Thursday, 30 July 2015

गुरु

——–||●| बिन गुरु मुक्ति न होई  |●||——–
मिट्टी स्वय आकार ग्रहण करने में अक्षम होता है ।
समस्त मानव जाती का इस धरती पर आवागमन मिट्टी की भाँती होती है । किसी भी महान से महान ब्यक्ति का उदय तो तब होता है जब उसे कुम्हार रुपी कलाकार गुरु मिलता है जैसा कुम्हार वैसा घड़े का आकार । कुम्हार अपने परिश्रम के बल पे मिट्टी पर चोट पे चोट किये जाता है वो इस लिए की आने वाला कल में उसका मोल अनमोल हो । जिसे देखने पर हर किसी की आँख उसी पर जा ठहरे । अक्सर ये कहा जाता है की नानक और बुद्ध को गुरु नही मिला फिर भी ज्ञान हुआ । यदि मै कहु की ऐसा कदापि न होगा तब सायद आप न माने ।
मै पूछता हु क्या वो अनाथ पैदा हुए थे हर मनुष्य का प्रथम गुरु उनका माता पिता होता है माता पिता जैसा संस्कार अपने बच्चे को देंगे वो उसी के अनुरूप ढलेगा ।क्यों की जन्मजात बच्चे का मन मस्तिस्क एक कोरे कागज़ की तरह होती है आप ने जैसी कलम चलाई वैसी ही उस कोरे कागज़ पर अपनी आकृति ग्रहण करेगी ।तो क्या नानक और बुद्ध अनाथ पैदा हुए थे नहीं न । आप यदि उनका इतिहास भी उठा कर देखे तो वो दोनों उच्च कुलीन में जन्म लिए थे जिस कारण उनका संस्कार भी उच्च कोटि के मिले । बिना गुरु का तो ये श्रृष्टि तम अँधेरे की तरह है जो सूर्य के प्रकाश में भी हर ब्यक्ति का मन मस्तिस्क पर घोर अँधेरा छाया रहता है । उस अँधेरे का नाश गुरु रुपी प्रकाश द्वारा होता है । 
इस लिए शाष्त्र भी गुरु को इस उपाधि से अलंकृत किया है 
गुरुर्ब्रह्मा ग्रुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः ।
गुरुः साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः ॥
गुरु ब्रह्मा है, गुरु विष्णु है, गुरु हि शंकर है; गुरु हि साक्षात् परब्रह्म है; उन सद्गुरु को प्रणाम ।
योगीन्द्रः श्रुतिपारगः समरसाम्भोधौ निमग्नः सदा
शान्ति क्षान्ति नितान्त दान्ति निपुणो धर्मैक निष्ठारतः ।
शिष्याणां शुभचित्त शुद्धिजनकः संसर्ग मात्रेण यः
सोऽन्यांस्तारयति स्वयं च तरति स्वार्थं विना सद्गुरुः ॥
योगीयों में श्रेष्ठ, श्रुतियों को समजा हुआ, (संसार/सृष्टि) सागर मं समरस हुआ, शांति-क्षमा-दमन ऐसे गुणोंवाला, धर्म में एकनिष्ठ, अपने संसर्ग से शिष्यों के चित्त को शुद्ध करनेवाले, ऐसे सद्गुरु, बिना स्वार्थ अन्य को तारते हैं, और स्वयं भी तर जाते हैं ।
किमत्र बहुनोक्तेन शास्त्रकोटि शतेन च ।
दुर्लभा चित्त विश्रान्तिः विना गुरुकृपां परम् ॥
बहुत कहने से क्या ? करोडों शास्त्रों से भी क्या ? चित्त की परम् शांति, गुरु के बिना मिलना दुर्लभ है ।
दुग्धेन धेनुः कुसुमेन वल्ली
शीलेन भार्या कमलेन तोयम् ।
गुरुं विना भाति न चैव शिष्यः
शमेन विद्या नगरी जनेन ॥
जैसे दूध बगैर गाय, फूल बगैर लता, शील बगैर भार्या, कमल बगैर जल, शम बगैर विद्या, और लोग बगैर नगर शोभा नहि देते, वैसे हि गुरु बिना शिष्य शोभा नहि देता ।
प्रेरकः सूचकश्वैव वाचको दर्शकस्तथा ।
शिक्षको बोधकश्चैव षडेते गुरवः स्मृताः ॥
प्रेरणा देनेवाले, सूचन देनेवाले, (सच) बतानेवाले, (रास्ता) दिखानेवाले, शिक्षा देनेवाले, और बोध करानेवाले – ये सब गुरु समान है ।
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साभार ….बिष्णु देव चंद्रवंशी[[शैलेन्द्र सिंह]]

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