Tuesday, 14 December 2021

#निरंकारी_मत_भञ्जन

 

#निरंकारी_भक्त :- हम इंसानों को भगवान का रूप मानते हैं और तुम्हें

इंसान के बनाये हुए मूर्ति में।


शैलेन्द्र सिंह :- अगर निरंकारी सत्र माने तो हमें हत्यारा,चोर,डंकु,

व्यवहार वाले मनुष्य को भी

भगवान फेलो दुनिया में ऐसा कोई ब्रह्माण्ड निर्माण कहा गया है

जो 24 नामांकित या एक सप्ताह या एक महीना पूरा वर्ष मिथ्या न

सिद्धांत हो या धार्मिक, सामाजिक रूप से ऐसा कोई कार्य न करता हो जो

धर्म विरोधी न हो ?

यदि मैं पूछता हूँ कि भगवान निर्दयी, चोर, हत्यारा, मिथ्यावादी आदि क्या हैं

आदि भी हो सकता है क्या ??तो आपका उत्तर ऐसा नहीं होगा

भगवान हैं तो सभी पापों से सभी का कल्याण हो सकता है

होता है. तो इससे अच्छा है कि हम श्रीहरि के विग्रह में ही भगवान हैं

कल्पना क्यों न करें विग्रह तो इन सभी दोषों से होता है अनुपयोगी कम से कम

आप इस पाप से तो बच जायेंगे कि चोर,डैंकू, बलात्कारी,ब्याभिचारी में आप

भगवान को न देखें, न देखें तानाशाही को, न देखें तानाशाही के रूप में।

भगवत वचन ही अनादि अक्षय भगवान का वाचक है।

शास्त्रों में भगवान के लक्षण षडैश्वर्य अभिलेख में बताए गए हैं

कलिकाल में असम्भव जान अवस्थित है।

समग्र ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान, और, वैराग्य, इन च: गुणों को धारण करने वाला

भगवत् वचन से वाच्य है अब इस कलिकाल में मनुष्य का क्या अर्थ है

इनसब को समर्थन देने वाला हो सकता है ??

स्वयं निरंकारी प्रमुख हरदेवसिंह भी इन छः को धारण करने वाले

हो क्यों की वे इन रहस्योद्घाटन से एक साधारण मनुष्य और सनातन बन सकते हैं

धर्मविद्रोही तभी रहे तो काल के हाथों म्लेच्छ देश में कार क्रांति में मारा गया।

उसे तो यह पुण्य भूमि भारत भी नियति न हो सका संपूर्ण शास्त्रो में भारत

कोओ देवता का नगरी माना जाता है।

जबकि हरदेश सिंह इस पुण्यभूमि भारत से इतर म्लेच्छ देश में कालकवलित हुए।

क्योंकि उसका कार्य ही धर्मविरुद्ध है उसके लिए यह पाप तो भोगना ही है

पड़ा ।

#ऐश्वर्यस्य_समग्रस्य_धम्मस्य_यशसः_श्रियः।

#ज्ञान_वैराग्ययोश्चैव_शान्नां_भाग_इतिङ्गना।(विष्णु पुराण)

शैलेन्द्र सिंह

Saturday, 11 December 2021

जाति जन्मना अथवा कर्मणा




ब्राह्मणत्वादि जाति जन्म के अनुसार है, गुण के अनुसार नहीं है, यह प्रत्यक्ष सिद्ध है । शास्त्रकारों के अनुसार गोत्व आदि जाति के समान ब्राह्मणत्वादि जाति भी प्रत्यक्षगम्य एवं जन्मगत है ।

 यदि ब्राह्मणत्वादि जाति को जन्मगत नहीं माना जाय तब दृष्टविरोध, शास्त्रविरोध, अन्योs-न्याश्रय, अव्यवस्था एवं एक साथ वृत्तिद्वय-विरोध आदि अनेक दोषों की सम्भावना है ।

ब्राह्मणत्वादि जाति जन्मगत है, यह प्रत्यक्षगम्य होने से उसका अपलाप करने पर दृष्ट-विरोध होगा । "अष्टवर्ष ब्राह्मणमुपनयीत'

आठ वर्ष के ब्राह्मण पुत्र को ब्राह्मण कह कर  उल्लेख किया गया है । यदि जन्मगत जाति न मानी जाय तो इसकी असङ्गति होगी

कारण, आठ वर्ष के बालकों में साधारणतया ब्राह्मणोचित किसी भी गुण की अभिव्यक्ति

नहीं होती है । क्षत्रिय एवं वैश्य के प्रसङ्ग में भी इसी प्रकार उपनयन को अवस्था का

निर्णय किया गया है । यदि जाति को जनम्मगत नहीं माना जाय तो इन शास्त्रवचनों के साथ विरोध होगा । ब्राह्मणत्वादि जाति का आचार से जन्म मानने पर अन्योsन्याश्रयदोष होगा, क्योंकि, जहाँ चारों वर्णों के आचारके विषय में उपदेश दिया गया है, वहाँ ब्राह्मणत्व जाति का परिचय देना शास्त्र का उद्देश्य नहीं था, किन्तु, आचार के

विधान में ही शास्त्र का तात्पर्य है | अतः, जो व्यक्ति ऐसे आचार से सम्पन्न है, वह ब्राह्मण है, इसमें शास्त्र का तात्पर्य नहीं है । क्योंकि धर्म के प्रतिपादन करने में हीशास्त्र का उद्देश्य है । ऐसी स्थिति में वैसा आचार करने पर ब्राह्मण होगा, और

ब्राह्मणत्व पूर्व से सिद्ध रहने पर ही वे आचार अनुष्ठेय होंगे, इस प्रकार वाहमणत्व एवं

आचार दोनों की उत्पत्ति परस्पर सापेक्ष होने से अन्योsन्याश्रय दोष है, क्योंकि,ब्राह्मणत्व आदि पूर्व से सिद्ध न रहे तो उसको उद्देश्य कर किसी आचार का विधान सम्भव ही नहीं है । जाति को जन्मगत न कहकर आचार जन्य मानने पर अव्यवस्था भी होगी, क्योंकि, एक ही व्यक्ति कमी सदाचार करता है एवं कभी दुराचार या कदाचार

करता है, अतः, सदाचार के समय वह ब्राह्मण और दूसरे ही क्षण कदाचार करने के

समय शूद्र होगा । इस प्रकार एकही व्यक्ति में ब्राह्मणत्वादि कभी भी व्यवस्थित नहीं

रहेगा, पुनः पुनः जाति का परिवर्तन होगा । ऐसी स्थिति में वह बराह्मण है या ब्राह्मणेतर

इसका प्रमाण देना संसार में दुर्लभ हो जायगा । फलतः, शास्त्रीय विधि के अनुष्ठान का

लोप हो जायेगा । इस प्रकार युगपत् वृत्तिद्वयका विरोध भी होगा, कारण, एकही व्यक्ति

एकही प्रयत्न से ऐसा काम कर सकता है कि जिसके फल स्वरूप किसी का अनिष्ट और किसी का इष्ट होगा ! इससे युगपत् परपीड़ा और परानुग्रह करने से उनमे शूद्रत्व एवं ब्रह्मणत्व दो विरुद्ध जातियों का एक साथ समावेश होगा । इत्यादि |

पूर्वप्रसङ्ग में जाति की दुर्जानता को लक्ष्य कर "नचेतद् विद्भुः" इत्यादि वाक्य में

उस विषय का अज्ञान कहा गया है । जाति दु्जेय है, कारण, गोत्वादि जाति के प्रत्यक्ष

में जैसे अनेक इतिकर्त व्यता या सहकारी रहते है, वैसे ही ब्राह्मणत्वादि जाति के प्रत्यक्ष

में भी उत्पादन कर्ता की जाति का स्मरण करना इतिकर्तव्यता या सहकारी है ।

उत्पादक कौन है, इसको जननी को छोड़कर कोई भी नहीं कह सकता हैं | स्त्रियों में

दुश्वरित्रा भी रहती हैं । इसलिए, पति ही सभी पुत्रों का जनक है, यह भी नहीं कहा जा

सकता है । क्योंकि, जारज रमणी जार से पुत्र की उत्पत्ति कर सकती है । पिता एवं माता की समान जातीयता ही जाति की विशुद्धि का कारण है, अन्यथा माता अन्य जाति

का और पिता दूसरा जाति का होने पर पुत्र की जाति अश्वतर के समान सङ्कर हो जायेगी। इस प्रकार वर्णसङ्करता जिससे न हो इसी लिए श्रुति कह रही है कि

"अप्रमत्ता रक्षत तन्तुमेनम्" हे रमणियो ? तुम सब असावधान न होकर अर्थात् यत्न-पूर्वक इस जाति तंतु की रक्षा करो क्यो की जाति का आश्रय स्वरूप ब्यक्ति का आसाङ्कर्य  यत् शुद्ध वर्ण तुम्हारे ही अधीन है इस प्रकार श्रुतियाँ स्त्रियों को ब्यभिचारिता रूप अपराध को जाति उच्छेद का कारण कह रही है अन्यथा जातितन्तु पितृपरम्परा क्रम से सनातन होने से निश्चित है

Saturday, 13 November 2021

रावणवध एवं श्रीरामचन्द्रराज्यभिषेख शंकासमाधान

 




आक्षेपकर्ता ने जो श्लोक उपदृष्ट किया है वह मैं आप सभी के सामने रख रहा हूँ एवमं स्क्रीन शॉट में भी रेखांकित किया हूँ 

आक्षेपकर्ता ने इस श्लोक के माध्यम से रावण वध का प्रकरण और श्रीरामचन्द्र का राज्यभिषेख दिखलाया है 

👇👇👇

(1)   अभ्युत्थानं त्वमद्यैव कृष्णपक्षचतुर्दशीम् । 

        कृत्वा निर्याह्यमावास्यां विजयाय बलैर्वृतः ।। ६.९२.६५


(2)     पूर्णे चतुर्दशे वर्षे पञ्चम्यां लक्ष्मणाग्रजः । 

         भरद्वाजश्रमं प्राप्य ववन्दे नियतो मुनिम् ।। १२४/६/१

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यह विचारणीय है कि यहाँ प्रकरण क्या है और यह वाक्य किनका कहा हुआ है 

यहाँ आक्षेपकर्ता ने पूरा का पूरा प्रकरण ही उलट दिया है अयोध्या कांड सर्ग ९२ में लक्ष्मण द्वारा इंद्रजित का वध होता है इस सर्ग का प्रथम श्लोक ही इंद्रजित के वध की पुष्टि करता है 


#ततः_पौलस्त्यसचिवाः_श्रुत्वा_चेन्द्रजीतो_वधम् (वा0रा0 ६/९२/१)


इंद्रजीत के वध हो जाने का समाचार सुनते ही रावण क्रोध के वशीभूत हो सीता को मारने के लिए दौड़ता है परन्तु रावण के मन्त्री रावण को ऐसा करने से रोकता है और कहता है कि आज कृष्णपक्ष की चतुर्दशी है अतः आज ही युद्ध की तैयारी कर के कल अमावस्या के दिन सेना को लेकर विजय के लिए प्रस्थान करो ।

इस प्रकरण को इस धूर्त ने पूरा का पूरा ही उलट दिया है ताकि लोग भ्रामित हो सके ।

यह तो रहा श्लोक 1 के आक्षेप का समाधान 

अब दूसरे श्लोक पर बिचार करें |

दूसरा श्लोक रावण का वध कर पुष्पक विमान से श्रीरामचन्द्र जब अयोध्या के लिए प्रस्थान करते है तो भारद्वाज मुनि के आश्रम में रुक कर वहाँ यह प्रसंग कहते है 14 वर्षो का वनवास मेरा पूर्ण हो चुका है अतः अतिशिघ्र मुझे अयोध्या जाना है 

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अब आते है राक्षसराज रावण का वध और श्रीरामचन्द्र जी का राज्यभिषेख बिषय शंका निवारण 

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महाभारत में जिस प्रकार पाण्डवो का 13 वर्ष वनवास अधिक मास को लेकर जोड़ा गया था यह बिराट पर्व के भीष्मवाक्य से सिद्ध है इसी तरह श्रीरामचन्द्र जी का 14 वर्ष का वनवास भी अधिकमास को लेकर ही पूरा हुआ था इस तरह अमान्त मान से कृष्णचतुर्दशी में पुर्णिमान्त मान से कार्तिक कृष्ण षष्ठी में १४ वर्षो की पूर्ति होती है अन्यथा चैत्रमास की शुक्ल दशमी के आरम्भ होकर १४ वर्ष की समाप्ति षष्ठी को नही रह सकती थी परन्तु अधिकमास की गड़ना से ११ दिन कम छः मास की वृद्धि हो जाती तभी १४ वर्ष की पूर्ति षष्ठी को हो सकती है अतः १२ वर्ष के पूरे होने पर १३ वे वर्ष के कुछ समय बीतने पर फाल्गुन अष्टमी को सीता हरण हुआ था १४ वे वर्ष के कुछ दिन बीतने पर श्रीराम जी लङ्का के समीप पहुंचे  थे|


#वर्तते_दशमो_मासो_द्वौ_तु_शेषौ_प्लवङ्गम (वा0 रा0 ५/३७/८)


#दर्शयामास_वैदेह्याः_स्वरूपमरिमर्दनः(वा0रा ५/३७/३३)


इस सितोक्ति के अनुसार सावन मान से सव्हरण दिन से १० मास बीत चुकने पर सीता हनुमान का सम्वाद हुआ था #पूर्णचन्द्रप्रदीप्ता 

इस रामोक्ति के अनुसार पौष शुक्ल के चतुर्दशी या पूर्णिमा को श्रीरामजी त्रिकुट के शिखर पर आयें थे |


हनुमान का लङ्का में प्रवेश काल :-


#हिमव्यपायेन_च_शितरश्मीरभ्युत्थितो_नैकसहस्त्ररश्मि:(वा0रा ५/१६/३१)

#द्वौ_मासो_रक्षितव्यौ_मे_योSवाधिस्ते_मया_कृत: (वा0 रा0 ५/२०/८)

इन वाक्यो से प्रतीत होता है कि हनुमान जब लङ्का में प्रवेश किया था तब शरद ऋतु का आगमन हो चुका था मार्गशीर्ष दशमी के बाद ही हनुमान का लङ्का मे प्रवेश का स्पष्ट प्रमाण है

अन्यत्र मार्गशीर्ष कृष्णाष्टमी को राम को प्रस्थान कहा गया है पौषपूर्णिमा को राम त्रिकुट आये थे उसके १५ दिन सेनानिवेस दूतप्रेषण आदि में बीत गयें तब युद्ध आरम्भ हुआ तब से लेकर श्रावण अभय अमान्त पर्यंत लङ्कापुर के बाहर दोनों दोनों सेनाओ का युद्ध हुआ ।

इंद्रजीत वध अनन्तर यह कहा गया है की तुम आज कृष्पक्ष चतुर्दशी अभ्युत्थान करके अमावस्या में ही शत्रुबिजय के लिए गमन करो ।

इंद्रजीत का वध तीन दिनों में हुआ था दशमी के चौथे प्रहर से लेकर त्रयोदशी के चौथे प्रहर के अवधि में इंद्रजीत का वध हुआ था |

रावण का निर्गमन आश्विन शुक्ल प्रतिपदा को हुआ था 

उसके बाद ही रावण वध और इसके अनन्तर आदित्य को स्थिरप्रभ होना कहा गया है इससे प्रतीत होता है कि रावण का वध दिन में ही हुआ


इसी पक्ष का समर्थन कालिका पुराण से होता है ।


रामस्यानुग्रहार्थाय रावणस्य वधाय च।। 


रात्रावेव महादेवी ब्रह्मणा बोधिता पुरा।

ततस्तु त्यक्तनिद्रा सा नन्दायामाश्विने सिते।। 


जगाम नगरीं लङ्कां यत्रासीद्राघवः पुरा।

तत्र गत्वा महादेवी तदा तौ रामरावणौ।। 


युद्धं नियोजयामास स्वयमन्तर्हिताम्बिका।

रक्षसां वानराणां च जग्ध्वा सा मांसशोणिते ।। 


रामरावणयोर्युद्धं सप्ताहं सा न्ययोजयत्।

व्यतीते सप्तमे रात्रौ नव्यां रावणं ततः।। 


रामेण घातयामास महामाया जगन्मयी।

यावत्तयोः स्वयं देवी युद्धकेलिमुदैक्षत।। 


तावत् तु सप्तरात्राणि सैव देवैः सुपूजिता।


निहते रावणे वीरे नवम्यां सकलैः सुरैः।। 

विशेषपूजां दुर्गायाश्चक्रे लोकपितामहः।


राम के अनुग्रहार्थ और रावण के वधार्थ ब्रह्मा द्वारा प्रबोधित देवी लङ्का में आयी और सात दिन तक राम रावण का युद्ध हुआ नवमी के दिन राम ने रावण का वध किया सब देवताओ तथा ब्रह्मा द्वारा ८ दिन तक दुर्गा पाठ होती रही ।

ऐसे रावण का वध का स्पष्ट प्रमाण इतिहास पुराणादि में आश्विन मास के शुक्लपक्ष नवमी ही ठहरता है न कि फाल्गुन मास ??

सर्ग १२३ के अंत मे पुष्पक द्वारा अयोध्या के पास पहुंचने का उल्लेख किया गया है किन्तु सर्ग १२४ में वनवास की समाप्ति पर श्रीरामचन्द्र का भारद्वाज मुनि के आश्रम में पहुचने का उल्लेख है 

पूर्णे चतुर्दशे वर्षे पञ्चम्यां लक्ष्मणाग्रजः । 

भरद्वाजश्रमं प्राप्य ववन्दे नियतो मुनिम् ।।


 लङ्का में राम  ने बीभीषण से दुर्गम मार्ग का उल्लेख किया था भारद्वाज आश्रम में राम ने मुनि से यह वरदान मांगा था कि मार्ग में सभी बृक्ष अकाल मे फलदार हो यहाँ श्रीरामचन्द्र जी को यह वरदान वानरों के लिए मांगा था 

आक्षेपकर्ता के अनुसार यदि पदयात्र होती तो लङ्का से अयोध्या पहुंचने में कम से कम एक मास का समय अपेक्षित होता इस प्रसंग में स्पष्ट ही पुष्पक यात्रा की संगति होती है ||

वनवास की अवधि पूर्ण होने पर भारद्वाज मुनि के आश्रम में ही कपिश्रेष्ठ हनुमान को आज्ञा देते है कि वानरराज हनुमान तुम अतिशिघ्र अयोध्या का समाचार लो कि वहाँ सब कुशल मंगल तो है न और वहाँ राजा भरत को मेरे आगमन की सूचना दो ।

श्रीरामचन्द्र जी का अयोध्या आगमन कार्तिक मास ही ठहरता है चैत्र मास नही ।

अध्याय ३  चैत्रमास के  शुक्लपक्ष के षष्ठी तिथि को श्रीराम चन्द्र का राज्यभिषेख होने वाला था जिसका उल्लेख अयोध्या पर्व में देखने को मिलता है परन्तु कैकयी के जिद के कारण  श्रीरामचन्द्र को वनवास जाना पड़ा आक्षेपकर्ता ने इस हिसाब से 14 वर्ष चैत्र मास ही माना जबकि सनातन वैदिक धर्म मे मलमास की भी गड़ना होती है इसका भान आक्षेपकर्ता को था अथवा नही था यह तो आक्षेपकर्ता ही जाने जिस कारण आक्षेपकर्ता ने श्रीरामचन्द्र जी के राज्यभिषेख को चैत्र मास बता डाला 

|| जय श्रीराम ||

शैलेन्द्र सिंह

Sunday, 3 October 2021

कन्यादान




भारतीय परम्परा में वेद सनातन और अपौरुषेय हैं। वेद विश्व का प्रथम प्रकाश है, इसे विश्वमनीषा ने सर्वसम्मति से स्वीकार कर लिया है। 

सनातन संस्कृति व संस्कार  ईश्वरमूला होने से सद्मूला है, चिद्मूला है, आनन्दमूला है,


संस्कार का अर्थ है सजाना-संवारना, पूर्णता प्रदान करना।  इसके लिए उसके अन्दर दिव्य गुणों का आधान किया जाता है। 

 इसमें मुख्य 16 संस्कार हैं जिसके द्वारा मानव के

मूल दिव्य, परिपूर्ण स्वरूप को प्रकट करने की चेष्टा की जाती है और यह संस्कार

परम्परा गर्भाधान से प्रारम्भ हो जाती है और अन्त्येष्टि तक चलती है। यानी जीव

के आने के पूर्व से प्रारम्भ होकर जीव के जाने के बाद तक चलती है। गर्भाधान्

के द्वारा हम दिव्य आत्मा का आह्वान करते हैं, बुलाते हैं तो उसको बैठाने के

लिए स्थान शुद्धि, भावशुद्धि चाहिए। हम जहां- तहां , जैसे-तैसे नहीं बैठते। स्थान

को शुद्ध कर आसन लगाकर बैठते हैं। गर्भाधान द्वारा हम दिव्यात्मा-पुण्यात्मा

को

बुला

रहे हैं तो उसके लिए उपयुक्त शुद्धि भी चाहिए। फिर जाने के बाद.यह


संस्कार देते हैं कि कपाल भेदन करके जाना चाहिए था। अन्य मार्ग से गमन 

आने-जाने का क्रम बना रहेगा। इस प्रकार गर्भाधान से अन्त्येष्टि तक, सूर्योदय

से सूर्यास्त तक, लोक से परलोक तक हमारे जीवन का कोई भी क्षण, कोई भी

कण और कोई भी कर्म धर्म से रहित, संस्कार से रहित नहीं है। धर्म व संस्कार

हमारे जीवन का केन्द्र-बिन्दु है, प्राण-बिन्दु है जिससे हमारा समग्र व्यक्तिजीवन,

परिवार जीवन, समाज जीवन, राष्ट्र जीवन, विश्व जीवन संचालित है। धर्म या

संस्कार से बाहर कुछ भी नहीं है।

इस प्रकार मानव मन का परिष्कार करने, शोधन करने, पूर्णता प्रदान करने

वाले जितने भाव एवं कार्य हैं, वह संस्कार कहलाते हैं। इन्हीं संस्कारों की दिव्य

परम्परा को संस्कृति कहते हैं। इस दृष्टि से संस्कृति का अर्थ श्रेष्ठतम कृति से भी

होता है। जो मनुष्य को ऊंचा उठाये वह संस्कृति है, जो नीचे गिराये वह विकृति

है। इस प्रकार श्रेष्ठकृति या सम्यक् कृति को भी संस्कृति कहते हैं। संस्कृति जीवन

का सार है, जीवन का तात्पर्य है, जीवन के आदर्शों का विकास है, जीवन के

मूल्यों का विकास है। अत: संस्कृति जीवन के मूल्यों की, जीवन के आदर्शों की

सतत साधना है जो मानव को मानवजीवन का मूल्य प्रदान करती है तथा जिसकी

रक्षा हेतु भारतीय वीरों ने, महापुरुषों ने अपना जीवन हंसते- हंसते उत्सर्ग कर दिया।

वे जीवनमूल्य हैं स्वतंत्रता, समानता, बंधुता आदि।

अत: मानव के सर्वोच्च विकास के लिए जो जीवनमूल्य सर्वाधिक महत्त्व

के हैं उनकी एक क्रमबद्ध व्यवस्थित परम्परा ही संस्कृति है। इस दृष्टि से भारतीय

मनीषियों ने चार जीवनमूल्य, आदर्श या पुरुषार्थ रखे जिसके अन्दर अन्य सारे

जीवनमूल्य समाविष्ट हो जाते हैं। इन 16 संस्कारों में एक संस्कार पाणिग्रहण (विवाह संस्कार) भी है जिसमें पिता अपनी लक्ष्मी स्वरूपा पुत्री को विष्णु स्वरूपा वर को कन्यादान करता है ।


■- लक्ष्मीरूपामिमां कन्यां प्रददेविष्णुरूपिणे । तुल्यं चोदकपूर्वा तां पितॄणां तारणाय च ॥(लघुआश्वाल्यनस्मृति,१५,२६)


■-महर्षि मनु कहते है  

वेदज्ञ शुशील वर को बुला कर  उसका पूजन सत्कार कर कन्यादान करें ।

■- आच्छाद्य चार्चयित्वा च श्रुतशीलवते स्वयम् ।

आहूय दानं कन्याया ब्राह्मो धर्मः प्रकीर्तितः (३/२७)


अल्पज्ञ अल्पश्रुत भ्रामक वामी कामी गैंग दान शब्द का अर्थ अनर्थ के रूप में लेते है वे कहते है दान हेय वस्तुओ का की जाती है ।

तो इन धूर्तो से यह प्रश्न करना आवश्यक हो जाता है कि विद्या दान जो कि 

समस्त पाप कर्मों को भस्मीभूत करने वाले मोक्ष की गति प्रदान करने वाले विद्या क्या कोई हेय वस्तु है जो एक आचार्य अपने शिष्य को विद्यादान कर नर से नरत्व ,नरत्व से देवत्व ,देवत्व से ब्रह्मत्व तक कि प्राप्ति का साधन है 


■ दान शब्द का अर्थ :--


स्वस्वत्व नीवृत्ती पूर्वक परस्वत्त्वापादनं दानम् दान शब्द का यह यर्थ कहा गया है अर्थात जिस द्रब्य में अपना स्वत्व अधिकार है उसको त्याग कर इतर अन्य के स्वत्व अधिकार का अपादान करना दान है जैसे की ब्राह्मणाय गां ददाति यहां गो द्रब्य में विद्यमान अपने अधिकार को छुड़ा कर उसमें ब्राह्मण का अधिकार बना दिया जाता है इस प्रकार दान दिए हुए गो द्रब्य में दाता मेरी गाय है ऐसा व्यवहार नही कर सकता  अर्थात उस गो द्रब्य को जिसने प्रतिग्रह किया उस ब्राह्मण का अधिकार हो जाता है दाता दान दी हुई गौ के दुग्ध का पान नही कर सकता यह स्थिति गौ दान में देखी जाती है ।

कन्या दान इसमें कुछ वैलक्षण्य है 

अपने स्वत्वाधिकार की नीवृत्ति होने पर भी मेरी कन्या यह व्यवहार विद्यमान है अतएव गोदानादि लेनेवाला पतिग्रहीता कहलाता है किंतु कन्या दान लेनेवाला परिग्रहिता कहलाता पतिग्रह और परिग्रह शब्द में भेद कहा जा चुका है पारस्कराचार्य ने गृहीत्वा शब्द का प्रयोग किया है प्रत्तामादाय निष्क्रमती इतना कहने से ही कार्य सम्पन्न हो जाता है किन्तु 

प्रत्तामादाय गृहीत्वा निष्क्रमती में अदाय शब्द गौण दान का बोधक है इस प्रकार तात्पर्य कल्पना में गृहीत्वा पद तात्पर्य बोधक माना जाता है इस यर्थ कि पुष्टि कविकुल तिलक कालिदास भी करते है ।


अर्थो हि कन्या परकीय एव  तामद्यसंप्रेष्य परिग्रहीतु: .

जातो ममायं विशद: प्रकामं  प्रत्यर्पितन्यास इवान्तरात्मा ।।

कन्या अपने पिता के लिए धरोहर है वह न्यास रूप से अपने अपने द्रब्य को रखता है अतः परकीय है उसका स्वामी दूसरा ही होता है किन्तु जब वह ग्रहण करता है तो वह ग्रहण परिग्रहण कहलाता है पतिग्रह नही ।

यद्यपि समाज की परम्परा में कन्या दान के अनन्तर उस कन्या के हाथ से कुछ

भी लेना निषिद्ध है, ऐसा आचार है, किन्तु यह प्रतिग्रह-पक्ष में सङ्गत है, परिग्रह पक्ष में

नहीं। वर पक्ष के द्वारा प्रेषित घटक लोग कन्या पक्ष के लोगों से मिलते हैं तो वर के गुणों

को सुनकर कन्या-पिता धरोहर के रूप से विद्यमान कन्यारूपी अर्थ को 'दास्यामि' कहता

है। एक बार नहीं तीन तीन बार कहता है । क्योंकि कन्या पिता समझता है कि -

'सोमोऽददद्गन्धर्वाय, गन्धर्वोऽदददग्नये, रयिञ्च पुत्रांश्चादादम्नयेः

अग्नि्मह्यमथो हमाम् ।

अर्थात् चन्द्रमा ने गन्धर्व-सूर्य को दिया, सूर्य ने अग्नि को दिया, अग्नि ने स्वयं श्रेष्ठ रत्न

धारी होने के कारण धन-धान्य आदि से समृद्ध इस कन्या को मुझे दिया। कन्या रूप अर्थ

में परम्परा से प्राप्त परकीयत्व को समझकर पिता 'दास्यामि' यह प्रतिज्ञा करता है । तदै-नन्तर घटक वर के पिता से कहने पर वह परिग्रह के लिए तैयार हो जाता है। कन्या

पिता एवं वरपिता का वरण हो चुका है । तदनन्तर ही कन्यापिता अपने दरवाजे पर

आये हुए वर को मधुपर्क आदि से सत्कृत कर समञ्जन समीक्षण आदि कराकर वृत

कन्यारूपी द्रव्य को समर्पित करता है ।

■ कन्यादान याग है

इस प्रसंग में दान और याग शब्दों का निष्कृष्ट अर्थ समझना आवश्यक प्रतीत

होता है । दान शब्द का अर्थ है- स्वस्वत्वनिवृत्ति पूर्वक परस्वत्वापादन', और याग शब्द

का अर्थ है 'देवतोद्देशेन द्रव्यत्यागः' । दान में परस्वत्वापादन अर्थात् अपने स्वत्त्व की

निवृत्ति कर परस्वत्व को स्थापित करना होता है । याग में स्वस्वत्त्व की निवृत्ति तो है।

किन्तु परस्वत्वापादन नहीं है । 'इदमग्नये न मम' अग्नय इदं न मम ' इस त्याग में अपने

स्वत्त्व का त्याग मात्र ही है । जिस द्रव्य को देवता के लिए हम देते हैं, वह द्रव्य देवता को

ही प्राप्त है, उसको हम देवता के लिए अपित करते हैं देवता उस द्रव्य को हमें इसलिए

देता है कि हम पुनः अर्पित करें । चन्द्र सूर्य-अग्नि की परम्परा से प्राप्त कन्यारूप द्रव्य का

दान कन्यापिता इसीलिये करता है कि भविष्य में चन्द्र-सूर्य-अग्नि आदि देवताओं की

आराधना होती रहे । अतएव कन्या-पिता वर को विष्णु रूप समझकर स्वागत करता हुआ पाद्य अर्ध्य कुर्च मधुपर्क आदि से पूजन करता है 


वस्तुत: इन सभी कन्यादान विरोधी व्यक्तियों के कुतर्क व्यवहारशून्य, समाज संरचना के ज्ञान से शून्य होते हैं। इनके लिए विवाह न ही समाज के  लिए  है ,न ही वंश,कुल आदि की रक्षा के लिए यहां तक कि अब यह प्रजाति विवाह को पति पत्नी का सम्बन्ध भी नहीं मानती और मेरे पति का मुझ पर अधिकार नहीं है, मैं सम्बन्ध बनाने को स्वतंत्र हूं” जैसी अल्पमति बातें करती देखी जाती हैं।

Sunday, 1 August 2021

भारत आखिर माता कैसे ?



ऋषियों की तपोभूमि भारत जिसे सनातन धर्म शास्त्रों में भारत को ब्रह्मावर्त (देवताओ ) का देश कहा है जहाँ ऋषियों ने अपनी दिब्य अनुभूतियों से भारत का जो गुणगान किया है वह समस्त विश्व मे अदर्शनिय है ।


समुद्रवसने देवी प्रवतस्तन मण्डले 

विष्णुपत्नी नमस्तुभ्यम पादस्पर्श क्षमस्व मे  ||


इस श्लोक में मातृभूमि के उन सभी गुणों का उल्लेख है जो एक माता में होनी चाहिए भारत के मातृभूमि की वन्दना इससे उत्कृष्ट कुछ नही हो सकता ।

इस श्लोक के प्रथम पद में भारत माँ को #समुद्र_वसने कहा गया है इसका तात्पर्य यह है कि जहाँ भारत की भौगोलिक सिमा समुद्र से घिरी हुई निर्देश करना है वहाँ भारत माता के लज्जा शीलता को भी बतलाना है  सभी पुत्र अपनी माता को बहुमूल्य वश्त्राभूषणो से अलंकृत देख प्रसन्नता अनुभव करते है यह भी हम सभी की हार्दिक कामना होती है जननी जैसे गौरवपूर्ण पद पर प्रतिष्ठित कोई भी जननी सभी आदर्श गुणों से युक्त होना चाहिए वस्त्रों की चर्चा करते हुए इस वन्दना में लक्षण द्वरा भारत माता की शालीनता को भलीभांति प्रकट कर दिया है भारतवर्ष में दूर दूर तक फैले हुए हरे भरे वनों उपवनों को वस्त्र न कह कर समुद्र को ही भारत माँ के वस्त्र से उपमित करना रहस्य से खाली नही है ।बहुत प्राचीन समय से ही समुद्र ब्यापार का कुञ्जी रहा है आज भी जिन राष्ट्रों का समुद्र पर प्रभुत्व है वे थैलिशाह बने बैठे है इस वन्दना के समय समुद्र भारत के ही अधिकार में थे समुद्र से होने वाला ब्यापार पर उसका पूर्ण अधिकार था फलतः भारत माँ इन समुद्रों का उपयोग उतने ही प्रेम , सावधानी और चाव से करती थी जितना कि आज भी स्त्रियां अपने बहुमूल्य वस्त्रों से करती है इन वस्त्रों से ही उसकी लोकोत्तर शोभा होती थी जिसे देख कर बिदेशी ईर्ष्या करते थे और हम अभागे इस बहुमूल्य वस्त्रों का मोल न समझ पाए जिसका परिणाम हमे आज भोगना पड़ रहा है ।समुद्र वसने से सम्बोधन में भारत माता को जहाँ सम्भ्रान्त महिला की भांति लज्जा गुण से युक्त प्रकट किया गया वही राष्ट्रीय दृष्टिकोण से रत्नाकर महोदधि आदि आज भी इंडियन ओसियन या हिन्द महासागर के नाम से पुकारे जाने वाले महा समुद्र को भारत माता के सुतरां संरक्षणीय उपकरण प्रकट किया गया है आज से नौ लाख पूर्व बिदेशी रावण ने माता सीता की साड़ी को छु डाला था जिसका बदला चुकाने के लिए मानव समाज ही क्या भारत के अर्ध्य सभ्य कहे जाने वाले रीछ ,वानर,गिद्ध जैसे पशुपक्षीयों में तहलका मच गया था शतयोजन समुद्र पर पुल बांधकर सोने की लङ्का मिट्टी में मिला दी गई इसी प्रकार पांच सहस्त्र पूर्व दुर्मार्गी दुशाशन ने द्रौपदी के साड़ी को छू डाला था फलस्वरूप कुरुक्षेत्र में 36 लाख योद्धाओं के मुण्ड कट गए काश 250 वर्ष पूर्व बिदेशी लुटेरे जब भारत माँ की समुद्र रूपी साड़ी को अपने अपने स्टीमरों से रौंदते हुए इस देश मे घूंस आये थे तब यदि उसके लाडले बेटे जान पाते कि उनकी माता की लाज खतरे में है और बिदेशी उसे नग्न करना चाहते है उन्हें आज यह पराधीनता न भोगनी पड़ती 

इस श्लोक में दूसरा पद #प्रवत_स्तन_मण्डले है माता कितनी भी लज्जाशील तथा कुलीना हो किन्तु यदि वह अपने बालक का पोषण नही कर सकती यदि उसके स्तनों में बालक के पोषण के लिए पर्याप्त मात्रा में दुग्ध न हो तो उस माता का होना न होना बराबर है ।वह पुत्र प्रथम तो जीवित ही नही रह सकता कदाचित् रह भी जाय तो निर्बल ही रहेगा इस दूसरे पद में बताया गया है कि भारत माता जहां लज्जाशील है वही हिमालयादि  पर्वत रूपी उस सुन्दर स्तनों वाली है जिन स्तनों से निकलने वाली गंगा ,यमुना,गोदावरी आदि सहस्त्रो क्षीर धाराएं देश के 130 करोड़ अपने बालको का पालन पोषण कर रही है इनके बालक जीवन निर्वहन के लिए अन्य राष्ट्रों की भांति दूसरे धाय की खुराक पर निर्भर नही सभी वस्तुओं में वे स्वश्रित है अन्यान्य देशों की तुलना में  भारत ही एकमात्र ऐसा देश है जो अपने पुत्रो को भरणपोषण में समर्थ है अमेरिका में रुई कनाडा और आस्ट्रेलिया में गेहूं चाहे कितनी मात्रा में क्यो न उतपन्न हो परन्तु अन्यान्य वस्तुओं के लिए उन्हें दूसरे देशों पर निर्भर होना पड़ता है सम्पूर्ण विश्व मे भारत ही एक मात्र ऐसा देश है जहाँ 6 ऋतुएं अपनी दस्तक देती है जिसकारण  अन्न औषदि वस्त्रादि जीवनोपयोगी अन्यान्य सभी पदार्थ प्रभूत मात्र में प्रदान करता है ।अलंकारिक शब्दो मे भारत माता के हिमालय गैरिशिखर कंचनजंघा ध्वलगिरी कैलाश आदि ऊंचे स्तन रूप पर्वतों से बहने वाली गंगा यमुना गोदावरी ब्रह्मपुत्र जैसी पयस्वनी धाराएं प्रिय पुत्रो को भरणपोषण करने में समर्थ है ।

श्लोक का तीसरा पद #विष्णुपत्नी कह कर सम्बोधन किया गया है तथाकथित बुद्धिजीवी आज महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता कह कर सम्बोधन किया है जबकि यह ठीक नही 

क्यो की इस राष्ट्र ने स्वयं महात्मा गांधी को भी जना है अतः गांधी को राष्ट्रपिता कहना निराधार ही है । 

विष्णुपत्नी अर्थात इस भारतभूमि को लक्ष्मी की संज्ञा से बिभूषित किया गया है पश्चिम के नास्तिक देशों में चूंकि अनीश्वरवादी की।प्रधानता होने के कारण कुकर शूकर आदि पशुओ की भांति माता मात्र का परिचय रखते है संसार मे समस्त मनुष्य का व्यवहार परिचय पिता के नाम से ही होता हैं स्कूल कचहरी नौकरी जन्मकालीन उल्लेख से लेकर मृत्युकालीन खाते पर्यंत में पिता का ही नाम अनिवार्यरूप से लिखा जाता है पिता के बिषय में अनजान होना बालक की मूर्खता का द्योतक तो है  ही किन्तु माँ के चरित्र में अपरिमार्जन लांछन है बिदेशी छाया से तैयार हुई हमारी काल्पनिक मातृवन्दना में भी न केवल भारत ही नही अपितु समस्त विश्व के पिता ईश्वर का कोई ध्यान नही रखा गया इसलिए वन्दे मातरम् का यह गान नीतान्त अधूरा है इसके बिपरीत उपयुक्त श्लोक में विष्णुपत्नी कह कर जहां।भारतमाता के सौभाग्यवती बनाकर वन्दना की गई है वहां आध्यात्मिक दृष्टि से हमारा ईश्वर के साथ कितना घनिष्ट सम्बन्ध है यह भी भलीभांति दर्शाया गया है इसके अतिरिक्त वन्दना पूर्वक भूमि स्पर्श करते हुए हम एक सत्पुत्र  की भांति अपने हृदय में विद्यमान मातृप्रेम को प्रकट कर के अपने कर्तब्य का पालनभी करते है इसलिए प्रत्येक भारतीय को जो भारतभूमि को अपने हृदय से मातृभूमि समझता है उसे अवश्य ही वन्दना करनी।चाहिए ।


शैलेन्द्र सिंह


Tuesday, 13 July 2021

माता जानकी तथा श्रीरामचन्द्र विवाह एवं मुहम्मद सल्लाह तथा आयशा निकाह

 माता_सीता_का_विवाह


_______तथा ______


मुहम्मद_सलल्लाह_और_आइशा_का_निकाह


श्रीमद्वाल्मीकिरामायण ,उस सर्वज्ञ,सर्वकामा ,सर्वरस ,सर्वेश्वर 

सच्चिदानन्द आनन्दकन्द के लीला विभूतियों का गायन है |

जो जगत के अधिपति है जिनकी अध्यक्षता में ही समस्त चराचर जगत चलायमान है जो सृष्टि, स्थिति, लय के कारण रूप है |


 जिनका आविर्भाव ही धर्मस्थापना आताताइयों को दण्ड देना  ऋषिमुनी तपस्वियों को निर्भय बनाना असुरों के विनाश करना तथा समस्त प्राणियों आह्लादित करना ही कारण रहा ।

 भगवन् श्रीरामचन्द्र की मर्यादाएं उस पर्वत के समान है जिसकी समता विश्व के बृद्धातिबृद्ध पर्वत शिखर भी न कर पाए  तथा माता जानकी की पवित्रता पतिव्रता उस सूर्यकी भांति प्रकाशमान है जब तक यह सृष्टि प्रवाहमान है ।


तिमिररोग से ग्रसित ब्यक्ति को भी आकाश में कई सूर्य दिखते है इससे सूर्य की एकाकी होने का प्रमाण नष्ट नही होता वरन तिमिररोग से ग्रसित ब्यक्ति को अंततः वैध के समक्ष ही उपस्थित होना पड़ता है ।


मुहम्मद सल्लाह और आयशा की भांति ही मर्यादापुरुषोत्तम श्रीरामचन्द्र और अयोनिज माता सीता का  विवाह मान लेना अल्पज्ञ अल्पश्रुत अज्ञानता का ही परिचायक है जिसने न तो कभी शास्त्रो के रहस्यों को समझ पाया और न ही कभी श्रद्धा पूर्वक शास्त्रो का अध्ययन ही किया 

वामी ,कामी ,इस्लामी, ईसाइयत बुल्के गिरोह  ढोल पीटते हुए मिथ्या घोष करने वाले कि ही बातों को सत्य मान बैठना न्यायसंगत नही हो सकता ।

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● एकओर मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम जिनका आचरण समस्त जगत के लिए अनुकरणीय है जो स्वयं साक्षात् धर्म स्वरूप है 

●वही दूसरी ओर आसुरी वृत्तियों से सम्पन्न निर्दोष प्राणियों की हत्या करना उसका माल लूटना तथा जबरन स्त्रियों को अपने हरम में रखना छल से स्वयं को प्रतिष्ठित करना ही मोहम्मद सल्लाह का लक्ष्य रहा  ।


●वही माता सीता जिनका आविर्भाव ही दिब्य है ऐसा आविर्भाव जगत में न तो किसी का हुआ है और न ही होगा माता सीता अयोनिज है ।


●वही आइशा का जन्म साधरण प्राणियों की भांति मलमूत्र से दूषित योनिमार्ग से हुआ ।

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वामी कामी, इस्लामी,ईसाइयत बुल्के गिरोह कभी आप को यह नही बताएगा कि जब माता सीता का श्रीरामचन्द्र जी से विवाह हुआ तो मर्यादापुरुषोत्तम श्रीरामचन्द्र जी की आयु 13 वर्ष की थी ।


वे माता सीता के 6 वर्ष होने का ढोल तो पीटते है परन्तु मर्यादापुरुषोत्तम श्रीरामचन्द्र जी के आयु के बिषय में मौन रहते है ।

महर्षि विश्वामित्र यज्ञयाग सम्पन्न कराने हेतु राक्षसों से रक्षण   के लिए काकुस्थ वंशी दसरथ नरेश के पास जब  श्रीरामचन्द्र जी को लेने आते है तब  महाराज दशरथ ने महर्षि विश्वामित्र को कहते है हे ऋषिप्रवर अभी तो मेरा राम 16 वर्ष का भी नही हुआ एक बालक को कम से कम दुर्धस युद्ध मे मत धकेलिये ।


●ऊन षोडश वर्षो मे रामो राजीव लोचनः 

(वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड १/२०/२)


माता सीता और श्रीराम के स्वयंवर के पश्चात श्रीरामचन्द्र जी के राज्यभिषेख की मन्त्रणा दसरथ जी अपनी मंत्रियों से करता है कि अब वह उपयुक्त समय आगया है कि श्रीरामचन्द्र जी को युवराजपद से विभूषित किया जाय और यह मन्त्रणा तब हुआ जब  श्रीरामचन्द्र ने महर्षी विश्वामित्र के मनोरथ को सिद्ध किया तथा राजा जनक के दरबार मे विश्व के समस्तनृपगणो के सामने अपने बाहुबल का कौशल दिखा कर माता जानकी से स्वयम्वर किया । 


●तत्र त्रयो दशे वर्षे राज अमंत्र्यत प्रभुः । 

अभिषेचयितुम् रामम् समेतो राज मन्त्रिभिः ॥ (वाल्मीकि रामायण अरण्यकाण्ड ३/४७/५)


जब दसरथ नरेश अपने मंत्रियगण से यह मन्त्रणा करते है कि श्रीरामचन्द्र जी के राज्यभिषेख की तैयारी की जाय उस समय श्रीरामचन्द्र जी का आयु 13 वर्ष का था ।


अतः भ्रान्तवादियो मिथ्याबिचारो के पोषण करने वाले वामी कामी इस्लामी ईसाइयत बुल्के गिरोह के मुख मलिन यही हो जाता है ऐसे तो अनेको प्रमाण भरे पड़े है वाल्मीकि रामायण में जहाँ मर्यादापुरुषोत्तम श्रीरामचन्द्र जी और माता सीता का आयु स्पष्ट रूप से उल्लेख है ।

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इसके विपरीत 

मुहम्मद सलल्लाह की निकाह जब आयशा से हुई उस वक़्त आयशा की आयु 6 वर्ष और मुहम्मद सलल्लाह की आयु 53 वर्ष रही ।

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अब विद्जन स्वयं बिचार करें कि एक 6 वर्षीय बालिका के साथ 13 वर्ष के बालक का विवाह न्यायसंगत है न् कि 

एक 6 वर्षीय बालिका के साथ 53 वर्ष का बृद्ध ??

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अन्त में मैं यही कहना चाहूंगा कि 

#रामो_विग्रहवान_धर्म: 

भगवन् श्रीराम स्वयं धर्मस्वरूप है जहाँ शङ्का का भी लेश मात्र  गन्ध भी न हो वहां अनुचित दोषारोपण मूर्खता की पराकाष्ठा ही तो है 


शैलेन्द्र सिंह

Sunday, 11 July 2021

एकलव्य

 ■●> एकलव्य :--

महाभारत को काल्पनिक कहने वाले पाश्चात्यविद्  तथा वामपन्थी  इतिहासकार एकलब्य बिषय को बार बार उठाकर जनमानस में वैमनस्यता का बीज बोता है इन तथाकथित इतिहासकारों के अनुसार विश्वविख्यात अयाख्यान महाभारत जब काल्पनिक ही है तो उसमें आये हुए कथानक वास्तविका कैसे ??

उन धूर्त तथाकथित इतिहासकारों के सामने प्रथम यही प्रश्न रखना चाहिए 

फिर देखिए क्या होता है ।

अस्तु यह एक ऐसा बिषय है जिसकी भ्रांति जनमानस में ऐसा व्याप्त है  बड़े से बड़ा विद्वान भी इस बिषय को लेकर यह तक कह डालते है कि एकलव्य के साथ जो हुआ वह न्याय नही है 

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सनातन धर्म मे जितनी महता एक श्रोतीय ब्राह्मण की है उतनी ही महता एक स्वधर्मप्रायण शुद्र की है 

■● अपि शुद्रं च धर्मज्ञं सद् वृत्तमभिपूजयेत् (महाभारत अनुशाशन पर्व ४८/४८)


 स्व स्व धर्मानुरक्त धर्मानुरागी का सम्मान तो स्वयं ईश्वर भी करता है इस लिए शूद्रकुल में उतपन्न हुए विदुर को भी साक्षात् धर्म का अंश माना गया  ,निषादराज गुह्य तो हमारे इष्टदेव श्रीरामचन्द्र के सखा तक हुए फिर 

 निषादराज हिरण्यधनु के पुत्र एकलब्य के साथ भेदभाव व्यवहार करने का कोई औचित्य भी नही बनता ।


महाभारत में युद्धिष्ठिर के राजसूय यज्ञ का वर्णन है, जिसके अनुसार इस यज्ञ में सभी वर्णों के लोगों के साथ - साथ देश - विदेश के विभिन्न राजाओं को आमंत्रित किया गया था। इनमें निषादराज एकलव्य भी थे तथा उनका स्थान श्रेष्ठ राजाओं और ब्राह्मणों के मध्य था । यदि निषाद जाती के साथ  भेदभाव  हीनभावना होती तो एकलब्य को राजाओं और ब्राह्मणों के मध्य  स्थान न मिला होता ।


■● दुर्योधने च राजेन्द्रे स्थिते पुरुषसत्तमे।

कृपे च भारताचार्ये कथं कृष्णस्त्वयाऽर्चितः।।

द्रुमं कम्पुरुषाचार्यमतिक्रम्य तथाऽर्चितः।

भीष्मके चैव दुर्धर्षे पाण्डुवत्कृतलक्षणे।।

नृपे च रुक्मिणि श्रेष्ठे एकलव्ये तथैव च। (महाभारत सभापर्व ४०/१३-१४)


अतः यह स्प्ष्ट हुआ कि जितना सम्मान भिन्न भिन्न देश से आये हुए राजाओं तथा आचार्यो का था उतना ही सम्मान निषादराज हिरण्यधनु के पुत्र एकलव्य का भी था ।

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■● द्रोणाचार्य :--


■● द्रोणस्तपस्तेपे महातपाः।। (म 0आ0 १२९/४४)

■●वेदवेदाङ्गविद्वान्स तपसा ।(म0 आ0 १२९/४५)

■● गुरवे ब्रह्मवित्तम (म 0 आ0 १३१/५५)


गुरुद्रोणाचार्य के बिषय में ब्रह्मवेत्ता ,महातपस्वी,वेद वेदाङ्ग विद्या में निष्णात पद विशेषण आया है ऐसा श्रोतीय महातपस्वी ब्रह्मवेत्ता आचार्य जो सम्पूर्ण विद्या में निष्णात हो वे न किसी से द्वेष ही करते है और न किसी से मोह ऐसा श्रुतिवचन है 

■◆ तत्र को मोहः कः शोकेस एकत्वमनुपश्यत


पाञ्चाल नरेश द्रुपद ने जब आचार्य द्रोणाचार्य को तिरस्कृत किया तब वे हस्तिनापुर पहुच कर वे अपनी ब्यथा भीष्म पितामह से कह सुनाई 

भीष्म पितामह ने आचार्य द्रोणाचार्य के सामने अपना प्रस्ताव रखा कि आप यही हस्तिनापुर में रह कर  कुरुवंश के राजकुमारों को धनुर्वेद एवं अस्त्र शास्त्रो की शिक्षा दीजिए एवं कौरवों के घर पर सदा सम्मानित हो मनवान्छित उपभोगों का भोग कीजिये ।

भीष्पिताम्ह का यह प्रस्ताव गुरु द्रोणाचार्य ने स्वीकार किया और भीष्मपितामह को वचन भी दिया कि इसी कुरुवंश के राजकुमारों को मैं विश्व के महानतम योद्धा बनाऊंगा ।


■● अपज्यं क्रियतां चापं साध्वस्त्रं प्रतिपादय।

भुङ्क्ष भोगान्भृशं प्रीतः पूज्यमानः कुरुक्षये।।

कुरूणामस्ति यद्वित्तं राज्यं चेदं सराष्ट्रकम्।

त्वमेव परमो राजा सर्वे च कुरवस्तव (महाभारत आदिपर्व १३०/७७-७८)


निष्पक्ष भाव से आचार्य द्रोणाचार्य कुरुवंश के राजकुमारों को धनुर्वेद सहित समस्त शास्त्रो अस्त्रों की शिक्षा देने लगे थे ।

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■●एकलव्य:--


निषादराज हिरण्यधनु पुत्र एकलव्य  अस्त्र शस्त्र विद्या प्राप्त करने हेतु जब आचार्य द्रोणाचार्य के पास जाते है तब आचार्य द्रोणाचार्य उन्हें शिक्षा देने के लिए मना कर देते है ।


■● ततो निषादराजस्य हिरण्यधनुषः सुतः।

एकलव्यो महाराज द्रोणमभ्याजगाम ह।।

न स तं प्रतिजग्राह नैषादिरिति चिन्तयन्।

■● शिष्यं धनुषि धर्मज्ञस्तेषामेवान्ववेक्षया। (महाभारत आदिपर्व  १३१/  ३१-३२ )


एक क्षण के लिए तो यहाँ पाठकगण को यह लगेगा कि द्रोणाचार्य ने ऐसा अन्याय क्यो किया ??

एकलब्य को धनुर्वेद की  शिक्षा क्यो नही दी। 


ऐसा इस लिए हुआ कि  गुरुद्रोणाचार्य वचनबद्ध थे उन्होंने  भीष्मपितामह को वचन दे रखा था कि कुरुवंश के  राजकुमारों को अस्त्र शास्त्र की शिक्षा देगा ।

दूसरा कारण यह है कि गुरुद्रोणाचार्य को वेतन , धनधान्य तथा समस्त भोग उपलब्ध  पितामह भीष्म करा रहे थे तो भला कुरुवंश को छोड़ वे अन्य कुमारों को शिक्षा देना स्वयं अपने वचनों को भंग करना होता 

द्वेष का कोई कारण नही अपितु वे इस कलङ्क से भी बचना चाहते थे कि वेतन कोई और दे और धनुर्वेद सहित अस्त्र शस्त्र की शिक्षा किसी और को दे ऐसे में पितामह भीष्म भी यह प्रश्न उठा सकते थे कि  आप के मनोवांछित समस्त भोग तथा वेतन कुरुवंश की ओर से प्राप्त हो रहा है और आप कुरुवंश राजकुमारों को छोड़ किस और को अस्त्र शस्त्र विद्या में निष्णात करा रहे है ।

इस कारण आचार्य द्रोण ने एकलब्य को अपने यहाँ धनुर्विद्या सिखाने से मना कर दिया ।

गुरु द्रोणाचार्य के मना करने के पश्चात एकलब्य ने वन में लौट कर आचार्य द्रोणाचार्य की ही मूर्ति बना धनुर्विद्या का अभ्यास आरम्भ किया ।


■● स तु द्रोणस्य शिरसा पादौ गृह्य परन्तपः।

अरण्यमनुसंप्राप्य कृत्वा द्रोणं महीमयम्।

तस्मिन्नाचार्यवृत्तिं च परमामास्थितस्तदा।

इष्वस्त्रे योगमातस्थे परं नियममास्थितः।। (महाभारत आदिपर्व १३१/३३-३४)


यहाँ दो बिषय बड़े ही महत्वपूर्ण है ।


नम्बर -१ - गुरु के अनुमति के बिना उनकी मूर्ति बना कर अभ्यास प्रारम्भ करना स्मृति शास्त्रो में स्प्ष्ट आदेश आये है कि गुरु की अनुमति के बिना विद्या का अध्ययन करने वाला चोर है और वह दण्ड के पात्र है ।


■● ब्रह्म यस्त्वननुज्ञातं अधीयानादवाप्नुयात् ।

स ब्रह्मस्तेयसंयुक्तो नरकं प्रतिपद्यते (मनुस्मृति २/११६)

और एकलब्य ने वही किया गुरुद्रोणाचार्य के मना करने के बाद भी उनकी मूर्ति बना कर धनुर्वेद विद्या का अभ्यास  प्रारम्भ किया 


नम्बर -२-- विद्या प्राप्त होने के पश्चात शिष्य अपने गुरु को दक्षिणा प्रदान करें ।


■●  शक्त्या गुर्वर्थं आहरेत् । । 

■◆ क्षेत्रं हिरण्यं गां अश्वं छत्रोपानहं आसनम् ।

धान्यं शाकं च वासांसि गुरवे प्रीतिं आवहेत्  (मनुस्मृति २/२४५-२४६)


एकलब्य द्वारा विधा की चोरी करना उसे दण्ड का पात्र बनाता है तो गुरु के शिक्षा प्राप्त कर दक्षिणा देने का अधिकारी भी बनाता है 


जब आचार्य द्रोणाचार्य को यह ज्ञात हुआ कि एकलब्य उनकी मूर्ति बना कर धनुर्विद्या का अभ्यास कर रहा है तो वे मनोमन प्रसन्न  हुए और उनके कौशल को देखने वन में चले वहाँ एकलब्य की प्रतिभा देख वे दंग रह गए और बिचार भी किये की यदि यह बालक हस्तिनापुर क्षेत्र के अन्तर्गत रहते हुए धनुर्विद्या में पारंगत हो जाता है तो भीष्मपितामह सहित राजा धृतराष्ट्र एवं कृपाचार्य आदि आचार्यगण क्या सोचेंगे ?

इस बिषम परिस्थिति को भांपते हुए गुरुद्रोणाचार्य ने यह बिचार किया कि  एकलब्य का अनिष्ट भी न हो और वे अपनी धनुर्विद्या का अभ्यास भी आरम्भ रखे और मैं कलङ्कित भी न होऊं ।

आचार्य द्रोण एकलब्य से गुरिदक्षिणा मांगता है ।


■● यदि शिष्योऽसि मे वीर वेतनं दीयतां मम।। (महाभारत आदिपर्व १३१/ ५४)

 

गुरुदक्षिणा का नाम सुन एकलव्य प्रसन्न हुए और उन्होंने कहा हे ब्रह्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ आप स्वयं  इसके लिए आज्ञा दे 

आचार्य द्रोण एकलब्य से गुरुदक्षिणा में उनका अंगूठा मांग लिया 


■◆तमब्रवीत्त्वयाङ्गुष्ठो दक्षिणो दीयतामिति।। (महाभारत आदिपर्व १३१/५६)

एकलब्य आचार्य द्रोण की इस दारुण वचन सुनकर भी बिना बिचलित हुए प्रसन्नचित हो कर अपने दाहिने हाथ के अंगूठे को काट कर द्रोणाचार्य को समर्पित किया ।


■●तथैव हृष्टवदनस्तथैवादीनमानसः।

छित्त्वाऽविचार्य तं प्रादाद्द्रोणायाङ्गुष्ठमात्मनः (महाभारत आदिपर्व १३१/५८)

यहाँ भी दो विशेषता है एक तो एकलब्य स्वयं इस प्रकार के दारुणवचन सुनकर भी विचलित नही हुए और  प्रसन्नचित हो गुरुदक्षिणा देकर अपनी गुरुभक्ति भी सिद्ध की ।


वामसेफियो मुलविहीन हिन्दुओ को इस प्रकरण पर भले ही पेट मे दर्द हो परन्तु एकलब्य को अंगूठे कटने पर भी दर्द न हुआ यहाँ प्रसन्नचित जो विशेषण आया है वह इसकी पुष्टि स्वयं करता है ।

एकलब्य की गुरुभक्ति देख आचार्य द्रोण भी प्रसन्न हुए और तत्क्षण एकलब्य को ऐसी विद्या दे डाली जो अपने प्रिय पुत्र तथा शिष्यों को भी प्रदान नही किये ।


■● ततः शरं तु नैषादिरङ्गुलीभिर्व्यकर्षत।

न तथा च स शीघ्रोऽभूद्यथा पूर्वं नराधिप।। (महाभारत आदिपर्व १३१/५९)


गुरुद्रोणाचार्य ने संकेत में ही एकलब्य को यह विद्या प्रदान की जिससे वे तर्जनी और मध्यमा अंगुली से किस प्रकार वाणों का संघान करना चाहिए ।

गुरुद्रोणाचार्य की दृष्टि में एकलब्य के प्रति द्वेष अथवा हेय भाव होता तो वे उन्हें ऐसी विद्या क्यो प्रदान की होती ?

शैलेन्द्र सिंह


Wednesday, 30 June 2021

शिक्षा और शूद्र





हिन्दुओ के लिए वेद स्वतः प्रामाणसिद्ध है ईश्वर द्वरा प्रतिपादित बिषय भी यदि वेद विरुद्ध हो तो वे अप्रामाणिक माने जाते है यही वेद की वेदता और हिन्दू होने का प्रथमप्रामाण है ।


अल्पज्ञ अल्पश्रु भ्रामक ब्यक्तियो वामपंथियों ईसाइयों इस्लामिको  का कहना है कि शूद्रों को पढ़ने नही दिया जाता था उन्हें जानबूझ कर अशिक्षित रखा जाता था ताकि उसका शोषण कर सके ।

प्रथमतः स्प्ष्ट कर देना चाहता हूं कि वैदिक सनातन धर्म शोषणवादी नही अस्तु पोषणवादी है ऐसा कोई कर्मकाण्ड नही जहाँ समस्त वर्णों को आर्थिक रूप से लाभ नही मिलता हो इस पर मैं कई बार पोस्ट लिख चुका हूं अतः वही बिषय को पुनश्च यहाँ रखने का कोई अर्थ नही बनता  ।

दूसरी बात विद्यादि में शूद्रों का भी अधिकार था यह बात 

■ श्रुतिस्मृतिइतिहासपुराणादि से सिद्ध है ।

समावेदीय छन्दोग्य उपनिषद में राजा अश्वपति यह घोषणा करते है

कि मेरे राज्य में कोई भी अशिक्षित नही  , न ही कोई मूर्ख 


■ न मे स्तेनो जनपदे न कदर्यो न मद्यपः।

नानाहिताग्निर्ना विद्वान् न स्वैरी स्वैरिणी कुतः॥ (छान्दोग्य॰ ५ । ११ । १५)

केवल इतना ही नही त्रेतायुग में इक्ष्वाकु वंश के राजा दशरथ के शासनकाल में भी ऐसा कोई ब्यक्ति देखने को नही मिलता जो अशिक्षित हो ।


■ कामी वा न कदर्यो वा नृशंसः पुरुषः क्वचित् ।

द्रष्टुम् शक्यम् अयोध्यायाम् न अविद्वान् न च नास्तिकः ॥(वा0 रा0 १/६/८)


अयोध्या में कही कोई कामी,कृपण, क्रूर,अविद्वान,नास्तिक ब्यक्ति देखने को नही मिलता है ।

अतः इससे स्प्ष्ट प्रामाण हो जाता है कि विद्या आदि में शूद्रों का अधिकार था केवल इतना ही नही शिक्षा दर भी १००% थी तत्तकालीन शासनतंत्र के अधीन भारत के समस्त नागरिक शिक्षित नही है जबकि जिस कालखण्ड में श्रुतिस्मृतिइतिहासपुराणादि का प्रचार प्रसार ईस भूखण्ड पर पूर्णरूपेण था उस कालखण्ड में कोई भी ब्यक्ति अशिक्षित नही था ।

भारत जब यवनों अरबो तुर्को ब्रिटेन की दासता झेल रहा था उसीकालखण्ड में यह अशिक्षिता  व्याप्त हुई क्यो की गुरुकुलों को नष्ट करना विश्विद्यालयों को अग्निदाह करना ही मूल कारण रहा ।


 शूद्रों का तो शिल्पविद्या में एकक्षत्र राज था ।

वर्णाश्रमधर्मी होने का यही अर्थ होता है कि कोई भी किसी के अधिकारों का हनन न करें स्व स्व धर्म का पालन निष्पक्षता पूर्ण करें 

महाभारत जैसे अयाख्यानों में शूद्रकुल में जन्मे हुए विदुर को हस्तिनापुर जैसे साम्राज्य का महामन्त्री बनाया वे नीतिशास्त्र के ज्ञाता धर्माधर्म बिषयों के ज्ञाता तथा साक्षात् धर्म का अंश माना गया यदि सनातन धर्म शोषणवादी अशिक्षित रखने की नीति होती तो स्वधर्मपरायण विदुर को हस्तिनापुर जैसे साम्राज्य का महामन्त्री न बनाया होता ।

एकलब्य के बिषय को लेकर भी भ्रामक प्रचार किया गया है 

महाभारत में ही स्प्ष्ट लिखा है कि गुरु द्रोणाचार्य ने एकलब्य को वह विद्या प्रदान की जो न तो पाण्डवो, कौरवो और न ही अश्वथामा को प्रदान की थी ।

इक्ष्वाकु वंश के ही राजा हरिश्चंद्र एक चाण्डाल के यहाँ नौकरी किये अब बिचार कीजिये कि इक्ष्वाकु वंश के राजा को भी खरीदने का सामर्थ्य एक चाण्डाल के पास था कितना धन होगा उस चाण्डाल के पास ??

हमने कभी भी बिषयों पर सत्यासत्य बिचार नही किया अपितु हमने उसी को सत्य मान बैठा जिसका प्रचार वामी,कामी,इस्लामी,ईसाइयत,गैंग ने प्रचार किया और वे सफल भी हुए पाश्चात्यविद से लेकर भारत के हिन्दू इस बिषय पर भ्रामित है ।

इन सब मिथ्या बिषयों का प्रचार प्रसार भी इस लिए हुए की यवन ,तुर्क,अरब,(इस्लामी) यूरोप (ईसाइयों) ने जब धर्मान्तरण करने में असफल हुए तो वे इस तरह के भ्रामक प्रचार प्रसार किया ताकि विखण्डन का बीज बोया जा सके और धतमान्तरण रूपी खेल आसान हो जाय ।


शैलेन्द्र सिंह

Thursday, 24 June 2021

द्रौपदी रहस्य




धर्मस्य_सूक्ष्मतवाद्_गतिं (महाभारत ) 

धर्म की गति अति सूक्ष्म है अतः हम जैसे अल्पज्ञ अल्पश्रुत पूर्णतः धर्म बिषयो के गूढ़ रहस्य को समझ पाने में अक्षम है बस हम अपनी बुद्धि बल से ही बिषयो का अन्वेषण करते फिरते है   धर्म के गूढ़ रहस्यों के बिषय में पूर्णप्रज्ञ मनीषी जन ही समझ सकते है 

ठीक ऐसा ही रहस्य यज्ञशेनी द्रोपदी का है ।


 द्रोपदी अयोनिज है जिस कारण उनका जीवन भी  दिब्य और रहस्यपूर्ण है क्यो की उनका आविर्भाव  यज्ञवेदी से हुआ है जिस कारण उनका एक नाम यज्ञशेनी भी हुआ ।


#कुमारी_चापि_पाञ्चाली_वेदिमध्यात्समुत्थिता। (महाभारत आदिपर्व)


जिनका जन्म ही यज्ञवेदी से हुआ हो उनकी पवित्रता पर सन्देह नही किया जा सकता ।

राजा द्रुपद की कन्या होने से उनका एक नाम द्रौपदी भी पड़ा 

साथ ही द्रुपद पाञ्चाल देश का राजा था जिस कारण द्रौपदी का एक नाम पाञ्चाली भी पड़ा । 


द्रौपदी इंद्र की ही पत्नी शचीपति थी 


#शक्रस्यैकस्य_सा_पत्नी_कृष्णा_नान्यस्य_कस्यचित् ।(मार्कण्डेय पुराण ५/२५)


#पूर्वमेवोपदिष्टा_भार्या_यैषा_द्रौपदी (महाभारत अनुशाशन पर्व १९५/३५)


प्रजा के कल्याणार्थ महादेव की आज्ञा से ही इंद्र पत्नी सहित मनुष्य योनि में अवतरित हुए थे ।


#तेजोभागैस्ततो_देवा_अवतेरुर्दिवो_महीम् ।

#प्रजानामुपकारार्थं_भूभारहरणाय_च (मार्कण्डेय पुराण ५/.२०)


#गमिष्यामो_मानुषं_देवलोकाद् (महाभारत आदिपर्व १९५/२६)


देवता :-- दिब्य बिभूतियो को धारण करने के कारण ही वे देवता कहलाते है ।

वे अपनी सङ्कल्प शक्ति से कई प्रकार के रूप धारण करने में सक्षम होते है ।


योगीश्वराः शरीराणि कुर्वन्ति बहुलान्यपि (मार्कण्डेय पुराण ५.२५॥)


पांचों पाण्डव युधिष्ठिर,भीम,अर्जुन,नकुल,सहदेव ये सभी के सभी इंद्र के ही अंश से उतपन्न हुए थे स्वयं इंद्र ही अपने आप को पांच अंशो में विभक्त कर (युधिष्ठिर,भीम,अर्जुन,नकुल,सहदेव,) के रूप में मनुष्य योनि में अवतरित हुए थे ।


#शक्रस्यांस_पाण्डवा: (महाभारत आदिपर्व १९५/ ३४)


#एवमेते_पाण्डवा_सम्वभुवुर्ये_ते_राजन्_पूर्वेमिन्द्रा (महाभारत आदिपर्व  १९५/३५)


#पञ्चधा_भगवानित्थमवतीर्णः_शतक्रतुः॥ (मार्कण्डेय पुराण ५/२३)


अतः पांचों पाण्डव पांच हो कर भी तात्विक दृष्टि से एक ही थे ऐसे में द्रोपदी पर आक्षेप गढ़ने वाले तो आक्षेप गढ़ सकते है परन्तु गूढ़ रहस्यों को समझ पाने में अक्षम होते है ।


शचीपति जो पूर्व में इंद्र की पत्नी थी वही द्रौपदी रूप में यज्ञवेदी से उतपन्न हुई  थी।


शास्त्रो में द्रौपदी की दिब्यरूपा कहा है दिब्य रूप की दिब्यता भी अलौकिक होगी जिसे समझ पाना हम जैसे सर्वसाधारणो के लिए अगम्य है ।


#द्रौपदी_दिव्यरूपा (महाभारत आदिपर्व  /१९५/३५)


द्रोपदी इंद्र के पांचों अंश पाण्डव को वरण इस लिए करती है की  वह  पांचों पाण्डव स्वयं इंद्र ही थे जो स्वयं दिब्य रूपा हो वे इस रहस्य से कैसे अज्ञात रह सकती है 

अतः द्रौपदी पांच पांडवो की पत्नी होते हुए भी एक ही इंद्र की पत्नी थी ।


देवताओं की दिब्य लीलाओं को भला कौन समझे क्या रहस्य है और क्या नही ।


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तेजोभागैस्ततो देवा अवतेरुर्दिवो महीम् ।

प्रजानामुपकारार्थं भूभारहरणाय च॥५.२०॥


यदिन्द्रदेहजं तेजस्तन्मुमोच स्वयं वृषः ।

कुन्त्या जातो महातेजास्ततो राजा युधिष्ठिरः॥५.२१॥


बलं मुमोच पवनस्ततो भीमो व्यजायत ।

शक्रवीर्यार्धतश्चैव जज्ञे पार्थो धनञ्जयः॥५.२२॥


उत्पन्नौ यमजौ माद्रयां शक्ररूपौ महाद्युती ।

पञ्चधा भगवानित्थमवतीर्णः शतक्रतुः॥५.२३॥


तस्योत्पन्ना महाभागा पत्नी कृष्णा हुताशनात्॥५.२४॥


शक्रस्यैकस्य सा पत्नी कृष्णा नान्यस्य कस्यचित् ।

योगीश्वराः शरीराणि कुर्वन्ति बहुलान्यपि॥५.२५॥


पञ्चानामेकपत्नीत्वमित्येतत् कथितं तव ।

श्रूयतां बलदेवोऽपि यथा यातः सरस्वतीम्॥५.२६॥(मार्कण्डेय पुराण)


शैलेन्द्र सिंह

Tuesday, 25 May 2021

वैदिक_वाङ्गमय_और_संगीत

 



वैदिक वाङ्गमय में स्वर के सात प्रकार बताए गए है 


सप्तधा वै वागवदत्' (ऐतरेय ब्राह्मण)


और इन्ही सात स्वरों से संगीत की उत्पति मानी गई है जिसे सप्तक कहा जाता है । 

संगीत जिसका उद्गमस्थल ही सामवेद है जिसे पाश्चात्यकारो ने भी मुक्त कण्ठ से स्वीकार किया है 


सप्तक

षड्ज , ऋषभ   , गांधार , मध्यम , पंचम , धैवत , और  निषाद - सा रे ग म प ध नी सा - यह सात स्वर ब्रह्म व्यंजक होने से ही ब्रह्मरूप कहलाये ।

'पक्षियों एवं जानवरों द्वारा स्वरों की उत्पत्ति'

सप्‍तस्‍वर की उत्‍पति :


षड्जं व‍दति मयूर: पुन: स्‍वरमृषभं चातको ब्रूते 

गांधाराख्‍यं छागोनिगदति च मध्‍यमं क्रौञ्च ।।


गदति पंचममंचितवाक् पिको रटति धैक्‍तमुन्मदर्दुर: 

शृणिसमाशृणिसमाहतमस्‍तक कुंजरो गदति नासिक या, स्‍वरमंतिमम् ।।१७१।। 

                                                            -- संगीत दर्पण से


(मोर से षड्ज, चातक से ऋषभ, बकरे से गांधार, क्रौंच पक्षी से मध्‍यम, कोयल से पंचम, मेंढक से धैवत और हाथी से निषाद स्‍वर की उत्‍पति होती है)

मोर- षड्ज स्वर में बोलता है।

पपीहा- ऋषभ स्वर में बोलता है।

राजहंस- गांधार स्वर में बोलता है।

सारस- मध्यम स्वर में बोलता है।

कोयल- पंचम स्वर में बोलती है।

घोड़ा- धैवत स्वर में हिनहिनाता है।

हाथी- निषाद स्वर में बोलता है।


'स्वरों के रंग'


षड्ज- गुलाबी।

ऋषभ- हरा।

गांधार- नारंगी।

मध्यम- गुलाबी (पीलापन लिए)।

पंचम- लाल।

धैवत- पीला।

निषाद- काला।


'स्वरों के देवता, प्रभाव, स्वभाव व ऋतु'


षड्ज_


देवता- अग्नि।

प्रभाव- चित्त को आह्लाद देने वाला।

ऋतु- शीत।


ऋषभ_


देवता- ब्रह्मा।

प्रभाव- मन को प्रसन्न करने वाला।

ऋतु- ग्रीष्म।


गांधार_


देवता- सरस्वती।

ऋतु- ग्रीष्म।

स्वभाव- ठंडा।


मध्यम_


देवता- महादेव।

ऋतु- वर्षा।


पंचम_


देवता- लक्ष्मी।

ऋतु- वर्षा।

स्वभाव- गर्म, शुष्क।


धैवत_


देवता- गणेश।

ऋतु- शीत।

स्वभाव- कभी प्रसन्न कभी शोकातुर।


निषाद_


देवता- सूर्य।

ऋतु- शीत।

स्वभाव- ठंडा व शुष्क।


Sa (षड्ज or Shadaja) ~ Sun / Aries ( षड्ज means six-born , Sun is figuratively the son of six Indian seasons)


Re (ऋषभ or Rishava) ~ Moon / Taurus ( ऋषभ means not a bull but 'white radiance' symbolical of purity)

 

Ga (गान्धार or Gandharam) ~ Venus / Gemini ( गान्धारं means 'heavenly singer' , quite typical of the planet)

 

Ma (मध्यम or Madhyamam) ~ Jupiter/ Cancer ( मध्यमं means medium , the archetypal teacher is the medium of knowledge to the disciple )

 

Pa (पंचम or Panchama) ~ Mars/ Leo ( पंचमं etymologically means 'binding up' , the fifth is also the 'central' number)

 

Dha ( धैवत or Dhaivata) ~ Mercury/ Virgo (धैवत means devout or morally intelligent)

 

Ni (निषाद or Nishada) ~ Saturn / Libra (  निषाद actually means downward not 'outcaste', the 7th sign naturally is the descendant  of the zodiac)

साभार :-- समुद्रगुप्त विक्रमार्क

पुराण विमर्श भाग २

 श्रोतीयब्रह्मनिष्ठ आचार्यो  के सानिध्य के बिना शास्त्रो के गूढ़ रहस्य को साधारण ब्यक्ति न तो समझ ही पाएंगे और न ही ठीक ठीक मनन  ।


इस लिए शास्त्रो का इस बिषय को लेकर स्प्ष्ट आदेश रहा है 


●-आचार्यवान पुरुषो हि वेद । (छान्दोग्य उपनिषद)

●-तद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत् समित्पाणि: श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम् । (मुंडकोपनिषद् )  


●-इतिहास पुराणाभ्या वेद समुपबृध्येत् (महाभारत )


पुराणों के अध्ययन किये बिना वेदो को समझना कठिन ही नही किन्तु सर्वथा असम्भव है क्यो की मन्त्रार्थ ज्ञान के लिए विनियोग ज्ञान आवश्यक है और विनियोग वर्णित ऋषियों और देवताओं के चरित्र जानने के लिए पुराणों का स्वध्याय अत्यावश्यक है हमारे पास पुराणग्रन्थ ही एकमात्र साधन है जिससे कि हम ऋषयो और देवताओं के बिषय में सर्वतोमुख ज्ञान प्राप्त कर सकते है निखिल आनन्दस्वरूप आनन्दकन्द सर्वज्ञ  ने वेद विद्या का प्रकाश कर पुराणों को भी साथ ही साथ प्रकाशित किया जिससे देवताओं और ऋषयो के जीवन वृत्तांत तथा उनके चरित्रों का भी दिग्दर्शन कराया जा सके ।

जिस प्रकार वेद अपौरुषेय है ठीक उसी प्रकार पुराण भी अपौरुषेय है इसकी पुष्टि स्वयं श्रुति ही करती है 


●- अरेऽस्य महतो भूतस्य निश्वसितमेतद्यदृग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्वाङ्गिरस इतिहासः पुराणं विद्या उपनिषदः श्लोकाः सूत्राण्यनुव्याख्यानानि   (बृहदारण्यक उपनिषद)


ऋषयो मंत्र दृष्टारः' (निरुक्त) ऋषिगण मन्त्रद्रष्टा हुए कर्ता नही ठीक उसी प्रकार पुराणों के वक़्ता सत्यवतीसुत  व्यास 

हुए कर्ता नही ।

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● शंका :---  अष्टादश (१८) पुराणों के वक़्ता यदि सत्यवती सुत कृष्णद्वैयापन व्यास ही है तो फिर सृष्टि ,उत्पती,विनाश ,वंश परम्परा, मनुओं का कथन  विशिष्ट व्यक्तियों के चरित्र उक्त यह पांचों बिषय पुराणों में  भेद के साथ क्यो मिलते है ??


निवारण :--- इस संसय का निवारण भी पुराण से ही हो जाता है कलिकाल के प्रभवा से मनुष्यो को क्षिणायु निर्बल एवं दुर्बुद्धि जानकर ब्रह्मादि लोकपालों के प्रार्थना करने पर धर्मरक्षा के लिए महर्षि पराशर द्वरा सत्यवती में भगवन के अंशांश कलावतार रूप में अवतार धारण कर वेद तथा पुराणों को विभक्त कर उसे प्रकाशित किया ततपश्चात महामति व्यास ने अपने योग्य पैल , वैशंपायन ,जैमिनी ,सुमंत आदि शिष्यों पर वेद संहिताओं के रक्षण का भार निहित किया तथा इतिहास और पुराणों के रक्षा का भार सुत के पिता रोमहर्षण को नियुक्त किया रोमहर्षण जी के  छः शिष्य  सुमति ,मित्रयु ,शांशपायन अग्निवर्चा अकृतव्रण ,और सावर्णि थे ।


●-प्रख्यातो व्यासशिष्योऽभूत् सूतो वै रोमहर्षणः ।

पुराणसंहितां तस्मै ददौ व्यासो महामुनिः ।। (विष्णु पुराण ३/६/१६)

●-इतिहासपुराणानां पिता मे रोमहर्षणः ॥(श्रीमद्भागवतम् १/४/२२)


●-सुमतिशचाग्नि वर्चाश्च  मित्रायुः शांशपायनः ।

अकृतव्रणः सावर्णिः षट् शिष्यास्तस्य चाभवन् (विष्णु पुराण ३/६/१७)


●-षट्शः कृत्वा मयाप्युक्तं पुराणमृषिसत्तमाः 

आत्रेयः सुमतिर्धीमान्काश्यपो ह्यकृतव्रणः।

भारद्वाजोऽग्निवर्चाश्च वसिष्ठो मित्रयुश्च यः ।

सावर्णिः सोमदत्तिस्तु सुशर्मा शांशपायनः (वायु पुराण )


जिस प्रकार शाखा भेद के कारण शाकल तथा वाष्कल संहिताओं में मन्त्रो का न्यूनाधिक देखने को मिलता है ठीक उसी प्रकार शिष्य प्रशिष्य के भेद के कारण पुराणों में भी पाठ भेद हो सकता है ।

 यदि पुराणों के सङ्कलनकर्ता भिन्न भिन्न व्यास माने तो 

पुराणों के इन वचनों का क्या होगा ?

  

●-अष्टादश पुराणानि वयासेन कथितानी तू ( मत्सय पुराण / वराह पुराण )

●-पराशरसुतो व्यासः कृष्णद्वैपायनोऽभवत् ।

स एव सर्ववेदानां पुराणानां प्रदर्शकः ।(कूर्मपुराण ५२/९)

अष्टादश पुराणानि कृत्वा सत्यवतीसुतः ।(देवीभागवत पुराण स्कंध १/ अध्याय ३ श्लोक संख्या १७)


अतः पुराणों के सङ्कलनकर्ता भिन्न भिन्न व्यास नही अपितु कृष्णद्वैयापन व्यास ही सिद्ध होता है ।


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●शंका  :-- अच्छा यह तो ठीक है परन्तु अष्टादश (१८) पुराणों की रचना सत्यवती सुत ही अगर करते तो पुराणों में ही ऐसा क्यो कहा गया है कि वशिष्ठ और पुलत्स्य के वरदान से महर्षि पराशर जी ने विष्णु पुराण की रचना की 


●-अथ तस्य पुलस्त्यस्य वसिष्ठस्य च धीमतः।। 

प्रसादाद्वैष्णवं चक्रे पुराणं वै पराशरः।। (लिङ्ग पुराण पूर्वभाग ६४/१२०-१२१)


निवारण  :--वेदो की भांति पुराण भी नित्य माने गए है स्वयं वेदो का ही इस बिषय पर शङ्खानाद है  अतः पुराणों के रचयिता  कोई नही सृष्टिकर्ता ब्रह्मा जी भी पुराणों को स्मरण ही करते है 

 पुराणं सर्वशास्त्राणां प्रथमं ब्रह्मणा स्मृतम् l

अनन्तरं च वक्त्रेभ्यो वेदा अस्य विनिर्गता: l 


यदि पुराणों के कर्ता महर्षि पराशर वा महर्षि व्यास माना जाय तो फिर श्रुतियाँ ही बाधित हो जाय ।


ऋक् ,यजु,साम,अथर्व,इतिहास,पुराणादि समस्त विद्या उस आनन्दकन्द सर्वज्ञ परमेश्वर  से ही प्रकट हुए है अतः इस शंका का निवारण यही हो जाता है कि पुराणों के कर्ता महर्षि पराशर अथवा व्यास नही है वे तो केवल  सङ्कलनकर्ता मात्र है ।


जो ऋषि मन्त्रब्राह्मणात्मक वेद के द्रष्टा है वे ही पुराणों के प्रवक्ता भी है ।

पुराणों के उपक्रम और उपसंहार पढ़ने पर अथवा नारद आदि पुराणों में दी हुई पुराणसूची का परायण करने पर यह स्प्ष्ट हो जाता है कि समस्त पुराणों के आदिम वक़्ता ब्रह्मा,विष्णु,महेश,पराशर,अग्नि,सावर्णि,मार्कण्डेय ,और सनकादि तथा आदिम श्रोता ब्रह्मा मारीच वायु गरुड़ नारद वशिष्ठ जैमिनी पुलत्स्य भूमि आदि है इन सब के पुरातन संवादों को ही वेदव्यास जी ने द्वापर के अंत मे क्रमबद्ध किया ।


●--ये एव मन्त्रब्राह्मणस्य द्रष्टार: प्रवक्तारश्च ते खल्वितिहासपुराणस्य धर्मशास्त्रस्य चेति। (न्यायदर्शन ४/१/६२)


बिस्तार भय  के कारण अत्यधिक प्रमाणों को मैं यहाँ नही रख पा रहा हूँ फिर भी विद्जनो के लिए इतना उपदिष्ट कर दे रहा हूँ जो समय निकाल कर शंका का निवारण कर सके 

मत्स्य पुराण अध्याय ५५ जहाँ इस विषय मे बिस्तार से बताया गया है कि किन किन पुराणों को किन किन ऋषयो अथवा देवताओं के प्रति कहा गया था ।

अतः विष्णु पुराण के प्रति महर्षि पराशर का भी यही सन्दर्भ लेना उचित जान पड़ता है क्यो की समस्त पुराण एक सुर में यही उद्घोषणा करते है कि । 


●-अष्टादश पुराणानि वयासेन कथितानी तू ( मत्सय पुराण / वराह पुराण )

●-पराशरसुतो व्यासः कृष्णद्वैपायनोऽभवत् ।

●-स एव सर्ववेदानां पुराणानां प्रदर्शकः ।(कूर्मपुराण ५२/९)

अष्टादश पुराणानि कृत्वा सत्यवतीसुतः ।(देवीभागवत पुराण स्कंध १/ अध्याय ३ श्लोक संख्या १७)

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विशेष----● पुराणों के बिषय में गौड़ापाद,शङ्कर, रामानुज,माध्व, वल्लभाचार्य,निम्बकाचार्य प्रभृति आचार्यो तथा इनसे भी पूर्वकालिक मूर्धन्य आचार्यो एवं विद्वानों को भी पुराणादि बिषयों पर सन्देह नही था अपितु हम जैसे अल्पज्ञ अल्पश्रुत स्वयमेव स्वघोषित विद्वान बन शास्त्रो के अर्थो का मनमाना अर्थ बड़ी धृष्टतापूर्वक कर विद्वान बनने का ढोल पीटने लगते है इससे बड़ा और हास्यस्पद क्या हो सकता है भले ही वह मैं ही क्यो न रहूं ।


शैलेन्द्र सिंह

पुराण आक्षेपो का खण्डन भाग १



 


मान्यवर तथागत ने वेदव्यास कृत पुराणादि बिषयों पर जो आक्षेप लगाए है वह अनादर है स्वध्याय आदि अल्पता के कारण लोगो मे तद् तद् बिषयों के प्रति भ्रम उतपन्न होना स्वभाविक है ।

मुख्य रूप से जो आक्षेप लगाए है वह यह है 


नम्बर (१):--पुराण की रचना काल की अवधि लगभग ५०० वर्ष  निर्धारित करना ।


नम्बर (२) :-- १८ पुराणों के कर्ता एक व्यास नही अपितु भिन्न भिन्न व्यास है ।


नम्बर (३) :-- जैसे व्यास पीठ शङ्कर पीठ आदि पर बिराजमान पीठाधीश्वर  को आचार्य शङ्कर तथा आचार्य व्यास से सम्बोधित किया जाता है अतः उन्ही व्यासो द्वरा रचित ग्रन्थों को कृष्ण द्वैयापन व्यास के नाम से ही प्रचारित किया गया हो ।


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सूक्ष्मा गतिर्हि धर्मस्य (महाभारत अनुशासन पर्व ) धर्म की गति अति सूक्ष्म है इस लिए शास्त्रो का स्प्ष्ट उपदेश है कि 


वि॒द्वांसा॒विद्दुरः॑ पृच्छे॒दवि॑द्वानि॒त्थाप॑रो अचे॒ताः ।

नू चि॒न्नु मर्ते॒ अक्रौ॑ ॥[ऋ १/१२०/२]

आचार्यवान् पुरुषो हि वेद । (छान्दोग्य उपनिषद)

तद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत् समित्पाणि: श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम् । (मुंडकोपनिषद् ) 

 

अतः निज मतमतान्तरों अपरम्पराप्राप्त अश्रद्धा से धर्म विषयक अर्थो का अनर्थ करना शास्त्रो की हत्या करने जैसा  है 

#बिभेत्यल्पश्रुताद वेदो मामयं प्रतरिष्यति

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सर्वप्रथम पुराण के कालावधि बिषयों पर बिचार करते है ।


किसी भी बिषयों की सिद्धि हेतु लक्षणों का निरूपण करना आवश्यक है तो फिर पुराणादि ग्रन्थ का निरूपण उनके लक्षणों को छोड़ स्व मतमतान्तर अनुसार बिषयों को प्रतिपादित करना क्या न्यायोचित है ?

पाठक गण बिचार करे ।


पुराणों का लक्षण  शास्त्रो में जो उपदिष्ट है वह यह है 


सर्गश्च प्रतिसर्गश्च वंशो मन्वन्तराणि च ।

वंशानुचरितं चैव पुराणं पञ्चलक्षणम् ।।  (विष्णु पुराण /कूर्म पुराण )

शास्त्रो में पुराण के पांच लक्षण बताए गए है ।

१) सर्ग - पंचमहाभूत, इंद्रियगण, बुद्धि आदि तत्त्वों की उत्पत्ति का वर्णन,

(२) प्रतिसर्ग - ब्रह्मादिस्थावरांत संपूर्ण चराचर जगत् के निर्माण का वर्णन,

(३) वंश - सूर्यचंद्रादि वंशों का वर्णन्,

(४) मन्वंतर - मनु, मनुपुत्र, देव, सप्तर्षि, इंद्र और भगवान् के अवतारों का वर्णन्,

(५) वंश्यानुचरित - प्रति वंश के प्रसिद्ध पुरुषों का वर्णन.


अब यदि पुराण का निर्माण काल ५०० वर्ष माने तो फिर सर्ग ,प्रतिसर्ग,वंश,मन्वन्तर,वंश्यानुचरित विषयो का वर्णन कैसे सम्भव होगा ?

अतः इस लक्षणामात्र से ही आप के समस्त दोषों का परिहार हो जा रहा है ।

फिर आप दोषारोपण करेंगे कि हम पुराणों को क्यो माने ?

जब आप पुराण को मानते ही नही तो उसकी व्यख्या क्यो ?

अस्तु वेद स्वयं पुराणों की नित्यता का उद्घोष करता है 


ऋच: सामानि छन्दांसि पुराणं यजुषा सह

उच्छिष्टाज्जज्ञिरे सर्वे दिवि देवा दिविश्रितः 

 (अथर्ववेद ११.७.२”)


एवमिमे सर्वे वेदा निर्मितास्सकल्पा सरहस्या: सब्राह्मणा सोपनिषत्का: सेतिहासा: सांव्यख्याता:सपुराणा:सस्वरा:ससंस्काराः सनिरुक्ता: सानुशासना सानुमार्जना: सवाकोवाक्या (गोपथब्राह्मण पूर्वभाग ,प्रपाठक 2) 


अध्वर्यविति हवै होतरित्येवाध्वर्युस्तार्क्ष्यो वै पश्यतो राजेत्याह तस्य वयांसि विशस्तानीमान्यासत इति

वयांसि च वायोविद्यिकाश्चोपसमेता भवन्ति तानुपदिशति पुराणं वेदः सोऽयमिति

किंचित्पुराणमाचक्षीतैवमेवाध्वर्युः सम्प्रेष्यति न प्रक्रमान्जुहोति - (शतपथ ब्राह्मण १३.४.३.)


अरेअस्य महतो भूतस्य निःश्वसितमेतत् ऋग्वेद यजुर्वेदःसामवेदोSथर्वाअङ्गीरस इतिहासः पुराणं विद्या उपनिषद: श्लोका:सूत्रांण्यनु व्याख्यानानी व्याख्यानान्यस्यैव निश्वासीतानी (बृहदारण्यक उपनिषद २/४/१०)


छान्दोग्य उपनिषद में देवऋषि नारद और सनत कुमार कथा प्रकरण में पुराणादि विद्या का उल्लेख है ।


त्रेता तथा द्वापर युग मे भी पुराणों का श्रवण आदि की परम्परा रही है ।

श्रूयताम् तत् पुरा वृत्तम् पुराणे च मया श्रुतम् (वाल्मीकि।रामायण १-९-१)


पुराणे हि कथा दिव्या आदिवंशाश्च धीमताम्।

कथ्यन्ते ये पुराऽस्माभिः श्रुतपूर्वाः पितुस्तव।।

तत्र वंशमहं पूर्वं श्रोतुमिच्छामि भार्गवम्।

कथयस्व कथामेतां कल्याः स्मः श्रवणे तव।। (महाभारत आदिपर्व )


विस्तार भय से इस बिषय को यही बिराम देता हूँ ।

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नम्बर (2) १८ पुराणों की रचना कृष्णद्वैयापन व्यास नही अपितु भिन्न भिन्न व्यासो ने मिलकर इसकी रचना की ।


अब तक 28 व्यास हो चुके है इस बिषय को लेकर कोई शंका नही परन्तु १८ अष्टादश पुराणों के कर्ता भिन्न भिन्न व्यास नही है कृष्णद्वैयापन व्यास ही है  इसकी पुष्टि भी स्वयं पुराण ही करता है ।

सृष्टि के आरम्भ में पुराण एक ही था समयानुसार समस्त पुराणों के ग्रहण करने में असमर्थ होने लगे तब व्यासरूपी भगवन द्वापर में अवतरित हो उसी पुराण को १८ भागो में विभक्त कर उसे प्रकाशित करते है ।


पुराणमेकमेवासीदस्मिन् कल्पान्तरे मुने ॥ 

त्रिवर्गसाधनं पुण्यं शतकोटिप्रविस्तरम् ।

स्मृत्वा जगाद च मुनीन्प्रति देवश्चतुर्मुखः ॥ 

प्रवृत्तिः सर्वशास्त्राणां पुराणस्याभवत्ततः ।

कालेनाग्रहणं दृष्ट्वा पुराणस्य ततो मुनिः ॥ 

व्यासरूपं विभुः कृत्वा संहरेत्स युगे युगे ।

अष्टलक्षप्रमाणे तु द्वापरे द्वापरे सदा ॥ 

तदष्टादशधा कृत्वा भूलोकेऽस्मिन् प्रभाष्यते ।

अद्यापि देवलोके तच्छतकोटिप्रविस्तरम् ॥ 

तथात्र चतुर्लक्षं संक्षेपेण निवेशितम् ।

पुराणानि दशाष्टौ च साम्प्रतं तदिहोच्यते (स्कन्द पुराण रेवाखण्ड )


अष्टादश पुराणानि कृत्वा सत्यवतीसुतः ।(देवीभागवत पुराण स्कंध १/ अध्याय ३ श्लोक संख्या १७)


अतः आक्षेपकर्ता का मत यहाँ भी ध्वस्त हुआ ।

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नम्बर (३) जैसे व्यास पीठ शङ्कर पीठ पर बिराजमान पीठाधीश्वर व्यास वा शङ्कराचार्य के नाम से सम्बोधित होता है ठीक उसी प्रकार भिन्न भिन्न व्यासो द्वरा कृत पुराणों को एक ही व्यास के नाम से जोड़ दिया हो । 


यह भी सम्भव नही  अनादि काल से चली आ रही गुरुकुलों द्वरा रक्षित तथा परम्पराप्राप्त शास्त्रो का अध्ययन अध्यापन  आदि की भी महत्व न रह जाय  । तथा  कठ ,कपिष्ठल,शौनक, पिप्पलाद आदि नाम से जो जो शाखाएं है वह भी बाधित हो जाएगी ऐसे में व्याघात दोष लगेगा ।


अतः आप का यह आक्षेप भी अनादर है   द्वितीय प्रश्न के समाधान में इस प्रश्न का भी समाधान हो जा रहा है  जहाँ स्प्ष्ट रूप से द्वापर युग मे अवतरित हुए सत्यवती सूत से कर दिया गया है ।

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विशेष :--- वेदादि के प्रकाण्ड विद्वान सायणाचार्य ने ऐतरेय ब्राह्मण के उपक्रम में लिखा है ।


देवासुरा: संयता आसन्नितयादयइतिहासा:इदं वा अग्रे नैव किन्चिदासीदित्यादिकं जगत:प्रागवस्थानुक्रम्य सर्गप्रतिपादकम वाक्यजातां पुराणं ।


इतिहासपुराणं पुष्पं  (छा०उ ०)

 श्रुतियों में पुराणों को पुष्प माना गया जिसकी सुगन्ध चारो ओर फैला हुआ है जिनकी मादकता से मधुमक्षिता ही उस पुष्प की ओर आकर्षित हो शहद का निर्माण करता है ।

मलमूत्र पर बैठा हुआ माक्षी नही ।

शैलेन्द्र सिंह 

Monday, 24 May 2021

शिवलिङ्ग



लिंगार्थगमकं चिह्नं लिंगमित्यभिधीयते।(शिव पुराण विशेश्वर संहिता)


अर्थात शिवशक्ति के चिन्ह का सम्मेलन ही लिंग हैं। लिंग में विश्वप्रसूति-कर्ता की अर्चा करनी चाहिये। यह परमार्थ शिवतत्त्व का गमक, बोधक होने से भी लिंग कहलाता है।


सर्वाधिष्ठान, सर्वप्रकाशक, परब्रह्म परमात्मा ही ‘‘शान्तं शिवं चतुर्थम्मन्यन्ते’’ इत्यादि श्रुतियों से शिवतत्व कहा गया है। वही सच्च्दिानन्द परमात्मा अपने आपको ही शिवशक्तिरूप में प्रकट करते हैं। वह परमार्थतः निर्गुण, निराकार होते हुए भी अपनी अचिन्त्य दिव्यलीलाशक्ति से सगुण, साकार, सच्चिदानन्दघनरूप में भी प्रकट होते हैं। 


लिंग शब्द के प्रति आधुनिक समाज में ब़ड़ी भ्रान्ति पाई जाती है।

संस्कृत में "लिंग" का अर्थ होता है प्रतीक।अथवा चिन्ह 

जननेंद्रि के लिए संस्कृत में एक दूसरा शब्द है - "शिश्न".आया है 

शिवलिंग का अर्थ लोकप्रसिद्ध मांसचर्ममय ही लिंग और योनि नहीं है, किन्तु वह व्यापक है। उत्पति का उपादानकारण पुरुषतत्व का चिह्न ही लिंग कहलाता है।  अतः वह लिंगपदवाच्य है। लिंग और योनि पुरुष-स्त्री के गुह्यांगपरक होने से ही इन्हें अश्लील समझना ठीक नहीं है। । 

उस अव्यक्त चैतन्यरूप लिंग सत्ता और प्रकृति से ही ब्रह्माण्ड बना है 

भगवान् के निर्गुण-निराकार रूप का प्रतीक ही शिवलिङ्ग है 

वह परमप्रकाशमय, अखण्ड, अनन्त शिवतत्त्व ही वास्तविक लिंग है 

 जब अनन्तब्रह्माण्डोत्पादिनी प्रकृति समष्टि योनि है, तब अनन्त ब्रह्माण्डनायक परमात्मा ही समष्टि लिंग है और अनन्त ब्रह्माण्ड प्रपंच ही उनसे उत्पन्न सृष्टि है।

■भं वृद्धिं गच्छतीत्यर्थाद्भगः प्रकृतिरुच्यते

मुख्यो भगस्तु प्रकृतिर्भगवाञ्छिव उच्यते  (शि०पु० वि० संहिता १६/१०१-१०२)

(भ) बृद्धि को (ग) या प्राप्त करने वाली प्रकृति को भग कहते है और प्रकृति की अधिष्ठाता शिव (भगवन) ही परमानन्द ब्रह्म है ।


शिव-शक्ति ही यहाँ लिंग-योनि शब्द से विवक्षित है। उत्पत्ति का आधारक्षेत्र भग है, बीज लिंग है। वृक्ष, अंकुरादि सभी प्रपंच की उत्पत्ति का क्षेत्र भग है


अनन्तब्रह्माण्डोत्पादिनी महाशक्ति प्रकृति ही योनि,है

अनन्तकोटिब्रह्माण्डोत्पादिनी अनिर्वचनीय शक्तिविशिष्ट ब्रह्म में भी शिव-पार्वती भाव है। उस परमात्मा में ही लिंगयोनिभाव की कल्पना है। निराकार, निर्विकार, व्यापक दृक् या पुरुषतत्व का प्रतीक ही लिंग है और अनन्तब्रह्माण्डोत्पादिनी महाशक्ति प्रकृति ही योनि,है

उसी की प्रतिकृति पाषाणमयी, घातुमयी जलहरी और लिंगरूप में बनायी जाती है।


शिवलिंग के मूल में ब्रह्मा, मध्य में विष्णु, ऊपर प्रणवात्मक शिव हैं। लिंग महेश्वर, अर्घा महादेवी हैं-


■मूले ब्रह्मा तथा मध्येविष्णुस्त्रिभुवनेश्वरः।*

■रुद्रोपरि महादेवः प्रणवाख्यः सदाशिवः।।*

■लिंगवेदी महादेवी लिंग साक्षान्महेश्वरः।*

■तयोः सम्पूजनान्नित्यं देवी देवश्च पूजितौ।।’*


जिसकी उपासना करने प्रत्येक वेदाभिमानी का कर्तब्य है ।

शैलेन्द्र सिंह