मान्यवर तथागत ने वेदव्यास कृत पुराणादि बिषयों पर जो आक्षेप लगाए है वह अनादर है स्वध्याय आदि अल्पता के कारण लोगो मे तद् तद् बिषयों के प्रति भ्रम उतपन्न होना स्वभाविक है ।
मुख्य रूप से जो आक्षेप लगाए है वह यह है
नम्बर (१):--पुराण की रचना काल की अवधि लगभग ५०० वर्ष निर्धारित करना ।
नम्बर (२) :-- १८ पुराणों के कर्ता एक व्यास नही अपितु भिन्न भिन्न व्यास है ।
नम्बर (३) :-- जैसे व्यास पीठ शङ्कर पीठ आदि पर बिराजमान पीठाधीश्वर को आचार्य शङ्कर तथा आचार्य व्यास से सम्बोधित किया जाता है अतः उन्ही व्यासो द्वरा रचित ग्रन्थों को कृष्ण द्वैयापन व्यास के नाम से ही प्रचारित किया गया हो ।
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सूक्ष्मा गतिर्हि धर्मस्य (महाभारत अनुशासन पर्व ) धर्म की गति अति सूक्ष्म है इस लिए शास्त्रो का स्प्ष्ट उपदेश है कि
वि॒द्वांसा॒विद्दुरः॑ पृच्छे॒दवि॑द्वानि॒त्थाप॑रो अचे॒ताः ।
नू चि॒न्नु मर्ते॒ अक्रौ॑ ॥[ऋ १/१२०/२]
आचार्यवान् पुरुषो हि वेद । (छान्दोग्य उपनिषद)
तद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत् समित्पाणि: श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम् । (मुंडकोपनिषद् )
अतः निज मतमतान्तरों अपरम्पराप्राप्त अश्रद्धा से धर्म विषयक अर्थो का अनर्थ करना शास्त्रो की हत्या करने जैसा है
#बिभेत्यल्पश्रुताद वेदो मामयं प्रतरिष्यति
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सर्वप्रथम पुराण के कालावधि बिषयों पर बिचार करते है ।
किसी भी बिषयों की सिद्धि हेतु लक्षणों का निरूपण करना आवश्यक है तो फिर पुराणादि ग्रन्थ का निरूपण उनके लक्षणों को छोड़ स्व मतमतान्तर अनुसार बिषयों को प्रतिपादित करना क्या न्यायोचित है ?
पाठक गण बिचार करे ।
पुराणों का लक्षण शास्त्रो में जो उपदिष्ट है वह यह है
सर्गश्च प्रतिसर्गश्च वंशो मन्वन्तराणि च ।
वंशानुचरितं चैव पुराणं पञ्चलक्षणम् ।। (विष्णु पुराण /कूर्म पुराण )
शास्त्रो में पुराण के पांच लक्षण बताए गए है ।
१) सर्ग - पंचमहाभूत, इंद्रियगण, बुद्धि आदि तत्त्वों की उत्पत्ति का वर्णन,
(२) प्रतिसर्ग - ब्रह्मादिस्थावरांत संपूर्ण चराचर जगत् के निर्माण का वर्णन,
(३) वंश - सूर्यचंद्रादि वंशों का वर्णन्,
(४) मन्वंतर - मनु, मनुपुत्र, देव, सप्तर्षि, इंद्र और भगवान् के अवतारों का वर्णन्,
(५) वंश्यानुचरित - प्रति वंश के प्रसिद्ध पुरुषों का वर्णन.
अब यदि पुराण का निर्माण काल ५०० वर्ष माने तो फिर सर्ग ,प्रतिसर्ग,वंश,मन्वन्तर,वंश्यानुचरित विषयो का वर्णन कैसे सम्भव होगा ?
अतः इस लक्षणामात्र से ही आप के समस्त दोषों का परिहार हो जा रहा है ।
फिर आप दोषारोपण करेंगे कि हम पुराणों को क्यो माने ?
जब आप पुराण को मानते ही नही तो उसकी व्यख्या क्यो ?
अस्तु वेद स्वयं पुराणों की नित्यता का उद्घोष करता है
ऋच: सामानि छन्दांसि पुराणं यजुषा सह
उच्छिष्टाज्जज्ञिरे सर्वे दिवि देवा दिविश्रितः
(अथर्ववेद ११.७.२”)
एवमिमे सर्वे वेदा निर्मितास्सकल्पा सरहस्या: सब्राह्मणा सोपनिषत्का: सेतिहासा: सांव्यख्याता:सपुराणा:सस्वरा:ससंस्काराः सनिरुक्ता: सानुशासना सानुमार्जना: सवाकोवाक्या (गोपथब्राह्मण पूर्वभाग ,प्रपाठक 2)
अध्वर्यविति हवै होतरित्येवाध्वर्युस्तार्क्ष्यो वै पश्यतो राजेत्याह तस्य वयांसि विशस्तानीमान्यासत इति
वयांसि च वायोविद्यिकाश्चोपसमेता भवन्ति तानुपदिशति पुराणं वेदः सोऽयमिति
किंचित्पुराणमाचक्षीतैवमेवाध्वर्युः सम्प्रेष्यति न प्रक्रमान्जुहोति - (शतपथ ब्राह्मण १३.४.३.)
अरेअस्य महतो भूतस्य निःश्वसितमेतत् ऋग्वेद यजुर्वेदःसामवेदोSथर्वाअङ्गीरस इतिहासः पुराणं विद्या उपनिषद: श्लोका:सूत्रांण्यनु व्याख्यानानी व्याख्यानान्यस्यैव निश्वासीतानी (बृहदारण्यक उपनिषद २/४/१०)
छान्दोग्य उपनिषद में देवऋषि नारद और सनत कुमार कथा प्रकरण में पुराणादि विद्या का उल्लेख है ।
त्रेता तथा द्वापर युग मे भी पुराणों का श्रवण आदि की परम्परा रही है ।
श्रूयताम् तत् पुरा वृत्तम् पुराणे च मया श्रुतम् (वाल्मीकि।रामायण १-९-१)
पुराणे हि कथा दिव्या आदिवंशाश्च धीमताम्।
कथ्यन्ते ये पुराऽस्माभिः श्रुतपूर्वाः पितुस्तव।।
तत्र वंशमहं पूर्वं श्रोतुमिच्छामि भार्गवम्।
कथयस्व कथामेतां कल्याः स्मः श्रवणे तव।। (महाभारत आदिपर्व )
विस्तार भय से इस बिषय को यही बिराम देता हूँ ।
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नम्बर (2) १८ पुराणों की रचना कृष्णद्वैयापन व्यास नही अपितु भिन्न भिन्न व्यासो ने मिलकर इसकी रचना की ।
अब तक 28 व्यास हो चुके है इस बिषय को लेकर कोई शंका नही परन्तु १८ अष्टादश पुराणों के कर्ता भिन्न भिन्न व्यास नही है कृष्णद्वैयापन व्यास ही है इसकी पुष्टि भी स्वयं पुराण ही करता है ।
सृष्टि के आरम्भ में पुराण एक ही था समयानुसार समस्त पुराणों के ग्रहण करने में असमर्थ होने लगे तब व्यासरूपी भगवन द्वापर में अवतरित हो उसी पुराण को १८ भागो में विभक्त कर उसे प्रकाशित करते है ।
पुराणमेकमेवासीदस्मिन् कल्पान्तरे मुने ॥
त्रिवर्गसाधनं पुण्यं शतकोटिप्रविस्तरम् ।
स्मृत्वा जगाद च मुनीन्प्रति देवश्चतुर्मुखः ॥
प्रवृत्तिः सर्वशास्त्राणां पुराणस्याभवत्ततः ।
कालेनाग्रहणं दृष्ट्वा पुराणस्य ततो मुनिः ॥
व्यासरूपं विभुः कृत्वा संहरेत्स युगे युगे ।
अष्टलक्षप्रमाणे तु द्वापरे द्वापरे सदा ॥
तदष्टादशधा कृत्वा भूलोकेऽस्मिन् प्रभाष्यते ।
अद्यापि देवलोके तच्छतकोटिप्रविस्तरम् ॥
तथात्र चतुर्लक्षं संक्षेपेण निवेशितम् ।
पुराणानि दशाष्टौ च साम्प्रतं तदिहोच्यते (स्कन्द पुराण रेवाखण्ड )
अष्टादश पुराणानि कृत्वा सत्यवतीसुतः ।(देवीभागवत पुराण स्कंध १/ अध्याय ३ श्लोक संख्या १७)
अतः आक्षेपकर्ता का मत यहाँ भी ध्वस्त हुआ ।
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नम्बर (३) जैसे व्यास पीठ शङ्कर पीठ पर बिराजमान पीठाधीश्वर व्यास वा शङ्कराचार्य के नाम से सम्बोधित होता है ठीक उसी प्रकार भिन्न भिन्न व्यासो द्वरा कृत पुराणों को एक ही व्यास के नाम से जोड़ दिया हो ।
यह भी सम्भव नही अनादि काल से चली आ रही गुरुकुलों द्वरा रक्षित तथा परम्पराप्राप्त शास्त्रो का अध्ययन अध्यापन आदि की भी महत्व न रह जाय । तथा कठ ,कपिष्ठल,शौनक, पिप्पलाद आदि नाम से जो जो शाखाएं है वह भी बाधित हो जाएगी ऐसे में व्याघात दोष लगेगा ।
अतः आप का यह आक्षेप भी अनादर है द्वितीय प्रश्न के समाधान में इस प्रश्न का भी समाधान हो जा रहा है जहाँ स्प्ष्ट रूप से द्वापर युग मे अवतरित हुए सत्यवती सूत से कर दिया गया है ।
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विशेष :--- वेदादि के प्रकाण्ड विद्वान सायणाचार्य ने ऐतरेय ब्राह्मण के उपक्रम में लिखा है ।
देवासुरा: संयता आसन्नितयादयइतिहासा:इदं वा अग्रे नैव किन्चिदासीदित्यादिकं जगत:प्रागवस्थानुक्रम्य सर्गप्रतिपादकम वाक्यजातां पुराणं ।
इतिहासपुराणं पुष्पं (छा०उ ०)
श्रुतियों में पुराणों को पुष्प माना गया जिसकी सुगन्ध चारो ओर फैला हुआ है जिनकी मादकता से मधुमक्षिता ही उस पुष्प की ओर आकर्षित हो शहद का निर्माण करता है ।
मलमूत्र पर बैठा हुआ माक्षी नही ।
शैलेन्द्र सिंह