Thursday 23 April 2020

आर्यसमाजी


स्वामी दयानंद सरस्वती आर्यसमाज के संस्थापक माने जाते है स्वामी दयानन्द सरस्वती कृत पुस्तक सत्यार्थप्रकाश ही आर्यसमाज  का मूल ग्रन्थ माना जाता है आर्यसमाज स्वयं को सबसे बड़ा वैदिक धर्मी बताते है(यह भी एक तरह का झूठ ही है)
स्वामीदयनन्द सरस्वती ने सत्यार्थ प्रकाश के पृष्ठ संख्या  ३६१
में स्वीकार किया है कि महाभारत ग्रन्थ में जो जो श्लोक आये है वह सत्य है तथा उन्होंने सत्यार्थ प्रकाश में अपने मत को प्रमाणित करने के लिए   सबसे ज्यादा प्रमाण मनुस्मृति ग्रन्थों से ही दिया है और उसी मनुस्मृति को आर्यसमाजी प्रक्षिप्त मानते है अब जो ग्रन्थ प्रक्षिप्त हो तो भला उस ग्रन्थ से  ही अपने मतों को पुष्टि हेतु प्रमाण में क्यो रखेंगे ? आप स्मृतिआदि ग्रन्थों को प्रक्षिप्त भी कहेंगे और प्रमाण भी उसी ग्रन्थों से देंगे ये तो अर्धकुक्कुट न्याय हुआ  । स्वामी दयानन्द ने महाभारत के बिषय में भी ऐसा ही कहा जबकि पृष्ठा संख्या ३६१ में पहले वे स्वीकार करते है कि महाभारत में आये हुए  सभी श्लोक सत्य है  वही फिर आगे यह भी लिख देते है कि महाभारत में मिलावट हुआ है लगता है सत्यार्थ प्रकाश जब लिखने बैठे थे तब भांग पी कर ही बैठे होंगे ।
 लेकिन दयानन्द सरस्वती ने उसका युक्ति युक्त कोई प्रमाण  दे न सके , बस केवल लिख मारे बिना प्रमाणों के किसी विषयवस्तु को मिथ्या कह देने मात्र से वह मिथ्या नही हो जाता जब तक उसे प्रमाणित न किया जाय ,
आज के सम्बिधान अनुसार भी यदि किसी दोषी को दण्ड देना हो तो उसे भी सम्बिधान अनुरूप दण्ड और सम्बिधान के दायरे में रह कर ही उनके दोषों पर सत्य और मिथ्या का बिचार किया जाता है , और जब तक उसका दोष परिपुष्ट न होगा तब तक उसे उस दोष के लिए दण्ड भी नही दिया जा सकता अन्यथा वह अन्याय के श्रेणी में आजाता है ।
ठीक उसी प्रकार स्वामी दयानन्द ने सनातन धर्म ग्रन्थों को प्रक्षेपित कहा बिना यह प्रमाणित किये की उस उस ग्रन्थों में किसने मिलावट किया तथा किस कालखण्ड में   किया और वे कौन कौन से श्लोक है इसका विवरण बिना दिए ही वे ढोल पीटते रहे । वस्तुतः आर्यसमाज की भीत भी इसी पुराण और स्मृति आदि ग्रन्थों के आड़ लेकर खड़ा है । स्वामी दयानन्द सरस्वती के पूर्व इस भारत भूखण्ड में कई बिभूतियो का अवतरित हुआ जिन्होंने इतिहासपुराण स्मृति आदि ग्रन्थों को मुक्तकण्ठ से प्रमाणिकता स्वीकार की चाहे वह गौड़ापाद हो वा कुमारिल भट्ट हो अथवा शङ्कराचार्य हो वा यमुनाचार्य हो अथवा रामानुजाचार्य हो वा  माधवाचार्य हो अथवा वल्लभाचार्य, वा वाचस्पति मिश्र तथा निम्बार्काचार्य ।
वेद सर्वसाधारण के लिए अत्यंयत दुरूह है वेद की जितनी भी ऋचाएं है वे अपने आप में दिब्य  और प्रभावकारी है यह ऋचाओ के उच्चारण में जरा सा भी भेद अपकल्याण का कारक बन सकता है इस लिए वेदो  को समझने के लिए अनादिकाल से चली आरही परम्पराप्राप्त आचार्यो के सानिध्य में षडाङ्गो के माध्यम से ही समझा जाता है उसी वेद को सरल रूप में समझने के लिए हमे इतिहास पुराण स्मृति आदि ग्रन्थों का सहारा लेना पड़ता है ।
एक माता यदि अपने बालक को गन्ने की गुल्ला देने के बजाय उसे मिश्री देती है तो भला इसमें माता का क्या दोष ?  बालक के प्रसन्न और सुरक्षित रखने के लिए आप उस माता को क्या कहेंगे ??इसे कहने की आवश्यकता सायद मुझे भी नही है ।
ठीक जिन जिन वर्णो का वेदादि ग्रन्थों में अधिकार नही तद्वत वर्णसमुदाय के लिए इतिहासपुराणादि,स्मृति ग्रन्थ ही वह मार्ग बचता है जिस धर्म के सूक्ष्म रूप को समझा जा सके ।

ईतिहासपुराणं पञ्चमं वेदानां वेदं  (छान्दोग्य उपनिषद)

स्वयं श्रुतियों में इतिहास पुराणादि को पञ्चम वेद कहा गया है क्यो की बिना इतिहास पुराणादि के वेद को समझना क्लिष्ट है

इसी बिषय को महाभारत में कहा गया है

इतिहासपुराणाभ्यां वेदं समुपबृंहयेत् (महाभारत आदिपर्व)

वेदो के अर्थ को निर्णय करने वाला इतिहास एवं पुराण के ही शब्द विचारणीय है ।
 ऐसे में श्रुतिस्मृति सम्मत बिषयों को न मान कर श्रुतिस्मृति विरुद्ध पाखण्ड का प्रचार आर्यसमाज द्वारा किया गया ।

जिस प्रोपेगैंडा को ईशाई मिशनरी तथा इस्लामिक मत   फैलाने में असफल रहे उसी प्रोपेगैंडा को स्वामी दयानन्द के जरिये प्रचार किया गया ताकि हिन्दूओ में वर्णाश्रमधर्म के विरुद्ध विखण्डन का बीज बोया जा सके और हिन्दुओ को खण्ड खण्ड में बांटा जाय इसी कारण इतिहासपुराण स्मृति आदि ग्रन्थों के बिषय में भ्रामक प्रचार किया गया ,
की इन सभी ग्रन्थों में मिलावट किया गया है अतः इतिहासपुराणादि बिषय अब पठन पाठन में नही रहा इससे उन लोगो के प्रति मन मे सन्देह उतपन्न हुआ जिन्हें वेदो से भिन्न इतिहासपुराणा आदि ग्रन्थों के श्रवण और अध्ययन में अधिकार था जिससे तद् तद् वर्णसमुदाय अपने स्वधर्म को समझते थे और पालन भी करते थे ऐसे में उन उन वर्णसमुदाय के मन मे सन्देह उतपन्न करना ही एक मात्र मार्ग शेष बचा था क्यो की भारतीयों को गुलाम बना कर भी ईशाई और इस्लामिक शाशनकर्ता मानसिक रूप से भारतीयों को गुलाम न बना सका  भारतीय मानसिक रूप से दृढ़संकल्प वाले थे और उसके दृढ़ संकल्प को भेदन कैसे किया जाय इसके लिए उसे कोई ऐसे ब्यक्ति की तलाश थी जो इस काम को पूरा कर सके ऐसे में स्वामी दयानन्द उनके बैचारिकता को पोषण देने वाला बना ।
 जिन्हें अपने स्वधर्म और अपने धर्मग्रन्थो पर अटूट श्रद्धा था ।उन उन वर्णाश्रमधर्मियो के मन में यह शंका का बीज बोया गया कि तुम्हारे ग्रन्थ जाली और प्रक्षिप्त है
और आज जनसाधारण में लगभग यह बात घर कर गई है कि इतिहासपुराणादि ग्रन्थों में मिलावट हुई है इसी बात का सहारा लेकर ईशाई मिशनरी और इस्लाम धर्म अपने मनोरथ में लगभग सफल हुए ।
आर्यसामज वेदादि धर्म के रक्षक नही अपितु भक्षक बन कर उभरा और सनातन धर्म को शनै शनै क्षरण करता गया ।

Sunday 5 April 2020

माता शबरी

#माता_शबरी_शंका_समाधान

श्रीरामचन्द्र आदि रामायण के बिषय में प्रथम प्रमाण वाल्मीकि रामायण का ही माना जाता है देवऋषि नारद तथा ब्रह्मादि देवताओं के आशीर्वचन से महर्षि वाल्मीकि को तपोबल से श्रीरामचन्द्र ,माता सीता दसरथ,आदि राक्षसों का प्रकट और गुप्त चरित्र साक्षात्कार हुआ था ।जिसको उन्होंने श्लोकबद्ध कर इस महा काब्य को जनकल्याणर्थ प्रकाशित किया ।

रामस्य चरितम् कृत्स्नम् कुरु त्वम् ऋषिसत्तम ।
धर्मात्मनो भगवतो लोके रामस्य धीमतः ॥१-२-३२॥
वृत्तम् कथय धीरस्य यथा ते नारदात् श्रुतम् ।
रहस्यम् च प्रकाशम् च यद् वृत्तम् तस्य धीमतः ॥१-२-३३॥
रामस्य सह सौमित्रे राक्षसानाम् च सर्वशः ।
वैदेह्याः च एव यद् वृत्तम् प्रकाशम् यदि वा रहः ॥१-२-३४॥
तत् च अपि अविदितम् सर्वम् विदितम् ते भविष्यति ।
न ते वाक् अनृता काव्ये काचित् अत्र भविष्यति ॥
कुरु रामकथाम् पुण्याम् श्लोक बद्धाम् मनोरमाम् ।१-२-३५॥
राम लक्ष्मण सीताभिः राज्ञा दशरथेन च ।
स भार्येण स राष्ट्रेण यत् प्राप्तम् तत्र तत्त्वतः ॥१-३-३॥
हसितम् भाषितम् च एव गतिर्यायत् च चेष्टितम् ।
तत् सर्वम् धर्म वीर्येण यथावत् संप्रपश्यति ॥१-३-४॥
स्त्री तृतीयेन च तथा यत् प्राप्तम् चरता वने ।
सत्यसन्धेन रामेण तत्सर्वम् च अन्ववेक्षत ॥१-३-५॥
ततः पश्यति धर्मात्मा तत् सर्वम् योगमास्थितः ।
पुरा यत् तत्र निर्वृत्तम् पाणाव आमलकम् यथा ॥१-३-६॥

इसी महाकाब्य में माता शबरी का भी वर्णन है समय समय पर माता शबरी को लेकर लोग भांति भांति से अपने बिचारो को प्रकट किया और करते भी रहेंगे ।की माता शबरी शुद्रा थी ,तो कोई कहता है माता शबरी भील जाती से थी ,मुण्डे मुण्डे मति:भिन्ना ।

उसी बिषय को लेकर हम यहाँ बिचार करेंगे ।

वाल्मीकि रामायण में माता शबरी मतङ्ग मुनि के आश्रम में गुरुओं और ऋषियों की सेवाशुश्रूषा करने वाली बताई गई है ।

●--गुरु शुश्रूषा सफला चारुभाषिणि (वा०रा०आ०७४/९)

आश्रम शब्द अपने आप में शुचिता ,मर्यादानुकूल आचरण, वेदादि विद्याओं का अध्यय अध्यापन का स्थान माना जाता है ऐसे में माता शबरी के आश्रम में निवास होने का अर्थ यही होता है कि उनका आचरण मर्यादानुकूल ,शुचिता, अध्ययनध्यापन के विद्याओं में   बाधा न पड़े होना सिद्ध होता है ।

●--धर्मसूत्र तथा स्मृतियों में कहा गया है कि ।
#श्मशाने_चाध्य्यनं_वर्जयेत_शुद्रायां_तू_यदा_परस्परं_भवति
#तदैवाSनध्याय_न_समानागरे_नापिशम्याप्रसादिति ।

●--श्मशानवच्छुद्रपतितौ (आपस्तम्ब १/३/९/९)
●--समानागार इत्येक (आपस्तम्ब धर्मसूत्र १/३/९/१०)
●--शुद्रायां तू प्रेक्षणप्रतिपेक्षणयोरेवाSनध्याय (आपस्तम्ब धर्मसूत्र १/३/९/११)

ऐस में माता शबरी का शुद्रा अथवा चाण्डाल होना  इस मत का यहाँ ध्वंस हो जाता है ऋषि महर्षि गण पूर्णप्रज्ञ होते थे ऐसे में उन्हें अपने आश्रम की शुचिता अशुचिता का बोध कैसे न हो की आश्रम में किस किस कुलगोत्रादि के लोग रहे ।
अब आगे आते है

वाल्मीकि रामायण के अरण्यकाण्ड मे माता शबरी को सिद्धा तपस्वी कहा गया है ।
●--तापसी पृष्ठा सा सिद्धा सिद्धसम्मता  (वा०रा०आ७४/१०)

 सिद्धियां उन्हें ही प्राप्त हो सकती है जो अपने वर्णाश्रमधर्म का पालन अक्षरसः करता हो ।
●--स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः।(गीता१८/४५)
●--कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः। (गीता ३/२०)

अपने-अपने कर्ममें तत्परतापूर्वक लगा हुआ मनुष्य सम्यक् सिद्धि-को प्राप्त कर लेता है महाराज जनकादि भी अपने वर्णोचित कर्म से ही सिद्धियां प्राप्त की थी ।
अब यहाँ प्रसंग यह भी उठ सकता है कि माता शबरी हो न हो क्षत्रिय कुल अथवा वैश्य कुल से होगी इस लिए उन्हें भी सिद्धियां प्राप्त हुई ।

परन्तु वाल्मीकि रामायण में माता शबरी के बिषय में जन्मादि वृतान्त  का अभाव है जिससे इसका निर्णय भी कठिन हो जाता है ऐसे में श्रुतिस्मृतिआदि ग्रन्थों में ब्राह्मण ,क्षत्रिय,वैश्य,बिशेष को लेकर आये हुए बिषयों पर बिचार करना आवश्यक हो जाता है ।
जैसे
●---गुरुर्हि सर्वभूतानां ब्राह्मणः (महाभारत आदिपर्व)
●---अध्यापनं याजनं च विशुद्धाच्च प्रतिग्रहः ।।
विप्रस्य जीविका प्रोक्ता (स्कन्दपुराण वैष्णवखण्ड २०/२८)
●--उपनीय तु यः शिष्यं वेदं अध्यापयेद्द्विजः ।
सकल्पं सरहस्यं च तं आचार्यं प्रचक्षते । । (मनुस्मृति २/१४०)

इस न्याय से ब्राह्मण से भिन्न अन्य कोई भी वर्ण का अधिकार गुरु ,आचार्यत्व तथा अध्यापन आदि में अधिकार नही ठीक वैसे ही कृष्णमृगचर्म का धारण करना केवल मात्र ब्राह्मणो का ही अधिकार है ।
क्षत्रिय,वैश्य के लिए अलग अलग वस्त्रों का विधान है ।

●--हारिणमैणेयं वा कृष्णं ब्राह्मणस्य (आपस्तम्ब धर्मसूत्र१/३/३)
●--कार्ष्णरौरवबास्तानि चर्माणि ब्रह्मचारिणः ।
वसीरन्नानुपूर्व्येण शाणक्षौमाविकानि च । । (मनुस्मृति २.४१ )

माता शबरी को वाल्मीकि रामायण में कृष्णमृगचर्म धारण करने वाली बताई गई है ।

●--जटिला चीरकृष्णाजिनाम्बरा (वा०रा०७४/३२)

ऐसे में आप सभी पाठकगण बिचार करें कि माता शबरी किस वर्ण से थी

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