Tuesday 24 March 2015

ऋ शब्द की उत्पति और अर्थ ।

क्रिया धातु 'ऋ' से ऋत शब्द की उत्पत्ति है। ऋ का अर्थ है उदात्त अर्थात ऊर्ध्व गति। 'त' जुड़ने के साथ ही इसमें स्थैतिक भाव आ जाता है - सुसम्बद्ध क्रमिक गति। प्रकृति की चक्रीय गति ऐसी ही है और इसी के साथ जुड़ कर जीने में उत्थान है। इसी भाव के साथ वेदों में विराट प्राकृतिक योजना को ऋत कहा गया। क्रमिक होने के कारण वर्ष भर में होने वाले जलवायु परिवर्तन वर्ष दर वर्ष स्थैतिक हैं। प्रभाव में समान वर्ष के कालखंडों की सर्वनिष्ठ संज्ञा हुई 'ऋतु' । उनका कारक विष्णु अर्थात धरा को तीन पगों से मापने वाला वामन 'ऋत का हिरण्यगर्भ' हुआ और प्रजा का पालक पति प्रथम व्यंजन 'क' कहलाया।

आश्चर्य नहीं कि हर चन्द्र महीने रजस्वला होती स्त्री 'ऋतुमती' कहलायी जिसका सम्बन्ध सृजन की नियत व्यवस्था से होने के कारण यह अनुशासन दिया गया - ऋतुदान अर्थात गर्भधारण को तैयार स्त्री द्वारा संयोग की माँग का निरादर 'अधर्म' है। इसी से आगे बढ़ कर गृह्स्थों के लिये धर्म व्यवस्था बनी - केवल ऋतुस्नान के पश्चात संतानोत्पत्ति हेतु युगनद्ध होने वाले दम्पति ब्रह्मचारियों के तुल्य होते हैं।

आयुर्वेद का ऋतु अनुसार आहार विहार हो या ग्रामीण उक्तियाँ - चइते चना, बइसाखे बेल ..., सबमें ऋत अनुकूलन द्वारा जीवन को सुखी और परिवेश को गतिशील बनाये रखने का भाव ही छिपा हुआ है। ऋत को समान धर्मी अंग्रेजी शब्द Rhythm से समझा जा सकता है - लय। निश्चित योजना और क्रम की ध्वनि जो ग्राह्य भी हो, संगीत का सृजन करती है। लयबद्ध गायन विराट ऋत से अनुकूलन है। देवताओं के आच्छादन 'छन्द' की वार्णिक और मात्रिक सुव्यवस्था भी ऋतपथ है।
अंग्रेजी ritual भी इसी ऋत से आ रहा है। धार्मिक कर्मकांडों में भी एक सुनिश्चित क्रम और लय द्वारा इसी ऋत का अनुसरण किया जाता है। 'रीति रिवाज' यहीं से आते हैं। लैटिन ritus परम्परा से जुड़ता है। परम्परा है क्या - एक निश्चित विधि से बारम्बार किये काम की परिपाटी जो कि जनमानस में पैठ कर घर बना लेती है।

कभी सोचा कि 'कर्मकांड' में 'कर्म' शब्द क्यों है? कर्म जो करणीय है वह ऋत का अनुकरण है। कर्मकांडों के दौरान ऋत व्यवहार को act किया जाता है। Rit-ual और Act-ual का भेद तो समझ में आ गया कि नहीं? smile emoticon

साभार- गिरिजेश राव ब्लॉग

Sunday 22 March 2015

वेद और पुराण

इतिहासस्य स वै सपुराणस्य च गाथानां च नाराशासिनां स पिर्य धाम भवति य एवम् वेद [[ अथर्वेद १५/६/१/१२]]

अर्थ ---: इतिहास पुराण और गाथा नारांशंसी के पिर्य धाम होते है

मध्याहुतयो ह वा एतादेवानांयदनुशासनानी विद्या वाकोवाक्यमितिहासः पुराणं गाथा नराशंस्य: य एवम् विद्वाननुशासनानि विद्या वकोवाक्यमितिहास पुराणं गाथा नाराशंसिरित्यहरह: स्वाध्यायमधीते [[ शतपथ ११/३/८/८]]

अर्थ ----: शास्त्र देवताओ के मध्य आहुति है देव विद्या ब्रह्म विद्या आदिक विद्याएँ उत्तर प्रत्यूतर रूप ग्रन्थ इतिहास पुराण गाथा और नाराशंसी ये शास्त्र है जो इनका नित्यप्रति स्वध्याय करता है वह मानो देवताओ के लिए आहुति देता है

एवमिमे सर्वे वेदा निर्मितास्सकल्पा सरहस्या: सब्राह्मणा सोपनिषत्का: सेतिहासा: सांव्यख्याता:सपुराणा:सस्वरा:ससंस्काराः सनिरुक्ता: सानुशासना सानुमार्जना: सवाकोवाक्या [[गोपथब्राह्मण पूर्वभाग ,प्रपाठक 2]]

अर्थ ---: कल्प रहस्य ब्राह्मण उपनिषद इतिहास पुराण अनवाख्यात स्वर संस्कार निरुक्त अनुशासन और वाकोवाक्य समस्त वेद परमेश्वर से निर्मित है ||

ऋचः सामानि छन्दांसि पुराणं यजुषा सह |
उच्छिष्टाज् जज्ञिरे सर्वे दिवि देवा दिविश्रितः |[[अथर्वेद ११/१/२४]]

अर्थ---:ऋग् शाम छन्द तथा यजु के साथ पुराण और द्युलोक में रहने वाले दिविश्रित समस्त देवगण उत्पन्न हुवे ||

अरेऽस्य महतो'भूत'स्य नि'श्वसितम्एत'द्य'दृग्वेदो' यजुर्वेद' सामवेदो'ऽथर्वाङ्गिर' सइतिहास'पुराण'विद्या' उपनिष'दः श्लो'काः सू'त्राण्यनुव्याख्या' नानिव्याख्या' ननिदत्त'म्हुत' माशित' पायित' मय'चलोक'प'रश्चलोक' स'र्वाणि च भूता'न्यस्यै' वै'ता'नि स'र्वाणि नि'श्वसितानि [[ बृह 0 ऊ 0 ४/५/११]]

अर्थ ---: उस परब्रह्म नारायण के निश्वास से ऋग् वेद यजुर्वेद सामवेद अथर्वेद इतिहास पुराण विद्या उपनिषद श्लोक सूत्र व्यख्यान यज्ञ हवन किया हुआ खिलाया हुआ पिलाया हुआ यह लोक पर लोक समस्त भुत है ||

पुराणन्यायमीमांसा धर्मशास्त्राङ्गमिश्रिताः ।
वेदाः स्थानानि विद्यानां धर्मस्य च चतुर्दश । [[याज्ञ 0 स्मृति 0 १.३ ]]

अर्थ ---: पुराण न्याय मीमांशा धर्म शास्त्र और छः अङ्गों सहित चार वेद ये चौदह विद्या धर्म के स्थान है ।

इतिहासपुराणः पञ्चमो वेदानां वेद [[ छान्दोग्य ७/१/४ ]]

अर्थ ---: इतिहास पुराण ही पांचवा वेद है
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