Tuesday 25 May 2021

वैदिक_वाङ्गमय_और_संगीत

 



वैदिक वाङ्गमय में स्वर के सात प्रकार बताए गए है 


सप्तधा वै वागवदत्' (ऐतरेय ब्राह्मण)


और इन्ही सात स्वरों से संगीत की उत्पति मानी गई है जिसे सप्तक कहा जाता है । 

संगीत जिसका उद्गमस्थल ही सामवेद है जिसे पाश्चात्यकारो ने भी मुक्त कण्ठ से स्वीकार किया है 


सप्तक

षड्ज , ऋषभ   , गांधार , मध्यम , पंचम , धैवत , और  निषाद - सा रे ग म प ध नी सा - यह सात स्वर ब्रह्म व्यंजक होने से ही ब्रह्मरूप कहलाये ।

'पक्षियों एवं जानवरों द्वारा स्वरों की उत्पत्ति'

सप्‍तस्‍वर की उत्‍पति :


षड्जं व‍दति मयूर: पुन: स्‍वरमृषभं चातको ब्रूते 

गांधाराख्‍यं छागोनिगदति च मध्‍यमं क्रौञ्च ।।


गदति पंचममंचितवाक् पिको रटति धैक्‍तमुन्मदर्दुर: 

शृणिसमाशृणिसमाहतमस्‍तक कुंजरो गदति नासिक या, स्‍वरमंतिमम् ।।१७१।। 

                                                            -- संगीत दर्पण से


(मोर से षड्ज, चातक से ऋषभ, बकरे से गांधार, क्रौंच पक्षी से मध्‍यम, कोयल से पंचम, मेंढक से धैवत और हाथी से निषाद स्‍वर की उत्‍पति होती है)

मोर- षड्ज स्वर में बोलता है।

पपीहा- ऋषभ स्वर में बोलता है।

राजहंस- गांधार स्वर में बोलता है।

सारस- मध्यम स्वर में बोलता है।

कोयल- पंचम स्वर में बोलती है।

घोड़ा- धैवत स्वर में हिनहिनाता है।

हाथी- निषाद स्वर में बोलता है।


'स्वरों के रंग'


षड्ज- गुलाबी।

ऋषभ- हरा।

गांधार- नारंगी।

मध्यम- गुलाबी (पीलापन लिए)।

पंचम- लाल।

धैवत- पीला।

निषाद- काला।


'स्वरों के देवता, प्रभाव, स्वभाव व ऋतु'


षड्ज_


देवता- अग्नि।

प्रभाव- चित्त को आह्लाद देने वाला।

ऋतु- शीत।


ऋषभ_


देवता- ब्रह्मा।

प्रभाव- मन को प्रसन्न करने वाला।

ऋतु- ग्रीष्म।


गांधार_


देवता- सरस्वती।

ऋतु- ग्रीष्म।

स्वभाव- ठंडा।


मध्यम_


देवता- महादेव।

ऋतु- वर्षा।


पंचम_


देवता- लक्ष्मी।

ऋतु- वर्षा।

स्वभाव- गर्म, शुष्क।


धैवत_


देवता- गणेश।

ऋतु- शीत।

स्वभाव- कभी प्रसन्न कभी शोकातुर।


निषाद_


देवता- सूर्य।

ऋतु- शीत।

स्वभाव- ठंडा व शुष्क।


Sa (षड्ज or Shadaja) ~ Sun / Aries ( षड्ज means six-born , Sun is figuratively the son of six Indian seasons)


Re (ऋषभ or Rishava) ~ Moon / Taurus ( ऋषभ means not a bull but 'white radiance' symbolical of purity)

 

Ga (गान्धार or Gandharam) ~ Venus / Gemini ( गान्धारं means 'heavenly singer' , quite typical of the planet)

 

Ma (मध्यम or Madhyamam) ~ Jupiter/ Cancer ( मध्यमं means medium , the archetypal teacher is the medium of knowledge to the disciple )

 

Pa (पंचम or Panchama) ~ Mars/ Leo ( पंचमं etymologically means 'binding up' , the fifth is also the 'central' number)

 

Dha ( धैवत or Dhaivata) ~ Mercury/ Virgo (धैवत means devout or morally intelligent)

 

Ni (निषाद or Nishada) ~ Saturn / Libra (  निषाद actually means downward not 'outcaste', the 7th sign naturally is the descendant  of the zodiac)

साभार :-- समुद्रगुप्त विक्रमार्क

पुराण विमर्श भाग २

 श्रोतीयब्रह्मनिष्ठ आचार्यो  के सानिध्य के बिना शास्त्रो के गूढ़ रहस्य को साधारण ब्यक्ति न तो समझ ही पाएंगे और न ही ठीक ठीक मनन  ।


इस लिए शास्त्रो का इस बिषय को लेकर स्प्ष्ट आदेश रहा है 


●-आचार्यवान पुरुषो हि वेद । (छान्दोग्य उपनिषद)

●-तद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत् समित्पाणि: श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम् । (मुंडकोपनिषद् )  


●-इतिहास पुराणाभ्या वेद समुपबृध्येत् (महाभारत )


पुराणों के अध्ययन किये बिना वेदो को समझना कठिन ही नही किन्तु सर्वथा असम्भव है क्यो की मन्त्रार्थ ज्ञान के लिए विनियोग ज्ञान आवश्यक है और विनियोग वर्णित ऋषियों और देवताओं के चरित्र जानने के लिए पुराणों का स्वध्याय अत्यावश्यक है हमारे पास पुराणग्रन्थ ही एकमात्र साधन है जिससे कि हम ऋषयो और देवताओं के बिषय में सर्वतोमुख ज्ञान प्राप्त कर सकते है निखिल आनन्दस्वरूप आनन्दकन्द सर्वज्ञ  ने वेद विद्या का प्रकाश कर पुराणों को भी साथ ही साथ प्रकाशित किया जिससे देवताओं और ऋषयो के जीवन वृत्तांत तथा उनके चरित्रों का भी दिग्दर्शन कराया जा सके ।

जिस प्रकार वेद अपौरुषेय है ठीक उसी प्रकार पुराण भी अपौरुषेय है इसकी पुष्टि स्वयं श्रुति ही करती है 


●- अरेऽस्य महतो भूतस्य निश्वसितमेतद्यदृग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्वाङ्गिरस इतिहासः पुराणं विद्या उपनिषदः श्लोकाः सूत्राण्यनुव्याख्यानानि   (बृहदारण्यक उपनिषद)


ऋषयो मंत्र दृष्टारः' (निरुक्त) ऋषिगण मन्त्रद्रष्टा हुए कर्ता नही ठीक उसी प्रकार पुराणों के वक़्ता सत्यवतीसुत  व्यास 

हुए कर्ता नही ।

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● शंका :---  अष्टादश (१८) पुराणों के वक़्ता यदि सत्यवती सुत कृष्णद्वैयापन व्यास ही है तो फिर सृष्टि ,उत्पती,विनाश ,वंश परम्परा, मनुओं का कथन  विशिष्ट व्यक्तियों के चरित्र उक्त यह पांचों बिषय पुराणों में  भेद के साथ क्यो मिलते है ??


निवारण :--- इस संसय का निवारण भी पुराण से ही हो जाता है कलिकाल के प्रभवा से मनुष्यो को क्षिणायु निर्बल एवं दुर्बुद्धि जानकर ब्रह्मादि लोकपालों के प्रार्थना करने पर धर्मरक्षा के लिए महर्षि पराशर द्वरा सत्यवती में भगवन के अंशांश कलावतार रूप में अवतार धारण कर वेद तथा पुराणों को विभक्त कर उसे प्रकाशित किया ततपश्चात महामति व्यास ने अपने योग्य पैल , वैशंपायन ,जैमिनी ,सुमंत आदि शिष्यों पर वेद संहिताओं के रक्षण का भार निहित किया तथा इतिहास और पुराणों के रक्षा का भार सुत के पिता रोमहर्षण को नियुक्त किया रोमहर्षण जी के  छः शिष्य  सुमति ,मित्रयु ,शांशपायन अग्निवर्चा अकृतव्रण ,और सावर्णि थे ।


●-प्रख्यातो व्यासशिष्योऽभूत् सूतो वै रोमहर्षणः ।

पुराणसंहितां तस्मै ददौ व्यासो महामुनिः ।। (विष्णु पुराण ३/६/१६)

●-इतिहासपुराणानां पिता मे रोमहर्षणः ॥(श्रीमद्भागवतम् १/४/२२)


●-सुमतिशचाग्नि वर्चाश्च  मित्रायुः शांशपायनः ।

अकृतव्रणः सावर्णिः षट् शिष्यास्तस्य चाभवन् (विष्णु पुराण ३/६/१७)


●-षट्शः कृत्वा मयाप्युक्तं पुराणमृषिसत्तमाः 

आत्रेयः सुमतिर्धीमान्काश्यपो ह्यकृतव्रणः।

भारद्वाजोऽग्निवर्चाश्च वसिष्ठो मित्रयुश्च यः ।

सावर्णिः सोमदत्तिस्तु सुशर्मा शांशपायनः (वायु पुराण )


जिस प्रकार शाखा भेद के कारण शाकल तथा वाष्कल संहिताओं में मन्त्रो का न्यूनाधिक देखने को मिलता है ठीक उसी प्रकार शिष्य प्रशिष्य के भेद के कारण पुराणों में भी पाठ भेद हो सकता है ।

 यदि पुराणों के सङ्कलनकर्ता भिन्न भिन्न व्यास माने तो 

पुराणों के इन वचनों का क्या होगा ?

  

●-अष्टादश पुराणानि वयासेन कथितानी तू ( मत्सय पुराण / वराह पुराण )

●-पराशरसुतो व्यासः कृष्णद्वैपायनोऽभवत् ।

स एव सर्ववेदानां पुराणानां प्रदर्शकः ।(कूर्मपुराण ५२/९)

अष्टादश पुराणानि कृत्वा सत्यवतीसुतः ।(देवीभागवत पुराण स्कंध १/ अध्याय ३ श्लोक संख्या १७)


अतः पुराणों के सङ्कलनकर्ता भिन्न भिन्न व्यास नही अपितु कृष्णद्वैयापन व्यास ही सिद्ध होता है ।


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●शंका  :-- अच्छा यह तो ठीक है परन्तु अष्टादश (१८) पुराणों की रचना सत्यवती सुत ही अगर करते तो पुराणों में ही ऐसा क्यो कहा गया है कि वशिष्ठ और पुलत्स्य के वरदान से महर्षि पराशर जी ने विष्णु पुराण की रचना की 


●-अथ तस्य पुलस्त्यस्य वसिष्ठस्य च धीमतः।। 

प्रसादाद्वैष्णवं चक्रे पुराणं वै पराशरः।। (लिङ्ग पुराण पूर्वभाग ६४/१२०-१२१)


निवारण  :--वेदो की भांति पुराण भी नित्य माने गए है स्वयं वेदो का ही इस बिषय पर शङ्खानाद है  अतः पुराणों के रचयिता  कोई नही सृष्टिकर्ता ब्रह्मा जी भी पुराणों को स्मरण ही करते है 

 पुराणं सर्वशास्त्राणां प्रथमं ब्रह्मणा स्मृतम् l

अनन्तरं च वक्त्रेभ्यो वेदा अस्य विनिर्गता: l 


यदि पुराणों के कर्ता महर्षि पराशर वा महर्षि व्यास माना जाय तो फिर श्रुतियाँ ही बाधित हो जाय ।


ऋक् ,यजु,साम,अथर्व,इतिहास,पुराणादि समस्त विद्या उस आनन्दकन्द सर्वज्ञ परमेश्वर  से ही प्रकट हुए है अतः इस शंका का निवारण यही हो जाता है कि पुराणों के कर्ता महर्षि पराशर अथवा व्यास नही है वे तो केवल  सङ्कलनकर्ता मात्र है ।


जो ऋषि मन्त्रब्राह्मणात्मक वेद के द्रष्टा है वे ही पुराणों के प्रवक्ता भी है ।

पुराणों के उपक्रम और उपसंहार पढ़ने पर अथवा नारद आदि पुराणों में दी हुई पुराणसूची का परायण करने पर यह स्प्ष्ट हो जाता है कि समस्त पुराणों के आदिम वक़्ता ब्रह्मा,विष्णु,महेश,पराशर,अग्नि,सावर्णि,मार्कण्डेय ,और सनकादि तथा आदिम श्रोता ब्रह्मा मारीच वायु गरुड़ नारद वशिष्ठ जैमिनी पुलत्स्य भूमि आदि है इन सब के पुरातन संवादों को ही वेदव्यास जी ने द्वापर के अंत मे क्रमबद्ध किया ।


●--ये एव मन्त्रब्राह्मणस्य द्रष्टार: प्रवक्तारश्च ते खल्वितिहासपुराणस्य धर्मशास्त्रस्य चेति। (न्यायदर्शन ४/१/६२)


बिस्तार भय  के कारण अत्यधिक प्रमाणों को मैं यहाँ नही रख पा रहा हूँ फिर भी विद्जनो के लिए इतना उपदिष्ट कर दे रहा हूँ जो समय निकाल कर शंका का निवारण कर सके 

मत्स्य पुराण अध्याय ५५ जहाँ इस विषय मे बिस्तार से बताया गया है कि किन किन पुराणों को किन किन ऋषयो अथवा देवताओं के प्रति कहा गया था ।

अतः विष्णु पुराण के प्रति महर्षि पराशर का भी यही सन्दर्भ लेना उचित जान पड़ता है क्यो की समस्त पुराण एक सुर में यही उद्घोषणा करते है कि । 


●-अष्टादश पुराणानि वयासेन कथितानी तू ( मत्सय पुराण / वराह पुराण )

●-पराशरसुतो व्यासः कृष्णद्वैपायनोऽभवत् ।

●-स एव सर्ववेदानां पुराणानां प्रदर्शकः ।(कूर्मपुराण ५२/९)

अष्टादश पुराणानि कृत्वा सत्यवतीसुतः ।(देवीभागवत पुराण स्कंध १/ अध्याय ३ श्लोक संख्या १७)

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विशेष----● पुराणों के बिषय में गौड़ापाद,शङ्कर, रामानुज,माध्व, वल्लभाचार्य,निम्बकाचार्य प्रभृति आचार्यो तथा इनसे भी पूर्वकालिक मूर्धन्य आचार्यो एवं विद्वानों को भी पुराणादि बिषयों पर सन्देह नही था अपितु हम जैसे अल्पज्ञ अल्पश्रुत स्वयमेव स्वघोषित विद्वान बन शास्त्रो के अर्थो का मनमाना अर्थ बड़ी धृष्टतापूर्वक कर विद्वान बनने का ढोल पीटने लगते है इससे बड़ा और हास्यस्पद क्या हो सकता है भले ही वह मैं ही क्यो न रहूं ।


शैलेन्द्र सिंह

पुराण आक्षेपो का खण्डन भाग १



 


मान्यवर तथागत ने वेदव्यास कृत पुराणादि बिषयों पर जो आक्षेप लगाए है वह अनादर है स्वध्याय आदि अल्पता के कारण लोगो मे तद् तद् बिषयों के प्रति भ्रम उतपन्न होना स्वभाविक है ।

मुख्य रूप से जो आक्षेप लगाए है वह यह है 


नम्बर (१):--पुराण की रचना काल की अवधि लगभग ५०० वर्ष  निर्धारित करना ।


नम्बर (२) :-- १८ पुराणों के कर्ता एक व्यास नही अपितु भिन्न भिन्न व्यास है ।


नम्बर (३) :-- जैसे व्यास पीठ शङ्कर पीठ आदि पर बिराजमान पीठाधीश्वर  को आचार्य शङ्कर तथा आचार्य व्यास से सम्बोधित किया जाता है अतः उन्ही व्यासो द्वरा रचित ग्रन्थों को कृष्ण द्वैयापन व्यास के नाम से ही प्रचारित किया गया हो ।


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सूक्ष्मा गतिर्हि धर्मस्य (महाभारत अनुशासन पर्व ) धर्म की गति अति सूक्ष्म है इस लिए शास्त्रो का स्प्ष्ट उपदेश है कि 


वि॒द्वांसा॒विद्दुरः॑ पृच्छे॒दवि॑द्वानि॒त्थाप॑रो अचे॒ताः ।

नू चि॒न्नु मर्ते॒ अक्रौ॑ ॥[ऋ १/१२०/२]

आचार्यवान् पुरुषो हि वेद । (छान्दोग्य उपनिषद)

तद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत् समित्पाणि: श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम् । (मुंडकोपनिषद् ) 

 

अतः निज मतमतान्तरों अपरम्पराप्राप्त अश्रद्धा से धर्म विषयक अर्थो का अनर्थ करना शास्त्रो की हत्या करने जैसा  है 

#बिभेत्यल्पश्रुताद वेदो मामयं प्रतरिष्यति

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सर्वप्रथम पुराण के कालावधि बिषयों पर बिचार करते है ।


किसी भी बिषयों की सिद्धि हेतु लक्षणों का निरूपण करना आवश्यक है तो फिर पुराणादि ग्रन्थ का निरूपण उनके लक्षणों को छोड़ स्व मतमतान्तर अनुसार बिषयों को प्रतिपादित करना क्या न्यायोचित है ?

पाठक गण बिचार करे ।


पुराणों का लक्षण  शास्त्रो में जो उपदिष्ट है वह यह है 


सर्गश्च प्रतिसर्गश्च वंशो मन्वन्तराणि च ।

वंशानुचरितं चैव पुराणं पञ्चलक्षणम् ।।  (विष्णु पुराण /कूर्म पुराण )

शास्त्रो में पुराण के पांच लक्षण बताए गए है ।

१) सर्ग - पंचमहाभूत, इंद्रियगण, बुद्धि आदि तत्त्वों की उत्पत्ति का वर्णन,

(२) प्रतिसर्ग - ब्रह्मादिस्थावरांत संपूर्ण चराचर जगत् के निर्माण का वर्णन,

(३) वंश - सूर्यचंद्रादि वंशों का वर्णन्,

(४) मन्वंतर - मनु, मनुपुत्र, देव, सप्तर्षि, इंद्र और भगवान् के अवतारों का वर्णन्,

(५) वंश्यानुचरित - प्रति वंश के प्रसिद्ध पुरुषों का वर्णन.


अब यदि पुराण का निर्माण काल ५०० वर्ष माने तो फिर सर्ग ,प्रतिसर्ग,वंश,मन्वन्तर,वंश्यानुचरित विषयो का वर्णन कैसे सम्भव होगा ?

अतः इस लक्षणामात्र से ही आप के समस्त दोषों का परिहार हो जा रहा है ।

फिर आप दोषारोपण करेंगे कि हम पुराणों को क्यो माने ?

जब आप पुराण को मानते ही नही तो उसकी व्यख्या क्यो ?

अस्तु वेद स्वयं पुराणों की नित्यता का उद्घोष करता है 


ऋच: सामानि छन्दांसि पुराणं यजुषा सह

उच्छिष्टाज्जज्ञिरे सर्वे दिवि देवा दिविश्रितः 

 (अथर्ववेद ११.७.२”)


एवमिमे सर्वे वेदा निर्मितास्सकल्पा सरहस्या: सब्राह्मणा सोपनिषत्का: सेतिहासा: सांव्यख्याता:सपुराणा:सस्वरा:ससंस्काराः सनिरुक्ता: सानुशासना सानुमार्जना: सवाकोवाक्या (गोपथब्राह्मण पूर्वभाग ,प्रपाठक 2) 


अध्वर्यविति हवै होतरित्येवाध्वर्युस्तार्क्ष्यो वै पश्यतो राजेत्याह तस्य वयांसि विशस्तानीमान्यासत इति

वयांसि च वायोविद्यिकाश्चोपसमेता भवन्ति तानुपदिशति पुराणं वेदः सोऽयमिति

किंचित्पुराणमाचक्षीतैवमेवाध्वर्युः सम्प्रेष्यति न प्रक्रमान्जुहोति - (शतपथ ब्राह्मण १३.४.३.)


अरेअस्य महतो भूतस्य निःश्वसितमेतत् ऋग्वेद यजुर्वेदःसामवेदोSथर्वाअङ्गीरस इतिहासः पुराणं विद्या उपनिषद: श्लोका:सूत्रांण्यनु व्याख्यानानी व्याख्यानान्यस्यैव निश्वासीतानी (बृहदारण्यक उपनिषद २/४/१०)


छान्दोग्य उपनिषद में देवऋषि नारद और सनत कुमार कथा प्रकरण में पुराणादि विद्या का उल्लेख है ।


त्रेता तथा द्वापर युग मे भी पुराणों का श्रवण आदि की परम्परा रही है ।

श्रूयताम् तत् पुरा वृत्तम् पुराणे च मया श्रुतम् (वाल्मीकि।रामायण १-९-१)


पुराणे हि कथा दिव्या आदिवंशाश्च धीमताम्।

कथ्यन्ते ये पुराऽस्माभिः श्रुतपूर्वाः पितुस्तव।।

तत्र वंशमहं पूर्वं श्रोतुमिच्छामि भार्गवम्।

कथयस्व कथामेतां कल्याः स्मः श्रवणे तव।। (महाभारत आदिपर्व )


विस्तार भय से इस बिषय को यही बिराम देता हूँ ।

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नम्बर (2) १८ पुराणों की रचना कृष्णद्वैयापन व्यास नही अपितु भिन्न भिन्न व्यासो ने मिलकर इसकी रचना की ।


अब तक 28 व्यास हो चुके है इस बिषय को लेकर कोई शंका नही परन्तु १८ अष्टादश पुराणों के कर्ता भिन्न भिन्न व्यास नही है कृष्णद्वैयापन व्यास ही है  इसकी पुष्टि भी स्वयं पुराण ही करता है ।

सृष्टि के आरम्भ में पुराण एक ही था समयानुसार समस्त पुराणों के ग्रहण करने में असमर्थ होने लगे तब व्यासरूपी भगवन द्वापर में अवतरित हो उसी पुराण को १८ भागो में विभक्त कर उसे प्रकाशित करते है ।


पुराणमेकमेवासीदस्मिन् कल्पान्तरे मुने ॥ 

त्रिवर्गसाधनं पुण्यं शतकोटिप्रविस्तरम् ।

स्मृत्वा जगाद च मुनीन्प्रति देवश्चतुर्मुखः ॥ 

प्रवृत्तिः सर्वशास्त्राणां पुराणस्याभवत्ततः ।

कालेनाग्रहणं दृष्ट्वा पुराणस्य ततो मुनिः ॥ 

व्यासरूपं विभुः कृत्वा संहरेत्स युगे युगे ।

अष्टलक्षप्रमाणे तु द्वापरे द्वापरे सदा ॥ 

तदष्टादशधा कृत्वा भूलोकेऽस्मिन् प्रभाष्यते ।

अद्यापि देवलोके तच्छतकोटिप्रविस्तरम् ॥ 

तथात्र चतुर्लक्षं संक्षेपेण निवेशितम् ।

पुराणानि दशाष्टौ च साम्प्रतं तदिहोच्यते (स्कन्द पुराण रेवाखण्ड )


अष्टादश पुराणानि कृत्वा सत्यवतीसुतः ।(देवीभागवत पुराण स्कंध १/ अध्याय ३ श्लोक संख्या १७)


अतः आक्षेपकर्ता का मत यहाँ भी ध्वस्त हुआ ।

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नम्बर (३) जैसे व्यास पीठ शङ्कर पीठ पर बिराजमान पीठाधीश्वर व्यास वा शङ्कराचार्य के नाम से सम्बोधित होता है ठीक उसी प्रकार भिन्न भिन्न व्यासो द्वरा कृत पुराणों को एक ही व्यास के नाम से जोड़ दिया हो । 


यह भी सम्भव नही  अनादि काल से चली आ रही गुरुकुलों द्वरा रक्षित तथा परम्पराप्राप्त शास्त्रो का अध्ययन अध्यापन  आदि की भी महत्व न रह जाय  । तथा  कठ ,कपिष्ठल,शौनक, पिप्पलाद आदि नाम से जो जो शाखाएं है वह भी बाधित हो जाएगी ऐसे में व्याघात दोष लगेगा ।


अतः आप का यह आक्षेप भी अनादर है   द्वितीय प्रश्न के समाधान में इस प्रश्न का भी समाधान हो जा रहा है  जहाँ स्प्ष्ट रूप से द्वापर युग मे अवतरित हुए सत्यवती सूत से कर दिया गया है ।

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विशेष :--- वेदादि के प्रकाण्ड विद्वान सायणाचार्य ने ऐतरेय ब्राह्मण के उपक्रम में लिखा है ।


देवासुरा: संयता आसन्नितयादयइतिहासा:इदं वा अग्रे नैव किन्चिदासीदित्यादिकं जगत:प्रागवस्थानुक्रम्य सर्गप्रतिपादकम वाक्यजातां पुराणं ।


इतिहासपुराणं पुष्पं  (छा०उ ०)

 श्रुतियों में पुराणों को पुष्प माना गया जिसकी सुगन्ध चारो ओर फैला हुआ है जिनकी मादकता से मधुमक्षिता ही उस पुष्प की ओर आकर्षित हो शहद का निर्माण करता है ।

मलमूत्र पर बैठा हुआ माक्षी नही ।

शैलेन्द्र सिंह 

Monday 24 May 2021

शिवलिङ्ग



लिंगार्थगमकं चिह्नं लिंगमित्यभिधीयते।(शिव पुराण विशेश्वर संहिता)


अर्थात शिवशक्ति के चिन्ह का सम्मेलन ही लिंग हैं। लिंग में विश्वप्रसूति-कर्ता की अर्चा करनी चाहिये। यह परमार्थ शिवतत्त्व का गमक, बोधक होने से भी लिंग कहलाता है।


सर्वाधिष्ठान, सर्वप्रकाशक, परब्रह्म परमात्मा ही ‘‘शान्तं शिवं चतुर्थम्मन्यन्ते’’ इत्यादि श्रुतियों से शिवतत्व कहा गया है। वही सच्च्दिानन्द परमात्मा अपने आपको ही शिवशक्तिरूप में प्रकट करते हैं। वह परमार्थतः निर्गुण, निराकार होते हुए भी अपनी अचिन्त्य दिव्यलीलाशक्ति से सगुण, साकार, सच्चिदानन्दघनरूप में भी प्रकट होते हैं। 


लिंग शब्द के प्रति आधुनिक समाज में ब़ड़ी भ्रान्ति पाई जाती है।

संस्कृत में "लिंग" का अर्थ होता है प्रतीक।अथवा चिन्ह 

जननेंद्रि के लिए संस्कृत में एक दूसरा शब्द है - "शिश्न".आया है 

शिवलिंग का अर्थ लोकप्रसिद्ध मांसचर्ममय ही लिंग और योनि नहीं है, किन्तु वह व्यापक है। उत्पति का उपादानकारण पुरुषतत्व का चिह्न ही लिंग कहलाता है।  अतः वह लिंगपदवाच्य है। लिंग और योनि पुरुष-स्त्री के गुह्यांगपरक होने से ही इन्हें अश्लील समझना ठीक नहीं है। । 

उस अव्यक्त चैतन्यरूप लिंग सत्ता और प्रकृति से ही ब्रह्माण्ड बना है 

भगवान् के निर्गुण-निराकार रूप का प्रतीक ही शिवलिङ्ग है 

वह परमप्रकाशमय, अखण्ड, अनन्त शिवतत्त्व ही वास्तविक लिंग है 

 जब अनन्तब्रह्माण्डोत्पादिनी प्रकृति समष्टि योनि है, तब अनन्त ब्रह्माण्डनायक परमात्मा ही समष्टि लिंग है और अनन्त ब्रह्माण्ड प्रपंच ही उनसे उत्पन्न सृष्टि है।

■भं वृद्धिं गच्छतीत्यर्थाद्भगः प्रकृतिरुच्यते

मुख्यो भगस्तु प्रकृतिर्भगवाञ्छिव उच्यते  (शि०पु० वि० संहिता १६/१०१-१०२)

(भ) बृद्धि को (ग) या प्राप्त करने वाली प्रकृति को भग कहते है और प्रकृति की अधिष्ठाता शिव (भगवन) ही परमानन्द ब्रह्म है ।


शिव-शक्ति ही यहाँ लिंग-योनि शब्द से विवक्षित है। उत्पत्ति का आधारक्षेत्र भग है, बीज लिंग है। वृक्ष, अंकुरादि सभी प्रपंच की उत्पत्ति का क्षेत्र भग है


अनन्तब्रह्माण्डोत्पादिनी महाशक्ति प्रकृति ही योनि,है

अनन्तकोटिब्रह्माण्डोत्पादिनी अनिर्वचनीय शक्तिविशिष्ट ब्रह्म में भी शिव-पार्वती भाव है। उस परमात्मा में ही लिंगयोनिभाव की कल्पना है। निराकार, निर्विकार, व्यापक दृक् या पुरुषतत्व का प्रतीक ही लिंग है और अनन्तब्रह्माण्डोत्पादिनी महाशक्ति प्रकृति ही योनि,है

उसी की प्रतिकृति पाषाणमयी, घातुमयी जलहरी और लिंगरूप में बनायी जाती है।


शिवलिंग के मूल में ब्रह्मा, मध्य में विष्णु, ऊपर प्रणवात्मक शिव हैं। लिंग महेश्वर, अर्घा महादेवी हैं-


■मूले ब्रह्मा तथा मध्येविष्णुस्त्रिभुवनेश्वरः।*

■रुद्रोपरि महादेवः प्रणवाख्यः सदाशिवः।।*

■लिंगवेदी महादेवी लिंग साक्षान्महेश्वरः।*

■तयोः सम्पूजनान्नित्यं देवी देवश्च पूजितौ।।’*


जिसकी उपासना करने प्रत्येक वेदाभिमानी का कर्तब्य है ।

शैलेन्द्र सिंह