Friday 31 January 2014

निर्वाण षटकम

जब आदि गुरु शन्कराचार्य जी की अपने गुरु से प्रथम भेंट हुई तो उनके गुरु ने बालक शंकर से उनका परिचय माँगा ।

बालक शंकर ने अपना परिचय किस रूप में दिया ये जानना ही एक सुखद अनुभूति बन जाता है…
यह परिचय ‘निर्वाण-षटकम्’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ ।

मनो बुद्धि अहंकार चित्तानि नाहं
न च श्रोत्र जिव्हे न च घ्राण नेत्रे |
न च व्योम भूमि न तेजो न वायु:
चिदानंद रूपः शिवोहम शिवोहम ||1||

[मैं मन, बुद्धि, अहंकार और स्मृति नहीं हूँ, न मैं कान, जिह्वा, नाक और आँख हूँ। न मैं आकाश, भूमि, तेज और वायु ही हूँ, मैं चैतन्य रूप हूँ, आनंद हूँ, शिव हूँ, शिव हूँ...]

I am not mind, nor intellect, nor ego, nor the reflections of inner self (chitta).
I am not the five senses.
I am beyond that.
I am not the ether, nor the earth, nor the fire, nor the wind (the five elements).
I am indeed, That eternal knowing and bliss, the auspicious (Shivam), love and pure consciousness.

न च प्राण संज्ञो न वै पञ्चवायुः
न वा सप्तधातु: न वा पञ्चकोशः |
न वाक्पाणिपादौ न च उपस्थ पायु
चिदानंदरूप: शिवोहम शिवोहम ||2||

[न मैं मुख्य प्राण हूँ और न ही मैं पञ्च प्राणों (प्राण, उदान, अपान, व्यान, समान) में कोई हूँ, न मैं सप्त धातुओं (त्वचा, मांस, मेद, रक्त, पेशी, अस्थि, मज्जा) में कोई हूँ और न पञ्च कोशों (अन्नमय, मनोमय, प्राणमय, विज्ञानमय, आनंदमय) में से कोई, न मैं वाणी, हाथ, पैर हूँ और न मैं जननेंद्रिय या गुदा हूँ, मैं चैतन्य रूप हूँ, आनंद हूँ, शिव हूँ, शिव हूँ...]

Neither can I be termed as energy (prana),
nor five types of breath (vayus),
nor the seven material essences,
nor the five coverings (pancha-kosha).
Neither am I the five instruments of elimination, procreation, motion, grasping, or speaking.
I am indeed, That eternal knowing and bliss, the auspicious (Shivam), love and pure consciousness.

न मे द्वेषरागौ न मे लोभ मोहौ
मदों नैव मे नैव मात्सर्यभावः |
न धर्मो नचार्थो न कामो न मोक्षः
चिदानंदरूप: शिवोहम शिवोहम ||3||

[न मुझमें राग और द्वेष हैं, न ही लोभ और मोह, न ही मुझमें मद है न ही ईर्ष्या की भावना, न मुझमें धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ही हैं, मैं चैतन्य रूप हूँ, आनंद हूँ, शिव हूँ, शिव हूँ...]

I have no hatred or dislike, nor affiliation or liking, nor greed, nor delusion, nor pride or
haughtiness, nor feelings of envy or jealousy.
I have no duty (dharma), nor any money, nor any desire (kama), nor even liberation
(moksha).
I am indeed, That eternal knowing and bliss, the auspicious (Shivam), love and
pure consciousness.

न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दु:खं
न मंत्रो न तीर्थं न वेदों न यज्ञः |
अहम् भोजनं नैव भोज्यम न भोक्ता
चिदानंद रूप: शिवोहम शिवोहम ||4||

[न मैं पुण्य हूँ, न पाप, न सुख और न दुःख, न मन्त्र, न तीर्थ, न वेद और न यज्ञ, मैं न भोजन हूँ, न खाया जाने वाला हूँ और न खाने वाला हूँ, मैं चैतन्य रूप हूँ, आनंद हूँ, शिव हूँ, शिव हूँ...]

I have neither merit (virtue), nor demerit (vice). I do not commit sins or good deeds,
nor have happiness or sorrow, pain or pleasure.
I do not need mantras, holy places, scriptures (Vedas), rituals or sacrifices (yagnas).
I am none of the triad of the
observer or one who experiences, the process
of observing or experiencing, or any object being observed or experienced.
I am indeed, That eternal knowing and bliss, the auspicious (Shivam), love and pure consciousness.

न मे मृत्युशंका न मे जातिभेद:
पिता नैव मे नैव माता न जन्म |
न बंधू: न मित्रं गुरु: नैव शिष्यं
चिदानंद रूप: शिवोहम शिवोहम ||5||

[न मुझे मृत्यु का भय है, न मुझमें जाति का कोई भेद है, न मेरा कोई पिता ही है, न कोई माता ही है, न मेरा जन्म हुआ है, न मेरा कोई भाई है, न कोई मित्र, न कोई गुरु ही है और न ही कोई शिष्य, मैं चैतन्य रूप हूँ, आनंद हूँ, शिव हूँ, शिव हूँ...]

I do not have fear of death, as I do not have death.
I have no separation from my true self, no doubt about my existence, nor have I
discrimination on the basis of birth.
I have no father or mother, nor did I have a birth.
I am not the relative, nor the friend, nor the guru, nor the disciple.
I am indeed, That eternal
knowing and bliss, the auspicious (Shivam), love and pure consciousness.

अहम् निर्विकल्पो निराकार रूपो
विभुव्याप्य सर्वत्र सर्वेन्द्रियाणाम |
सदा मे समत्वं न मुक्ति: न बंध:
चिदानंद रूप: शिवोहम शिवोहम ||6||

[मैं समस्त संदेहों से परे, बिना किसी आकार वाला, सर्वगत, सर्वव्यापक, सभी इन्द्रियों को व्याप्त करके स्थित हूँ, मैं सदैव समता में स्थित हूँ, न मुझमें मुक्ति है और न बंधन, मैं चैतन्य रूप हूँ, आनंद हूँ, शिव हूँ, शिव हूँ...]

I am all pervasive. I am without any attributes, and without any form. I have neither
attachment to the world, nor to liberation (mukti).
I have no wishes for anything because I am everything, everywhere, every time,
always in equilibrium.
I am indeed, That eternal knowing and bliss, the auspicious (Shivam), love and pure consciousness.

इति श्रीमद जगद्गुरु शंकराचार्य विरचितं निर्वाण-षटकम सम्पूर्णं


Saturday 18 January 2014

धार्मिक प्रश्नोतरी

धार्मिक शिक्षा प्रश्नोत्तरी – { १ }  क्रमशः ......

* ईश्वर क्या है ?

॰ ईश्वर अखिल ब्रह्माण्डनायक सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा एवं सर्व शक्तिमान् है ।

* वेद किसे कहते हैं ?

॰ अनादि अनन्त अपौरुषेय नियतानुपर्वी वह शब्दराशि जिससे धर्म - अर्थ - काम - मोक्ष पुरुषार्थ चतुष्टय जाने जाते हैं , उसे वेद कहते हैं ।

॰ इनकी परम्परा सृष्टि के आरम्भ काल से बराबर चली आ रही है ।

॰ गुरुओं के मुख से सुने जाने के कारण इसे श्रुति भी कहते हैँ ।

॰ वेद चार हैं - ऋग्वेद , यजुर्वेद , सामवेद और अथर्ववेद ।

* शाखा किसे कहते हैं ?

॰ वेद के अंश को ही शाखा कहते हैं एवं संहिताओं के भेद को भी शाखा कहते हैं ।

॰ सभी वेदों की 1.131 शाखा है ।

॰ ऋग्वेद की 21 शाखाएँ है ।

आश्वालायनी , शांखायनी , शाकला , वाष्कला , माण्डुकेया प्रभृति हैं । इस समय भारतवर्ष में उत्तरी भारत में शाकला शाखा एवं दक्षिण भारत में वाष्कला शाखा की संहितायें मिलती है शेष लुप्त हैं ।

* यजुर्वेद की कितनी शाखायें हैं ?

॰ यजुर्वेद की 101 शाखाएँ हैं । उनमें 6 शाखाएँ मिलती हैं जिनके नाम हैं - तैत्तिरीय , मैत्रायणि , कठ , कापिष्ठल , श्वेताश्वतर ये कृष्ण यजुर्वेद की शाखाएँ  हैं जो उपलब्ध हैं ।

॰ शुक्ल यजुर्वेद की वाजसनेय , काण्व शाखाएँ उपलब्ध हैं शेष शाखाएँ लुप्त है ।

* सामवेद की कितनी शाखाएँ है ?

॰ सामवेद की 1000 एक हजार शाखाएँ हैं । जिनमें केवल 3 तीन शाखाएँ प्राप्त हैं शेष शाखाएँ लुप्त हैं ।

* अथर्ववेद की कितनी शाखाएँ है ?

॰ अथर्ववेद की 9 नव शाखाएँ हैं । जिनमें पैप्पलाद और शौनकीया प्राप्त हैं ।

* ऋग्वेद की शाकल शाखा का विवरण बतायें ?

॰ ऋग्वेद की शाकल शाखा 10 दस भागों में विभक्त है । जिन्हें मण्डल कहते हैं प्रत्येक मण्डल में कई सूक्त में कई ऋचाएँ हैं । कुल 1 , 028 एक हजार अठ्ठाईस सूक्त हैं । जिसमें 10 हजार 500 पाँच सौ ऋचाएँ है ।

* यजुर्वेद का विवरण बतायें ?

॰ यजुर्वेद 2 दो भागों में विभक्त हैं शुक्ल यजुर्वेद और कृष्ण यजुर्वेद । शुक्ल यजुर्वेद वाजसनेयमाध्यदिन संहिता में कुल 40 चालीस अध्याय हैं जिनमें यज्ञ संबन्धी ज्ञान का विस्तृत विवरण है ।

* कृष्ण यजुर्वेद की तैत्तिरीयशाखा में कितने मन्त्र हैं ?

॰ कृष्ण यजुर्वेद में 7 सात अष्टक , 44 चौवालीस प्रपाठक , 651 छः सौ एक्यावन अनुवाक और 2,198 दो हजार एक सौ अठ्ठावन मन्त्र समुह है ।

* शुक्ल यजुर्वेद माध्यदिन शाखा में कितने मन्त्रादि हैं ?

॰ शुक्ल यजुर्वेद माध्यदिन शाखा में 40 चालीस अध्याय 1 ,975 एक हजार नव सौ पचहत्तर मन्त्र तथा 90 , 535 नब्बे हजार पाँच सौ पैतीस अक्षर 1 , 230एक हजार दो सौ तीस सभी प्रकार के { - } धूं चिह्न हैं ।

* सामवेद का विवरण बतायें ?

॰ सामवेद की 1, 000 एक हजार शाखाओं में से कौथुमी शाखा में 29 उनतीस अध्याय हैं , 6 छः आर्चिक 88 अठ्ठासी साम , 1 , 824 एक हजार आठ सौ चौबीस मन्त्र हैं ।

राणायणी शाखा में 1 , 549 एक हजार पाँच सौ उननचास मंत्र हैं ।

* अथर्ववेद के विवरण बतायेँ ?

॰ अथर्ववेद की 9 नव शाखाएँ है जिसमें से शौनक शाखा में 20 बीस काण्ड , 34चौतीस प्रपाठक , 111 एक सौ ग्यारह अनुवाक , 733 सात सौ तैतीस वर्ग , 759 सात सौ उननचास सुक्त , 5 . 977 पाँच हजार नौ सौ सतहत्तर मन्त्र हैं । कुछ शाखाएँ ऐसी है जिनके आरण्यक , ब्राह्मण उपनिषद ही मिलते हैं मन्त्र भाग नहीं मिलते ।

* ब्राह्मण किसे कहते हैं ?

॰ शतपथ ब्राह्मण , ताड्यमहाब्राह्मण , आर्षेय ब्राह्मण , सामविधान ब्राह्मण आदि आदि ।

* आरण्यक किसे कहते हैं ?

॰ आरण्यक में कहे गये और सुने जाने के कारण इसे आरण्यक कहते हैं । यह भी ब्राह्मण भाग की तरह वेद ही हैं । वानप्रस्थाश्रम के नियत तथा ज्ञान कथा की जिसमें बाहुल्यता है तथा ब्राह्मण भाग होने के कारण वेद ही है ।

* आरण्यक ग्रन्थों के नाम बतायें ?

॰ ऐतरेयारण्यक , कौशितकी आरण्यक , तैत्तिरीय आरण्यक आदि ।

* उपनिषद् किसे कहते हैं ?

॰ ब्रह्म की विवेचना जिसमें हो उसे उपनिषद् कहते है । उपनिषद् प्रायः संहिताओं और ब्राह्मण के अंश मात्र हैं ।

* उपनिषदों के नाम बतायें ?

॰ उपनिषद् अनेकों है यथा वृहदारण्यकोपनिषद् , माण्डुक्योपनिषद् , प्रश्नोपनिषद्, कठोपनिषद् प्रभृति । ये भी सभी वेदों की शाखाओं के पृथक - पृथक हैं ।

* कल्प सूत्र किसे कहते है ?

॰ जिस ग्रन्थ में वैदिक यज्ञादि एवं संस्कारों की विधि तथा प्रयोगों का वर्णन हो उसे ही कल्प सूत्र कहते हैं । जिन वेदों की शाखाएँ नहीं मिलती उनके आरण्यक ब्राह्मण भी नहीं मिलते ।

* कल्प सूत्र के कितने भेद हैं ?

॰ कल्प सूत्र के 4 चार भेद है - श्रौत सूत्र , गृह्य सूत्र , धर्म सूत्र , शुल्व सूत्र ।

* श्रौत सूत्र किसे कहते हैं ?

॰ जिसमें श्रौत यागो का तथा श्रतियों के पठन - पाठन का वर्णन हो उसे श्रौतसूत्र कहते हैं , ये प्रत्येक वेद की शाखाओं के भिन्न - भिन्न हैं । तथा आश्वालायन ,श्रौतसूत्रकात्यायन श्रौतसूत्रादि ।

* गृह्य सूत्र किसे कहते हैं ?

॰ गृह्यसूत्र जिसमें षोडस संस्कार { जन्म से लेकर मरण अन्त्येष्टि } का वर्णन हो उसे गृह्यसूत्र कहते हैं। ये सब धर में होते है इसलिये इसे गृह्यसूत्र कहते हैं यथा पारस्कर गृह्यसूत्र , आश्वालयन गृह्यसूत्र । यथा ऋग्वेद की आश्वालयन शाखा का आश्वालयन गृह्यसूत्र , शांखायन गृह्यसूत्र प्रभृति ।

* धर्मसूत्र किसे कहते हैं ?

॰ जिसमें मानव धर्म के प्रातः काल से शय7 पर्यन्त और जन्म से मृत्यु पर्यन्त कृत्यों की विधियों का वर्णन हो उसको धर्मसूत्र कहते हैं । यथा गौतम धर्मसूत्र ।

* वेदाङ्ग किसको कहते हैं ?

॰ शिक्षा , कल्प , व्याकरण , निरुक्त , ज्योतिष तथा छन्द ये 6 छः वेद के अङ्ग हैं ।

* वेद के अङ्गों के स्थान बतायें ?

॰ शिक्षा नासिका है , कल्पसूत्र हाथ है , व्याकरण मुख है , निरुक्त कान है ,ज्योतिष नेत्र है , छन्द पाँव है ।

* शिक्षा किसे कहते हैं ?

॰ वेद मन्त्रों के उच्चारण के लिये प्रयुक्त होने वाले उदात्त - अनुदात्त - स्वरित स्वरों के नियमों का वर्णन जिसमें हो उसे शिक्षा कहते हैं ।

* कल्प किसे कहते हैं ?

॰ जिसमें वैदिक मंत्रों के ऋषि देवता छन्दों के साथ साथ यज्ञादिक एवं संस्कारों की विधि तथा प्रयोगों का निर्देशन हो उसे कल्प कहते हैं ।

* व्याकरण किसे कहते हैं ?

॰ साध्य , साधन , कर्त्ता , कर्म , क्रिया , समासादि का निरुपण एवं शब्द के व्युत्पादन तथा भाषा के नियमों का वर्णन जिसमें हो उसे व्याकरण कहते हैं ।

* निरुक्त किसे कहते हैं ?

॰ पद निर्वाचन अर्थात् शब्दों के अर्थ करने को प्रणाली का वर्णन जिसमें हो उसे निरुक्त कहते हैं।

* ज्योतिष क्या है ?

॰ जिसमें ग्रह , नक्षत्र उनकी गति एवं काल गणना का वर्णन है वह ज्योतिष है ।

* छन्द किसे कहते हैं ?

॰ लौकिक वैदिक पदों के यति विराम आदि को व्यवस्थित करने का वर्णन जिसमें हो उसे छन्द कहते हैं । छन्द दो प्रकार के होते हैं । लौकिक तथा वैदिक , मात्रा छन्द व वर्ण छन्द ।

* उपवेद कितने हैं ?

॰ चारों वेदों के चार उपवेद हैं । ऋग्वेदका उपवेद आयुर्वेध , यजुर्वेद का उपवेद धनुर्वेद , सामवेद का उपवेद गान्धर्ववेद , अथर्ववेद का उपवेद स्थापत्य - कला व अर्थशास्त्र है ।

* चारो वेदों के गोत्रादि क्या हैं ?

॰ ऋग्वेद का आत्रेय गोत्र , ब्रह्म देवता , गायत्री छन्द है । यजुर्वेद का भारद्वाज गोत्र, रुद्र देवता , त्रिष्टुप छन्द है । सामवेद का काश्यप गोत्र , विष्णु देवता , जगति छन्द है । अथर्थवेद का वैजान गोत्र , इन्द्र देवता , अनुष्टुप छन्द है ।

* वेदान्त किसे कहते हैं ?

॰ वेद के अन्तिम भाग अर्थात् आखिरी ब्रह्मविद्या विषय वेदान्त उपनिषद कहते हैं । जिसमें ब्रह्मविद्या का निरुपण हो ।

* श्रुति किसे कहते हैं ?

॰ गुरु मुख से जिसका श्रवण किया हो  जिसका कोई कर्त्ता न हो उसे श्रुति कहते हैं" श्रुतिस्तु वेदो विज्ञेयो " ।

* स्मृति किसे कहते हैं ?

॰ जिसमें प्रझा के लिये आचार - विचार - व्यवहार की व्यवस्था तथा समाज के शासन निमित्र निति और सदाचार सम्बन्धी नियम स्पष्टता पूर्वक हो उसे स्मृति कहते हैं । इसी को धर्मशास्त्र भी कहते हैं ।

* धर्म शास्त्र किसे कहते हैं ?

॰ जिसमें धर्माधर्म का निर्णय मिले उसे धर्मशास्त्र कहते हैं । इसे स्मृति भी कहते हैँ ।

* धर्म शास्त्र के निर्माता कौन थे ?

॰ धर्मशास्त्र के निर्माता महर्षि गण हैं । जिन्हें समाधि में वैदिक तत्त्वों का ज्ञान होता है वे ही धर्मशास्त्र के निर्माता व प्रवर्तक कहे जाते हैं जैसे - मनु , अत्रि , विष्णु ,हारित , याज्ञवल्क्य , उशना , अंगिरा , यम , आपस्तम्ब , सम्वर्त , कात्यायन ,वृहस्पति , पराशर , व्यास , शंख , लिखित , दक्ष , गौतम , शातातप , वसिष्ठादि ।

* धर्म किसे कहते हैं ?

॰ वैदिक विधि वाक्यों द्वारा जिनकी कर्तव्यता का ज्ञान हो उसे धर्म कहते हैं । जिसमें अभ्युदय तथा श्रेयस सिद्धि हो उसे धर्म कहते हैं ।

* सनातन धर्म के क्या लक्षण है ?

॰ सनातन परमात्मा ने सनातन जीवों के सनातन  निःश्रेयस एवं अभ्युदय के लिए जिन सनातन परम कल्याणकारी नियमों का निर्देश जिसमें किया हो उसे सनातन धर्म कहते है।

यज्ञ कुण्ड मण्डप बनाने की चर्चा किन ग्रन्थो में है ?

॰ शुल्बसूत्र , कुण्डाक्रकुण्डकल्पतरु , कुण्डरत्नावलि में यज्ञकुण्ड और मण्डपादि बनाने का विधान है ।

* आगम किसे कहते हैं ?

॰ जिसमें सृष्टि , प्रळ , देवताओं की पूजा , सर्व कार्यों के साधन , पुरश्चरण ,षट्कर्म साधन और चार प्रकार के ध्यान योग का वर्णन हो उसे आगम कहते हैं ।

* यामल किसे कहते है ?

॰ सृष्टि तत्त्व , ज्योतिष , नित्य कृत्य , सूत्र , वर्णभेद और युग धर्म का वर्णन जिसमें हो उसे यामल कहते हैं ।

* तन्त्र किसे कहते है ?

॰ सृष्टि , लय , मंत्र निर्णय , देवताओं के संस्थान , यंत्र निर्णय , तीर्थ , आश्रम धर्म, कल्प , ज्योतिष संस्थान , व्रत कथा , शौच , आशौच , स्त्री पुरुष लक्षण , राज धर्म , दान धर्म , व्यवहार तथा आध्यात्मिक विषयों जिसमें वर्णन हो उसे तन्त्र कहते हैं ।

* तैंतीस देवता के नाम क्या हैं ?

॰ 8 आठ वसु , 11 ग्यारह रुद्र , 12 आदित्य , 1 एक प्रजापति और 1 एक वषट्कार । इस प्रकार कुल 33 तैंतीस देवता होते हैं ।

* दशमहाविध्या के नाम क्या हैं ?

॰ काली , तारा , ललिता , भुवनेश्वरी , त्रिपुरभैरवी , छिन्नमस्ता , धूमावती ,बगलामुखी , मातंगी और कमला ये दशमहाविद्या हैं ।

* संध्या - वन्दन का फल क्या है ?

॰ जो द्विज प्रतिदिन संध्या करता है वह पाप रहित होकर सनातन ब्रह्मलोक में जाता है ।

¤ जितने भी इस पृथ्वी पर विकर्मस्थ द्विज हैं उनके पवित्र करने के लिए स्वयंभू ब्रह्मदेव ने संध्या का निर्माण किया है ।

¤ रात्रि में तथा दिन में जो भी अज्ञान अर्थात् पाप किया गया हो वह तीनों काल की संध्या - वन्दन से नष्ट हो जाता है ।

* संध्या न करने का दोष क्या है ?

॰ जिसने संध्या को नहीँ जाना तथा उपासना भी नहीं की वह जिवित शुद्र है और संध्या न करने पर कुत्ते की योनी में जन्मता है ।

¤ संध्या न करने वाला सदा अपवित्र है सभी कार्यों के अयोग्य है दूसरा भी यदि कोई काम करता है तो उसका फल नहीं मिलता ।

* संध्या की व्याखा क्या है ?

॰ सूर्य नक्षत्र से वजित अहोरात्र की जो संधि है तत्त्वदर्शी हमारे पूर्वज ऋषि - मुनियों ने उसी को संध्या कहा है ।

* संध्या वन्दन का काल अर्थात् समय कब होना चाहिये ?

॰ संध्या का समय सूर्योदय से पूर्व ब्राह्मण के लिए दो मुहूर्त है । क्षत्रिय के लिए इससे आधा और उससे आधा वैश्य के लिए ।

¤ ताराओं से युक्त समय अति उत्तम समय है । ताराओं के लुप्त हो जाने पर मध्यम ।  सूर्य सहित अधम । इस प्रकार प्रातः संध्या तीन प्रकार की है ।

* तीनों काल की संध्या का नाम क्या है ?

॰ प्रभात काल की संध्या का नाम - गायत्री , मध्याह्न काल की संध्या का नाम - सावित्री और सायं काल की संध्या का नाम - सरस्वति है ऐसा तत्त्वज्ञ ऋषियों का वचन है ।

* त्रैकालिक संध्या के वर्ण कौन - कौन से हैं ?

॰ प्रभात काल की संध्या - गायत्री का वर्ण - लाल है , मध्याह्न काल की संध्या - सावित्री का वर्ण - शुक्लवर्ण और सायं काल की संध्या का वण - कृष्णवर्ण है उपासनार्थियों की उपासना के लिए है ।

* त्रैकालिक संध्या का रूप क्या है ?

॰ प्रातःकाल की संध्या - गायत्री - ब्रह्मरूपा , मध्याह्न संध्या - सावित्री - रुद्ररूपा और सायं काल की संध्या - सरस्वती - विष्णुरूपा है ।

* त्रैकालिक संध्या का गोत्र क्या - क्या है ?

॰ प्रातः काल की संध्या - गायत्री का गोत्र - सांङ्ख्यायन , मध्याह्न काल की संध्या - सावित्री का गोत्र - कात्यायन एवं सायं काल की संध्या - सावित्री का गोत्र - बाहुल्य है ।

* त्रैकालिक संध्या में कौन - कौन धातु पात्र का प्रयोग करना चाहिये ?

॰ भग्न तथा टूटे पात्र से संध्या करना निन्दिन है । उसी प्रकार धारा से टूटे हुए जल संध्या करना मना है । नदी में , तीर्थ में , ह्रद में - मिट्टी के पात्र से , उदुम्बर के पात्र से , सुवर्ण - रजत - ताम्र एवं लकडी के पात्र से संध्या करनी चाहिए ।

* त्रैकालिक संध्या - वन्दन में कौन - कौन से पात्र अपवित्र है ?

॰ काँसा , लौह , शीशा . पीतल के पात्रों से आचमन करने वाला कभी शुद्ध नही हो सकता। अतः इन धातुओं के बने पात्र अपवित्र हैं इन्हें संध्या - वन्दन मेँ प्रयोग न लेना चाहिये।

* किन - किन स्थानों पर संध्या - वन्दन करना विशेष फलप्रद है ?

* अपने धर अर्थात् अपने निवास स्थान पर संध्या - वन्दन करना समान फल प्रदायक है। गायों के स्थान पर सौगुना , बगीचा तथा वन में हजार गुना , पर्वत्र पर दस हजार गुना , नदी के तट पर लाख गुना , देवालय में करोड़ गुना , भगवान् सदाशिव शङ्कर के सम्मुख बैठकर जप करना , संध्या करने से अनन्त गुना फल मिलता है ।

¤ धर के बाहर संध्या करने से झूठ बोलने से लगा पाप , मद्य सूँघने से लगा पाप ,दिवा मैथुन करने से लगा पाप नष्ट होता है । अतः संध्या धर से वाहर पवित्र स्थान में करना चाहिए ।

* संध्या - करने का समय अगर निकल जाए तो क्या  क्या करना चाहिए ?

॰ किसी कारण से संध्या का समय निकल जाये विलम्ब हो जाये तो श्री सूर्यनारायण भगवान् को चौथा अर्घ देना चाहिए इस अर्घ दान से कालातिक्रमणजन्य पाप नष्ट होता है।

* संध्या - वन्दन करने के लिये कौन से आसन उपयुक्त है ?

॰ कृष्णमृग चर्म पर बैठने से ज्ञान सिद्धि , व्याघ्रचर्म पर बैठने से मोक्ष प्राप्ति , दुःख नाश के कम्बल पर वैठना चाहिए । अभिचार कर्म करने के लिए नील वर्ण के आसन , वशीकरण के लिए रक्तवर्ण , शान्ति कर्म के लिए कम्बल का आसन , सभी प्रकार के सिद्धि के लिये कम्बल का आसन श्रेयस्कर है । बांस पर बैठने दरिद्रता ,पथ्थर पर बैठने से गुदा रोग , पृथ्वी पर बैठने से दुःख , बिधी हुई लकड़ी अर्थात् छेद किया हुआ {किल लगी हुई } पर बैठकर संध्यादि करने से दुर्भाग्य , घास पर बैठने से धन और यश की हानी , पत्तों पर बैठकर जप करने - संघ्या करने से चिन्ता तथा विभ्रम होता है ।

* काष्ठासन तथा वस्त्रासन का माप क्या होना चाहिए ?

॰ काष्ठासन 24 अंगुल लम्बा 18 अंगुल चोड़ा 4 या 5 अंगुल ऊँचा होना चाहिए ,वस्त्रासन 2 हाथ से ज्यादा लम्बा नहीं होना चाहिए 1 एक हाथ से ज्यादा चौड़ा न हो , 3 अंगुल से ज्यादा मोटा नहीं होना चाहिए ।

* लकड़ी की खड़ाऊँ कहाँ - कहाँ नहीं पहना चाहिए ?

॰ आग्न्यागार में , गौशाला में . देवता तथा ब्राह्मण के सम्मुख , आहार के समय ,जप के समय पादुका का त्याग कर देना चाहिए ।

* संध्या करते समय मुख किस दिशा में रखें ?

॰ पवित्र होकर ब्राह्मण संध्योपासना करते समय पूर्व दिशा में मुख करके बैठे तथा जप भी पूर्वाभिमुख करे ।

¤ जहाँ कर्त्ता का अंग न उल्लेख हो वहाँ दक्षिण अंग समझना चाहिए ।

¤ जप होमादि कर्मों में जहाँ का उल्लेख न हो वहाँ पूर्व ईशान ओर उत्तर दिशा समझे ।

¤ दैवकार्य रात्रि को सदा उत्तराभिमुख करना चाहिए ।

¤ शिवार्चन भी उत्तराभिमुख करना चाहिए ।

¤ जहाँ निरन्तर सूर्य उगता है वेदज्ञ उसी को प्राची पूर्व दिशा कहते हैं ।

¤ ईशानमुख या पूर्वाभिमुख होकर संध्या - वन्दन करें ।

* भस्म धारण कैसे करें ?

॰ प्रातः जल मिलाकर , मध्याह्न चंदन मिलाकर तथा सायं केवल भस्म ही लगावें ।

भस्म कौन सी लेनी चाहिए ?

॰ श्रीगङ्गाजी के तीर पर उत्तम मिट्टी को जो ललाट पर लगाता है वह तमोनाश हेतु भगवान् श्रीसूर्यदेव के तेज को लगाता है ।

¤ गोमय को जलाकर की हुई भस्म ही त्रिपुण्ड्र के योग्य है ।

¤ स्नानकर मिट्टी - भस्म - चंदन व जल से त्रिपुण्ड्र अवश्य करें किन्तु जल में जल त्रिपुण्ड्र करें ।

* भस्म धारण के प्रकार क्या हैं ?

॰ भस्म से त्रिपुण्ड्र - मिट्टी से ऊर्ध्व - अभ्यंगोत्सवादि रात्रि में चंदन से दोनों करें ।

¤ गृहस्थ को सदा जल मिश्रित ही भस्म लगाना चाहिए ।

¤ यति केवल भस्म ही लगाना चाहिए ।

¤ दाहिने हाथ की मध्य की तीन अंगुलियों से विद्वान लोग त्रिपुण्ड्र धारण करें जो सब पापों को नाश करने वाला है ।

¤ जो त्रिपुण्ड्र धारण नहीं करता उसके लिए सत्य , शौच , जप , होम , तीर्थ , देव - पूजन सभी व्यर्थ हैं ।

* भस्म कहाँ - कहाँ धारण करें ?

॰ ललाट , हृदय , नाभी , कण्ठ , बाहुसंधि , पृष्टदेश , शिर - इन स्थानों में भस्म लगावें ।

* त्रिपुण्ड्र कितना लम्बा होना चाहिए ?

॰ ब्राह्मण के लिए 8 आठ अंगुल लम्बा , क्षत्रिय के लिए 4 चार अंगुल लम्बा , वैश्य के लिए 2 दो अंगुल लम्बा शेष शुद्रादि के लिए 1 एक अंगुल लम्बा त्रिपुण्ड्र लगाना चाहिए ।

* त्रिपुण्ड्र किसे कहते हैं ?

॰ भ्रुवों के मध्य से प्रारम्भ कर जब तक भ्रुवों का अन्त न हो मध्यमानामिका अंगुलियों से मध्य में प्रतिलोम अंगुठे से जो रेखा की जाती है उसे त्रिपुण्ड्र कहते हैं ।

* करमाला किसे कहते हैं ?

॰ मध्याङ्गुली के आदि के दो पर्वों को जप काल में छोड़ देना चाहिए । स्वयं श्रीब्रह्माजी का कथन है कि उसे मेरु मानना चाहिए ।

* मेरु लंघन ने क्या दोष लगता है ?

॰ मेरुहीन तथा मेरु के लांघने वाली माला अशुद्ध होती है तथा निष्फल है ।

* माला किस चीज़ की उत्तम होती है ?

॰ अरिष्ट पत्र एवं बीज , शङ्ग पद , मणि , कुशग्रन्थी , रुद्राक्ष ये क्रमशः उत्तरोत्तर उत्तम है।

* जप के लिए माला किसकी होनी चाहिए ?

॰ प्रवाल , मुक्ता , स्फटिक , ये जप के लिए कोटी फलप्रद माने गये

* भस्म न धारण करने से क्या दोष लगता है ?

॰ स्नान , दान , जप , होम , संध्या - वन्दन , स्वाध्यायादि कर्म ऊर्ध्व पुण्ड्र {त्रिपुण्ड्र } विहिन के लिए निरर्थक है अर्थात् इनका कोई भी फल नहीं मिलता ।

¤ ललाट पर तिलक कर के ही संध्या - वन्दन करें जो ऐसा नहीं करता उसका किया हुआ सब निरर्थक है ।

¤ तुलसी की माला अक्षय फल दायक माना गया है ।

* माला का दाना किन - किन अंगुलियों से बदला जाये ?

॰ अंगुठे और मध्यमा अंगुली से माला का दाना बदलनी चाहिए । तर्जनी अर्थात् अंगुठे की बगल वाली अंगली से माला के मनके अर्थात् दाने का स्पर्श भी नहीं करना चाहिए । क्योंकि मध्यमा अंगुली आकर्षण करने वाली तथा सब प्रकार की सिद्धि प्रदायक होती है ।

* कर्म विशेष में दर्भ का क्या प्रमाण है ?

॰ ब्रह्मयज्ञ में गोकर्णमात्र दो दर्भा , तर्पण में हस्तप्रमाण तीन दर्भा ।

* गोकर्ण किसे कहते हैं ?

॰ तर्जनी और अंगुठे को फैलाकर जो प्रादेश प्रमाण होता है उसे ही गोकर्ण कहते हैं ।

* वितरित किसे कहते हैं ?

॰ कनिष्टिका तथा अंगुठे के फैलाने पर वितरति होता है जिसे विलांत या द्वादशाङ्गुल कहते हैं ।

* पवित्र कैसी दर्भा का होता है ?

॰ अनन्त गर्भवति अग्रभाग सहित दो दलवाली प्रादेशमात्र कुश का पवित्र होता है । मार्कण्डेय पुराण के मत से ब्राह्मण को 4 चार शाखा वाली दर्भा से , क्षत्रिय को 3तीन शाखा वाली दर्भा और वैश्य को 2 शाखावाली दर्भा से पवित्र बनाना चाहिए ।

* सपवित्र हस्त से आचमन करना या नहीं करना चाहिए ?

¤ सपवित्र  हस्त से आचमन करने से वह पवित्र उचिष्ट नहीं होता है ।

* कौन - कौन से कर्म दोनों हाथों में दर्भा लेकर करना चाहिए ?

॰ स्नान , दान , होम , जप , स्वाध्याय , पितृकर्म तथा संध्या - वन्दन दोनों हाथ में दर्भा लेकर करें ।

* पवित्र किसे कहते हैँ ?

॰ 2 दो अंगुल जिसका मूल भाग हो , 1 एक आंगुल की ग्रन्थी हो और 4 चार अंगुल जिसका अग्रभाग हो उसे पवित्र कहते हैं ।

* ब्रह्मग्रन्थी और वर्तुल ग्रन्थी कहाँ - कहाँ लगाना चाहिए ?

॰ ब्रह्मयज्ञ में , जप में , पहने जाने वाले पवित्र में ब्रह्मग्रन्थी लगावें ।

* ब्रह्मग्रन्थी तथा वर्तुल ग्रन्थी में क्या भेद हैं ?

॰ ब्रह्मग्रन्थी तथा वर्तुल ग्रन्थी परस्पर विपरीत क्रम से हैं ।

* कुशा तथा दूर्वा की पवित्री में अधिक उत्तम कौन हैं ?

॰ कुशा तथा दूर्वा की पवित्री से भी उत्तम सुवर्ण की पवित्री उत्तम है ।

* कुशा के अभाव में क्या - क्या लेना चाहिए ?

॰ कुशा के अभाव में काश , क्योंकि कुश काश के समान हैं । काश के अभाव में अन्यदर्भा भी उचित है , दर्भा के अभाव में स्वर्ण , रोप्य , ताभ्र भी ग्रहण किया जाता है ।

* दश दर्भायें कौन - कौन से होते हैं ?

॰ कुश , काश , शर , दुर्वा , यव , गोयुम , बलबज , सुवर्ण , रजत और ताम्र ये दश दर्भा कहलाती हैं ।

* यदि दोनों हाथो के लिए पवित्री न हो तो क्या करें ?

॰ यदि दोनों हाथो के लिए पवित्री न हो तो दाहिने हाथ के लिए तो पवित्री अत्यावस्यक है ।

* सुवर्ण पवित्री कितने वजन का हो ?

॰ सुवर्ण पवित्री 16 माशे से ऊपर वजन की बनानी चाहिए , इससे कम वजन की नहीं हो।

* शिखा बंधन मंत्र से करें या वैसे ही ?

॰ अमन्त्रक शिखा बंधन करने से जप होमादि सभी वृथा हो जाते हैं ।

* सदा यज्ञोपवीत और शिखा बाँधे क्यों रखना चाहिए ?

॰ बिना यज्ञोपवीत तथा बिना शिखा बाँधे रहने वाले व्यक्ति का किया हुआ सभी कर्म निरर्थक हो जाता है । उसका कोई फल नही प्राप्त होता ।

* शिखा बंधन सहित कौन - कौन कार्य करें ?

॰ शौच , दान , जप , होम , संध्या , देवपूजादि कार्य शिखा बाँध कर ही करना चाहिए ।

* शिखा कहाँ - कहाँ खुली रखें ?

॰ शौच , शयन , स्त्रीसंग , भोजन , दन्तधावन करते समय शिखा खुली रखनी चाहिए ।


मूर्ति पूजन

हिन्दू धर्म को सनातन धर्म कहा जाता है, जिसका अर्थ है सदा से अर्थात सृष्टि से आरंभ से चला आने वाला धर्म सत्युग (सतयुग) में धर्म ही सबका शासक था।
न राज्यं नैव राजसीन्न दण्डो नैव दाण्डिक:
धर्मेणैव प्रजा: सर्वारक्ष्यन्ते स्व परस्परमद् ।। (म.मा.)
तब सारी प्रजा धर्म से ही एक दूसरे की रक्षा करती थी, सब लोहो ंके धर्म में संलग्न होने से कहीं भी अन्याय का नाम निशान नहीं था । किसी का भी मन अधर्म की ओर प्रवृत्त नहीं होता था ऐसी परिस्थिति में किसी नियामक राजा की आवश्यकता नहीं थी ।
वस्तुत: समस्त जगत एकमात्र धर्म के बल पर ही सुरक्षित और सुस्थिर रहत ाहै । धर्म विश्व की प्रतिष्ठा है । धर्म शब्द की व्युत्पत्ति दो प्रकार से है।
1. धनानि स्त्रोतीनि धर्म-अर्थात जो धर्म प्राणियों को सुखी करने के लियेे सब प्रकार से धन धान्य आदि की वृष्टि करता है वह धर्म है ।
2. धारयते इत धर्म: अर्थात जो धर्म पालन पोषण आदि के द्वारा प्राणियों को सब प्रकार से आप्यायित करता हुआ सबको धारण किये रहता है उसे धर्म कहते हैं ।
धर्म में अपार शक्ति है, वह सदा सत्य रूप में है, धर्म सात्रात ईश्वर का सांसारिक रूप है, मनु ने धर्म के दस लक्षमण इस प्रकार बताये हैं ।
घृति: क्षमा दमोडस्तेयं शौचमिन्द्रिय निग्रह:
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणम् ।। (मनु 6/92)
अर्थात धैर्य, क्षमा, मन पर नियंत्रण, चोरी न करना (न्याय पूर्ण जीवन) शरीर के अंदर बाहर की पवित्रता, इंद्रियों पर नियंत्रण, विवेक बुद्धि (सद्बुद्धि) विद्या, सत्य, अक्रोध, इन सबको जिस आध्यात्मिक उर्जा के माध्यम से पाने के लिए मनुष्य ने एक मार्ग खोज निकाला उसे हम अपने अपने धर्म में मूर्ति पूजा कहते हैं। मूर्ति पूजा का संबंध ईश्वर से है । ईश्वर का वास्तविक स्वरूप हम नहीं जानते । हमने अपने धर्म के माध्यम से ही उसे पहचाना उसकी आरादना की, अपना दु:ख सुख उसे ही सुनाया । उसी ने हमारी मनोकामनाएं पूर्ण की । असंख्य मंदिरों में भगवान की सुन्दर प्रतिमाओं (मूर्तिओं) को देखकर हम अपने ईश्वर के आगे नतमस्तक हो गये । हमारे मन के विश्वास को उस अदृश्य शक्ति ने बनाये रखा। अपना आशीर्वाद दिया । अपने धर्म पर किये गये अटूट आस्था का ही परिणाम है कि लोग मंदिरों, गुरूद्वारों, मस्जिदों, गिरजाघरों आदि में अपनी श्रद्धा से उस सर्वशक्तिमान ईश्वर(सबका मालिक एक) के दर्शनार्थ जाते रहते हैं ।
सनातन धर्म ने हमें ब्रह्ममुहूर्त में उठकर नित्य कर्म से निवृत होकर पूजा पाठ कर्म करने के लिये प्रेरित किया। आज विश्व के विभिन्न भागों में सनातन धर्मावलंबियों की संख्या लगभग 95 करोड़ से अधिक है। सनातन धर्म की सबसे बड़ी विशेषता उसकी धार्णिक सहिष्णुता है । सनातन धर्म सर्वे भवन्तु सुखिन:, सर्वे सन्तु निरामया: के सिद्धांत पर खड़ा है । सनातन धर्म ने देवी देवताओं की पूजा के लिए हमें अपनी इच्छा पर छोड़ दिया है । हम जिसे चाहे उस देवी देवता की आराधना करें, मूर्ति पूजा करें ।
मूर्ति पूजा के तथ्यों की यदि संक्षिप्त विवेचना की जाय तो मूर्ति पूजा का श्रीगमेश वैदिक सभ्यता से ही माना गया है क्योंकि इसी युग में आध्यात्मिक चिन्तन का उदय हुआ , जिसे वेदान्त कहा गया। तभी अवतारवाद का भी वेद में मंत्र आया प्रजापतिश्चरति गर्भे अन्तरजायमानो बहुधा विजायते (यजु. 31/19) इन्द्रो मायाभि: पुरूरूप ईयते (ऋगवेद सं. 6/47/18) इन्हीं मंत्रों के अनुाद रूप में भगवत गीता में कहा गया है-
अजोडपि सन अव्ययात्मा भूतानामीश्वरोडपि सन
प्रकृति स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायमा (4/6)
परमात्मा का विविध प्रकार से पृथ्वी में प्रकट होना ही अवतार है । भगवत गीता में ही धर्म की रक्षा के लिए पृथ्वी पर भगवान के अवतार को सिद्ध किया है ।
यदा यदा कि धर्मस्य ग्लानिर्भवाते भारत ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम।
परित्राणाय सादूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्म संस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे-युगे ।।
अर्थात -धर्म का ह्रास, अधर्म का अभ्युत्थान होने पर सत्पुरूषों की सुरक्षा और दुराचारी दुर्जनों के विनाश एवं धर्म के संस्थापन के लिए पृथ्वी पर भगवान का अवतार होता है।
यह सत्य है कि हर कोई अपने धर्म की रक्षा और अधर्म के विनाश के लिए उस प्रभु के सहारे है जो अदृश्य
है। हमारे चिन्तन में सर्वत्र ईश्वरदर्शन करना ही सर्वोपरि है।
ईशावास्यमिदं सर्वे यत्किं च जगत्यां जगत
सनातन धर्म कहता है कि हम सब ईश्वर के अंश है और सभी को मानवता का भाव रखकर एक दूसरे से स्नेह रखते हुए प्रभु स्मरण करना चाहिए स्वंय भगवान कहते हैं -
ये यथा मां प्रपधन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम (भगवतगीता 4/11) जो मुझे जिस प्रकार भजते हैं भी उसको उसी प्रकार भजता हूं। मूर्ति पूजा के साथ हमारा भगवान के सात जन्म से लेकर मृत्यु तक का घनिष्ठ एवं अटूट संबंध है। आवश्यकता है प्रभु के प्रति समर्पित होने और यह मानने की कि मेर ेतो गिरधर गोपाल दूसरों न कोई मीराबाई की भांति ऐसी अनन्य निष्ठा (दृढ़भाव) हो जाने पर फिर प्रभु की कृपा स्वत: ही बरसने लगती है । संत तुलसीदास जी ने इसी संदर्भ में कहा जाकि रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखि तिन तैसी मूर्ति के भेदों की यदि विवेचना की जाय तो ये आठ प्रकार की है। शैली, दारूमयी, लौही, लेप्या, लेख्या, सैकती, मनोमयी और मणिमयी, इन आठ भेदों के भी दो प्रतक से भेद है चला एवं अचला चला मूर्ति वे हैं जो पिटारी आदि में रखकर सर्वत्र ले जायी जा सकती है । उनमें आवाहन विसर्जन के सात अथवा आवाहन विसर्जन के बिना दोनों प्रकार से पूजा की जा सकती है। अचला मूत्रियां वे हैं जिनमें इष्टदेव का आवाहन और प्राण प्रतिष्ठा करके उन्हें किसी मंदिर में स्थापित किया जाता है। उनकी नियमित पूजा में रोज आवाहन विसर्जन की आवश्यकता नहीं रह जाती है ।
मूर्ति पूजा का इतिहास यह कहता है कि आज से 5000 वर्ष पूर्व सिन्धु घाटी की सभ्यता से मूर्ति पूजा प्रारंभ हुई । सिन्धु घाटी सभ्यता के पतन के बाद भारत भूमि में एक नई सभ्यता का उदय हुआ जिसे इतिहासकारों ने वैदिक सभ्यता कहा। इस सभ्यता की जानकारी का मुख्य स्त्रोत वैदिक साहित्य है। वैदिक सभ्यता के संबंध में प्राथमिक स्त्रोत व जानकारी ऋग्वेद पर आधारित है। यह वेद देवताओं की स्तुति में बने भावपूर्ण श्लोकों का संग्रह है । वैदिक सभ्यता को इतिहसकारों ने दो भागों या कालखण्डों में विभाजित किया है। ऋग्वेद के रचनाकाल 1500 ई. पू. से 1000 ई. पू. को ऋग्वैदिक काल तथा अन्य वेदों सामवेद, यजुर्वेद तथा अथर्ववेद के रचनाकाल 1000 ई. पू. से 600 ई. पू. को उत्तर वैदिक काल कहा है । भारत में सर्वप्रथम आर्यो ने सप्त सिंधु या सात नदियों के प्रदेश में निवास किया । यही पर ऋग्वेद की रचना हुई । उत्तर वैदिक काल को बौद्धिक चिंतन एवं ज्ञान के क्षेत्र में महत्वपूर्ण माना जाता है। आध्यात्मिक संस्कृत का विकास इसी काल में हुआ।
यदि मूर्ति पूजा के संदर्भ में विश्व की विभिन्न सभ्यताओं का विश्लेषण किया जाय तो यही ज्ञात होता है कि प्रत्येक सभ्यता के लोग धार्मिक भावनाओ से जुड़े हुए थे और ईश्वर पर उनका विश्वास था। कई सभ्यताओं में मूर्तिकला, चित्रकला, वास्तुकला, मदिर निर्माण कला काफी विकसित थी । भारत में प्राचीन मंदिरों एवं उत्खनन में पाई गई मूर्तियों की सुरक्षा भारतीय पुरतत्व विभाग ने ली है ।
मूर्ति पूजा के तथ्यों पर विचार करने से यह स्पष्ट होता है कि आस्था एवं भावना को उभारने के लिये व्यक्ति को मूर्ति चित्र सदैव प्रतीकारात्मक रूप में चाहिये। आराध्य की मूर्ति की पूजा करके मनुष्य का उसके सात मनोवैज्ञानिक संबंध स्थापित हो जाता है। मन को स्थिर रखने के लिये साधक को मूर्ति की आवश्यकता पड़ती है मूर्ति में ही वह असीम सत्ता का दर्शन करना चाहता है। भगवान की भव्य मूर्ति के दर्शन से मन को एकाग्र करने में सहजता होती है ।
प्रत्येक मूर्ति में शक्ति निहित होती है । मंदिर में स्थापित की जाने वाली सभी मूर्तियो की वैदिक मंत्रों से प्राण प्रतिष्ठा की जाती है। प्राण प्रतिष्ठा के उपरान्त वह मूर्ति शक्ति से परिपूर्ण समझी जाती है। अथर्ववेद (2/13/4) में प्रार्थना है हे भगवान आइए और इस पत्थर की बनी मूर्ति में अधिष्ठित होइए। आपका यह शरीर इस पत्थर की मूर्ति में समाहित हो जाए । वास्तुशास्त्र के अंतर्गत भी उत्तर ईशान कोण में पूजा स्थल अथवा मंदिर की स्थापना हेतु उत्तम स्थान बताया गया है। प्राय: भवन निर्माण में सभी लोग इसी दिशा में अपना पूजा स्थल बनाते हैं ताकि घर में ईश्वर की कृपा से सुख शांति और समृद्धता बनी रहे। अन्तत: यही कहना होगा कि उपासना और ध्यान की उच्च स्तरीय साधना के लिए मूर्ति पूजा से श्रेष्ठ कोई अन्य साधना है ही नहीं।


Thursday 9 January 2014

ब्राह्मण वर्ण

श्रुतिस्मृती उभे नेत्रे ब्राह्मणस्य प्रकीर्त्तिते।
    एकया रहित: काणो द्वाभ्यामंध उदाहृत:॥ (हारीत)

हिंदू समाज में ब्राह्मणों का स्थान सबसे ऊँचा माना जाता है। यद्यपि संन्यासियों की प्रतिष्ठा सबसे बढ़ी-चढ़ी है तथापि हिंदूशास्त्रों के अनुसार दंड कोषाय, वस्त्रदि धारणपूर्वक संन्यास का अधिकार केवल ब्राह्मणों को ही है, न कि इतर वर्णों को भी। अत: संन्यासियों की प्रतिष्ठा भी प्रकारांतर से ब्राह्मणों की ही प्रतिष्ठा समझी जानी चाहिए। अब विचारना यह है कि यह प्रतिष्ठा क्यों हुई, हिंदू समाज के ऊपर ब्राह्मणों की इतनी धाक क्यों जम गई, कि आज इस गए-गुजरे जमाने में भी ब्राह्मणों के नाम पर कट मरनेवाले लाखों मनुष्य पाए जाते हैं, ब्राह्मण नाममात्र से ही लोगों की श्रद्धासरित क्यों उमड़ पड़ती है, लोग डर के मारे काँप क्यों उठते हैं, तथा प्रतिदिन उनके खिलाने और पिलाने और देने-लेने में आज भी लाखों रुपए क्यों खर्च किए जाते हैं, जब कि अर्थाभाव के ही कारण सभी देशहित के कार्य रुके पड़े हैं - सार्वजनिक कार्यों के लिए देश के सच्चे नेताओं को दर-दर की खाक छाननी पड़ रही है! क्या कारण है कि संप्रति समाज पर ब्राह्मणों की इस सत्ता के लाखों विरोधियों के रहते हुए भी जनता की भक्‍ति अनेक अंशों में ज्यों की त्यों अटूट बनी हुई है। न केवल हिंदू जनता ने ही, वरन यजुर्वेद ने भी इनको सबसे ऊँची गद्दी दी है, क्योंकि विराट भगवान के मुख का स्थान ब्राह्मणों को दिया है। जैसा कि :

ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद्वाहू राजन्य: कृत:।
    उरू तदस्य यद्वैश्य: पद्‍भयां शूद्रो अजायत॥

'विराट् भगवान के मुख से ब्राह्मण उत्पन्न हुआ, अथवा मुख स्थानीय हुआ, क्षत्रिय बाहु से या बाहुस्थानीय, वैश्य जंघा से अथवा जंघा स्थानीय और शूद्र पाँव से अथवा पाँवस्थानीय' (यजु. 32/12)। इसी प्रकार जब यजुर्वेद के ही 22वें अध्याय के 22वें मन्त्र में आशीर्वाद या प्रार्थना आई है तो सबसे प्रथम 'आ ब्रह्मन ब्राह्मणो ब्रह्मवर्चसी जायताम्' द्वारा ब्रह्मतेजो युक्‍त ब्राह्मणों के ही हिंदू समाज में उत्पन्न होने की प्रार्थना की गई है, बाद को क्षत्रियादि की। इसी तरह 'पुनस्त्वादित्या रुद्रा वसव: समिंधंतां पुनर्ब्रह्मणो वसुनीथ यज्ञै:' (यजु. 12/44) इत्यादि में भी आदित्य आदि देवताओं के बाद ब्राह्मणों का ही नाम लिया गया है। भगवान मनु भी लिखते हैं कि :

विधाता शासिता वक्‍ता मैत्रो ब्राह्मण उच्यते।
    तस्मै नाकुशलं ब्रूयान्न शुष्कां गिरमीरयेत्॥

'शास्त्रो का रचयिता तथा सत्कर्मों का अनुष्ठान करनेवाला, शिष्यादि की ताडनकर्ता, वेदादि का वक्‍ता और सर्व प्राणियों की हितकामना करनेवाला ब्राह्मण कहलाता है। अत: उसके लिए गाली-गलौज या डाँट-डपट के शब्दों का प्रयोग उचित नहीं' (मनु; 11-35)। इस सम्बन्ध में और भी अधिक विचार आगे मिलेगा। कहने का तात्पर्य यह है कि हिंदू समाज में ब्राह्मणों का स्थान प्रथम से ही ऊँचा है और सभी ने इसे स्वीकार किया है।

अब यदि इस प्रतिष्ठा, इस गौरव वा उच्च स्थान का कारण ढूँढ़ने चलते हैं तो बहुत दूर जाना नहीं पड़ता। जिन वाक्यों या प्रसंगों में प्रतिष्ठा दी गई है उन्हीं का पर्यालोचन हमें वास्तविक कारण तक निरबाधा पहुँचा देता है। यजुर्वेद के 22वें अध्याय का जो वाक्य पूर्व प्रदर्शित है उससे ही स्पष्ट है कि प्रतिग्रह, जमींदारी, कृषि, पंडागिरी या ढोंग से पेट पालने अथवा द्रव्य कमानेवाले नाममात्र के ब्राह्मणों की कामना नहीं की गई है; यह नहीं कहा गया है कि पेटपाल पांडे उत्पन्न हो कर ढाई सेर अन्न का एक ही बार निस्तार करें, किंतु ब्रह्मतेज: संपन्न ब्रह्मवर्चस्वी शंकर, व्यास, वसिष्ठादि सरीखे तरण तारण ब्राह्मणों के उत्पन्न होने की ही प्रार्थना है, जिनसे जगत का निस्तार हुआ, हो रहा है और होगा। तिलक तथा गोखले जैसे कर्मवीर ब्राह्मणों को ही हम सर्वदा से चाहते और मानते चले आए हैं। किसी की प्रतिष्ठा उसका मुख देख कर कोई नहीं करता और यदि कभी करता भी है तो सहस्रों में कोई। तिस पर भी वह चिरस्थायिनी नहीं हो सकती है। यजुर्वेद ने भी यदि भगवान का मुखरूपी स्थान ब्राह्मणों को दिया है तो केवल परान्नभोजी होने के कारण ही नहीं। जिस मुख से भोजन होता है उसी से प्रथम (भोजन से पूर्व) ही वेद शास्त्रो का पठन-पाठन तथा संसार को सदुपदेश हो लेता है। वही मस्तक ज्ञान का भंडार और सरस्वती का जीता-जागता मन्दिर है। वह ऐसा सरस्वती भवन है जिससे सहस्रों लाभ उठाते हैं और जहाँ चौबीस घंटे सरस्वती देवी की अविच्छिन्न आराधना होती रहती है। यदि पूर्वोक्‍त 12वें अध्याय वाला यजुर्वाक्य ब्राह्मणों का नाम लेता है तो साथ ही वह यह भी कहता है कि 'ब्राह्मणों यज्ञैस्त्वा समिंधान्ताम्' - हे अग्ने, तुम्हें ब्राह्मण लोग यज्ञों द्वारा उद्दीप्त करें। वह यज्ञयाग में जन्म व्यतीत करनेवाले ही कर्मपरायण ब्राह्मणों का नाम लेता है, न कि केवल पेटपरायणों का।

अतएव मनु भगवान ने भी पूर्वलिखित वाक्य द्वारा ब्राह्मणों का स्वाभाविक-जन्मसिद्ध-स्वरूप यही बतलाया है कि वह सत्कर्मों का अनुष्ठान करनेवाले तथा भूतों की हितकामनावाले होते हैं। वह कहते हैं कि सन्मार्ग का उपदेशक तथा पूर्वोक्‍त विशेषतायुक्‍त ही ब्राह्मण कहा जा सकता है। जो ऐसा हो वही पक्का-मानवीय-ब्राह्मण कहलाता है, न कि केवल ब्राह्मणी माता और ब्राह्मण पिता से जन्म होने के कारण ही वह पूज्य हो सकता है। वह ब्राह्मण भले ही कहलाए, क्योंकि जाति जन्म से ही मानी जाती है, न कि कर्मों से। अतएव पतितों-संस्कारहीनों तक को भी मनु ने स्पष्ट ही ब्राह्मण कह दिया है और जो अभी बचे हैं उन्हें ही ब्राह्मण ही कहा है। जैसा कि :

गर्भाष्टमेऽब्दे कुर्वीत ब्राह्मणस्योपनायनम्।
    गर्भादेकादशे राज्ञो गर्भात्तु द्वादशे विश:॥36॥
    ब्रह्मवर्चसकामस्य कार्य्यं विप्रस्य पंचमे॥37॥

'गर्भ से आठवें वर्ष में ब्राह्मण का, ग्यारहवें में क्षत्रिय का और बारहवें में वैश्य का उपनयन (यज्ञोपवीत) संस्कार करे। परंतु यदि व्यास, वसिष्ठादि की तरह ब्रह्मतेजोयुक्‍त होने की इच्छा हो तो ब्राह्मण का पाँच ही वर्ष में कर डाले' (मनु. 2/36,37)। इन श्‍लोकों में संस्कारशून्य बच्चे को भी ब्राह्मण ही कहा है। इसी तरह क्षत्रिय आदि भी। 'अष्टवर्ष ब्राह्मणमुपनयीत' यह वेद (ब्राह्मण) वाक्य भी तो संस्काररहित बच्चों को ब्राह्मण ही कहता है। जब संस्कार ही नहीं हुआ हो तो वेदादि का पढ़ना या वैदिक कर्म करना कब हो सकता है? आगे चल कर 10वें अध्याय में 'ब्राह्मण: क्षत्रियो वैश्यस्त्रायो वर्णा द्विजातय:' मनु. 10/3 आदि वाक्यों द्वारा ब्राह्मणादि तीन वर्णों का नाम द्विज बतलाया है और फिर 11वें अध्याय में भी-

येषां द्विजानां सावित्री नानूच्येत यथाविधि।
    तांश्‍चारयित्वात्रीन्कृच्छ्रान्यथाविध्युपनाययेत्॥191॥

प्रायश्‍चित्तं चिकीर्षन्ति विकर्मस्थास्तु ये द्विजा:।
    ब्राह्मणा च परित्यक्‍तास्तेषामप्येदादिशेत्॥192॥

'जिन द्विजों का गायत्री (उपनयन) संस्कार यथोचित समय पर विधिवत नहीं हुआ हो उनसे तीन प्रजापत्य व्रत कराके उनका विधिवत उपनयन करवावे। जो द्विज वेद के अध्ययन से वंचित तथा पापकर्मा हों, पर उसका प्रायश्‍चित्त करना चाहें, उनसे भी यही प्रजापत्य व्रत तीन बार करावे' (191-92)। यदि जन्म से न हो कर कर्म से जाति मानी जाती तो फिर संस्कारहीन, वेद विमुख तथा पापी लोग पूर्व वाक्यों में ब्राह्मण, क्षत्रियादि (द्विज) क्यों कहे जाते? गौतम (न्याय) सूत्रो के भाष्य में भगवान वात्स्यायन लिखते हैं :

अहो खल्वसौ ब्राह्मणो विद्याचरणसंपन्न इत्युक्‍ते कश्‍चिदाह यदि ब्राह्मणे विद्याचरणसंपत् संभवति व्रात्येऽपि संभवेत् व्रात्योपि ब्राह्मण: सोऽप्यस्तु विद्याचरणसंपन्न:।

'देखो यह ब्राह्मण कैसा विद्या तथा आचरण से युक्‍त है - ऐसा सुन कर कोई छलवादी बोला कि यदि ब्राह्मण होने से ही उसमें विद्या और आचरण आ जाते हैं तो फिर संस्कारविहीन-पतित (व्रात्य)-में भी विद्या और आचरण क्यों नहीं होते? क्योंकि वह भी तो ब्राह्मण ही है?' इत्यादि (अ. 1, सू. 54)। अब क्या इतने पर भी संशय रह सकता है? अस्तु, फिर भी उसमें पूजनीयता या प्रतिष्ठा की योग्यता कभी भी नहीं हो सकती, क्योंकि जातिमात्र से कोई भी पूजनीय नहीं हो सकता। अतएव विद्या तथा तप से विहीन होने पर भी, उसे ब्राह्मण कहते हुए भी, महाभाष्य में भगवान पतंजलि ने अपूजनीय तथा अमान्य ही ठहराया है। जैसा कि :

विद्या तपश्‍च योनिश्‍च एतद् ब्राह्मणकारकम्।
    विद्यातपोभ्यां यो हीनो जातिब्राह्मण एव स:॥

'विद्या, तप और ब्राह्मण-ब्राह्मणी से जन्म ये तीन बातें जिसमें पाई जाएँ वही पक्का ब्राह्मण है, पर जो विद्या तथा तप से शून्य है वह जातिमात्र के लिए ब्राह्मण है, पूज्य नहीं हो सकता' (पा. 51-115)। इसका आशय कैयट ने इस प्रकार स्पष्ट कर दिया है :

योनिरिति ब्राह्मण्यां ब्राह्मणाज्जन्म। ब्राह्मणकारकमिति ब्राह्मणव्यपदेशस्य निमित्तामेतादित्यर्थ:। तप:श्रुताभ्यामिति नासौ परिपूर्णो ब्राह्मण:, जातिलक्षणैकदेशश्रयस्तु तत्रा ब्राह्मणशब्दप्रयोग:।

इसका तात्पर्य प्रथम ही कह चुके हैं। अतएव महाभाष्य के प्रारंभ (पस्पशाह्रिक) में ही लिखा गया है कि :

ब्राह्मणेनाकारणो धर्म: षडंगो वेदोऽधययो ज्ञेयश्‍च।

'यह न विचार कर कि वेदवेदांग के पढ़ने से हमें क्या मिलेगा किंतु अपना धर्म या कर्तव्य समझ कर - यह समझ कर कि ब्राह्मण होने के नाते ही हम उनके पढ़ने को बाध्य हैं -ब्राह्मण लोग छहों अंगों के सहित वेदों को पढ़ें और उनका अर्थ जानें'। संपूर्ण संसार का गुरु बनना कोई मामूली बात नहीं है कि जो ही चाहे वही बन जावे। महान या बड़ा बनने के लिए कुछ परिश्रम करना पड़ता है। काम से ही नाम व प्रतिष्ठा होती है, न कि केवल बातों से। बड़ी-बड़ी बातें करने से ही यदि काम चल जावे तो किसी को भी मगज मारने की आवश्यकता ही क्या थी? इसीलिए भागवतकार ने पंचम स्कंद में कह दिया है कि :

महत्सेवां द्वारमाहु विर्मुक्‍तेस्तमोद्वारं योषितां संगिसंगम्।
    महान्तस्ते समचित्त: प्रशान्ता विमन्यव: सुहृद: साधावो ये॥

'महान पुरुषों की सेवा से कल्याण की प्राप्ति होती है और स्त्री-सेवियों का संग अज्ञान या नरक का द्वार है। महान वही कहलाते हैं जो शत्रु-मित्र भाव से रहित, विषयवासनाविमुक्‍त, क्रोध न करनेवाले, दयालु एवं कोमल हृदय और परोपकारपरायण हुआ करते हैं।'

जिस मनु भगवान ने ब्राह्मणों को उच्च आसन दिया है उन्होंने यह भी कह दिया है कि -

यथा काष्ठमयो हस्ती यथा चर्ममयो मृग:।
    यश्‍च विप्रोऽनधयानस्त्रायस्ते नाम बिभ्रति॥157॥

यथा षण्ढोऽफल:स्त्रीषु यथा गौर्गविचाफला।
    यथाचाज्ञेऽफलंदानं तथा विप्रो नृचोऽफल:॥158॥

'जिस तरह काठ का हाथी और चमड़े के हरिण बेकार हैं - सिर्फ देखने के ही काम के हैं - उसी तरह जो ब्राह्मण वेद-शास्त्र का अध्ययन नहीं करता वह भी केवल नाममात्र का ही ब्राह्मण है। जैसे स्त्रियों के लिए नपुंसक, गाय के लिए गाय, और मूर्ख को दिया हुआ दान व्यर्थ है, वैसे ही वेदों का न पढ़ने और न जाननेवाला ब्राह्मण व्यर्थ है' (अ. 2/157-158)। फिर कहते हैं कि :

संमानाद् ब्राह्मणो नित्यमुद्विजेत विषादिव।
    अमृतस्येव चाकांक्षेदवामानस्य सर्वदा॥162॥

तपोविशेषैर्विविधैर्व्रतैश्‍च विधिचोदित
    वेद: कृत्स्नोऽधिगंतव्य: सरहस्यो द्विजन्मना॥165॥

वेदमेव सदाभ्यसयेत्तपस्तप्स्यन द्विजोत्ताम:।
    वेदाभ्यासो ब्राह्मणस्य तप: परमिहोच्यते॥166॥

'जैसे विष से डरा करते हैं उसी प्रकार ब्राह्मण सदा ही आदर सत्कार से डरा करे और जिस तरह अमृत की इच्छा की जाती है वैसे ही तिरस्कार को नित्य चाहे। अनेक तरह के तप, नियम ओर व्रतादि कर के ब्राह्मण उपनिषदों के सहित संपूर्ण वेदों को यथावत पढ़े और जाने। जब कभी ब्राह्मण को तप करने की आवश्यकता हो तो केवल वेदों का ही अभ्यास (पाठ, विचारादि) किया करे; क्योंकि इस दुनिया में ब्राह्मण के लिए वेदाभ्यास ही सर्वश्रेष्ठ तपस्या है' (अ. 2/162/64)। दान के सम्बन्ध में तो और भी कड़ाईवाला नियम मनु जी ने कहा है। जैसा कि :

ब्राह्मणस्त्वनधीयानस्तृणाग्निरिवशाम्यति।
    तस्मैहव्यंनदातव्यं नहि भस्मनि हूयते॥

'पठन-पाठन से विमुख ब्राह्मण पुआल की आग की तरह शीघ्र ही नष्ट हो जाता है। इसी से उसे देवपितृकार्य में कुछ नहीं देना चाहिए, क्योंकि राख या पुआल की अग्नि में हवन नहीं किया जाता।'(अ. 4/168)।

अतपास्त्वनधीयान: प्रतिग्रहरुचिर्द्विज:।190॥
    अम्भस्यश्मप्लवेनेव सह तेनैव मज्जति॥

तस्मादविद्वान बिभियाद्यस्मात्तस्मात्प्रतिग्रहात्।191॥
    स्वल्पकेनाप्यऽविद्वान हि पंके गौरिव सीदति॥

न वार्यपि प्रयच्छेत्तु वैडालव्रतिके द्विजे।
    न बकव्रतिके विप्रे नावेदविदि धर्मवित्॥191॥

'जो ब्राह्मण विद्या और तपस्या से रहित होकर भी प्रतिग्रह की इच्छा करता है वह दाता और दान के साथ ही वैसे ही नरक में डूब मरता है जैसे पत्थर की नाव अपने सवारों के साथ डूब जाती है। इसलिए मूर्ख ब्राह्मण सभी प्रकार के दान प्रतिग्रह से डरता रहे, क्योंकि वह थोड़ा भी लेने से कीचड़ में फँसी हुई गाय की तरह कष्ट पाता है। बकध्यानी, बिलारभक्‍त और वेद के न जाननेवाले ब्राह्मणों को धर्मज्ञ पुरुष पानी भी न दे' (अ. 4/190-92)।

त्रिष्वप्येतेषु दत्तं हि विधिनाप्‍यर्जितं धनम्।193॥
    दातुर्भवत्यनर्थाय परत्रादातुरेव च॥

यथा प्लवेनौपलेन निमज्जत्युदके तरन।
    तथा निमज्जतोऽधस्तादज्ञौ दातृप्रतीच्छकौ॥194॥

'पूर्वोक्‍त तीनों प्रकार के ब्राह्मणों को धर्म से कमाया भी धन यदि दिया जावे तो परलोक में देने तथा लेनेवाले दोनों को नरक ले जाता है। जिस तरह पत्थर की नाव पर चढ़ कर पार जानेवाले पानी में डूब मरते हैं, उसी प्रकार मूर्ख दाता और मूर्ख लेनेवाला दोनों नरक में डूब जाया करते हैं।' (अ. 4/193-94)।

इस दान के विचार प्रसंग में याज्ञवल्क्य ने भी कहा है कि :

देशे काले उपायेन द्रव्यं श्रद्धासमन्वितम्।
    पात्रे प्रदीयते यत्तत्सकलं धर्मलक्षणम्॥

'उत्तम देश और उत्तम काल में शास्त्राक्‍त विधि के अनुसार श्रद्धापूर्वक जो कुछ पदार्थ दान के योग्य (पात्र) पुरुष को दिया जाता है वही धर्म कहलाता है' (आचा. 6)। जब यह शंका हुई कि अच्छा, तो दान के योग्य पात्र किसे कहते हैं, तो स्वयमेव आगे चल कर दान प्रकरण में कहते हैं कि -

तपस्तप्त्वाऽसृजद् ब्रह्मा ब्राह्मणान्वेदगुप्तये।
    तृप्त्यर्थं पितृदेवानां धर्मसंरक्षणाय च॥

सर्वस्य प्रभवो विप्रा: श्रुताध्ययनशीलिन:।
    तेभ्य: क्रियापरा: श्रेष्ठास्तेभ्योऽप्यधयात्मवित्तमा:॥

न विद्यया केवलयां तपसा वापि पात्रता।
    यत्र वृत्तमिमे चोभे तद्धि पात्रं प्रकीर्त्तितम्॥

'वेदों की रक्षा, पितरों तथा देवताओं की तृप्ति और धर्म के प्रचार के ही लिए ब्रह्मा ने तपस्या कर के ब्राह्मणों को उत्पन्न किया। वेदशास्त्रो के पठन-पाठन और विचार में समय बितानेवाले ब्राह्मण सभी लोगों से श्रेष्ठ हैं। ब्राह्मणों में भी शास्त्रोक्‍त धर्म के करनेवाले अन्यों से श्रेष्ठ हैं और उनसे भी श्रेष्ठ अध्यात्मत्व के ज्ञाता हैं। क्योंकि केवल शास्त्र पढ़ लेने से ही कोई दानपात्र नहीं हो सकता, अथवा केवल तप करने मात्र से भी नहीं, किंतु जिस पुरुष में विद्या, तप और शास्त्रोक्‍त कर्मों का अनुष्ठान एवं सदाचार रहता है वही दानपात्र है।' (198-200)।

गोभूतिलहिरण्यादि पात्रे दातव्यमर्चितम्।
    नापात्रे विदुषा किंचिदात्मन: श्रेय इच्छता॥

विद्यातपोभ्यां हीनेन न तु ग्राह्य: प्रतिग्रह:।
    गृह्‍णन प्रादातारमधो नयत्यात्मानमेव च॥

'गौ, भूमि, तिल, सुवर्णादि पदार्थ सत्कारपूर्वक दानपात्र को धर्मज्ञ पुरुष अपने कल्याण की इच्छा से दे, कुपात्र को कभी न दे। जिसमें विद्या और तप न हो वह प्रतिग्रह स्वीकार न करे। क्योंकि ऐसा करने से अपने साथ दाता को भी नरक मे ले जाता है।' (201-202)। भगवान हारीत ने भी ब्राह्मणों का यथार्थ स्वरूप यों कहा है :

श्रुतिस्मृती उभे नेत्रे ब्राह्मणस्य प्रकीर्त्तिते।
    एकया रहित: काणो द्वाभ्यामन्ध उदाहृत:॥

'वेद और स्मृतियाँ ये दोनों ब्राह्मण की आँखें हैं। यदि केवल वेद या स्मृति मात्र का ही ज्ञाता हो तो उसे काना समझना चाहिए। परंतु दोनों को ही न जानता हो तो अंधा कहलाता है।' मनु जी ने ब्राह्मणों की श्रेष्ठता के कारणों के साथ-साथ उनके कर्तव्यों का वर्णन इस तरह किया है :

उत्तमांगोद्‍भवाज्ज्यैष्ठयाद् ब्रह्मणश्‍चैव धारणात्।
    सर्वस्यैवास्य सर्गस्य धर्मतो ब्राह्मण: प्रभु:॥

तं हि स्वयम्भू: स्वादास्यात्तपस्तप्त्वादितोऽसृजत्।
    हव्यकव्याभिवाह्याय सर्वस्यास्य च गुप्तये॥

'परमात्मा के उत्तम अंग (सिर) से उत्पन्न होने, वर्णों में ज्येष्ठ होने, और वेद शास्त्रों के ज्ञाता होने के कारण इस संपूर्ण सृष्टि का धर्म-विचार से ब्राह्मण ही स्वामी है। क्योंकि ब्रह्मा ने तपस्या कर के देवता तथा पितरों का अंश उनके पास पहुँचाने, एवं संपूर्ण सृष्टि की रक्षा के लिए उसे उत्पन्न किया है।' (अ. 1-93/94) यहाँ 'सर्वस्यास्य च गुप्तये' पद बड़े ही महत्व के हैं। इनका अभिप्राय यह है कि ब्राह्मण केवल स्वार्थपरायण न हो, किंतु सभी लोगों के हित-अहित, सुख-दु:ख, उन्नति-अवनति तथा उनके कारणों का विचार करता रहे और लोगों के सुख-दु:खों को ही अपना सुख-दु:ख समझे। अतएव उनके निवारणार्थ कटिबद्ध रहे। सारांश, उसे देश का सच्चा नेता तथा हितैषी होना चाहिए। यदि राजनीतिक अवनति देखे तो उसके ही लिए यत्‍न करे। यदि सामाजिक अवनति हो तो उन सामाजिक दोषों के निर्मूल करने का यत्‍न करे जिनसे समाज की दुर्दशा हो रही हो और यदि धार्मिक ह्रास हो तो धर्म का यथावत प्रचार कर के गीता के सिद्धांतानुसार प्रजा की रक्षा करे। गीतावाला सिद्धांत ऐसा है:

अन्नाद्‍भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसंभव:।
    यज्ञाद्‍भवति पर्जन्यो यज्ञ: कर्मसमुद्‍भव:॥

कर्म ब्रह्मोद्‍भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्‍भवम्।
    तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्॥

'अन्न से प्राणियों की उत्पत्ति होती है, वृष्टि से अन्न की, यज्ञ से वृष्टि की, और यज्ञ की अंग-उपांग रूप क्रियाओं द्वारा, क्रियाओं का प्रतिपादिक वेद है, और वेद की उत्पत्ति परमात्मा से हुई है। इसीलिए यद्यपि सभी वस्तुओं में परमात्मा की सत्ता है, तथापि यज्ञ यज्ञादि क्रियाकलाप में उसकी विशेष रूप से स्थिति है।' (गी. 3/14-15)। जिन दिनों ब्राह्मण हिंदू समाज के सच्चे नेता, तथा उपदेशक थे उन दिनों भारत सभी तरह से धन-धान्य, मान-प्रतिष्ठादि से संपन्न था और जगत का गुरु बनने का दावा गर्व के साथ करता था। उन्हीं दिनों का न कि आजकल की परम पतित अवस्था का स्मरण कर के, भगवान मनु को यह कहने का साहस हुआ था कि :

एतद्‍देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मन:।
    स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन पृथिव्यां सर्वमानवा:॥

'ब्रह्मावर्त्त, ब्रह्मर्षि आदि देशों में उत्पन्न ब्राह्मणों से ही पृथ्वी के सभी मनुष्य अपने-अपने चरित्र की शिक्षा ग्रहण करें' (अ. 2/20)। इससे बढ़ कर और प्रतिष्ठा क्या हो सकती है कि समूचे संसार के मस्तक पर रख दिया? सारे संसार का शिरोमणि और गुरु बना दिया; सो भी अभिमान और अकड़ के साथ! यदि स्वप्न में भी मनु महाराज की यह धारणा होती कि सामान्यत: समूचे भारत तथा विशेषरूप से ब्राह्मणों की ऐसी पतितावस्था हो जावेगी जैसी आजकल हो रही है तो क्या यह पूर्वोक्‍त श्‍लोक उनके मुख से कभी भी निकलता? परंतु शायद वह यह असंभव-सा विचार मन में ला ही नहीं सके कि जो सातवें आसमान पर बैठा है कभी वह रसातल के भी नीचे चला जावेगा! सचमुच उस समय-उनके काल में जब कि देशोन्नति के भगवान भास्कर द्वादश कला युक्‍त होकर भारत गगन के मध्य में देदीप्यमान थे - ऐसा विचार असंभव-सा ही था। इसमें उनका अपराध ही क्या? अस्तु, ब्राह्मणों के चरित्र पर प्रथम बहुत अधिक ध्यान दिया जाता था। इसीलिए बिलार दंडवत तथा बकभक्‍ति करनेवालों को पानी तक न देने का आदेश मनु ने किया है। इसीलिए याज्ञवल्क्य ने दानपात्र में विद्या, और तप से ऊँचा दर्जा चरित्र को दिया है और इसी से मनु यह भी आदेश कर गए हैं कि :

सावित्रीमात्रसारोऽपि वरं विप्र: सुयंत्रित:।
    नायन्त्रितस्त्रिवेदोऽपि सर्वाशी सर्वविक्रयी॥

'केवल गायत्री भी जानता हुआ शास्त्रानुकूल आचरण एवं चरित्रयुक्‍त ब्राह्मण श्रेष्ठ है। पर तीन वेदों का ज्ञाता हो कर भी भक्ष्याभक्ष्य तथा कर्तव्याकर्तव्य के विचार से रहित दुष्ट चरित्रवाला माननीय नहीं हो सकता।' (अ. 2/110)। जिस समय मनु के मुख से यह वाक्य निकला होगा कि -

यस्यास्येन सदाश्‍नन्ति हव्यानि त्रिदिवौकस:।
    काव्यानि चैव पितर: किंभूतमधिकं तत:॥

'जिस ब्राह्मण के मुख द्वारा सर्वदा ही देवता लोग हव्य, तथा पितर लोग कव्य खाया करते हैं उससे श्रेष्ठ कौन प्राणी हो सकता है?' (अ. 1/95)। और जिस समय उन्होंने यह कह डाला कि :

भूतानां प्राणिन: श्रेष्ठा: प्राणिनां बुद्धिजीविन:।
    बुद्धिमत्सु नरा: श्रेष्ठा नरेषु ब्राह्मणा: स्मृता:॥96॥

ब्राह्मणेषु च विद्वांसो विद्वत्सु कृतबुंद्धय:।
    कृतबुद्धिषु कर्तार: कर्तृषु ब्रह्मवेदिन:॥97॥

'स्थावर जंगम पदार्थों प्राणधारी श्रेष्ठ हैं, प्राणधारियों में भी बुद्धि से काम लेनेवाले, बुद्धि वालों में भी मनुष्य, मनुष्यों में भी ब्राह्मण, ब्राह्मणों में भी विद्वान, विद्वानों में भी उत्तम कार्यों में कर्तव्य बुद्धिवाले, कर्तव्यबुद्धिवालों में भी उत्तम कार्यों के कर डालनेवाले, और उत्तम कार्यकर्ताओं में भी ब्रह्मवेत्ता अर्थात अपने ही आत्मा को सभी में ओत-प्रोत देखनेवाले।' (अ. 1, 96-97)।

उत्पत्तिरेव विप्रस्य मूर्तिर्धर्मस्य शाश्‍वती।
    स हि धर्मार्थमुत्पन्नो ब्रह्मभूयाय कल्पते॥

ब्राह्मणो जायमानो हि पृथिव्यामधिजायते।
    ईश्‍वर: सर्वभूतानां धर्मकोशस्य गुप्तये॥

'ब्राह्मण जन्म मात्र से ही नित्य धर्म की मूर्खता है, क्योंकि वह धर्म के लिए ही उत्पन्न हुआ है और उसी के द्वारा ब्रह्म की प्राप्ति कर सकता है। इस पृथ्वी पर उत्पन्न होने के साथ ही ब्राह्मण सब प्राणियों का मालिक और धर्म का रक्षक होता है' (अ. 1/98, 99)। इत्यादि। उस समय उनके चित्त में ब्राह्मणों के प्रति कितना गौरव रहा होगा! सचमुच वे ब्राह्मणों के जन्मसिद्ध पूर्व प्रदर्शित इन गुणों पर मुग्ध थे। पर, यदि उनका यह ध्यान होता कि कभी ऐसा भी समय आएगा जब प्राय: ब्राह्मणमात्र धर्म के रक्षक न हो कर उसी के भक्षक हो जाएँगे, उनके लिए 'काला अक्षर भैंस बराबर' वाली कहावत चरितार्थ होगी, उनके लिए सिर्फ बकव्रत रह जावेगा, तो क्या वे कभी भी यह हास्यजनक बातें लिख कर लज्जित होने का साहस करते? वे तब क्योंकर लिखते कि जन्म से ही ब्राह्मण धर्म का रक्षक है, धर्म की मूर्ति है और धर्म के ही लिए संसार में आया है?

भगवान मनु को ब्राह्मणों के बल का पूर्ण अभिमान था। वह अच्छी तरह जानते थे कि उनके आत्मबल, विद्याबल एवं मनोबल की एकबारगी इतिश्री काल पा कर भी असंभव है। उनकी धर्मबलि तथा स्वार्थत्याग, ये दोनों अन्त तक न्यूनाधिक रूप में बने ही रहेंगे। परोपकारपरायणता उनसे सोलहों आना अलग कभी न होगी। इसी से पूर्वोक्‍त बातें कह गए हैं। यदि ब्राह्मणों के निजी बल का पूरा ध्यान उन्हें न रहता, तो यह कभी न कहते कि :

न ब्राह्मणोवेदयेत किंचिद्राजनि धर्मवित्।
    स्ववीर्येणैव तान्शिष्यान्मानवानपकारिण:॥

स्ववीर्याद्राजवीर्याच्च स्ववीर्यं बलवत्तरम्।
    तस्मानत्स्वेनैव वीर्येण निगृह्‍णीयादरीन द्विज:॥

'यदि ब्राह्मणों का कोई कुछ अपकार करे तो वह उसकी फरियाद राजा से न कर अपने ही बल से उस अपकारी को दंड दे। क्योंकि राजा के बल की अपेक्षा अपनी सामर्थ्य अधिक है। इसीलिए ब्राह्मणों को उचित है कि शत्रुओं का निग्रह अपने ही बल से किया करें।' (अ. 11/31,32)

श्रुतीरथर्वांगिरसी: कुर्यादित्यविचारयन।
    वाक्शस्त्रं वै ब्राह्मणस्य तेन हन्यादरीन द्विज:॥33॥

क्षत्रियो बाहुवीर्येण तरेदापदमात्मन:।
    धनेन वैश्यशूद्रौ तु जपहोमैर्द्विजोत्तमा:॥34॥

'अथर्ववेद की क्रियाओं के अनुसार अपना कार्य करे, अथवा वचनरूप (शाप) शस्त्र से ही शत्रुओं का नाश करे; क्योंकि ब्राह्मण का शस्त्र वचन ही है। क्षत्रिय अपनी विपत्ति का अन्त निजी बाहुबल से करे, वैश्य तथा शूद्र धन से एवं ब्राह्मण जप और होम द्वारा।' (अ. 11/33, 34)। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने भी कह दिया है कि :

शमो दमस्तप: शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च।
     ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम्॥

'मन का निग्रह, इंद्रियों का काबू में रखना, तपस्या, बाहर-भीतर की पवित्रता, क्षमा, नम्रता, शास्त्रीयज्ञान, आस्तिकता और शास्त्रोक्‍त बातों का अनुभव ये नौ गुण ब्राह्मणों में स्वभाव से ही हुआ करते हैं।' (अ. 18/42)। इनमें से एक-एक बातों का भी आदमियों में होना जहाँ दुर्लभ समझा जाता है, सो भी समाज या किसी जाति-भर में नहीं किंतु व्यक्‍तिमात्र में, वहाँ किसी समाज-भर में इन सबका होना कुछ कम गौरव की बात नहीं है। यदि सब न भी पाए जावे तथापि समाज के अधिकांश लोगों में यदि ये अधिकांश गुण उस समय न पाए जाते होते तो भगवान श्रीकृष्ण या वेदव्यास को यह कहने की कभी भी हिम्मत न होती कि ये गुण ब्राह्मणों में जन्म या स्वभाव से हुआ करते हैं। यहाँ तक बढ़ कर कह देना यह बतला रहा है कि अवश्यमेव ब्राह्मण समाज पूर्वोक्‍त अधिकांश गुणों के रंगों में रँगा हुआ था। यदि ऐसी बात न होती तो अत्यन्त अल्पवयस्क ब्राह्मण बालक श्रृंगी के शाप का प्रभाव चक्रवर्ती परीक्षित के ऊपर अक्षरश: न पड़ता और भृगु के लात मारने पर विष्णु भगवान को यह कहने को बाध्य होना न पड़ता कि मेरी छाती स्वभाव से ही कठिन है और ब्राह्मणों के चरण कोमल हुआ करते हैं, कहीं आपको चोट न आ गई हो! यह दूसरी बात है या कालचक्र की कुटिलगति है कि आजकल उन्हीं ब्राह्मणों के वंशधर केवल उनके नाम बेच कर पेट पाल रहे हैं!

ब्राह्मणों के इन्हीं पूर्वोक्‍त गुणों पर मुग्ध हो कर संपूर्ण प्रजा उनके हाथ सौंपी गई थी, छोटे से बड़े तक के ऊपर उनका आतंक छाया था और सभी उनकी आज्ञा में थे। जैसा कि मनु ने कहा है :

प्रतापतिर्हि वैश्याय सृष्ट्वा परिददे पशून।
    ब्राह्मणाय च राज्ञे च सर्वा: परिददे प्रजा:॥

'भगवान ने वैश्य को उत्पन्न कर के पशु-पालन का कार्य उसे सुपुर्द किया और ब्राह्मणों एवं क्षत्रियों के हाथ में संपूर्ण प्रजाओं को दे दिया।' (अ. 9/327)। और भी कहा है कि -

सर्वं स्वं ब्राह्मणस्येदं यत्किंचिज्जगतीयगतम्।
     श्रेष्ठयेनाभिजनेनेदं सर्वं वै ब्राह्मणोऽर्हति॥10॥

'इस पृथ्वी में जो कुछ है, सब ब्राह्मणों की ही संपत्ति है, क्योंकि वह भगवान के मुख से उत्पन्न होने के कारण श्रेष्ठ होने से सभी कुछ पाने योग्य है।' (अ. 1/100) जब ब्राह्मणों में इतनी योग्यता थी तो शूद्र आप ही आप उनकी सेवा में तत्पर रहते थे। क्योंकि आज भी देखते हैं कि यद्यपि महात्मा गांधी ब्राह्मण नहीं हैं, फिर भी लोग किसी ब्राह्मण नेता की अपेक्षा उनकी प्रतिष्ठा या सेवा कम करते नहीं दीखते। सभी उनके नाम पर बलि होने के लिए तत्पर हैं। फिर यदि ब्राह्मणों के पूर्वोक्‍त अपूर्व गुणों के कारण शूद्र समाज उनकी सेवा में अपना समय बिताता था, या उसी के लिए स्वेच्छया बाध्य था तो इसमें आश्‍चर्य ही क्या? हाँ, आजकल के लोगों की अवश्य गलती है कि योग्यता तो इनमें कुछ भी नहीं है, फिर भी संसार से सेवा ही करवाने की धुन में मस्त रहते हैं। इसके लिए यदि ये लोग अपराधी ठहराए जावे तो कुछ अनुचित नहीं। पर इतने से ही प्राचीनकाल के धर्मशास्त्रकर्ताओं को यह दोष नहीं लगाया जा सकता कि उन्होंने शूद्रों या इतर वर्णों के साथ अन्याय वा कड़ाई अधिक की। हाँ यदि आँख मींच कर सभी बुरे-भलों की बंदगी बजाने का आदेश शूद्र समाज को दिया गया होता तो अवश्यमेव वे लोग भी दोष के भागी समझे जाते। लेकिन ऐसा तो हुआ नहीं। अतएव मनु ने लिखा है कि :

विप्राणां वेदविदुषां गृहस्थानां यशस्विनाम्।
    शुश्रुषैव तु शूद्रस्य धर्मो नैश्रेयस: पर:॥334॥

'वेद-वेदांगों के ज्ञाता ब्राह्मणों तथा यशस्वी गृहस्थों की सेवा ही शूद्रों के लिए परम कल्याणकारक धर्म है।' (अ. 9/334)। फिर जिन लोगों का यश:सौरभ संसार में व्याप्त नहीं और जो वेदशास्त्रों के जानकार नहीं, चाहे किसी वर्ण के क्यों न हों, वे क्योंकर शूद्रों या अपने से हीन वर्णों द्वारा की जाने वाली सेवा का दावा कर सकते हैं? यह उन लोगों की सर्वथा अनधिकारचर्चा है। जब ब्राह्मण लोग, वेदाभ्यास के ज्ञानोपदेश द्वारा, क्षत्रिय बाहरी अथवा घरेलू शत्रुओं से रक्षा कर के, और वैश्य सभी को भोजनार्थ अन्न देकर हिंदू समाज की सेवा कर रहे थे, जैसा कि :

वेदाभ्यासो ब्राह्मणस्य क्षत्रियस्य च रक्षणम्।
     वार्ता कर्मैव वैश्यस्य विशिष्टानि स्वकर्मसु॥

'अन्य कामों की अपेक्षा ब्राह्मणों का प्रधान काम वेदाभ्यास, क्षत्रिय का रक्षा करना और वैश्यों का वाणिज्यादि द्वारा अन्नोत्पादन है।'(अ. 10/80) से विदित है, तो फिर शूद्र क्यों नहीं सेवा करते? अस्तु।

यद्यपि ब्राह्मणों का प्रधान काम वेदाभ्यास था, तो भी देखना चाहिए कि आख़िर उनके अप्रधान काम कौन से थे और जीविका के लिए सर्वथा पराधीन ही थे या स्वाधीन। इस सम्बन्ध में मनु-गौतमादि की आज्ञा ऐसी है कि ब्राह्मण सर्वथा परमुखापेक्षी न हो कर अपनी प्राणरक्षा के लिए शिल, उछ, कृषि, वाणिज्यादि द्वारा और उससे भी न हो सके तो पुरोहिती प्रतिग्रहादि द्वारा अन्न का उपार्जन कर ले। अतएव मनुस्मृति के चौथे अध्याय, जो अनापत्ति (कोई आपत्ति या दबाव न रहते) समय के धर्मो का प्रकरण है, के आरंभ में पुरोहिती-प्रतिग्रहादि का वर्णन न कर केवल शिल, उछ, कृषि, वाणिज्यादि का ही विधान ब्राह्मणों के लिए है। जैसा कि :

ऋतामृताभ्यां जीवेत्तु सृतेन प्रभृतेन वा।
     सत्यानृताभ्यामपि वा न श्‍ववृत्तया कदाचन॥

ऋतमुंछशिलं ज्ञेयममृतं स्यादयाचितम्।
    मृतं तु याचितं भैक्षं प्रमृतं कर्षणं स्मृतम्॥

सत्यानृतं तु वाणिज्यं तेन चैवापि जीव्यते।
    सेवा श्‍ववृत्तिराख्याता तस्मात्ता परिवर्जयेत्॥

'ऋत, अमृत, मृत, प्रभूत और सत्यानृत नामक जीवनोपायों द्वारा जीविका अर्जन करे, परंतु श्‍वानवृत्ति (नौकरी) द्वारा कदापि नहीं। ऋत, उछ एवं शिल का नाम है, अमृत अयाचित का, याचित भिक्षा का मृत, कृषिका प्रभृत, सत्यानृत वाणिज्यका, और श्‍ववृत्ति नाम नौकरी का है। इसी से उसको त्याग देना चाहिए।' (अ. 4/4-6)। बहुतों की यह धारणा है कि कृषि, वाणिज्य केवल वैश्य की ही जीविकाएँ हैं। पर यह धारणा भ्रममूलक है। कृषि, वाणिज्य प्रत्येक दो प्रकार के होते हैं। एक 'स्वयंकृत' - अपने हाथों किए गए और दूसरे 'अस्वयं कृत' - नौकर द्वारा कराए गए। उनमें दूसरे प्रकार के अर्थात 'अस्वयं कृत' ब्राह्मणों के लिए है और 'स्वयंकृत' वैश्यों के लिए। यह बात इन्हीं श्‍लोकों की टीका में कुल्लुक भट्ट को भी स्वीकृत है। अतएव गौतमस्मृति के दसवें अध्याय में साफ-साफ लिखा गया है कि ब्राह्मणों की जीविकाएँ - 'कृषि, वाणिज्ये स्वयं चाकृते कुसीदं च' 'अस्वयंकृत कृषि, वाणिज्य और सूद पर रुपए देना ये तीन हैं।' इसीलिए आश्‍वलायन गृह्य सूत्र (2/10/3) में ब्राह्मणों के नित्य नैमित्तिक आदि बहुत से कर्मों के कहने के बाद जब उनमें अपेक्षित अन्न-द्रव्य की प्राप्ति कैसे होगी, यह आशंका हुई तब सूत्रकार ने कहा है कि :

क्षेत्रं प्रकर्षयेदुत्तरै: प्रोष्ठपदै: फाल्गुनीभी रोहिण्या वा।

'उत्तर भाद्रपद, पूर्वा फाल्गुनी और रोहिणी नक्षत्र में हल चलवाना प्रारंभ करे'। इसी पर गार्ग्य नारायण लिखते हैं कि :

नित्यकर्मणां द्रव्यसाधयात्वाद्द्रव्यार्थं क्षेत्रं प्रकर्षयेत्। णिच्प्रयोग: स्वयंकृषिनिवृत्‍त्‍यर्थ:। तथाचानापदि गौतम: 'कृषिवाणिज्ये चास्वयं कृते' इति। मनुरपि 'ऋतामृताभ्यां जीवेत्तु मृतेन प्रमृतेन वा' 'प्रमृतं कर्षणं स्मृतम्' इति। अक्षसूक्‍ते चेयमेव वृतिरुक्‍ता 'अक्षैर्मादीव्य कृषिमित्कृषस्व' इति। प्रतिग्रहादयश्‍चापत्कल्पा:॥

'नित्यकर्म द्रव्य से होते हैं, इसलिए अन्न-द्रव्यादि की प्राप्ति के लिए खेत जुतवावे। 'खेत जोते' न कह कर 'जुतवावे' यह जो प्रेरणा की गई है उसका तात्पर्य अनापत्तिकाल में अपने हाथों से खेती न करने में है। इसीलिए अनापत्तिकाल के लिए गौतमस्मृति में कहा है कि नौकर से खेती और व्यापार करवावे। मनु जी ने भी ऋत, अमृत, मृत, प्रभृत से जीविका करना लिख कर प्रभृत का अर्थ खेती लिखा है।ऋग्वेद के अक्षसूक्‍त में भी यही बात लिखी है कि जुआ मत खेलो, खेती ही करो। ब्राह्मण की जीविका के लिए जो कहीं-कहीं प्रतिग्रह, पुरोहिती आदि लिखी है वह आपत्तिकाल के लिए है।'

पारस्करगृह्यसूत्र (कां. 2, कण्डिका 13) के 'पुण्याहे लांगलयोजनं ज्येष्ठया वा इंद्रदैवत्यम्' 'शुनं सुफाला इतिकृषेत्' 'फालं वा आलभेत्'। इत्यादि सूत्रों द्वारा कण्डिका-भर में कृषि करने का ही विधान है। इसी प्रकार कौशिक सूत्र (3-3) में इसी बात का निरूपण पाया जाता है। यही सिद्धांत मीमांसा व्याख्याकार कुमारिल स्वामी का भी इसी सूत्र की कारिकाओं में स्पष्टतया प्रतिपादित है। महामहोपाध्याय श्री पार्थसारथि मिश्र ने भी मीमांसा की टीका 'तन्त्ररत्‍न' में यही सिद्धांत प्रतिपादित किया है, जैसा कि 'विस्तर के 29-30 पृष्ठों से स्पष्ट है।

ऋग्वेद में किसी भी प्रतिग्रह पुरोहिती आदि जीविकाओं का वर्णन न होने पर भी कृषि के करने की आज्ञा स्पष्ट दी गई है। जैसा कि अक्षसूक्‍त की दो ऋचाओं से स्पष्ट है, जिनमें प्रथम ऋचा इस प्रकार है -

अक्षैर्मा दीव्य कृषिमित्कृषस्व वित्‍ते रमस्व बहु मन्यमान:।
    तत्र गाव: कितव तत्र जाया तन्मे विचष्टे सवितायमर्य:॥

'हे जुआ खेलनेवाले, जुआ मत खेलो, किंतु खेती ही करो और उसके द्वारा उपार्जित धन का भोग करो। देखो, उस खेती के लिए गायें और स्त्री-बच्चे भी रखने ही पड़ते हैं। हमारी इस बात में विश्‍वास करो, यही धर्म का रहस्य है और सबके प्रेरक तथा सब धर्मग्रन्थों के रचयिता भगवान ने ही हमसे यह कहा है (7-8-13)।' इससे पूर्व के मन्त्र में यह कह कर जुए का निषेध किया गया है कि वह इसी कृषि (खेती) का नाश करनेवाला है, जैसा कि :

अक्षास इंदकुशिनो नितोदिनो निकृत्वानस्तपनास्तापयिष्णव:।
     कुमार देष्णा जयत: पुनर्हणो मधया संपृक्‍ता: कितवस्य वर्हणा॥

'जुए के पाशे अंकुश की तरह ही मनुष्यों के दिल में चुभनेवाले, कृषि करनेवाले पुरुष की खेती के नाश करनेवाले, हारने पर अपने को तथा सर्वस्व हारने पर कुटुंब को भी दु:ख देनेवाले, कदाचित जीत होने पर पुत्रोत्पत्ति के समान सुखद, परंतु मधुमिश्रित विष की तरह, खिलाड़ी की उसमें बार-बार प्रवृत्ति कराके उसके सत्यानाश करनेवाले हैं।' (8-7-7)। इन दोनों मंत्रों में कृषि की ही प्रशंसा है। अतएव इन मंत्रों का देवता कृषि ही है, जैसा कि अनुक्रमणिका लिखते हुए सायणाचार्य ने कह दिया है कि - 'सप्तमीत्रयोदशी च कृषिं स्तौति अतस्तयो: सा देवता' - 'सातवीं तथा तेरहवीं ऋचा कृषि की स्तुति करती है, इसलिए इन दोनों का देवता कृषि ही है' (8-7-1)।

अथर्ववेद (का. 3, अनु. 4) के द्वितीय सूक्‍त में केवल कृषि करने और हल जोतने आदि की ही बात कही गई है। सायणाचार्य भाष्य में लिखते हैं कि :

'सीरायुंजन्ति' इति द्वितीयसूक्‍तेन कृषिनिष्पत्तिकर्मणि क्षेत्रं गत्वा युगलांगले बध्‍नाति। अनेनैव सूक्‍तेन दक्षिण मनड्वाहं युगे युनक्‍ति। तत: कर्त्‍ता अनेन सूक्‍तेन प्राचीनं कृषन सूक्‍तसमाप्त्यनंतरं हालिकाय हलं प्रयच्छेत्' - 'सीरा युंजन्ति' इत्यादि द्वितीय सूक्‍त पढ़कर खेती के समय खेत में जावे और हल को जोड़े। फिर इसी को पढ़कर पहले दाहिना बैल जोड़े, पीछे बायाँ और इसी को पढ़ता हुआ खेत का स्वामी पूर्वमुख जोते तथा सूक्‍त की समाप्ति होने पर जोतने के लिए हल हलवाले को दे दे।' इसी प्रकार शुक्ल यजुर्वेद के 12वें अध्याय के 67 आदि मंत्रों द्वारा भी कृषिकर्म का ही विधान किया गया और जोतने आदि की विधि बताई गई है।

मनु (अ. 11-7) तथा याज्ञवल्क्य (आ. अधया. 124) से स्पष्ट है कि कम से कम तीन वर्षों तक अपने कुटुंब एवं नौकर-चाकर के भरण-पोषण का सामान जिसके पास हो वही ब्राह्मण ज्योतिष्टोम (सोम) योग करे और कम से कम एक वर्ष-भर की खाद्य सामग्री रहने पर ही दर्शपूर्णमास आदि यज्ञ करने की आज्ञा है। इस नियम का उल्लंघन करने पर उसके किए कर्म निष्फल बताए गए हैं। यह भी स्मरण रखने की बात है कि ये पूर्वोक्‍त कर्म नित्य (अर्थात अवश्‍य कर्तव्य) एवं नैमित्तिक (अर्थात आवश्यकतानुसार समय-समय पर कर्तव्य) दोनों प्रकार के हैं। नित्य सोमयज्ञ प्रतिवर्ष और दर्श पूर्णमास प्रतिमास करने पड़ते हैं। जैसा कि मनु. (अ. 4/25-26) से स्पष्ट है। इससे विदित होता है कि उस समय सामान्यत: सभी ब्राह्मण संपन्न थे। यह भी सभी जानते हैं कि इतनी धन-संपत्ति-कृषि, वाणिज्य के बिना हो ही नहीं सकती। यह बात मनु (अ. 4/79) तथा याज्ञवल्क्य (अ. 128) के देखने से भी स्पष्ट है। वहाँ वे लोग दिखलाते हैं कि ब्राह्मणों के पास बड़ी-बड़ी कोठियों और खत्तियों में वर्षों तक के लिए अन्न भरे पड़े रहते थे। यह बात पुरोहिती-प्रतिग्रहादि से कभी नहीं हो सकती - सर्वथा असंभव है। इसीलिए पुरोहिती-प्रतिग्रह को आपद्धर्म के प्रकरण, दसवें अध्याय में मनु ने ही लिखा है, जैसा कि 74-78 श्‍लोकों से विदित है। अतएव प्रतिग्रह की निंदा भी बड़े जोर-शोर के साथ की गई है, जैसा कि :

प्रतिग्रहसमर्थोऽपि प्रसंगं तत्र वर्जयेत्।
     प्रतिग्रहेण ह्यस्याशु ब्राह्मं तेज: प्रशाम्यति॥

'विद्या, तप आदि से युक्‍त होने के कारण प्रतिग्रह की सामर्थ्य रखता हुआ भी ब्राह्मण प्रतिग्रह प्रेमी या प्रतिग्रह का अवसर ढूँढ़नेवाला कभी न बने, क्योंकि प्रतिग्रह से शीघ्र ही इसके ब्रह्मतेज का नाश हो जाता है।' (अ. 4/186)। अध्यात्मरामायण, श्रीमद्‍भागवत, महाभारत और अत्रिस्मृति आदि ग्रन्थों में भी सहस्रश: प्रतिग्रह की निंदाएँ पाई जाती है, जैसा कि 'विस्तर' से स्पष्ट है। इन सब बातों का तात्पर्य यह है कि उन दिनों पुरोहिती आदि को वह गौरव प्राप्त न था जैसा कि आजकल है। प्राय: ब्राह्मण लोग इसे अच्छी बात न समझ खेती और वाणिज्य को ही उत्तम समझते और उन्हीं के द्वारा जीवन निर्वाह किया करते थे। हाँ, जब और कोई उपाय न सूझता था तो हारकर या किसी बड़ी बात के लोभ से उसमें भी प्रवृत्त हो जाते थे। इसीलिए ब्राह्मणों के दो दल उस समय भी स्पष्टतया विद्यमान थे। एक तो केवल उछ, शिल, खेती, वाणिज्य और भूमि आदि से जीविका करनेवाला जिसे निवृत्त या अयाचक कहते थे, और जो आजकल भारत के भिन्न-भिन्न प्रांतों में महियाल, तगा वा त्यागी, गोलापुरी, भूमिहार, पश्‍चिमा, जमींदार, भूम्यधिकारी, जगद्वंशी, जाजपुरी, नागर और चितपावन आदि नामों से पुकारे जाते हैं। दूसरा वह जो किसी कारणवश पुरोहिती आदि द्वारा अपनी जीविका करता था और प्रवृत्त, याचक या पुरोहित कहलाता था और आजकल साधारणतया मैथिल, सर्यूपारी, कान्यकुब्ज, बंगाली, उत्कल, गौड़ या सारस्वत और महाराष्ट्र आदि नामों से भिन्न-भिन्न प्रांतों में कहने की परिपाटी है। परंतु प्राय: यही नियम है कि जिस प्रांत में जो याचक या अयाचक ब्राह्मण हैं वह सभी वास्तव में एक ही मैथिल, कान्यकुब्ज, गौड़ या सारस्वत दल के हैं। केवल जीविका के उपाय भिन्न-भिन्न होने के कारण पृथक-पृथक नामों से पुकारे जाते हैं। इसीलिए हम देखते हैं कि जो केवल कृषिकर्म पर निर्भर होने से कभी भूमिहार या पश्‍चिमा कहता है वही कभी पुरोहिती करने पर मैथिल कहा जाता है। इसी तरह मैथिल भी पुरोहिती छोड़ देने से ही मात्र जमींदार, भूमिहार या पश्‍चिमा कहलाने लगता है। यही बात त्यागी और ग्राही गौड़ों की भी है। इसके दृष्टांत सभी प्रांतों में पाए जाते हैं और 'विस्तर' में भी इसका सविस्तार विचार किया गया है। यह भी स्मरण रखने की बात है कि ब्राह्मणों के ये मैथिल, कान्यकुब्ज, सर्यूपारी, गौड़, भूमिहार, महियाल, त्यागी या महाराष्ट्र आदि नाम प्रथम न थे। यह दलबंदी और उन दलों के नाम आधुनिक हैं। इसीलिए प्राचीन ग्रन्थों में केवल याचक-अयाचक, त्यागी-ग्राही और प्रवृत्त-निवृत्त यही नाम क्रमश: दोनों दलों के पाए जाते हैं। जैसा महाभारत के शांतिपर्व में लिखा है कि :

ब्राह्मणा द्विविधा राजन धर्मश्‍च द्विविधा: स्मृत:।
    प्रवृत्तश्‍च निवृत्ताश्‍च निवृतोऽहं प्रतिग्रहात्॥

'हे राजा, ब्राह्मण दो प्रकार के होते हैं, प्रवृत्त और निवृत्ता (याचक और अयाचक)। इसलिए उनके धर्म भी दो प्रकार के हैं, पुरोहिती-प्रतिग्रह आदि में प्रवृत्ति (उसे ही करना) और उससे निवृत्ति (उसे न कर शिल, उछ, कृषि आदि करना)। उन दोनों प्रकार के ब्राह्मणों में मैं निवृत्ता (अयाचक या त्यागी) हूँ।' (अ. 199/39)। इसीलिए उस ब्राह्मण ने राजा इक्ष्वाकु को बड़ी फटकार सुनाई है और कह दिया है कि दान उन लोगों को दो जो लेने के लिए लालायित हैं, मैं तुमसे कुछ भी नहीं ले सकता। प्रत्युत यदि तुम्हें कुछ चाहता हो तो मैं ही दूँ :

तेभ्य: प्रयच्छ दानानि ये प्रवृत्त नराधिप।
    अहं न प्रतिगृह्‍णामि किमिष्टं किं ददामि ते॥ 40 ॥

इसलिए यदि उस समय अयाचक ब्राह्मणों को दान न लेने का गौरव था, इसे वे लोग उत्तम कार्य समझ अपने को श्रेष्ठ समझते थे, तो उचित ही था। क्योंकि ब्राह्मण समाज या हिंदू समाज मात्र की दृष्टि में वह कोई अच्छा काम न था। उसके करने से लोग उच्च समझे जाने के बदले हीन ही समझे जाते थे। अत: प्रथम तो समाज द्वारा दान त्याग कर आदर होता था और दूसरे वह शास्त्रोक्‍त था। ऐसी दशा में उसमें अभिमान न रखना ही भूल होती। परंतु इस समय अविद्या के कारण हिंदूसमाज की दृष्टि ही निराली है। अब समाज उसी निंदिततम पुरोहिती-प्रतिग्रह को ब्राह्मणों का परम चिह्न और श्रेष्ठ कर्म समझता है! और समाज में रहना भी आवश्यक है। ऐसी दशा में समाज का नियम बाध्य करता है कि उससे घृणा न की जावे। प्रत्युत आवश्यकतानुसार उसे स्वीकार किया जावे। नहीं तो समाज में अप्रतिष्ठा का होना दुर्निवार है, जैसा कि देखा भी जाता है। मनुष्य को समयानुसारी (Up to date) होना भी चाहिए। अस्तु!

यह भी स्मरण रखना चाहिए कि उस समय प्रतिष्ठा देखा-देखी अन्धपरम्परा के अनुसार न होकर शास्त्रीय बातों के अनुसार ही होती थी। जिसमें शास्त्रीय बातों की जितनी ही अधिक मात्रा पाई जाती थी उसकी उतनी ही प्रतिष्ठा थी। जैसा कि :

न हायनै र्नपलितैर्न वित्तेन न बंधुभि:।
    ऋषयश्‍चक्रिरे धर्मं योनूचान: सनोमहान॥

'अवस्था अधिक हो जाने, बाल सफेद होने, अधिक धन होने अथवा बड़ा परिवार होने से कोई भी श्रेष्ठ नहीं कहलाता या श्रेष्ठ नहीं माना जाता था। किंतु ऋषि लोगों ने यही मान रखा था कि हम लोगों में जो ही वेद-वेदांगों का ज्ञाता हो वही बड़ा और पूज्य है।' (मनु. अ. 2/154)। इसीलिए यही सर्वसम्मत सिद्धांत-सा हो रहा था कि :

ब्राह्मणस्य हि देहोऽयं क्षुद्रकामाय नेष्यते।
    कृच्छ्राय तपसे चेह प्रेत्यानन्तसुखाय च॥

'यह ब्राह्मण का शरीर नीच वा छोटी-छोटी बातों के करने के लिए नहीं है, किंतु इस लोक में कठिन तप करने और उसका फलस्वरूप परलोक में अनंत सुख भोगने के लिए है।' (भा. 11/17/42)। इसीलिए कृषि आदि के करनेवाले भी ब्राह्मण उसमें इतने संलग्न नहीं हो जाते थे कि वेद-वेदांगों को पढ़ना-पढ़ाना ही छोड़ दें। किंतु समय-समय पर दोनों ही किया करते थे। लेकिन कोई ऐसा अवसर आ जाता कि जिससे खेती के कारण वेदों का पढ़ना-पढ़ाना छूटता हो तो उस समय खेती भले ही छोड़ देते थे, परंतु वेदों को नहीं; क्योंकि उनका पढ़ना उन्हें प्राणों से भी प्यारा था। इसी से खेती छोड़ भूखों रहना तक पसंद कर लेते थे यदि ऐसा मौका आ जावे, जैसा कि :

वेद: कृषिविनाशाय कृषिर्वेदविनाशिनी।
    शक्‍तिमानुभ्यं कुर्यादशक्‍तस्तु कृषिं त्यजेत्॥

'निरंतर खेती में ही लगे रहने से वेदों का पढ़ना-पढ़ाना प्राय: छूट जाता है और निरंतर वेदों में लगे रहने से खेती भी छूट जाती है। अत: यदि अपने-अपने अवसर पर दोनों को कर सके तो दोनों ही करे। यदि नहीं, तो खेती भले ही छोड़ दे, पर वेद को न छोड़े।' (बौधा. स्मृति. 5/1/101) से स्पष्ट है। पर ऐसा कहीं भी देखने में नहीं आता है कि केवल याचक या अयाचक; पुरोहित या यजमान, गुरु वा शिष्य अथवा मैथिल, कान्यकुब्ज, गौड़, पश्‍चिमा, भूमिहार, जमींदार या त्यागी कहलाने से ही कोई उस समय श्रेष्ठ माना जाता रहा हो, जैसा कि आजकल आँखों देख रहे हैं। हिंदू समाज या ब्राह्मणों में ही गुरु, पुरोहित आदि की प्रतिष्ठा इसलिए नहीं होती थी - उन्हें माना या प्रणाम आदि इसलिए नहीं किया जाता था - कि वे पुरोहित या गुरु हैं, किंतु केवल इसलिए कि उनमें विद्या और तप है। उन्हें भोजन कराने या कुछ देने के समय यदि लोग उनकी पूजा या उन्हें प्रणाम करते थे, तो इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि इतने ही मात्र से पूजा काल से अन्य समय भी वह लोग प्रणाम आदि के योग्य हैं। अन्य समय में तो उन्हें प्रणाम आदि तभी किया जा सकता है जब कि उनमें विद्या, तप आदि रूप योग्यता हो, अन्यथा नहीं। यही पूर्व प्रदर्शित वाक्य का आशय है। हिंदू समाज में तो यह नियम है कि जिस किसी को कुछ दिया जावे उसको पूजन तथा प्रणामपूर्वक ही दिया जावे। इसीलिए कन्यादान के समय दामाद की भी पूजा की जाती है, एवं शय्यादान के समय महापात्र की। पर इतने ही मात्र से वे लोग यह दावा नहीं करते या कर सकते कि उन्हें सर्वदा ही प्रणाम करना चाहिए और न ऐसा किया ही जाता है। बस, यही नियम सब स्थानों में समझ लेना चाहिए। यदि सिर्फ गुरु या पुरोहित होने मात्र से हर हालत में पूजन, प्रणाम की योग्यता व अधिकार माना जाता तो महाभारत के उद्योगपर्व में परशुराम के साथ युद्ध करते समय भीष्म परशुराम के प्रति यह क्यों कहते हैं कि :

गुरोरप्यवलिप्तस्य कार्याकार्यमजानत:।
    उत्पथप्रतिपन्नस्य न्याय्यं भवति शासनम्॥

'गुरु भी यदि अभिमानी हो जावे, कर्तव्य अकर्तव्य न जाने या शास्त्रविरुद्ध आचरण करे तो उसका दंड करना ही उचित है।' (उ. 179-24)? यही बात वाल्मीकि रामायण अयोध्याकांड तथा महाभारत के आदिपर्व एवं शांति में भी लिखी गई है।

इस प्रकार पूर्वप्रदर्शित संक्षिप्त विचारों से स्पष्टतया सिद्ध है कि हिंदू समाज में ब्राह्मणों का स्थान प्राचीनकाल में अत्यन्त ऊँचा था और उसके कारण केवल विद्या, तप और सदाचार ही थे।

मधुकर! मा कुरु शोकं विहर करीरद्रुमस्य कुसुमेषु।
    घनतुहिनपातदलिता कथं सा मालती प्राप्यते॥ (सुभा.)

पूर्वार्द्ध में जिस प्राचीन छटा का दृश्य दिखलाया गया है, ठीक उसका उलटा इस समय हो रहा है। भूदेवों की आधुनिक दशा अत्यन्त शोचनीय हो रही है। इसका यथार्थ चित्र किसी कवि के इन वाक्यों द्वारा हू-ब-हू खींचा गया है :

वह बुलंदी यह तबाही! वह जलाल और यह जवाल!!
    सज्जनो मन में विचारो, हो गया कैसा हवाल!!

जिन महानुभावों के नेत्रों के सम्मुख उस गतगरिमा का चित्र होगा उन्हें अवश्य आशा होगी कि ब्राह्मण समाज कितना भी अवनत क्यों न हो गया होगा, फिर भी उसमें उन प्राचीन गुणगणों की झलक अवश्यमेव होगी। क्योंकि, 'मरा भी हाथी नौ लाख का'। पर खेद के साथ कहना पड़ता है कि बिहारी के ही इन शब्दों में उन्हें भारी निराशा का सामना करना पड़ेगा कि :

जा दिन देखे वे कुसुम गई सुबीति बहार।
    अब अलि रही गुलाब में अपत कँटीली डार॥

जिन विप्रों में प्रथम एकता थी, 'तीन तेरह' अथवा 'तीन कनौजिया तेरह चौके' की बात न थी; जिनमें ऊँच-नीच भाव केवल योग्यता पर - क्रिया पर - अवलंबित था। उन्हीं में आज 'अपनी-अपनी डफली और अपना-अपना राग' हो रहा है। हम अमुक हैं इसलिए बड़े हैं और तुम छोटे, हम कुलीन हैं, और तुम नहीं, फिर समानता कैसी? हमारी मर्यादा बीस विस्वा है, तुम्हारी उन्नीस ही, फिर हमारा तुम्हारे साथ खान-पान कैसा? इत्यादि बातें ही दृष्टिगोचर हो रही हैं? सारांश 'हमारे दादा ने घी खाया था, हमारा हाथ सूँघ लो' वाली कहावत ही अक्षरश: चरितार्थ हो रही है। 'कान्यकुब्जाद्विजा: सर्वे' वाला सिद्धांत प्रथम सर्वत्र व्यापक था, जिसका तात्पर्य यह है कि प्रथम ब्राह्मणमात्र का निवास स्थान केवल कान्यकुब्ज देश अथवा ब्रह्मावर्त्त और ब्रह्मर्षि देश था, जैसा कि मनुस्मृति (अ. 2 श्‍लोक-17-20) से स्पष्ट है। इससे यह मतलब नहीं निकाला जा सकता कि आधुनिक कान्यकुब्ज ब्राह्मण इतर ब्राह्मणों से इसीलिए श्रेष्ठ हैं कि प्रथम के सभी ब्राह्मण उन्हीं के देशवासी हैं। किंतु इससे सिर्फ ब्राह्मण मात्र की एकता सिद्ध होती है। इस एकता के आज भी दो प्रबल, अकाट्‍य और प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। प्रथम यह कि आजकल जो ब्राह्मणों के सैकड़ों दल हो गए हैं उनकी वंशावलियाँ देखी जाएँ या उन-उन दलों के जानकारों से पूछा जावे तो विदित हो जावेगा कि समान गोत्रवालों के, फिर वह चाहे कनौजिया, गौड़, महाराष्ट्र, मैथिल या भूमिहार, त्यागी आदि किसी नाम के हों, प्रवर, शाखा सूत्र, वेद, देवता, पाद और शिखा एक ही हैं। यह कैसी विचित्र बात है कि दो ब्राह्मण जो इस समय एक-दूसरे से कई सौ कोस दूर रहते हैं तथा सारस्वत और बंगाली आदि भिन्न-भिन्न नामों से पुकारे जाते हैं एवं आचार-व्यवहार में भी एक-दूसरे से बिलकुल ही विपरीत हैं, प्रश्‍न करने पर एक ही ऋषि को अपने गोत्र और प्रवर प्रवर्तक मानते हैं और यह भी कहते हैं कि उनका वेद, शाखा और सत्र भी एक ही है! इससे यही प्रकट होता है, कि किसी समय में उन दोनों के पूर्वज एक ही स्थान पर निवास करते, एक ही ऋषि से उत्पन्न हुए, एक ही वेद की एक ही शाखा और उस शाखा संबंधी एक ही श्रौत्र या गृह्यसूत्र को पढ़ते थे, सो भी अल्पकाल तक ही नहीं, किंतु सुदीर्घ काल तक। इसी से परस्पर अत्यन्त दूर रहने पर और सहस्रों वर्ष बीतने पर भी उसकी स्मृति आज तक ज्यों की त्यों बनी है, चाहे वह बात अब प्रत्यक्ष नहीं है! यदि अल्प समय का ही अभ्यास रहता तो वह इस सुदीर्घ काल के गर्भ में कभी का विलुप्त हो गया होता। इससे भी मार्के की बात देवता-शिखा एवं पाद की एकता है, जो यह बता रही है कि उनके पूर्वज किसी एक ही इष्टदेव की पूजा करते थे और पूजा काल में या अन्य समय प्रथम एक ही (दाहिना व बायाँ) पाँव धोते तथा एक ही (दाहिनी व बायीं) ओर से घुमा कर शिखा बाँधते थे, यद्यपि आज भिन्न-भिन्न देवताओं की पूजा करते हैं और उनकी शिखा और पाद का तो कोई नियम ही नहीं है। यह पिछली तीन बातें तो बिना एक स्थान में रहे और एक ही उपदेशक की शिक्षा पाए कथमपि संभव नहीं है। यह तो हो ही नहीं सकता कि सौ कोस के फ़ासले पर एक ही गोत्र-प्रवर वाले रहें और एक ही वेद पढ़ें और केवल उन्हीं के देवता, शिखा और पाद एक रहें, न कि दूसरे वेद पढ़ने वालों के भी। यदि उपदेशक स्थान-स्थान में भ्रमण कर इसका प्रचार करते तो फिर एक स्थान के भिन्न-भिन्न वेद पाठियों के भी देवता आदि एक ही हो जाते। साथ ही जब एक वेदवाले कुछ और कहलाते और दूसरे वेदवाले अन्य, तो फिर भी इतनी दृढ़ता कदापि नहीं होती, जिसकी स्मृति सहस्रों वर्ष बाद भी संप्रति बनी है। ऐसी समानता जब आज रेल-तार के समय में भी असंभव-सी है तो फिर, जब ये बातें नहीं थीं तब, कैसे हो सकती थी?

दूसरा प्रमाण उस प्राचीन एकता का ब्राह्मणों के विभिन्न दलों में परस्पर विवाह सम्बन्ध और खानपान है जो किसी न किसी रूप में इस गए-गुजरे जमाने में भी थोड़ा-बहुत पाया जाता है। इसका अभिप्राय यह है कि संप्रति ब्राह्मणों के जो दो बड़े विभाग गौड़ तथा द्रविड़ हैं और फिर प्रत्येक में जो गौड़, त्यागी, सारस्वत, महियाल, कान्यकुब्ज, सर्यूपारी, मैथिल, भूमिहार, उत्कल, बंगाली आदि तथा तैलंग, द्रविड़, महाराष्ट्र, कर्नाटक और गुर्जर आदि हैं, जहाँ तक जाँचने से विदित हुआ है, ये लोग परस्पर विवाहादि द्वारा मिले हुए हैं। यद्यपि सभी दलों का मेल परस्पर नहीं है और जिनका है भी उनका भी सब जगह नहीं है, तथापि एक ब्राह्मण दल का जहाँ छोर है, जहाँ उसका अन्त होता है तथा जहाँ से दूसरे दल का प्रारंभ है वहीं एक-दूसरे का विवाहादि द्वारा मेल है। दृष्टांत के लिए कह सकते हैं कि फर्रुखाबाद, मैनपुरी और इटावा आदि जिलों में जहाँ कान्यकुब्जों तथा सनाढ्‍यों का छोर है, परस्पर विवाह आदि होते हैं। इसी प्रकार सुल्तानपुर और प्रयाग आदि जिलों में कान्यकुब्जों और सर्यूपारियों का परस्पर तथा दोनों का भूमिहारों के साथ खान-पान एवं विवाह सम्बन्ध है, तथा मिथिला में भूमिहारों और मैथिलों में भी परस्पर यही बात है, जैसा कि ब्रह्मर्षि वंश-विस्तर' के 163-194 पृष्ठों से स्पष्ट है। इसी प्रकार बंगाल के मुर्शिदाबाद और जैसोर आदि जिलों में जो जिझौतिया, कान्यकुब्ज या भूमिहार आदि हैं उनका भी परस्पर ऐसा ही सम्बन्ध 'विस्तर' के 367-68 पृष्ठों से विदित है। यह भी स्मरण रहे कि यह सम्बन्ध ऐसा नहीं है कि एक समाज की केवल लड़कियों का ही, दूसरे समाज के लड़कों के ही साथ हो, किंतु जिन समाजों का परस्पर ऐसा सम्बन्ध है उनके लड़के-लड़की दोनों का ही है, सो भी एक-दो नहीं, बहुत बड़ी संख्या में, अस्तु। इसी प्रकार दिल्ली, सहारनपुर तथा रोहतक आदि जिलों में त्यागियों और ग्राही गौड़ों के भी पारस्परिक विवाह आदि होते हैं, तथा पंजाब के कुछ जिलों में सारस्वतों एवं महियालों के भी। यही बात विद्यारत्‍न पं. दुर्गादत्त द्विवेदी शास्त्री ने 'ब्राह्मण भेद विचार' नामक ग्रन्थ में इस प्रकार लिखी है :

'अब इसके आगे एक और भी भेदनाशक तथा एकता सूचक प्रत्यक्ष प्रमाण निवेदन किया जाता है। जो नामधारी ब्राह्मण समुदाय जिस देश में बसता है वह समूह अपनी वाससीमा की संधि में एक-दूसरे नामवाले के साथ रोटी-बेटी सम्बन्ध से मिला हुआ है। जैसे सारस्वत देश के दक्षिण भाग की संधि में रहनेवाले सारस्वत नामधारी ब्राह्मण छन्नाति के गौड़ ब्राह्मणों के साथ रोटी-बेटी सम्बन्ध से मिले हुए सुने जाते हैं। इसी प्रकार गौड़ नामधारी ब्राह्मण जयपुर के ईशान भाग से भरतपुर तक सनाढ्‍यों के साथ प्रेमपूर्वक खान-पान, विवाह सम्बन्ध कर रहे हैं। इसी प्रकार मैनपुरी, फर्रुखाबाद, एटा, इटावा आदि जिलों में सनाढ्‍य और कान्यकुब्ज खान-पान, विवाह में मिले हुए हैं और आगे बढ़ कर कान्यकुब्ज और सर्यूपारी ब्राह्मण अपनी वाससीमा में पूर्ववत मिले-जुले हैं। इसी प्रकार आगे अपनी वाससीमा में सर्यूपारियों का थोक मैथिलों के साथ और मैथिल उत्कलों के साथ नातेदारी में फँसे हैं। दाक्षिणात्य ब्राह्मण मात्र भोजन में तो सर्वत्र एक हो ही रहे हैं, परंतु वाससीमा संधि में विवाह से भी सटे हैं। हाँ, मध्यवास में एक-दूसरे से दूर पड़ने के कारण विवाह सम्बन्ध कष्टसाध्य है। अतएव मध्य में अब वह रीति उठ गई है।' (पृ. 4-5)।

इतना ही नहीं। सन 1926 की गर्मियों में कान्यकुब्ज महती सभा का जो 19वाँ वार्षिक अधिवेशन प्रयाग में जौनपुर के राजा श्रीकृष्णदत्तजी दुबे, एम.एल.सी. की अध्यक्षता में हुआ था उसमें सर्वसम्मति से जो प्रस्ताव पास हुआ था वह उस सभा के प्रधानमन्त्री रायसाहब पं. राजनारायण जी मिश्र के कथनानुसार इस प्रकार है - 'समाज की शिथिलता और विश्रृंखलता को देखते हुए पारस्परिक प्रेम, ऐक्य एवं सहानुभूति के आदर्श से कान्यकुब्ज महती सभा कान्यकुब्जों के सामुदायिक संगठन की आवश्यकता समझती है और उसकी पूर्णता के लिए समस्त कान्यकुब्जों से अनुरोध करती है।

'सर्यूपारीण, सनाढ्‌य, जुझौतिया, भूमिहार, पर्वतीय, बंगाली, गुजराती आदि समुदायों में एक बहुत बड़ा भाग अपने को कान्यकुब्ज मानता है। किंतु इस समाज में उनका प्रत्यक्ष सम्बन्ध न होने से बृहत कान्यकुब्ज समाज के संगठन में बाधा पहुँचती है। अत: सामुदायिक संगठन की दृष्टि से कान्यकुब्ज प्रतिनिधि सभा कान्यकुब्ज कहानेवाले ब्राह्मण समुदाय का संगठन कर आपस में प्रेम, ऐक्य एवं सहानुभूति बढ़ाना आवश्यक समझती है।'

उक्‍त सभा का 20वाँ अधिवेशन 1927 के अप्रैल में लखनऊ में पं. उमाशंकर वाजपेयी, एम.ए.,एल. एल.बी., गवर्नमेंट एडवोकेट, इलाहाबाद की अध्यक्षता में हुआ था। उसमें भी पुन: इसी आशय का प्रस्ताव यों स्वीकृत हुआ था -

(अ) यह कान्यकुब्ज महती सभा गत वर्ष के अधिवेशन के प्रस्ताव के अनुसार इस अधिवेशन में कतिपय सर्यूपारीण एवं अन्य कान्यकुब्ज कहलानेवाले ब्राह्मणों की उपस्थिति देख कर अत्यन्त हर्ष प्रकट करती है तथा सामुदायिक संगठन के आदर्श से, और वर्तमान समय को देखते हुए सर्यूपारीण, सनाढ्‍य, जुझौतिया, भूमिहार, पहाड़ी, बंगाली आदि कान्यकुब्जों को एकत्र कर बृहत संगठन करने तथा उनमें पारस्परिक प्रेम, ऐक्य एवं सहानुभूति बढ़ाने के लिए इस बात की प्रार्थना करती है कि ऊपर कहे हुए ब्राह्मण समुदाय हमारी सभा के वार्षिक अधिवेशनों में अवश्य उपस्थित हो कर उचित योग प्रदान करें तथा इस प्रस्ताव को कार्य रूप देने में सभा के सहायक हों।'

(ब) यह कान्यकुब्ज महती सभा यह भी प्रस्ताव करती है कि नीचे लिखे 5 सज्जनों की एक कमेटी बनाई जावे, जिसका काम इस विषय पर सम्मति एकत्र करना हो और उन सम्मतियों के आधार पर कान्यकुब्ज समाज की एक ऐसी व्यवस्था तैयार की जावे कि किन-किन आधारों पर, अथवा किस-किस उपाय से उपर्युक्‍त प्रस्ताव को अमल में लाया जा सकता है। कमेटी के सदस्य (1) माननीय पं. गोकरणनाथ जी मिश्र-संयोजक, (2) पं. रविशंकर जी शुक्ल राय, रायपुर, (3) पं. जयदयाल जी अवस्थी, लखनऊ, (4) रायसाहब पं. राजनारायण जी मिश्र, इलाहाबाद, (5) पं. रघुनन्दन शर्मा, कानपुर।'

उसी अधिवेशन के सभापति ने अपने भाषण के 12वें पृष्ठ में कहा है कि - 'उसी (कान्यकुब्ज) बृहद्वंश की शाखाएँ फैल कर सनाढ्‍य, पहाड़ी, जुझौतिया, सर्यूपारी, छतीसगढ़ी, भूमिहार और अनेक बंगाली ब्राह्मणों की स्थापना हुई। समय के फेर से, शीघ्र गमनागमन के साधनों के अभाव से, प्रांत विशेष की वेशभूषा की विभिन्नता से, खान-पान की असाम्यता आदि कारणों से ऐसा भेद-भाव उत्पन्न हो गया कि वे एक-दूसरे को भूल से गए और वह पुरानी एकता स्वप्नवत हो गई।'

स्वागताध्यक्ष जस्टिस गोकरणनाथ मिश्र ने भी अपने भाषण के चौथे पृष्ठ में कहा है कि - 'मैं अपने उस आनन्द का वर्णन नहीं कर सकता जो मुझे उस समय हुआ जब पिछले साल प्रयाग में कान्यकुब्ज महती सभा ने यह प्रस्ताव पास किया कि उन ब्राह्मण समुदायों को भी अपनाने का प्रयत्‍न करना चाहिए जो इस बात को मानते हैं कि वह किसी समय वास्तव में कान्यकुब्ज ही थे और अब उनकी प्राचीन शाखा होने के कारण कान्यकुब्जों से मिलने की इच्छा रखते हैं। मेरा तात्पर्य इस समय सर्यूपारी, जुझौतिया तथा भूमिहार ब्राह्मणों से है जो ज्यादातर इस प्रांत के पूर्वी और दक्षिणी भाग में रहते हैं।'

आयुर्वेदाचार्य पं. सत्यनारायण जी मिश्र के संपादकत्व में निकलनेवाले 'कान्यकुब्ज हितकारी' मासिक पत्र के सन 1926 के दो अंकों में भी इसी बात की चर्चा यों हुई थी, 'कई बार बड़ी-बड़ी सभाओं के मंचों एवं ब्राह्मण जाति के इतिहास वेत्ताओं के श्रीमुखों से यह मसला अब निर्विवाद सिद्ध हो चुका है कि सर्यूपारीण, सनाढ्‍य, जुझौतिया, भूमिहार, पर्वतीय, बंगाली आदि सभी ब्राह्मण कान्यकुब्ज ब्राह्मण हैं। अब प्रश्‍न यह होता है कि इनका सामुदायिक संगठन कैसे हो सकता है। हमारे पाठक अभी भूले न होंगे कि प्रयाग में होनेवाला गत प्रतिनिधि सभा के वार्षिक अधिवेशन के सुअवसर पर श्री पं. वेंकटेशनारायण जी तिवारी, एम. ए. द्वारा प्रस्तावित तथा पं. शिवरत्‍न जी शुक्ल, पं. जगन्नाथ जी शुक्ल तथा पं. गुरुदयाल जी तिवारी द्वारा अनुमोदित एवं समर्थित एक प्रस्ताव इसी आशय का उपस्थित किया गया था।' (नवंबर, पृ. 238)। 'श्रीकान्यकुब्ज प्रतिनिधि सभा को अपने प्रयाग में स्वीकृत प्रस्ताव के अनुसार सभी फिर्के के ब्राह्मणों को आमंत्रित करना चाहिए। अर्थात सर्यूपारीण, सनाढ्‍य, बंगाली, भूमिहार आदि सभी ब्राह्मण उस अधिवेशन के अवसर पर बुलाए जाएँ।' (दिसंबर, पृ. 269)।

3 जून, 1922 के 'मिथिला मिहिर' नामक मैथिलों के पत्र में एक मैथिल ने यों लिखा था -'दरभंगा संचारि कोसपूर्व, भागीरथी के ओहिपार तक दक्षिण में रहनिहार अधिकांश मैथिल लोकनित निश्‍चय कलेलन्हि जेओ लोकनि भूमिहारे थिकाह, किंवा वैह सभ मैथिल थीक। किएक तं हुनकालोकनि ओकरा सभसं साधारणतया सिद्धान्न भोजनादिक घनिष्ठ व्यवहार करहल छथि।' सारांश यह है कि दरभंगा से 4 कोस पूर्व से ले कर दक्षिण में गंगापार तक के मैथिलों और भूमिहारों में कोई भेद नहीं है, दोनों का खान-पान आदि एक ही साथ है। पर, दुर्दशा ऐसी हो रही है कि घर-घर में फूट है और विद्या से - केवल संस्कृत विद्या से ही - प्राय: सम्बन्ध छूटता जा रहा है! जो संस्कृत ब्राह्मणों की बपौती - सच्ची बपौती - थी उसे किसी ने जमींदारी और बबुआई से मदांध हो कर लात मारी तो औरों ने - पुरोहित, पुजारी और पंडों ने - शेष जनता को मूर्ख और अन्धपरम्परा का भक्‍त देख पुरोहिती, गुरुवाई के ही मद में चूर हो उसका तिरस्कार किया! जब गुरु, व्यास तथा पुरोहित कहलानेवालों ने अपनी एक अलग जाति ही बना ली और जब उनके मन में नीच स्वार्थ - केवल जैसे हो तैसे पैसा झटकने का स्वार्थ - समा गया एवं साथ-साथ विलासप्रियता तथा आलस्य भगवान से भी घनिष्ठ मित्रता हो गई, तो उन्होंने सोचा कि कौन सा उपाय करें जिससे पढ़ने-पढ़ाने के महान क्लेश से पिंड छूटे, पैसे भी पूर्ववत मिला ही करें और माल मारने का भी पूरा मौका प्राप्त हो। उन्होंने युक्‍ति ढूँढ़ निकाली कि जो लोग पुरोहिती आदि कर्मों द्वारा अपने जीवन का निर्वाह नहीं करते प्रथम वह लोग ही विद्याविमुख किए जाएँ। फिर तो कोई टोकने और जाँचनेवाला रहेगा ही नहीं! इसलिए जो चाहेंगे करेंगे। इस सिद्धांत के अनुसार प्रथम यजमानों को यह कह कर पढ़ने-पढ़ाने से अलग किया कि आपको क्या कहीं पुरोहिती करनी, आचार्य बनना, पुजारी होना या पत्र उलटना है कि आप संस्कृत विद्या के लिए माथा मारने को तैयार हैं? इस भिखमंगी विद्या को पढ़ कर आप क्या करेंगे? क्या भीख माँगनी है? इत्यादि। इस प्रकार यजमान लोग संस्कृत विद्या से और अतएव कर्मकांड से पूरे अनभिज्ञ हो गए! तो फिर क्या था, यार लोगों की बन आई और रहा-सहा पढ़ना-पढ़ाना लगभग एकबारगी छोड़कर गुरु पुरोहित भी प्राय: निरक्षर भट्टाचार्य ही बन गए! 99 नहीं तो 90 प्रति सैकड़ा ऐसे पुरोहित और गुरु मिलेंगे जिनका काम अधिक से अधिक दुर्गा, सत्यनारायण, शीघ्रबोध और मुहूर्तचिंतामणि के कुछ ही श्‍लोकों के आधार पर चलता है! बाकी से वे लोग नाता तोड़ बैठे हैं! खूबी यह है कि इन पूर्वोक्‍त तीन-चार पोथियों का भी यथार्थ ज्ञान शायद ही किसी-किसी को है। इस पर भी तुर्रा यह है कि अपने सामने किसी को कुछ समझते भी नहीं! इसीलिए यदि कोई विज्ञ पुरुष समझाना चाहे तो उसके पास इस विचार से जाना तो दूर रहा विपरीत युद्ध के लिए कमर कस लेते हैं। यदि मूर्खतावश नष्ट-भ्रष्ट प्राचीन परिपाटी का फिर से कोई सुधार शास्त्रीय रीति के अनुसार करना चाहे तो उसकी दुर्दशा होती है! मूर्ख शिरोमणि पुरोहितों और गुरुओं ने अज्ञ यजमानों और शिष्यों के कान यह कह कर भर दिए हैं कि अमुक संस्कार तथा क्रिया-कर्म बाप-दादे के समय से ऐसा ही चला आता है, क्या आप अब नया रास्ता गढ़ेंगे? फिर क्या है? सुधारकों और विज्ञों की कौन सुने? उनका उपदेश तो 'नक्कारखाने में तूती की आवाज' हो जाता है - उलटे उन्हीं को उल्लू बनना पड़ता है! एक बात यह भी देखी जा रही है कि नवरात्र के दिनों में प्राय: कृषक तथा अन्यान्य गृहस्थ किसी कामना-सिद्धि या कल्याण के लिए दुर्गा सप्तशती का पाठ करवाते हैं। इसी तरह अधिकांश स्थानों में अधिमास के समय पार्थवेश्‍वर की पूजा और बिल्वपत्र चढ़ाने की रीति है। पर तमाशा क्या होता है कि जिन पुरोहित, गुरु कहलानेवालों को दुर्गा के श्‍लोक बाँचने तक की भी योग्यता नहीं होती, उनकी शुद्धि-अशुद्धियों की तो बात ही न्यारी, वे भी दस-पंद्रह पाठों तक के संकल्प प्रतिदिन के लिए करा लेते हैं! जिन्हें कुछ बाँचने की गम है उनकी बात भी विचित्र है। चाहे जितने भी पाठ कराने के लिए यजमान खड़े हो जाएँ, वे नकार करना नहीं जानते, सभी का संकल्प करा लेंगे चाहे पाठ एक ही दो करें! इसी तरह अधिमास के पार्थवेश्‍वर पूजा संकल्प को भी समझ लेना चाहिए! चाहे दस-बीस यजमानों ने अलग एक-एक, सवा-सवा लक्ष पूजन का ही संकल्प क्यों न कराया हो, पर केवल एक ही सवा लक्ष का पूजन कर के दक्षिणा सभी के सिर पर सवार हो कर वसूल की जावेगी! इस अनर्थ का प्रधान कारण एक तो स्वार्थी तथा अपढ़ पुरोहित आदि की, चाहे किसी भी तरह से, पैसा कमाने की दुर्बुद्धि है और दूसरे यजमानों की प्रचंड मूर्खता तथा विवेक भ्रष्टता है, जिस कारण वह यह भी नहीं विचार सकते कि जिन हजरत से पूजा-पाठ का संकल्प करवा रहे हैं या उनमें उसकी पूर्ण योग्यता भी है या नहीं, और योग्यता है भी तो प्रथम से ही और यजमानों के उसी पूजा-पाठवाले संकल्पों से लदे होने के कारण उन्हें अवकाश है या नहीं। परंतु वे लोग अन्धपरम्परा के इस तरह वशीभूत हो रहे हैं कि उन्होंने चाहे जैसे हो उन पूजा-पाठों के संकल्पों को करा ही देना अपना कर्तव्य समझ रखा है! फिर चाहे पूजा-पाठ हो या नहीं, यह देखना उन्हें पसंद नहीं! यदि किसी कारणवश कभी नहीं करा सके तो वर्षों उन्हें, और नहीं तो उनके घर की मूर्खतम स्त्रियों को बराबर इसकी चिंता बनी रहती है। इस मध्य में यदि कहीं किन्हीं लड़के-बच्चों को किसी रोग ने आ घेरा तो चट कल्पना कर लेतीं और घरवालों को निश्‍चय कर देती हैं कि बस, हर साल होने वाली पूजा इस वर्ष न हुई। इसी से अमुक देवी-देवता रुष्ट हैं, जिससे यह कष्ट है! भला इस अंधेर का कहीं ठिकाना है! यदि यजमान विचार से नहीं तो और ही कारणों से, विशेष कर आर्थिक परिस्थितियों के कारण ही इस पूजा-पाठ से कभी किसी तरह पिंड भी छुड़ाना चाहें तो स्वयं कई वर्षों से लगातार पैसे ठगनेवाले पुरोहित, गुरु या व्यास महाराज ही नित्य जा-जा कर दरबार करते और गले पर सवार होते हैं कि यजमान, हर साल हमें कुछ मिल जाता था, इस वर्ष आप क्यों चुप हैं? यजमान साहब एक-दो दिन तो इधर-उधर भागते हैं, पर विचार के पक्के न होने के कारण ही अन्त में हार कर उनको कुछ करना ही पड़ता है। क्या ही लीला है! ये पूजा-पाठ सिर्फ पैसे कमाने के द्वार हो रहे हैं, यजमान चाहे चूल्हे में जावे! यदि यजमान के कल्याण की बात रहती तो फिर करनेवाले क्यों उसके गले पर सवार हो नाकों दम करते? जिसे आवश्यकता होती है वही दौड़ा करता है। यह तो नहीं देखा कि रोगी की फिक्र ही नहीं और वैद्य उसके पिंड पड़े! और यदि ऐसा कोई करता है तो उसकी कदर ही जाती रहती है। पर, यहाँ की गंगा तो उलटी बहती है। इसे ही कहते हैं पथभ्रष्टता। धन्य रे हिंदू समाज और धन्य रे पुरोहित, गुरु एवं व्यासों की करतूत!

एक बात और भी ध्यान देने योग्य है। यह पूजा, पाठ, पुरोहिती, व्यासगद्दी और गुरुआई आदि पैसे हड़पने के व्यापार मौरूसी मान मना लिए गए हैं। यजमानों की मूर्खता से अन्यान्य लाभों के सिवाय स्वार्थी लोगों ने एक यह बड़ा लाभ निकाला है कि अपने इन पूर्वोक्‍त कमाने के कामों को मौरूसी या इस्तमरारी बना रखा है। चाहे वे मूर्ख से मूर्ख और पतित से पतित भी हो जाएँ, पर पुरोहिती उनकी ज्यों की त्यों बनी रहेगी, व्यासगद्दी उनकी निष्कंटक चलती जावेगी और गुरुवाई उनकी दिनोंदिन वॄद्धि पर ही होगी - दृढ़तर हो जावेगी! इन जगहों पर जो या जिसके बाप-दादे अपनी योग्यता के कारण प्रथम किसी समय बैठ गए हैं, अथवा इच्छा न रहने पर भी जबर्दस्ती बैठाए गए हैं, वही जगह उनके मूर्ख और भ्रष्ट से भी भ्रष्ट लड़के बालों तथा वंशजों की बपौती हो गई! उसी की कृपा से वह नीच से भी नीच कार्य करने पर भी माल मारते और गुलछर्रे उड़ाते रहते हैं! जिस समय 'पाँव पखरवाने' का प्रसंग आवेगा उस समय योग्यातियोग्य पुरुषों के रहते हुए भी उन्हीं की खोज होगी! उन्हीं के चरणकमल धो कर यजमान तरेंगे और उन्हीं का चरणामृत एवं चरणरज यजमान के पुरुषों तक को पवित्र करेगा! इसे ही कहते हैं समय का फेर। भारतवर्ष में तीसों दिन और बारहों महीने पितृपक्ष का ही अखण्ड राज्य है, जिससे हंसों का तिरस्कार कर, उन्हें न पूछ कर, लोग कौओं की ही पूजा किया करते हैं! यह तो अंधेर यहीं देखा कि वकालत भले ही न पास हो, पर मुकद्दमे की पैरवी के समय उसी की खोज होगी, और प्रवीणतम वकील धक्के खाएँगे, उनकी पूछ तक न होगी! पूर्व समय में तो परशुराम ने कश्यप आदि को, श्रीरामचंद्र ने धर्मारण्य के वाडवों तथा वसिष्ठ को एवं पांडवों ने धोम्य को, और वसुदेव आदि ने गर्ग को पुरोहित, गुरु और व्यास बनाया था। देवताओं को जब इसकी आवश्यकता हुई तो बृहस्पति को और उनके अभाव में विश्‍वरूप को गुरु बनाया था। यहाँ तक कि दैत्य-दानवों ने भी भगवान शुक्राचार्य को ही यह आसन दिया था, न कि किसी अशिक्षित या आचारहीन को भी। पर जिस कर्म को राक्षस या दैत्य-दानव भी न कर सके, जिस बात को उन्होंने भी अनुचित समझा, उसे ही करने में आज जगद्‍गुरु होने का अभिमान रखनेवाला ब्राह्मण समाज, ब्राह्मण दल के बाद क्षत्रियादि तथा हिंदू समाज मात्र जरा भी हिचकता तक नहीं! इसे ही कहते हैं अवनति की पराकाष्ठा। जिस काम के संपादन में, जिस यज्ञ-यागादि क्रिया-कलाप के पूर्णतया कराने में वसिष्ठ जैसे ब्रह्मर्षि, तत्वज्ञानी, वेद-वेदांगपारंगत समर्थ न हुए, अतएव महाराजा दशरथ को पुत्रोष्टि के लिए श्रृंगी ऋषि की आवश्यकता हुई, और उनके लाने का उपदेश भी स्वयं वसिष्ठ जी ने ही किया, वही काम आजकल के घोंघा पंडित, पूड़ी पांडे और थोथा तिवारी बिना रोक-टोक कराने को तैयार हैं, बेखटके करते-कराते हैं, और साथ ही, किसी दूसरे विज्ञ पुरुष की सहायता भी नहीं चाहते, उसे यज्ञ-मंडप के भीतर आने देना उन्हें पसंद और सह्य नहीं और इसी पर उनके घमसानदास यजमान भी खुश हैं। जिस पुरोहिती पद के लिए याज्ञवल्क्य ने कहा है कि :

पुरोहितं प्रकुर्वीत दैवज्ञमुदितोदितम्।
    दंडनीत्यां च कुशलमथर्वांगिरसे तथा॥

'ज्योतिषशास्त्र के ज्ञाता, विद्वान, सदाचारी, नीतिशास्त्र के जानकार और अथर्ववेद के कर्मों में कुशल विप्र को पुरोहित बनावें।' (अ. 313), जिस पद का महत्व आजकल की वकालत आदि से किसी प्रकार कम नहीं है, उसी पद पर बिना परीक्षा लिए और बिना जाँचे-पूछे ही भरती होती है! भला इस अंधेर का कहीं ठिकाना है! यजमानों को शांतिक पौष्टिक कर्मों की बराबर आवश्यकता बनी रहती है, और उन कर्मों का प्रधान रूप से निरूपण अथर्ववेद में ही आया है। उसके कांड के कांड केवल इन्हीं कर्मों का प्रतिपादन करते हैं। इसी से पुरोहित को उसकी पूर्ण जानकारी होनी चाहिए। पर आजकल के पुरोहित तो प्राय: जानते तक नहीं कि अथर्ववेद किस पक्षी का नाम है और उसमें क्या लिखा है। उसका दर्शन तो शायद ही किसी को मिलता है। हाँ, उसकी जगह पर, यदि कोई-कोई कुछ जानते भी हैं तो केवल व्यर्थ के एवं अधूरे तन्त्र-मन्त्र ही, जिनसे केवल ठगी और धोखेबाजी के सिवाय दूसरा कुछ सिद्ध नहीं होता। जो झूठमूठ का झाड़-फूँक करना और खाक विभूति देना जानता है, भूत, प्रेत, चुड़ैल को झाड़ता-फूँकता है, ओझा-सोखा के ठगीवाले काम के सिद्ध हस्त है, लड़के-बाले और धान तथा नौकरी दिलाने का ढोंग बनाता और तदर्थ तन्त्र-मन्त्र करने का दावा रखता है, और इधर का भूत, प्रेत, उधार और उधर का इधर करने की माया दिखलाता, मारण मोहन की डींग मारता और धमकी देता है, वही आजकल पक्का ब्राह्मण, गुरु, पुरोहित, व्यास, आचार्य और साधु-संन्यासी समझा जाता है!

जब कभी ब्रह्मभोज का अवसर आता है तो विचित्र ही लीला दृष्टिगोचर होती है। प्राय: ऐसा अवसर श्राद्ध, विवाह तथा अन्यान्य यज्ञों के समय आया करता है। उस समय लोग यह इरादा रखते हैं कि जितनी ही अधिक संख्या में ब्राह्मण के नाम पर लोगों को खिलावेंगे उतना ही अधिक धर्म होगा और पिता-पितामहादि के साथ झटपट बिना रोक-टोक सातवें स्वर्ग में जा विराजेंगे! यह बात कुछ तो देखादेखी और कुछ विवेकहीन संसार की लज्जा के मारे भी की जाती है। पर सबसे प्रबल कारण मूर्खता ही है। इसी कारण लोग यह विचारते हैं कि हमारी ही हैसियत के अथवा हम से कम ही हैसियतवाले अमुक सज्जन ने जब इतने ब्राह्मण खिलाए तो हम क्योंकर उससे कम खिलावें। ऐसा करने से संसार में हँसी भी होती है। पर, कहा क्या जावे? मूर्खता जो चाहे करावे। लोगों की देखादेख करने से प्रथम यह विचारना उचित है कि जिनको ब्राह्मण के नाम से खिलाने चले हैं, वह खिलाने योग्य हैं या नहीं, जितने ब्राह्मण खिलाने का संकल्प कर रहे हैं उतने ऐसे मिलेंगे या नहीं, जो खिलाने योग्य हों। क्योंकि भगवान ने कहा है कि :

दातव्यमिति यद्‍दानं दीयतेऽनुपकारिणे।
    देशे काले च पात्रे च तद्‍दानं सात्त्विकं स्मृतम्॥

'हमें देना चाहिए केवल इसी बुद्धि से, उसके बदले में किसी उपकार की इच्छा न रख, उत्तम देश, काल और पात्र को जो कुछ दिया जाता है वही सात्विक दान कहाता है।' (गी., 17, 20)। मनु आदि धर्मशास्त्रकारों की भी इस विषय में यही सम्मति है जैसा कि पूर्व प्रकरण में दिखलाया गया है। मनु भगवान को अच्छी तरह से विदित था कि यदि झुंड के झुंड ब्राह्मण खिलाने की आज्ञा दी जावेगी तो योग्य-अयोग्य का विचार न रह सकेगा। लोगों को हार कर उन्हीं चमरू पंडित और घोंटूदत्त, पेटपाल शर्मा आदि के मुख में अन्न झोंकना पड़ेगा, क्योंकि अधिक संख्या में योग्य ब्राह्मण मिल ही नहीं सकते। इसी से लिख दिया है कि :

द्वौ दैवे पितृकार्ये त्रीनेकैकमुभयत्र वा।
    भोजयेत्सुसमृद्धोऽपि न प्रसज्येत विस्तरे॥

सत्क्रियां देशकालौ च शौचं ब्राह्मणसंपद:।
    पंचैतांविस्तरो हंति तस्मान्नेहेत विस्तरम्॥

'देवकार्य में दो और पितृकार्य में तीन, अथवा दोनों में एक-एक ही ब्राह्मण को, बहुत धनी होने पर भी, खिलावे, अधिक खिलाने के बखेड़े में न फँसे। क्योंकि ऐसा करने से उनका सत्कार न हो सकेगा। उत्तम देश, उत्तम काल तथा योग्य (विद्वान तपस्वी) ब्राह्मण न मिल सकेंगे और अधिक के बखेड़े में पवित्रता भी न रह सकेगी। इसलिए विस्तार की चेष्टा न करे (अ. 3/124-125)। याज्ञवल्क्य ने भी यही कहा है, जैसा कि 'द्वौ देवे प्रक्त्रय: पित्र्य उदगेकैकमेव वा' (अ. 228) से स्पष्ट है। और पूर्वोक्‍त मनु वाक्य से मिलता-जुलता ही वाक्य उन्होंने भी लिखा है। यही उचित भी है। लोक में देखा जाता है कि एक पैसे की हँड़िया ख़रीदने के समय भी लोग उसे पाँच बार ठोंक-बजा लेते हैं। जब लौकिक सौदे की, जिसके कि बिगड़ने में हानि भी कम ही होती है और जो आँखों से देखा जाता है - यह दशा है तो फिर जो कि पारलौकिक सौदा-दान-पुण्य और खिलाना-पिलाना आदि है उसके करते समय यह खराब है या अच्छा, हम टूटी नाव पर लाद रहे हैं या मजबूत पर, यह क्यों न देखा जावे? साथ ही, यह सौदा तो सौ-पचास, दो-चार सौ या हजारों रूपए का होता है और आँखों से देखा हुआ न होने के कारण बड़ा नाजुक भी है। इसलिए उस विषय में जैसा शास्त्र कहे वैसा ही करना उचित है, उससे इंच-भर भी इधर-उधर डिगने में भलाई नहीं है। क्योंकि, अँधेरी गुफा का रास्ता दिखानेवाला जिधर से चलने को कहे उधर से ही चलने में कल्याण होता है। जरा भी चूकना विपत्ति का कारण बन जाता है। धर्म-कर्म भी अँधेरी गुफा की चीज है, 'धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायाम्', उसका पथप्रदर्शक शास्त्र के सिवाय दूसरा नहीं, जैसा कि 'श्रुति-स्मृती उभे नेत्रे' कहा गया है। और मनु जी ने भी कहा है कि :

श्रुतिस्मृत्युदितं धर्ममनुतिष्ठन हि मानव:।
    इह कीर्तिमवाप्नोति प्रेत्य चानुत्तमं सुखम्॥

श्रुतिस्तु वेदा विज्ञेयो धर्मशास्त्रं तु वै स्मृति:।
     ते सर्वार्थेष्वमीमांस्ये ताभ्यां धर्मो हि निर्बभौ॥

योऽवमन्येत ते मूले हेतुशास्त्राश्रयाद् द्विज:।
    सं साधुभिर्बहिष्कार्यो नास्तिको वेदनिन्दक:॥

'जो द्विज किसी अन्य स्वार्थ, या शास्त्र का आधार ले कर उन श्रुति-स्मृतियों की आज्ञाओं का उल्लंघन करता है, सत्पुरुषों को उचित है कि समाज से उसे बाहर (खारिज) कर दें; क्योंकि वह नास्तिक और वेदों का निंदक है (अ. 2/11)।

ऐसे अवसरों पर खिलाने-पिलाने या कुछ देने वालों पर इधर यह भूत सवार होता है कि अधिक से अधिक लोगों को खिलावें चाहे उससे जमीन-जायदाद तक बिक जावे तो भी कोई हर्ज नहीं! बहुत सी जगह यही हुआ और हो भी रहा है। आगे चल कर लड़के-बच्चे भूखों मरें पर इन्हें तो यश और स्वर्ग लूटने की ही चिंता है! उधर खाने वालों की यह दशा है कि पाँच बुलावें तो पच्चीस दौड़े आवें, जिससे लोगों के नाकों दम हो जाता है। फिर उन मूर्खों से यदि कहा जावे, कि तुम योग्य (विद्वानों तथा सदाचारियों) को ही खिलाओ, तो कहते हैं, कि ऐसा मत कहिए। यदि हमारे गुरु-पुरोहित ऐसा सुन लेंगे अथवा हम यदि इस झंझट में पड़ेंगे तो कोई पढ़े-लिखे भी हमारे घर खाने ही न आवेंगे, और तब हमारा यज्ञ ही बिगड़ जावेगा। गोया भेड़ों की तरह पतितों तथा मूर्खों को खिला देना ही यज्ञ के पूर्ण होने का एकमात्र साधन है! हाय रे हिंदू धर्म! कभी-कभी यह भी कहा जाता है कि मूर्खों को पुरोहित बना रखा है या बराबर बहुत दिनों से खिलाते आए हैं यदि उन्हें हटावेंगे या खिलाना बंद करेंगे तो वह हमारे ऊपर जान दे देंगे, हमारे द्वार पर आ कर पड़ेंगे, दाढ़ी-बाल बढ़ावेंगे इत्यादि। यह कैसी प्रचंड मूर्खता तथा धर्म के सम्बन्ध में उदासीनता है! यदि कोई बृहस्पति बन कर भी किसी की एक तिलमात्र भूमि पर बलात अधिकार करना या उसकी बहू-बेटी से अनुचित सम्बन्ध करना चाहे तो इसे वह कभी न मानेगा, चाहे वह बृहस्पति या बाजपेयी बननेवाला इसके लिए जान तक दे दे। यह इसलिए होता है कि भूमि या बहू बेटी को लोगों ने कोई आवश्यक या प्रतिष्ठित पदार्थ मान रखा है। पर, धर्म कर्म तो लोगों की दृष्टि में कोई चीज नहीं है! इसलिए उसके नाम पर केवल धमकी से ही डर जाते हैं। क्योंकि अपनी जान कौन देता है? यह सब तो केवल 'बंदर घुड़कियाँ' हैं और इनकी परीक्षा भी बार-बार हो चुकी है। इसके अतिरिक्‍त इन सब कुचालों को रोकने के लिए तो पुलिस है ही, सिर्फ दाढ़ी-बाल बढ़ाने, दरवाजे पर पड़ने या जान देनेवाले की सूचना उसे मिलनी चाहिए और उसके लिए दो गवाह। बस, इतने ही में बाल आदि बढ़ानेवाले 6 महीने के लिए कारागार की हवा खाएँगे। पर यह सब तभी हो सकता है जब हमें कुछ भी धर्म-कर्म का ध्यान हो, हम उसे कोई चीज समझते हों।

यहाँ पर, सब विचारों, शास्त्रो तथा बुद्धि को ताक पर रख कर बात करनेवाले बहुत से बुद्धि के शत्रु प्रच्छन्न नास्तिकों का एक यह सिद्धांत है कि 'अविद्यो वा सविद्यो वा ब्राह्मणो मामकी तनु:' 'चाहे विद्वान हों या मूर्ख, ब्राह्मण मात्र ही भगवान के देह हैं।' यह सिद्धांत बड़ा ही व्यापक और घातक है। जहाँ ही जाइए, इसका अटल राज्य है। कहीं पर भी ब्राह्मणों के सदाचार और पढ़ने-पढ़ाने की बात चलाइए, बस, चट यही उत्तर पा जावेंगे। यदि यह श्‍लोक नहीं तो तुलसीकृत रामायण की यह चौपाई ही सुनाई जावेगी कि 'शापत ताड़त परुष कहंता। विप्र पूज्य अस गावहिं संता॥' हमें इस श्‍लोक की प्रामाणिकता या अप्रामाणिकता पर विचार नहीं करना है। क्योंकि, ऐसे कहनेवालों में जिन्हें कुछ जानकारी है, वह मनुस्मृति का यह वाक्य अपनी पुष्टि के लिए उद्धृत करते हैं कि :

अविद्वांश्‍चैव विद्वांश्‍च ब्राह्मणो दैवतं महत्।
    प्रणीतश्‍चाप्रणीतश्‍च यथाग्निर्दैवतं महत्॥137॥

'जिस तरह यज्ञ-होम-के लिए हवन कुंड में लाई या बिना लाई अग्नि महादेवता है, उसी प्रकार विद्वान या अविद्वान ब्राह्मण भी महान देवता हैं।

श्मशानेष्वपि तेजस्वी पावको नैव दुष्यति।
    हूयमानश्‍च यज्ञेषु भूय एवाभिवर्धते॥318॥

एवं यद्यप्यनिष्टेषु वर्तन्ते सर्वकर्मसु।
    सर्वथा ब्राह्मणा: पूज्या: परमं दैवतं हि तत्॥319

'जिस तरह श्मशान में जाने पर भी तेजस्वी अग्नि में दोष नहीं लगता, प्रत्युत यज्ञ हवन में उसका तेज और भी बढ़ता ही है। इसी तरह यद्यपि ब्राह्मण लोग सभी प्रकार के अनुचित कामों को करें तो भी सभी प्रकार से पूजनीय हैं, क्योंकि वे परम देवता हैं (अ. 9/317-319)। पर विचारने की बात यह है कि जैसा हम पूर्व कह चुके हैं, जिनके हाथ में संपूर्ण हिंदू समाज की नकेल हो, जो सभी के पथप्रदर्शक और नेता हों, जिन्हें जगद्‍गुरु होने का गर्व हो, उन्हें इतनी स्वतन्त्रता दे दी गई कि चाहे जो भी कुकर्म करें, फिर भी वैसे ही प्रतिष्ठित रहेंगे, वैसे ही पूज्य होंगे। जिन मनु आदि ने ब्राह्मणों के लिए कड़े से कड़े नियम बनाए वही क्या उन्हें ऐसी स्वतन्त्रता देंगे, जिससे उनके सभी नियमों पर पानी फिर जावे? स्वतन्त्रता भी ऐसी जिसको कि मूर्ख भी मानने को तैयार नहीं! क्या कोई विज्ञ पुरुष नीच से नीच और मूर्ख से भी मूर्ख दुराचारी ब्राह्मण की वैसी ही प्रतिष्ठा करेगा जैसी कि सदाचारी और विद्वान की? क्या यह कथमपि संभव है? क्या इसे ही 'अंधेर नगरी चौपट राजा। टके सेर भाजी टके सेर खाजा' नहीं कहते? यदि ऐसा ही नियम रहेगा तो क्या कभी कोई ब्राह्मण, विद्वान तथा सदाचारी बनने का कष्ट उठावेगा? किसकी जान मुफ्त की है कि 25 वर्ष तक ब्रह्मचर्य के कठिन नियमों का पालन करता हुआ विद्या पढ़े और बाद को नित्य दोनों या तीनों समय स्नान, संध्यादि का महान कष्ट उठावे, फिर भी मान-प्रतिष्ठा उतनी ही जितनी कि लंठाचार्य पेटपालदत्त मौजी जी की? बस इसीलिए बहुतों ने इन श्‍लोकों को प्रक्षिप्त या आधुनिक माना है। क्योंकि मनु के ही पूर्वोत्तर ग्रन्थों से इनका विरोध है। परंतु हम उतनी दूर जाने को तैयार नहीं। इसकी कोई आवश्यकता नहीं कि पूर्वापरविरोध हटाने के लिए, या पूर्व-प्रदर्शित दोषों से बचने के लिए ही ये श्‍लोक प्रक्षिप्त मान लिए जाएँ। इसका और ही सुंदर उपाय है। पर, वह उपाय बतलाने से प्रथम हम यह कह देना उचित समझते हैं, कि उन श्‍लोकों के अन्धभक्‍त लोग अब पढ़ना-पढ़ाना तथा संध्या, स्नानादिक करना छोड़ मजे से गुलछर्रे उड़ावें, और यदि वे ऐसा नहीं करते तो हम कहेंगे कि वे लोग ही स्वयं अपने सिद्धांत के पक्के नहीं हैं। केवल संसार को ठगने के ही लिए उन्होंने यह जाल रच रखा है, नहीं तो फिर जैसा अर्थ उन श्‍लोकों का करते हैं उसके ही अनुसार स्वयमेव क्यों नहीं चलते? इससे पता चलता है कि दाल में कुछ काला अवश्य है, और जैसा अर्थ उन श्‍लोकों का उन लोगों ने समझा है वस्तुत: वह नहीं है, किंतु और ही कुछ है।

सबसे पहली बात जो इस सम्बन्ध में विचारणीय है, यह है कि पूर्वोक्‍त श्‍लोक मनुस्मृति के 9वें अध्याय में हैं जो केवल राजधर्मप्रकरण के हैं। इसलिए इन श्‍लोकों का सर्वसाधारण से कोई सम्बन्ध ही नहीं। यह सर्वसाधारण गृहस्थों के मानने की बात नहीं, किंतु केवल राजा के ही करने की है। सो भी जिसका नाम राजा पड़ जावे, या जिसे राजा की पदवी मिल जावे, वही 9वें अध्याय के इन धर्मों को करने का अधिकारी नहीं है, किंतु वह क्षत्रिय हो, अथवा उसका राज्याभिषेक शास्त्रीय रीति के अनुसार हुआ हो। साधारण ब्राह्मण आदि क्योंकर इन बातों को मानेंगे? यद्यपि 9वें अध्याय के प्रारंभ में सभी लोगों के धर्मों का वर्णन है, तथापि 221वें श्‍लोक से राजा के ही दंड आदि कर्तव्यों का वर्णन चला है और 325वें श्‍लोक में उसका उपसंहार किया है, जैसा कि :

एषोऽखिल:कर्मविधिरुक्तोराज्ञ:सनातन:।

राजाओं के सनातन कर्तव्य की विधि यहाँ तक बताई गई है। इस बीच में केवल राजा और नृप शब्द ही आए हैं, और इन दोनों शब्दों के सम्बन्ध में कुल्लूकभट्ट ने 7वें अध्याय के प्रारंभ में ही लिखा है कि 'राजशब्दो नात्र क्षत्रियजातिवचन: किन्त्वभिषिक्‍तजनपदपुरपालयितृपुरुषवचन:। अतएवाह यथावृत्ता भवेन्नृप इति।' - यहाँ राजा शब्द का अर्थ क्षत्रियमात्र नहीं है, किंतु जिसका अभिषेक देश नगर आदि के पालनार्थ हुआ हो, उसे ही राजा कहते हैं। इसीलिए उसे नृप कहा है। राजा भी वस्तुत: ऐसा नहीं कर सकता और उसे करना भी नहीं चाहिए! यह खाली ब्राह्मणों की प्रशंसा है। जिसकी बारात उसकी गीत यह साधारण रीति है। प्रसंगवश उन ब्राह्मणों की और उन्हीं के द्वारा ब्राह्मण समाज की प्रशंसा की गई है, जिन्होंने अपनी विद्या और तप के बल से बड़े-बड़े चमत्कार के कार्य किए थे, जैसा कि उन्हीं श्‍लोकों से ठीक पूर्व लिखा है कि :

परामप्यापदं प्राप्तो ब्राह्मणान्न प्रकोपयेत्।
    ते ह्येनं कुपिता हन्यु: सद्य: सबलवाहनम्॥313॥

यै: कृत: सर्वभक्ष्योऽग्नि रपेयश्‍च महोदधि:।
    क्षयी चाप्यायित: सोम: को न नश्येत प्रकोप्य तान्॥314॥

लोकानन्यान्सृजेयुर्येलोकपालांश्‍च कोपिता:।
    देवान्कुर्यु रदेवांश्‍च क: क्षिण्वंस्तान्समृध्नुयात्॥315॥

यानुपाश्रित्य तिष्ठन्ति लोका देवाश्‍च सर्वदा।
    ब्रह्म चैव धनं येषां को हिंस्यात्तान जिजीविषु:॥316॥

राजा अत्यन्त आपत्ति के समय भी ब्राह्मणों को कुपित न करे। क्योंकि क्रुद्ध होने पर चटपट वे राजा का दलबल के साथ नाश कर देंगे। जिन्होंने शाप देकर अग्नि को सभी भक्ष्याभक्ष्य का भक्षक बना दिया, समुद्र को खारा कर दिया, और चंद्रमा को क्षयरोगयुक्‍त बना दिया, उसके पश्‍चात आशीर्वाद देकर बढ़नेवाला भी कर दिया, उन्हें कुपित कर कौन नष्ट न हो जावेगा? जो क्रुद्ध हो कर दूसरे-दूसरे लोकों एवं लोकपालों की सृष्टि कर सकते और देवताओं को देवपद से हटा सकते हैं, उन्हें पीड़ा देकर कौन समृद्धियुक्‍त हो सकता है? जिनके आधार पर संपूर्ण लोक और देवता हैं, और वेद ही जिनका धन है, प्राण की लालसावाला कौन पुरुष उन्हें मारेगा? (अ. 9/313-316)। इससे प्रकट है कि केवल दुराचार से ही जीवन बितानेवालों तथा गायत्री तक के न जाननेवालों एकमात्र परान्न भोजी एवं ब्राह्मण शब्द को कलंकित करनेवालों का यहाँ प्रसंग ही नहीं है। उनमें पूर्वोक्‍त सामर्थ्य कहाँ है? यहाँ तो केवल सौभरि, पराशर तथा नारदादि ब्रह्मर्षियों से ही तात्पर्य है, जिनसे कोई बुरा कर्म भी यदि हो जावे तो भी अपने अखण्ड सामर्थ्य के कारण वे माननीय ही हैं और उन्हीं के नाम पर सामान्यत: ब्राह्मण समाज की प्रशंसा मनु ने की है। सो भी यदि उन्हें ऐसी आशा होती कि कभी उन ब्रह्मर्षियों के वंशज ऐसे पतित हो जाएँगे जैसे आजकल हो रहे हैं तो कदापि यह प्रशंसा न करते। परंतु स्वप्न में भी उन्हें ऐसी आशा न थी, जैसा कि प्रथम प्रकरण में दिखला चुके हैं। जिन्होंने गर्वपूर्वक यह कह दिया था कि यहाँ के ब्राह्मण ही सब संसार के गुरु होंगे, उन्हीं के मुख से यह प्रशंसा भी निकली है। अत: यदि आजकल के पेटू पंडित लोग उस जगद्‍गुरु के बनने की योग्यतावाले नहीं हैं, और अतएव मनु की उस बात को मिथ्या सिद्ध कर रहे हैं, तो फिर उन्हें 9वें अध्याय वाली प्रशंसा या पूजा का अधिकार कैसे हो सकता है? अस्तु, राजा के लिए भी यदि कोरी प्रशंसा ही होती और यदि वास्तव में मूर्खों तथा दुराचारियों का सत्कार करना ही उसका धर्म होता तो उससे कुछ ही प्रथम यह क्यों कहा जाता है कि :

आगस्सु ब्राह्मणस्यैव कार्योमध्यमसाहस:।
    विवास्यो वा भवेद्राष्ट्रात्सद्रव्य: सपरिच्छद:॥

'अपराध करने पर ब्राह्मण के ऊपर पाँच सौ दंड लगावे, अथवा बोरिए बँधाने के साथ उसे अपने राज्य से ही बाहर कर दे' (अ. 9/241)? 8वें अध्याय के 378-383 आदि श्‍लोकों में भी परस्त्रीगमन आदि दुराचार करने पर फाँसी के सिवाय सभी प्रकार के दंड ब्राह्मणों को राजा दे यह आज्ञा क्यों दी जाती?

इसके अतिरिक्‍त यदि उन्हीं श्‍लोकों के अर्थ पर पूरा विचार किया जावे तो विदित हो जावेगा कि लोग उनका अर्थ समझने में गलती करते हैं। प्रथम श्‍लोक (317वें) में मनु ने अविद्वान ब्राह्मण को भी अच्छा कहा है और उसमें दृष्टांत दिया है प्रणीत तथा अप्रणीत अग्नि का। प्रणीत अप्रणीत का अर्थ यह है कि जो अग्नि अग्निहोत्र आदि कर्मों के लिए संस्कार कर के गार्ह्यपत्यकुंड में स्थापित रहती है और कहीं इधर-उधर लाई नहीं जाती वह अप्रणीत कहलाती है। पर, उसी में से जो आवहनीय कुंड में हवन के लिए अथवा अन्यत्र भी ऐसे ही कार्यों के लिए ली जाती है, वह प्रणीत कहलाती है। इससे स्पष्ट है कि इन दोनों प्रकार की अग्नियों में बहुत ही कम अन्तर है। यद्यपि एक में होम होता है, और दूसरी में नहीं, तथापि दोनों का शास्त्रीय रीति से संस्कार हुआ है - अप्रणीत का ही एक अंश प्रणीत है। केवल दूसरे स्थान पर जाने मात्र से ही नाम बदला है। परंतु विद्वान तथा अविद्वान में आकाश-पाताल का अन्तर है। विद्वान शब्द देखने से छोटा प्रतीत होता है, पर इसका अर्थ बहुत बड़ा है। मुंडकोपनिषद में वर्णित ऋग्वेदादि वेदशास्त्र-समूह रूप अपरा विद्या एवं ब्रह्मज्ञान (ब्रह्मसाक्षात्कार) रूप परा विद्या ये दोनों जिसमें पाई जाएँ वही विद्वान कहाता है और जिसमें यह बात न हो वह अविद्वान है। एकाध शास्त्र या थोड़ा-बहुत पढ़नेवाले को भी विद्वान नहीं कह सकते, उसकी गणना अविद्वान में ही है। लेकिन, यदि वही सदाचारी तथा गायत्री प्रभृति नित्यनैमित्तिकादि कर्मों का करनेवाला हो तो अविद्वान होने पर भी विद्वान की तरह मान्य हो सकता है। जैसा कि मनु जी ने ही कहा है कि -'सावित्रीमात्रसारोऽपि' इत्यादि। यह बात पूर्वार्द्ध में कही गई है। बस, ऐसे ही विद्वान; अविद्वान से यहाँ तात्पर्य है, कारण, ऐसों ही में परस्पर कम अन्तर हो सकता है। और इसीलिए प्रणीत, अप्रणीत अग्नि का दृष्टांत भी यथार्थरूप से लग सकता है। न कि महामूर्ख, दुराचारी केवल पुआपांडे अविद्वान शब्द से समझे जा सकते हैं। ऐसों का यहाँ प्रसंग कहाँ? तुलसीदास की उक्‍त चौपाई का भी यही आशय है। इसीलिए अयोध्याकांड में कहा है कि, 'सोचिय विप्र जो वेदविहीना। तजि निज धरमु विषय वलयलीना॥' और उत्तरकांड में भी कहा है कि 'विप्र निरच्छर लोलुप कामी। दुराचार शठ बृषली गामी॥' यदि उनका अभिप्राय ऐसा न होता तो फिर यह शिकायत क्यों करते?

अब रही शेष दो 318, 319 श्‍लोकों की बात। वहाँ भी यही बात है। प्रथम श्‍लोक (318वें) में कहा गया है कि तेजस्वी अग्नि श्मशान में जाने पर दूषित नहीं होती, वरन, यज्ञों में होम के समय और भी दीप्त होती है। फिर आगे कहते हैं कि इसी तरह यदि सभी प्रकार के अनिष्ट कर्मों में फँसे रहें तो भी ब्राह्मणों की पूजा करनी चाहिए। इससे प्रकट है कि दुराचारी ब्राह्मण की उपमा श्मशान की अग्नि से दी गई है और सदाचारी की यज्ञ की अग्नि से। पर स्मरण रखने की बात तो यह है कि क्या श्मशान की आग से वह काम लिया जाता है जो यज्ञकुंड की आग से लेते हैं? जो आहुति यज्ञ की आग में दी जाती है या जो पूजा उसकी की जाती है क्या वही बात श्मशानवाली आग में भी होती है? पूजा और आहुति की बात तो दूर रही, कोई रसोई बनाने के काम में भी उसे नहीं लाता, यहाँ तक कि छूता भी नहीं। फिर कैसे कहें कि उसी के समान या स्थानापन्न दुराचारी ब्राह्मण को कोई पूजेगा, उसे खिलावेगा या छूवेगा भी? और यदि ऐसा न होगा तो फिर क्योंकर कहेंगे कि मनुस्मृति में ऐसा ही लिखा है? मनुस्मृति के अन्धभक्‍तों को हम कहेंगे कि यदि उन श्‍लोकों का वही अर्थ मानते हैं जैसा कि पूर्व प्रदर्शित है तो पहले श्मशान की आग लाकर उसी से रसोई बनवावें और उसी में होम करें, करवावें, तब यह दावा कर सकते हैं कि दुराचारी तथा सदाचारी दोनों ब्राह्मणों का सत्कार-समान ही करना चाहिए। और यदि वे ऐसा नहीं करते तो यही समझा जावेगा कि उन्होंने या तो मनुस्मृति के उन वाक्यों का अर्थ ही नहीं समझा है, या समझ कर भी वे संसार को ठगते हैं। इससे सिद्ध है कि उन वाक्यों का अभिप्राय और ही कुछ है और वह यह है कि जिस तरह किसी घर के एक, दो, चार आदमियों के अपने ही मनवाले होने के कारण उस घर को लोग अलग छाँट देते और उससे नाता तोड़ लेते हैं, जिस प्रकार किसी जाति के अधिकांश लोगों के डाकू-लुटेरे या दुष्ट होने के कारण वह जाति ही बदनाम हो जाती है और उसके अच्छे से अच्छे मनुष्यों पर भी लोग न तो विश्‍वास करते हैं और न उन्हें प्रतिष्ठा ही देते हैं, जैसे किसी जाति के बहुसंख्य लोगों के लड़ाकू न होने के कारण वह जाति लड़ाकी नहीं समझी जाती और इसी से उसके वीर से वीर एवं निर्भीक से निर्भीक मनुष्य भी सेना में भरती नहीं किए जाते, अथवा जिस तरह शूद्रों में अधिक लोगों के वेदों के पढ़ने तथा समझने के अयोग्य होने के कारण वह जाति ही वेदों की अनधिकारिणी समझ ली गई, जिससे कि योग्य से योग्य भी शूद्र वेदों के पढ़ने वंचित हो गए, क्योंकि अधिक संख्या के ही अनुसार कोई नियम बनाया जाता है - (Majority is granted)। इसीलिए जैमिनि ने मीमांसादर्शन में यही कहा है कि 'विप्रतिषिद्धधर्माणां समवाये भूयसां स्यात्सधर्मत्वम्' (मी. 12।2।23)। इसका अभिप्राय पूर्वोक्‍त ही है। इसी तरह ब्राह्मणों में भी अधिकांश लोगों के दुराचारी तथा मूर्ख होने पर कभी ऐसा न हो जावे कि हिंदू समाज ब्राह्मणजातिमात्र को ही अपूज्य तथा अमान्य समझ ले, जैसा कि हाल तक पंचद्राविड़ लोग पंच गौड़ों को शूद्र तथा वेद और संन्यास के अनधिकारी समझते थे, और अभी तक प्राय: समझते ही हैं! मालाबार में जाने पर पूर्व देश के ब्राह्मणों को रांगड़े तथा काशीशूद्र वहाँ के ब्राह्मण कहा करते हैं और वेद नहीं पढ़ाते! वह केवल इसीलिए कि अधिकांश पंचगौड़ों ने इधर बहुत दिनों से वेदों का पढ़ना-पढ़ाना एक प्रकार से छोड़ ही दिया था और अभी तक प्राय: वही दशा है। बस, यही बात विचार कर मनु ने कहा है कि नहीं ऐसा नहीं हो सकता। यदि ब्राह्मण समाज में बहुसंख्य लोग निरक्षर तथा दुराचारी हो जाएँ तो भी वह जाति दूषित नहीं हो सकती, किंतु उस समाज में जो ही दो-चार विद्वान सदाचारी हों उनका तो सत्कार करना ही चाहिए, जौ के साथ घुन की तरह अन्यान्य पतितों तथा मूर्खों के साथ उन्हें भी पीस डालना उचित नहीं है। बस, यही मनुस्मृति के उन वाक्यों तथा अन्यान्य ग्रन्थों के ऐसे वाक्यों का वास्तविक तात्पर्य और रहस्य है। अतएव इन वाक्यों में भी 'जो ही कुकर्मी और मूर्ख हो उसी ब्राह्मण व्यक्‍ति की पूजा करनी चाहिए' ऐसा न कह साधारण रीति से ब्राह्मण जाति को ही पूजित होने योग्य ठहराया है - 'ब्राह्मणो दैवतं महत्' 'सर्वथा ब्राह्मणा: पूज्या:' इत्यादि। इसीलिए आगे चल कर 10वें अध्याय में कहा है कि :

ब्राह्मणा ब्रह्मयोनिस्था ये स्वकर्मण्यवस्थिता:।
ते सम्यगुपजीवेयु: षट्कर्माणि यथाक्रमम्॥74॥

'जिन ब्राह्मणों की उत्पत्ति ब्राह्मणी-ब्राह्मण से हुई हो तथा जो ब्रह्मध्यानिष्ठ और अपने धर्मों के पालन करनेवाले हों वे ही पढ़ना-पढ़ाना और दान-प्रतिग्रह आदि छहों कर्मों को विधिवत करें' (मनु., 10/74)। इसीलिए देने-दिलाने के सम्बन्ध में भी 11वें अध्याय के प्रारंभ में राजा और सामान्यत: सभी गृहस्थों के लिए ही आज्ञा दी गई है कि :

सर्वरत्‍नानि राजा तु यथार्हं प्रतिपादयेत्।
    ब्राह्मणान्वेदविदुषो यज्ञार्थं चैव दक्षिणाम्॥

धनानि तु यथाशक्‍ति विप्रेषु प्रतिपादयेत्।
    वेदवित्सु विविक्‍तेषु प्रेत्य स्वर्गं समश्‍नुते॥

'राजा सभी रत्‍नादि तथा यज्ञ की दक्षिणा वेद के ज्ञाता ब्राह्मणों को योग्यता के अनुसार दिलावे। तथा अन्य गृहस्थ भी अपनी सामर्थ्य के अनुसार वेद के जानकार तथा एकांतसेवी ब्राह्मणों को धन देवें। इससे उन्हें स्वर्ग की प्राप्ति होती है' (मनु , 11/4, 6)।

यदि योग्य ब्राह्मण यज्ञ में भोजनार्थ न मिलें या योग्य होने पर भी किसी कारणवश क्रुद्ध हो कर न आवें तो इसमें चिंता ही क्या? इस प्रकार यज्ञ बिगड़ने का भय मानना लोगों की सरासर भूल है। मनु और याज्ञवल्क्य आदि की आज्ञा है कि श्राद्ध और यज्ञ आदि में खिलाने योग्य ब्राह्मण न मिलें तो :

मातामहं मातुलं च स्वस्त्रीयं श्‍वशुरं गुरुम्।
    दौहित्रां विट्पतिं बंधुमृत्विग्याज्यौ च भोजयेत्॥48॥

'अपने नाना, मामा, भानजे, ससुर, गुरु, लड़की के लड़के, दामाद, भाई-बिरादर, यज्ञ करानेवाले और यज्ञ करनेवाले को ही खिलावे' (मनु., 3/148)। आपस्तंब ने तो एक जगह श्राद्ध प्रकरण में लिखा है कि 'सोदर्योपि' - सहोदर या सगे को भी खिलाने से काम हो जाता है। फिर यदि अपने भाई-बंधु ब्राह्मण ही हों तो बात ही क्या? तब तो सोने में सुगंध आ जाती है। क्योंकि वे भाई भी हैं और ब्राह्मण भी। उनके मुकाबले में दूसरों को खिलाना कभी उचित नहीं। बल्कि हर समय जब कभी देने-दिलाने या खाने-खिलाने का अवसर आवे तभी अपने दु:खी भाई-बंधुओं को खिलाना या धन देकर उनका दु:ख दूर करना चाहिए। घर की जमींदारी और धन, ब्राह्मण के नाम पर मूर्खों को लुटाना और अपने लड़के-बच्चों को कंगाल बना देना महत पाप है, जैसा कि बहुत से लोग नामवरी लूटने के लिए किया करते हैं। मनु कहते हैं :

शक्‍त: परजने दाता स्वजने दु:खजीविनि।
    मधवापातो विषास्वाद: स धर्मप्रतिरूपक:॥9॥

भृत्यानामुपरोधेन य: करोत्यौर्ध्वदेहिकम्।
    तद्‍भवत्यसुखोदर्कं जीवतश्‍च मृतस्य च॥10॥

'अपने भाई-बंधुओं के दु:ख से जीवन बिताते रहने पर भी जो दूसरों को धर्म के लिए कुछ भी देता है वह उसके देखने में तो मधु के समान सुखद धर्म प्रतीत होता है। पर, अन्त में विष के समान नरक के दु:ख का देनेवाला अधर्म ही है। जो अपने बाल-बच्चों की जीविका मारकर (जमीन आदि बेचकर या ऋण लेकर) पारलौकिक दान आदि करता है वह दान उसके जीते-जी तथा मरने पर भी केवल दु:ख देनेवाला ही होता है।' (मनु., 11/9, 10)।

ब्राह्मणों में और उन्हीं के द्वारा हिंदू समाज में एक बात आजकल अत्यन्त प्रचलित है, जिसने हिंदू समाज को अकर्मण्य-आलसी बना रखा है, तथा जिसका उपदेश गुरु, पुरोहित और वर्तमान साधु-संत अपने यजमानों एवं चेलों को रात-दिन किया करते हैं। जब कोई विपत्ति आती, या अतिवृष्टि, अनावृष्टि का कोप होता, अकाल या महामारी आती, अन्न आदि की उपज नहीं होती और धर्म-कर्म से लोग विमुख होते हैं, तो उन लोगों को उन दु:खों से बचने का उपाय सुझाने तथा धर्म-कर्म के लिए उत्साहित करने और यत्‍नवान एवं पुरुषार्थी होने का उपदेश न दे कर केवल यही कहा जाता है कि क्या कीजिएगा, यह तो कलियुग का धर्म ही है! कलि में बार-बार ऐसा होता ही रहता है। इसी के साथ हो सका तो पुराणों के दो-चार कलिमाहात्म्य के आख्यान भी सुनाकर मूर्ख हिंदू समाज के दिल में बचपन से ही यह बात भरते-भरते पक्की कर दी जाती है। जहाँ देखिए इसका अखण्ड राज्य है। फल यह होता है कि सभी लोग आलसी और दैववादी बन जाते हैं। जहाँ देखिए और जब देखिए भाग्य ही भाग्य चिल्लाया करते हैं। यह कितने अनर्थ की बात है! नहीं कह सकते कि यही समय क्यों भारत के सिवाय अन्य देशों के लिए अर्थ दृष्टि से सत्ययुग हो रहा है! जिससे वे धन, जन, मन, राज्य और प्रतिष्ठा में उत्तरोत्तर वृद्धि कर तथा स्वर्गसुख भोग रहे हैं। पर, भारत के लिए यही कलियुग हो रहा है! क्या कभी यह संभव है कि एक ही समय एक जगह कलियुग हो तो दूसरी जगह सत्ययुग, त्रेता, या द्वापर हो? समय तो सब जगह एक ही है। फिर वह चाहे कलि हो या सत्ययुग। इस सम्बन्ध में भगवान मनु का सिद्धांत निराला और परम आदरणीय है। उन्होंने कर्म के प्रसंग से सत्ययुग तथा कलियुग की निराली ही व्याख्या की है। उनका यह आदेश है कि चाहे कलियुग मानो या सत्ययुग, पर, कर्म, उपाय, यत्‍न करने से मत चूको। एक-दो बार या बार-बार निष्फल होने पर भी कर्म करना न छोड़ो - Try try again. क्योंकि कर्म करनेवाले को फलसंपत्ति अवश्य प्राप्त होती है। निराश होने की कोई बात नहीं - You will couquer never fear. जैसा कि 9वें अध्याय से स्पष्ट है :

आरभेतैव कर्माणि श्रान्त: श्रान्त: पुन: पुन:।
    कर्माण्यारभमाणं हि पुरुषं श्रीर्निषेवते॥300॥

फिर जब कलियुग वाला पूर्वोक्‍त सिद्धांत उनके सम्मुख आया है तो ऊपरवाले श्‍लोक के बाद के दो श्‍लोकों में उन्होंने कलियुग आदि की निराली ही व्याख्या की है, जो कर्मयोग के अनुकूल ही है और उसके अनुसार पूर्वोक्‍त कर्मयोगवाला सिद्धांत और भी दृढ़ हो जाता है। मनु जी कहते हैं कि :

कृतं त्रेतायुगं चैव द्वापरं कलिरेव च।
    राज्ञो वृत्तानि सर्वाणि राजाहि युगमुच्यते॥301॥

कलि: प्रसुप्तो भवति स जाग्रद्द्वापरं युगम्।
    कर्मस्वभ्युद्यतस्त्रेता विचरंस्तु कृतं युगम्॥302॥

'सत्ययुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग ये चारों राजा ही के आचरण हैं, क्योंकि राजा ही को युग कहते हैं। राजा जिस समय अकर्मण्य होकर विषय सुख में लीन तथा अपने कर्तव्य ज्ञान से रहित होता है उस समय कलियुग समझना चाहिए; जिस समय अपने कर्तव्य को सिर्फ समझने लगता है उस समय द्वापर; जब उस समझ के अनुसार काम करने का विचार करता या उसके लिए तत्पर होता है तब त्रेता और जब पूर्ण रीति से अपना कर्तव्य पालन करता रहता है तब सत्ययुग समझना चाहिए' (मनु. 301, 302)। इससे स्पष्ट है कि राजा की अकर्मण्यता और कर्मपरता पर ही युग व्यवहार अवलंबित है। इस हिसाब से तो इस समय कर्मदृष्टया सत्ययुग ही है। आजकल यहाँ अंग्रेजों का राज्य है और वे लोग स्वार्थदृष्टि से ही सही बड़े पुरुषार्थी हैं। उन्हें काम से चैन नहीं है। इसका आशय यही है कि मनुष्य अपने से ही कलियुग और सत्ययुग बना सकता है। जब सभी लोग आलसी और 'दैव-दैव आलसी पुकारा' वाले हो जाएँ तभी घोर कलियुग एवं जब कर्मपरायण, कर्तव्य पालन में तत्पर, पूर्ण कर्मयोगी हो जाएँ, तो सत्ययुग ही समझा जाता है। बस यही युगव्यवस्था कर्म करने के लिए माननीय है। इसके अतिरिक्‍त और कोई नहीं। यद्यपि मनुस्मृति के प्रथमाध्याय में भी सामान्य रूप से युगों का वर्णन आया है। पर, वहाँ केवल समय विभाग से ही तात्पर्य है और उसी विभाग के उपयोगी पदार्थों का वर्णन भी है। और वहाँ जो कुछ पदार्थों की दशा युग के हिसाब से न्यून, अधिक तथा उत्तम मध्यम कही गई है, वह तो इस पूर्वोक्‍त युग में भी घट सकती है और इसी युग के अनुसार उसकी व्यवस्था यथार्थ रूप से लग सकती है।

तीर्थों के पंडों, मंदिरों के पुजारियों तथा गंगापुत्रों की दशा की अत्यन्त हृदय विदारक हो रही है। कहने को तो गंगापुत्र और पण्डे आदि भी ब्राह्मण ही माने जाते हैं। पर, केवल ब्राह्मण शब्द को कलंकित करने के ही लिए यह उनकी सर्वथा अनधिकार चेष्टा है। यह ठीक है कि बिना ब्राह्मण बने हिंदू समाज में धार्मिक दृष्टि से पूजा सत्कार नहीं हो सकता। पर, केवल ब्राह्मण कह देने मात्र से तो काम नहीं चलता। अन्ततोगत्वा कुछ भी ब्राह्मणोचित कर्म होना ही चाहिए। सोलह आना नहीं तो कम से कम एक पैसा तो हो। पर, साधारण रीति से पंडा-पुजारी का अर्थ यही है कि जो निरक्षर भट्टाचार्य हों। प्राय: आश्‍विन के पितृपक्ष में काशी जैसे स्थानों में गंगा के भीतर जा कर तर्पण करनेवाले अधिकांश हिंदुओं की ओर से पण्डे या गंगापुत्र ही मन्त्र बोला करते हैं। पर कैसे मन्त्र बोले जाते हैं, इस बात के साक्षी गंगा और ईश्‍वर ही हैं। वैदिक मंत्रों की तो बात ही निराली है, पुराणों के श्‍लोकों तक की जो दुर्दशा और अंगभंग किया जाता है उसे श्‍लोकों की जान ही जानती होगी। वेद के मन्त्र तो प्राय: लोग न जानते और न बोलते ही हैं। अत: उस समय इस दुर्दशा से बचने में उन मंत्रों को भाग्यवान ही समझना चाहिए। पर, साधारण श्‍लोकों का जिस बुरी तरह उच्चारण किया जाता है वह सहृदय मनुष्य के लिए असह्य है। 'नानी स्वधा' 'परनानी स्वधा' इत्यादि उन लोगों के मन्त्र बोलने का प्रकार है! कहिए, भला इस अध:पात का कहीं ठिकाना है! यदि इन्हीं मंत्रों से पितरों की तृप्ति होती है और उन्हें पिंड-पानी मिल सकता है तो फिर बाइबिल और कुरान की आयतों से ही तर्पण कराने में क्यों न पहुँचेगा? गया में लोग जब पितरों के लिए स्वर्ग की सीढ़ी बनवाने जाते हैं, तो वहाँ के पण्डे भी स्वयं पिंड-पानी दिलाने नहीं जाते! किंतु उनके नौकर-चाकर ही जाते हैं जो अधिकांश जाति के अहीर, कहार या कुर्मी आदि होते हैं। बस अब इतने ही से समझ सकते हैं कि वहाँ कैसा श्राद्ध तर्पण होता है। पर, स्मरण रहे कि यद्यपि उस समय पंडा जी को अपने टन-टन और ठन-ठन से फुर्सत नहीं रहती और यदि फुर्सत भी रहे तो वे लोग ही कौन से वेदपाठी होते हैं कि श्राद्ध आदि विधिवत करवा डालेंगे? यदि एक ने दुर्दशा न की तो दूसरे ने ही कर डाली! फिर भी यजमान का 'सुफल' कराने जरूर आवेंगे! क्योंकि उस समय कसाई की तरह यात्री लोगों-भोली भाली हिंदू जनता-के पैसे निर्दयतापूर्वक निचोड़ने होते हैं और जब तक यजमान को कौपीनमात्रशेष न कर लें - बल्कि घर जा कर कुछ और भी मनीऑर्डर द्वारा अपने पास भेजने की प्रतिज्ञा न करवा लें - तब तक यात्री की पीठ ही नहीं ठोंकते! और जब तक उनकी पीठ न ठोंकी जावे तब तक उनका सब किया-कराया व्यर्थ ही रहता है!! पितरों के पास श्राद्ध का फल भेजने का बीमा तो पंडों का हाथ ही है! इसी से ठोंकने पर ही बीमा पक्का होता है!! भला इस अनर्थ का कुछ ठिकाना है! तीर्थयात्री भलेमानुसों और श्राद्ध-तर्पण करनेवालों की समझ की बलिहारी है! इस तर्पण-श्राद्ध के ब्याज से पाप करने की अपेक्षा तो श्राद्ध आदि न करना ही अच्छा है। लेकिन यदि सचमुच श्राद्ध-तर्पण करना हो तो गया हो या अन्यत्र, अपने घर से विद्वान पंडित ले जाना चाहिए, या वहाँ पर ही ढूँढ़ कर कराना चाहिए। व्यर्थ की कवायद-परेड से कोई लाभ नहीं है। हाँ यदि श्राद्ध का ही श्राद्ध करना हो तब तो कहने की कोई बात ही नहीं। उचित तो यही है कि श्राद्धादि करनेवाले उसकी विधि और मन्त्रादि स्वयमेव सीख लें, तभी श्राद्धादि करें। और यदि पुजारी रख कर ही भगवान की पूजा करानी हो तो ऐसी ठाकुरवाड़ियों की आवश्यकता नहीं। नौकर से अपनी सेवा करानी होती है। भगवान के लिए नौकर की आवश्यकता नहीं। भगवान की सेवा यदि अपने ही हाथों से कर सकें तो ठीक, नहीं तो केवल ढोंग ही है। क्या भगवान को नौकरों की कमी है कि नौकरों द्वारा कराई गई किसी की पूजा वे स्वीकार करें? 'भक्त्या तुष्यति केवलो न च गुणै: भक्‍तिप्रियो माधव:।' नौकर पुजारी को भक्‍ति कहाँ? उसे तो अपने भोजन और वेतन की ही चिंता रहती है। इसीलिए ठाकुर जी की पूजा के लिए जो घी मिलता है उसका कुछ अंश दीयाबत्ती में खर्च कर शेष अपने ही पेट में डाल देने या बेचनेवाले पुजारी प्राय: मिलते हैं! क्या ही सुंदर पूजा है! तीर्थयात्री में और तीर्थ के पंडों को देने में बहुत सा पैसा व्यय होता है। पर, हमें किसी भी धर्मग्रन्थ में आजकल की यह तीर्थयात्रा नहीं मिली और न ऐसा तीर्थदान ही दीख पड़ा! खासी मौज के साथ खूब ठाट-बाट से रेल पर चढ़ कर घूम आने को न तो तीर्थयात्रा कहते और न वहाँ जा कर मूर्खों तथा पेटपरायणों के पॉकेट भरने को तीर्थदान कहते हैं। हाँ, इस काम को विहार, मौज एवं अंधाधुंध कह सकते हैं। तीर्थध्वांक्षों को खिलाने और देने से लाभ के स्थान पर हानि ही हानि है। सुपात्र को देना चाहिए और भक्‍ति हो तो नंगे पाँव व्रत-नियमपूर्वक तीर्थयात्रा करनी चाहिए।