सर्वेषां तु स नामानि कर्माणि च पृथक्पृथक् ।
वेदशब्देभ्य एवादौ पृथक्संस्थाश्च निर्ममे । । १.२१ । ।
परमात्मा ने सब चीजो के नाम और कर्म पृथक पृथक जैसे सृष्टि के पहले था वेद द्वारा संसार में प्रकट किया ।
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः [[गीता ४/१३]]
सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिंयान्ति मामिकाम् ।
कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादों वी सृजाम्यहम्९- ७॥
प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुनः पुनः ।
भूतग्राममिमं कृत्स्नम-वशं प्रकृतेर्वशात् ॥९- ८॥[[गीता]]
ब्राह्मण ' क्षत्रिय वैश्य और शुद्र इन चारो वर्णों का समूह गुण और कर्म के बिभाग पूर्वक मेरे द्वारा रचा गया है ।
! कल्पों के अन्त में सब भूत मेरी प्रकृति को प्राप्त होते हैं अर्थात् प्रकृति में लीन होते हैं और कल्पों के आदि में उनको मैं फिर रचता हूँ॥7॥
अपनी प्रकृति को अंगीकार करके स्वभाव के बल से परतंत्र हुए इस संपूर्ण भूतसमुदाय को बार-बार उनके कर्मों के अनुसार रचता हूँ॥8॥
यं तु कर्मणि यस्मिन्स न्ययुङ्क्त प्रथमं प्रभुः ।
स तदेव स्वयं भेजे सृज्यमानः पुनः पुनः । । १.२८ । ।[[ मनुस्मृति ]]
भावार्थ --: परमात्मा में जिस जिस प्राणी को सृष्टि के आदि में जिस जिस कर्म में लगाया था वह आज तक वैसे ही कर्म करता है । मनुष्य के अतिरिक्त सब भोग योनि कहलाती है ।
ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद्बाहू राजन्यः कृतः । ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत ॥१२॥[ऋग वेद १०/९०/१२
मातुरग्रेऽधिजननं द्वितीयं मौञ्जिबन्धने ।
तृतीयं यज्ञदीक्षायां द्विजस्य श्रुतिचोदनात् । । २.१६९ । ।[[ मनुस्मृति]]
भावार्थ--: वेद में ब्राह्मण के तीन जन्म लिखे है
पहला जन्म माता के गर्भ से दूसरा जन्म यज्ञो पवित से तीसरा जन्म यज्ञ करने से ||
नामधेयं दशम्यां तु द्वादश्यां वास्य कारयेत् ।
पुण्ये तिथौ मुहूर्ते वा नक्षत्रे वा गुणान्विते । । २.३० । ।[[मनुस्मृति]]
जन्म से ग्यारहवे या बारहवे दिन नाम करण करना चाहिए यदि इस दिन न हो सके तो उत्तम तिथि नक्षत्र
तथा दिन में करना चाहिए ||
गर्भाष्टमेऽब्दे कुर्वीत ब्राह्मणस्योपनायनम् ।
गर्भादेकादशे राज्ञो गर्भात्तु द्वादशे विशः । । २.३६ । ।[ मनुस्मृति]
गर्भाधान तिथि अथवा जन्म तिथि से आधवे ग्यारहवे वा बारहवे वर्ष में वर्ण क्रमानुसार ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य का उपनयन संस्कार करना चाहिए
क्षत्रम् ब्रह्ममुखम् च आसीत् वैश्याः क्षत्रम् अनुव्रताः ।
शूद्राः स्व धर्म निरताः त्रीन् वर्णान् उपचारिणः ॥१-६-१९॥ [ रामायण]
वहां के क्षत्रिय गण ब्राह्मणों के आज्ञाकारी वैश्य गण क्षत्रिय के अनुवर्ती (अर्थात कहने पर चलने वाला )और शुद्र गण अपने वर्णा धर्म अनुसार ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य जाती के लोगो के सेवा करने वाले थे ||
स्वकर्मनिर्ताश्चासन् सर्वे वर्णा नाराधिप ।
एवं तदा नरव्याघ्र धर्मो न हृस्ते कचित् ।।[[ महाभारत १/६४/२४]]
ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्यः शुद्राश्चैव स्वकर्मसु ।।[[ महाभारत १/४९/१०]]
भावार्थ --- ब्राह्मण .क्षत्रिय .वैश्य .शुद्र सभी अपने वर्णोंश्रमोचित कर्म में संलग्न और प्रसन्नचित रहते थे ।
यहाँ इस प्रमाण की पुष्टि हो रही है की कलयुग में भी वर्णाश्रम धर्म का पालन शास्त्र अनुकूल ही होता रहा है और महाराज परीक्षित के समय सभी वर्ण अपने अपने वर्णाश्रम धर्म का पालन कर प्रसन्न चित रहते थे ।
ज्ञायमानो ह वै ब्राह्मणस्त्रिभिर्ऋणवाँ जायते ब्रह्मचर्येण ऋषिभ्यो यज्ञेन देवेभ्य: प्रजया पितृभ्य एष वा अनृणो य: पुत्री यज्वा ब्रह्मचारिवासी।
तैत्तिरीय संहिता 6.3.10.5 ।
वेदशब्देभ्य एवादौ पृथक्संस्थाश्च निर्ममे । । १.२१ । ।
परमात्मा ने सब चीजो के नाम और कर्म पृथक पृथक जैसे सृष्टि के पहले था वेद द्वारा संसार में प्रकट किया ।
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः [[गीता ४/१३]]
सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिंयान्ति मामिकाम् ।
कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादों वी सृजाम्यहम्९- ७॥
प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुनः पुनः ।
भूतग्राममिमं कृत्स्नम-वशं प्रकृतेर्वशात् ॥९- ८॥[[गीता]]
ब्राह्मण ' क्षत्रिय वैश्य और शुद्र इन चारो वर्णों का समूह गुण और कर्म के बिभाग पूर्वक मेरे द्वारा रचा गया है ।
! कल्पों के अन्त में सब भूत मेरी प्रकृति को प्राप्त होते हैं अर्थात् प्रकृति में लीन होते हैं और कल्पों के आदि में उनको मैं फिर रचता हूँ॥7॥
अपनी प्रकृति को अंगीकार करके स्वभाव के बल से परतंत्र हुए इस संपूर्ण भूतसमुदाय को बार-बार उनके कर्मों के अनुसार रचता हूँ॥8॥
यं तु कर्मणि यस्मिन्स न्ययुङ्क्त प्रथमं प्रभुः ।
स तदेव स्वयं भेजे सृज्यमानः पुनः पुनः । । १.२८ । ।[[ मनुस्मृति ]]
भावार्थ --: परमात्मा में जिस जिस प्राणी को सृष्टि के आदि में जिस जिस कर्म में लगाया था वह आज तक वैसे ही कर्म करता है । मनुष्य के अतिरिक्त सब भोग योनि कहलाती है ।
ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद्बाहू राजन्यः कृतः । ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत ॥१२॥[ऋग वेद १०/९०/१२
मातुरग्रेऽधिजननं द्वितीयं मौञ्जिबन्धने ।
तृतीयं यज्ञदीक्षायां द्विजस्य श्रुतिचोदनात् । । २.१६९ । ।[[ मनुस्मृति]]
भावार्थ--: वेद में ब्राह्मण के तीन जन्म लिखे है
पहला जन्म माता के गर्भ से दूसरा जन्म यज्ञो पवित से तीसरा जन्म यज्ञ करने से ||
नामधेयं दशम्यां तु द्वादश्यां वास्य कारयेत् ।
पुण्ये तिथौ मुहूर्ते वा नक्षत्रे वा गुणान्विते । । २.३० । ।[[मनुस्मृति]]
जन्म से ग्यारहवे या बारहवे दिन नाम करण करना चाहिए यदि इस दिन न हो सके तो उत्तम तिथि नक्षत्र
तथा दिन में करना चाहिए ||
गर्भाष्टमेऽब्दे कुर्वीत ब्राह्मणस्योपनायनम् ।
गर्भादेकादशे राज्ञो गर्भात्तु द्वादशे विशः । । २.३६ । ।[ मनुस्मृति]
गर्भाधान तिथि अथवा जन्म तिथि से आधवे ग्यारहवे वा बारहवे वर्ष में वर्ण क्रमानुसार ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य का उपनयन संस्कार करना चाहिए
क्षत्रम् ब्रह्ममुखम् च आसीत् वैश्याः क्षत्रम् अनुव्रताः ।
शूद्राः स्व धर्म निरताः त्रीन् वर्णान् उपचारिणः ॥१-६-१९॥ [ रामायण]
वहां के क्षत्रिय गण ब्राह्मणों के आज्ञाकारी वैश्य गण क्षत्रिय के अनुवर्ती (अर्थात कहने पर चलने वाला )और शुद्र गण अपने वर्णा धर्म अनुसार ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य जाती के लोगो के सेवा करने वाले थे ||
स्वकर्मनिर्ताश्चासन् सर्वे वर्णा नाराधिप ।
एवं तदा नरव्याघ्र धर्मो न हृस्ते कचित् ।।[[ महाभारत १/६४/२४]]
ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्यः शुद्राश्चैव स्वकर्मसु ।।[[ महाभारत १/४९/१०]]
भावार्थ --- ब्राह्मण .क्षत्रिय .वैश्य .शुद्र सभी अपने वर्णोंश्रमोचित कर्म में संलग्न और प्रसन्नचित रहते थे ।
यहाँ इस प्रमाण की पुष्टि हो रही है की कलयुग में भी वर्णाश्रम धर्म का पालन शास्त्र अनुकूल ही होता रहा है और महाराज परीक्षित के समय सभी वर्ण अपने अपने वर्णाश्रम धर्म का पालन कर प्रसन्न चित रहते थे ।
ज्ञायमानो ह वै ब्राह्मणस्त्रिभिर्ऋणवाँ जायते ब्रह्मचर्येण ऋषिभ्यो यज्ञेन देवेभ्य: प्रजया पितृभ्य एष वा अनृणो य: पुत्री यज्वा ब्रह्मचारिवासी।
तैत्तिरीय संहिता 6.3.10.5 ।