यो तो साम्राज्य स्वराज्य राज्य महाराज्य आदि शब्द वैदिक साहित्य की ही देन है परन्तु उनकी सबसे बड़ी देन राष्ट्र शब्द है वैदिक गर्न्थो में राष्ट्र का अत्यधिक उल्लेख है इस शब्द में आर्यो की बड़ी भावना बड़ी मार्मिकता और प्रोज्ज्वल अनुभूति निबद्ध है इस शब्द में देश राज्य जाती और संस्कृति निहित है राष्ट्र के अभ्युदय के लिए आर्य अपना सर्वस देने के लिए तैयार रहते थे और राष्ट्र की रक्षा के लिए अपना प्राण तक का हवन करने को आर्य सदा सन्नद्ध राहते थे उनकी प्रबल अभिलाषा थी वरुण अविचल करे बृहस्पति स्थिर करे इंद्र राष्ट्र को सुदृढ़ करे और अग्निदेव राष्ट्र को अविचल रूप से धारण करे ।
आ राष्ट्रे राजन्यः शूर ऽ इषव्यो ऽतिव्याधी महारथो जायतां [[यजुर्वेद 22/22]]
हमारे राष्ट्र में क्षत्रिय बीर धनुर्धर लक्ष्यभेदी महारथी हो ।
यह आर्यो की उत्कट उत्कण्ठा थी ।
वयं राष्ट्रे जागृयाम पुरोहिताः[[यजुर्वेद 9/23]]
अपने राष्ट्र में नेता बन कर हम जागरणशील रहे ।
यह दृढ बिस्वास था ।
ब्रह्मचर्येण तपसा राजा राष्ट्रं वि रक्षति |[[११/5/7/17]]
ब्रह्मचर्य रूप तप के बल से ही राजा राष्ट्र की रक्षा करता है ।
वैदिक साहित्य से लेकर स्मृति रामायण महाभारत पुराण तंत्र तक में राष्ट्र की महता बताई गई है ।
यह कहा जा चूका है की राष्ट्र की रक्षा के लिए आर्य प्राण तक देने को उद्यत रहते थे
आ राष्ट्रे राजन्यः शूर ऽ इषव्यो ऽतिव्याधी महारथो जायतां [[यजुर्वेद 22/22]]
हमारे राष्ट्र में क्षत्रिय बीर धनुर्धर लक्ष्यभेदी महारथी हो ।
यह आर्यो की उत्कट उत्कण्ठा थी ।
वयं राष्ट्रे जागृयाम पुरोहिताः[[यजुर्वेद 9/23]]
अपने राष्ट्र में नेता बन कर हम जागरणशील रहे ।
यह दृढ बिस्वास था ।
ब्रह्मचर्येण तपसा राजा राष्ट्रं वि रक्षति |[[११/5/7/17]]
ब्रह्मचर्य रूप तप के बल से ही राजा राष्ट्र की रक्षा करता है ।
वैदिक साहित्य से लेकर स्मृति रामायण महाभारत पुराण तंत्र तक में राष्ट्र की महता बताई गई है ।
यह कहा जा चूका है की राष्ट्र की रक्षा के लिए आर्य प्राण तक देने को उद्यत रहते थे
आ त्वाहार्षमन्तरेधि ध्रुवस्तिष्ठाविचाचलिः । विशस्त्वा सर्वा वाञ्छन्तु मा त्वद्राष्ट्रमधि भ्रशत् ॥१॥
राजन तुम्हे राष्ट्र पति बनाया गया है तुम इस देश के प्रभु हो
अटल अविचल और स्थिर रहो प्रजा तुम्हे चाहे तुम्हारा राष्ट्र नष्ट न होने पावे ।
इहैवैधि माप च्योष्ठाः पर्वत इवाविचाचलिः । इन्द्र इवेह ध्रुवस्तिष्ठेह राष्ट्रमु धारय [[ऋग्वेद १०/१७३/२]]तुम यही पर्वत के सामान अविचल हो कर रहो राज्यच्युत नही होना इंद्र के सदृश्य निश्चल हो कर रहो यहां राष्ट्रको धारण करो ।
- अहम् अस्मि सहमान उत्तरो नाम भूम्याम् |
- अभीषाढ् अस्मि विश्वाषाढ् आशामाशां विषासहिः [[12/1/54]]
- मैं अपनि मातृभूमि के लिए और उसके दुख विमोचन के लिए सब प्रकार के कष्ट सहने के लिए तैयार हु
- यद् वदामि मधुमत् तद् वदामि यद् ईक्षे तद् वनन्ति मा |
- त्विषीमान् अस्मि जूतिमान् अवान्यान् हन्मि दोधतः ||[[१२/१/५८]]
- अपनी मातृभूमि के सम्बन्ध में जो कुछ कहता हु उसकी सहायता के लिए है मैं ज्योतिःपूर्ण वर्चस्वशाली और बुद्धियुक्त हो कर मातृभूमि के दोहन करने वाले शत्रुओ का बिनाश करू ।
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