Monday 2 November 2015

सामवेद

सामवेदः--- ---------------
चारों वेदों में सामवेद का महत्त्व सर्वाधिक है।
यजुर्वेद ने सामवेद को "प्राणतत्त्व" कहा हैः--साम प्राणं प्रपद्ये" (यजुः 36.1) "प्राणो वै साम" (श.प.ब्रा. 14.8.14.3) "स यः प्राणस्तत् साम" (जैमिनीयोपनिषद् ब्राह्मण--4.23.3) 

सामवेद सूर्य का प्रतिनिधि है, अतः उसमें सौर-ऊर्जा है। जैसे सूर्य सर्वत्र समभाव से विद्यमान है, वैसे सामवेद भी समत्व के कारण सर्वत्र उपलब्ध है। सम का ही भावार्थक साम हैः---"तद्यद् एष (आदित्यः) सर्वैर्लोकैः समः तस्मादेषः (आदित्यः) एव साम।" (जै.उप.ब्रा.-1.12.5)

सामवेद सूर्य है और सामवेद के मन्त्र सूर्य की किरणें हैं, अर्थात् सामवेद से सौर-ऊर्जा मनुष्य को प्राप्त होती हैः---"(आदित्यस्य) अर्चिः सामानि" (श.प.ब्रा. 10.5.1.5) 

सामवेद में साम (गीति) द्युलोक है और ऋक् पृथिवी हैः--"साम वा असौ (द्युः) लोकः ऋगयम् (भूलोकः)" (ताण्ड्य ब्रा.4.3.5)

सभी वेदों का सार सामवेद ही हैः--"सर्वेषां वा एष वेदानां रसो यत् साम" (श.प.ब्रा. 12.8.3.23 और गो.ब्रा. 2.5.7)

साम के बिना यज्ञ अपूर्ण हैः---"नासामा यज्ञोsस्ति" (श.प.ब्रा. 1.4.1.1)

सामवेद के दो मुख्य भाग हैं---(1.) पूर्वार्चिक और (2.) उत्तरार्चिक। "आर्चिक" का अर्थ हैः--ऋचाओं का समूह।

(1.) पूर्वार्चिकः-- -----------------
इसमें चार काण्ड हैं---(क) आग्नेय-काण्ड, (ख) ऐन्द्र-काण्ड, (ग) पावमान-काण्ड, और (घ) अरण्य-काण्ड। इसमें एक परिशिष्ट भी हैः--महानाम्नी आर्चिक। पूर्वार्चिक में 6 अध्याय है। इन 6 अध्यायों को खण्डित किया गया है, जिन्हें "दशति" कह जाता है। दशति का अर्थ दश ऋचाएँ हैं, परन्तु सर्वत्र 10 ऋचाएँ नहीं है, कहीं अधिक कहीं कम है। 

(1.) अध्याय 1 आग्नेय-काण्ड है। इसमें 114 मन्त्र हैं। इसके देवता अग्नि है। 
(2.) अध्याय 2 से 4 तक ऐन्द्र-काण्ड हैं। इसमें 352 मन्त्र हैं। इसके देवता इन्द्र है।

(3.) अध्याय 5 पावमान-काण्ड है। इसमें कुल 119 मन्त्र हैं। इसके देवता सोम है।

(4.) अध्याय 6 अरण्य-काण्ड है। इसमें कुल 55 मन्त्र हैं। इसके देवता इन्द्र, अग्नि और सोम है। 

इसमें एक परिशिष्ट "महानाम्नी आर्चिक" है। इसमें 10 मन्त्र है। 

इस प्रकार पूर्वार्चिक में कुल 650 मन्त्र हैं। 

अध्याय 1 से 5 तक की ऋचाओं को "ग्राम-गान" कहा जाता है। इसका अभिप्राय यह है कि इसकी ऋचाओं का गान गाँवों में किया जाता था। अध्याय 6 अरण्य-काण्ड है। इसकी ऋचाओं का गान अरण्य (वन) में किया जाता था। 

(2.) उत्तरार्चिकः--- -------------------------
इसमें कुल 21 अध्याय हैं और 9 प्रपाठक हैं। इसमें कुल 400 सूक्त हैं। इसमें कुल 1225 मन्त्र हैं। दोनों को मिलाकर 650 और 1225 को मिलाकर सामवेद में कुल 1875 मन्त्र हैं।

ऋग्वेद के 1771 मन्त्र सामवेद में पुनः आएँ हैं। अतः सामवेद के अपने मन्त्र केवल 104 ही है। ऋग्वेद के 1771 मन्त्रों में से 267 मन्त्र सामवेद में पुनरुक्त हैं। सामवेद के 104 मन्त्रों में से भी 5 मन्त्र पुनरुक्त हैं। इस प्रकार सामवेद में कुल पुनरुक्त मन्त्र 272 हैं। इस प्रकार सामवेद के अपने मन्त्र 99 ही हैं। 

शतपथ-ब्राह्मण के अनुसार सामवेद में एक लाख चौवालिस हजार अक्षर हैं---"चत्वारि बृहतीसहस्राणि साम्नाम्।" (श.प.ब्रा. 10.4.2.24)

सामवेद के ऋत्विक् उद्गाता हैं। इसके मुख्य ऋषि आदित्य हैं।

सामवेद की शाखाएँ--- --------------------------
मुनि पतञ्जलि के अनुसार सामवेद की 1000 शाखाएँ हैं---"सहस्रवर्त्मा सामवेदः" (महाभाष्य, पस्पशाह्निक) इन 1000 शाखाओं में 13 नाम इस समय उपलब्ध हैं---

(1.) राणायम (राणायनि) , (2.) शाट्यमुग्र्य (सात्यमुग्रि),
(3.) व्यास,, (4.) भागुरि,, (5.) औलुण्डी,, (6.) गौल्गुलवि,,
(7.) भानुमान् औपमन्यव,, (8.) काराटि (दाराल),,,
(9.) मशक गार्ग्य (गार्ग्य सावर्णि),,(10.) वार्षगव्य (वार्षगण्य),,
(11.) कुथुम (कुथुमि, कौथुमि),, (12.) शालिहोत्र, (13.) जैमिनि।

इन 13 शाखाओं के नामों में से सम्प्रति 3 शाखाएँ ही उपलब्ध हैं---(1.) कौथुमीय, (2.) राणायनीय और (3.) जैमिनीय।

सामवेद का अध्ययन ऋषि व्यास ने अपने शिष्य जैमिनि को कराया था। जैमिनि ने अपने पुत्र सुमन्तु को, सुमन्तु ने सुन्वान् को और सुन्वान् ने अपने पुत्र सुकर्मा को सामवेद पढाया। सामवेद का सर्वाधिक प्रचार-प्रसार व विस्तार सुकर्मा ने ही किया था। सुकर्मा के दो शिष्य थे---(क) हिरण्यनाभ कौशल्य और (ख) पौष्यञ्जि। इनमें हिरण्यनाभ का शिष्य कृत था। कृत ने एक महान् काम किया था। उसने सामवेद के 24 प्रकार के गान-स्वरों का प्रवर्तन किया। इसलिए उसके कई अनुयायी व शिष्य हुए। उनके शिष्य "कार्त" कहलाए। आज भी कार्त आचार्य पाये जाते हैं।

(1.) कौथुमीय (कौथुम) शाखाः-- ---------------------------------
यह शाखा सम्प्रति सम्पूर्ण भारत में प्रचलित है। कौथुमीय और राणायमीय शाखा दोनों में विशेष भेद नहीं है। दोनों में केवल गणना-पद्धति का अन्तर है। कौथुमीय-शाखा का विभाजन अध्याय, खण्ड और मन्त्र के रूप में है। राणायनीय-शाखा का विभाजन प्रपाठक, अर्धप्रपाठक, दशति और मन्त्र के रूप में है। कौथुमीय-संहिता में कुल 1875 मन्त्र हैं।

इस संहिता सूत्र "पुष्पसूत्र" है। इसका ब्राह्मण "ताण्ड्य-महाब्राह्मण" है। इसे पञ्चविंश-ब्राह्मण भी कहा जाता है। इसमें कुल 25 अध्याय हैं, इसलिए इसका यह नाम पडा। इसका उपनिषद् "छान्दोग्योपनिषद्" है। 

(2.) राणायनीय-शाखाः-- ------------------------
इस शाखा में विभाजन प्रपाठक, अर्धप्रपाठक, दशति और मन्त्र के रूप में हैं। इसकी एक शाखा सात्यमुग्रि है। इस शाखा का प्रचार दक्षिण भारत में सर्वाधिक है।

(3.) जैमिनीय-शाखाः--- -------------------------
इस संहिता में कुल 1687 मन्त्र हैं। इसकी अवान्तर शाखा तवलकार है। इस शाखा से सम्बद्ध केनोपनिषद् है। तवलकार जैमिनि ऋषि के शिष्य थे।

सामवेद मुख्य रूप से उपासना का वेद है। इसमें मुख्य रूप से इन्द्र, अग्नि और सोम देवों की स्तुति की गई है। इसमें सोम और पवमान से सम्बद्ध मन्त्र सर्वाधिक है। सोम, सोमरस, देवता और परमात्मा का भी प्रतीक है। सोम से सौम्य की प्राप्ति होती है। सामगान भक्ति-भावना और श्रद्धा जागृत करने के लिए है।

स्वरः--- ---------------
सामवेद के मन्त्रों के ऊपर 1,2,3 संख्या लिखी जाती है, जो 1--उदात्त, 2--स्वरित और 3---अनुदात्त की पहचान है। ऋग्वेद के मन्त्रों में उदात्त के लिए कोई चिह्न नहीं होता, किन्तु सामवेद में उदात्त के लिए मन्त्र के ऊपर 1 लिखा जाता है। ऋक् के मन्त्र पर स्वरित वाले वर्ण पर खडी लकीर होती है, इसके लिए सामवेद में 2 लिखा जाता है। ऋक् में अनुदात्त के लिए अक्षर के नीचे पडी लकीर होती है, सामवेद में इसके लिए वर्ण के ऊपर 3 लिखा जाता है।ऋग्वेद में उदात्त के बाद अनुदात्त को स्वरित हो जाता है और स्वरित का चिह्न होता है। स्वरित के बाद आने वाले अनुदात्त वर्ण पर कोई चिह्न नहीं होता। इसी प्रकार सामवेद में चिह्न 2 के बाद यदि कोई अनुदात्त वर्ण है तो उस पर कोई अंक नहीं होगा और उसे खाली छोड दिया जाता है। ऐसे रिक्त वर्ण को "प्रचय" कहा जाता है। इसका उसका एक स्वर से (एकश्रुति) न ऊँचा न नीचा किया जाता है। 

सात स्वर ये हैं---षड्ज, ऋषभ, गान्धार, मध्यम, पञ्चम, धैवत और निषाद।

ग्राम तीन हैः---मन्द्र (निम्न), मध्य (मध्यम) और तीव्र (उच्च)।

सामवेद से सम्बद्ध नारदीय-शिक्षा है।

सामविकारः--- ---------------------
किसी भी ऋचा को गान का रूप देने के लिए कुछ परिवर्तन किए जाते हैं। इन्हें विकार कहा जाता है। ये कुल विकार 6 हैं। इनमें स्तोभ मुख्य है। ये छः विकार हैं---(क) स्तोभ, (ख) विकार, (ग) विश्लेषण, (घ) विकर्षण, (ङ) अभ्यास, (च) विराम।

सामगान के 4 भेदः--- ---------------------
(1.) ग्राम-गेय-गानः--इसे प्रकृतिगान और वेयगान भी कहा जाता है। यह गाँव में सार्वजनिक स्थलों पर गाया जाता था।

(2.) आरण्यगानः--इसे वनों में गाया जाता था। इसे रहस्यगान भी कहा जाता है। 

(3.) ऊहगानः--इसका अर्थ है विचार पूर्वक विन्यास करना। पूर्वार्चिक से सम्बन्धित उत्तार्चिक के मन्त्रों का गान इस विधि से किया जाता था। इसे सोमयाग व विशेष धार्मिक अवसर पर गाया जाता था। 

(4.) ऊह्य-गानः--इसे रहस्यगान भी कहा जाता है। रहस्यात्मक होने के कारण इसे साधारण लोगों में नहीं गाया जाता था। ऊहगान और ऊह्यगान विकार गान है।

शस्त्रः---
सामवेद में "शस्त्र" शब्द का प्रयोग किया है। इसका अभिप्राय है कि गान-रहित मन्त्रों के द्वारा सम्पादित स्तुति को "शस्त्र" कहा जाता है। इसी कारण ऋग्वेद के स्तुति-मन्त्र को "शस्त्र" कहा जाता है।

स्तोत्रः---
इसके विपरीत गान युक्त मन्त्रों द्वारा सम्पादित स्तुति को "स्तोत्र" कहा जाता है। सामवेद के मन्त्र "स्तोत्र" है, क्योंकि वे गेय हैं, जबकि ऋग्वेद के मन्त्र "शस्त्र" हैं।

स्तोमः--तृक् (तीन ऋचा वाले सूक्त) रूपी स्तोत्रों को जब आवृत्ति पूर्वक गान किया जाता है, तो "स्तोम" कहा जाता है।

विष्टुतिः---
विष्टुति का अर्थ है----विशेष प्रकार की स्तुति। विष्टुति स्तोत्र रूपी तृचों के द्वारा सम्पादित होती है। इसे गान के तीन पर्याय या क्रम समझना चाहिए। स्तोम के 9 भेद हैः--त्रिवृत् , पञ्चदश, सप्तदश, एकविंश, चतुर्विंश, त्रिणव, त्रयस्त्रिंश, चतुश्चत्वारिंश, अष्टचत्वारिंश।

सामगान की पाँच भक्तियाँ--
(1.) प्रस्ताव, (2.) उद्गीथ, (3.) प्रतिहार, (4.) उपद्रव और (5.) निधन। वरदराज का कहना है कि इन पाँचों में हिंकार और ओंकार जोड देने से 7 हो जाती हैं। इन मन्त्रों का गान तीन प्रकार के ऋत्विक् करते हैं---(1.) प्रस्तोता, (2.) उद्गाता और (3.) प्रतिहर्ता।

सामवेद

सामवेदः--- ---------------
चारों वेदों में सामवेद का महत्त्व सर्वाधिक है।
यजुर्वेद ने सामवेद को "प्राणतत्त्व" कहा हैः--साम प्राणं प्रपद्ये" (यजुः 36.1) "प्राणो वै साम" (श.प.ब्रा. 14.8.14.3) "स यः प्राणस्तत् साम" (जैमिनीयोपनिषद् ब्राह्मण--4.23.3) 

सामवेद सूर्य का प्रतिनिधि है, अतः उसमें सौर-ऊर्जा है। जैसे सूर्य सर्वत्र समभाव से विद्यमान है, वैसे सामवेद भी समत्व के कारण सर्वत्र उपलब्ध है। सम का ही भावार्थक साम हैः---"तद्यद् एष (आदित्यः) सर्वैर्लोकैः समः तस्मादेषः (आदित्यः) एव साम।" (जै.उप.ब्रा.-1.12.5)

सामवेद सूर्य है और सामवेद के मन्त्र सूर्य की किरणें हैं, अर्थात् सामवेद से सौर-ऊर्जा मनुष्य को प्राप्त होती हैः---"(आदित्यस्य) अर्चिः सामानि" (श.प.ब्रा. 10.5.1.5) 

सामवेद में साम (गीति) द्युलोक है और ऋक् पृथिवी हैः--"साम वा असौ (द्युः) लोकः ऋगयम् (भूलोकः)" (ताण्ड्य ब्रा.4.3.5)

सभी वेदों का सार सामवेद ही हैः--"सर्वेषां वा एष वेदानां रसो यत् साम" (श.प.ब्रा. 12.8.3.23 और गो.ब्रा. 2.5.7)

साम के बिना यज्ञ अपूर्ण हैः---"नासामा यज्ञोsस्ति" (श.प.ब्रा. 1.4.1.1)

सामवेद के दो मुख्य भाग हैं---(1.) पूर्वार्चिक और (2.) उत्तरार्चिक। "आर्चिक" का अर्थ हैः--ऋचाओं का समूह।

(1.) पूर्वार्चिकः-- -----------------
इसमें चार काण्ड हैं---(क) आग्नेय-काण्ड, (ख) ऐन्द्र-काण्ड, (ग) पावमान-काण्ड, और (घ) अरण्य-काण्ड। इसमें एक परिशिष्ट भी हैः--महानाम्नी आर्चिक। पूर्वार्चिक में 6 अध्याय है। इन 6 अध्यायों को खण्डित किया गया है, जिन्हें "दशति" कह जाता है। दशति का अर्थ दश ऋचाएँ हैं, परन्तु सर्वत्र 10 ऋचाएँ नहीं है, कहीं अधिक कहीं कम है। 

(1.) अध्याय 1 आग्नेय-काण्ड है। इसमें 114 मन्त्र हैं। इसके देवता अग्नि है। 
(2.) अध्याय 2 से 4 तक ऐन्द्र-काण्ड हैं। इसमें 352 मन्त्र हैं। इसके देवता इन्द्र है।

(3.) अध्याय 5 पावमान-काण्ड है। इसमें कुल 119 मन्त्र हैं। इसके देवता सोम है।

(4.) अध्याय 6 अरण्य-काण्ड है। इसमें कुल 55 मन्त्र हैं। इसके देवता इन्द्र, अग्नि और सोम है। 

इसमें एक परिशिष्ट "महानाम्नी आर्चिक" है। इसमें 10 मन्त्र है। 

इस प्रकार पूर्वार्चिक में कुल 650 मन्त्र हैं। 

अध्याय 1 से 5 तक की ऋचाओं को "ग्राम-गान" कहा जाता है। इसका अभिप्राय यह है कि इसकी ऋचाओं का गान गाँवों में किया जाता था। अध्याय 6 अरण्य-काण्ड है। इसकी ऋचाओं का गान अरण्य (वन) में किया जाता था। 

(2.) उत्तरार्चिकः--- -------------------------
इसमें कुल 21 अध्याय हैं और 9 प्रपाठक हैं। इसमें कुल 400 सूक्त हैं। इसमें कुल 1225 मन्त्र हैं। दोनों को मिलाकर 650 और 1225 को मिलाकर सामवेद में कुल 1875 मन्त्र हैं।

ऋग्वेद के 1771 मन्त्र सामवेद में पुनः आएँ हैं। अतः सामवेद के अपने मन्त्र केवल 104 ही है। ऋग्वेद के 1771 मन्त्रों में से 267 मन्त्र सामवेद में पुनरुक्त हैं। सामवेद के 104 मन्त्रों में से भी 5 मन्त्र पुनरुक्त हैं। इस प्रकार सामवेद में कुल पुनरुक्त मन्त्र 272 हैं। इस प्रकार सामवेद के अपने मन्त्र 99 ही हैं। 

शतपथ-ब्राह्मण के अनुसार सामवेद में एक लाख चौवालिस हजार अक्षर हैं---"चत्वारि बृहतीसहस्राणि साम्नाम्।" (श.प.ब्रा. 10.4.2.24)

सामवेद के ऋत्विक् उद्गाता हैं। इसके मुख्य ऋषि आदित्य हैं।

सामवेद की शाखाएँ--- --------------------------
मुनि पतञ्जलि के अनुसार सामवेद की 1000 शाखाएँ हैं---"सहस्रवर्त्मा सामवेदः" (महाभाष्य, पस्पशाह्निक) इन 1000 शाखाओं में 13 नाम इस समय उपलब्ध हैं---

(1.) राणायम (राणायनि) , (2.) शाट्यमुग्र्य (सात्यमुग्रि),
(3.) व्यास,, (4.) भागुरि,, (5.) औलुण्डी,, (6.) गौल्गुलवि,,
(7.) भानुमान् औपमन्यव,, (8.) काराटि (दाराल),,,
(9.) मशक गार्ग्य (गार्ग्य सावर्णि),,(10.) वार्षगव्य (वार्षगण्य),,
(11.) कुथुम (कुथुमि, कौथुमि),, (12.) शालिहोत्र, (13.) जैमिनि।

इन 13 शाखाओं के नामों में से सम्प्रति 3 शाखाएँ ही उपलब्ध हैं---(1.) कौथुमीय, (2.) राणायनीय और (3.) जैमिनीय।

सामवेद का अध्ययन ऋषि व्यास ने अपने शिष्य जैमिनि को कराया था। जैमिनि ने अपने पुत्र सुमन्तु को, सुमन्तु ने सुन्वान् को और सुन्वान् ने अपने पुत्र सुकर्मा को सामवेद पढाया। सामवेद का सर्वाधिक प्रचार-प्रसार व विस्तार सुकर्मा ने ही किया था। सुकर्मा के दो शिष्य थे---(क) हिरण्यनाभ कौशल्य और (ख) पौष्यञ्जि। इनमें हिरण्यनाभ का शिष्य कृत था। कृत ने एक महान् काम किया था। उसने सामवेद के 24 प्रकार के गान-स्वरों का प्रवर्तन किया। इसलिए उसके कई अनुयायी व शिष्य हुए। उनके शिष्य "कार्त" कहलाए। आज भी कार्त आचार्य पाये जाते हैं।

(1.) कौथुमीय (कौथुम) शाखाः-- ---------------------------------
यह शाखा सम्प्रति सम्पूर्ण भारत में प्रचलित है। कौथुमीय और राणायमीय शाखा दोनों में विशेष भेद नहीं है। दोनों में केवल गणना-पद्धति का अन्तर है। कौथुमीय-शाखा का विभाजन अध्याय, खण्ड और मन्त्र के रूप में है। राणायनीय-शाखा का विभाजन प्रपाठक, अर्धप्रपाठक, दशति और मन्त्र के रूप में है। कौथुमीय-संहिता में कुल 1875 मन्त्र हैं।

इस संहिता सूत्र "पुष्पसूत्र" है। इसका ब्राह्मण "ताण्ड्य-महाब्राह्मण" है। इसे पञ्चविंश-ब्राह्मण भी कहा जाता है। इसमें कुल 25 अध्याय हैं, इसलिए इसका यह नाम पडा। इसका उपनिषद् "छान्दोग्योपनिषद्" है। 

(2.) राणायनीय-शाखाः-- ------------------------
इस शाखा में विभाजन प्रपाठक, अर्धप्रपाठक, दशति और मन्त्र के रूप में हैं। इसकी एक शाखा सात्यमुग्रि है। इस शाखा का प्रचार दक्षिण भारत में सर्वाधिक है।

(3.) जैमिनीय-शाखाः--- -------------------------
इस संहिता में कुल 1687 मन्त्र हैं। इसकी अवान्तर शाखा तवलकार है। इस शाखा से सम्बद्ध केनोपनिषद् है। तवलकार जैमिनि ऋषि के शिष्य थे।

सामवेद मुख्य रूप से उपासना का वेद है। इसमें मुख्य रूप से इन्द्र, अग्नि और सोम देवों की स्तुति की गई है। इसमें सोम और पवमान से सम्बद्ध मन्त्र सर्वाधिक है। सोम, सोमरस, देवता और परमात्मा का भी प्रतीक है। सोम से सौम्य की प्राप्ति होती है। सामगान भक्ति-भावना और श्रद्धा जागृत करने के लिए है।

स्वरः--- ---------------
सामवेद के मन्त्रों के ऊपर 1,2,3 संख्या लिखी जाती है, जो 1--उदात्त, 2--स्वरित और 3---अनुदात्त की पहचान है। ऋग्वेद के मन्त्रों में उदात्त के लिए कोई चिह्न नहीं होता, किन्तु सामवेद में उदात्त के लिए मन्त्र के ऊपर 1 लिखा जाता है। ऋक् के मन्त्र पर स्वरित वाले वर्ण पर खडी लकीर होती है, इसके लिए सामवेद में 2 लिखा जाता है। ऋक् में अनुदात्त के लिए अक्षर के नीचे पडी लकीर होती है, सामवेद में इसके लिए वर्ण के ऊपर 3 लिखा जाता है।ऋग्वेद में उदात्त के बाद अनुदात्त को स्वरित हो जाता है और स्वरित का चिह्न होता है। स्वरित के बाद आने वाले अनुदात्त वर्ण पर कोई चिह्न नहीं होता। इसी प्रकार सामवेद में चिह्न 2 के बाद यदि कोई अनुदात्त वर्ण है तो उस पर कोई अंक नहीं होगा और उसे खाली छोड दिया जाता है। ऐसे रिक्त वर्ण को "प्रचय" कहा जाता है। इसका उसका एक स्वर से (एकश्रुति) न ऊँचा न नीचा किया जाता है। 

सात स्वर ये हैं---षड्ज, ऋषभ, गान्धार, मध्यम, पञ्चम, धैवत और निषाद।

ग्राम तीन हैः---मन्द्र (निम्न), मध्य (मध्यम) और तीव्र (उच्च)।

सामवेद से सम्बद्ध नारदीय-शिक्षा है।

सामविकारः--- ---------------------
किसी भी ऋचा को गान का रूप देने के लिए कुछ परिवर्तन किए जाते हैं। इन्हें विकार कहा जाता है। ये कुल विकार 6 हैं। इनमें स्तोभ मुख्य है। ये छः विकार हैं---(क) स्तोभ, (ख) विकार, (ग) विश्लेषण, (घ) विकर्षण, (ङ) अभ्यास, (च) विराम।

सामगान के 4 भेदः--- ---------------------
(1.) ग्राम-गेय-गानः--इसे प्रकृतिगान और वेयगान भी कहा जाता है। यह गाँव में सार्वजनिक स्थलों पर गाया जाता था।

(2.) आरण्यगानः--इसे वनों में गाया जाता था। इसे रहस्यगान भी कहा जाता है। 

(3.) ऊहगानः--इसका अर्थ है विचार पूर्वक विन्यास करना। पूर्वार्चिक से सम्बन्धित उत्तार्चिक के मन्त्रों का गान इस विधि से किया जाता था। इसे सोमयाग व विशेष धार्मिक अवसर पर गाया जाता था। 

(4.) ऊह्य-गानः--इसे रहस्यगान भी कहा जाता है। रहस्यात्मक होने के कारण इसे साधारण लोगों में नहीं गाया जाता था। ऊहगान और ऊह्यगान विकार गान है।

शस्त्रः---
सामवेद में "शस्त्र" शब्द का प्रयोग किया है। इसका अभिप्राय है कि गान-रहित मन्त्रों के द्वारा सम्पादित स्तुति को "शस्त्र" कहा जाता है। इसी कारण ऋग्वेद के स्तुति-मन्त्र को "शस्त्र" कहा जाता है।

स्तोत्रः---
इसके विपरीत गान युक्त मन्त्रों द्वारा सम्पादित स्तुति को "स्तोत्र" कहा जाता है। सामवेद के मन्त्र "स्तोत्र" है, क्योंकि वे गेय हैं, जबकि ऋग्वेद के मन्त्र "शस्त्र" हैं।

स्तोमः--तृक् (तीन ऋचा वाले सूक्त) रूपी स्तोत्रों को जब आवृत्ति पूर्वक गान किया जाता है, तो "स्तोम" कहा जाता है।

विष्टुतिः---
विष्टुति का अर्थ है----विशेष प्रकार की स्तुति। विष्टुति स्तोत्र रूपी तृचों के द्वारा सम्पादित होती है। इसे गान के तीन पर्याय या क्रम समझना चाहिए। स्तोम के 9 भेद हैः--त्रिवृत् , पञ्चदश, सप्तदश, एकविंश, चतुर्विंश, त्रिणव, त्रयस्त्रिंश, चतुश्चत्वारिंश, अष्टचत्वारिंश।

सामगान की पाँच भक्तियाँ--
(1.) प्रस्ताव, (2.) उद्गीथ, (3.) प्रतिहार, (4.) उपद्रव और (5.) निधन। वरदराज का कहना है कि इन पाँचों में हिंकार और ओंकार जोड देने से 7 हो जाती हैं। इन मन्त्रों का गान तीन प्रकार के ऋत्विक् करते हैं---(1.) प्रस्तोता, (2.) उद्गाता और (3.) प्रतिहर्ता।

Thursday 29 October 2015

वेदो की रचना कब और कैसे हुई ?

वेदो की रचना कब और कैसे हुई ?
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ब्रिटेनकी sacred books of east पुस्तक माला में मेक्समूलर ने ऋग्वेद की रचना ईसा से 1200 वर्ष पूर्व बताते है साथ में वह यह भी कहते है की यह तिथि निश्चित नहीं है क्यों की वेदो का कालनिर्धारित करना सरल कार्य नही है कदाचित् ही कोई इस बात का पता लगा सके की वेदो की रचना कब हुई थी कोलब्रुकस विलसन ,कीथ आदि की राय मेक्समूलर से मिलती है हॉग आर्कबिशप ऋग्वेद का काल ईसा से 2000 वर्ष पूर्व मानते है किन्तु कोई प्रमाणिक तर्क नही कोई अखंडणीय युक्ति नही सम्भवतया इनकी युक्ति का आधार यह है की बाइबल के अनुसार 6 हजार से 7 हजार वर्ष पूर्व सृष्टि की रचना हुई थी इस लिए इनके भीतर ही कोई पदार्थ रचा गया होगा (अर्थात इनलोगो की सोच और अनुमान उनकी बाईबल के इर्द गिर्द ही घूमता है इसके बाहर निकलने की चेष्टा इन विद्वानों ने कभी नही की )
कल्पसूत्रो में विवाह प्रकरण में "ध्रुव इव स्थिरा भव् "वाक्य आया है इस पर प्रसिद्ध जर्मन ज्योतिषी जैकोबी ने लिखा है की पहले ध्रुव तारा अधिक चमकीला और स्थिर था इसकी अवस्था की तिथि ईसा से 2700 वर्ष पूर्व की है इसतरह कल्प सूत्रो का निर्माण 4700 वर्ष पूर्व हुआ ज्योतिर्विज्ञान अर्थात नक्षत्रो और ग्रहो के आकाशीय स्थिति के आधार पर जैकोबी ने वेदो का निर्माण काल 6500 से अधिक सिद्ध किया ।
लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ,रामकृष्ण भण्डार,शंकर पाण्डुरंग ,शंकर बालकृष्ण दीक्षित ने बिदेशियो की अंधानुकरण छोड़ स्वयं वेदो का कालअन्वेषण किया लोक मान्य बालगंगाधर तिलक ने खोज की 
की ब्राह्मणगर्न्थो के समय कृतिका नामक नक्षत्र से नक्षत्रो की गाड़ना होता था और कृतिका नक्षत्र ही सब नक्षत्रो में आदि गिना जाता था उनदिनों कृतिका नक्षत्र में दिन रात बराबर होते थे आजकल 21 मार्च और 23 सितम्बर दिन रात बराबर होते है और सूर्य अश्विनी नक्षत्र में रहता है खगोल और ज्योतिर्विज्ञानो के अनुसार यह परिवर्तन आज से 4500 वर्ष पूर्व हुआ था इसलिए 4500 वार्ष पूर्व ब्राह्मण ग्रन्थ बने ।
मन्त्र संहिताओं के समय नक्षत्रो की गड़ना मृगशिरा ही सबसे पहले गिना जाता था और इसी नक्षत्र के सूर्य में दिनरात बराबर होते थे खगोल और ज्योतिष के अनुसार आज से 6500 वर्ष पूर्व ये स्थिति थी फलतः संहिताएं 6500 वर्ष पूर्व बनी लोकमान्य के मत से 2000 वर्षो में सारे मन्त्र रचे गए इसतरह कुछ प्राचीन ऋचाएं 8500 वर्ष पूर्व रची गई मृगशिरा में वसन्त की समाप्ति होना ही इस दिशा में लोकमान्य की सबसे बड़ी युक्ति और आधार है ।
अलेक्जेंडर (सिकंदर ) के समय ग्रीक विद्वानों ने अनेक वंशावलियों का जो संग्रह किया था उनके अनुसार चन्द्रगुप्त तक 154 राज वंश 6457 वर्ष भारत में राज्य कर चुके थे इन समस्त राजवंशो के पहले ही वेदो की रचना हो चुकी थी इस आधार पर वेदो की रचना 8000 वर्षो का हुआ ।
पूना के नारायण भवनराव ने भुगर्भशात्र के प्रमाण के आधार पर ऋग्वेदीय निर्माण काल 9000 वर्षो का सिद्ध किया ।
ऋग्वेद (10/136/5) में पूर्व और पश्चिम समुद्रो का उल्लेख मिलता है पूर्व समुद्र पंजाब के ठीक पूर्व में 
समस्त गांगेय प्रदेश को आच्छादित करके अवस्थित था इसके भीतर ही पाञ्चाल ,कोशल,वत्स् ,मगध ,बिदेह,ये सारे भूभाग समुद्र गर्भ में थे पश्चिम समुद्र कदाचित् अरब सागर था ऋग्वेद के दो मंत्रो में (10/47/2 और 9/33/6) में चार समुद्रो का उल्लेख है इस प्रकार आर्य निवास के पूर्व ,पश्चिम,उत्तर ,दक्षिण, चार समुद्र थे उत्तरी समुद्र बाहलिक और फारस के उत्तरी भाग में तुर्किस्तान जो प्राकृतिक कारणों से शुष्क हो कर इन दिनों कृष्णह्नद(Black sea ,) कश्यप ह्नद ( caspean sea ,) अराल ह्नद(sea of aral )और बल्काह्नद ( lake Balkash) के रूपो में अवस्थित है भूगोल वेत्ताओं ने इनका नाम एशियाई भूमध्य सागर रखा है इसके उत्तर में आर्कटिक महासागर था इसके पास ही वर्तमान भूमध्य सागर था एशियाई समुद्र का तल ऊँचा तथा यूरोपीय सागर तल निचा था प्राकृतिक परिवर्तनों ने जब वासफारस का मार्ग बना डाला तब एशियाई समुद्र का जल यूरोपीय समुद्र में चला गया और एशियाई समुद्र नष्ट सा हो गया इसके अंश उक्त ह्नदो के रूप में हो गए दक्षिणी समुद्र का नाम राजपुताना समुद्र था (imperial cazetteer of india vol -1) इसी में वह सरस्वती नदी गिरती थी जिनके तटो पर सैकड़ो वेद मन्त्र बने थे प्राकृतिक कारणों से राजपुताना समुद्र और सरस्वती नदी सुख गई आज भी राजपुताना के गर्भ में खारे जल की सांभर आदि झील और नमक की तथे मरुभूमि में बिलुप्त राजपुताना समुद्र की साक्ष्य दे रही है H-G -WELLS -ने अपने THE OUTLINE OF HISTORY में 25 हजार से 50 हजार के वर्षो के बिश्व का नक्शा दिया है उसमे ऐसे समुद्रो का आस्तित्व 25 हजार से 50 हजार वर्षो के बिच माना गया है गांगेय प्रदेश सरस्वती नदी और चारो समुद्र के सम्बन्ध में भूगर्भशास्त्रो का मत है की 25 हजार वर्षो से लेकर 75 हजार वर्षो के भीतर ये सब लुप्त गुप्त और रूपांतरित हुए है इन्ही और ऐसे अन्य प्रमाणों से अमल करने पर ऋग्वेद का निर्माण काल 66 हजार वर्षो का अविनाश चन्द्र दाश ने 75 हजार वर्षो का माना है प्रोफ़ेसर लौटुसिंह गौतम के सामान कुछ कट्टर सनातनी ऐतिहासिक तो ऋग्वेद का रचना काल 4 लाख 32 हजार वर्ष माना है इनके प्रमाण आप्तवचन ही अधिक है जिन यूरोपीय ने वैदिक साहित्य के बारे में लेखनी उठाई है उन सब ने कालनिर्णय पर बड़ी माथापच्ची की है वैदिक उपदेश क्या है उनकी अपूर्वता क्या है उनका प्रतिपाद्य क्या है वैदिक संस्कृति क्या है इन सब बातो पर कम ध्यान दिया गया है और कालनिर्णय पर अधिक इसी उलझन को समझ कर प्रसिद्ध जर्मन विद्वान श्लेगल ने पहले ही लिख दिया की वेद सबसे प्राचीनतम ग्रन्थ है जिसका समय निश्चित नही किया जा सकता परंतु सबसे मुख्य बात लिखी है प्रसिद्ध जर्मन वेद विद्यार्थी वेबरने उन्होंने कहा की वेद का रचना काल निश्चित नही किया जा सकता है ये उस तिथि के बने हुए है जहाँ तक पहुचने के लिए हमारे पास उपयुक्त साधन नही है बर्तमान प्रमाण राशि हम लोगो को उस समय के उन्नत शिखर पर पहुचाने में असमर्थ है यह उन वेबर साहब की राय है जिन्होंने अपना अधिकाँश जीवन वेदाध्ययन में बिताये है ।
प्रस्तुति -------:( वैदिक साहित्य )
( भारतीय ज्ञान पीठ काशी )
( पं रामगोविंद त्रिपाठी )
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वैदिक मन्त्रो का निर्माणकाल निर्धारित करना मात्र प्रयास ही हो सकता है क्यों की श्रुतियां ( वैदिक मन्त्र) स्पष्ट कहती है ।

निःश्वसितमेतद्यदृग्वेदोयजुर्वेदःसामवेदोऽथर्वाङ्गिरस इतिहासः पुराणंविद्या उपनिषदः(बृहदारण्यक उपनिषद)
ऋग्वेद यजुर्वेद अथर्वेद इतिहास पुराण उपनिषद विद्या सभी ईश्वर के निस्वास् से निकला हुआ है 
वेदो नारायण साक्षात् ( वेद ही नारायण का रूप है )
अतः उनका काल निर्धारण करना मूढ़ता का ही परिचायक हो सकता है ।
एवं वैदिक मन्त्रो का रचना किसी ने नही किया उन मंत्रो को दिब्य दृष्टि द्वारा दर्शन किया गया था ।
ऋषिदर्शनात् ( निरुक्त नैगम काण्ड २/११)
अर्थात _ मन्त्रद्रष्टा को ऋषि कहते है 
इससे ये प्रमाणित होता है की मन्त्रो की रचना किसी नेे नही किया ऋषियो मात्र उनका दर्शन किया था

उपनिषद पर महात्माओ के बिचार

स्वामी विवेकानन्द—: 'मैं उपनिषदों को पढ़ता हूँ, तो मेरे आंसू बहने लगते है। यह कितना महान ज्ञान है? हमारे लिए यह आवश्यक है कि उपनिषदों में सन्निहित तेजस्विता को अपने जीवन में विशेष रूप से धारण करें। हमें शक्ति चाहिए। शक्ति के बिना काम नहीं चलेगा। यह शक्ति कहां से प्राप्त हो? उपनिषदें ही शक्ति की खानें हैं। उनमें ऐसी शक्ति भरी पड़ी है, जो सम्पूर्ण विश्व को बल, शौर्य एवं नवजीवन प्रदान कर सकें। उपनिषदें किसी भी देश, जाति, मत व सम्प्रदाय का भेद किये बिना हर दीन, दुर्बल, दुखी और दलित प्राणी को पुकार-पुकार कर कहती हैं- उठो, अपने पैरों पर खड़े हो जाओ और बन्धनों को काट डालो। शारीरिक स्वाधीनता, मानसिक स्वाधीनता, अध्यात्मिक स्वाधीनता- यही उपनिषदों का मूल मन्त्र है।'

कवि रविन्द्रनाथ टैगोर–: 'चक्षु-सम्पन्न व्यक्ति देखेगें कि भारत का ब्रह्मज्ञान समस्त पृथिवी का धर्म बनने लगा है। प्रातः कालीन सूर्य की अरुणिम किरणों से पूर्व दिशा आलोकित होने लगी है। परन्तु जब वह सूर्य मध्याह्र गगन में प्रकाशित होगा, तब उस समय उसकी दीप्ति से समग्र भू-मण्डल दीप्तिमय हो उठेगा।'
डा॰ सर्वपल्ली राधाकृष्णन–'उपनिषदों को जो भी मूल संस्कृत में पढ़ता है, वह मानव आत्मा और परम सत्य के गुह्य और पवित्र सम्बन्धों को उजागर करने वाले उनके बहुत से उद्गारों के उत्कर्ष, काव्य और प्रबल सम्मोहन से मुग्ध हो जाता है और उसमें बहने लगता है।'

सन्त विनोवा भावे—: 'उपनिषदों की महिमा अनेकों ने गायी है। हिमालय जैसा पर्वत और उपनिषदों- जैसी कोई पुस्तक नहीं है, परन्तु उपनिषद कोई साधारण पुस्तक नहीं है, वह एक दर्शन है। यद्यपि उस दर्शन को शब्दों में अंकित करने का प्रयत्न किया गया है, तथापि शब्दों के क़दम लड़खड़ा गये हैं। केवल निष्ठा के चिन्ह उभरे है। उस निष्ठा के शब्दों की सहायता से ह्रदय में भरकर, शब्दों को दूर हटाकर अनुभव किया जाये, तभी उपनिषदों का बोध हो सकता है। मेरे जीवन में 'गीता' ने 'मां का स्थान लिया है। वह स्थान तो उसी का है। लेकिन मैं जानता हूं कि उपनिषद मेरी मां की भी है। उसी श्रद्धा से मेरा उपनिषदों का मनन, निदिध्यासन पिछले बत्तीस वर्षों से चल रहा है।*
'
गोविन्दबल्लभ –: 'उपनिषद सनातन दार्शनिक ज्ञान के मूल स्त्रोत है। वे केवल प्रखरतम बुद्धि का ही परिणाम नहीं है, अपितु प्राचीन ॠषियों की अनुभूतियों के फल हैं।'
भारतीय मनीषियों द्वारा जितने भी दर्शनों का उल्लेख मिलता है, उन सभी में वैदिक मन्त्रों में निहित ज्ञान का प्रादुर्भाव हुआ है। सांख्य तथा वेदान्त (उपनिषद) में ही नहीं, जैन और बौद्ध-दर्शनों में भी इसे देखा जा सकता है। भारतीय संस्कृति से उपनिषदों का अविच्छिन्न सम्बन्ध है। इनके अध्ययन से भारतीय संस्कृति के अध्यात्मिक स्वरूप का सच्चा ज्ञान हमें प्राप्त होता है।
पाश्चात्य विद्वानों की दृष्टि में उपनिषद

केवल भारतीय जिज्ञासुओं की ध्यान ही उपनिषदों की ओर नहीं गया है, अनेक पाश्चात्य विद्वानों को भी उपनिषदों को पढ़ने और समझने का अवसर प्राप्त हुआ है। तभी वे इन उपनिषदों में छिपे ज्ञान के उदात्त स्वरूप से प्रभावित हुए है। इन उपनिषदों की समुन्नत विचारधारा, उदात्त चिन्तन, धार्मिक अनुभूति तथा अध्यात्मिक जगत की रहस्यमयी गूढ़ अभिव्य्क्तियों से वे चमत्कृत होते रहे हैं और मुक्त कण्ठ से इनकी प्रशंसा करते आये हैं।

अरबदेशीय विद्वान अलबरुनी—:'उपनिषदों की सार-स्वरूपा 'गीता' भारतीय ज्ञान की महानता रचना है।'

दारा शिकोह—: 'मैने क़ुरान, तौरेत, इञ्जील, जुबर आदि ग्रन्थ पढ़े। उनमें ईश्वर सम्बन्धी जो वर्णन है, उनसे मन की प्यास नहीं बुझी। तब हिन्दुओं की ईश्वरीय पुस्तकें पढ़ीं। इनमें से उपनिषदों का ज्ञान ऐसा है, जिससे आत्मा को शाश्वत शान्ति तथा आनन्द की प्राप्ति होती है। हज़रत नबी ने भी एक आयत में इन्हीं प्राचीन रहस्यमय पुस्तकों के सम्बन्ध में संकेत किया है।*'
जर्मन दार्शनिक आर्थर शोपेन हॉवर— : 'मेरा दार्शनिक मत उपनिषदों के मूल तत्त्वों के द्वारा विशेष रूप से प्रभावित है। मैं समझता हूं कि उपनिषदों के द्वारा वैदिक-साहित्य के साथ परिचय होना, वर्तमान शताब्दी का सनसे बड़ा लाभ है, जो इससे पहले किसी भी शताब्दी को प्राप्त नहीं हुआ। मुझे आशा है कि चौदहवीं शताब्दी में ग्रीक-साहित्य के पुनर्जागरण से यूरोपीय-साहित्य की जो उन्नति हुई थी, उसमें संस्कृत-साहित्यका प्रभाव, उसकी अपेक्षा कम फल देने वाला नहीं था। यदि पाठक प्राचीन भारतीय ज्ञान में दीक्षित हो सकें और गम्भीर उदारता के साथ उसे ग्रहण कर सकें, तो मैं जो कुछ भी कहना चाहता हूं, उसे वे अच्छी तरह से समझ सकेंगे उपनिषदों में सर्वत्र कितनी सुन्दरता के साथ वेदों के भाव प्रकाशित हैं। जो कोई भी उपनिषदों के फ़ारसी, लैटिन अनुवाद का ध्यानपूर्वक अध्ययन करेगा, वह उपनिषदों की अनुपम भाव-धारा से निश्चित रूप से परिचित होगा। उसकी एक-एक पंक्ति कितनी सुदृढ़, सुनिर्दिष्ट और सुसमञ्जस अर्थ प्रकट करती है, इसे देखकर आंखें खुली रह जाती है। प्रत्येक वाक्य से अत्यन्त गम्भीर भावों का समूह और विचारों का आवेग प्रकट होता चला जाता है। सम्पूर्ण ग्रन्थ अत्यन्त उच्च, पवित्र और एकान्तिक अनुभूतियों से ओतप्रोत हैं। सम्पूर्ण भू-मण्डल पर मूल उपनिषदों के समान इतना अधिक फलोत्पादक और उच्च भावोद्दीपक ग्रन्थ कही नहीं हैं। इन्होंने मुझे जीवन में शान्ति प्रदान की है और मरते समय भी यह मुझे शान्ति प्रदान करेंगे।'
शोपेन हॉवर ने आगे भी कहा— 'भारत में हमारे धर्म की जड़े कभी नहीं गड़ेंगी। मानव-जाति की ‘पौराणिक प्रज्ञा’ गैलीलियो की घटनाओं से कभी निराकृत नहीं होगी, वरन भारतीय ज्ञान की धारा यूरोप में प्रवाहित होगी तथा हमारे ज्ञान और विचारों में आमूल परिवर्तन ला देगी। उपनिषदों के प्रत्येक वाक्य से गहन मौलिक और उदात्त विचार प्रस्फुटित होते हैं और सभी कुछ एक विचित्र, उच्च, पवित्र और एकाग्र भावना से अनुप्राणित हो जाता है। समस्त संसार में उपनिषदों-जैसा कल्याणकारी व आत्मा को उन्नत करने वाला कोई दूसरा ग्रन्थ नहीं है। ये सर्वोच्च प्रतिभा के पुष्प हैं। देर-सवेर ये लोगों की आस्था के आधार बनकर रहेंगे।' शोपेन हॉवर के उपरान्त अनेक पाश्चात्य विद्वानों ने उपनिषदों पर गहन विचार किया और उनकी महिमा को गाया।

इमर्सन—: 'पाश्चात्य विचार निश्चय ही वेदान्त के द्वारा अनुप्राणित हैं।'

प्रो॰ ह्यूम—: 'सुकरात, अरस्तु, अफ़लातून आदि कितने ही दार्शनिक के ग्रन्थ मैंने ध्यानपूर्वक पढ़े है, परन्तु जैसी शान्तिमयी आत्मविद्या मैंने उपनिषदों में पायी, वैसी और कहीं देखने को नहीं मिली।*'

प्रो॰ जी॰ आर्क—: 'मनुष्य की आत्मिक, मानसिक और सामाजिक गुत्थियां किस प्रकार सुलझ सकती है, इसका ज्ञान उपनिषदों से ही मिल सकता है। यह शिक्षा इतनी सत्य, शिव और सुन्दर है कि अन्तरात्मा की गहराई तक उसका प्रवेश हो जाता है। जब मनुष्य सांसरिक दुःखो और चिन्ताओं से घिरा हो, तो उसे शान्ति और सहारा देने के अमोघ साधन के रूप में उपनिषद ही सहायक हो सक्ते है।*'

डा॰ एनीबेसेंट—: ‘भारतीय उपनिषद ज्ञान मानव चेतना की सर्वोच्च देन है।'
बेबर— 'भारतीय उपनिषद ईश्वरीय ज्ञान के महानतम ग्रन्थ हैं। इनसे सच्ची आत्मिक शान्ति प्राप्त होती है। विश्व-साहित्य की ये अमूल्य धरोहर है।*'

Thursday 30 July 2015

गुरु

——–||●| बिन गुरु मुक्ति न होई  |●||——–
मिट्टी स्वय आकार ग्रहण करने में अक्षम होता है ।
समस्त मानव जाती का इस धरती पर आवागमन मिट्टी की भाँती होती है । किसी भी महान से महान ब्यक्ति का उदय तो तब होता है जब उसे कुम्हार रुपी कलाकार गुरु मिलता है जैसा कुम्हार वैसा घड़े का आकार । कुम्हार अपने परिश्रम के बल पे मिट्टी पर चोट पे चोट किये जाता है वो इस लिए की आने वाला कल में उसका मोल अनमोल हो । जिसे देखने पर हर किसी की आँख उसी पर जा ठहरे । अक्सर ये कहा जाता है की नानक और बुद्ध को गुरु नही मिला फिर भी ज्ञान हुआ । यदि मै कहु की ऐसा कदापि न होगा तब सायद आप न माने ।
मै पूछता हु क्या वो अनाथ पैदा हुए थे हर मनुष्य का प्रथम गुरु उनका माता पिता होता है माता पिता जैसा संस्कार अपने बच्चे को देंगे वो उसी के अनुरूप ढलेगा ।क्यों की जन्मजात बच्चे का मन मस्तिस्क एक कोरे कागज़ की तरह होती है आप ने जैसी कलम चलाई वैसी ही उस कोरे कागज़ पर अपनी आकृति ग्रहण करेगी ।तो क्या नानक और बुद्ध अनाथ पैदा हुए थे नहीं न । आप यदि उनका इतिहास भी उठा कर देखे तो वो दोनों उच्च कुलीन में जन्म लिए थे जिस कारण उनका संस्कार भी उच्च कोटि के मिले । बिना गुरु का तो ये श्रृष्टि तम अँधेरे की तरह है जो सूर्य के प्रकाश में भी हर ब्यक्ति का मन मस्तिस्क पर घोर अँधेरा छाया रहता है । उस अँधेरे का नाश गुरु रुपी प्रकाश द्वारा होता है । 
इस लिए शाष्त्र भी गुरु को इस उपाधि से अलंकृत किया है 
गुरुर्ब्रह्मा ग्रुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः ।
गुरुः साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः ॥
गुरु ब्रह्मा है, गुरु विष्णु है, गुरु हि शंकर है; गुरु हि साक्षात् परब्रह्म है; उन सद्गुरु को प्रणाम ।
योगीन्द्रः श्रुतिपारगः समरसाम्भोधौ निमग्नः सदा
शान्ति क्षान्ति नितान्त दान्ति निपुणो धर्मैक निष्ठारतः ।
शिष्याणां शुभचित्त शुद्धिजनकः संसर्ग मात्रेण यः
सोऽन्यांस्तारयति स्वयं च तरति स्वार्थं विना सद्गुरुः ॥
योगीयों में श्रेष्ठ, श्रुतियों को समजा हुआ, (संसार/सृष्टि) सागर मं समरस हुआ, शांति-क्षमा-दमन ऐसे गुणोंवाला, धर्म में एकनिष्ठ, अपने संसर्ग से शिष्यों के चित्त को शुद्ध करनेवाले, ऐसे सद्गुरु, बिना स्वार्थ अन्य को तारते हैं, और स्वयं भी तर जाते हैं ।
किमत्र बहुनोक्तेन शास्त्रकोटि शतेन च ।
दुर्लभा चित्त विश्रान्तिः विना गुरुकृपां परम् ॥
बहुत कहने से क्या ? करोडों शास्त्रों से भी क्या ? चित्त की परम् शांति, गुरु के बिना मिलना दुर्लभ है ।
दुग्धेन धेनुः कुसुमेन वल्ली
शीलेन भार्या कमलेन तोयम् ।
गुरुं विना भाति न चैव शिष्यः
शमेन विद्या नगरी जनेन ॥
जैसे दूध बगैर गाय, फूल बगैर लता, शील बगैर भार्या, कमल बगैर जल, शम बगैर विद्या, और लोग बगैर नगर शोभा नहि देते, वैसे हि गुरु बिना शिष्य शोभा नहि देता ।
प्रेरकः सूचकश्वैव वाचको दर्शकस्तथा ।
शिक्षको बोधकश्चैव षडेते गुरवः स्मृताः ॥
प्रेरणा देनेवाले, सूचन देनेवाले, (सच) बतानेवाले, (रास्ता) दिखानेवाले, शिक्षा देनेवाले, और बोध करानेवाले – ये सब गुरु समान है ।
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साभार ….बिष्णु देव चंद्रवंशी[[शैलेन्द्र सिंह]]