Sunday 1 August 2021

भारत आखिर माता कैसे ?



ऋषियों की तपोभूमि भारत जिसे सनातन धर्म शास्त्रों में भारत को ब्रह्मावर्त (देवताओ ) का देश कहा है जहाँ ऋषियों ने अपनी दिब्य अनुभूतियों से भारत का जो गुणगान किया है वह समस्त विश्व मे अदर्शनिय है ।


समुद्रवसने देवी प्रवतस्तन मण्डले 

विष्णुपत्नी नमस्तुभ्यम पादस्पर्श क्षमस्व मे  ||


इस श्लोक में मातृभूमि के उन सभी गुणों का उल्लेख है जो एक माता में होनी चाहिए भारत के मातृभूमि की वन्दना इससे उत्कृष्ट कुछ नही हो सकता ।

इस श्लोक के प्रथम पद में भारत माँ को #समुद्र_वसने कहा गया है इसका तात्पर्य यह है कि जहाँ भारत की भौगोलिक सिमा समुद्र से घिरी हुई निर्देश करना है वहाँ भारत माता के लज्जा शीलता को भी बतलाना है  सभी पुत्र अपनी माता को बहुमूल्य वश्त्राभूषणो से अलंकृत देख प्रसन्नता अनुभव करते है यह भी हम सभी की हार्दिक कामना होती है जननी जैसे गौरवपूर्ण पद पर प्रतिष्ठित कोई भी जननी सभी आदर्श गुणों से युक्त होना चाहिए वस्त्रों की चर्चा करते हुए इस वन्दना में लक्षण द्वरा भारत माता की शालीनता को भलीभांति प्रकट कर दिया है भारतवर्ष में दूर दूर तक फैले हुए हरे भरे वनों उपवनों को वस्त्र न कह कर समुद्र को ही भारत माँ के वस्त्र से उपमित करना रहस्य से खाली नही है ।बहुत प्राचीन समय से ही समुद्र ब्यापार का कुञ्जी रहा है आज भी जिन राष्ट्रों का समुद्र पर प्रभुत्व है वे थैलिशाह बने बैठे है इस वन्दना के समय समुद्र भारत के ही अधिकार में थे समुद्र से होने वाला ब्यापार पर उसका पूर्ण अधिकार था फलतः भारत माँ इन समुद्रों का उपयोग उतने ही प्रेम , सावधानी और चाव से करती थी जितना कि आज भी स्त्रियां अपने बहुमूल्य वस्त्रों से करती है इन वस्त्रों से ही उसकी लोकोत्तर शोभा होती थी जिसे देख कर बिदेशी ईर्ष्या करते थे और हम अभागे इस बहुमूल्य वस्त्रों का मोल न समझ पाए जिसका परिणाम हमे आज भोगना पड़ रहा है ।समुद्र वसने से सम्बोधन में भारत माता को जहाँ सम्भ्रान्त महिला की भांति लज्जा गुण से युक्त प्रकट किया गया वही राष्ट्रीय दृष्टिकोण से रत्नाकर महोदधि आदि आज भी इंडियन ओसियन या हिन्द महासागर के नाम से पुकारे जाने वाले महा समुद्र को भारत माता के सुतरां संरक्षणीय उपकरण प्रकट किया गया है आज से नौ लाख पूर्व बिदेशी रावण ने माता सीता की साड़ी को छु डाला था जिसका बदला चुकाने के लिए मानव समाज ही क्या भारत के अर्ध्य सभ्य कहे जाने वाले रीछ ,वानर,गिद्ध जैसे पशुपक्षीयों में तहलका मच गया था शतयोजन समुद्र पर पुल बांधकर सोने की लङ्का मिट्टी में मिला दी गई इसी प्रकार पांच सहस्त्र पूर्व दुर्मार्गी दुशाशन ने द्रौपदी के साड़ी को छू डाला था फलस्वरूप कुरुक्षेत्र में 36 लाख योद्धाओं के मुण्ड कट गए काश 250 वर्ष पूर्व बिदेशी लुटेरे जब भारत माँ की समुद्र रूपी साड़ी को अपने अपने स्टीमरों से रौंदते हुए इस देश मे घूंस आये थे तब यदि उसके लाडले बेटे जान पाते कि उनकी माता की लाज खतरे में है और बिदेशी उसे नग्न करना चाहते है उन्हें आज यह पराधीनता न भोगनी पड़ती 

इस श्लोक में दूसरा पद #प्रवत_स्तन_मण्डले है माता कितनी भी लज्जाशील तथा कुलीना हो किन्तु यदि वह अपने बालक का पोषण नही कर सकती यदि उसके स्तनों में बालक के पोषण के लिए पर्याप्त मात्रा में दुग्ध न हो तो उस माता का होना न होना बराबर है ।वह पुत्र प्रथम तो जीवित ही नही रह सकता कदाचित् रह भी जाय तो निर्बल ही रहेगा इस दूसरे पद में बताया गया है कि भारत माता जहां लज्जाशील है वही हिमालयादि  पर्वत रूपी उस सुन्दर स्तनों वाली है जिन स्तनों से निकलने वाली गंगा ,यमुना,गोदावरी आदि सहस्त्रो क्षीर धाराएं देश के 130 करोड़ अपने बालको का पालन पोषण कर रही है इनके बालक जीवन निर्वहन के लिए अन्य राष्ट्रों की भांति दूसरे धाय की खुराक पर निर्भर नही सभी वस्तुओं में वे स्वश्रित है अन्यान्य देशों की तुलना में  भारत ही एकमात्र ऐसा देश है जो अपने पुत्रो को भरणपोषण में समर्थ है अमेरिका में रुई कनाडा और आस्ट्रेलिया में गेहूं चाहे कितनी मात्रा में क्यो न उतपन्न हो परन्तु अन्यान्य वस्तुओं के लिए उन्हें दूसरे देशों पर निर्भर होना पड़ता है सम्पूर्ण विश्व मे भारत ही एक मात्र ऐसा देश है जहाँ 6 ऋतुएं अपनी दस्तक देती है जिसकारण  अन्न औषदि वस्त्रादि जीवनोपयोगी अन्यान्य सभी पदार्थ प्रभूत मात्र में प्रदान करता है ।अलंकारिक शब्दो मे भारत माता के हिमालय गैरिशिखर कंचनजंघा ध्वलगिरी कैलाश आदि ऊंचे स्तन रूप पर्वतों से बहने वाली गंगा यमुना गोदावरी ब्रह्मपुत्र जैसी पयस्वनी धाराएं प्रिय पुत्रो को भरणपोषण करने में समर्थ है ।

श्लोक का तीसरा पद #विष्णुपत्नी कह कर सम्बोधन किया गया है तथाकथित बुद्धिजीवी आज महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता कह कर सम्बोधन किया है जबकि यह ठीक नही 

क्यो की इस राष्ट्र ने स्वयं महात्मा गांधी को भी जना है अतः गांधी को राष्ट्रपिता कहना निराधार ही है । 

विष्णुपत्नी अर्थात इस भारतभूमि को लक्ष्मी की संज्ञा से बिभूषित किया गया है पश्चिम के नास्तिक देशों में चूंकि अनीश्वरवादी की।प्रधानता होने के कारण कुकर शूकर आदि पशुओ की भांति माता मात्र का परिचय रखते है संसार मे समस्त मनुष्य का व्यवहार परिचय पिता के नाम से ही होता हैं स्कूल कचहरी नौकरी जन्मकालीन उल्लेख से लेकर मृत्युकालीन खाते पर्यंत में पिता का ही नाम अनिवार्यरूप से लिखा जाता है पिता के बिषय में अनजान होना बालक की मूर्खता का द्योतक तो है  ही किन्तु माँ के चरित्र में अपरिमार्जन लांछन है बिदेशी छाया से तैयार हुई हमारी काल्पनिक मातृवन्दना में भी न केवल भारत ही नही अपितु समस्त विश्व के पिता ईश्वर का कोई ध्यान नही रखा गया इसलिए वन्दे मातरम् का यह गान नीतान्त अधूरा है इसके बिपरीत उपयुक्त श्लोक में विष्णुपत्नी कह कर जहां।भारतमाता के सौभाग्यवती बनाकर वन्दना की गई है वहां आध्यात्मिक दृष्टि से हमारा ईश्वर के साथ कितना घनिष्ट सम्बन्ध है यह भी भलीभांति दर्शाया गया है इसके अतिरिक्त वन्दना पूर्वक भूमि स्पर्श करते हुए हम एक सत्पुत्र  की भांति अपने हृदय में विद्यमान मातृप्रेम को प्रकट कर के अपने कर्तब्य का पालनभी करते है इसलिए प्रत्येक भारतीय को जो भारतभूमि को अपने हृदय से मातृभूमि समझता है उसे अवश्य ही वन्दना करनी।चाहिए ।


शैलेन्द्र सिंह