■-- मन्दिर प्रसाद एक शास्त्रीय दृष्टिकोण
■-शिरस्त्वण्डं निगदितं कलशं मूर्धजं स्मृतं ॥
कण्ठं कण्ठमिति ज्ञेयं स्कन्धं वेदी निगद्येते ।
पायूपस्थे प्रणाले तु त्वक्सुधा परिकीर्तिता ॥
■-मुखं द्वारं भवेदस्य प्रतिमा जीव उच्यते ।
तच्छक्तिं पिण्डिकां विद्धि प्रकृतिं च तदाकृतिं ॥
निश्चलत्वञ्च गर्भोस्या अधिष्ठाता तु केशवः ।
■-एवमेव हरिः साक्षात्प्रासादत्वेन संस्थितः ॥(अग्निपुराण ६१/२३-२६)
मन्दिर का गुम्बज भाग ही देव् विग्रह का सिर है और कलश ही मन्दिर में प्रतिष्ठित देव् विग्रह के बाल है मन्दिर का कण्ठ ही देव् विग्रह का कण्ठ है ,वेदी ही मंदिर में प्रतिष्ठित देव् विग्रह के स्कंध है नालियां ही देव् विग्रह के पायु और उपस्थ है मन्दिर का चूना ही मन्दिर में प्रतिष्ठित देव् विग्रह का चर्म है मन्दिर का द्वार ही देव् विग्रह का मुख है तथा मन्दिर की प्रतिमा ही मन्दिर प्रसाद का जीव है उसकी पिण्डिका ही शक्ति समझो तथा मन्दिर की आकृति ही मन्दिर की प्रकृति है निश्चलता ही उसका गर्भ होता है और उसके अधिष्ठाता भगवान केशव है इस तरह से भगवान श्रीहरि: स्वयं मन्दिर के रूप में स्थित होते है ।
शैलेन्द्र सिंह