Monday 22 July 2019

जौहर एवं सतीप्रथा



स्प्ष्ट कर देना चाहता हूं कि जौहर अथवा सतीप्रथा सनातन धर्म की मूल संस्कृतियां नही थी परन्तु समय की गति में कुछ इस तरह का मोड़ आया कि इस प्रथा का जन्म हुआ ताकि सामाजिक पवित्रता तथा गर्भदुषिता से बचा जाए ||
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जौहर अथवा सती प्रथा के बिषय में कुछ तथाकथित बुद्धिजीवियों ने निकृष्ट और भ्रामकता का प्रचार इस कदर किया गया कि जनमानस में इस प्रथा के बिषय में बिपरीत विचारधारा की जड़े जनमानस को  जकड़ ली , जौहर और सती प्रथा का मूल उद्देश्य का ही लोप हो चुका ,
कहना न होगा कि विधवा माँ और बहनों को  दुराचारी कामोद्दीपन से उद्विग्न पुरुष  उन माताओ और बहनों को किस दृष्टिकोण से देखता होगा और समय का लाभ मिलते ही वे अपने कुकृत्य कार्य को भी पूरा करने के लिए हर वह षड्यंत्र अपनाता होगा जो एक दुराचारी पुरुष के लक्षण होते है , इस सत्यता को स्वीकार करने से कोई भी ब्यक्ति पीछे नही हट सकता जब आज समाज की परिस्थिति यह हो सकती है तो बिचार करिए कि उस कालखण्ड में क्या हुआ होगा जब यवन ,और अरब के लुटेरो ने यहाँ के पुरुषों का सर कलम कर उनकी माताओ बेटियों ,बहुओंऔर बहनों को अपने हरम में जबरन ले गया होगा और भेड़ियों के मानिंद उसे नोच नोच कर खाया होगा ।
जौहर और सती प्रथा स्वेच्छा से लिया गया निर्णय था  उन माताओ और बहनों का जिन्होंने यह निर्णय कीया की हम मृत्यु का वरण करेंगे परन्तु अपने गर्भ को दूषित न करेंगे ,

हमे गर्व होना चाहिए कि भारत के उन बीरो ने अपने मातृभूमि और अपने धर्म के राक्षण हेतु मृत्यु का वरण किया जिन्होंने ने मृत्यु का वरण किया होगा उनकी बहू बेटियों को संरक्षण प्रदान करने वाला उस समय मे कौन होगा ?
सायद कोई नही ,यवन और अरब के बर्बर लुटेरो ने अपने साथ स्त्रियों को नही लाया था वह तो यहाँ युद्ध मे बन्दि बनाये हुए  तथा जीते गए उन उन माताओ और बहनों को उठा कर अपने हरम में ले गया होगा उनसे बलात्कार किया होगा उनसे अवांछनीय संताने उतपन्न किया होगा ,ऐसी दशा में भारत के वीरांगनाओं ने जो शस्त्र विहीन युद्ध छेड़ा वह धर्म और बुद्धि बल का ही परिचायक बना उन उन माताओ और बहनों ने जो निर्णय लिया वह आत्ति सलाघ्नीय थी कि उनके गर्भ में मलेच्छो का बीज न पले और अवांछनीय सन्तानो को जन्म न दे ,उनका यह निर्णय अपने कुल और मर्यादा का रक्षण करने  वाला हुआ भारत की नारियां उन पुरुषो से भी आगे निकली जो बर्बर लुटेरो से  युद्ध और भय के कारण इस्लाम स्वीकार किया होगा ।
जौहर और सती प्रथा का यह निर्णय  तीब्रगति से बढ़ती हुई इस्लामिक जनसंख्या पर अंकुश लगाया अन्यथा आज भारत मे हिन्दू अल्पसंख्यक होते मुस्लिम नही ।
भारत के उन वीरांगनाओं ने स्वधर्म का पालन करते हुए स्वेच्छा से मृत्यु का वरण किया बनिस्पत उन मलेच्छो के हरम में जाने से , उन उन माताओ और बहनों को अपने स्वधर्म का बोध था परन्तु आज के तथाकथित बुद्धिजीवियों ने जौहर और सती प्रथा का मूल उद्देश्यों के प्रचार न कर उसे निकृष्ट दिखाने का जो प्रयास किया है वह अतिनिन्दनीय है
यवन,अरब, ईशायत ,ने सनातन धर्म को निकृष्ट दिखाने हेतु हर तरह का षड्यंत्र अपनाया उन षडयंत्रो का शिकार भारत के प्रबुद्ध पढ़े लिखे भी शिकार हुए और उनके सुर ताल में हाँ मे हाँ मिलाकर सनातन धर्म के सनातन संस्कृतियों पर वज्राघात किया भारत के माताओ और बहनों द्वारा शस्त्र विहीन ययुद्ध ने ही यहाँ के हिन्दुओ को बाहुल्य बनाये रखा यदि वे माताएं और बहने उन मलेच्छो का बीज अपने गर्भ में पालती तो भारत का दृश्य आज कुछ और ही होता ।
धन्य है यह भारत भूमि जहाँ समय समय पर माता सीता ,अग्निकन्या द्रोपदी ,झांसी जैसे अनेको दिब्य विभूतियों को जन्म दिया जिन्होंने अपने अपने तरीके से युद्ध लड़ कर दुष्टात्माओं का सर्वनाश किया ।
सत् सत् नमन है उन माताओ और बहनों को जिसने शस्त्रविहीन युद्ध मे भाग लिया और स्वेच्छा से मृत्यु का वरण कर इस्लामिक जनशख़्या पर अंकुश लगाया ।

गुरु पूर्णिमा और वेदव्यास

गुरुपूर्णिमा

आषाढ़ पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा कहते है । इसे व्यासपूर्णिमा  भी कहा जाता है । इसी दिन भगवान व्यास का जन्म हुआ था । इस  श्वेतवाराह कल्प के वैवस्वत मन्वंतर  में २८ द्वापर अब तक बीत चुके हैं | अत एव व्यास भी २८ हो चुके हैं जिनमे ब्रह्मा,  वशिष्ठ,  वाल्मीकि ,शक्ति ,पराशर और अंतिम व्यास भगवान कृष्ण द्वैपायन मुख्य हैं  । इनका नाम  परस्पर सम्बन्ध होने के कारण मैंने लिया है ।

यह गुरुपूर्णिमा भगवान कृष्ण द्वैपायन की  जन्म तिथि है  । इसलिए इस व्यासपूर्णिमा को गुरुपूर्णिमा भी कहा जाता  है .क्योंकि  भगवान व्यास की ही प्रदर्शित पद्धति का उनके परवर्ती कवियों एवं विद्वानों ने अनुसरण किया है । इसीलिये कहते है की जो कुछ विद्वानों ने लिखा है वह व्यास जी का उच्छिष्ट ही है ----

"व्यासोच्छिष्टं  जगत् सर्वम् ।।"

२८व्यासों में यही भगवान नारायण के साक्षात अवतार हैं ---

"कृष्णद्वैपायनं  व्यासं विद्धि नारायणं प्रभुम् ।।" ---विष्णु पुराण ३/४/५.

इनकी सबसे  बड़ी विशेषता यह है कि  इनकी परंपरा में कई व्यास हो चुके है जैसे भगवान ब्रह्मा, वशिष्ठ, शक्ति और इनके पिता स्वयं पराशर । अर्थात आज तक इनकी परंपरा में जो प्रकट हुए वे व्यास ही हुए हैं इसलिए परंपरा से चले आ रहे सभी ज्ञानों की प्राप्ति इन्हें सरलतया हो गयी  और श्रीहरि  के अवतार वाला  वैशिष्ट्य तो इनमें है ही । इनके उपदेष्टा गुरु देवर्षि नारद जी हैं । नारद जी के ४ शिष्य हैं २ बालक और २ वृद्ध,.बालक शिष्यों में ध्रुव तथा प्रह्लाद आते हैं और वृद्ध शिष्यों में भगवान वाल्मीकि और ये व्यास जी !                                                 

व्यासजी के अवतार का कारण

पहले १०० करोड़ श्लोकों का एक ही पुराण था जो लोकस्रष्टा ब्रह्मा जी के मुख से प्रकट हुआ ---

"पुराणां सर्वशास्त्राणां प्रथमं ब्रह्मणा स्मृतम् । नित्यं शब्दमयं पुण्यं शतकोटिप्रविस्तरम् ।।"-मत्स्य पुराण ३/३-४,

यह अति विशाल था जो आज हम लोगों के द्वारा  धारण =पढकर स्मरण नहीं किया जा  सकता था । इसीलिए व्यासजी का अवतरण होता है कि उसे 4लाख श्लोकों में संक्षिप्त करके हम लोगों को सुख पूर्वक  धारण योग्य बना दें । मत्स्यपुराण में इस तथ्य का  इस प्रकार उद्घाटन किया गया है--

"कालेनाग्रहणं  दृष्ट्वा पुराणस्य ततो नृप । व्यास रूपमहं कृत्वा संहरामि युगे युगे ।। चतुर्लक्षप्रमाणेन  द्वापरे द्वापरे सदा ।।

---53/8-9,

इस श्लोक की व्याख्या करते हुए भगवन्नामकौमुदीकार श्रीलक्ष्मीधर जी लिखते हैं –

"पूर्वसिद्धमेव पुराणम् सुखग्रहणाय संकलयामीत्यर्थः ।"

अर्थात् पूर्वकाल से विद्यमान पुराण का सुखपूर्वक ज्ञान कराने के लिए मैं संक्षिप्तरूप में इसका संकलन करता हूँ । आज भी १०० करोड़ श्लोकों का पुराण ब्रह्मलोक में स्थित है । देखें  –स्कन्द पुराण आ० रे० १/२८-२९ !

वेदों के विषय में भी यही  स्थिति है प्राणियों के तेज बुद्धि बल आदि को अल्प देखकर व्यासजी वेदों का विभाजन करते है जिससे लोग सुख पूर्वक उसे धारण कर सकें ---

"हिताय सर्वभूतानां वेदभेदान्  करोति सः ---विष्णु पुराण ३/३/६.

जिन लोगो का  अधिकार वेदों मे नही माना गया है ऐसे लोगोके लिये धर्म आदि का  ज्ञान कराने हेतु विपुलकाय महाभारत की  रचना भगवान व्यास  ने  की ।  पातंजलयोग दर्शन पर व्यास भाष्य लिखकर ये योगमार्ग को सर्व सुलभ कर दिए । उपनिषदों के गाम्भीर्य में डूब जाने वाले मनीषियो के अवलंबन हेतु ब्रह्मसूत्रों की रचना करके उपनिषद महासागर के संतरण हेतु ब्रह्मसूत्र रूपी सुदृढ़ नौका प्रदान करके जो उपकार भगवान बादरायण ने किया है उसका ऋण  न तो आचार्य शंकर न श्रीरामानुज न  आचार्य श्रीरामानंद आदि ही उतार सकते हैं । भगवद्गीता तो  महाभारत के ही अंतर्गत है  इसलिए हम उसकी पृथक चर्चा नहीं कर रहे हैं  । इन्हीं महत्वपूर्ण कार्यों के लिए भगवान व्यास का अवतरण होता है  !

माता –पिता

चेदि देश में एक राजा थे जिनका नाम था उपरिचर वसु  उनकी पत्नी का नाम गिरिका था वे परम सौंदर्यवती थीं । महाराज देवराज इन्द्र की उपासना से एक दिव्य विमान प्राप्त किये थे  जिससे इधर उधर सपत्नीक विचरण  करते थे! एक दिन महाराज आखेट हेतु गहन वन  में प्रवेश किये अधिक दूर निकल जाने से समयानुसार राजमहल  पहुँचने की संभावना नहीं थी ।  उन्हें ध्यान आया कि महारानी गिरिका ऋतुस्नाता  हैं आज उनके समीप पहुचना आवश्यक है ।

उधर  पत्नी का चिंतन और  इधर वसंत की  शीतल मंद सुगंध वायु दोनों ने मिलकर महाराज के धैर्य को डिगा दिया । अंततः उनके तेज का स्खलन हो गया, धार्मिक नृप ने सोचा की मेरे तेज का स्खलन निरर्थक नहीं हो सकता –ऐसा दृढ़ निश्चय करके उसे पत्रपुटक में रखकर स्वपोषित श्येन =बाज पक्षी को महारानी के पास पहुंचाने का निर्देश दिया । आकाश में उस पक्षी को  दूसरे श्येन ने देखा तो मांस समझकर आक्रमण कर बैठा । वह  रेतः पत्रपुटक सहित यमुना जी के जल में गिरा ।

उसमें मछली के रूप में अद्रिका नाम की एक अप्सरा रहती थी जो किसी ऋषि के शाप से मत्स्य योनि  को प्राप्त हुयी थी  वह उस तेज को निगल गई।  जिसके फलस्वरूप वह  गर्भवती हुई और अंत में जब मल्लाहों ने उसे पकड़कर  देखा तो  उसके उदर सेएक बालक और एक बालिका निकली । बालक को महाराज ने स्वयं ले लिया तथा उसका नाम मत्स्य रखा जो बाद में राजा बना ।

 बालिका में चूँकि मछली की गंध आती थी इसलिए उसे धीवरो ने लेकर लालन पालन किया यह कृष्ण वर्ण की थी इसीलिए लोग इसे काली भी कहते थे , वास्तविक नाम सत्यवती था ! द्वापर कलि की संधि का काल था ,इसके पिता भोजन कर रहे थे उसी समय  महर्षि पराशर पहुंचे और यमुना को पार करने के लिए नाविक को आवाज दिए ,विलम्ब होने से ऋषि क्रुद्ध हो जायेंगे इसलिए उसने पुत्री  सत्यवती को नौका द्वारा महर्षि को पार उतारने की आज्ञा दी ,सत्यवती ने  तत्काल पिता के मनोभाव को समझ लिया और नाव लेकर महर्षि के समीप पहुँच गयी ।

ऋषि के पादपद्मों में प्रणाम करके नौका में चढ़ने का संकेत किया । सर्वज्ञ महर्षि नौकारूढ़ हो गए , भगवच्चिन्तन करने वालो में अग्रगण्य ऋषि ने ध्यान  में देखा कि  इस समय इस देश मे इस मुहूर्त में यदि गर्भाधान किया जाय तो साक्षात नारायण  का अवतार होगा जिनसे विश्व का परम कल्याण होगा किन्तु मेरी पत्नी पास में है नहीं ,क्या करूँ ,जो पास में है वह अपरिणीता है और इसके शरीर से भयंकर दुर्गन्ध भी निकल रही है जिससे आज तक इसके साथ किसी ने विवाह तक नहीं किया ।

इसी ऊहापोह में पड़े महर्षि ने विश्व के भावी कल्याण को ध्यान में रखकर शीघ्र ही उसे सम्पूर्ण रहस्य बताया ,वह तो अपने दुर्गंधमय शरीर  के कारण स्वतः हीनभावना से ग्रस्त रहती थी ! जब अपने उदर से भगवान नारायण के प्रादुर्भाव का होना वह भी एक ब्रह्मवंशी सर्वज्ञ महर्षि के द्वारा सुनी तो उसका मनमयूर प्रसन्नता से नृत्य करने लगा !

   अब उसने अपने भावों को व्यक्त करते हुए प्रकाश की ओर संकेत किया ।  त्रिकालद्रष्टा महर्षि ने अपने  तीव्र तपोबल का प्रयोग झटिति किया कि कहीं वह दिव्य वेला निकल न जाय , संकल्प मात्र से सघन कुहरे की सृष्टि कर दी ,और भगवान का स्मरण करके गर्भाधान किया ।

विश्व कल्याण का कार्य तो हो गया किन्तु इस कन्या  का कन्यात्व भगवान के प्रकट होने बाद सुरक्षित रहे और इसके साथ विवाह हेतु बड़े से बड़े राजा लालायित रहें –इसकी व्यवस्था भी कर दी ,अब उसके शरीर से दुर्गन्ध की जगह सुगंध निकल रही थी । कुछ काल के उपरान्त भगवान व्यास का जन्म हुआ एक द्वीप में और ये कृष्ण वर्ण के थे जैसे माता  थी---

"काली पराशरात जज्ञे कृष्ण द्वैपायनं मुनिम्—"

अग्नि पुराण (कृष्ण वर्ण के कारण इनकी माता का एक उपनाम काली भी था )  इसलिए  रूप और स्थान को दृष्टि में रखकर इनका नाम कृष्णद्वैपायन पड़ा !

 यही भगवान कृष्णद्वैपायन हैं जिनका जन्म आषाढ़ पूर्णिमा को हुआ । विद्वज्जन तो इसे "व्यासपूर्णिमा" नाम से जानते है पर चूँकि व्यास जी ने विश्व के सकल कवियों लेखकों और अन्य ऋषियों की अपेक्षा इतना गुरुतर कार्य किया कि यह पूर्णिमा गुरुपूर्णिमा नाम से विख्यात हो गयी ।

 काशीवाशी आज भी वर्ष में एक बार व्यास काशी गाँव जाकर व्यास मंदिर में उनकी पूजा एवं दर्शन करते है । वहाँ  के विद्वानों में ऐसी प्रसिद्धि है कि वर्ष में एक बार जो काशी निवासी “व्यासकाशी” जाकर व्यास जी का दर्शन नहीं करता उसे काशीवास का फल नहीं मिलता है ।

हम लोग काशी में विद्याध्ययन काल में व्यासकाशी जाकर भगवान कृष्ण द्वैपायन का दर्शन किये हैं ,वहां बहुत बड़ा मेला लगता है  । इस पूर्णिमा को व्यासजी की पूजा अवश्य करनी चाहिए ।

जो लोग वर्ष में एकबार भी अपने गुरुदेव के समीप नहीं पहुँच सकते वे यदि गुरुपूर्णिमा को गुरु की पूजा कर लें तो कल्याण ही कल्याण है । भगवान बादरायण कि महिमा का वर्णन कोई नहीं कर सकता ---

वे चार मिख वाले न होकर भी लोकस्रष्टा ब्रह्मा हैं  चतुर्भुज न होकर भी द्विभुज दूसरे विष्णु हैं ५मुख तथा १५नेत्र न होने पर भी साक्षात भगवान शंकर हैं ----

"अचतुर्वदनो ब्रह्मा द्विबाहुरपरो  हरिः ! अभाललोचनः शङ्भुर्भगवान् बादरायणः ।।"

भगवद्बादरायणकृष्णद्वैपायनव्यासो विजयतेततराम्   


Thursday 18 July 2019

विश्वामित्र जन्मना ब्राह्मण थे

कथा का सारांश यह है कि विश्वामित्र के पिता का नाम गाधि था उनके कोई पुत्र नही था केवल एक कन्या थी उस कन्या का विवाह ऋचीक के साथ कर दी गई ,ऋचीक ऋषि ब्राह्मण थे गाधि की कन्या ने दीर्घकाल तक जब अपने पति की सेवा की तब ऋचीक ऋषि सन्तुष्ट हुए किसी महर्षि को संतुष्ट कर लेना सर्वलोकाधिपतीत्य प्राप्त होने से भी अधिक माना जाता था क्यो की सिद्ध तपस्वी के वरदान से सभी कुछ प्राप्त हो सकता है उस समाचार को सुन गाधि के पत्नी ने अपनी ने बेटी  से कहा की बेटी तु तो जानती है की तेरा कोई भाई नही है इस कारण तपस्वी महात्मा की कृपा से कोई प्रतापी पुत्र प्राप्त हो ऐसा कोई उपाय कर इसके पश्चात उसने अपने माता के कथनानुसार महर्षि रिची से जाकर कहा की एक ब्रह्मऋषि पुत्र मैं चाहती हूं और एक राजऋषि पुत्र मेरी माता चाहती है कृपा कर दोनों का मनोरथ पूरा कीजिये तब ऋचीक महर्षि ने यज्ञ किया उसमे दो प्रकार चरु बनाया जिसमे वेद मंत्र द्वारा दो प्रकार की शक्तियां  स्थापित कर के दोनों प्रकार के चरु को स्वपत्नी को देकर कहा की यह चरु तुम्हारे लिए है इसको खाने से वेदवेत्ता तेजस्वी ब्रह्मऋषि ब्राह्मण उतपन्न होगा और यह दूसरा चरु तुम्हारे माता के लिए है इसको खाने से प्रतापी क्षत्रिय उतपन्न होगा तब वह गाधि पुत्री उभय विध चरु अपने माता के पास लेकर गई और ऋषि द्वारा बताए हुए बिधान सहित सब वृतान्त अपनी माता से कहा इस पर् माता ने कहा बेटी तु जानती है कि तेरे लिए जो चरु दिया गया है वह अत्यंत ही महत्वपूर्ण होगा और तेरे भ्रात का  महत्व  अधिक हो यह तू भी अच्छे से मानती होगी तब तू अपना चरु मुझे दे दे और मेरा चरु चरु तू खा ले और बिधान भी परिवर्तन कर ले ,यह बिचार लड़की ने मान लिया और परिवर्तित बिधान के सहित बदला हुआ चरु दोनों ने खा लिया ,
और कुछ दिन पश्चात दोनों गर्भवती भी हुई ,ऋचीक ऋषि ने अपनी पत्नी के चेष्टा देख कर वह गुप्त वृतान्त जान लिया क्योकि गर्भवती की आकृति पर ब्रह्मतेज नही दिख पड़ा तब महर्षि ऋचीक ने कहा तुमलोगो ने बड़ा अनर्थ किया जो चरु बदल लिया अब इसका परिणाम यह होगा की तुम्हारी माता के गर्भ से ब्रह्मऋषि ब्राह्मण उतपन्न होगा और तुम्हारा पुत्र क्षत्रिय तेजवाला होगा फिर ऋचीक की पत्नी की अधिक प्रार्थना करने पर महर्षि ऋचीक ने कहा की तुम्हारा पुत्र ब्राह्मण तो होगा परन्तु चरु में क्षत्रतेज स्थापित किया गया है वह पुत्र में प्रादुर्भूत न होकर पौत्र में क्षत्रधर्म उग्रप्रताप प्रकट होगा इस कथन के अनुसार ऋचीक के पुत्र जन्मदग्नि महर्षि हुए और जन्मदग्नि से परशुराम हुए जो ऋचीक के पौत्र थे उनमें क्षत्रतेज प्रज्वलित हुआ सो प्रसिद्ध ही है इस उपाख्यान से सिद्ध हुआ कि महर्षि विश्वामित्र की उत्पत्ति महर्षि ऋचीक के उस चरु से हुआ जो वेदवक्ता ब्रह्मऋषि उतपन्न करने के लिए दिया गया था किन्तु क्षत्रिय के रजबीर्य  से यह उत्पती  नही हुई इसी कारण विश्वामित्र जन्म से ही ब्राह्मण थे यदि ऐसा होना असम्भव कहो तो इतिहास पुराणादि का मानना ही नही बनता उसको न माना जाय तो क्ष्ट्री से ब्राह्मण होना भी बन नही सकता ।
जिस इतिहास के आधार पर विश्वामित्र को क्षत्रिय होने की डुगडुगी पिटी जाती है वह इतिहास जैसे उस अंश में माना जाता है वैसे ही विश्वामित्र के उत्पति का इतिहास मानना पड़ेगा जो कि महाभारत में स्प्ष्ट कहा गया है कि उस गर्भ से ब्राह्मण बालक का जन्म होगा अब जिसकी उत्पति के पूर्व ही यह स्प्ष्ट हो जाता है कि जन्म लेने वाला बालक जन्मना ब्राह्मण होगा फिर उस पर् शंका करना ही निराधार है ।

Friday 12 July 2019

जाति वर्ण

शास्त्र क्या है?,  शास्त्र का महत्त्व क्या है? अाैर  शास्त्र की मर्यादा में सभी लाेगाें का रहना क्याें अावश्यक है? ।

वैदिक सनातन वर्णाश्रमधर्म की परम्परा में मूल शास्त्र वेद ही है । इसी लिए  वेद पढने के लिए द्विजातियाें का उपनयन अनिवार्य रूप में किया जाता है, शास्त्राेक्त विधि से वेद पढाया जाता है ।
वेद मन्त्रब्राह्मणात्मक है ।
वेद ऋग् वेद यजुर् वेद सामवेद अथर्ववेद करके चार विभागाें में विभक्त है । ऋग् वेदादि प्रत्येक विभाग की अनेक शाखाएं हैं ।
इस प्रकार का वेद ही मुख्य शास्त्र है । अतः कहा गया है कि
(क) न वेदशास्त्रादन्यत् तु किञ्चिच् छास्त्रं हि विद्यते ।
             (बृहद् याेगियाज्ञवल्क्यस्मृति १२।१ )।
(ख) नास्ति वेदात् परं शास्त्रम् । (अत्रिसंहिता, श्लाेक १५१ )।
(ग) न वेदेन समं शास्त्रम् । (पद्मपुराण ४।९४।३७) (अानन्दाश्रमसंस्करण) ।
(घ) यदन्यद् वेदवादेभ्यस् तदशास्त्रमिति श्रुतिः ।(महाभारत शान्तिपर्व २६९।५९)।
(ङ) यानीहाssगमशास्त्राणि याश् च काश् च प्रवृत्तयः ।
तानि वेदं पुरस्कृत्य प्रवृत्तानि यथाक्रमम् ।। (महाभारत, अनुशासनपर्व १२२।४)।
(च) सर्वज्ञात् सर्वशक्तेश् च मत्ताे वेदः समुत्थितः ।
अज्ञानस्य ममाsभावादप्रमाणा न च श्रुतिः ।।
स्मृतयश् च श्रुतेरर्थं गृहीत्वैव च निर्गताः ।
मन्वादीनां श्रुतीनां च ततः प्रामाण्यमिष्यते ।।( देवीभागवत ७। ३९।१६,१७ )।

इस मूल शास्त्ररूप वेद के  स्वरूप अर्थ प्रयाेग अाैर रहस्य काे समझने के उपाय के रूप में मुनियाें ने शिक्षा कल्प व्याकरण निरुक्त छन्दश्शास्त्र अाैर ज्याेतिष ये छह वेदाङ्ग हम लाेगाें काे दिए हैं ।
वेद का इन ही वेदाङ्गाें के प्रकाश से प्रकाशित अर्थ ही यथार्थ अाैर ग्राह्य माना जाता है ।

अतः ये ही वेदवेदाङ्ग मुख्य शास्त्र हैं । अन्य स्मृति-पुराण-रामायण-महाभारतादि के वचन ताे वेद में विहित उक्त सूचित अाकाङ्क्षित तथा वेद के अनुकूल अाैर अविराेधी अर्थ के प्रतिपादक हाेने पर ही धर्म में अाैर माेक्ष में प्रमाण माने जाते हैं ।
इस प्रकार  वेद अज्ञान भ्रम प्रमाद विप्रलिप्सा (लाेगाें काे ठगने की इच्छा) इत्यादि दाेष से रहित अाैर मनुष्याें के कल्याण का मार्ग का दर्शक हाेने से इसका वैदिक सनातन वर्णाश्रमधर्म में महत्त्व अत्यन्त प्रभूत (बहूत) है ।

इसी लिए वेद का अाैर वेदाेपजीवी वेदाङ्गस्मृत्यादि का महत्त्व सर्वत्र गाया गया है, जैसे--
१. वेदाे धर्ममूलम् ।(गाैतमधर्मसूत्र १।१।१) ।
२. वेदाेsखिलाे धर्ममूलम् ।(मनुस्मृति २।६) ।
३.धर्मं जिज्ञासमानानां प्रमाणं परमं श्रुतिः ।(मनुस्मृति २।१३) ।
४.न वेदानां परिभवान् न शाठ्येन न मायया ।
महत् प्राप्नाेति पुरुषाे ब्रह्मणि ब्रह्म विन्दति ।।(महाभारत, शान्तिपर्व २६९।१९)।
५.यथा गङ्गासमा पुण्या नदी लाेके न विद्यते ।
तथा वेदसमं मानं नास्ति तत्र न संशयः ।।(सूतसंहिता,यज्ञवैभवखण्ड २०।३७) ।
६.मूलस्तमभाे भवेद् वेदः शाखाश् चाsन्यानि यानि तु ।
मूले ह्युपासिते सम्यग् फलं भवति नाsन्यथा ।।(बृहद् याेगियाज्ञवल्क्यस्मृति१२।२५) ।
७.न च वेदादृते शास्त्रं किञ्चिद् धर्माsभिधायकम् ।
याेsन्यत्र रमते साेsसाै न सम्भाष्याे द्विजातिभिः ।।
तस्मात् सर्वप्रयत्नेन धर्मार्थं वेदमाश्रयेत् ।
धर्मेण सहितं ज्ञानं परं ब्रह्म प्रकाशयेत् ।।(कूर्मपुराण १।१२।२६०,२७४) ।
८. न हि प्रवृत्तिर् विष्णाेस् तु विना वेदं प्रवर्तते ।
परेषां स्वस्य वा सृष्टाै श्रुतिप्रामाण्यवान् प्रभुः ।।(स्कन्दपुराण, वैष्णवखण्ड २।११।५) ।
९.वेदप्रणिहिताे धर्माे ह्यधर्मस् तद्विपर्ययः ।
वेदाे नारायणः साक्षात् स्वयम्भूरिति सुश्रुम ।।( भागवत ६।१।४०) ।
१०.वेदा मे परमं चक्षुर् वेदा मे परमं बलम् ।
वेदा मे परमं धाम वेदा मे ब्रह्म चाेत्तरम् ।। (महाभारत, शान्तिपर्व ३४७।३२) ।
११.साधु वाsप्यथवाsसाधुः प्रमाणं नः श्रुतिः परा ।(स्कन्दपुराण १।२।४०।८२) ।
१२.धर्मशब्दाsभिधेयेर्थे प्रमाणं श्रुतिरेव नः ।
परमाे याेगपर्यन्ताे धर्मः श्रुतिशिराेगतः ।।( शिवपुराण ७।१।३२।५,६)।
१३.अतीन्द्रियेsर्थे धर्मे च तथाsधर्मे परात्मनि ।
प्रमाणं वेद एवैकः खलु नाsन्यत् तपाेधन ।।(पराशरपुराण १७।१९) ।
१४.रूपाsवलाेकने चक्षुर् यथाsसाधारणं भवेत् ।
तथा धर्मादिविज्ञाने वेदाेsसाधारणः परः ।।(स्कन्द. सूतसंहिता,सूतगीता३।३३) ।
१५.पितृ-देव-मनुष्याणां वेदश् चक्षुस् तवेश्वर ।
श्रेयस् त्वनुपलब्धेर्थे साध्यसाधनयाेरपि ।।(भागवत ११।२०।४ )।
१६. सर्वथा वेद एवासाै धर्ममार्गप्रमाणकः ।(देवीभागवत ११।१।२६) ।
१७.नाsवेदविन् मनुते तं बृहन्तम् ।(तैत्तिरीयब्राह्मण ३।१२।६।७) ।
१८. तत् प्रमाणं बादरायणस्यानपेक्षत्वात् ।(जैमिनीयधर्ममीमांसासूत्र १।१।५) ।
१९.अतीन्द्रियेर्थे धर्मादाै शिवे परमकारणे ।
श्रुतिरेव सदा मानं स्मृतिस् तदनुसारिणी।।(स्कन्द.सूतसंहिता,सूतगीता ८।१९)।
२०.पुराणाद्युक्तधर्माणां नानादानादिरूपिणाम् ।
सुकृतत्वं वदन्त्येते न धर्मत्वं तु वैदिकाः ।।
( लाैगाक्षिस्मृति,स्मृतिसन्दर्भ,षष्ठ भाग, पृष्ठ २७५) ।
२१.अमीमांसा बहिःशास्त्रा ये चाsन्ये वेदवर्जिताः ।
ते यद् ब्रूयुर् न तत् कुर्याद् वेदाद् धर्माे विधीयते।।     (शुक्लयजुर्वेदीयनिगमपरिशिष्ट)।
२२. यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः ।
 न स सिद्धिमवाप्नाेति न सुखं न परां गतिम् ।।
 तस्माच् छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याsकार्यव्यवस्थिताै।
ज्ञात्वा शास्त्रविधानाेक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि ।।(गीता १६।२३,२४) ।
२३. श्रुतिस्  तु वेदाे विज्ञेयाे धर्मशास्त्रं तु वै स्मृतिः।
ते सर्वार्थेष्वमीमांस्ये ताभ्यां धर्माे हि निर्बभाै ।।
याेsवमन्येत ते मूले हेतुशास्त्राश्रयाद् द्विजः ।
स साधुभिर् बहिष्कार्याे नास्तिकाे वेदनिन्दकः।।
(मनुस्मृति २।१०।११, विष्णुधर्माेत्तरपुराण ३।१३३।६१,६२) ।
२४.अप्रामाण्यं च वेदानामार्षाणां चैव कुत्सनम् ।
अव्यवस्था च सर्वत्र एतन् नाशनमात्मनः ।।(वासिष्ठधर्मसूत्र१२।४१) ।
२५.अप्रामाण्यं च वेदानां शास्त्राणां चाsभिलङ्घनम्।
अव्यवस्था च सर्वत्र तद् वै नाशनमात्मनः ।।(महाभारत,शान्तिपर्व ७९।१९) ।
२६.अप्रामाण्यं च वेदानां शास्त्राणां चाsभिलङ्घनम्।
अव्यवस्था च सर्वत्र एतन् नाशनमात्मनः ।।(महाभारत,अनुशासनपर्व ३७।१) ।
२७.लाेकाे निरङ्कुशःसर्वाे मर्यादालङ्घने रतः।
मर्यादा स्थापिता तेन शास्त्रं वीक्ष्य महर्षिभिः ।।
(स्कन्दपुराण,अावन्त्यखण्ड ३।१४६।४१)।
२८.न चाssगमादृते धर्मस् तर्केण व्यवतिष्ठते ।
ऋषीणामपि यद् ज्ञानं तदप्यागमहेतुकम् ।।(वाक्यपदीय १।३०) ।
२९.यथायथा हि पुरुषः शास्त्रं समधिगच्छति ।
तथातथा विजानाति विज्ञानं चाsस्य राेचते ।।(मनुस्मृति ४।२०)।
३०यथायथा हि पुरुषः शास्त्रं समधिगच्छति ।
तथातथा विजानाति विज्ञानं चाsस्य राेचते ।।
अविज्ञानादयाेगाे हि पुरुषस्याेपजायते ।
विज्ञानादपि याेगश् च याेगाे भूतिकरः परः ।।
(महाभारत, शान्तिपर्व १३०।१०,११)।
३१.शब्दप्रमाणका वयम्, यच् छब्द अाह तदस्माकं प्रमाणम् ।
(पतञ्जलिकृत पाणिनीयव्याकरणभाष्य ,पस्पशाह्निक २।१।१, वार्तिक ५) ।
.३२.ये नियाेगांश् च शास्त्राेक्तान् धर्माsधर्मविमिश्रितान् ।
पालयन्तीह ये वैश्य न ते यान्ति यमालयम् ।।(पद्मपुराण,स्वर्गखण्ड,३१।३९) ।
३३.प्रवृत्ताै च निवृत्ताै च श्रुतिशास्त्राेक्तमेव च ।
अाचरन्ति महात्मानस् ते नराः स्वर्गगामिनः।।
(पद्मपुराण,भूमिखण्ड ९६।३६,पातालखण्ड.९६।८९,९०) ।
३४.क्रिया च शास्त्रनिर्दिष्टा रागद्वेषविवर्जिता ।
कर्तव्याsहरहः श्रद्धापुरस्कारेण शक्तितः ।।(मार्कण्डेयपुराण १६।५९,६०) ।
२४.एवं सर्वेन्द्रियारम्भान् वेदपूर्वान् समाचरेत् ।
ब्राह्मणाे भूतिसम्पन्नाे य इच्छेद् भूतिमात्मनः ।।(हरिवंश ३।२४।१५) ।
३५.प्रवृत्तिं वचनात् कुर्वन् निवृत्तिमपि कर्मणाम् ।
एवं व्यवहरन् नित्यं गृहस्थाेsपि हि मुच्यते ।।(प्रजापतिस्मृति,श्लाेक १४६) ।
३६.यद् विना धर्मशास्त्रेण प्रायश्चित्तं विधीयते ।
न तेन शुद्धिमाप्नाेति प्रायश्चित्ते कृतेsपि सः ।।
         (पाराशरमाधवीय,प्रथमभाग,पृष्ठ १०२) ।
३७.वचः पूर्वमुदाहार्यं यथाेक्तं धर्मवक्तृभिः ।
पश्चात् कार्याsनुसारेण शक्त्या कुर्युरनुग्रहम् ।।
न हि तेषामतिक्रम्य वचनानि महात्मनाम् ।
प्रज्ञानैरपि विद्वद्भिः शक्यमन्यत् प्रभाषितुम् ।।
(पाराशरमाधवीय,प्रथमभाग,पृष्ठ १६२) ।
३८. अश्राैत-स्मार्त-विहितं प्रायश्चित्तं वदन्ति ये ।
तान् धर्मविघ्नकर्तृंश् च राजा दण्डेन पीडयेत् ।।(यमस्मृति, श्लाेक ५९) ।
३९.ज्याैतिषं व्यवहारं च प्रायश्चित्तं चिकित्सितम् ।
विना शास्त्रेण याे ब्रूयात् तमाहुर् ब्रह्मघातकम् ।।
(हेमाद्रिकृत चतुर्वर्गचिन्तामणि, प्रायश्चित्ताध्याय,पृष्ठ ९८७) ।
४०.चित्तं च वित्तं च नृणां विशुद्धं शस्तश् च कालः कथिताे विधिश् च ।
पात्रं यथाेकतं परमा च भक्तिर् नृणां प्रयच्छन्त्यभिवाञ्छितानि ।।
(वराहपुराण१३।४८,विष्णुपुराण३।१४।२०,स्कन्दपुराण,अावन्त्यखण्ड १।१६।२२)।
४१.यथाेक्तं कुरुते यस् तु विधिवत् सुकृतं नरः ।
स्वल्पं मुनिवरश्रेष्ठ मेरुतुल्यं फलं भवेत् ।।
विधिहीनं तु यः कुर्यात् सुकृतं मेरुमात्रकम् ।
अणुमात्रं तदाप्नाेति फलं धर्मस्य नारद ।।(पद्मपुराण, उत्तरखण्ड ६१।१३,१४) ।
४२.स्नानं दानं जपाे हाेमाे देवपूजा द्विजाsर्चनम् ।
अक्षयं जायते सर्वं विधिवच् चेद् भवेत् कृतम् ।।
       (स्कन्दपुराण,प्रभासखण्ड२।१३।१०)।
४३.विधिदृष्टं तु यत् कर्म कराेत्यविधिना तु यः ।
न फलं किञ्चिदाप्नाेति क्लेशमात्रं तु तस्य तत् ।।....
श्रद्धा-विधि-समायुक्तं कर्म यत् क्रियते नृभिः ।
शुचिशुद्धेन भावेन तदानन्त्याय कल्पते ।।
विधिहीनं भावदुष्टं कृतमश्रद्धया च यत् ।
तद् हरन्त्यसुरास् तस्य मूढस्य त्वकृतात्मनः ।।
( याेगयाज्ञवल्क्यवचन, हेमाद्रिकृत चतुर्वर्गचिन्तामणि,श्राद्धकल्पखण्ड,पृष्ठ ८८३,८८४) ।
४४.यः कश्चित् कुरुते धर्मं विधिं हित्वा दुरात्मवान् ।
न तत्फलमवाप्नाेति कुर्वाणाेsपि विधिच्युतः ।।
(लघुहारीतस्मृति,३।३,स्मृतिसन्दर्भ,पृष्ठ ९७९) ।
४५.स्वाsभिप्रायकृतं कर्म विधि-विज्ञान-वर्जितम् ।
क्रीडाकर्मेव बालानां तत् सर्वं स्यान् निरर्थकम् ।।
(अाङ्गिरसस्मृति,उत्तराङ्गिरस १।१०,स्मृतिसन्दर्भ पञ्चमभाग,पृष्ठ ३०६६,पाराशरमाधवीय,प्रथमभाग,पृष्ठ २९१) ।
४६.पूर्वं निश्चित्य शास्त्रार्थं यथावत् कर्मकारकः ।
अवेदनिन्दकाे धीमानधिकारी व्रतादिषु ।।
(हेमाद्रिकृत चतुर्वर्गचिन्तामणि,व्रतखण्ड,प्रथमभाग,पृष्ठ ३२५) ।
४७.देशं कालं युक्तपात्रं युक्तं चाsयुक्तमृव च ।
शास्त्रदृष्ट्या समालाेच्य पश्चाद् धर्मं समाचरेत् ।।
(लाेहितस्मृति,श्लाेक ५२६,५२७)।
४८.तत् समाप्य यथाेद्दिष्टं पूर्वकर्म समाहितः ।
दातुं निर्वपणं सम्यग् यथावदहमारभम् ।।
ततस् तं दर्भविन्यासं भित्त्वा सुरुचिराङ्गदः ।
प्रलम्बाभरणाे बाहुरुदतिष्ठद् विशां पते ।।
तमुत्थितमहं दृष्ट्वा परं विस्मयमागमम् ।
प्रतिग्रहीता साक्षान् मे पितेति भरतर्षभ ।।
तताे मे पुनरेवासीत् संज्ञा संचिन्त्य शास्त्रतः ।
नाsयं वेदुषु विहिताे विधिर् हस्त इति प्रभाे ।।
पिण्डाे देयाे नरेणेह तताे मतिरभून् मम।
साक्षान् नेह मनुष्यस्य पिण्डं हि पितरः क्वचित् ।।
गृह्णन्ति विहितं चेत्थं पिण्डाे देयः कुशेष्विति ।
तताेsहं तदनादृत्य पितुर् हस्तनिदर्शनम् ।।
शास्त्र-प्रामाण्य-सूक्ष्मं तु विधिं पिण्डस्य संस्मरन् ।
तताे दर्भेषु तत् सर्वमददम् भरतर्षभ ।।
शास्त्र-मार्गा-sनुसारेण तद् विद्धि मनुजर्षभ ।
ततः साेsन्तर्हिताे बाहुः पितुर् मम जनाधिप ।।
तताे मां दर्शयामासुः स्वप्नान्ते पितरस् तथा ।
प्रीयमाणास् तु मामूचुः प्रीताः स्म भरतर्षभ ।।
विज्ञानेन तवानेन यन् न मुह्यसि धर्मतः ।
त्वया हि कुर्वता शास्त्रं प्रमाणमिह पार्थिव ।।
अात्मा धर्मः श्रुतं वेदाः पितरश् चर्षिभिः सह ।
साक्षात् पितामहाे ब्रह्मा गुरवाेथ प्रजापतिः ।।
प्रामाण्यमुपनीता वै स्थिताश् च न विचालिताः ।
तदिदं सम्यगारब्धं त्वयाsद्य भरतर्षभ ।।
(महाभारत, अनुशासनपर्व,अध्याय ८४, श्लाेक १४ से २५ तक) ।
४९.श्राद्धकाले मम पितुर् मया पिण्डः समुद्यतः ।
तं पिता मम हस्तेन भित्त्वा भूमिमयाचत ।।
हस्ताssभरण-पूर्णेन केयूराssभरणेन च ।
रक्ताsङ्गुलि-तलेनाsथ यथा दृष्टः पुरा मया ।।
नैष कल्पे विधिर् दृष्ट इति सञ्चिन्त्य चाsप्यहम् ।
कुशेष्वेव ततः पिण्डं दत्तवानविचारयन् ।।....
त्वया च भरतश्रेष्ठ वेदधर्माश्च शाश्वताः।
कृताः प्रमाणं प्रीतिश् च मम निर्वर्तिताsतुला ।।
तस्मात् तवाsहं सुप्रीतः प्रीत्या च वरमुत्तमम् ।
ददामि त्वं प्रतीच्छ त्वं त्रिषु लाेकेषु दुर्लभम् ।।
न ते प्रभविता मुत्युर् यावज् जीवितुमिच्छसि ।
त्वत्ताेsभ्यनुज्ञां सम्प्राप्य मृत्युः प्रभविता तव ।।
(हरिवंश १।१६।१९,२०,२१,..२७,२८,२९, शिवपुराण ५।४०।२१,२२,२३,२४,२५, २६,२७) ।
५०.रामाे रुद्रपदे श्राद्धे पिण्डदानाय चाेद्यतःः ।
पिता दशरथः स्वर्गात् प्रसार्य करमागतः ।।
नाsदात् पिण्डं करे रामाे ददाै रुद्रपदे ततः ।
शास्त्राsर्थातिक्रमाद् भीतं रामं दशरथाेsब्रवीत् ।।
तारिताेsहं त्वया पुत्र रुद्रलाेकमवाप्नुयाम् ।
हस्ते पिण्डप्रदानेन स्वर्गतिर् न हि मे भवेत् ।।
त्वं च राज्यं चिरं कृत्वा पालयित्वा द्विजान् प्रजाः ।
यज्ञान् सदक्षिणान् कृत्वा विष्णुलाेकं व्रजिष्यसि ।।
पुर्ययाेध्याजनैः सार्धं कृमि-कीटा-ssदिभिः सह ।
इत्युक्त्वाsथाे दशरथाे रुद्रलाेकं परं ययाै ।।
( वायुपुराण २।४९। ७५, ७६,७७,७८,७९, बृहन् नारदीयपुराण २।४६।४१,४२,४३,४४,४५) ।
५१.भीष्माे विष्णुपदे श्रेष्ठे अाहूय पितरं स्वकम् ।
श्राद्ध. कृत्वाेद्यताे दातुं पित्रादिभ्यश् च पिण्डकम् ।।
पितुर् विनिर्गताै हस्ताै गयाशिरसि शन्तनाेः ।
नाsदात् पिण्डं करे भीष्माे ददाै विष्णुपदे ततः ।।
(भीष्मः पिण्डं ददाै भूमाै नाsधिकारः करे यतः )
शन्तनुः प्राह सन्तुष्टः शास्त्रार्थे निश्चलाे भवान् ।
त्रिकालदृष्टिर् भवतु चाsन्ते विष्णुश् च ते गतिः ।।
स्वेच्छया मरणं चाsस्तु इत्युक्त्वा मुक्तिमागतः ।
( वायुपुराण २।४९।८२,८१,८२,८३, बृहन् नारदीयपुराण २।४६।३७,३८,३९,४०) ।
५२.शाेभा-साैकर्य-हेतूक्ति-कलिकाल-वशेन वा ।
यज्ञाेक्त-पशुहिंसादि-त्याग-भ्रान्तिमवाप्नुयुः ।।
(कुमारिलभट्टकृत तन्त्रवार्तिक १।३।४) ।
५३.तस्मादनुग्रहं पीडां तदभावमपास्य च ।
धर्माsधर्माsर्थिभिर् मृग्याै नित्यं विधि-निषेधकाै ।।
(कुमारिलभट्टकृत श्लाेकवार्तिक,चाेदनासूत्र,श्लाेक २४८।२४९)।
५४.एक एव चरेद् धर्मं नाsस्ति धर्मे सहायता ।
केवलं विधिमासाद्य सहायः किं करिष्यति ।।(महाभारत,शान्तिपर्व १९३।३२) ।
५५.मा स्माsधर्मेण लाेभेन लिप्सेथास् त्वं धनाssगमम् ।
मर्माsर्थावध्रुवाै तस्य याे न शास्त्र-पराे भवेत् ।।(महाभारत,शान्तिपर्व ७१।१३) ।
५६.न हि शास्त्रमविज्ञाय वृद्धाननुपसेव्य च ।
धर्माsर्थाै वेदितुं शक्याै बृहस्पतिसमैरपि ।।
(महाभारत,वनपर्व १५०।२६,उद्याेगपर्व ३९।४०)।
५७.पवित्रस्याsपवित्रस्याsशुद्ध्यशुद्ध्याेर् द्विजन्मनाम् ।
शास्त्रज्ञानां वाक्यमात्रमेकं मुख्यं निरूपकम् ।।
(लाैगाक्षिस्मृति,स्मृतिसन्दर्भ,षष्ठ भाग,पृष्ठ २७५, मनसुखराय माेर,५ क्लाइब राे,कल्कत्ता १,विक्रमसंवत् २०१३,इशवीय सन् १९५७) ।
५८.वेदशास्त्राण्यधीते यः शास्त्रार्थं च निषेवते ।
तदाsसाै वेदवित् प्राेक्ताे वचनं तस्य पावनम् ।।(अत्रिसंहिता, श्लाेक १४२,१४३) ।
५९.कर्म कर्तव्यमित्येव विहितेष्वेव कर्मसु ।
बन्धनं मनसाे नित्यं कर्मयाेगः स उच्यते ।।(त्रिशिखब्राह्मणाेपनिषत् २५,२६) ।
६०.व्रतं नाम वेदाेक्त-विधि-निषेधाsनुष्ठान-नैयत्यम् ।
(शाण्डिल्याेपनिषत् २,पृष्ठ ४१०) ।
६१.स्वाsनुभूतेश् च शास्त्रस्य गुराेश् चैवैकवाक्यता ।
यस्याsभ्यासेन तेनाssत्मा सततं चाsवलाेक्यते ।।(महाेपनिषत् ४।५) ।
६२.व्यवस्थिताssर्यमर्यादः कृत-वर्णा-ssश्रम-स्थितिः ।
त्रय्या हि रक्षिताे लाेकः प्रसीदति न सीदति ।।(काैटलीय अर्थशास्त्र,१।३।४) ।

अतः व्यक्ति कुटुम्ब कुल समाज राष्ट्र सभी के सुव्यवस्था से सभी काे धर्म अर्थ काम माेक्ष पुरुषार्थाें की साधना का सुअवसर प्राप्त हाेने की परिस्थिति बनाने के लिए वैदिकसनातनवर्णाश्रमधर्मानुयायी शुद्धकुलीन ब्राह्मणादि जनाें काे देश काल परिस्थिति स्वशक्ति के अनुकूल जितना  सम्भव हाेता है उतना वेदशास्त्र का ही विधान का अनुसरण करके स्ववर्णाश्रमधर्म का पालन करना चाहिए । वेदशास्त्र का अनादर करके वर्णाश्रमधर्म काे छाेडकर वर्णधर्ममर्यादा काे अाैर अाश्रमधर्ममर्यादा काे ताेडकर शास्त्रप्रामाण्य काे ध्वस्त करके मनमाना अाचरण नहीं करना चाहिए । वर्णाश्रमधर्म काे छाेडकर अन्य मार्ग में जाने पर नरक में जाना पडेगा । मनुस्मृति में कहा है कि --
स्वेभ्यःस्वेभ्यस् तु कर्मभ्यश् च्युता वर्णा ह्यनापदि ।
पापान् संसृत्य संसारान् प्रेष्यतां यान्ति शत्रुषु ।।
वान्ताश्युल्कामुखः प्रेताे विप्राे धर्मात् स्वकाच् च्युतः ।
अमेध्यकुणपाशी च क्षत्रियः कटपूतनः ।।
मैत्राक्षज्याेतिकः प्रेताे वैश्याे भवति पूयभुक् ।
चैलाशकश् च भवति शूद्राे धर्मात् स्वकाच् च्युतः ।।(मनुस्मति १२।७०,७१,७२।।
अन्यत्र भी कहा गया है--
श्रुतिस्  तु वेदाे विज्ञेयाे धर्मशास्त्रं तु वै स्मृतिः।
ते सर्वार्थेष्वमीमांस्ये ताभ्यां धर्माे हि निर्बभाै ।।
याेsवमन्येत ते मूले हेतुशास्त्राsश्रयाद् द्विजाः ।s
स साधुभिर् बहिष्कार्याे नरकाग्नेस्  तु भाजनम् ।।
( विष्णुधर्माेत्तरपुराण ३।१३३।६१,६२) ।
याे वेदधर्ममुज्झित्य वर्ततेsन्यप्रमाणतः ।
कुण्डानि तस्य शिक्षार्थं यमलाेके वसन्ति हि ।।(देवीभागवत ११।१।२७) ।
परविद्या अाैर अपरविद्या दाे विद्या वेदप्रतिपादित है, उनके क्षेत्र में अाैर नियम में भी भेद है, दाे क्षेत्राें के विषयाें का साङ्कर्य करके विचार करने से विषय का यथार्थ ज्ञान नहीं हाे सकता है । भ्रम ही फैलता है । अतः यह अविवेक त्याज्य है ।
वेदाध्ययनाध्यापन की यह व्यवस्था  अज्ञायमानादि पम्परागत वैदिक व्यवस्था है, किसी एक व्यक्ति की व्यवस्था नहीं है, एक व्यक्ति काे गालि देने से क्या हाेगा?  ब्राह्मणादि त्रैवर्णिक भी  गुरु से भी श्रद्धा विना गुरुशुश्रूषा विना धनबलादि से दम्भ के लिए वेद पढ लेता है ताे उस से प्राप्त धर्मज्ञान मान्य नहीं है , गुरु से सुने विना लिखित वा मुद्रित पुस्तक से ब्राह्मण भी वेद पद पढता है ताे वह भी मान्य नहीं है , किसी सीधे सादे ब्राह्मण गुरु से छलछद्मादि किसी प्रकार से शूद्र वेद प्राप्त करलेता है ताे वह भी मान्य नहीं है । यह वैदिक परम्परा है । वैदिकधर्मरक्षकशिराेमणि कुमारिलभट्टपाद  इस परम्परा काे स्पष्ट करके गए हैं । वे कहते हैं कि  तथैवान्यायविज्ञाताद् वेदाल् लेख्यादिपूर्वकाद् । शूद्रेणाधिगताद् वापि धर्मज्ञानं न सम्मतम् ।।(तन्त्रवार्तिक ) । यह वैदिक परम्परा किसी से बदलने का प्रयास करने से नहीं बदलता है । अार्यसमाजी दयानन्द  ने इस व्यवस्था काे बदलना चाहा, किन्तु सनातनी वैदिक ब्राह्मणाें से वह पाखण्ड ही माना गया, उस की व्यवस्था सनातनियाें के लिए सर्वथा अमान्य ही रही । अाज भी सर्वथा अमान्य ही है ।।
इस युग में अब्राह्मणकुल में जन्मा हुवा व्यक्ति इस जन्म में  ब्राहमण नहीं बन सकता है ।
सच्चरित्र से जीवनयापन करनेपर इसी जीवन में अादरणीय हाे सकते हैं, दूसरे जन्माें में ब्राह्मणजन्म पा सकते हैं । अनेकजन्मसंसिद्धस् तताे याति परां गतिम् ।(गीता६।४५) ।