Wednesday 17 June 2015

वाचस्पति मिश्र जीवन दर्शन

वाचस्पति मिश्र का उदय भारतीय दर्शन के संघर्स और बिकास युग में हुआ था न्याय वैशेषिक सम्प्रदाय का प्रारम्भिक युग सूत्रो और भाष्यों का युग था दिग्नाग का प्रादुर्भाव (पञ्चम शताब्दी )तक यह युग चलता रहा दिग्नाग के उदय के पश्चात न्याय वैशेषिक के साथ महान संघर्ष हुआ यह न्याय वैशेषिक का युग था इसी युग में वाचस्पति मिश्र का आविर्भाव  हुआ यह युग (५ से ११) शताब्दी तक भारतीय का स्वर्ण युग है और वाचस्पति मिश्र इसके जाज्वल्यमान रत्न है जहाँ अनेक विद्वान आचार्यो के काल के बिषय में अटकलों तथा आकलनों का ही सहारा लेना पड़ता है वहां वाचस्पति मिश्र की लोक विश्रुत कृतियों के सामान उनकी तिथि भी स्पस्ट रूप से विदित है सौभाग्य से वाचस्पति मिश्र ने अपने न्याय शुचि निबन्ध ग्रन्थ के अंत में अपनी तिथि इस प्रकार दी है
न्याशुचिनिबंधोsसावकारी सुधियाँ मुदे ।
श्रीवाचस्पतिमिश्रेण वस्वङ्ग कवसुवत्सरे ।।
श्री वचस्पति मिश्र ने वसु (८) अंक (९)  वसु ( ८) अर्थात  ८९८ सम्वत में बुद्धिमानो के मोद के लिए न्यायशुचि निबंध रचा ।
वाचस्पति मिश्र का समय सम्वत ८९८ के लगभग है इसमें संदेह नही ।
वचस्पति मिश्र के  समय आदि पर प्रकाश डालने वाला एक अन्य संकेत भी उपलब्ध है उन्होंने भामती टिका के अंत में लिखा है की यह निबंध उस समय लिखा गया है जब रजा नृग राज्य करते थे वचस्पति मिश्र इन्ही राजा के शासन काल मई विद्यमान थे । वचस्पति मिश्र ने मण्डन मिश्र के विधि विवेक पर न्यायकणिका नाम की ब्याख्या की है ।
वाचस्पति मिश्र का विद्या व्यसन बिशेष रूप से विश्रुत है उनके बिषय में प्रशिद्ध है की वे एक बड़े बिरक्त और सच्चे दार्शनिक थे विवाहित होते हुए भी वे सदा गृहस्त धर्म से पराङ्गमुख रहे और अनवरत रूप से मनन और दार्शनीक साहित्य की सृष्टि में प्रयत्नशील रहे बृद्धाअवस्था आने तक उनकी कोई संतान न हुई तो एक दिन उनकी पत्नी दुखी हो कर वंश की रक्षा और नाम चलाने का ध्यान दिलाया इस पर उन्होंने कहा पुत्र होने पर भी तुम्हारा नाम और वंश चले इसका क्या ठिकाना तुम्हारे नाम को अमर करने के लिए अपनी सवोत्तम कीर्ति वेदान्त भाष्य की टिका का नाम तुम्हारे नाम से रख देता हु तुम्हारा पुत्र सम्भव हो एक या दो पीढ़ी तुम्हारा नाम चलाये परंतु अब तुम्हारा नाम सदा के लिए अमर हो जाएगा कहा जाता है की वेदान्त दर्शन के  शांकरभाष्य की ब्याख्या का नाम भामती टिका इसी आधार पर रखा गया ।
वाचस्पति मिश्र के गुरु त्रिलोचन थे त्रिलोचन न्याय विशेषिक सम्प्रदाय के उच्चकोटि के ब्याख्यता रहे होंगे उनका समय ८०० ई 0 का रहा होगा त्रिलोचन का उल्लेख कई दार्शनिक गर्न्थो में मिलता है परन्तु उनकी कोई कृति उपलब्ध नही है तार्किक रक्षा में दो स्थलो पर त्रिलोचन का उल्लेख किया गया है रत्नकीर्ति ने अपोहसिद्धि तथा क्षणभंग सिद्धि में त्रिलोचन की आलोचना की गई है बौद्धाचार्य मोक्षाकार ने त्रिलोचन का दो स्थलो पर उल्लेख किया है । डा0 गोपीनाथ कविराज ने ठीक ही कहा है की उदयन हमें बतलाते है की उद्योतकर के गर्न्थो का पुनरुद्धार का कार्य  में वाचस्पति मिश्र ने अपने विद्यागुरु त्रिलोचन के आभारी है वाचस्पति मिश्र के इस उक्ति की ब्यख्या करते हुए उदयनाचार्य लिखते है ।
त्रिलोचनोगुरु: सकाशाद उपदेशरषायनम् असादितम् अमुषां
पुनर्नविभावाय दीयते ।।
त्रिलोचन गुरु से साक्षात् उपदेशरूपि रसायन वाचस्पति मिश्र ने प्राप्त कीया वह रसायन इन उद्योतकर की बूढी गायो को फिर से तारुण्य प्राप्त कराने के लिए दिया गया ।
इससे ये स्पस्ट होता है की त्रिलोचन ही वाचस्पति मिश्र के गुरु थे वचस्पति के अद्भुत प्रतिभा का बिकास में उनका पर्याप्त योगदान रहा होगा।
वाचस्पति मिश्र सर्वतंत्र स्वतंत्र विद्यवान के रूप में प्रसिद्धहै वे षड् दर्शन टीकाकार है केवल छः वैदिक दर्शनों में ही नहीं अपितु बौद्ध तथा जैन दर्शनों में भी उनकी अप्रतिहत गति है ।
भामती टिका के अनुशीलन से यह भी विदित होताहै की पाशुपात और पञ्चरात्र इत्यादि की बिचारधारा से भलीभांति परिचित थे ।समस्त दर्शनों पर की गई  ब्याख्या से उनके गंभीर पांडित्य तथा ब्यापक ज्ञान का परिचय मिलता है वे एक निष्पक्ष बिचारक तथा ब्याख्यता थे उनकी यह ब्यक्तिगत बिशेषता थी की वे जिस दर्शन की ब्याख्या करते है उनमे ही तन्मय हो जाते है उनके पक्ष का हृदय से समर्थन करते है इसी हेतु वे न्यायतात्पर्यटिका में एक दृढ नैयायिक सा प्रतीत होते है किन्तु भामती टिका के अनुशीलन से प्रतीत होता है की वे नैयायिक नहीअपितु  बिशुद्ध अद्वैतवादी वेदांती है ।वहां वे अत्यंत उत्शाह के साथ न्याय वैशेषिक आदि का खण्डन करते दृष्टिगोचर होते है ।
वाचस्पति मिश्र की एक बिशेषता यह है की वे जिस दर्शन की ब्याख्या करना आरम्भ करते है उनके मन्तब्यो के नितांत अनुकूल ही मंगल पाठ होता है ।जैसे न्यायतात्पर्य टीका में उनका उपास्य बिश्वकृत विश्वेशानो तथा विश्वसंहार कारी है सांख्यतत्व कौमुदी में वे सत्वरजस्तमस संविन्ता प्रकृति तथा भोक्ता एवम् मुक्त पुरुष को नमस्कार करते हुए दृष्टिगोचर होते है किन्तु सेस्वर सांख्य अर्थात योग की ब्याख्या करते हुए क्लेशकर्म विपाकाशय से रहित जगत के निर्माता की स्तुति करते है शांकरभाष्य के ब्य्याख्या के आरम्भ में तो वे एक नैष्ठिक अद्वैतवादी वादी वेदांती के सामान उस ब्रह्म को नमस्कार करते है यह समस्त विश्व् ही जिनका विवर्त है ।
वाचस्पति मिश्र में दर्शन सम्बन्धी बहुमुखी प्रतिभा थी अतः भारतीय दर्शन के क्षेत्रो में उनका सर्वतोमुखी देन है सभी वैदिक दार्शनिक सम्प्रदायो पर उन्होंने ने विस्तृत ब्याख्याए लिखी है उनकी ब्याख्ययो और टीकाओं का किसी भी मौलिक गर्न्थो से कम नही है प्रत्येक दार्शनिक सम्प्रदाय में उनकी ब्याख्या प्रमाण मानी जाती है उनकी नवीन उद्भवनाओ के कारण तो उनका महत्व तो और भी बढ़ गया ।जैसा की कहा जा चूका है की वाचस्पति मिश्र की यह विशेषता है की वे जिस दर्शन सम्प्रदाय का विवेचन करते है हृदय से समर्थन करते हुए दिखलाई देते है । उदाहरणार्थ  न्यायतात्पर्य टिका में वे पूर्ण नैयायिक प्रतीत होते है वहां बड़ी स्पस्टता तथा दृढता  से न्याय के सुक्ष्मो को दर्शाते है किन्तु वेदान्त की ब्याख्या करते समय वे पूर्णतः वेदान्ति है मानो शांकर वेदांत उनके नश नश में रमा हो उनके एक एक शब्द से वेदान्त के  सिद्धांतो से ध्वनि निकलती है वे रत्ती भर भी इधर से उधर दिखलाई नही देते इससे उनके सूक्ष्म निरीक्षण शक्ति विवेक बुद्धि तथा पाण्डित्य का बोध होता है जितना बारीकी से दर्शन के विविध सम्प्रदायो के सिद्धांत का विवेचन उन्होंने किया है इतना अन्य किशी आचार्य ने नही किया इसी से उनके गर्न्थो पर अनेक टीकाएँ हुई है दर्शन के अनेक विद्वानो ने उनके प्रति आदर और सम्मान का भाव प्रकट किया है ।उदयनाचार्य जैसे उद्भट विद्वान उनकी टिका की ब्यख्या करने के पुर्व  सरस्वती माता से प्रार्थना करता है की माता सरस्वती ऐसी सावधान हो की जिससे ये मन और वाणी वाचस्पति के वचनो में स्खलित न हो अन्य विद्वान भी इसी तरह आदर प्रकट करते हुए दिखलाई देते है वैदिक दर्शन के विवेचनो के साथ साथ वाचस्पति मिश्र ने बौद्ध दर्शन का भी विषद विवेचन किया है बौद्ध दर्शन सिद्धान्तों की ऐसी स्पष्ट ब्यख्या की है  जैसी स्वयं बौद्ध दर्शन के आचार्य भी न कर पाये न्यायवार्तिकतात्पर्य टिका तथा न्यायकणिका और भामती आदि में बौद्ध का विस्तृत विवेचन वाचस्पति मिश्र ने किया वस्तुतः ये भारतीय दर्शन के सूर्य है जिनका ब्यापक प्रकाश दर्शन के प्रत्येक क्षेत्र में पड़ा भिन्न भिन्न सम्प्रदाय में उनका मौलिक देन है
शांकरभाष्य के भामती टिका के समाप्ति पर वाचस्पति मिश्र ने स्वयं अपनी रचनाओ की ओर इस प्रकार संकेत किया है
यन्न्यायकणिकातत्वसमीक्षातत्वबिन्दुभि: ।
यन्न्यायसांख्ययोगानां वेदान्तानां निबन्धनै: ।।
इससे उनकी सात रचनाओ का पता चलता है न्यायकणिका तत्वसमीक्षा तत्वबिन्दु न्याय पर लिखी गई ब्याख्या न्यायतात्पर्यटिका सांख्यतत्व कौमुदी तत्ववैशारीदि तथा वेदान्त पर भामती टिका ।
न्यायवार्तिकीतात्पर्य टीका वाचस्पति मिश्र की कीर्तियों में प्रसिद्द और महत्व की दृष्टि से इस ग्रन्थ का स्थान सर्वपरी है यह न्याय शास्त्र का कदाचित् सबसे महत्वपुर्ण ग्रन्थ है । प्राचीन न्याय के सिद्धान्तों का  अंतिम रूप देने का कार्य वाचस्पति मिश्र का रहा है इस कार्य का सम्पादन उन्होंने इसी ग्रन्थ द्वारा किया था यह ग्रन्थ  केवल उद्योतकर के न्यायवार्तिक की ब्याख्या ही नही न्यायशुत्र और वात्स्यायन भाष्य को नवीन जीवन प्रदान करने वाला है ।
न्यावार्तिकतात्पर्य टिका के आदि में विश्वब्यापि पिनाकी की स्तुति कर के तथा धर्म बिज्ञानादियुक्त अक्षपाद को प्रणाम करके इस ग्रन्थ का प्रयोजन इस प्रकार दिया है ।
ग्रन्थ ब्याख्याच्छलेनैव निरिस्ताखिलदुष्णा ।
न्यावर्तिकतात्पर्यटीकाsस्माभी विंधास्तेय ।।
इच्छामि किमपि पुण्यम दुस्तरकुनिबंधपंङ्क मग्नानाम् ।
उद्योतकरगविनामतिजरतीनां समुद्धरणात् ।।
न्यायवार्तिक ब्यवस्था के ब्याज से अखिलदूषणो का निराकरण करने वाली न्यायवार्तिकतात्पर्य टिका हमारे द्वारा रची जायेगी दुस्तर कुनिबन्धो के कीचड़ में फंसी हुई उद्योतकर की प्राचीन उक्ति रुपी अति बूढी गायो का उद्धार करके मैं कुछ पूण्य सञ्चित करना चाहता हु ।उद्योतकर की न्यायवर्तिक की जो प्रतिपक्षियो द्वारा छीछालेदर बिशेषतः उसी के उद्धार के लिए न्यायतात्पर्य टिका लिखा गया न्याय वैशेषिक तथा बौद्ध  दर्शन के संघर्ष में इस ग्रन्थ का महत्व सबसे बढ़ कर है ।

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वाचस्पति मिश्र द्वारा बौद्ध दर्शन का विवेचन
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