स्वामी दयानंद सरस्वती आर्यसमाज के संस्थापक माने जाते है स्वामी दयानन्द सरस्वती कृत पुस्तक सत्यार्थप्रकाश ही आर्यसमाज का मूल ग्रन्थ माना जाता है आर्यसमाज स्वयं को सबसे बड़ा वैदिक धर्मी बताते है(यह भी एक तरह का झूठ ही है)
स्वामीदयनन्द सरस्वती ने सत्यार्थ प्रकाश के पृष्ठ संख्या ३६१
में स्वीकार किया है कि महाभारत ग्रन्थ में जो जो श्लोक आये है वह सत्य है तथा उन्होंने सत्यार्थ प्रकाश में अपने मत को प्रमाणित करने के लिए सबसे ज्यादा प्रमाण मनुस्मृति ग्रन्थों से ही दिया है और उसी मनुस्मृति को आर्यसमाजी प्रक्षिप्त मानते है अब जो ग्रन्थ प्रक्षिप्त हो तो भला उस ग्रन्थ से ही अपने मतों को पुष्टि हेतु प्रमाण में क्यो रखेंगे ? आप स्मृतिआदि ग्रन्थों को प्रक्षिप्त भी कहेंगे और प्रमाण भी उसी ग्रन्थों से देंगे ये तो अर्धकुक्कुट न्याय हुआ । स्वामी दयानन्द ने महाभारत के बिषय में भी ऐसा ही कहा जबकि पृष्ठा संख्या ३६१ में पहले वे स्वीकार करते है कि महाभारत में आये हुए सभी श्लोक सत्य है वही फिर आगे यह भी लिख देते है कि महाभारत में मिलावट हुआ है लगता है सत्यार्थ प्रकाश जब लिखने बैठे थे तब भांग पी कर ही बैठे होंगे ।
लेकिन दयानन्द सरस्वती ने उसका युक्ति युक्त कोई प्रमाण दे न सके , बस केवल लिख मारे बिना प्रमाणों के किसी विषयवस्तु को मिथ्या कह देने मात्र से वह मिथ्या नही हो जाता जब तक उसे प्रमाणित न किया जाय ,
आज के सम्बिधान अनुसार भी यदि किसी दोषी को दण्ड देना हो तो उसे भी सम्बिधान अनुरूप दण्ड और सम्बिधान के दायरे में रह कर ही उनके दोषों पर सत्य और मिथ्या का बिचार किया जाता है , और जब तक उसका दोष परिपुष्ट न होगा तब तक उसे उस दोष के लिए दण्ड भी नही दिया जा सकता अन्यथा वह अन्याय के श्रेणी में आजाता है ।
ठीक उसी प्रकार स्वामी दयानन्द ने सनातन धर्म ग्रन्थों को प्रक्षेपित कहा बिना यह प्रमाणित किये की उस उस ग्रन्थों में किसने मिलावट किया तथा किस कालखण्ड में किया और वे कौन कौन से श्लोक है इसका विवरण बिना दिए ही वे ढोल पीटते रहे । वस्तुतः आर्यसमाज की भीत भी इसी पुराण और स्मृति आदि ग्रन्थों के आड़ लेकर खड़ा है । स्वामी दयानन्द सरस्वती के पूर्व इस भारत भूखण्ड में कई बिभूतियो का अवतरित हुआ जिन्होंने इतिहासपुराण स्मृति आदि ग्रन्थों को मुक्तकण्ठ से प्रमाणिकता स्वीकार की चाहे वह गौड़ापाद हो वा कुमारिल भट्ट हो अथवा शङ्कराचार्य हो वा यमुनाचार्य हो अथवा रामानुजाचार्य हो वा माधवाचार्य हो अथवा वल्लभाचार्य, वा वाचस्पति मिश्र तथा निम्बार्काचार्य ।
वेद सर्वसाधारण के लिए अत्यंयत दुरूह है वेद की जितनी भी ऋचाएं है वे अपने आप में दिब्य और प्रभावकारी है यह ऋचाओ के उच्चारण में जरा सा भी भेद अपकल्याण का कारक बन सकता है इस लिए वेदो को समझने के लिए अनादिकाल से चली आरही परम्पराप्राप्त आचार्यो के सानिध्य में षडाङ्गो के माध्यम से ही समझा जाता है उसी वेद को सरल रूप में समझने के लिए हमे इतिहास पुराण स्मृति आदि ग्रन्थों का सहारा लेना पड़ता है ।
एक माता यदि अपने बालक को गन्ने की गुल्ला देने के बजाय उसे मिश्री देती है तो भला इसमें माता का क्या दोष ? बालक के प्रसन्न और सुरक्षित रखने के लिए आप उस माता को क्या कहेंगे ??इसे कहने की आवश्यकता सायद मुझे भी नही है ।
ठीक जिन जिन वर्णो का वेदादि ग्रन्थों में अधिकार नही तद्वत वर्णसमुदाय के लिए इतिहासपुराणादि,स्मृति ग्रन्थ ही वह मार्ग बचता है जिस धर्म के सूक्ष्म रूप को समझा जा सके ।
ईतिहासपुराणं पञ्चमं वेदानां वेदं (छान्दोग्य उपनिषद)
स्वयं श्रुतियों में इतिहास पुराणादि को पञ्चम वेद कहा गया है क्यो की बिना इतिहास पुराणादि के वेद को समझना क्लिष्ट है
इसी बिषय को महाभारत में कहा गया है
इतिहासपुराणाभ्यां वेदं समुपबृंहयेत् (महाभारत आदिपर्व)
वेदो के अर्थ को निर्णय करने वाला इतिहास एवं पुराण के ही शब्द विचारणीय है ।
ऐसे में श्रुतिस्मृति सम्मत बिषयों को न मान कर श्रुतिस्मृति विरुद्ध पाखण्ड का प्रचार आर्यसमाज द्वारा किया गया ।
जिस प्रोपेगैंडा को ईशाई मिशनरी तथा इस्लामिक मत फैलाने में असफल रहे उसी प्रोपेगैंडा को स्वामी दयानन्द के जरिये प्रचार किया गया ताकि हिन्दूओ में वर्णाश्रमधर्म के विरुद्ध विखण्डन का बीज बोया जा सके और हिन्दुओ को खण्ड खण्ड में बांटा जाय इसी कारण इतिहासपुराण स्मृति आदि ग्रन्थों के बिषय में भ्रामक प्रचार किया गया ,
की इन सभी ग्रन्थों में मिलावट किया गया है अतः इतिहासपुराणादि बिषय अब पठन पाठन में नही रहा इससे उन लोगो के प्रति मन मे सन्देह उतपन्न हुआ जिन्हें वेदो से भिन्न इतिहासपुराणा आदि ग्रन्थों के श्रवण और अध्ययन में अधिकार था जिससे तद् तद् वर्णसमुदाय अपने स्वधर्म को समझते थे और पालन भी करते थे ऐसे में उन उन वर्णसमुदाय के मन मे सन्देह उतपन्न करना ही एक मात्र मार्ग शेष बचा था क्यो की भारतीयों को गुलाम बना कर भी ईशाई और इस्लामिक शाशनकर्ता मानसिक रूप से भारतीयों को गुलाम न बना सका भारतीय मानसिक रूप से दृढ़संकल्प वाले थे और उसके दृढ़ संकल्प को भेदन कैसे किया जाय इसके लिए उसे कोई ऐसे ब्यक्ति की तलाश थी जो इस काम को पूरा कर सके ऐसे में स्वामी दयानन्द उनके बैचारिकता को पोषण देने वाला बना ।
जिन्हें अपने स्वधर्म और अपने धर्मग्रन्थो पर अटूट श्रद्धा था ।उन उन वर्णाश्रमधर्मियो के मन में यह शंका का बीज बोया गया कि तुम्हारे ग्रन्थ जाली और प्रक्षिप्त है
और आज जनसाधारण में लगभग यह बात घर कर गई है कि इतिहासपुराणादि ग्रन्थों में मिलावट हुई है इसी बात का सहारा लेकर ईशाई मिशनरी और इस्लाम धर्म अपने मनोरथ में लगभग सफल हुए ।
आर्यसामज वेदादि धर्म के रक्षक नही अपितु भक्षक बन कर उभरा और सनातन धर्म को शनै शनै क्षरण करता गया ।