Thursday 17 February 2022

दयानंद सरस्वती मुखमर्दन

 #स्वामी_दयानंद_मुख_मर्दन


स्वामी दयानन्द सरस्वती ने सत्यार्थ प्रकाश के माध्यम से समाज मे ब्यभिचार फैलाने की कुचेष्टा की ताकि सनातन धर्म मे वर्णसंकरता को आसानी से फैलाया जा सके नियोग के माध्यम से , जिस भारत भूमि में सती सावित्री ,माता अनुसूया ,माता सीता के पवित्रता का गुणगान आज भी घर घर गाय जाता रहा है उसी भारत भूमि में बालिकाओं और स्त्रियों के चरित्रहनन का पाठ पढ़ाया जा रहा है सत्यार्थ प्रकाश के माध्यम से  |

स्वामी दयानन्द सरस्वती जानते थे कि हिन्दुओ में वेदो के प्रति अटूट श्रद्धा है हिन्दुओ की आस्था जितनी ईश्वर में है उससे भी कहीं ज्यादा आस्था वेदो के प्रति है इस लिए नियोग को सिद्ध करने के लिए वैदिक के दिब्य ऋचाओ को अपने कुबुद्धि द्वरा अनर्थ कर लोगो के मध्य  प्रचारित प्रसारित   किया ।

भले ही मन्त्रो के वास्तविक अर्थ को विकृत कर लोगो के समक्ष क्यो न परोसा जाय ,स्वामी दयानन्द सरस्वती ने ऋग्वेद के १० वे मण्डल के १० वां सूक्त के मन्त्र को आधार बनाया ,और मन्त्र को विकृत रूप से भाष्य कर प्रचारित किया ||  ताकि सामाजिक रूप से नियोग को मान्यता प्राप्त हो और कर्मणा जातिवाद को बढ़ावा मिले । स्वामी दयानन्द सरस्वती ने जिस मन्त्र को प्रमाण के रूप में प्रस्तुत किया वह मन्त्र भी अधूरा है और अपने कथनों को सिद्ध कर पाए इसके लिए दयानन्द ने मन्त्रो को कांटछांट कर उसकी व्याख्या भी कर दी जो यह है 


अन्यमि॑च्छस्व सुभगे॒ पतिं॒ मत् ॥ (ऋग्वेद १०/१०) 


दयानन्द भाष्यार्थ :-जब पति सन्तानोत्पत्ति में असमर्थ होवे तब अपनी स्त्री को आज्ञा दे हे सुभगे सौभाग्य की इच्छा करने हारी स्त्री तू मुझसे अन्य दूसरे पति की इच्छा कर क्यो की  अब मुझसे सन्तानोत्पत्ति न हो सकेगी तब स्त्री दूसरे से सम्बन्ध बना कर सन्तानोतप्ति करे ।

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अब आते है मूल बिषय पर :-- स्वामी दयानन्द सरस्वती ने जिस मन्त्र को कांट छांट कर व्याख्या की वह मन्त्र पूरा का पूरा यहाँ दिखलाया जा रहा है आप सब भी अवलोकन करें 


आ घा॒ ता ग॑च्छा॒नुत्त॑रा यु॒गानि॒ यत्र॑ जा॒मयः॑ कृ॒णव॒न्नजा॑मि ।


उप॑ बर्बृहि वृष॒भाय॑ बा॒हुम॒न्यमि॑च्छस्व सुभगे॒ पतिं॒ मत् ॥(ऋग्वेद १०/१०/१०)


भाष्यार्थ :-- यम अपने बहन यमी से कहता है 

(ता उत्तरा युगानी घा आगच्छान्) वह युग भविष्य में आ जाएंगे  (यत्र) जिसमे (जामयः) भगिनियां (अजामी कृणवन् ) बंधुत्व के बिहीन भ्राता को पति बनावेगी इसलिए हे (सुभगे) सुन्दरी 

(मत् अन्यं पतिं इच्छस्व) मुझसे भिन्न अन्य सुयोग्य वर को पति बनाने की इच्छा कर (बृषभाय बाहुं उप बर्बृहि ) बीर्य सेवन करने में समर्थ बाहु का आश्रय ले  ।


स्वामी दयानन्द ने भाई बहन के मध्य हुए सम्वाद को  पति पत्नी का सम्वाद बना डाला और लोगो के मध्य भ्रामकता का प्रचार किया की ( मैं सन्तानोतप्ति करने में असमर्थ हूँ इस लिए सन्तानोपत्ति के लिए तू किसी अन्य पुरुष से सम्बन्ध बना)


  किसी को यहाँ शंका हो सकती है कि यह भाई बहन का सम्वाद कैसे ??

किसी भी बिषय पर व्याख्या करने से पहले पूर्व में आये हुए प्रसंग का बिचार कर पश्चात आये हुए बिषयों की व्याख्या होती है दसवे मण्डल के पूरा का पूरा दसवां सूक्त सहोदरता की पुष्टि करता है ।  ऋग्वेद के दसवां मण्डल यम यमी सूक्त के नाम से जाना जाता है  यम यमी दोनों सहोदर (भाई बहन)  है यमी अपने भाई यम के सामने विवाह का प्रस्ताव रखता है  यम अपने बहन यमी को यह कहते हुए प्रस्ताव को ठुकरा देता है  की जो भ्राता अपने भगिनी को पत्नी रूप में स्वीकार करता है  समाज मे लोग उसे पापी कहते है अतः तू  मुझसे भिन्न किसी दूसरे सुयोग्य वीर्यवान पुरुष को पति बना  ऐसा दिब्य सन्देश को स्वामी दयानन्द ने विकृत कर भाई बहन के मध्य हुए सम्वाद को पतिपत्नी बना डाला ।

वेदो का सन्देश दिब्य अलौकिक अपौरुषेय है वेदो का एक एक शब्द दिब्य ज्ञान को प्रकाशित करने वाला जिसकी समानता विश्व का कोई भी पौरुषेय (मानवी कृत) पुस्तक समानता नही कर सकता उसी दिब्य सन्देशो को दयानन्द सरस्वती ने विकृत कर सनातन धर्म ग्रन्थों पर घात किया है ।

स्मृतिकारों ने ठीक ही कहा है कि वेद अल्पश्रुत से डरता है कि कहीं वे मेरी हत्या न कर दे ।

केवल इतना ही नही दयानन्द सरस्वती ने इसी चतुर्थ समुल्लास में स्त्रियों को 11 -11 पुरुषों से सम्बन्ध  बनाने को कहा है जैसे इस्लाम मे हलाला प्रथा है ठीक उसी प्रथा के चलन का वकालत दयानन्द सरस्वती ने किया है अपने बिचारो के माध्यम से और लोक में ढोल पीटा जाता है कि दयानन्द सरस्वती ने वैदिक धर्म की रक्षा की , यह सब कितना सही है आप सभी विद्वतजन बिचार करें  ||

सनातन धर्म अपने आप मे पवित्रता का द्योतक है इसमें अपवित्र बिचारो का कोई स्थान नही ।

शैलेन्द्र सिंह


Wednesday 16 February 2022

गुरु लक्षण और स्कूली शिक्षक भाग --3



तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ।(गीता)


श्रुतिप्रामाण्यतो विद्वान्स्वधर्मे निविशेत वै । 

श्रुतिस्मृत्युदितं धर्मं अनुतिष्ठन्हि मानवः ।। (मनुस्मृति)


कार्याकार्यव्यवस्था में शास्त्र ही प्रमाण है जन्म से लेकर मृत्यु पर्यंत जितने भी संस्कार है उनमें शास्त्रो का स्पष्ट घन्टाघोष है की कैसे उसे आचरण में लाया जाए फिर वेदविद्या आदि तथा आचार्यो के प्रति शास्त्र मौन कैसे रहे ?

लौकिक तथा पारलौकिक कल्याण हेतु मोक्षरूपी विद्या प्रदान करने वाले गुरु अथवा आचार्य का लक्षण क्या है और कौन इसका अधिकारी है शाश्त्रो ने बृहदरूप से इस पर प्रकाश डाला है 


एतद्‍देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मन:।

  स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन पृथिव्यां सर्वमानवा:॥(मनुस्मृति)

जो अग्रजन्मा है उसी से पृथ्वी के सभी मानव अपना आचार बिचार सीखें ।


ब्राह्मण सभी वर्णो में।अग्रजन्मा है 

ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद् (ऋग्वेद)

उत्तमाङ्गोद्भवाज्ज्येष्ठ्याद्ब्रह्मणश्चैव धारणात् ।

सर्वस्यैवास्य सर्गस्य धर्मतो ब्राह्मणः प्रभुः (मनुस्मृति १.९३ )


वेदादि शास्त्रो में ब्राह्मण को मुख कहा गया है !

वाक् और बुद्धि  ही अंग प्रत्यंग से लेकर साम्राज्य तक का शाशन करता है यह दृष्टान्त जगत में देखा जाता है जिस कारण किस वर्ण का क्या आचरण है यह ब्राह्मण से ही जानना चाहिए क्यो ?

क्योकि 

वर्णानां ब्राह्मणः प्रभुः (मनुस्मृति १०.३ )

उत्पत्तिरेव विप्रस्य मूर्तिर्धर्मस्य शाश्वती ।(मनुस्मृति )

ब्राह्मणो जायमानो हि पृथिव्यां अधिजायते ।(मनुस्मृति)

पृथग्धर्माः पृथक्शौचास्तेषां तु ब्राह्मणो वरः।।(महाभारत -- आदिपर्व ८१/२०)


ब्राह्मण स्वयं धर्म स्वरूप है । 

जिस कारण श्रुतिस्मृति आदि ग्रन्थों में ब्राह्मण के सानिध्य में ही  अध्ययन अध्यापन और आचार बिचार की शिक्षा ग्रहण करने का आदेश दिया गया है 


गुरुर्हि सर्वभूतानां ब्राह्मणः(महाभारत आदिपर्व १/२८/३५)

अधीयीरंस्त्रयो वर्णाः स्वकर्मस्था द्विजातयः ।

प्रब्रूयाद्ब्राह्मणस्त्वेषां नेतराविति निश्चयः । । 

सर्वेषां ब्राह्मणो विद्याद्वृत्त्युपायान्यथाविधि ।

प्रब्रूयादितरेभ्यश्च स्वयं चैव तथा भवेत् । । (मनुस्मृति १०/१-२)

ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् (श्रीमद्भागवतगीता १८- ४२ )

वृत्त्यर्थं याजयेदज्वान्यानन्यानध्यापयेत् तथा ।

कुर्यात् प्रतिग्रहादानं गुर्वर्थं न्यायतो द्रिजः (विष्णु पुराण ३/२३ )

सास्त्रज्ञा नित्य है और सास्त्रज्ञा मानने वाला ही ईश्वर का आराधना करता है सास्त्र द्रोही नही विष्णुपुराण का उद्घोष है अब उसे न मान मनमाना आचरण को ही धर्म मान ले तो उससे बड़ी और मूर्खता क्या ।


वर्णास्वमेषु ये धर्माः शास्त्रोक्ता नृपसत्तम ।

तेषु तिष्ठन् नरो विष्णुमाराधयति नान्यथा ।(विष्णु पुराण ३/ १९ )

कहाँ श्रुतिस्मृति प्रोक्त वर्णाश्रमधर्म  आचरित गुरु तो कहाँ  भौतिक शिक्षा के बल पर प्राप्त किया हुआ संवैधानिक पद  अतः यह नीतान्त भ्रामक प्रचार है कि स्कूली शिक्षक और गुरु समतुल्य है 

शैलेन्द्र सिंह

Monday 14 February 2022

भीमराव अंबेडकर एक भ्रामक तथ्य












भीमराव अम्बेडकर का जन्म एक सम्भ्रान्त परिवार में हुआ था भीमराव अम्बेडकर के दादा 

मालो जी सकपाल ईष्ट इण्डिया के अंतर्गत मुम्बई सेना में हवलदार पद पर विभूषित थे 

मालोजी सकपाल के दो संतान हुए जिनमे एक पुत्र  रामजी सकपाल और दूसरा पुत्री के रूप में मीरा बाई 

मालो जी सकपाल का पुत्र राम जी सकपाल सैनिक स्कूल के प्रधानाचार्य नियुक्त होते हुए सूबेदार मेजर पद पर विभूषित थे ।

ऐसे सम्भ्रान्त परिवार के बिषय में यह नैरेटिव गढ़ा जाता है कि भीमराव अम्बेडकर सहित उनके परिवार का शोषण हुआ ।

जिनके कुल के सदस्य सैनिक के महत्वपूर्ण पदों पर विभूषित उस कुल के शोषण तो क्या ऊंची आवाज में कोई बात तक न कर सके फिर ऐसे कैसे नैरेटिव गढ़ा गया कि उनके कुल का शोषण हुआ ??


हमने यहाँ भीमराव अम्बेडकर के बाल्यकाल से लेकर बृद्धावस्था तक के फोटो को शेयर भी किया है एक भी ऐसा फोटो नही जहाँ भीमराव अम्बेडकर सूटबूट में न हो ।

भीमराव अम्बेडकर एक सम्भ्रान्त परिवार से था उनके रहन सहन  वेशभूषा तथा उनका पठनपाठन भी विश्व के धनी विद्यालयों में हुई थी यह सर्वविदित है ।

उनकी जीवनी पढ़ने से ज्ञात होता है कि वे न तो शोषित ही थे और न ही अछूत ।

यदि शोषित होते तो इतने सम्भ्रान्त कैसे होते ?

और यदि उन्हें अछूत माना जाता तो उनकी शिक्षा दीक्षा एक ब्राह्मण के सानिध्य में कैसे हुई ??

फिर ऐसा क्या हुआ कि भीमराव अम्बेडकर हिन्दू धर्म के प्रति विषवमन किया ??

क्यो भारतीयों के जनमानस में यह जहर घोला की शुद्रो को शोषित किया जाता है उसे अछूत माना जाता है ??


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भगवन् के चरण कहे जाने वाले शुद्र अछूत कैसे हो सकते है ??

सनातन धर्म मे तो चरणों की महत्ता ऐसी की , की भगवद् विग्रह में चरणों की ही पूजा की जाती है मुखमण्डल की नही ।

 पूरा का पूरा शरीर इन्ही चरणों के स्तम्भ पर खड़ा होता है फिर उन्हें अछूत कैसे माना जाता ??

यदि ऐसा होता तो विदुर शुद्र होते हुए भी हस्तिनापुर जैसे महान साम्राज्य का महामन्त्री कैसे बना ?? 

इक्ष्वाकु वंश के राजा हरिश्चंद्र एक चाण्डाल के यहाँ नौकरी कैसे किया यदि अछूत माना जाता तो यह सम्भव ही न होता और यदि शोषित होता तो इक्ष्वाकु वंश के राजा को खरीदने का उस चाण्डाल के पास धन नही होता ।

अस्तु सनातन धर्म वर्णव्यवस्था शोषक नही पोषक है समस्त वर्णो को अपने अपने क्षेत्र में एकाधिकार प्राप्त था कोई भी वर्ण दूसरे वर्ण के व्यवस्था का अतिक्रमण नही करता था ।

तभी यह भारत भूमि आर्थिक रूप से सबसे सम्पन्न था और यवन ,अरब,तुर्क,ब्रिटिश भारत पर डाका डालने आये ।

प्रश्न तो बहुतेरे है ।

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दर्शल ऐसा इसलिए हुआ कि जिस आयु में  युवक अपने संस्कृतियो और संस्कारों के प्रति जिज्ञाशू होते है वे उसी आयु में  ईसाई बहुल देश अमेरिका चले गए तब उनकी उम्र महज 22 वर्ष की थी यही वह कालखण्ड था जब भारत मे क्राइस्ट मिशनरियों द्वरा सनातन संस्कृतियो पर प्रहार किया जा रहा था यहाँ के संस्कारों के प्रति लोगो मे विषवमन किया जारहा था और धर्मांतरण की होड़ लगी थी  जब भारत देश मे यह दृश्य चारो ओर था फिर ईसाई बहुल देशों में रह कर भीमराव अम्बेडकर के बिचारो में बदलाव कैसे न हो ???

अंग्रेजो ने जातिवाद का बीज इन्ही के माध्यम से बोया और भारत मे जातिवाद का फसल लहलहाने लगा ।

जिसका लाभ सभी मत पन्थो मजहबो को मिला जिसे जहां भी मौका मिला वे फसल काट (धर्मांतरण ) कर ले गए ।

और आज भी उसी फसल का बीज इस भारत भूमि में पसरा पड़ा है जब जिन्हें मौका मिलता है चुन लेते है ।

शैलेन्द्र सिंह

वैदिक हिंसा हिंसा नही

 त्रैगुण्यविषया_वेदा (गीता) 

 वेदे सर्वज्ञानमयो हि सः (मनुस्मृति)

वेद सात्विक ,राजसिक,तामसिक तीनो गुणों को भी मोक्ष प्रदान करने वाला है ऐसे में यदि अग्निषोमियदि के बिरोध करने वाले के  कथनों को माने तो ( तंत्र विद्या) वाममार्गी तो नरक के ही भागी होंगे फिर दुर्गा,काली आदि देवियों की स्तुत्य पशुबलि कर कौन ऐसा ब्यक्ति है जो नरक में जाने की इच्छा करेगा ?क्यो की वाममार्ग में बलि मान्य है ऐसे में वेद इन वाममार्गियों का उद्धार कैसे करेगा ?? 

ऐसे में त्रैगुण्यविषया वेदा से वेदों की सिद्धि कैसे हो ??तब तो वेद भी अमान्य हो जाएगा इस लिए वेद सात्विक राजसिक तामसिक मार्गो को भी मोक्षप्रदान करने के लिए भिन्न भिन्न मार्गो को प्रसस्त किया है 


इस लिए श्रुतियों का उद्घोष है #स्वर्गकामो_यजतेती_सततं_श्रूयते_श्रुति 


अग्निषोमियादिषु च न हिंशा पशो: निहिन्तरच्छागादिदेहिपरि त्यागपूर्वक कल्याणदेह स्वर्गादिप्राप्तकत्वश्रुते: संज्ञपनस्य


यज्ञाधारं जगतसर्व यज्ञो विश्वस्य जीवनम्

यज्ञो ही परमो धर्मो   यज्ञे सर्वप्रतिष्ठितम (इति श्रुति:)


अग्निषोमियादिषु च न हिंशा पशो: निहिन्तरच्छागादिदेहिपरि त्यागपूर्वक कल्याणदेह स्वर्गादिप्राप्तकत्वश्रुते: संज्ञपनस्य 


न वा एतन् म्रियसे नोत रिष्यसि देवं इदेषि पथिभिः शिवेभिः । 

यत्र यन्ति सुकृतो नापि दुष्कृतस्तत्र त्वा देवः सविता दधातु ॥ (यजुर्वेद)


अग्नीषोमीयं पशुमालभते (ऐतरेय ब्राह्मण २/३)

यज्ञोऽस्य भूत्यै सर्वस्य तस्माद्यज्ञे वधोऽवधः । ।

या वेदविहिता हिंसा नियतास्मिंश्चराचरे ।

अहिंसां एव तां विद्याद्वेदाद्धर्मो हि निर्बभौ ।(मनुस्मृति)

अनुग्रह:पशूनां ही संस्कारो विधिनोदित:(महाभारत शान्तिपर्व ४९/२८)

पशवश्चाथ धान्यं च यज्ञस्याङ्गमिति श्रुतिः।।(महाभारत मोक्षधर्म पर्व २६८/२०)

न हिनस्ति नारभते नाभिद्रुह्यति किंचन।

यज्ञैर्यष्टव्यमित्येव यो यजत्यफलेप्सया।।(महाभारत मोक्षधर्म पर्व  २६८/३१)

शैलेन्द्र सिंह


भीम+हिडिम्बा विवाह शंका समाधान

 भीम + हिडिम्बा विवाह शंका समाधान ।


विशाल मालवीय जी पढ़ते भी हो वा  केवल धूर्त समाजी की भांति आक्षेप करना ही जानते हो ??


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मया ह्युत्सृज्य सुहृदः स्वधर्मं स्वजनं तथा।

वृतोऽयं पुरुषव्याघ्रस्तव पुत्रः पतिः शुभे।। 

वीरेणाऽहं तथाऽनेन त्वया चापि यशस्विनी।

प्रत्याख्याता न जीवामि सत्यमेतद्ब्रवीमि ते।। 

यदर्हसि कृपां कर्तुं मयि त्वं वरवर्णिनि।

मत्वा मूढेति तन्मां त्वं भक्ता वाऽनुगतेति वा।।

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हिडिम्बा मन ही मन विक्रोदर को पति मान चुकी थी और केवल एक सन्तान उतपन्न होने तक भीम के साथ गन्धर्व विवाह के लिए अनुमोदन किया था यदि भीम वरण न करते तो वे आत्महत्या भी कर सकती थी ।


#न_जीवामि_सत्यमेतद्ब्रवीमि_ते

 यदि भीम गन्धर्व विवाह के लिए सहमत न होते तो स्त्री हत्या का पाप भी लगता साक्षात् धर्म के अंश स्वरूप  युधिष्ठिर जी स्पष्ट कहते है कि क्रुद्ध में आकर भी कभी स्त्री का वध न करे 


#क्रुद्धोऽपि_पुरुषव्याघ्र_भीम_मा_स्म_स्त्रियं_वधीः

हिडिम्बा के इस अनुमोदन के लिए माता कुन्ति भी विक्रोदर को आज्ञा देती है ।

यहाँ माता कुंती को 

#सर्वशास्त्रविशारदम् कहा गया है समस्त शास्त्रो के ज्ञाता माता कुंती द्वारा दिया गया आदेश धर्म विरुद्ध नही हो सकता अन्यथा माता कुंती को सर्वशास्त्रविशारद कह कर अलंकृत न किया गया होता ।

माता कुंती विक्रोदर को यह आज्ञा देती है कि एक सन्तान उतपन्न होने तक हिडिम्बा भीमसेन की सेवा में रहे ।


तस्यास्तद्वचनं श्रुत्वा कुन्ती वचनमब्रवीत्।। 

युधिष्ठिरं महाप्राज्ञं सर्वशास्त्रविशारदम्। 

त्वं हि धर्मभृतां श्रेष्ठो मयोक्तं शृणु भारत।। 

राक्षस्येषा हि वाक्येन धर्मं वदति साधु वै।

भावेन दुष्टा भीमं वै किं करिष्यति राक्षसी।। 

भजतां पाण्डवं वीरमपत्यार्थं यदीच्छसि।' (महाभारत आदिपर्व)

शैलेन्द्र सिंह


Friday 11 February 2022

स्वामी दयानंद सरस्वती का विज्ञान


स्वामी दयानन्द ने अपने सत्यार्थप्रकाश के पृष्ठ संख्या ४५-४६ में कहते है कि सन्ध्याकाल तथा प्रातः काल मे सबलोग मलमूत्र का त्याग करते है जिससे वायु में दुर्गंध फैल जाती है तो उस वायु की शुद्धि के लिए यज्ञ करें ताकि दुर्गन्धयुक्त वायु का शोधन हो सके  पता नही स्वामी जी के मनमस्तिस्क में उस वक़्त क्या चल रहा था यह तो वो ही जाने 

अस्तु स्वामीदयनन्द मतानुसार आर्यसमाजियों को यज्ञ करने के लिए उस स्थान बिशेष का चुनाव करना चाहिए जहाँ मलमूत्रादि ज्यादा हो अथवा जिस स्थान पर लोग बहुतायत में मलमूत्र का त्याग करते हो 

स्वामीदयानन्द सहित समस्त आर्यसमाजी शास्त्रो में आये हुए  आज्ञानिषेधाज्ञा की धज्जियां पदे पदे उड़ाई है और स्वयं को सबसे बड़े वैदिक धर्मी कहते नही थकते ।

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यज्ञ जो की पुरुषार्थ प्राप्ति का साधन है ,जिस वेदविहित कर्मकाण्ड  से समस्त सिद्धियां प्राप्त होती है ,जिस यज्ञ से देवगण ने असुरों को परास्त किया था, उस यज्ञबिशेष को लेकर स्थान तथा हविष्य आदि की शुद्धता के बिषय में शास्त्रो में भला बिचार कैसे न किया गया हो ।

महर्षि मनु मनुस्मृति में कहते है कि जहाँ अग्निहोत्रशाला हो उसके आसपास मलमूत्र का त्याग न करे ।

■ दूरादावसथान्मूत्रं दूरात्पादावसेचनम् ।

उच्छिष्टान्ननिषेकं च दूरादेव समाचरेत् । ।(मनुस्मृति ४/१५१)


■ परन्तु दयानन्द का मत है जहाँ मलमूत्र की अधिकता हो वहाँ यज्ञ हो 


वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड में भी इसी बिषय को लेकर एक प्रसङ्ग भी आया है महर्षि विश्वामित्र सिद्धियां प्राप्त करने हेतु यज्ञ का सम्पादन करते है  उस यज्ञ को बार बार विध्वंश करने के लिए मारीच तथा सुबाहु जैसे असुर यज्ञवेदी पर रक्त मांस की वर्षा कर देते थे जिससे यज्ञ की शुद्धि में बाधा पड़ती थी और यज्ञ सम्पन्न नही हो पाता था  अंततः विश्वामित्र ने यज्ञ विध्वंशकारियो को दण्ड देने हेतु तथा यज्ञ विधिविहित अनुरूप सम्पन्न हो इस लिए  वे अयोध्या के नरेश राजा दशरथ के पास जाते है और श्रीरामचन्द्र तथा लक्ष्मण को अपने साथ ले जाकर उन्हें यह भार सौपते है कि यज्ञ में किसी प्रकार का विध्न न पड़े ।


■ अहम् नियमम् आतिष्ठे सिध्द्यर्थम् पुरुषर्षभ ।

■ तस्य विघ्नकरौ द्वौ तु राक्षसौ काम रूपिणौ ॥

■ तौ मांस रुधिर ओघेण वेदिम् ताम् अभ्यवर्षताम् (वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड )


यज्ञ से क्या लाभ इस पर शास्त्रानुकूल बिचार करते है ।


स्वर्गकामो यजेत' इति वाक्यं श्रुत्वा ज्योतिष्टोमः स्वर्गरूपं फलं प्रति साधनमिति बोधो जायते । अनुष्ठिते च कर्मणि फलं प्राप्यत इति शास्त्रमेव प्रमाणम् ।


जिस विधिपूर्वक सदनुष्ठान से स्वर्ग की प्राप्ति तथा सम्पूर्ण विश्व का कल्याण  तथा आध्यात्मिकआधिदैविक-आधिभौतिक तीनों तापों का उन्मूलन, सरल हो जाये, जिस श्रेष्ठ अनुष्ठान से सुखविशिष्ट की प्राप्ति सहज हो जाये 

जिससे देवगण पूजे जाते हैं, जिस याग में देवगण पूजित होकर तृप्त हों, उसे यज्ञ कहते हैं ।

■यत्का॑मास्ते जुहु॒मस्तन्नो॑ अस्तु व॒यं स्या॑म॒ पत॑यो  (ऋग्वेद १० /१२१/१०)

■देवावीर्देवान्हविषा यजास्यग्ने (ऐतरेय ब्राह्मण १/२८)

■देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः।

■परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ।।

■ इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः। (गीता ३/११-१२)


इस शास्त्रवचन से यह सिद्ध हो जाता है कि यज्ञ से देवगण तृप्त हो याजक को स्वर्गादि सुखविशिष्ट समस्त इच्छित फल को प्रदान करते है यज्ञ बिशेष तथा उनसे प्राप्त होने वाली सिद्धियों को समस्त सास्त्र मुक्तकण्ठ से गायन करते है क्यो की यज्ञ साक्षात् परमेश्वर का ही स्वरूप है ।


यज्ञो वै विष्णुः।(तै.ब्रा.-ऐतरेय ब्राह्मण-सतपथ ब्राह्मण-तैत्तरीय संहिता ) 

केवल इतना ही नही यज्ञ न करने वाला ब्यक्ति के लिए तो यह लोक भी कल्याणकारी नही फिर भला परलोक कैसे कल्याणकारक हो ।

■नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यः कुरुसत्तम ॥ (गीता)

शैलेन्द्र सिंह


भ्रामकता के शिकार हिन्दू


हिन्दुओ के लिए वेद स्वतः प्रामाणसिद्ध है ईश्वर द्वरा प्रतिपादित बिषय भी यदि वेद विरुद्ध हो तो वे अप्रामाणिक माने जाते है यही वेद की वेदता और हिन्दू होने का प्रथमप्रामाण है ।


अल्पज्ञ अल्पश्रु भ्रामक ब्यक्तियो वामपंथियों ईसाइयों इस्लामिको  का कहना है कि शूद्रों को पढ़ने नही दिया जाता था उन्हें जानबूझ कर अशिक्षित रखा जाता था ताकि उसका शोषण कर सके ।

प्रथमतः स्प्ष्ट कर देना चाहता हूं कि वैदिक सनातन धर्म शोषणवादी नही अस्तु पोषणवादी है ऐसा कोई कर्मकाण्ड नही जहाँ समस्त वर्णों को आर्थिक रूप से लाभ नही मिलता हो इस पर मैं कई बार पोस्ट लिख चुका हूं अतः वही बिषय को पुनश्च यहाँ रखने का कोई अर्थ नही बनता  ।

दूसरी बात विद्यादि में शूद्रों का भी अधिकार था यह बात 

■ श्रुतिस्मृतिइतिहासपुराणादि से सिद्ध है ।

समावेदीय छन्दोग्य उपनिषद में राजा अश्वपति यह घोषणा करते है

कि मेरे राज्य में कोई भी अशिक्षित नही  , न ही कोई मूर्ख 


■ न मे स्तेनो जनपदे न कदर्यो न मद्यपः।

नानाहिताग्निर्ना विद्वान् न स्वैरी स्वैरिणी कुतः॥ (छान्दोग्य॰ ५ । ११ । १५)

केवल इतना ही नही त्रेतायुग में इक्ष्वाकु वंश के राजा दशरथ के शासनकाल में भी ऐसा कोई ब्यक्ति देखने को नही मिलता जो अशिक्षित हो ।


■ कामी वा न कदर्यो वा नृशंसः पुरुषः क्वचित् ।

द्रष्टुम् शक्यम् अयोध्यायाम् न अविद्वान् न च नास्तिकः ॥(वा0 रा0 १/६/८)


अयोध्या में कही कोई कामी,कृपण, क्रूर,अविद्वान,नास्तिक ब्यक्ति देखने को नही मिलता है ।

अतः इससे स्प्ष्ट प्रामाण हो जाता है कि विद्या आदि में शूद्रों का अधिकार था केवल इतना ही नही शिक्षा दर भी १००% थी तत्तकालीन शासनतंत्र के अधीन भारत के समस्त नागरिक शिक्षित नही है जबकि जिस कालखण्ड में श्रुतिस्मृतिइतिहासपुराणादि का प्रचार प्रसार ईस भूखण्ड पर पूर्णरूपेण था उस कालखण्ड में कोई भी ब्यक्ति अशिक्षित नही था ।

भारत जब यवनों अरबो तुर्को ब्रिटेन की दासता झेल रहा था उसीकालखण्ड में यह अशिक्षिता  व्याप्त हुई क्यो की गुरुकुलों को नष्ट करना विश्विद्यालयों को अग्निदाह करना ही मूल कारण रहा ।


 शूद्रों का तो शिल्पविद्या में एकक्षत्र राज था ।

वर्णाश्रमधर्मी होने का यही अर्थ होता है कि कोई भी किसी के अधिकारों का हनन न करें स्व स्व धर्म का पालन निष्पक्षता पूर्ण करें 

महाभारत जैसे अयाख्यानों में शूद्रकुल में जन्मे हुए विदुर को हस्तिनापुर जैसे साम्राज्य का महामन्त्री बनाया वे नीतिशास्त्र के ज्ञाता धर्माधर्म बिषयों के ज्ञाता तथा साक्षात् धर्म का अंश माना गया यदि सनातन धर्म शोषणवादी अशिक्षित रखने की नीति होती तो स्वधर्मपरायण विदुर को हस्तिनापुर जैसे साम्राज्य का महामन्त्री न बनाया होता ।

एकलब्य के बिषय को लेकर भी भ्रामक प्रचार किया गया है 

महाभारत में ही स्प्ष्ट लिखा है कि गुरु द्रोणाचार्य ने एकलब्य को वह विद्या प्रदान की जो न तो पाण्डवो, कौरवो और न ही अश्वथामा को प्रदान की थी ।

इक्ष्वाकु वंश के ही राजा हरिश्चंद्र एक चाण्डाल के यहाँ नौकरी किये अब बिचार कीजिये कि इक्ष्वाकु वंश के राजा को भी खरीदने का सामर्थ्य एक चाण्डाल के पास था कितना धन होगा उस चाण्डाल के पास ??

हमने कभी भी बिषयों पर सत्यासत्य बिचार नही किया अपितु हमने उसी को सत्य मान बैठा जिसका प्रचार वामी,कामी,इस्लामी,ईसाइयत,गैंग ने प्रचार किया और वे सफल भी हुए पाश्चात्यविद से लेकर भारत के हिन्दू इस बिषय पर भ्रामित है ।

इन सब मिथ्या बिषयों का प्रचार प्रसार भी इस लिए हुए की यवन ,तुर्क,अरब,(इस्लामी) यूरोप (ईसाइयों) ने जब धर्मान्तरण करने में असफल हुए तो वे इस तरह के भ्रामक प्रचार प्रसार किया ताकि विखण्डन का बीज बोया जा सके और धतमान्तरण रूपी खेल आसान हो जाय ।


शैलेन्द्र सिंह