Wednesday, 16 February 2022

गुरु लक्षण और स्कूली शिक्षक भाग --3



तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ।(गीता)


श्रुतिप्रामाण्यतो विद्वान्स्वधर्मे निविशेत वै । 

श्रुतिस्मृत्युदितं धर्मं अनुतिष्ठन्हि मानवः ।। (मनुस्मृति)


कार्याकार्यव्यवस्था में शास्त्र ही प्रमाण है जन्म से लेकर मृत्यु पर्यंत जितने भी संस्कार है उनमें शास्त्रो का स्पष्ट घन्टाघोष है की कैसे उसे आचरण में लाया जाए फिर वेदविद्या आदि तथा आचार्यो के प्रति शास्त्र मौन कैसे रहे ?

लौकिक तथा पारलौकिक कल्याण हेतु मोक्षरूपी विद्या प्रदान करने वाले गुरु अथवा आचार्य का लक्षण क्या है और कौन इसका अधिकारी है शाश्त्रो ने बृहदरूप से इस पर प्रकाश डाला है 


एतद्‍देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मन:।

  स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन पृथिव्यां सर्वमानवा:॥(मनुस्मृति)

जो अग्रजन्मा है उसी से पृथ्वी के सभी मानव अपना आचार बिचार सीखें ।


ब्राह्मण सभी वर्णो में।अग्रजन्मा है 

ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद् (ऋग्वेद)

उत्तमाङ्गोद्भवाज्ज्येष्ठ्याद्ब्रह्मणश्चैव धारणात् ।

सर्वस्यैवास्य सर्गस्य धर्मतो ब्राह्मणः प्रभुः (मनुस्मृति १.९३ )


वेदादि शास्त्रो में ब्राह्मण को मुख कहा गया है !

वाक् और बुद्धि  ही अंग प्रत्यंग से लेकर साम्राज्य तक का शाशन करता है यह दृष्टान्त जगत में देखा जाता है जिस कारण किस वर्ण का क्या आचरण है यह ब्राह्मण से ही जानना चाहिए क्यो ?

क्योकि 

वर्णानां ब्राह्मणः प्रभुः (मनुस्मृति १०.३ )

उत्पत्तिरेव विप्रस्य मूर्तिर्धर्मस्य शाश्वती ।(मनुस्मृति )

ब्राह्मणो जायमानो हि पृथिव्यां अधिजायते ।(मनुस्मृति)

पृथग्धर्माः पृथक्शौचास्तेषां तु ब्राह्मणो वरः।।(महाभारत -- आदिपर्व ८१/२०)


ब्राह्मण स्वयं धर्म स्वरूप है । 

जिस कारण श्रुतिस्मृति आदि ग्रन्थों में ब्राह्मण के सानिध्य में ही  अध्ययन अध्यापन और आचार बिचार की शिक्षा ग्रहण करने का आदेश दिया गया है 


गुरुर्हि सर्वभूतानां ब्राह्मणः(महाभारत आदिपर्व १/२८/३५)

अधीयीरंस्त्रयो वर्णाः स्वकर्मस्था द्विजातयः ।

प्रब्रूयाद्ब्राह्मणस्त्वेषां नेतराविति निश्चयः । । 

सर्वेषां ब्राह्मणो विद्याद्वृत्त्युपायान्यथाविधि ।

प्रब्रूयादितरेभ्यश्च स्वयं चैव तथा भवेत् । । (मनुस्मृति १०/१-२)

ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् (श्रीमद्भागवतगीता १८- ४२ )

वृत्त्यर्थं याजयेदज्वान्यानन्यानध्यापयेत् तथा ।

कुर्यात् प्रतिग्रहादानं गुर्वर्थं न्यायतो द्रिजः (विष्णु पुराण ३/२३ )

सास्त्रज्ञा नित्य है और सास्त्रज्ञा मानने वाला ही ईश्वर का आराधना करता है सास्त्र द्रोही नही विष्णुपुराण का उद्घोष है अब उसे न मान मनमाना आचरण को ही धर्म मान ले तो उससे बड़ी और मूर्खता क्या ।


वर्णास्वमेषु ये धर्माः शास्त्रोक्ता नृपसत्तम ।

तेषु तिष्ठन् नरो विष्णुमाराधयति नान्यथा ।(विष्णु पुराण ३/ १९ )

कहाँ श्रुतिस्मृति प्रोक्त वर्णाश्रमधर्म  आचरित गुरु तो कहाँ  भौतिक शिक्षा के बल पर प्राप्त किया हुआ संवैधानिक पद  अतः यह नीतान्त भ्रामक प्रचार है कि स्कूली शिक्षक और गुरु समतुल्य है 

शैलेन्द्र सिंह

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