Thursday 13 June 2019

आर्य समाजी



वैदिक सनातन वर्णाश्रमधर्मानुयायियाें में अाैर अार्यसमाजियाें मे महत्त्वपूर्ण प्रमुख भेद ।

 सनातनियाें के लिए
 तस्माच् छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थिताै ।
 ज्ञात्वा शास्त्रविधानाेक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि।।(गीता १६।२४) ।
 यह वचन अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है ।
  अाजकल   अत्यधिक सङ्ख्या में मिलने वाले  भाेगवादी देहात्मवादी लाेग ताे  सनातनियाें के मूल शास्त्र वेद का ही विराेध करदेते हैं । इसीप्रकार से  दयानन्द  भी  वैदिक सनातन जन्मना जातिवादी वर्णाश्रमधर्म का विराेध करके प्रकारान्तर  से वेदका ही विराेध कर देता है ।   

 अार्यसमाज का संस्थापक  दयानन्द ने  भी अाश्वलायनशाखा शाङ्खायनशाखा के ऋग्वेद काे, तैत्तिरीयशाखा मैत्रायणीयशाखा के कृष्णयजुर्वेद काे, जैमिनीयशाखा के सामवेद काे, पैप्पलादशाखा के अथर्ववेद काे परतःप्रमाण कहकर वस्तुतः वेद ही नहीं माना ।
  ब्राह्मणग्रन्थाें  काे श्राैतसूत्राें काे गृह्यसूत्राें काे भी न मान कर
पञ्चमहायज्ञविधि संस्कारविधि बनाकर उन का भी वस्तुतः विराेध ही किया ।

 क्या इसी से उक्त  सभी ग्रन्थ वेद के रूप में अमान्य अाैर त्याज्य हाेंगे?

  सनातनियाें की परम्परागत मान्यता है कि
     
विध्यर्थवादमन्त्रेतिकर्तव्यं ब्राह्मणादिभिः।
 कल्पसूत्रैकपठितं कर्म प्रामाण्यमृच्छति।।
 यत्रकुत्रस्थितं  वेदवाक्यं संगृह्य केवलम् ।
अस्य वाक्यस्यायमर्थ इति वक्ताज्ञ उच्यते ।।
(लाैगाक्षिस्मृति, स्मृतिसन्दर्भ, षष्ठभाग, पृष्ठ४०५,४०६)  ।

 इस दृष्टि से  अज्ञ मानेजाने वाले दयानन्द के वेदमन्त्राें के अर्थ सनातनियाें काे सर्वथा अमान्य हैं ।

दयानन्द ने वैदिक सनातनी परम्परा के सभी ग्रन्थाें में मनमाना प्रक्षेपादि का अाराेप करके सर्वत्र अनिश्चय की स्थति बनाने का प्रयास किया है ।

 सनातनी परम्परा में अधाेनिर्दिष्ट प्रमाण से  धर्म में मुख्य रूप में शब्द ही प्रमाण माने जाने से
''शास्त्रस्था वा तन्निमित्तत्वात्'' (जैमिनीय धर्ममीमांसासूत्र१।३।९),
''अशुद्धमिति चेच् छब्दात्'' (ब्रह्ममीमांसासूत्र ३।१।२५),
 ''शब्दप्रमाणका वयम् यच् छब्द अाह तद् अस्माकं प्रमाणम्'' (पाणिनीयव्याकरणभाष्य, पस्पशाह्निक वार्तिक ९, २।१।१ वार्तिक ५) शब्दप्रमाण अतिमहत्त्वपूर्ण है ।
 उसमें दयानन्द से  शब्दप्रमाण में ही अनिश्चय की स्थिति लाने का प्रयास किए जाने से दयानन्द के सत्यार्थप्रकाशादि ग्रन्थ सनातनियाें काे  अमान्य हैं ।

अतः सनातनियाें के लिए सत्यार्थप्रकाश के वेदादि शास्त्र विषय के सब ही कथन सुतराम् सर्वथा अमान्य है ।

Tuesday 4 June 2019

जरा सोचिए

जरा सोचिए !!!!!!!!!!!

ताज महल = मुसलमानों ने बनाया;
लाल किला = मुसलमानों ने बनाये
कुतुबमीनार = मुसलमानों ने बनाई;
चार मीनार = मुसलमानों ने बनाई;
गोल गुम्बज = मुसलमानों ने बनाया;
लाल दरवाजे = मुसलमानों ने बनाये;

ताजमहल के समकालीन 56 मुसलिम कंट्री में एक भी स्थापत्य कला का उदाहरण दिखला दो ? जो मुगल अऱब में एक दिवार नही बना पाए थे, वे जाहिल भारत आते ही ताजमहल और लालकिला, कुतुबमीनार कैसे बनाने लगे ? दरअसल बनाया नही बल्कि पहले से बनी चीजों को छीन अपना नाम इतिहास में लिखवाया है ।

चमार और भंगी भी मुसलमानो ने ही बनाये है, ...... क्यों ?

हिन्दू सनातन काल से चमड़े का प्रयोग अपवित्र मानता था। याद है वैदिक सन्त या वैदिक लोग अपने पैरों में लकडी की खड़ाऊ पहना करते थे, क्यों? क्योंकि चमडे का प्रयोग हिन्दू करता ही नही था, इसका सीधा सा मतलब है कि चमड़ा का काम करने वाली जाति चमार तो हिंदुओ ने बनायी नही । सीधी बात, मुस्लिम सेनाओ और लोगों को चमड़े की जरूरत होती थी, इसलिए युद्ब बंदियों को चमडे के काम में धकेलकर चमार बनाया गया। 36 बिरादरी को गाय का चमडा छीलने के कारण उन चर्मकारों का बहिष्कार कर दिया और वही आज अछूत बन गये । ये बहिस्कार जाति के कारण नही उनके घृणित कर्म के कारण हुआ था ।

दलितों पर अत्याचार किसने किया ? अछूत जातियाँ किसने बनाई ? हजारो साल से हिंदुओ मे परम्परा रही है खुले मे शौच जाने की । घर के अंदर शौचालय लोग अपवित्र मानते थे । आज भी गांव देहात मे लोग घर मे शौचालय नही बनाते उदाहरण स्वरूप आप टायलेट एक प्रेमकथा फिल्म देखलें। जबकि मुस्लिम काल मे मुस्लिमों में पर्दा प्रथा के कारण औरते खुले मे नही जाती थी, इसलिये मुसलमान अपने घरों के अंदर शौचालय बनाते थे तथा मैला फिकवाने के लिये जिन लोगो का प्रयोग हुआ वे मेहतर कहलाये । इन्ही निम्न कर्यो के कारण ये अछूत बने ।

अब सीधा सा मतलब ये है कि चमार और मेहतर समाज को बनाने का जिम्मेदार ब्राहण नही है और ब्राह्मण को निशाना बनाकर संस्कृत और संस्कृति को मिटाने की साजिश है और ये सब केवल मुसलमान ने वामपंथियो को साथ लेकर ही किया है

और एक बात ——
               उपरोक्तानुसार यहीं शतप्रतिशत सत्य भी हैं...
प्रमाण तो नहीं दे सकते...
लेकिन  राक्षसराज रावण के राक्षसी राज्य का अंत होने के बाद रावण की बहन सूर्पणखा अपना वंश बचाने के लिए  शिवलिंग (भगवान शिव का भक्त था रावण) लेकर गुरु शुक्राचार्य के साथ अरब देशों की ओर चली गई... उसे विभीषण से डर था....
सूर्पणखा की नाक और कान लक्ष्मण जी काट चुके थे...
इसीलिए वो हमेशा चेहरा ढक कर रहती थीं..
मुस्लिम महिलाए इसीलिए बुरका पहनतीं हैं...
शिव लिंग की पूजा करतीं थीं.. जो आज मक्का मदीना हैं................
 गुरु शुक्राचार्य थे.. इसीलिए शुक्रवार को पवित्र मानते हैं...............
 कबीलों मे रहते थे... अ. पना धर्म परिवार बढ़ाने के लिए आपस में ही शारिरिक संबंध बना लेते थे...........................
क्या सूर्पणखा+शुक्राचार्य के नाजायज रिश्ते से पैदा होने वाले नाजायज वंशज हैं मुसलमान.............।।

जय श्री राम

Monday 3 June 2019

हिन्दू संस्कृति की अजेयता


#हिन्दू_संस्कृति_की_अजेयता_और_वर्तमान_खतरा

बहुत आक्रमणों को झेला हमने, एक के बाद एक।
करते रहे संघर्ष पर हार कभी नहीं मानी।

मिश्र, फारस, यूनान, रोम, स्केंडनेविया ... सभी की संस्कृति का विनाश हुआ पर हिंदू अड़े रहे , लड़ते पिटते, हारते, जीतते... पर अड़े रहे।

कैसे? कहाँ से आई इतनी जिजीविषा??

क्या केवल योद्धाओं का संघर्ष?

अगर संघर्ष केवल योद्धाओं का था तो तुर्क जैसे प्रचंड योद्धा अरबों से कैसे हार गए पर मुट्ठी भर राजपूतों ने अरबों को खदेड़ दिया और लगातार 800 वर्षों तक तुर्कों का प्रतिरोध किया।

अगर संघर्ष केवल योद्धाओं का था तो वाइकिंग्स कैसे हार गए पर जाटों को कोई भी मुस्लिम सत्ता कभी दबा नहीं सकी?

अगर संघर्ष केवल योद्धाओं का था तो एक युद्ध में हार से पूरा ईरान मुस्लिम कैसे बन गया पर लाखों की मुगल फौज मुट्ठी भर मराठों व सिखों से पार ना पा सकी।

विश्व में हर कोई इस बात पर आश्चर्य करता है और इकबाल जैसा व्यक्ति अपने पूर्वार्द्ध काव्य जीवन में कह उठा था--

"कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी"

"इस बात" को इस "रहस्य" को जानने में ही हमारे दुश्मनों की रुचि रही है, वे जानना चाहते हैं इस रहस्य को ताकि वे हमारा शिकार आसानी से कर सकें।

"संस्कृति"

इसी शब्द में छिपा था सारा रहस्य जिसपर प्राचीन ऋषियों ने इस राष्ट्र की संकल्पना की थी।

राज छिपा था उन ब्राह्मणों के दुर्दम्य हठ में जिन्होंने घोर दरिद्रता में रहकर भी मुस्लिम शासकों का 'म्लेच्छ' कहकर तिरस्कार तो किया ही उन्हें इतना हीन, यहां तक कि चांडालों से भी ज्यादा अस्पृश्य घोषित कर दिया कि उनके साथ भोजन करने वाला भी अस्पृश्य हो जाता था। पूरे संसार के इतिहास में किसी भी शासक और सैन्य वर्ग का इतना भयंकर तिरस्कार किसी पराजित जाति ने नहीं किया होगा जितना ब्राह्मणों के नेतृत्व में हिंदुओं ने मुस्लिम शासकों का किया। इस तिरस्कार के कारण ही हिंदू पराजित होकर भी स्वयं को मुस्लिमो से श्रेष्ठ मानते रहे और उनमें कभी भी हीनताबोध नहीं जागा
(हालांकि इस नीति ने जड़ मूर्खतापूर्ण रूप भी धारण कर लिया।)

हिंदुओं के इस सतत प्रतिरोध का राज छिपा था उन भाटों, चारणो और लोकगायकों में भी जो हिंदू देवमंडल और महानायकों की गाथाओं को दो मुट्ठी अनाज के बदले एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंचाते रहे।

राज छिपा था उन मूर्ति, काष्ठ और लौह शिल्पकारों में जो भूखे मर गए पर अपनी कला को आक्रांताओं के हाथों बेचा नहीं और जब ये राजपूत योद्धा व ब्राह्मण वन बीहड़ो में दर दर भटके तो ब्राह्मणों, क्षत्रियों के साथ वे भी अस्पृश्यता, शोषण, तिरस्कार और अपमान सहकर भी परछाईं की तरह चले और बिना किसी लोभ या भय के हिंदुत्व पर दृढ़ बने रहे और अधिसंख्य आज भी बने हुए हैं।

इस रहस्य को मुस्लिम नहीं समझ सके तथा "पंथ" को "धर्म" समझकर उसके बाह्य प्रतीकों का विध्वंस करने में जुट गए।

मंदिर तोड़े, बौद्ध विहार तोड़े, जिनालय तोड़े पर वे कभी भी संस्कृति की आत्मा को नहीं तोड़ सके क्योंकि वह तो निहित थी उस ब्राह्मण में जो भूखे मर मर कर भी #तुलसी बनकर महाराणा प्रतापों को रामकथा से हौसला दे रहा था, मानसिंहों को फटकार रहा था और अकबरों का तिरस्कार कर रहा था।

वह #समर्थगुरु बनकर अखाड़ों में #शिवाओं को गढ़ रहा था। वह दक्षिण में #सायण और #विद्यारण्य बनकर वेदों की रक्षा कर रहा था। वह थोड़े से #सीदे के बदले संगीत, साहित्य और इतिहास को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंचा रहा था।

साथ ही हिंदुत्व की वास्तविक शक्ति निहित थी उन दलितों में जिन्होंने मुस्लिम सत्तावर्ग के 'इस्लामिक समानता' के ऑफर को ठुकरा दिया और शोषण व अत्याचार सहकर भी हिंदुत्व के ध्वज तले रहने में ही अपना गौरव माना।

इस प्रचंड हिंदू एकता के गर्भ से जन्मे वीर मराठे मावलों, राजपूतों, जाटों और सिखों ने मुस्लिम सत्ता को उखाड़ फेंका।

परंतु तभी आ धमके चालाकअंग्रेज उन्होंने 1857 के बाद हिंदुत्व की शक्ति को #पहचान लिया।

इतिहास के माध्यम से हमला प्रारंभ किया गया। आर्य-द्रविड़ वाद से विदेशी शासन के औचित्य को स्थापित किया गया।

हिंदुओं में "सदैव पराजित होने का हीनताबोध" भरा गया और मुस्लिमों में "श्रेष्ठतावाद व असुरक्षा" का बीज बोया गया।

फिर बारी आई हिंदू साहित्य व कला की जिन्हें सदैव पाश्चात्य मानकों पर तौलकर हीन ठहराया गया।

हिंदुओं के सामाजिक संस्कृति के नकारात्मक पहलुओं को चुन चुनकर रेखांकित किया गया और दोषी ठहराया गया ब्राह्मणों को कि एक बार #मस्तिष्क विकृत हो जाये तो हिंदुत्व का शेष शरीर कब तक संतुलित रहेगा।

इसी कारण हिंदू बौद्धिक वर्ग जिसमें अधिकांशतः ब्राह्मण ही थे, में से कुछ इसका शिकार हो गए और रही सही कसर मार्क्सवाद के आगमन ने पूरी कर दी।

श्रेष्ठतम ब्राह्मण मेधा अपनी ही संस्कृति के विरुद्ध पाश्चात्य व वामपंथी षड्यंत्र का अमोघ अस्त्र बनी और निगाह उठाकर देख लीजिये चारों ओर हिंदुत्व के विरुद्ध जहर उगलते वर्ग में सर्वाधिक व्यक्ति इसी वर्ग से मिलेंगे।

बौद्धिक प्रतिरोध भी सर्वाधिक ब्राह्मणों की ओर से ही आया परंतु उन्होंने कभी भी अपने इन स्वजातीय बंधुओं का वैसा बहिष्कार नहीं किया जैसा वे दलित जातियों का मामूली अपराधों पर अन्य जातियों का करते और इसी से आपसी संदेह और अविश्वास का प्रारंभ हुआ और इसका फायदा उठाया अंग्रेजों ने।

ब्रिटिशों और फिर कम्यूनिस्टों ने 'अपना जहर' हिंदुत्व के शरीर में भर दिया था जो असर दिखाने लगा। इतिहास, साहित्य व कला के हर क्षेत्र में ये #मारीच घुस गये और उन्होंने दो तरफा मार की। एक ओर तो उन्होंने भारतीय मूल्यों पर आधारित कला व साहित्य को हतोत्साहित किया वहीं विभाजन व विखंडनकारी साहित्य व कला को बढ़ावा दिया जिन्हें सदैव पाश्चात्य शक्तियों ने प्रोत्साहित किया। अरविंद अडिगा, अरुंधती रॉय, मकबूल फिदा हुसैन, सफदर हाशमी आदि इन्हीं मारीचों के मानस संतानें हैं।

नाजियों से नफरत करने का ढोंग करने वाले इन तथाकथित प्रगतिशीलों और लोकतंत्रवादियों का आदर्श गोबेल्स ही रहा है इसीलिये कॉंग्रेस को समर्थन देने के बदले इतिहास, साहित्य और कला संस्थाओं पर कब्जा कर लिया और उन्हें अपनी हिंदू द्रोही गतिविधियों का अड्डा बना दिया जिसका सर्वोत्तम उदाहरण जे एन यू और मध्यप्रदेश का भारतभवन है।

ब्रिटिशों और वामियों के इतिहास के हीन प्रस्तुतिकरण के कारण उत्पन्न पराजयबोध के कारण पहले से हीनमना हिंदू और अधिक हीनता प्रदर्शित करने लगे। प्रगतिशील और वैज्ञानिक दिखने के लिये हिंदू परंपराओं का और अधिक मजाक उड़ाया जाने लगा, भारतीय आदर्श चरित्र राम, कृष्ण और शिव में या तो खोट ढूंढे जाने लगे या फिर उन्हें काल्पनिक घोषित किया जाने लगा।

फिर आया उदारीकरण के नाम पर उपभोक्तावाद और आधुनिक इस्लामिक आतंकवाद का युग।

उपभोक्तावाद के प्रचार के लिए माध्यम बनी नारी देह जिसके लिये जन्म दिया गया नारीवाद और फेमनिज्म को।
मैत्रेयी पुष्पा, अरुंधती रॉय, द्युति सुदीप्ता जैसी कुंठित फेमनिस्ट, यौनिकता के चिरबुभुच्छित कॉमरेड्स, द्रौपदी सिंगार के छद्म नाम से लिखने वाले #नपुंसक_कवि और नारी शरीर पर लार टपकाने वाले स्त्रैण लोलुप पुरुषों ने दुर्गावती व गार्गी के स्थान पर सनी लियोनी व स्वरा भास्कर को भारतीय लड़कियों का आदर्श बना दिया।

इन धूर्त जमात के #नर_मादाओं ने राम, कृष्ण, युधिष्ठिर को सिर्फ कामुक शोषक पुरुष और सीता, राधा और द्रौपदी को पीड़ित नारी घोषित कर दिया।

इनकी धूर्तताओं की बानगी देखिये--

-- इनकी निगाह में हर स्त्री को यौन स्वतंत्रता होनी चाहिए लेकिन द्रौपदी की सहमति से पांडवों के साथ उनका विवाह स्त्री का शोषण है।

-- इनकी निगाह में पद्मिनी एक मामूली मूर्ख औरत थी लेकिन दिनरात पुरुषों को स्त्रिलोलुप ठहराते इस गैंग के मेम्बरों के लिए खिलजी और अकबर 'जुनूनी प्रेमी'।

-- इन्हें दुर्गावती और लक्ष्मीबाई में नारी सशक्तिकरण नजर नहीं आता बल्कि सनी लियोनी बनने में नारी सशक्तिकरण दिखाई देता है।

इन संस्कृति द्रोहियों ने नारी स्वतंत्रता की ओट में नारी देह को उसी बाजारवाद और पूंजीवाद के प्रसार का माध्यम बना दिया जिसके विरोध में ये क्रांति के तराने गाते नहीं थकते।

ऐसी स्थिति में कला की आधुनिकतम विधाम #सिनेमा इन गिद्धों की नजर से कैसे बच पाता और फिर वे तो पूर्व में ही वे सिनेमा का महत्व समझ गये और सिनेमा भी उसका शिकार बना। नेहरू की मेहरबानी से वे उस पर काबिज हो भी गये।

फिर तो जो सिनेमा जो उदात्त हिंदू चरित्रों राम कृष्ण हरिश्चन्द्र, महाराणा प्रताप, शिवाजी तथा हिंदू प्रतिरोध की घटनाओं जैसे संन्यासी विद्रोह का चित्रण कर रहा था वह प्रगतिशील सिनेमा के नाम पर केवल और केवल गरीबी, स्त्री दुर्दशा, सामाजिक शोषण को परोसने लगा।
कमर्शियल सिनेमा भी गरीबी को महिमामंडित किया जाने लगा। अमिताभ के दौर की फ़िल्मों को याद कीजिये कि किस तरह अमिताभ गरीबी को महिमामंडित करने वाले डायलॉग मारते थे और बेवकूफ पब्लिक खुश होकर डायलॉग्स पर तालियाँ बजाती थी।

50% सत्य होने के बावजूद सिनेमा में सर्वदा और शतप्रतिशत सत्य के रूप में अतिरेकपूर्ण ढंग से पंडित के नाम पर सिर्फ एक तोंद युक्त, कुटिल चेहरे वाले लालची पुजारी, ठाकुर के नाम पर सिर्फ एक अत्यचारी जमींदार, बनिये के नाम पर सिर्फ एक सूदखोर महाजन को चित्रित किया गया और दूसरी ओर इमाम साहब या चर्च के फादर को सदैव धर्मपरायण, दयालु और भव्य व्यक्तित्व के रूप में स्थापित किया गया।

अपने इस नैरेटिव को प्रारम्भिक रूप से सफलतापूर्वक स्थापित करने के बाद पहले उन्होंने अगला प्रहार किया भारतीय नारी पर जिसको उन्होंने ग्लैमर से ललचाया और इसमें एकता कपूर ने जाने अनजाने में उनकी मदद की।

नारी उन्मुक्तता के इस दौर में दाऊद के नेतृत्व में पाकिस्तान व सऊदी अरब ने मुंबई में बॉलीवुड पर नियंत्रण स्थापित कर लिया और फिर जोधा अकबर, ताजमहल, खिलजावत जैसी फिल्मों, अकबर द ग्रेट, नूरजहां, सत्यमेव जयते जैसे टी वी कार्यक्रम बनाये गए ताकि हिंदू लड़कियों को मुस्लिम लड़कों की ओर आकर्षित कर 'लव जेहाद' के माध्यम से अल्लाह मिंयाँ की खिदमत की जा सके और गजवा ए हिंद के सपने को साकार किया जा सके।

वरना कोई मुझे बताये कि आमिरखान ने कभी तीन तलाक, हलाला और बुर्के पर कुछ बोला हो।

मीडिया, सिनेमा और सोशल एक्टिविज्म पर इस्लामी व वैटिकन शक्तियों के शिकंजे के कारण ही लव जेहाद, धर्मांतरण, मुस्लिम इनमाइग्रेशन जैसे राष्ट्र विध्वंसक व हिंदुत्व विरोधी कार्यक्रम सफल हो रहे हैं। इधर भारत और हिंदुत्व के दुर्भाग्य से आंभी, जयचंद व मानसिंह जैसे राष्ट्रद्रोहियों की एक लंबी परंपरा रही है और बरखादत्त,प्रणय रॉय रविश कुमार, मुलायम, लालू , दिग्विजय, ममता बैनर्जी आदि उसी देशद्रोही परम्परा के वारिस हैं और इनके द्वारा समर्थित भीम-मीम का अपवित्र गठजोड़ उसका विस्तार।

अब हिंदुत्व पर इस भयानक चहुँ ओर हमले की गहनता और भयानकता को महसूस कर लीजिये और तय कर लीजिये उसका मुकाबला "भीमटा हाय हाय, "आरक्षण हाय हाय", "मोदी हाय हाय" के नारों से करना है या धीरता गंभीरता से रणनीति बनाकर और अपने पूर्वजों के तपस्या व संघर्ष के मार्ग पर चलकर, उनकी गलतियों का परिमार्जन करके, 'सर्व हिंदू सहोदरा' के मार्ग पर चलकर?????

खुद तय कर लीजिये।