Thursday 11 September 2014

माता सत्यवती ।

इदं मिथ्या परिस्कन्नं रेतो मे न भवेदिति।
ऋतुश्च तस्याः पत्न्या मे न मोघः स्यादिति प्रभुः।।
संचिन्त्यैवं तदा राजा विचार्य च पुनःपुनः।
अमोघत्वं च विज्ञाय रेतसो राजसत्तमः।।
शुक्रप्रस्थापने कालं महिष्या प्रसमीक्ष्य वै।
अभिमन्त्र्याथ तच्छुक्रमारात्तिष्ठन्तमाशुगम्।।
सूक्ष्मधर्मार्थतत्त्वज्ञो गत्वा श्येनं ततोऽब्रवीत्।
मत्प्रियार्थमिदं सौम्य शुक्रं मम गृहं नय।।
गिरिकायाः प्रयच्छाशु तस्या ह्यार्तवमद्य वै।
गृहीत्वा तत्तदा श्येनस्तूर्णमुत्पत्य वेगवान्।।
जवं परममास्थाय प्रदुद्राव विहंगमः।
तमपश्यदथायान्तं श्येनं श्येनस्तथाऽपरः।।
अभ्यद्रवच्च तं सद्यो दृष्ट्वैवामिषशङ्कया।
तुण्डयुद्धमथाकाशे तावुभौ संप्रचक्रतुः।।
युद्ध्यतोरपतद्रेतस्तच्चापि यमुनाम्भसि।
तत्राद्रिकेति विख्याता ब्रह्मशापाद्वराप्सरा।।
मीनभावमनुप्राप्ता बभूव यमुनाचरी।
श्येनपादपरिभ्रष्टं तद्वीर्यमथ वासवम्।।
जग्राह तरसोपेत्य साऽद्रिका मत्स्यरूपिणी।
कदाचिदपि मत्सीं तां बबन्धुर्मत्स्यजीविनः।
मासे च दशमे प्राप्ते तदा भरतसत्तम।।
उज्जह्रुरुदरात्तस्याः स्त्रीं पुमांसं च मानुषौ।।
आश्चर्यभूतं तद्गत्वा राज्ञेऽथ प्रत्यवेदयन्।
काये मत्स्या इमौ राजन्संभूतौ मानुषाविति।।
तयोः पुमांसं जग्राह राजोपरिचरस्तदा।
स मत्स्यो नाम राजासीद्धार्मिकः सत्यसङ्गरः।।
साऽप्सरा मुक्तशापा च क्षणेन समपद्यत।
या पुरोक्ता भगवता तिर्यग्योनिगता शुभा।।
मानुषौ जनयित्वा त्वं शापमोक्षमवाप्स्यसि।
ततः साजनयित्वा तौ विशस्ता मत्स्यघातिभिः।।
संत्यज्य मत्स्यरूपं सा दिव्यं रूपमवाप्य च।
सिद्धर्षिचारणपथं जगामाथ वराप्सराः।।
सा कन्या दुहिता तस्या मत्स्या मत्स्यसगन्धिनी।
राज्ञा दत्ता च दाशाय कन्येयं ते भवत्विति।।
रूपसत्वसमायुक्ता सर्वैः समुदिता गुणैः।
सा तु सत्यवती नाम मत्स्यघात्यभिसंश्रयात्।। [[महाभारत १/६३/५१-से ६८प्रयन्त ]]

भावार्थ -----उन्होंने बिचार किया की मेरा ये स्खलित बीर्य ब्यर्थ न हो साथ ही मेरी पत्नी गिरिका का ऋतुकाल भी ब्यर्थ न जाए इस प्रकार बारम्बार बिचार कर के राजाओं में श्रेष्ठ वसु नु सबीर्य को अमोघ बनाने का ही निश्चय की तदन्तर रानी के पास अपना बीर्य भेजने का उपयुक्त समय को देख उन्होंने ने उस बीर्य को पुत्रउत्पति कारक मंत्रो द्वारा अभिमन्त्रित किया ।राजा वसु धर्म और अर्थ के सूक्ष्मतत्व को जानने वाले थे ।उन्होंने अपने समीप बैठे हुए श्येन पक्षी [[ बाज ]] के पास जा कर कहा हे सौम्य तुम मेरे पिर्य करने के लिए मेरा यह बीर्य मेरा घर लेकर जाओ और महारानी गिरिका को सिघ्र दे आओ क्यों की आज ही उनका ऋतुकाल है बाज वह बीर्य लेकर बड़े वेग से लेकर तुरंत वहां लेकर उड़ गया ।वह आकाशचारी पक्षी सर्वोत्तम वेग का आश्रय ले उड़ा जा रहा था इतने में ही एक दुसरे बाज ने उसे आते हुए देखा उस बाज ने मांस होने की आशंका से उस बाज पर टूट पड़ा फिर वे दोनों पक्षी आकाश में ही एक दुसरे से युद्ध करने लगा इतने में ही वह बीर्य यमुना जी के जल में गिर पड़ा अद्रिका नाम से बिख्यात एक सुन्दरी अप्सरा ब्रह्मा जी के श्राप से मछली हो कर वही जमुना जी के जल में रहती थी बाज के पंजे से छुट कर गिरे हुए वसुसम्बन्धी उस बीर्य को मतस्य रूप धारिणी अद्रिका ने वेग पूर्वक आकर उस बीर्य को निगल लिया ।तत्पश्चात दसवां मॉस आने पर मतस्य जीवी मल्लाह ने उस मछली को जाल में बाँध लिया और उसके उदर को चिर कर एक कन्या और एक पुरुष निकाला यह आश्चर्य जनक घटना देख कर मछेरो ने राजा के पास जाकर  निवेदन किया  -- महाराज मछली के पेट से ये दो मनुष्य बालक उत्पन्न हुए ।मछेरो की बात सुन कर राजा उपरिचर ने उस समय उन दो बालको में से जो पुत्र था उसे स्वय ग्रहण किया इधर क्षण भर में मत्यस्य रुपी अप्सरा अद्रिका ब्रह्मा के शाप से मुक्त हो गया ।उन जुड़वी संतानों में जो कन्या थी मछली की पुत्री होने से मछली की गंध उस कन्या के सरीर से आती थी अतः राजा ने उस कन्या को मल्लाह के हाथो में सौप दिया ।और कह दिया की यह तुम्हारी पुत्री हो कर रहे ।वह रूप और सत्व गुण संपन्न थी इस लिए उनका नाम सत्यवती पड़ा ।मछेरो के आश्रय स्थान में रहने के कारण पवित्र मुस्कान वाली मतस्य गन्धा के नाम से बिख्यात हुई ।
अतः मातुल पक्ष से देव योनि और पितृ पक्ष से क्षत्रिय योनि की हुई ।
परन्तु 

Saturday 6 September 2014

ब्रह्मणः

एकदेहोद्भवा वर्णाश्चत्वारोऽपि वराङ्गने।
पृथग्धर्माः पृथक्शौचास्तेषां तु ब्राह्मणो वरः।।[[ महाभारत -- आदिपर्व ८१/२०]]
एक ही परमेश्वर के शरीर से चारो वर्णों की उत्पति हुई है परन्तु सबके धर्म और शौचाचार अलग अलग है ब्राह्मण उन सब वर्णों में श्रेष्ठ है ||

तस्मात् प्राणभृतः सर्वान् न हिंस्याद् ब्राह्मणः क्वंचित्
ब्राह्मणः सौम्य एवेह भवतीति परा श्रुतिः ।।[[ महाभारत आदिपर्व १/ ११/१४]]
अर्थ----:  ब्राह्मण को समस्त  प्राणियों में से किसी की कभी भी और कही भी हिन्सा नही करनी चाहिए ब्राह्मण इस लोक में सदा सौम्य स्वभाव का ही होता है ऐसा श्रुति वचन है ||
न च ते ब्राह्मणं हन्तुं कार्या बुद्धिः कथंचन।
अवध्यः सर्वभूतानां ब्राह्मणो ह्यनलोपमः।।
अग्निरर्को विषं शस्त्रं विप्रो भवति कोपितः।
गुरुर्हि सर्वभूतानां ब्राह्मणः परिकीर्तितः।।
एवमादिस्वरूपैस्तु सतां वै ब्राह्मणो मतः।
स ते तात न हन्तव्यः संक्रुद्धेनापि सर्वथा।।
ब्राह्मणानामभिद्रोहो न कर्तव्यः कथंचन।
न ह्येवमग्निर्नादित्यो भस्म कुर्यात्तथानघ।।
यथा कुर्यादभिक्रुद्धो ब्राह्मणः संशितव्रतः।
तदेतैर्विविधैर्लिङ्गैस्त्वं विद्यास्तं द्विजोत्तमम्।।
भूतानामग्रभूविप्रो वर्णश्रेष्ठ: पिता गुरु ।[[ महाभारत १/२८/३'४'५'६'७]]
अर्थ ----: किसी भी प्रकार ब्राह्मण को मारने का बिचार नही करना चाहिए क्योकि ब्राह्मण समस्त प्राणियो के लिए अबध्य है वह अग्नि के समान दाहक होता है ||
कुपित किया हुआ ब्राह्मण अग्नि सूर्य विष् एवं शस्त्र के सामान भयंकर होता है ब्राह्मण को समस्त प्राणियों का गुरु कहा गया है ||
इन्ही रूपो में सत् पुरुष के लिए ब्राह्मण आदरणीय माना गया है तुम्हे क्रोध भी आ जाए तो ब्राह्मण हत्या सम्बन्धी बिषयों से दूर रहना चाहिए ||
ब्राह्मण के साथ किसी प्रकार का द्रोह नही करना चाहिए अनध कठोर व्रत का पालन करने वाला ब्राह्मण क्रोध में आने पर अपराधी को जिस प्रकार जला कर भस्म कर देता है इस प्रकार अग्नि और सूर्य भी नही जला सकता ब्राह्मण समस्त प्राणियो का अग्रज सब वर्णों में श्रेष्ठ पिता और गुरुहै ||
विप्रसत्वया  न हन्तव्य: संकुद्वेनापी सर्वदा । [[महाभारत १/२८/११]]
अर्थ ----: क्रोध होने पर भी ब्रह्म हत्या नही करनी चाहिए ||
ब्राह्मणा ही सदा रक्ष्याः सापराधापी नित्यदा [[ महाभारत १/१८९/३६]]
ब्राह्मण अपराधी भी हो तो सदैव उनकी रक्षा करनी चाहिए ||
ब्राह्मणानां परिक्लेशो दैवतान्यपि सादयेत् [[ महाभारत वनपर्व  २/४]]
ब्राह्मणों को दिया हुआ क्लेस तो देवताओ को भी बिनाश कर सकता है ||

Friday 5 September 2014

त्रेता युग में नारायण विग्रह की पूजा का प्रमाण

अमोघं बत मे क्षान्तं पुरुषे पुष्करेक्षणे । येयमिक्ष्वाकुराज्यश्रीः पुत्र त्वां संश्रयिष्यति ॥२-४-४१॥[[बा0 रा0]]

भावार्थ -----
मैंने इतने दिनों तक पुराण पुरुष कमलनयन नारायण के व्रत उपवास किये वो सब आज सफल हुए जो यह इक्ष्वाकु वंश की राज्यश्री अब तुमको प्राप्त होने वाली है ।

तत्र तां प्रवणामेव मातरं क्षौमवासिनीम् । वाग्यतां देवतागारे ददर्शायाचतीं श्रियम् ॥२-४-३०॥[[बा0रा0]]

भावार्थ----
वहां जा कर देखा की माता कौशल्या रेशमी वस्त्र पहने हुए देव मंदिर में बैठी हुई है मौन व्रत धारण कि हुई श्री राम चन्द्र के अभ्युदय के लिए प्रार्थना कर रही थी ।

कौसल्या अपि तदा देवी रात्रिम् स्थित्वा समाहिता ।
प्रभाते तु अकरोत् पूजाम् विष्णोह् पुत्र हित एषिणी ॥२-२०-१४॥[[बा0रा0]]

देवकार्यनिमित्तम् च तत्रापश्यत् समुद्यतम्।
दध्यक्षतम् घृतम् चैव मोदकान् हविषस्तदा ॥२-२०-१७॥
लाजान् माल्यानि शुक्लानि पायसम् कृसरम् तथा ।
समिधः पूर्णकुम्भाम्श्छ ददर्श रघुनम्दनः ॥२-२०-१८॥


भावार्थ --: उस समय महारानी कौशल्या जी रात्रि भर नियमपूर्वक रह पुत्र की हित कामना से विष्णु भगवन की पूजा कर रही थी ।
श्री राम चन्द्र जी ने यह देखा की देवताओं की पूजा के लिए दही चावल घी लड्डू खीर तैयार है ।
और वहां लावा सफ़ेद पुष्पों की माला तिल चावल खिचड़ी खीर समिधा और जल से भरे कलस रखे है ।