहे हैं तो उसके लिए उपयुक्त शुद्धि भी चाहिए। फिर जाने के बाद.यह


संस्कार देते हैं कि कपाल भेदन करके जाना चाहिए था। अन्य मार्ग से गमन 

आने-जाने का क्रम बना रहेगा। इस प्रकार गर्भाधान से अन्त्येष्टि तक, सूर्योदय

से सूर्यास्त तक, लोक से परलोक तक हमारे जीवन का कोई भी क्षण, कोई भी

कण और कोई भी कर्म धर्म से रहित, संस्कार से रहित नहीं है। धर्म व संस्कार

हमारे जीवन का केन्द्र-बिन्दु है, प्राण-बिन्दु है जिससे हमारा समग्र व्यक्तिजीवन,

परिवार जीवन, समाज जीवन, राष्ट्र जीवन, विश्व जीवन संचालित है। धर्म या

संस्कार से बाहर कुछ भी नहीं है।

इस प्रकार मानव मन का परिष्कार करने, शोधन करने, पूर्णता प्रदान करने

वाले जितने भाव एवं कार्य हैं, वह संस्कार कहलाते हैं। इन्हीं संस्कारों की दिव्य

परम्परा को संस्कृति कहते हैं। इस दृष्टि से संस्कृति का अर्थ श्रेष्ठतम कृति से भी

होता है। जो मनुष्य को ऊंचा उठाये वह संस्कृति है, जो नीचे गिराये वह विकृति

है। इस प्रकार श्रेष्ठकृति या सम्यक् कृति को भी संस्कृति कहते हैं। संस्कृति जीवन

का सार है, जीवन का तात्पर्य है, जीवन के आदर्शों का विकास है, जीवन के

मूल्यों का विकास है। अत: संस्कृति जीवन के मूल्यों की, जीवन के आदर्शों की

सतत साधना है जो मानव को मानवजीवन का मूल्य प्रदान करती है तथा जिसकी

रक्षा हेतु भारतीय वीरों ने, महापुरुषों ने अपना जीवन हंसते- हंसते उत्सर्ग कर दिया।

वे जीवनमूल्य हैं स्वतंत्रता, समानता, बंधुता आदि।

अत: मानव के सर्वोच्च विकास के लिए जो जीवनमूल्य सर्वाधिक महत्त्व

के हैं उनकी एक क्रमबद्ध व्यवस्थित परम्परा ही संस्कृति है। इस दृष्टि से भारतीय

मनीषियों ने चार जीवनमूल्य, आदर्श या पुरुषार्थ रखे जिसके अन्दर अन्य सारे

जीवनमूल्य समाविष्ट हो जाते हैं। इन 16 संस्कारों में एक संस्कार पाणिग्रहण (विवाह संस्कार) भी है जिसमें पिता अपनी लक्ष्मी स्वरूपा पुत्री को विष्णु स्वरूपा वर को कन्यादान करता है ।


■- लक्ष्मीरूपामिमां कन्यां प्रददेविष्णुरूपिणे । तुल्यं चोदकपूर्वा तां पितॄणां तारणाय च ॥(लघुआश्वाल्यनस्मृति,१५,२६)


■-महर्षि मनु कहते है  

वेदज्ञ शुशील वर को बुला कर  उसका पूजन सत्कार कर कन्यादान करें ।

■- आच्छाद्य चार्चयित्वा च श्रुतशीलवते स्वयम् ।

आहूय दानं कन्याया ब्राह्मो धर्मः प्रकीर्तितः (३/२७)


अल्पज्ञ अल्पश्रुत भ्रामक वामी कामी गैंग दान शब्द का अर्थ अनर्थ के रूप में लेते है वे कहते है दान हेय वस्तुओ का की जाती है ।

तो इन धूर्तो से यह प्रश्न करना आवश्यक हो जाता है कि विद्या दान जो कि 

समस्त पाप कर्मों को भस्मीभूत करने वाले मोक्ष की गति प्रदान करने वाले विद्या क्या कोई हेय वस्तु है जो एक आचार्य अपने शिष्य को विद्यादान कर नर से नरत्व ,नरत्व से देवत्व ,देवत्व से ब्रह्मत्व तक कि प्राप्ति का साधन है 


■ दान शब्द का अर्थ :--


स्वस्वत्व नीवृत्ती पूर्वक परस्वत्त्वापादनं दानम् दान शब्द का यह यर्थ कहा गया है अर्थात जिस द्रब्य में अपना स्वत्व अधिकार है उसको त्याग कर इतर अन्य के स्वत्व अधिकार का अपादान करना दान है जैसे की ब्राह्मणाय गां ददाति यहां गो द्रब्य में विद्यमान अपने अधिकार को छुड़ा कर उसमें ब्राह्मण का अधिकार बना दिया जाता है इस प्रकार दान दिए हुए गो द्रब्य में दाता मेरी गाय है ऐसा व्यवहार नही कर सकता  अर्थात उस गो द्रब्य को जिसने प्रतिग्रह किया उस ब्राह्मण का अधिकार हो जाता है दाता दान दी हुई गौ के दुग्ध का पान नही कर सकता यह स्थिति गौ दान में देखी जाती है ।

कन्या दान इसमें कुछ वैलक्षण्य है 

अपने स्वत्वाधिकार की नीवृत्ति होने पर भी मेरी कन्या यह व्यवहार विद्यमान है अतएव गोदानादि लेनेवाला पतिग्रहीता कहलाता है किंतु कन्या दान लेनेवाला परिग्रहिता कहलाता पतिग्रह और परिग्रह शब्द में भेद कहा जा चुका है पारस्कराचार्य ने गृहीत्वा शब्द का प्रयोग किया है प्रत्तामादाय निष्क्रमती इतना कहने से ही कार्य सम्पन्न हो जाता है किन्तु 

प्रत्तामादाय गृहीत्वा निष्क्रमती में अदाय शब्द गौण दान का बोधक है इस प्रकार तात्पर्य कल्पना में गृहीत्वा पद तात्पर्य बोधक माना जाता है इस यर्थ कि पुष्टि कविकुल तिलक कालिदास भी करते है ।


अर्थो हि कन्या परकीय एव  तामद्यसंप्रेष्य परिग्रहीतु: .

जातो ममायं विशद: प्रकामं  प्रत्यर्पितन्यास इवान्तरात्मा ।।

कन्या अपने पिता के लिए धरोहर है वह न्यास रूप से अपने अपने द्रब्य को रखता है अतः परकीय है उसका स्वामी दूसरा ही होता है किन्तु जब वह ग्रहण करता है तो वह ग्रहण परिग्रहण कहलाता है पतिग्रह नही ।

यद्यपि समाज की परम्परा में कन्या दान के अनन्तर उस कन्या के हाथ से कुछ

भी लेना निषिद्ध है, ऐसा आचार है, किन्तु यह प्रतिग्रह-पक्ष में सङ्गत है, परिग्रह पक्ष में

नहीं। वर पक्ष के द्वारा प्रेषित घटक लोग कन्या पक्ष के लोगों से मिलते हैं तो वर के गुणों

को सुनकर कन्या-पिता धरोहर के रूप से विद्यमान कन्यारूपी अर्थ को 'दास्यामि' कहता

है। एक बार नहीं तीन तीन बार कहता है । क्योंकि कन्या पिता समझता है कि -

'सोमोऽददद्गन्धर्वाय, गन्धर्वोऽदददग्नये, रयिञ्च पुत्रांश्चादादम्नयेः

अग्नि्मह्यमथो हमाम् ।

अर्थात् चन्द्रमा ने गन्धर्व-सूर्य को दिया, सूर्य ने अग्नि को दिया, अग्नि ने स्वयं श्रेष्ठ रत्न

धारी होने के कारण धन-धान्य आदि से समृद्ध इस कन्या को मुझे दिया। कन्या रूप अर्थ

में परम्परा से प्राप्त परकीयत्व को समझकर पिता 'दास्यामि' यह प्रतिज्ञा करता है । तदै-नन्तर घटक वर के पिता से कहने पर वह परिग्रह के लिए तैयार हो जाता है। कन्या

पिता एवं वरपिता का वरण हो चुका है । तदनन्तर ही कन्यापिता अपने दरवाजे पर

आये हुए वर को मधुपर्क आदि से सत्कृत कर समञ्जन समीक्षण आदि कराकर वृत

कन्यारूपी द्रव्य को समर्पित करता है ।

■ कन्यादान याग है

इस प्रसंग में दान और याग शब्दों का निष्कृष्ट अर्थ समझना आवश्यक प्रतीत

होता है । दान शब्द का अर्थ है- स्वस्वत्वनिवृत्ति पूर्वक परस्वत्वापादन', और याग शब्द

का अर्थ है 'देवतोद्देशेन द्रव्यत्यागः' । दान में परस्वत्वापादन अर्थात् अपने स्वत्त्व की

निवृत्ति कर परस्वत्व को स्थापित करना होता है । याग में स्वस्वत्त्व की निवृत्ति तो है।

किन्तु परस्वत्वापादन नहीं है । 'इदमग्नये न मम' अग्नय इदं न मम ' इस त्याग में अपने

स्वत्त्व का त्याग मात्र ही है । जिस द्रव्य को देवता के लिए हम देते हैं, वह द्रव्य देवता को

ही प्राप्त है, उसको हम देवता के लिए अपित करते हैं देवता उस द्रव्य को हमें इसलिए

देता है कि हम पुनः अर्पित करें । चन्द्र सूर्य-अग्नि की परम्परा से प्राप्त कन्यारूप द्रव्य का

दान कन्यापिता इसीलिये करता है कि भविष्य में चन्द्र-सूर्य-अग्नि आदि देवताओं की

आराधना होती रहे । अतएव कन्या-पिता वर को विष्णु रूप समझकर स्वागत करता हुआ पाद्य अर्ध्य कुर्च मधुपर्क आदि से पूजन करता है 


वस्तुत: इन सभी कन्यादान विरोधी व्यक्तियों के कुतर्क व्यवहारशून्य, समाज संरचना के ज्ञान से शून्य होते हैं। इनके लिए विवाह न ही समाज के  लिए  है ,न ही वंश,कुल आदि की रक्षा के लिए यहां तक कि अब यह प्रजाति विवाह को पति पत्नी का सम्बन्ध भी नहीं मानती और मेरे पति का मुझ पर अधिकार नहीं है, मैं सम्बन्ध बनाने को स्वतंत्र हूं” जैसी अल्पमति बातें करती देखी जाती हैं।