Monday 22 October 2018

रावण वध एवं श्रीराम राज्यभिषेख

महाभारत में जिस प्रकार पाण्डवो का 13 वर्ष वनवास अधिक मास को लेकर जोड़ा गया था यह बिराट पर्व के भीष्मवाक्य से सिद्ध है इसी तरह श्रीरामचन्द्र जी का 14 वर्ष का वनवास भी अधिकमास को लेकर ही पूरा हुआ था इस तरह अमान्त मान से कृष्णचतुर्दशी में पुर्णिमान्त मान से कार्तिक कृष्ण षष्ठी में १४ वर्षो की पूर्ति होती है अन्यथा चैत्रमास की शुक्ल दशमी के आरम्भ होकर १४ वर्ष की समाप्ति षष्ठी को नही रह सकती थी पतन्तु अधिकमास की गड़ना से ११ दिन कम छः मास की वृद्धि हो जाती तभी १४ वर्ष की पूर्ति षष्ठी को हो सकती है अतः १२ वर्ष के पूरे होने पर १३ वे वर्ष के कुछ समय बीतने पर फाल्गुन अष्टमी को सीता हरण हुआ था १४ वे वर्ष के कुछ दिन बीतने पर श्रीराम जी लङ्का के समीप पहुंचे  थे|

#वर्तते_दशमो_मासो_द्वौ_तु_शेषौ_प्लवङ्गम (वा0 रा0 ५/३७/८)

दर्शयामास वैदेह्याः स्वरूपमरिमर्दनः(वा0रा ५/३७/३३)

इस सितोक्ति के अनुसार सावन मान से सव्हरण दिन से १० मास बीत चुकने पर सीता हनुमान का सम्वाद हुआ था #पूर्णचन्द्रप्रदीप्ता
इस रामोक्ति के अनुसार पौष शुक्ल के चतुर्दशी या पूर्णिमा को श्रीरामजी त्रिकुट के शिखर पर आयें थे |

हनुमान का लङ्का में प्रवेश काल :-

हिमव्यपायेन च शितरश्मीरभ्युत्थितो नैकसहस्त्ररश्मि:(वा0रा ५/१६/३१)
द्वौ मासो रक्षितव्यौ मे योSवाधिस्ते मया कृत: (वा0 रा0 ५/२०/८)
इन वाक्यो से प्रतीत होता है कि हनुमान जब लङ्का में प्रवेश किया था तब शरद ऋतु का आगमन हो चुका था मार्गशीर्ष दशमी के बाद ही हनुमान का लङ्का मे प्रवेश का स्पष्ट प्रमाण है
अन्यत्र मार्गशीर्ष कृष्णाष्टमी को राम को प्रस्थान कहा गया है पौषपूर्णिमा को राम त्रिकुट आये थे उसके १५ दिन सेनानिवेस दूतप्रेषण आदि में बीत गयें तब युद्ध आरम्भ हुआ तब से लेकर श्रावण अभय अमान्त पर्यंत लङ्कापुर के बाहर दोनों दोनों सेनाओ का युद्ध हुआ ।
इंद्रजीत वध अनन्तर यह कहा गया है की तुम आज कृष्पक्ष चतुर्दशी अभ्युत्थान करके अमावस्या में ही शत्रुबिजय के लिए गमन करो ।
इंद्रजीत का वध तीन दिनों में हुआ था दशमी के चौथे प्रहर से लेकर त्रयोदशी के चौथे प्रहर के अवधि में इंद्रजीत का वध हुआ था |
रावण का निर्गमन आश्विन शुक्ल प्रतिपदा को हुआ था
उसके बाद ही रावण वध और इसके अनन्तर आदित्य को स्थिरप्रभ होना कहा गया है इससे प्रतीत होता है कि रावण का वध दिन में ही हुआ

इसी पक्ष का समर्थन कालिका पुराण से होता है ।

रामस्यानुग्रहार्थाय रावणस्य वधाय च।।

रात्रावेव महादेवी ब्रह्मणा बोधिता पुरा।
ततस्तु त्यक्तनिद्रा सा नन्दायामाश्विने सिते।।

जगाम नगरीं लङ्कां यत्रासीद्राघवः पुरा।
तत्र गत्वा महादेवी तदा तौ रामरावणौ।।

युद्धं नियोजयामास स्वयमन्तर्हिताम्बिका।
रक्षसां वानराणां च जग्ध्वा सा मांसशोणिते ।।

रामरावणयोर्युद्धं सप्ताहं सा न्ययोजयत्।
व्यतीते सप्तमे रात्रौ नव्यां रावणं ततः।।

रामेण घातयामास महामाया जगन्मयी।
यावत्तयोः स्वयं देवी युद्धकेलिमुदैक्षत।।

तावत् तु सप्तरात्राणि सैव देवैः सुपूजिता।

निहते रावणे वीरे नवम्यां सकलैः सुरैः।।
विशेषपूजां दुर्गायाश्चक्रे लोकपितामहः।

राम के अनुग्रहार्थ और रावण के वधार्थ ब्रह्मा द्वारा प्रबोधित देवी लङ्का में आयी और सात दिन तक राम रावण का युद्ध हुआ नवमी के दिन राम ने रावण का वध किया सब देवताओ तथा ब्रह्मा द्वारा ८ दिन तक दुर्गा पाठ होती रही ।
ऐसे रावण का वध का स्पष्ट प्रमाण इतिहास पुराणादि में आश्विन मास के शुक्लपक्ष नवमी ही ठहरता है न कि फाल्गुन मास ??
सर्ग १२३ के अंत मे पुष्पक द्वारा अयोध्या के पास पहुंचने का उल्लेख किया गया है किन्तु सर्ग १२४ में वनवास की समाप्ति पर श्रीरामचन्द्र का भारद्वाज मुनि के आश्रम में पहुचने का उल्लेख है
पूर्णे चतुर्दशे वर्षे पञ्चम्यां लक्ष्मणाग्रजः ।
भरद्वाजश्रमं प्राप्य ववन्दे नियतो मुनिम् ।।

 लङ्का में राम  ने बीभीषण से दुर्गम मार्ग का उल्लेख किया था भारद्वाज आश्रम में राम ने मुनि से यह वरदान मांगा था कि मार्ग में सभी बृक्ष अकाल मे फलदार हो यहाँ श्रीरामचन्द्र जी को यह वरदान वानरों के लिए मांगा था
आक्षेपकर्ता के अनुसार यदि पदयात्र होती तो लङ्का से अयोध्या पहुंचने में कम से कम एक मास का समय अपेक्षित होता इस प्रसंग में स्पष्ट ही पुष्पक यात्रा की संगति होती है ||
वनवास की अवधि पूर्ण होने पर भारद्वाज मुनि के आश्रम में ही कपिश्रेष्ठ हनुमान को आज्ञा देते है कि वानरराज हनुमान तुम अतिशिघ्र अयोध्या का समाचार लो कि वहाँ सब कुशल मंगल तो है न और वहाँ राजा भरत को मेरे आगमन की सूचना दो ।
श्रीरामचन्द्र जी का अयोध्या आगमन कार्तिक मास ही ठहरता है चैत्र मास नही ।

Wednesday 19 September 2018

पञ्चरात्र आगम

-------------------- #पञ्चरात्र_आगम ------------------------

भारतीय संस्कृति निगमागम मूलक है इस संस्कृति का आधार जिस तरह निगम है उसी तरह आगम भी है ! अनादि सम्प्रदाय सिद्ध गुरु शिष्य परम्परा क्रमागत शास्त्र सन्दर्भ आगम शब्द से अभिहित होता है पदवाक्य प्रमाणज्ञ भगवान भर्तुहरी ने महाभाष्य पष्पाशाह्रिक में निर्दिष्ट आगम:खल्वपि  इस प्रतीक की व्यख्या करते हुए उस आगम को श्रुति लक्षण तथा स्मृति लक्षण होना कहा है वाचस्पति मिश्र के अनुसार

 #आगच्छन्ति_बुद्धिमारोहन्ति_यस्मात् #अभ्युदयनि:#श्रेयसोपाया: #स: #आगम
अर्थात :- जिससे अभ्युदय (लौकिक कल्याण )तथा नि:श्रेयस (मोक्ष) के उपाय बुद्धि में आते हो उसे आगम कहते है निष्कर्ष रूप में अभ्युद तथा निःश्रेयस के उपायों का प्रतिपादित शास्त्र आगमशास्त्र है ।इस साधना के अंतर्गत क्रिया प्रधान अनुष्ठानों का स्थान महत्वपूर्ण होता है वराहितन्त्र में अधोलिखित रूप में आगम का लक्षण निर्देश किया है ।

#सृष्टिश्च_प्रलयश्चैव_देवतानां_यथार्चनम
साधनं चैव सर्वेषां पुरश्चरणमेव च
षट्कर्मसाधनं चैव ध्यानयोगश्चतुर्विध
सप्तभीलक्षणैयुक्तमागम तद्विदुर्बुधा:
अर्थात जिस शास्त्र में यह सात बिषय प्रतिपादित हो उसे आगम शास्त्र कहते है |
कई ऐसे तथाकथित विद्वान भी है जो यह कहते है कि पञ्चरात्र  अवैदिक मत है
पञ्चरात्र आगम को अवैदिक कहने वाले कम से कम शास्त्रमर्यादा का भी ख्याल रख लेते तो यूँ आक्षेप न लगाते इतिहास ,पुराणादि अयाख्यानों में पञ्चरात्र सिद्धांत को वेदोक्त धर्म ही माना है न कि उसे अवैदिक कहा ??

#त्रयीसांख्यवेदांतयोगाः #पुराणं_तथा_पञ्चरात्रं_प्रभो_धर्मशास्त्रम्  (स्कंद पुराण वैष्णव खण्ड)

पुराणादि से लेकर महाभारत तक ऐतिहासिक ग्रन्थो ने भी पञ्चरात्र को वेदोक्त धर्म ही माना है |
ऋक यजु साम की तरह पञ्चरात्र भी  नारायण के श्रीमुख से ही उद्गीत हुआ है ।

#इदंमहोपनिषदंचतुर्वेदसमन्वितम्।
#सांख्ययोगकृतंतेन_पञ्चरात्रानुशब्दितम्।।
#नारायंणमुखोदीतं (महाभारत मोक्षधर्मपर्व )

#पाञ्चरात्रस्य_कृत्स्नस्य_वक्ता_तु_भगवान्स्वयम् (महाभारत शांतिपर्व ३५९/६८)

पञ्चरात्र सिद्धान्त का प्रचार प्रसार स्वयं देवऋषि नारद,  शाण्डिल्य ऋषि से लेकर पाण्डवो ने किया

#श्रुत्वैतदाख्यानवरं_धर्मराड्‌जनमेजय।
#भ्रातरश्चास्य_ते_सर्वे_नारायणपराभवन्।।(महाभारत मोक्षधर्म पर्व)

क्षत्रियशिरोमणि उपरिचर नरेश सम्पूर्ण ऐश्वर्य से युक्त थे  उनके शाशनकाल में नित यज्ञ का प्रयोजन होता था जिस कारण उनके घर पर पञ्चरात्र शास्त्र के मुख्य विद्वान सदा निवास करते थे ।

#काम्यनैमित्तिका राजन्यज्ञियाः परमक्रियाः।
सर्वाः सात्वतमास्थाय विधिं चक्रे समाहितः।।
पाञ्चरात्रविदो मुख्यास्तस्य गेहे महात्मनः। (महाभारत मोक्षधर्म पर्व)

ऐसे में पञ्चरात्र आगम को अवैदिक कहने का साहस वही कर सकते है जिन्होंने श्रुति ,इतिहास,पुराणादि का मुख तक देखा न हो |
पञ्चरात्र सिद्धान्त का प्रचार सम्पूर्ण भारतवर्ष में वयाप्त था इसका प्रमाण स्वयं महाभारत ही करता है ।

#सात्वतो_धर्मोव्याप्य_लोकानवस्थित: (महाभारत मोक्षधर्म पर्व )

भगवद्पाद श्रीरामानुजाचार्य ने श्रीभाष्य में उक्त कथन (पञ्चरात्रस्य कृत्स्नस्य )को उद्भूत करते हुए पञ्चरात्र वक्ता नारायण का परिचय इस प्रकार दिया है #वेदवेद्यश्च परब्रह्मभूतो नारायण....अतो वेदान्तवेद्य परब्रह्म भूतो नारायण:स्वयमेव  पञ्चरात्रस्य वक्तेति तत्स्वरूपतदुपासनाभिधायी ततंत्रमिति च तस्मिन्नितरतंत्र समान्यम न केनचिद्भावयितुं शक्यं (श्रीभाष्य)

-----#श्रीनारायण_हरि:--------

Thursday 5 April 2018

महर्षि वाल्मीकि जन्मना ब्राह्मण थे

#महर्षि_वाल्मीकि_जयंती_बिशेष
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मैकाले के अनौरस सन्तान वामपंथियों ने महर्षि वाल्मीकि को किरात,भील,मल्लाह,शुद्र तक बना डाला मिथ्या प्रचार कर लोगो मे भ्रम उतपन्न किया है जबकि यह असत्य और शास्त्र विरुद्ध है ।
महर्षि वाल्मीकि को सास्त्रो में आदिकवि बताया गया है महर्षि वाल्मीकि ने श्रीमद्वाल्मीकिरामायण  में अपना परिचय देते हुए कहते है कि मैं भृगुकुल वंश उतपन्न ब्राह्मण हुँ

सन्निबद्धं हि श्लोकानां चतुर्विशत्सहस्रकम् ।
उपाख्यानशतं चैव भार्गवेण तपस्विना ।। ७.९४.२६ ।।
इस महाकाब्य में इलोपख्यान २४ सहस्त्र श्लोक है और सौ उपाख्यान है जिसे भृगुवंशीय महर्षि वाल्मीकि जी ने बनाया है ।

महाभारत में भी वाल्मीकि को भार्गव (भृगुकुलोद्भव )
कहा गया है और यही रामायण के रचनाकार है ।

श्लोकद्वयं पुरा गीतं भार्गवेण महात्मना।
आख्याते राजचरिते नृपतिं प्रति भारत।।(महा० शान्तिपर्व १२/५६/४०)

शिवपुराण में यद्यपि उन्हें जन्मांतर का चौर्य बृती करनेवाला बताया तथापि वे भार्गवकुलोतपन्न थे भार्गववंश में लोहजङ्घ नामक ब्राह्मण थे उन्ही का दूसरा नाम ऋक्ष था ब्राह्मण हो कर भी चौर्य आदि का काम करते थे और श्रीनारद जी की सद्प्रेरणा  पुनः तप के द्वारा महर्षि हो गये  !
इसके अलावा विष्णुपुराण में भी इन्हें भृगुकुलोद्भव ऋक्ष हुए जो  वाल्मीकि कहलाये ।

ऋक्षोऽभूद्भार्गवस्तस्माद् वाल्मीकिर्योऽबिधीयते ।(विष्णु पुराण ३/३/१८)

श्रीमदवाल्मीकि रामायण में वाल्मीकि अपना परिचय देते हुए कहते है

प्रचेतसो ऽहं दशमः पुत्रो राघवनन्दन ।।(वा० रा ७.९६.१९ ।)
मैं प्रचेतस का दसवां पुत्र वाल्मीकि हुँ ।

ब्रह्मवैवर्त पुराण में कहा गया है

कति कल्पान्तरेऽतीते स्रष्टुः सृष्टि विधौ पुनः ।।
यः पुत्रश्चेतसो धातुर्बभूव मुनिपुंगवः ।।
तेन प्रचेता इति च नाम चक्रे पितामहः ।।१/२२/ १-३ ।।

अर्थात कल्पनान्तरो के बीतने पर सृष्टा के नवीन सृष्टि विधान में ब्रह्मा के चेतस से जो पुत्र उतपन्न हुआ उसे ही ब्रह्मा के प्रकृष्ट चित से उतपन्न होने के कारण प्रचेता कहा गया ।
इस लिए ब्रह्मा के चेत से उतपन्न दस पुत्रो में वाल्मीकि प्रचेतस प्रसिद्ध हुए ।
मनुस्मृति में वर्णन है ब्रह्मा जी ने प्रचेता आदि दस पुत्र उतपन्न किये ।

अहं प्रजाः सिसृक्षुस्तु तपस्तप्त्वा सुदुश्चरम् ।
पतीन्प्रजानां असृजं महर्षीनादितो दश । । १.३४ । ।
मरीचिं अत्र्यङ्गिरसौ पुलस्त्यं पुलहं क्रतुम् ।
प्रचेतसं वसिष्ठं च भृगुं नारदं एव च । । १.३५ । ।

भगवन जन्मांतर से ही ब्राह्मण थे शुद्र नही

गुरु लक्षण

#गुरु_लक्षण

एतद्‍देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मन:।
    स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन पृथिव्यां सर्वमानवा:॥(मनुस्मृति)
जो अग्रजन्मा है उसी से पृथ्वी के सभी मानव अपना आचार बिचार सीखें ।

ब्राह्मण सभी वर्णो में।अग्रजन्मा है
ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद् (ऋग्वेद)
उत्तमाङ्गोद्भवाज्ज्येष्ठ्याद्ब्रह्मणश्चैव धारणात् ।
सर्वस्यैवास्य सर्गस्य धर्मतो ब्राह्मणः प्रभुः (मनुस्मृति १.९३ )

वेदादि शास्त्रो में ब्राह्मण को मुख कहा गया है !
वाक् और बुद्धि  ही अंग प्रत्यंग से लेकर साम्राज्य तक का शाशन करता है यह दृष्टान्त जगत में देखा जाता है जिस कारण किस वर्ण का क्या आचरण है यह ब्राह्मण से ही जानना चाहिए क्यो ?
क्योकि
वर्णानां ब्राह्मणः प्रभुः (मनुस्मृति १०.३ )
उत्पत्तिरेव विप्रस्य मूर्तिर्धर्मस्य शाश्वती ।(मनुस्मृति )
ब्राह्मणो जायमानो हि पृथिव्यां अधिजायते ।(मनुस्मृति)
पृथग्धर्माः पृथक्शौचास्तेषां तु ब्राह्मणो वरः।।(महाभारत -- आदिपर्व ८१/२०)

ब्राह्मण स्वयं धर्म स्वरूप है ।
जिस कारण श्रुतिस्मृति आदि ग्रन्थों में ब्राह्मण के सानिध्य में ही  अध्ययन अध्यापन और आचार बिचार की शिक्षा ग्रहण करने का आदेश दिया गया है

गुरुर्हि सर्वभूतानां ब्राह्मणः(महाभारत आदिपर्व १/२८/३५)
अधीयीरंस्त्रयो वर्णाः स्वकर्मस्था द्विजातयः ।
प्रब्रूयाद्ब्राह्मणस्त्वेषां नेतराविति निश्चयः । ।
सर्वेषां ब्राह्मणो विद्याद्वृत्त्युपायान्यथाविधि ।
प्रब्रूयादितरेभ्यश्च स्वयं चैव तथा भवेत् । । (मनुस्मृति १०/१-२)
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् (श्रीमद्भागवतगीता १८- ४२ )
वृत्त्यर्थं याजयेदज्वान्यानन्यानध्यापयेत् तथा ।
कुर्यात् प्रतिग्रहादानं गुर्वर्थं न्यायतो द्रिजः (विष्णु पुराण ३/२३ )
सास्त्रज्ञा नित्य है और सास्त्रज्ञा मानने वाला ही ईश्वर का आराधना करता है सास्त्र द्रोही नही विष्णुपुराण का उद्घोष है अब उसे न मान मनमाना आचरण को ही धर्म मान ले तो उससे बड़ी और मूर्खता क्या ।

वर्णास्वमेषु ये धर्माः शास्त्रोक्ता नृपसत्तम ।
तेषु तिष्ठन् नरो विष्णुमाराधयति नान्यथा ।(विष्णु पुराण ३/ १९ )