स्वामी दयानन्द ने अपने सत्यार्थप्रकाश के पृष्ठ संख्या ४५-४६ में कहते है कि सन्ध्याकाल तथा प्रातः काल मे सबलोग मलमूत्र का त्याग करते है जिससे वायु में दुर्गंध फैल जाती है तो उस वायु की शुद्धि के लिए यज्ञ करें ताकि दुर्गन्धयुक्त वायु का शोधन हो सके पता नही स्वामी जी के मनमस्तिस्क में उस वक़्त क्या चल रहा था यह तो वो ही जाने
अस्तु स्वामीदयनन्द मतानुसार आर्यसमाजियों को यज्ञ करने के लिए उस स्थान बिशेष का चुनाव करना चाहिए जहाँ मलमूत्रादि ज्यादा हो अथवा जिस स्थान पर लोग बहुतायत में मलमूत्र का त्याग करते हो
स्वामीदयानन्द सहित समस्त आर्यसमाजी शास्त्रो में आये हुए आज्ञानिषेधाज्ञा की धज्जियां पदे पदे उड़ाई है और स्वयं को सबसे बड़े वैदिक धर्मी कहते नही थकते ।
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यज्ञ जो की पुरुषार्थ प्राप्ति का साधन है ,जिस वेदविहित कर्मकाण्ड से समस्त सिद्धियां प्राप्त होती है ,जिस यज्ञ से देवगण ने असुरों को परास्त किया था, उस यज्ञबिशेष को लेकर स्थान तथा हविष्य आदि की शुद्धता के बिषय में शास्त्रो में भला बिचार कैसे न किया गया हो ।
महर्षि मनु मनुस्मृति में कहते है कि जहाँ अग्निहोत्रशाला हो उसके आसपास मलमूत्र का त्याग न करे ।
■ दूरादावसथान्मूत्रं दूरात्पादावसेचनम् ।
उच्छिष्टान्ननिषेकं च दूरादेव समाचरेत् । ।(मनुस्मृति ४/१५१)
■ परन्तु दयानन्द का मत है जहाँ मलमूत्र की अधिकता हो वहाँ यज्ञ हो
वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड में भी इसी बिषय को लेकर एक प्रसङ्ग भी आया है महर्षि विश्वामित्र सिद्धियां प्राप्त करने हेतु यज्ञ का सम्पादन करते है उस यज्ञ को बार बार विध्वंश करने के लिए मारीच तथा सुबाहु जैसे असुर यज्ञवेदी पर रक्त मांस की वर्षा कर देते थे जिससे यज्ञ की शुद्धि में बाधा पड़ती थी और यज्ञ सम्पन्न नही हो पाता था अंततः विश्वामित्र ने यज्ञ विध्वंशकारियो को दण्ड देने हेतु तथा यज्ञ विधिविहित अनुरूप सम्पन्न हो इस लिए वे अयोध्या के नरेश राजा दशरथ के पास जाते है और श्रीरामचन्द्र तथा लक्ष्मण को अपने साथ ले जाकर उन्हें यह भार सौपते है कि यज्ञ में किसी प्रकार का विध्न न पड़े ।
■ अहम् नियमम् आतिष्ठे सिध्द्यर्थम् पुरुषर्षभ ।
■ तस्य विघ्नकरौ द्वौ तु राक्षसौ काम रूपिणौ ॥
■ तौ मांस रुधिर ओघेण वेदिम् ताम् अभ्यवर्षताम् (वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड )
यज्ञ से क्या लाभ इस पर शास्त्रानुकूल बिचार करते है ।
स्वर्गकामो यजेत' इति वाक्यं श्रुत्वा ज्योतिष्टोमः स्वर्गरूपं फलं प्रति साधनमिति बोधो जायते । अनुष्ठिते च कर्मणि फलं प्राप्यत इति शास्त्रमेव प्रमाणम् ।
जिस विधिपूर्वक सदनुष्ठान से स्वर्ग की प्राप्ति तथा सम्पूर्ण विश्व का कल्याण तथा आध्यात्मिकआधिदैविक-आधिभौतिक तीनों तापों का उन्मूलन, सरल हो जाये, जिस श्रेष्ठ अनुष्ठान से सुखविशिष्ट की प्राप्ति सहज हो जाये
जिससे देवगण पूजे जाते हैं, जिस याग में देवगण पूजित होकर तृप्त हों, उसे यज्ञ कहते हैं ।
■यत्का॑मास्ते जुहु॒मस्तन्नो॑ अस्तु व॒यं स्या॑म॒ पत॑यो (ऋग्वेद १० /१२१/१०)
■देवावीर्देवान्हविषा यजास्यग्ने (ऐतरेय ब्राह्मण १/२८)
■देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः।
■परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ।।
■ इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः। (गीता ३/११-१२)
इस शास्त्रवचन से यह सिद्ध हो जाता है कि यज्ञ से देवगण तृप्त हो याजक को स्वर्गादि सुखविशिष्ट समस्त इच्छित फल को प्रदान करते है यज्ञ बिशेष तथा उनसे प्राप्त होने वाली सिद्धियों को समस्त सास्त्र मुक्तकण्ठ से गायन करते है क्यो की यज्ञ साक्षात् परमेश्वर का ही स्वरूप है ।
यज्ञो वै विष्णुः।(तै.ब्रा.-ऐतरेय ब्राह्मण-सतपथ ब्राह्मण-तैत्तरीय संहिता )
केवल इतना ही नही यज्ञ न करने वाला ब्यक्ति के लिए तो यह लोक भी कल्याणकारी नही फिर भला परलोक कैसे कल्याणकारक हो ।
■नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यः कुरुसत्तम ॥ (गीता)
शैलेन्द्र सिंह
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