Tuesday 25 February 2014

चातुर्णमय वर्णाश्रम धर्म

मानुष एव लोके वर्णाश्रमादिकर्माधिकारः । नान्येषु लोकेष्विति नियमः किंनिमित्तः ? इति । अथवा वर्णाश्रमादिप्रविभागोपेता मनुष्या मम वर्त्मानुवर्तन्ते सर्वश [गीता ४.११] इत्युक्तं कस्मात्पुनः कारणान्नियमेन तवैव वर्त्मानुवर्तन्ते, नान्यस्य किम् ? उच्यते

चातुर्वर्ण्यं चत्वार एव वर्णाश्चातुर्वर्ण्यं मयेश्वरेण सृष्टमुत्पादितं ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीत्[ऋक्८.४.१९.२, य़जुः ३२.११] इत्यादि श्रुतेः । गुणकर्मविभागशो गुणविभागशः कर्मविभागशश्च । गुणाः सत्त्वरजस्तमांसि । तत्र सात्त्विकस्य सत्त्वप्रधानस्य ब्राह्मणस्य शमो दमस्तपः [गीता १८.४२] इत्यादीनि कर्माणि । सत्त्वोपसर्जनरजःप्रधानस्य क्षत्रियस्य शौर्यतेजःप्रभृतीनि कर्माणि । तमौपसर्जनरजःप्रधानस्य वैश्यस्य कृष्यादीनि कर्माणि । रजौपसर्जनतमःप्रधानस्य शूद्रस्य शुश्रूषैव कर्म । इत्येवं गुणकर्मविभागशश्चातुर्गुण्यं मया सृष्टमित्यर्थः
। तच्चेदं चातुर्वर्ण्यं नान्येषु लोकेषु । अतो मानुषे लोके इति विशेषणम् । हन्त तर्हि चातुर्वर्ण्यसर्गादेः कर्मणः कर्तृत्वात्तत्फलेन युज्यसेऽतो न त्वं नित्यमुक्तो नित्येश्वरश्चेति । उच्यते यद्यपि मायासंव्यवहारेण तस्य कर्मणः कर्तारमपि सन्तं मां परमार्थतो विद्ध्यकर्तारं, अतएवाव्ययमसंसारिणं च मां विद्धि ॥
(आद्य जगदगुरु श्री शंकराचार्य जी)

Sunday 23 February 2014

ऋषि किसे कहते है ।।

ऋषि किसे कहते हैं ?

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'ॠषि' शब्द की व्युत्पत्ति 'ॠषि' गतौ धातु से मानी जाती है। (सिद्धान्त कौमुदी सूत्र-संख्या-1827 के अनुसार)
ॠषति प्राप्नोति सर्वान् मन्त्रान, ज्ञानेन पश्यति संसार पारं वा। ( 4/119)
ॠषु + इगुपधात् कित् इति उणादिसूत्रेण इन् किञ्च्।

इस व्युत्पत्ति का संकेत वायु पुराण, ( वायु पुराण, 7/75)
मत्स्य पुराण (मत्स्य पुराण, 145/83)
ब्रह्माण्ड पुराण में किया गया है। (ब्रह्माण्ड पुराण, 1/32/87)
ब्रह्माण्ड पुराण की व्युत्पत्ति इस प्रकार है-

गत्यर्थादृषतेर्धातोर्नाम निवृत्तिरादित:।
यस्मादेव स्वयंभूतस्तस्माच्चाप्यृषिता स्मृता॥

वायु पुराण में ॠषि शब्द के अनेक अर्थ बताए गए हैं- (59/79)
ॠषित्येव गतौ धातु: श्रुतौ सत्ये तपस्यथ्।
एतत् संनियतस्तस्मिन् ब्रह्ममणा स ॠषि स्मृत:॥

इस श्लोक के अनुसार 'ॠषि' धातु के चार अर्थ होते हैं-
गति,
श्रुति,
सत्य तथा
तपस्।

ब्रह्माजी द्वारा जिस व्यक्ति में ये चारों वस्तुएँ नियत कर दी जायें, वही 'ॠषि' होता है। वायु पुराण का यही श्लोक मत्स्य पुराण में अध्याय 145, श्लोक 81 पाठभेद से उपलब्ध होता है|

दुर्गाचार्य की निरुक्ति है- ॠषिर्दर्शनात्। (निरुक्त 2/11)
इस निरुक्त से ॠषि का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है- दर्शन करने वाला, तत्वों की साक्षात अपरोक्ष अनुभूति रखने वाला विशिष्ट पुरुष।
'साक्षात्कृतधर्माण ॠषयो बभूअ:'- यास्क का यह कथन इस निरुक्ति का प्रतिफलितार्थ है। दुर्गाचार्य का कथन है कि किसी मन्त्र विशेष की सहायता से किये जाने पर किसी कर्म से किस प्रकार का फल परिणत होता है, ॠषि को इस तथ्य का पूर्ण ज्ञान होता है।

तैत्तिरीय आरण्यक के अनुसार इस शब्द (ॠषि) की व्याख्या इस प्रकार है- 'सृष्टि के आरम्भ में तपस्या करने वाले अयोनिसंभव व्यक्तियों के पास स्वयंभू ब्रह्म (वेदब्रह्म) स्वयं प्राप्त हो गया। वेद का इस स्वत: प्राप्ति के कारण, स्वयमेव आविर्भाव होने के कारण ही ॠषि का 'ॠषित्व' है।
इस व्याख्या में ॠषि शब्द की निरुक्ति 'तुदादिगण ॠष गतौ' धातु से मानी गयी है।

अपौरुषेय वेद ॠषियों के ही माध्यम से विश्व में आविर्भूत हुआ और ॠषियों ने वेद के वर्णमय विग्रह को अपने दिव्य श्रोत्र से श्रवण किया, इसीलिए वेद को श्रुति भी कहा गया है। आदि ॠषियों की वाणी के पीछे अर्थ दौड़ता-फिरता है।
ॠषि अर्थ के पीछे कभी नहीं दौड़ते 'ॠषीणां पुनराद्यानां वाचमर्थोऽनुधावति:' (उत्तर रामचरित, प्रथम अंग)।
निष्कर्ष यह है कि तपस्या से पवित्र 'अंतर्ज्योति सम्पन्न मन्त्रद्रष्टा व्यक्तियों की ही संज्ञा ॠषि है।
यह वह व्यक्ति है, जिसने मन्त्र के स्वरूप को यथार्थ रूप में समझा है। 'यथार्थ'- ज्ञान प्राय: चार प्रकार- से होता है
परम्परा के मूल पुरुष होने से,
उस तत्त्व के साक्षात दर्शन से,
श्रद्धापूर्वक प्रयोग तथा साक्षात्कार से और

2.    इच्छित (अभिलषित)-पूर्ण सफलता के साक्षात्कार से। अतएव इन चार कारणों से मन्त्र-सम्बन्धित ऋषियों का निर्देश ग्रन्थों में मिलता है।जैसे-

§  कल्प के आदि में सर्वप्रथम इस अनादि वैदिक शब्द-राशि का प्रथम उपदेश ब्रह्माजी के हृदय में हुआ और ब्रह्माजी से परम्परागत अध्ययन-अध्यापन होता रहा, जिसका निर्देश 'वंश ब्राह्मण' आदि ग्रन्थों में उपलब्ध होता है। अत: समस्त वेद की परम्परा के मूल पुरुष ब्रह्मा (ऋषि) हैं। इनका स्मरण परमेष्ठी प्रजापति ऋषि के रूप में किया जाता है।

§  इसी परमेष्ठी प्रजापति की परम्परा की वैदिक शब्दराशि के किसी अंश के शब्द तत्त्व का जिस ऋषि ने अपनी तपश्चर्या के द्वारा किसी विशेष अवसर पर प्रत्यक्ष दर्शन किया, वह भी उस मन्त्र का ऋषि कहलाया। उस ऋषि का यह ऋषित्व शब्दतत्त्व के साक्षात्कार का कारण माना गया है। इस प्रकार एक ही मन्त्र का शब्दतत्त्व-साक्षात्कार अनेक ऋषियों को भिन्न-भिन्न रूप से या सामूहिक रूप से हुआ था। अत: वे सभी उस मन्त्र के ऋषि माने गये हैं।

§  कल्प ग्रन्थों के निर्देशों में ऐसे व्यक्तियों को भी ऋषि कहा गया है, जिन्होंने उस मन्त्र या कर्म का प्रयोग तथा साक्षात्कार अति श्रद्धापूर्वक किया है।

§  वैदिक ग्रन्थों विशेषतया पुराण-ग्रन्थों के मनन से यह भी पता लगता है कि जिन व्यक्तियों ने किसी मन्त्र का एक विशेष प्रकार के प्रयोग तथा साक्षात्कार से सफलता प्राप्त की है, वे भी उस मन्त्र के ऋषि माने गये हैं।

उक्त निर्देशों को ध्यान में रखने के साथ यह भी समझ लेना चाहिये कि एक ही मन्त्र को उक्त चारों प्रकार से या एक ही प्रकार से देखने वाले भिन्न-भिन्न व्यक्ति ऋषि हुए हैं। फलत: एक मन्त्र के अनेक ऋषि होने में परस्पर कोई विरोध नहीं है, क्योंकि मन्त्र ऋषियों की रचना या अनुभूति से सम्बन्ध नहीं रखता; अपितु ऋषि ही उस मन्त्र से बहिरंग रूप से सम्बद्ध व्यक्ति है।

प्रकार

वेद, ज्ञान का प्रथम प्रवक्ता; परोक्षदर्शी, दिव्य दृष्टि वाला। जो ज्ञान के द्वारा मंत्रों को अथवा संसार की चरम सीमा को देखता है, वह ऋषि कहलाता है। उसके सात प्रकार हैं-

1.    व्यास आदि महर्षि

2.    भेल आदि परमर्षि

3.    कण्व आदि देवर्षि

4.    वसिष्ठ आदि ब्रह्मर्षि

5.    सुश्रुत आदि श्रुतर्षि

6.    ऋतुपर्ण आदि राजर्षि

7.    जैमिनि आदि काण्डर्षि

रत्नकोष में भी कहा गया है-

सप्त ब्रह्मर्षि-देवर्षि-महर्षि-परमर्षय:।
काण्डर्षिश्च श्रुतर्षिश्च राजर्षिश्च क्रमावरा:।।

अर्थात- ब्रह्मर्षि, देवर्षि, महर्षि, परमर्षि, काण्डर्षि, श्रुतर्षि, राजर्षि ये सातों क्रम से अवर हैं।

सामान्यत: वेदों की ऋचाओं का साक्षात्कार करने वाले लोग ऋषि कहे जाते थे। ऋग्वेद में प्राय: पूर्ववर्ती गायकों एवं समकालीन ऋषियों का उल्लेख है। प्राचीन रचनाओं को उत्तराधिकार में प्राप्त किया जाता था एवं ऋषि परिवारों द्वारा उनको नया रूप दिया जाता था। ब्राह्मणों के समय तक ऋचाओं की रचना होती रही। ऋषि, ब्राह्मणों में सबसे उच्च एवं आदरणीय थे तथा उनकी कुशलता की तुलना प्राय: त्वष्टा से की गई है। जो स्वर्ग से उतरे माने जाते थे। निसंदेह ऋषि कुलों, राजसभाओं तथा सम्भ्रांत लोगों से सम्बन्धित होते थे। कुछ राजकुमार भी समय-समय पर ऋचाओं की रचना करते थे, उन्हें राजन्यर्षि कहते थे। आजकल उसका शुद्ध रूप राजर्षि है। साधारणतया मंत्र या काव्यरचना ब्राह्मणों का ही कार्य था। मंत्र दृष्टा के क्षेत्र में कुछ महिलाओं ने भी ऋषिपद प्राप्त किया था।

परवर्ती साहित्य में ऋषि ऋचाओं के साक्षात्कार करने वाले माने गये हैं, जिनका संग्रह संहिताओं में हुआ। प्रत्येक वैदिक सुक्त के उल्लेख के साथ एक ऋषि का नाम आता है। ऋषिबण पवित्र पूर्व काल के प्रति निधि हैं तथा साधु माने गये हैं। उनके कार्यों को देवताओं के कार्य के तुल्य माना गया है। ऋग्वेद में कई स्थानों पर उन्हें सात के दल में उल्लिखित किया गया है।

बृहदारण्यक उपनिषद

बृहदारण्यक उपनिषद में उनके नाम गौतम, भारद्वाज, विश्वामित्र, जमदग्नि, वसिष्ठ, कश्यप एवं अत्रि बताये गये हैं।

ऋग्वेद

ऋग्वेद में कुत्स, अत्रि, रेभ, अगस्त्य, कुशिक, वसिष्ठ, व्यश्व, तथा अन्य नाम ऋषिरूप में आते हैं।

अथर्ववेद

अथर्ववेद में और भी बड़ी तालिका है। जिसमें अंगिरा, अगस्ति, जमदग्नि, अत्रि, कश्यप, वसिष्ठ, भारद्वाज, गविष्ठिर, विश्वामित्र, कुत्स, कक्षीवन्त, कण्व, मेधातिथि, त्रिशोक, उशना काव्य,गौतम तथा मुदगल के नाम सम्मिलित हैं।

प्राचीन काल

प्राचीन काल में कवियों की प्रतियोगिता का भी प्रचलन था। अश्वमेध यज्ञ के एक मुख्य अंग 'ब्रह्मेद्य' (समस्यापूर्ति) का यह एक अंग था। उपनिषद काल में भी यह प्रतियोगिता प्रचलित रही। इस कार्य में सबसे प्रसिद्ध थे याज्ञवल्क्य, जो विदेह के राजा जनक की राजसभा में रहते थे।

ऋषिगण त्रिकालज्ञ माने गये हैं। उनके द्वारा प्रस्तुत किये गये साहित्य को आर्षेय कहा जाता है। यह विश्वास है कि कलियुग में ऋषि नहीं होते, अत: इस युग में न तो नयी श्रुति का साक्षात्कार हो सकता है और न नयी स्मृतियों की रचना। उनकी रचनाओं का केवल अनुवाद भाषा और टीका ही सम्भव है।


Saturday 22 February 2014

भगवन वेदव्यास ब्राह्मण है शुद्र नही

भगवान् व्यास ब्राह्मण हैं, शूद्र नहीं-----

भगवान् कृष्णद्वैपायन व्यास महर्षि परासर के द्वारा माँ सत्यवती से उत्पन्न हुए | इन्हें शास्त्रनाभिज्ञ कुछ लोग शूद्र कहते हैं | उनका कहना है कि नाविक की कन्या ( शूद्रकन्या ) सत्यवती थीं | अतः उनसे महर्षि परासर द्वारा उत्पन्न व्यास जी शूद्र हुए |

इन लोगों से एक प्रश्न है कि जब शूद्र और ब्राह्मण दोनों से व्यास जी समुत्पन्न हैं तो आप मातृपक्ष को ध्यान में रखकर उन्हें शूद्र ही क्यों मान रहे हैं ? पितृपक्ष को देखकर उन्हें ब्राह्मण क्यों नही कहते ? केवल अपना उल्लू सीधा करना है न | निष्पक्ष तो माता पिता पर जब ध्यान देगा तो उसे संदेह होगा कि व्यास जी को ब्राह्मण माना जाय या शूद्र ? किन्तु दुराग्रही अपनी मानसिकता थोपेगा कि वे शूद्र ही थे |
वस्तुतः उन्हें शूद्र इसलिए मानना कि वे शूद्रकन्या से उत्पन्न हुए थे –यह मात्र भ्रान्ति ही है | क्योंकि माँ सत्यवती शूद्रकन्या थीं ही नही | केवल कैवर्त द्वारा उनका पालन किया गया था | उनकी उत्पत्ति ब्रह्मा जी के शाप से मीनभाव को प्राप्त अद्रिका नामक एक श्रेष्ठ अप्सरा जो यमुना में मछलीरूप में निवास कर रही थी, के उदर से हुई थी, जिसमे कारण चेदि देश के परम प्रतापी महाराज उपरिचर वसु का वीर्य था ---

तत्राद्रिकेति विख्याता ब्रह्मशापाद्वराप्सराः | मीनभावमनुप्राप्ता बभूव यमुनेचरी ||

श्येनपादपरिभ्रष्टं तद्वीर्यमथ वासवम् |जग्राह तरसोपेत्य साSद्रिका मत्स्यरूपिणी ||

-- महाभारत,आदिपर्व,अंशावतरणपर्व, ६३/५८-५९-६०,

उपरिचर वसु के वीर्य के प्रभाव से १०वे मास इसके उदर से एक बालक और बालिका को मत्स्यजीवियों ने निकाला और महाराज उपरिचर से इस रहस्य को बतलाया | तो उन्होंने बालक को ले लिया जिसका नाम मत्स्य रखा और वह बाद में राजा बना –

“ तयोः पुमांसं जग्राह राजोपरिचरस्तदा | स मत्स्यो नाम राजाSSसीद्धार्मिकः सत्यसंगरः ||--वहीं ६३,
व्यास जी की माँ शूद्रकन्या नही

--- और जो कन्या थी उसके शरीर से मछली की गंध निकलती थी,उसे महाराज ने मछुवारे को दे दिया जिसका नाम सत्यवती पड़ा—

“ सा कन्या दुहिता तस्या मत्स्या मत्स्यगन्धिनी | राज्ञा दत्ता च दाशाय कन्येयं ते भवत्विति ||--६७,

दाश—कैवर्ते दाशधीवरौ—अमरकोष१/१०/१५,

ध्यातव्य है कि यह कन्या भी एक प्रतापी क्षत्रियराजा के वीर्य द्वारा मत्स्यरूपिणी एक श्रेष्ठ अप्सरा से जन्मी है | अतः बीज के प्रभाव को देखते हुए इसे क्षत्राणी ही कहा जा सकता है, शूद्र नही |

( “ यस्माद्बीजप्रभावेण तिर्यग्जा ऋषयोSभवन् | पूजिताश्च प्रशस्ताश्च तस्माद्बीजं प्रशस्यते ||--मनुस्मृति—१०/७२, “ बीजयोन्योर्मध्ये बीजोत्कृष्टा जातिः प्रधानम् ”—मन्वर्थमुक्तावली, बीज और योनि के मध्य में उत्कृष्ट बीज वाली जाति ही प्रधान है इसीलिये तिर्यग योनि से समुत्पन्न लोग भी ऋषि हुए हैं और पूजित होने के साथ श्रेष्ठ भी माने गए | )

क्या किसी बालक या बालिका का किसी अन्य जातीय व्यक्ति से पालन हो तो उसकी जाति बदल जायेगी ? माता सत्यवती की उत्पत्ति में किसी शूद्र या शूद्रा के रज अथवा वीर्य का कोई सम्बन्ध ही नही, ऐसी स्थिति में केवल पालन करने मात्र से उन्हें शूद्र कहकर व्यास जी को शूद्र मानना केवल प्रज्ञापराध नही तो और क्या है ?

विजातीय संसर्ग से सांकर्यदोष

---सांकर्य दोष २ प्रकार का होता है |१-अनुलोम संकर ,२- प्रतिलोम संकर |

अनुलोमसंकर—उच्च वर्ण के पुरुष का निम्न वर्ण की कन्या के साथ विवाह विहित है –मनुस्मृति-३/१३, अतः इनसे उत्पन्न संतानें अनुलोम संकर की परिधि में हैं | जैसे ब्राह्मण से क्षत्रिय कन्या द्वारा उत्पन्न संतान निषाद,क्षत्रिय से वैश्यकन्या द्वारा उत्पन्न माहिष्य तथा शूद्रकन्या से उत्पन्न उग्र कही जाती है | इस प्रकार ब्राह्मण द्वारा ३, क्षत्रिय से २ तथा वैश्य से १ कुल मिलाकर अनुलोम संकर संताने ६ प्रकार की हुईं |

प्रतिलोम संकर –चूंकि निम्न वर्ण के पुरुष के साथ उच्च वर्ण की कन्या का विवाह शास्त्रानुमोदित नही है इसलिए शूद्र से ब्राह्मण ,क्षत्रिय और वैश्य की कन्या में उत्पन्न संतानें क्रमशः चांडाल, क्षत्ता और अयोगव कही जाती हैं—शूद्रादायोगवः क्षत्ता चाण्डालश्चाधमो नृणाम् | वैश्यराजन्यविप्रासु जायन्ते वर्णसङ्कराः ||--मनुस्मृति -१०/१२, ऐसे ही व्यभिचारजन्य संतानें,सगोत्रादि विवाह से समुत्पन्न त्तथा विहित उपनयन संस्कार से रहित व्रात्य संज्ञक संतानें भी वर्ण संकर कही जाती हैं |

–अपने अपने वर्ण की विवाहिता कन्या से उत्पन्न संतानें ही अपने अपने वर्ण की होती हैं, अन्यनहीं |

सांकर्य के अपवाद महर्षिगण ---

उन ब्रह्मर्षियों की संतानों पर भी सांकर्य का प्रभाव नही पड़ता जो अपनी उत्कृष्ट तपश्चर्या से अलौकिक शक्ति सम्पन्न हो चुके हैं | अत एव महर्षि विभांडक का अमोघ वीर्य जिसे मृगी पी गयी थी—से समुत्पन्न ऋष्यश्रृंग ब्राह्मण ही हुए, उनके लिये विप्रेन्द्र शब्द प्रयुक्त हुआ है –

“नान्यं जानाति विप्रेन्द्रो नित्यं पित्रनुवर्तनात् |--वाल्मीकि रामायण,बा.का.९/५,

ब्रह्मर्षि भृगु की पौलोमी नामक पत्नी जो पुलोम दानव की कन्या थीं, उनसे उत्पन्न च्यवन ब्राह्मण ही हुए –पप्रच्छ च्यवनं विप्रं लवणस्य यथाबलम् |--वा.रा.उ.का.६७/१, यहाँ माँ दानवकन्या है फिर भी मात्र पिता में ब्राह्मणत्व होने के कारण ही च्यवन में ब्राह्मणत्व आया |

अब क्षत्रियकन्याओं में ब्रह्मर्षियों द्वारा उत्पन्न संतानें वर्ण संकर न होकर ब्राह्मण ही हुईं –इस तथ्य को सप्रमाण प्रस्तुत किया जा रहा है | राजर्षि कुशनाभनन्दन गाधि (वा.रा.बा.का.३२/११,) की सत्यवती नामक कन्या से ब्रह्मर्षि ऋचीक का विवाह हुआ---

गाधिश्च सत्यवतीं कन्यामजनयत् | तां च भार्गव ऋचीको वव्रे |---तामृचीकः कन्यामुपयेमे | अनन्तरं च सा जमदग्निमजीजनत् |--विष्णु महापुराण ४/७/१२-१३-१४-१६-३२, यहाँ माता क्षत्रिया और पिता ब्राह्मण हैं | फिर भी इन दोनों से समुत्पन्न जमदग्नि ब्राह्मण ही हुए, वर्ण संकर नही | यदि जमदग्नि जी ब्राह्मण नही होते तो उनसे उत्पन्न परशुराम जी ब्राह्मण कैसे होते ?

इक्ष्वाकुवंशी महाराज रेणु की क्षत्रियकन्या रेणुका जो जमदग्नि की पत्नी थीं उनसे प्रादुर्भूत परशुराम जी ब्राह्मण ही हुए, वर्णसंकर नही ---

“ जमदग्निरिक्ष्वाकुवंशोद्भवस्य रेणोस्तनयां रेणुकामुपयेमे | तस्यां चाशेषक्षत्रहन्तारं नारायणांशं जमदग्निरजीजनत् ”—विष्णुमहापुराण ४/७/३५-३६, इन परशुराम जी के लिये ब्राह्मण शब्द स्पष्टतया प्रयुक्त हुआ है---

“ क्षत्ररोषात् प्रशान्तस्त्वं ब्राह्मणश्च महातपाः ”—वा.रा. बा.का,७५/६, यहाँ सत्यवादी महाराज दशरथ ने परशुराम जी को महातपस्वी ब्राह्मण बतलाया है
अतः सिद्ध होता है कि असीम शक्ति सम्पन्न ब्रह्मर्षियों से ब्राह्मण पुत्र की समुत्पत्ति हेतु ब्राह्मणकन्या अनिवार्य नही है | वे दानव या क्षत्रिय की कन्या से भी ब्राह्मण संतान उत्पन्न कर सकते हैं | इसीलिये भगवान मनु भी वीर्य को स्त्रीरूपी क्षेत्र से अधिक महत्त्व देते हुए कहते हैं --

“ यस्माद्बीजप्रभावेण तिर्यग्जा ऋषयोSभवन् | पूजिताश्च प्रशस्ताश्च तस्माद्बीजं प्रशस्यते ||--मनुस्मृति—१०/७२, “ बीजयोन्योर्मध्ये बीजोत्कृष्टा जातिः प्रधानम् ”—मन्वर्थमुक्तावली,

बीज और योनि के मध्य में उत्कृष्ट बीज वाली जाति ही प्रधान है इसीलिये तिर्यग योनि से समुत्पन्न लोग भी ऋषि हुए हैं और पूजित होने के साथ श्रेष्ठ भी माने गए | श्रेष्ठता का तात्पर्य उनके ब्राह्मणत्व-- ख्यापन में है | जिसे सप्रमाण अभी प्रस्तुत किया जा चुका हैं |

अतः इन साक्ष्यों के आधार पर ब्रह्मर्षि परासर द्वारा माता सत्यवती से समुत्पन्न भगवान् कृष्णद्वैपायन व्यास ब्राह्मण ही हैं, शूद्र नही |
भागवत महापुराण का साक्ष्य—

महाराज युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में ऋत्विक ब्राह्मणों के वरण का जब समय आया तो उन्होंने वेदवादी ब्राह्मणों का वरण किया जिनमें भगवान् व्यास का उल्लेख द्वैपायन शब्द से सुस्पष्ट किया गया है---

“ इत्युक्त्वा यज्ञिये काले वव्रे युक्तान् स ऋत्विजः |कृष्णानुमोदितः पार्थो ब्राह्मणान् वेदवादिनः || द्वैपायनो भरद्वाजः सुमन्तुर्गौतमोSसितः |--भा.पु.१०/७४/६-७, यहाँ भगवान् कृष्णद्वैपायन का नाम सबसे पहले उल्लिखित है | ( यहाँ द्वैपायन शब्द कृष्णद्वैपायन का वाचक है | इसके पूर्वपद कृष्ण का “ विनापि प्रत्ययं पूर्वोत्तरपदयोर्वा लोपो वाच्यः ”—इस वार्तिक से लोप हो गया है | )

इतना ही नही ,जब भगवान् श्रीकृष्ण विदेहनगरी में पधारते हैं,उस समय उनके साथ कृष्णद्वैपायनव्यास तथा उनके पुत्र स्वयं शुकदेव जी भी हैं |इसका उल्लेख स्वयं शुकदेव ही कर रहे हैं ---

“ आरुह्य साकं मुनिभिर्विदेहान् प्रययौ प्रभुः || नारदो वामदेवोSत्रिः कृष्णो रामोSसितोSरुणिः |

अहं बृहस्पतिः कण्वो मैत्रेयश्च्यवनादयः ||--भागवत महापुराण,१०/८६/१७-१८,

यहाँ कृष्णः शब्द कृष्णद्वैपायन का वाचक है | उसके उत्तरपद द्वैपायन का “ विनापि प्रत्ययं पूर्वोत्तरपदयोर्वा लोपो वाच्यः ”—इस वार्तिक से लोप हो गया है | यहाँ अहं शब्द से शुकदेव जी ने अपना उल्लेख किया है | इन सबको यहाँ द्विज कहा गया है –

न्यमन्त्रयेतां दाशार्हमातिथ्येन सह द्विजैः | मैथिलः श्रुतदेवश्च युगपत् संहताञ्जली ||--भा.पु.१०/८६/२५, क्या इससे कृष्ण द्वैपायन व्यास ओर उनके पुत्र का ब्राह्मणत्व स्पष्ट नही हो रहा है ? भगवान् वेदव्यास शूद्र होते तो उनके पुत्र शुकदेव और स्वयं उनको यहाँ द्विज क्यों कहा जाता ?

इतने पर भी व्यास जी को शूद्र कहने वालों तुम्हे संतोष न हो रहा हो तो अब इससे संतोष अवश्य हो जायेगा | सुनो—जब भगवान् श्रीकृष्ण मिथिला में विप्र श्रुतदेव के यहाँ ऋषियों सहित पधारे हैं | तब श्रुतदेव से कहते हैं कि ब्राह्मण इस लोक में जन्म से ही सभी प्राणियों से श्रेष्ठ होता है | इस पर भी यदि उसमे तपश्चर्या, विद्या, संतोष, मेरी उपासना हो तब तो कहना ही क्या ?—

“ ब्राह्मणो जन्मना श्रेयान्सर्वेषां प्राणिनामिह | तपसा विद्यया तुष्ट्या किमु मत्कलया युतः ||--भागवत महापुराण,१०/८६/५३, जो लोग “ जन्मना जायते शूद्रः –” ऐसा प्रलाप करते हैं वे इस प्रमाण से समझने की चेष्टा करें कि ब्राहमणत्व जाति जन्म से ही आती है |

इसके बाद ३ श्लोकों मे विप्रों की महिमा का विशद वर्णन करने के बाद भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं अपने श्रीमुख से कृष्णद्वैपायन व्यास ओर शुकदेव आदि को उद्देश्य करके श्रुतदेव से कहते हैं कि हे विप्र ! इसलिये तुम इन ब्रह्मर्षियों को मेरा ही स्वरूप समझकर अर्चना करो ---

“ तस्माद् ब्रह्मऋषीनेतान् ब्रह्मन् श्रद्धयार्चय |--भागवत महापुराण,१०/८६/५७,

यहां कृष्णद्वैपायन व्यास उनके पुत्र शुकदेव आदि को ब्रह्मर्षि कहा गया है | अतः इस भग्वद्वचन से विरुद्ध व्यास जी को शूद्र कहने वाले कितने प्रामाणिक हैं ?-–इसका निश्चय सुधी जन स्वयं करें | इसी प्रकार अन्य ऋषियों के विषय में भी समझना चाहिए, जिन्हें वेदमंत्र--द्रष्टा बतलाते हुए आज शूद्र कहा जा रहा है |