■●> एकलव्य :--
महाभारत को काल्पनिक कहने वाले पाश्चात्यविद् तथा वामपन्थी इतिहासकार एकलब्य बिषय को बार बार उठाकर जनमानस में वैमनस्यता का बीज बोता है इन तथाकथित इतिहासकारों के अनुसार विश्वविख्यात अयाख्यान महाभारत जब काल्पनिक ही है तो उसमें आये हुए कथानक वास्तविका कैसे ??
उन धूर्त तथाकथित इतिहासकारों के सामने प्रथम यही प्रश्न रखना चाहिए
फिर देखिए क्या होता है ।
अस्तु यह एक ऐसा बिषय है जिसकी भ्रांति जनमानस में ऐसा व्याप्त है बड़े से बड़ा विद्वान भी इस बिषय को लेकर यह तक कह डालते है कि एकलव्य के साथ जो हुआ वह न्याय नही है
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सनातन धर्म मे जितनी महता एक श्रोतीय ब्राह्मण की है उतनी ही महता एक स्वधर्मप्रायण शुद्र की है
■● अपि शुद्रं च धर्मज्ञं सद् वृत्तमभिपूजयेत् (महाभारत अनुशाशन पर्व ४८/४८)
स्व स्व धर्मानुरक्त धर्मानुरागी का सम्मान तो स्वयं ईश्वर भी करता है इस लिए शूद्रकुल में उतपन्न हुए विदुर को भी साक्षात् धर्म का अंश माना गया ,निषादराज गुह्य तो हमारे इष्टदेव श्रीरामचन्द्र के सखा तक हुए फिर
निषादराज हिरण्यधनु के पुत्र एकलब्य के साथ भेदभाव व्यवहार करने का कोई औचित्य भी नही बनता ।
महाभारत में युद्धिष्ठिर के राजसूय यज्ञ का वर्णन है, जिसके अनुसार इस यज्ञ में सभी वर्णों के लोगों के साथ - साथ देश - विदेश के विभिन्न राजाओं को आमंत्रित किया गया था। इनमें निषादराज एकलव्य भी थे तथा उनका स्थान श्रेष्ठ राजाओं और ब्राह्मणों के मध्य था । यदि निषाद जाती के साथ भेदभाव हीनभावना होती तो एकलब्य को राजाओं और ब्राह्मणों के मध्य स्थान न मिला होता ।
■● दुर्योधने च राजेन्द्रे स्थिते पुरुषसत्तमे।
कृपे च भारताचार्ये कथं कृष्णस्त्वयाऽर्चितः।।
द्रुमं कम्पुरुषाचार्यमतिक्रम्य तथाऽर्चितः।
भीष्मके चैव दुर्धर्षे पाण्डुवत्कृतलक्षणे।।
नृपे च रुक्मिणि श्रेष्ठे एकलव्ये तथैव च। (महाभारत सभापर्व ४०/१३-१४)
अतः यह स्प्ष्ट हुआ कि जितना सम्मान भिन्न भिन्न देश से आये हुए राजाओं तथा आचार्यो का था उतना ही सम्मान निषादराज हिरण्यधनु के पुत्र एकलव्य का भी था ।
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■● द्रोणाचार्य :--
■● द्रोणस्तपस्तेपे महातपाः।। (म 0आ0 १२९/४४)
■●वेदवेदाङ्गविद्वान्स तपसा ।(म0 आ0 १२९/४५)
■● गुरवे ब्रह्मवित्तम (म 0 आ0 १३१/५५)
गुरुद्रोणाचार्य के बिषय में ब्रह्मवेत्ता ,महातपस्वी,वेद वेदाङ्ग विद्या में निष्णात पद विशेषण आया है ऐसा श्रोतीय महातपस्वी ब्रह्मवेत्ता आचार्य जो सम्पूर्ण विद्या में निष्णात हो वे न किसी से द्वेष ही करते है और न किसी से मोह ऐसा श्रुतिवचन है
■◆ तत्र को मोहः कः शोकेस एकत्वमनुपश्यत
पाञ्चाल नरेश द्रुपद ने जब आचार्य द्रोणाचार्य को तिरस्कृत किया तब वे हस्तिनापुर पहुच कर वे अपनी ब्यथा भीष्म पितामह से कह सुनाई
भीष्म पितामह ने आचार्य द्रोणाचार्य के सामने अपना प्रस्ताव रखा कि आप यही हस्तिनापुर में रह कर कुरुवंश के राजकुमारों को धनुर्वेद एवं अस्त्र शास्त्रो की शिक्षा दीजिए एवं कौरवों के घर पर सदा सम्मानित हो मनवान्छित उपभोगों का भोग कीजिये ।
भीष्पिताम्ह का यह प्रस्ताव गुरु द्रोणाचार्य ने स्वीकार किया और भीष्मपितामह को वचन भी दिया कि इसी कुरुवंश के राजकुमारों को मैं विश्व के महानतम योद्धा बनाऊंगा ।
■● अपज्यं क्रियतां चापं साध्वस्त्रं प्रतिपादय।
भुङ्क्ष भोगान्भृशं प्रीतः पूज्यमानः कुरुक्षये।।
कुरूणामस्ति यद्वित्तं राज्यं चेदं सराष्ट्रकम्।
त्वमेव परमो राजा सर्वे च कुरवस्तव (महाभारत आदिपर्व १३०/७७-७८)
निष्पक्ष भाव से आचार्य द्रोणाचार्य कुरुवंश के राजकुमारों को धनुर्वेद सहित समस्त शास्त्रो अस्त्रों की शिक्षा देने लगे थे ।
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■●एकलव्य:--
निषादराज हिरण्यधनु पुत्र एकलव्य अस्त्र शस्त्र विद्या प्राप्त करने हेतु जब आचार्य द्रोणाचार्य के पास जाते है तब आचार्य द्रोणाचार्य उन्हें शिक्षा देने के लिए मना कर देते है ।
■● ततो निषादराजस्य हिरण्यधनुषः सुतः।
एकलव्यो महाराज द्रोणमभ्याजगाम ह।।
न स तं प्रतिजग्राह नैषादिरिति चिन्तयन्।
■● शिष्यं धनुषि धर्मज्ञस्तेषामेवान्ववेक्षया। (महाभारत आदिपर्व १३१/ ३१-३२ )
एक क्षण के लिए तो यहाँ पाठकगण को यह लगेगा कि द्रोणाचार्य ने ऐसा अन्याय क्यो किया ??
एकलब्य को धनुर्वेद की शिक्षा क्यो नही दी।
ऐसा इस लिए हुआ कि गुरुद्रोणाचार्य वचनबद्ध थे उन्होंने भीष्मपितामह को वचन दे रखा था कि कुरुवंश के राजकुमारों को अस्त्र शास्त्र की शिक्षा देगा ।
दूसरा कारण यह है कि गुरुद्रोणाचार्य को वेतन , धनधान्य तथा समस्त भोग उपलब्ध पितामह भीष्म करा रहे थे तो भला कुरुवंश को छोड़ वे अन्य कुमारों को शिक्षा देना स्वयं अपने वचनों को भंग करना होता
द्वेष का कोई कारण नही अपितु वे इस कलङ्क से भी बचना चाहते थे कि वेतन कोई और दे और धनुर्वेद सहित अस्त्र शस्त्र की शिक्षा किसी और को दे ऐसे में पितामह भीष्म भी यह प्रश्न उठा सकते थे कि आप के मनोवांछित समस्त भोग तथा वेतन कुरुवंश की ओर से प्राप्त हो रहा है और आप कुरुवंश राजकुमारों को छोड़ किस और को अस्त्र शस्त्र विद्या में निष्णात करा रहे है ।
इस कारण आचार्य द्रोण ने एकलब्य को अपने यहाँ धनुर्विद्या सिखाने से मना कर दिया ।
गुरु द्रोणाचार्य के मना करने के पश्चात एकलब्य ने वन में लौट कर आचार्य द्रोणाचार्य की ही मूर्ति बना धनुर्विद्या का अभ्यास आरम्भ किया ।
■● स तु द्रोणस्य शिरसा पादौ गृह्य परन्तपः।
अरण्यमनुसंप्राप्य कृत्वा द्रोणं महीमयम्।
तस्मिन्नाचार्यवृत्तिं च परमामास्थितस्तदा।
इष्वस्त्रे योगमातस्थे परं नियममास्थितः।। (महाभारत आदिपर्व १३१/३३-३४)
यहाँ दो बिषय बड़े ही महत्वपूर्ण है ।
नम्बर -१ - गुरु के अनुमति के बिना उनकी मूर्ति बना कर अभ्यास प्रारम्भ करना स्मृति शास्त्रो में स्प्ष्ट आदेश आये है कि गुरु की अनुमति के बिना विद्या का अध्ययन करने वाला चोर है और वह दण्ड के पात्र है ।
■● ब्रह्म यस्त्वननुज्ञातं अधीयानादवाप्नुयात् ।
स ब्रह्मस्तेयसंयुक्तो नरकं प्रतिपद्यते (मनुस्मृति २/११६)
और एकलब्य ने वही किया गुरुद्रोणाचार्य के मना करने के बाद भी उनकी मूर्ति बना कर धनुर्वेद विद्या का अभ्यास प्रारम्भ किया
नम्बर -२-- विद्या प्राप्त होने के पश्चात शिष्य अपने गुरु को दक्षिणा प्रदान करें ।
■● शक्त्या गुर्वर्थं आहरेत् । ।
■◆ क्षेत्रं हिरण्यं गां अश्वं छत्रोपानहं आसनम् ।
धान्यं शाकं च वासांसि गुरवे प्रीतिं आवहेत् (मनुस्मृति २/२४५-२४६)
एकलब्य द्वारा विधा की चोरी करना उसे दण्ड का पात्र बनाता है तो गुरु के शिक्षा प्राप्त कर दक्षिणा देने का अधिकारी भी बनाता है
जब आचार्य द्रोणाचार्य को यह ज्ञात हुआ कि एकलब्य उनकी मूर्ति बना कर धनुर्विद्या का अभ्यास कर रहा है तो वे मनोमन प्रसन्न हुए और उनके कौशल को देखने वन में चले वहाँ एकलब्य की प्रतिभा देख वे दंग रह गए और बिचार भी किये की यदि यह बालक हस्तिनापुर क्षेत्र के अन्तर्गत रहते हुए धनुर्विद्या में पारंगत हो जाता है तो भीष्मपितामह सहित राजा धृतराष्ट्र एवं कृपाचार्य आदि आचार्यगण क्या सोचेंगे ?
इस बिषम परिस्थिति को भांपते हुए गुरुद्रोणाचार्य ने यह बिचार किया कि एकलब्य का अनिष्ट भी न हो और वे अपनी धनुर्विद्या का अभ्यास भी आरम्भ रखे और मैं कलङ्कित भी न होऊं ।
आचार्य द्रोण एकलब्य से गुरिदक्षिणा मांगता है ।
■● यदि शिष्योऽसि मे वीर वेतनं दीयतां मम।। (महाभारत आदिपर्व १३१/ ५४)
गुरुदक्षिणा का नाम सुन एकलव्य प्रसन्न हुए और उन्होंने कहा हे ब्रह्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ आप स्वयं इसके लिए आज्ञा दे
आचार्य द्रोण एकलब्य से गुरुदक्षिणा में उनका अंगूठा मांग लिया
■◆तमब्रवीत्त्वयाङ्गुष्ठो दक्षिणो दीयतामिति।। (महाभारत आदिपर्व १३१/५६)
एकलब्य आचार्य द्रोण की इस दारुण वचन सुनकर भी बिना बिचलित हुए प्रसन्नचित हो कर अपने दाहिने हाथ के अंगूठे को काट कर द्रोणाचार्य को समर्पित किया ।
■●तथैव हृष्टवदनस्तथैवादीनमानसः।
छित्त्वाऽविचार्य तं प्रादाद्द्रोणायाङ्गुष्ठमात्मनः (महाभारत आदिपर्व १३१/५८)
यहाँ भी दो विशेषता है एक तो एकलब्य स्वयं इस प्रकार के दारुणवचन सुनकर भी विचलित नही हुए और प्रसन्नचित हो गुरुदक्षिणा देकर अपनी गुरुभक्ति भी सिद्ध की ।
वामसेफियो मुलविहीन हिन्दुओ को इस प्रकरण पर भले ही पेट मे दर्द हो परन्तु एकलब्य को अंगूठे कटने पर भी दर्द न हुआ यहाँ प्रसन्नचित जो विशेषण आया है वह इसकी पुष्टि स्वयं करता है ।
एकलब्य की गुरुभक्ति देख आचार्य द्रोण भी प्रसन्न हुए और तत्क्षण एकलब्य को ऐसी विद्या दे डाली जो अपने प्रिय पुत्र तथा शिष्यों को भी प्रदान नही किये ।
■● ततः शरं तु नैषादिरङ्गुलीभिर्व्यकर्षत।
न तथा च स शीघ्रोऽभूद्यथा पूर्वं नराधिप।। (महाभारत आदिपर्व १३१/५९)
गुरुद्रोणाचार्य ने संकेत में ही एकलब्य को यह विद्या प्रदान की जिससे वे तर्जनी और मध्यमा अंगुली से किस प्रकार वाणों का संघान करना चाहिए ।
गुरुद्रोणाचार्य की दृष्टि में एकलब्य के प्रति द्वेष अथवा हेय भाव होता तो वे उन्हें ऐसी विद्या क्यो प्रदान की होती ?
शैलेन्द्र सिंह
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