एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः ।
स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन्पृथिव्यां सर्वमानवाः । । २.२० । ।[[मनुस्मृति]]
कुरुक्षेत्रादी देश समुद्भूत अग्रजन्मा द्वारा ही सम्पूर्ण पृथ्वी के समस्त मानवों को अपना अपना चारित्र्य शिक्षणीय है ।
जैसे सब भाषाओ का उद्गम स्थान भारती देव वाणी ही है ठीक इसी प्रकार बिभिन्न विद्याओ का आदिम आविष्कारक हिन्दुस्तान ही है इसलिए आज भी ईराक इरान फारस सुदूर टर्की तक के सभी लोग अंको को हिन्द से और गणित विद्या को इल्मे हिन्द्सा कहते है जिसका तात्पर्य हिन्दुस्तान से आने वाली विद्या कहा जा सकता है ।
सिन्धु संस्कृति के जन्मदाता के लोग स्वय सिन्धु और पश्चात् हिन्दू , इंदु किंवा इंडियन कैसे बन गए यह बात भाषा बिज्ञान से सम्बन्ध रखती है जिसका निरूपण यहाँ किया जाता है ।
वैदिक परिपाटी के अनुसार अनेक शब्द वर्णविपर्यय वर्णागम इत्यादि के कारण बिभिन्न रूपों में उच्चारित होते है ।
ऐसे अनेक शब्द का निर्वाचन स्वय वेद के ब्राह्मण भाग में विद्यमान है ।
जैसे मानुष शब्द की ब्याख्या करते हुए ऐतरेय ब्राह्मण 3/33 में आता है की ।
मादूषं सन् मानुषमित्याचक्षते
अर्थात --: (मा) मत( दुषम ) दोष युक्त हो इस अर्थ में मादुष शब्द का परोक्ष रूप मानुष बन गया है इसी प्रकार रूद्र शब्द
का विवेचन करते हुए लिखा है
यदरोदित्तद् रुद्रस्य रुद्र्त्वम्
अर्थात --: रोदन करने के कारण रूद्र नाम पड़ा ब्राह्मणोंक्त निर्वचन के इस प्रकार शैली के अनुसार श्री यास्काचार्य ने अपने निरुक्त ग्रन्थ में अनेक ऐसे वैदिक शब्दों का निर्वचन किया है जिनमे सकारादी शब्दों से हकारादी रूप में वर्णन किया है ।कहने की आवश्यकता नही है की वैदिक साहित्य की प्राचीन ब्याख्या शैली को समझने के लिए यही ग्रन्थ इस वक़्त उपलब्द्ध है दुर्भाग्यवस यदि यह भी अपने सहकारी ग्रंथो की तरह लुप्त हो जाता तो आज वेदो को समझना ही कठिन हो जाता उक्त प्रमाणिक ग्रन्थ में वेद के मन्त्रांश
हरितो न रंह्या:[[ अथर्व २०/३०/४]] की ब्याख्या करते हुए [[निघुंट १/१३]] में लिखा है की
सरितो हरितो भवन्ति सरस्वत्यो हरस्वत्यः
अर्थात --: हरित यह शब्द उच्चारण भेद से नदी वाचक सरित शब्द ही है ।और इसी भाँती सरस्वती को हरस्वती भी कहते है ।
(क )---इमं में गंगे सरस्वती .........स्तोमं सचत [[ऋग वेद १०/७५/५]]
(ख)---तं ममर्तु दुच्छुना हरस्वती [[ ऋग वेद २/२३/६]]
(ग)---यं वहन्ति हरित: सप्त [[ अथर्वे १३/२/२५]]
(घ)---श्री श्च ते लक्ष्मीश्च पत्नयै [[ यजुर्वेद ३१/२२ ]]
(ङ्)-- ह्रीश्च ते लक्ष्मीश्च पत्नयै [[ कृ 0य0 तैतरीय ३१/१]]
(च)--सिरासन्धि सन्निपाते रोमावर्तोSधिपति [[ सुश्रुत ६/७१]]
(छ )--हीरालोहित वाससः [[ अथर्वेद ५/१७/१]]
यहाँ (क) में सरस्वती और (ख) में हरस्वती और (ग) में ही नदी वाचक शब्द विद्यमान है ।
(घ) श्री और (ङ्) ह्री दोनों ही लक्ष्मिवाचक शब्द प्रत्यक्ष है ।
(च) में सिरा (छ) में हिरा दोनों ही नश नाड़ी किंवा धमनी वाचक शब्द विद्यमान है ।
और अधिक उदाहरण क्या दे कहना न होगा की वेद में सकार में हकार का उच्चारण भी सुतरा अभीष्ट है ।
यह इस प्रघटट् से प्रमाणित है । यहाँ एक से अधिक प्रमाण देने का तात्पर्य यह है की
केवल हरित शब्द मात्र से वर्ण व्यत्यय मात्र से सरित नही समझना चाहिए
किन्तु सरस्वती ,हरस्वति आदि अन्यान्य अनेक शब्द इसी की भाँती साकार के स्थान पर हकार उचारणीय समझना चाहिए लोक में भी यह वैदिक परिपाटी देश भेद से यत्र तत्र सर्वत्र परचलित है
भारतीय भाषाओं के सप्ताह , मास,, और केसरी आदि शब्द इरानी भाषा भाषी देशो में
हप्ता , माह , और केहरी रूप में उच्चारित होते है ।अस्व शब्द को फारशी में अस्प और अंग्रेजी में हॉर्स कहा जाता है ।श्री शब्द ही अंग्रेजी में सर बनकर जर्मनी में हर बन गया । मोहन भोग के पर्याय सिरा जहाँ फारस में हरिरा बना ।
कहाँ तक बिस्तार करे यह एक नग्न सत्य है । जिसका कोई साक्षर अपलाप नही कर सकता की अनेक शब्दों में सकार के स्थान पर हकार का उच्चारण वैदिक काल से ही है । ऐसी स्थिति में सिन्धु शब्द निरुक्त शाश्त्रोक्त वर्ण व्यत्यय से हिन्दु उच्चारित हो रहा है ।वेद के मन्त्र भाग में ऐसे व्यत्यय के अनेक प्रमाण विद्यमान है ।जिनमे हमारी जाती के पूर्व पुर् खाओ को सिन्धु जाती का नेता कह कर स्मरण किया गया है ।
नेता सिन्धुनाम् [[ ऋग वेद ७/५/२]]
परन्तु श्रुति सामान्यमात्रम
सिद्धांत का ज्ञान नही है ।वेद में नद नदी पुरुषो का नाम देखकर यह कल्पना नही की जानी चाहिए की तब तो वेद उन ब्यक्तियों के पीछे बने
बल्कि ये समझना चाहिए की वेद में तादृश शब्द देख कर ही लोक में वैसे ही नाम रखने की परिपाटी प्रचलित हुई इस लिए हम दम ठोक कर यह कहने को उद्दत है की वेद के सिन्धू शब्द
उच्चारण भेद से हिन्दू शब्द प्रसिद्ध हुआ ।बिशिष्ट स्थलों में सकार के स्थान में हकार का आदेश पाणिनी ब्याकरण और उसके भाष्यकार और उसके व्याखाताओ को भी अभीष्ट है ।जैसे अस्मद शब्द को प्रथमा एक वचन त्वाहौ सौ [[७/२/९४]] को अह आदेश होता है । लोट् लकार में सर्वत्र सी के जगह ही करने वाला सेहर्य पिच्च [[३/४/८७]] सूत्र सुप्रसिद्ध है ही इसी प्रकार 'ह' एती [[७/ ४/५२/ ]] सूत्र भी सकार को हकार करता है ।
सकार और हकार दोनों की ही इषद् विवृत और महा प्राण प्रत्यंत भी
सामान है । वर्ण माला में भी ' स' और' ह ' दोनों को एकत्र ही पढ़ा गया है ।प्राकृत भाषा में तो सकार हकार के विपर्यय का बाहुल्य भरा पड़ा ही है ।
अस्मि" युष्माकं" और अस्माक के स्थान में क्रमश: ह्यी "" तुह्यण " अह्याणम आता है । हिन्दी भाषा के ख्यातनाम कवियों ने भी सकार के स्थान पर हकार का आदर किया है । जैसा की श्री सुर दास जी पाषाण शब्द के जगह पाहन शब्द को जगह दिया है ।यहाँ " स " के स्थान पर " ह " का
"" पाहन पतित बाण नही भेदत रीता कढ़ी निषंग ""
श्री गोस्वामी तुलसी दास जी ने भी पाहन ते न काठ कठिनाई लिखा है ।राम चरित मानस बालकाण्ड में भगवन श्री रामचन्द्र शारीर सौन्दर्य का वर्णन करते हुए लिखा है ।
"" केहरी कन्ध बाहु बिशाल "
यहाँ कहने की आवश्यकता नही है की यदि गोस्वामी जी उक्त चौपाई में केहरी के स्थान पर केशरी भी रख देते तो वर्णमात्र जन्य छ्न्दोभंग की तनिक भी संभावना नही थी तथापि यहाँ ह्कारोच्चारण को आग्रह पूर्वक अपनाने का यही एक मात्र कारण है की शब्द माधुरी और ओजस्विता की दृष्टि हकार सकार से अधिक उपादेय है ।इस लिए यह कल्पना भी निर्हैतुक नही की जा सकती की संगीत ललित आदि कलाओं के जन्म दाता बीर सिन्धुओ ने उपयुक्त गुणों के कारण ही अपने नाम को हकारोच्चारण को ही प्रधानता दी हो ।जो हो हिन्दु नाम अति प्राचीनतम वैदिक परम्परा का ही परिचायक है इसमें तनिक भी शन्देह नही है ।यहाँ ऐतिहासिक तथ्य भी प्रसंगवस स्पष्ट कर देना अनावश्यक नही की " रामायण " महाभारत और "पपुराण आदि ग्रन्थो के अनुसार चंद्रवंशी सम्राट ययाती के अन्यतम पुत्र और दैत्य वंशियों राजा वृषपर्वा के दौहित्र " द्र्ह्यु " को पश्चिमोतर राज्य मिला था जिसकी वंश परम्परा में आगे चल कर प्रचेतावन्शीय १०० राजाओं ने पश्चिम देश पर सासन किया ।
यथा ।
मलेच्छाधिपतयोSभवन् ( श्रीमद्भागवत ९/२३/१६/)
अर्थात --: पाश्चात्य देश के अप भाषाभाषी लोग शासक हुए आज बाहर पाशच्यात देश के जितनी भी जातियां है वो उन्ही चन्द्रवंशी क्षत्रियो का संतान है जो मनु महाराज के कथन अनुसार ।
शनकेस्तु किर्यालोपादिमाः क्षत्रियजातय ।
वृषलात्वं गतालोके ब्राह्मणानामदर्शनात् ।।( मनु १०/४३)
अर्थात --- अनेक क्षत्रिय जातियां ब्राह्मण लोगो के सम्पर्क में न रहने के कारण धार्मिक किर्याकलाप भूल जाने के शुद्र प्रायः मलेच्छ अप भाषाभाषी बन गई ।चन्द्र शब्द का अन्यतम पर्याय" इन्दु " है सो सिन्धु प्रांत के पश्चिमी साखा के पूर्व पुरुषा जहां सिन्धु नाम से प्रख्यात हुए वहां अपने चन्द्रवंशी होने के प्रतिक " इन्दु" किंवा तद्पत्य ऐन्देव उपाधि से भी बिस्व बिख्यात हो गए ।उक्त " इन्दु" और ऐन्देव शब्द के विकृत रूप दकारहिन् खारोष्टि भाषा में इन्डो " इंडिया" इंडियन " आदि शब्दों के रूप में परिणित हो गया ।सिन्धु और हिन्दु शब्दों में धकार और दकार के तारतम्य के कारण भी इन्दु शब्द संघटित दकार का अत्यधिक प्रचलन ही कहा जाएगा ।इस लिए हिन्दु शब्द के अवार्चनी होने का भ्रम भी उन्ही महाशय को हो सकता है जो वैदिक वाङ्गमय के अनुशंधानात्मक हिन् है ।
मन्त्र ब्राह्मणातम्क वेद में सकारोपलाक्षित और लिङ्गोपदीष्ट हिन्दू शब्द अनेक अस्थानो में आता है यथा ।
(क) नेता सिन्धुनाम -------------( ऋग वेद ७/५/२)
(ख) सिन्धुपति: क्षत्रियाः----------( ऋग वेद ७/६४/३)
(ग) हिङ्कृणवती दुहामश्विभ्याम -------( ९/१०/५)
(घ)सिन्धोगर्भोशी विद्यतां पुष्पम ------(अथर्वेद १९/४४/५)
(ङ) अस्येंदु त्वेषा ्रन्तसिन्धैव -----(अथर्वेद २०/३५/११)
( च) सिन्धो अधिक्षियत-----------------( ऋग वेद १/१२६/१)
अर्थात (क) सिन्धु का नेता (ख)सिन्धुपति क्षत्रिय (ग) हिन्कार करती गाय को दुहनेवाला (घ) हे जन तू सिन्धु का गर्भ है अतएव तू तेजश्वी जनों का पोषक है (ङ) इनके ही ( इश्वर) के तेज वरदान से सिन्धु लोग विजय होते है (च) सिन्धु देश में निवास करो ।
उपयुक्त प्रमाणों में समुद्र किंवा नद नदी वाचक सिन्धु शब्द की कल्पना वही लोग कर सकते है जिन्हें की अर्थ प्रकरण लिङ्ग शहचर्य्य बिरोधिता आदि अर्थ निर्णायक तत्वों का ज्ञान न हो ।पाठक गण जरा ध्यान पूर्वक मनन करे और देखे की (क) में सिन्धु के नेता का वर्णन किया गया है ।समुद्र नद नदी आदि का तो ब्यक्ति स्वामी हो नही सकता परन्तु नय निति चलाने वाला नेता तो हो नही सकता नेतृत्व में चलने और चलाने की योग्यता केवल चेतनो में ही सम्भव है अतः यहाँ समुद्र शब्द नद नदी का वाचक न हो कर तन्नामक जाती या जनसमूह के वाचक हो सकता है (ख) भाग में स्पस्ट तःसिन्धुपति क्षत्रिय का वर्णन विद्यमान है यह उपाधि राणा प्रताप को हिन्दुपति के रूप में प्राप्त हुई थी (ग) भाग में हिङ्कृणवती दुहाम् शब्दों में वत्स दर्शन संजात हर्षा एवं प्रसंन्सा सूचक हिं हिं शब्द करती हुई गाय का दोहन करने वाली हिन्दू जाती का निर्वेचन पूर्वक हिं--दू नाम परोक्ष पद्यति से प्रकट कर दिया है । निरुक्तकार यास्क ने वेद की इसी निर्वचन शैली को ध्यान में रख कर यह घोषणा की है की ।
स्वरवसम्यान्निर्ब्रूयात् [[ निरुक्त १/३]]
अर्थात -- किसी स्वर या वर्ण व्यंजन का समानता देखकर अमुक शब्द का निर्वचन करना चाहिए ।
यह कहने की आवश्यकता नही है की वैदिक मंत्रो में तादृश शब्दों का शब्दांश या अक्षर मात्र आ जाने पर भी उसका तत्तद् पदार्थो के ग्रहण में बिनियोग सुतरा श्रोतसुत्रो का भी अभिप्रेत है फिर चाहे वो शब्द अर्यन्तर का ही वाचक क्यों न हो ।जैसे समस्त वैदिक अनुष्ठानो में भी दधि -- दही
अर्पण करते हुए
दधिक्राव्णों उकारिषम् [[ऋण ४/३९/६]] इत्यादि मन्त्र बोला जाता है यहाँ दधी शब्द दही का अर्थ वाचक नही है वास्तव में यहाँ दधी शब्द ही नही है ।किन्तु दधिक्र शब्द है जिसका अर्थ घोड़ा है निरुक्य्कार ने शब्द का निर्वचन करते हुए स्पष्ट लिखा है की
दधत् क्रमाती इति दधिक्रा अस्वः निरुक्त [[४/३]] अर्थात --जो सवार के पीठ पर चढ़ते ही कदम बढाने लगता है वह चन्चल पशु इस गुण के कारण दधिक्रा कहा जाता है सो जैसे यहाँ दधिवाचक शब्द की अविद्यमानता में भी केवल शब्दांश मात्र द -- धी वर्णों के लिंग प्रमाण से उक्त मन्त्र का दधी विनियोग विहीत है ठीक उसी प्रकार हिङकृणवती और दुहाम् मंत्राश में तो लिङ्ग प्रमाण के साथ साथ तदर्थ क8 संगती भी अवाध है ।
अग्नि स्तावक उद् बुद्धस्वाग्ने [[ यजु१५/५४]] मन्त्र का बुध ग्रह की पूजा में जलस्तावक शन्नो देवी [[ऋग १०/९/४]] मन्त्र का शनि के पूजन में विनियोग भी हमारे विवेचन के ही समर्थन है यदी किर्यानिष्ठ उद् बुद्धस्व से बुध अक्षन शब्द से अक्षत शं मात्र से शनि आदि का वेद में पाणिग्रहण हो सकता है तो फिर हिं - दू से हिन्दू क्यों नही । शायद यहाँ यह समझाने की तो आवश्यकता ही नही एक मात्र हिन्दू संस्कृति में ही यज्ञ यागादी सर्वविध इष्टापुर्त सम्बन्धी अनुष्ठानो में सवत्सा गाय का वत्स पान अविशिष्ट दूध ही ग्राह्य माना जाता है एनी लोग तो केवल दूध मात्र के इच्छुक है फिर चाहे वह पशु को डरा धमका कर अथवा मशीन के द्वारा बलात् क्यों न सुन्ता गया हो परन्तु हिन्दू संस्कृति का यह उद्घोष है की ।
श्राद्धे सप्त पवित्राणी दोहित्रं कुत्पस्तिला: ।
उच्छिष्टं शिवनिर्माल्यं वामनं शव कर्पटम् ।।
न केवल धार्मिक अनुष्ठानो में ही अपितु आयुर्वैदिक उपचारों में भी सवत्सा गाय का दूध ही परिगृहित किया गया है ।
वेद में उक्त भगवदाज्ञा को देख कर सिन्धु संस्कृति के प्राचीनतम पुरुषाओ ने अपनाया था और अपनी इस बिशेषता को अक्षुण बनाए रखने के लिए अपना तादृश नाम ही प्रख्यात कर दिया था ।
--------[[ तंत्र और पुराण में हिन्दू शब्द ]]-------
(क) हिन्दुधर्मप्रलोप्तारो जायन्ते चक्रवर्तीन: हिनञ्च दुषय त्वेव स हिन्दुरुच्यते प्रिये । [[ मेरुतंत्र प्रकाश २२]]
(ख) अवनी यवनै: क्रान्ता हिन्दवो विन्ध्यामा विशन् [[ कलिका पुराण ]]
(ग) हिमालयं सामारभ्य यावदिन्दु सरोवरम । तं देवनिर्मितं देशं हिन्दुस्थान प्रचक्षते [[बार्ह स्पत्य शास्त्र ]]
(घ) सप्त सिन्धु स्तथैव च हप्त हिन्दुर्या वनीच [[ भविष्य पुराण ५/३६]]
(ङ) हिनस्ति तपसा पापान् दैहिकान दुष्टमानसान । हेतिभी शत्रुवार्गाश्च स हिन्दुरभिधियते [[ पारिजात हरण नाटक]]
प्रस्तुति ----------:श्री माधवाचार्य
स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन्पृथिव्यां सर्वमानवाः । । २.२० । ।[[मनुस्मृति]]
कुरुक्षेत्रादी देश समुद्भूत अग्रजन्मा द्वारा ही सम्पूर्ण पृथ्वी के समस्त मानवों को अपना अपना चारित्र्य शिक्षणीय है ।
जैसे सब भाषाओ का उद्गम स्थान भारती देव वाणी ही है ठीक इसी प्रकार बिभिन्न विद्याओ का आदिम आविष्कारक हिन्दुस्तान ही है इसलिए आज भी ईराक इरान फारस सुदूर टर्की तक के सभी लोग अंको को हिन्द से और गणित विद्या को इल्मे हिन्द्सा कहते है जिसका तात्पर्य हिन्दुस्तान से आने वाली विद्या कहा जा सकता है ।
सिन्धु संस्कृति के जन्मदाता के लोग स्वय सिन्धु और पश्चात् हिन्दू , इंदु किंवा इंडियन कैसे बन गए यह बात भाषा बिज्ञान से सम्बन्ध रखती है जिसका निरूपण यहाँ किया जाता है ।
वैदिक परिपाटी के अनुसार अनेक शब्द वर्णविपर्यय वर्णागम इत्यादि के कारण बिभिन्न रूपों में उच्चारित होते है ।
ऐसे अनेक शब्द का निर्वाचन स्वय वेद के ब्राह्मण भाग में विद्यमान है ।
जैसे मानुष शब्द की ब्याख्या करते हुए ऐतरेय ब्राह्मण 3/33 में आता है की ।
मादूषं सन् मानुषमित्याचक्षते
अर्थात --: (मा) मत( दुषम ) दोष युक्त हो इस अर्थ में मादुष शब्द का परोक्ष रूप मानुष बन गया है इसी प्रकार रूद्र शब्द
का विवेचन करते हुए लिखा है
यदरोदित्तद् रुद्रस्य रुद्र्त्वम्
अर्थात --: रोदन करने के कारण रूद्र नाम पड़ा ब्राह्मणोंक्त निर्वचन के इस प्रकार शैली के अनुसार श्री यास्काचार्य ने अपने निरुक्त ग्रन्थ में अनेक ऐसे वैदिक शब्दों का निर्वचन किया है जिनमे सकारादी शब्दों से हकारादी रूप में वर्णन किया है ।कहने की आवश्यकता नही है की वैदिक साहित्य की प्राचीन ब्याख्या शैली को समझने के लिए यही ग्रन्थ इस वक़्त उपलब्द्ध है दुर्भाग्यवस यदि यह भी अपने सहकारी ग्रंथो की तरह लुप्त हो जाता तो आज वेदो को समझना ही कठिन हो जाता उक्त प्रमाणिक ग्रन्थ में वेद के मन्त्रांश
हरितो न रंह्या:[[ अथर्व २०/३०/४]] की ब्याख्या करते हुए [[निघुंट १/१३]] में लिखा है की
सरितो हरितो भवन्ति सरस्वत्यो हरस्वत्यः
अर्थात --: हरित यह शब्द उच्चारण भेद से नदी वाचक सरित शब्द ही है ।और इसी भाँती सरस्वती को हरस्वती भी कहते है ।
(क )---इमं में गंगे सरस्वती .........स्तोमं सचत [[ऋग वेद १०/७५/५]]
(ख)---तं ममर्तु दुच्छुना हरस्वती [[ ऋग वेद २/२३/६]]
(ग)---यं वहन्ति हरित: सप्त [[ अथर्वे १३/२/२५]]
(घ)---श्री श्च ते लक्ष्मीश्च पत्नयै [[ यजुर्वेद ३१/२२ ]]
(ङ्)-- ह्रीश्च ते लक्ष्मीश्च पत्नयै [[ कृ 0य0 तैतरीय ३१/१]]
(च)--सिरासन्धि सन्निपाते रोमावर्तोSधिपति [[ सुश्रुत ६/७१]]
(छ )--हीरालोहित वाससः [[ अथर्वेद ५/१७/१]]
यहाँ (क) में सरस्वती और (ख) में हरस्वती और (ग) में ही नदी वाचक शब्द विद्यमान है ।
(घ) श्री और (ङ्) ह्री दोनों ही लक्ष्मिवाचक शब्द प्रत्यक्ष है ।
(च) में सिरा (छ) में हिरा दोनों ही नश नाड़ी किंवा धमनी वाचक शब्द विद्यमान है ।
और अधिक उदाहरण क्या दे कहना न होगा की वेद में सकार में हकार का उच्चारण भी सुतरा अभीष्ट है ।
यह इस प्रघटट् से प्रमाणित है । यहाँ एक से अधिक प्रमाण देने का तात्पर्य यह है की
केवल हरित शब्द मात्र से वर्ण व्यत्यय मात्र से सरित नही समझना चाहिए
किन्तु सरस्वती ,हरस्वति आदि अन्यान्य अनेक शब्द इसी की भाँती साकार के स्थान पर हकार उचारणीय समझना चाहिए लोक में भी यह वैदिक परिपाटी देश भेद से यत्र तत्र सर्वत्र परचलित है
भारतीय भाषाओं के सप्ताह , मास,, और केसरी आदि शब्द इरानी भाषा भाषी देशो में
हप्ता , माह , और केहरी रूप में उच्चारित होते है ।अस्व शब्द को फारशी में अस्प और अंग्रेजी में हॉर्स कहा जाता है ।श्री शब्द ही अंग्रेजी में सर बनकर जर्मनी में हर बन गया । मोहन भोग के पर्याय सिरा जहाँ फारस में हरिरा बना ।
कहाँ तक बिस्तार करे यह एक नग्न सत्य है । जिसका कोई साक्षर अपलाप नही कर सकता की अनेक शब्दों में सकार के स्थान पर हकार का उच्चारण वैदिक काल से ही है । ऐसी स्थिति में सिन्धु शब्द निरुक्त शाश्त्रोक्त वर्ण व्यत्यय से हिन्दु उच्चारित हो रहा है ।वेद के मन्त्र भाग में ऐसे व्यत्यय के अनेक प्रमाण विद्यमान है ।जिनमे हमारी जाती के पूर्व पुर् खाओ को सिन्धु जाती का नेता कह कर स्मरण किया गया है ।
नेता सिन्धुनाम् [[ ऋग वेद ७/५/२]]
परन्तु श्रुति सामान्यमात्रम
सिद्धांत का ज्ञान नही है ।वेद में नद नदी पुरुषो का नाम देखकर यह कल्पना नही की जानी चाहिए की तब तो वेद उन ब्यक्तियों के पीछे बने
बल्कि ये समझना चाहिए की वेद में तादृश शब्द देख कर ही लोक में वैसे ही नाम रखने की परिपाटी प्रचलित हुई इस लिए हम दम ठोक कर यह कहने को उद्दत है की वेद के सिन्धू शब्द
उच्चारण भेद से हिन्दू शब्द प्रसिद्ध हुआ ।बिशिष्ट स्थलों में सकार के स्थान में हकार का आदेश पाणिनी ब्याकरण और उसके भाष्यकार और उसके व्याखाताओ को भी अभीष्ट है ।जैसे अस्मद शब्द को प्रथमा एक वचन त्वाहौ सौ [[७/२/९४]] को अह आदेश होता है । लोट् लकार में सर्वत्र सी के जगह ही करने वाला सेहर्य पिच्च [[३/४/८७]] सूत्र सुप्रसिद्ध है ही इसी प्रकार 'ह' एती [[७/ ४/५२/ ]] सूत्र भी सकार को हकार करता है ।
सकार और हकार दोनों की ही इषद् विवृत और महा प्राण प्रत्यंत भी
सामान है । वर्ण माला में भी ' स' और' ह ' दोनों को एकत्र ही पढ़ा गया है ।प्राकृत भाषा में तो सकार हकार के विपर्यय का बाहुल्य भरा पड़ा ही है ।
अस्मि" युष्माकं" और अस्माक के स्थान में क्रमश: ह्यी "" तुह्यण " अह्याणम आता है । हिन्दी भाषा के ख्यातनाम कवियों ने भी सकार के स्थान पर हकार का आदर किया है । जैसा की श्री सुर दास जी पाषाण शब्द के जगह पाहन शब्द को जगह दिया है ।यहाँ " स " के स्थान पर " ह " का
"" पाहन पतित बाण नही भेदत रीता कढ़ी निषंग ""
श्री गोस्वामी तुलसी दास जी ने भी पाहन ते न काठ कठिनाई लिखा है ।राम चरित मानस बालकाण्ड में भगवन श्री रामचन्द्र शारीर सौन्दर्य का वर्णन करते हुए लिखा है ।
"" केहरी कन्ध बाहु बिशाल "
यहाँ कहने की आवश्यकता नही है की यदि गोस्वामी जी उक्त चौपाई में केहरी के स्थान पर केशरी भी रख देते तो वर्णमात्र जन्य छ्न्दोभंग की तनिक भी संभावना नही थी तथापि यहाँ ह्कारोच्चारण को आग्रह पूर्वक अपनाने का यही एक मात्र कारण है की शब्द माधुरी और ओजस्विता की दृष्टि हकार सकार से अधिक उपादेय है ।इस लिए यह कल्पना भी निर्हैतुक नही की जा सकती की संगीत ललित आदि कलाओं के जन्म दाता बीर सिन्धुओ ने उपयुक्त गुणों के कारण ही अपने नाम को हकारोच्चारण को ही प्रधानता दी हो ।जो हो हिन्दु नाम अति प्राचीनतम वैदिक परम्परा का ही परिचायक है इसमें तनिक भी शन्देह नही है ।यहाँ ऐतिहासिक तथ्य भी प्रसंगवस स्पष्ट कर देना अनावश्यक नही की " रामायण " महाभारत और "पपुराण आदि ग्रन्थो के अनुसार चंद्रवंशी सम्राट ययाती के अन्यतम पुत्र और दैत्य वंशियों राजा वृषपर्वा के दौहित्र " द्र्ह्यु " को पश्चिमोतर राज्य मिला था जिसकी वंश परम्परा में आगे चल कर प्रचेतावन्शीय १०० राजाओं ने पश्चिम देश पर सासन किया ।
यथा ।
मलेच्छाधिपतयोSभवन् ( श्रीमद्भागवत ९/२३/१६/)
अर्थात --: पाश्चात्य देश के अप भाषाभाषी लोग शासक हुए आज बाहर पाशच्यात देश के जितनी भी जातियां है वो उन्ही चन्द्रवंशी क्षत्रियो का संतान है जो मनु महाराज के कथन अनुसार ।
शनकेस्तु किर्यालोपादिमाः क्षत्रियजातय ।
वृषलात्वं गतालोके ब्राह्मणानामदर्शनात् ।।( मनु १०/४३)
अर्थात --- अनेक क्षत्रिय जातियां ब्राह्मण लोगो के सम्पर्क में न रहने के कारण धार्मिक किर्याकलाप भूल जाने के शुद्र प्रायः मलेच्छ अप भाषाभाषी बन गई ।चन्द्र शब्द का अन्यतम पर्याय" इन्दु " है सो सिन्धु प्रांत के पश्चिमी साखा के पूर्व पुरुषा जहां सिन्धु नाम से प्रख्यात हुए वहां अपने चन्द्रवंशी होने के प्रतिक " इन्दु" किंवा तद्पत्य ऐन्देव उपाधि से भी बिस्व बिख्यात हो गए ।उक्त " इन्दु" और ऐन्देव शब्द के विकृत रूप दकारहिन् खारोष्टि भाषा में इन्डो " इंडिया" इंडियन " आदि शब्दों के रूप में परिणित हो गया ।सिन्धु और हिन्दु शब्दों में धकार और दकार के तारतम्य के कारण भी इन्दु शब्द संघटित दकार का अत्यधिक प्रचलन ही कहा जाएगा ।इस लिए हिन्दु शब्द के अवार्चनी होने का भ्रम भी उन्ही महाशय को हो सकता है जो वैदिक वाङ्गमय के अनुशंधानात्मक हिन् है ।
मन्त्र ब्राह्मणातम्क वेद में सकारोपलाक्षित और लिङ्गोपदीष्ट हिन्दू शब्द अनेक अस्थानो में आता है यथा ।
(क) नेता सिन्धुनाम -------------( ऋग वेद ७/५/२)
(ख) सिन्धुपति: क्षत्रियाः----------( ऋग वेद ७/६४/३)
(ग) हिङ्कृणवती दुहामश्विभ्याम -------( ९/१०/५)
(घ)सिन्धोगर्भोशी विद्यतां पुष्पम ------(अथर्वेद १९/४४/५)
(ङ) अस्येंदु त्वेषा ्रन्तसिन्धैव -----(अथर्वेद २०/३५/११)
( च) सिन्धो अधिक्षियत-----------------( ऋग वेद १/१२६/१)
अर्थात (क) सिन्धु का नेता (ख)सिन्धुपति क्षत्रिय (ग) हिन्कार करती गाय को दुहनेवाला (घ) हे जन तू सिन्धु का गर्भ है अतएव तू तेजश्वी जनों का पोषक है (ङ) इनके ही ( इश्वर) के तेज वरदान से सिन्धु लोग विजय होते है (च) सिन्धु देश में निवास करो ।
उपयुक्त प्रमाणों में समुद्र किंवा नद नदी वाचक सिन्धु शब्द की कल्पना वही लोग कर सकते है जिन्हें की अर्थ प्रकरण लिङ्ग शहचर्य्य बिरोधिता आदि अर्थ निर्णायक तत्वों का ज्ञान न हो ।पाठक गण जरा ध्यान पूर्वक मनन करे और देखे की (क) में सिन्धु के नेता का वर्णन किया गया है ।समुद्र नद नदी आदि का तो ब्यक्ति स्वामी हो नही सकता परन्तु नय निति चलाने वाला नेता तो हो नही सकता नेतृत्व में चलने और चलाने की योग्यता केवल चेतनो में ही सम्भव है अतः यहाँ समुद्र शब्द नद नदी का वाचक न हो कर तन्नामक जाती या जनसमूह के वाचक हो सकता है (ख) भाग में स्पस्ट तःसिन्धुपति क्षत्रिय का वर्णन विद्यमान है यह उपाधि राणा प्रताप को हिन्दुपति के रूप में प्राप्त हुई थी (ग) भाग में हिङ्कृणवती दुहाम् शब्दों में वत्स दर्शन संजात हर्षा एवं प्रसंन्सा सूचक हिं हिं शब्द करती हुई गाय का दोहन करने वाली हिन्दू जाती का निर्वेचन पूर्वक हिं--दू नाम परोक्ष पद्यति से प्रकट कर दिया है । निरुक्तकार यास्क ने वेद की इसी निर्वचन शैली को ध्यान में रख कर यह घोषणा की है की ।
स्वरवसम्यान्निर्ब्रूयात् [[ निरुक्त १/३]]
अर्थात -- किसी स्वर या वर्ण व्यंजन का समानता देखकर अमुक शब्द का निर्वचन करना चाहिए ।
यह कहने की आवश्यकता नही है की वैदिक मंत्रो में तादृश शब्दों का शब्दांश या अक्षर मात्र आ जाने पर भी उसका तत्तद् पदार्थो के ग्रहण में बिनियोग सुतरा श्रोतसुत्रो का भी अभिप्रेत है फिर चाहे वो शब्द अर्यन्तर का ही वाचक क्यों न हो ।जैसे समस्त वैदिक अनुष्ठानो में भी दधि -- दही
अर्पण करते हुए
दधिक्राव्णों उकारिषम् [[ऋण ४/३९/६]] इत्यादि मन्त्र बोला जाता है यहाँ दधी शब्द दही का अर्थ वाचक नही है वास्तव में यहाँ दधी शब्द ही नही है ।किन्तु दधिक्र शब्द है जिसका अर्थ घोड़ा है निरुक्य्कार ने शब्द का निर्वचन करते हुए स्पष्ट लिखा है की
दधत् क्रमाती इति दधिक्रा अस्वः निरुक्त [[४/३]] अर्थात --जो सवार के पीठ पर चढ़ते ही कदम बढाने लगता है वह चन्चल पशु इस गुण के कारण दधिक्रा कहा जाता है सो जैसे यहाँ दधिवाचक शब्द की अविद्यमानता में भी केवल शब्दांश मात्र द -- धी वर्णों के लिंग प्रमाण से उक्त मन्त्र का दधी विनियोग विहीत है ठीक उसी प्रकार हिङकृणवती और दुहाम् मंत्राश में तो लिङ्ग प्रमाण के साथ साथ तदर्थ क8 संगती भी अवाध है ।
अग्नि स्तावक उद् बुद्धस्वाग्ने [[ यजु१५/५४]] मन्त्र का बुध ग्रह की पूजा में जलस्तावक शन्नो देवी [[ऋग १०/९/४]] मन्त्र का शनि के पूजन में विनियोग भी हमारे विवेचन के ही समर्थन है यदी किर्यानिष्ठ उद् बुद्धस्व से बुध अक्षन शब्द से अक्षत शं मात्र से शनि आदि का वेद में पाणिग्रहण हो सकता है तो फिर हिं - दू से हिन्दू क्यों नही । शायद यहाँ यह समझाने की तो आवश्यकता ही नही एक मात्र हिन्दू संस्कृति में ही यज्ञ यागादी सर्वविध इष्टापुर्त सम्बन्धी अनुष्ठानो में सवत्सा गाय का वत्स पान अविशिष्ट दूध ही ग्राह्य माना जाता है एनी लोग तो केवल दूध मात्र के इच्छुक है फिर चाहे वह पशु को डरा धमका कर अथवा मशीन के द्वारा बलात् क्यों न सुन्ता गया हो परन्तु हिन्दू संस्कृति का यह उद्घोष है की ।
श्राद्धे सप्त पवित्राणी दोहित्रं कुत्पस्तिला: ।
उच्छिष्टं शिवनिर्माल्यं वामनं शव कर्पटम् ।।
न केवल धार्मिक अनुष्ठानो में ही अपितु आयुर्वैदिक उपचारों में भी सवत्सा गाय का दूध ही परिगृहित किया गया है ।
वेद में उक्त भगवदाज्ञा को देख कर सिन्धु संस्कृति के प्राचीनतम पुरुषाओ ने अपनाया था और अपनी इस बिशेषता को अक्षुण बनाए रखने के लिए अपना तादृश नाम ही प्रख्यात कर दिया था ।
--------[[ तंत्र और पुराण में हिन्दू शब्द ]]-------
(क) हिन्दुधर्मप्रलोप्तारो जायन्ते चक्रवर्तीन: हिनञ्च दुषय त्वेव स हिन्दुरुच्यते प्रिये । [[ मेरुतंत्र प्रकाश २२]]
(ख) अवनी यवनै: क्रान्ता हिन्दवो विन्ध्यामा विशन् [[ कलिका पुराण ]]
(ग) हिमालयं सामारभ्य यावदिन्दु सरोवरम । तं देवनिर्मितं देशं हिन्दुस्थान प्रचक्षते [[बार्ह स्पत्य शास्त्र ]]
(घ) सप्त सिन्धु स्तथैव च हप्त हिन्दुर्या वनीच [[ भविष्य पुराण ५/३६]]
(ङ) हिनस्ति तपसा पापान् दैहिकान दुष्टमानसान । हेतिभी शत्रुवार्गाश्च स हिन्दुरभिधियते [[ पारिजात हरण नाटक]]
प्रस्तुति ----------:श्री माधवाचार्य