--------------||० श्री नारायण हरिः ०||---------------
यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते येन जातानि जीवन्ति । यत्प्रयन्त्यभिसंविशन्ति । तद्विजिज्ञासस्व । तद् ब्रह्मेति ।(तैत्तिरीय॰ ३ । १)
‘ये सब प्रत्यक्ष दीखनेवाले प्राणी जिससे उत्पन्न होते हैं, उत्पन्न होकर जिसके सहारे जीवित रहते हैं तथा अन्तमें इस लोकसे प्रयाण करते हुए जिसमें प्रवेश करते हैं, उसको तत्त्वसे जाननेकी इच्छा कर, वही ब्रह्म है ।’
ईश्वर कैसा है उनका स्वरुप कैसा है क्या वो एकदेशीय है अथवा सर्वत्र ब्याप्त है निराकार है या साकार है इस प्रकार की जिज्ञासा कई लोगो के अन्तःकरण में जिज्ञाषाएं बनी रहती है कुछ ऐसे लोग भी मिल जाते है जो ईश्वर को केवल मात्र निराकार ही मानते है और कई ऐसे भी ब्यक्तिओ का दर्शन भी हो जाता है जो ईश्वर को एकदेशीय भी मानता है यदि हम ईश्वर को केवल निर्गुण निराकार ही मानने लगे अथवा एकदेशीय मानने लगे तो इस पर ईश्वर के ऊपर दोष ठहरेगा क्यों की ऐसा मानने पर ईश्वरीय शक्तियां निर्बल सा प्रतीत होने लगेगा और जहाँ निर्बलता है वहां ईश्वरीय सत्ता सिद्ध नही हो सकती है इस लिए श्रुति स्मृति गर्न्थो में ईश्वर को सर्वगुण सम्पन्न माना है ।
बिज्ञानं ब्रह्म [तै 0 २/५/१]]
ईश्वर बिज्ञान स्वरुप है ।
यश्छन्दसामृषभो विश्वरूपः [[तै 0 १/४/१ ]]
जो वेदो में ऋषभ श्रेष्ठ अथवा प्रधान और सर्वरूप है ।
एकं रूपं बहुधा यः करोति [[क 0 ऊ 2/2/12]]
जो एक रूप हो कर भी अनेक रूपो को धारण करता है ।
नित्योऽनित्यानां चेतनश्चेतनानाम्
एको बहूनां यो विदधाति कामान्।[[क 0 ऊ 0 2/2/13]]
जो अनित्य पदार्थो में नित्यस्वरूप तथा ब्रह्मादि में चेतनों में चेतन है जो अकेला ही अनेक कामनाये पूर्ण करता है ।
विश्वाधिपो[[श्वे0 ऊ 3/4]]
जो सम्पूर्ण जगत के जगतपति है ।
यतो जातानि भुवनानि विश्वा [[श्वे 4/4]]
उन्ही से ये सम्पूर्ण लोक उतपन्न हुए है ।
पूर्णं पुरुषेण सर्वम् [[श्वे0 ऊ0 3/9]]
वह पूर्ण पुरुष सर्वत्र है ।
तस्यवयवभूतैस्तु व्याप्तं सर्वमिदं जगत् [[श्वे 4/ १० ]]
उसी के अवयव भुत से यह सम्पूर्ण जगत वयाप्त है ।
प्रत्यङ् जनास्तिष्ठति [[श्वे0 ऊ 3/2]]
जो समस्त जीवो के भीतर स्थित हो ।
यो देवॊऽग्नौ योऽप्सु यो विश्वं भुवनमाविवेश ।य ओषधीषु यो वनस्पतिषु तस्मै देवाय नमो नमः [[श्वे २/ १७]]
जो देव अग्नि में है जो देव जल में है जो समस्त लोको में प्रविस्ट हो रहा है जो औषधि में है जो वनस्पतियो में है उस देवता को नमस्कार है
सर्वाननशिरोग्रीवः सर्वभूतगुहाशयः ।सर्वव्यापी स भगवांस्तस्मात्सर्वगतः शिवः [[ ३/११ ]]
वह भगवन समस्त मुखोवाला समस्त सिरोवाला समस्त ग्रीवाओ वाला है वह समस्त जीवो के अन्तःकरण में स्थित है वह सर्वव्यापी है इस लिए वह सर्वगत और मंगल रूप है ।
अणोरणीयान्महतो महीयान-[[कठो उपनिषद २/२०]]
वह अणु से भी अणु सूक्ष्म और माहान (बिराट ) से महान है
अङ्गुष्ठमात्रः पुरुषो ज्योतिरिवाधूमकः ।
ईशानो भूतभव्यस्य स एवाद्य स उ श्वः ।
एतद्वै तत् [[क0 ऊ १३]]
वह अंगूष्ठमात्र पुरुष धुमरहित ज्योति के सामान है वह भुत भविष्य का शाशक है यही आज भी है यही कल भी रहेगा और निश्चय ही यह ब्रह्म है ।
तदेवाग्निस्तदादित्यस्तद्वायुस्तदु चन्द्रमाः ।तदेव शुक्रं तद्ब्रह्म तदापस्तत्प्रजापतिः [[श्वे 0ऊ 4/2]]
वही अग्नि है वही वायु है वही सूर्य है वही चन्द्रमा है वही शुद्ध है वही ब्रह्म है वही जल है वही प्रजापति है।
त्वमग्न इन्द्रो वृषभः सतामसि त्वं विष्णुरुरुगायो नमस्यः । त्वं ब्रह्मा रयिविद्ब्रह्मणस्पते त्वं विधर्तः सचसे पुरंध्या [[ऋ 2/1/3 ]]
आप सज्जनो को नेतृत्व प्रदान करने वाले इंद्र हो आप ही सबके स्तुत्य सर्व व्यापी विष्णु हो ।हे ज्ञान सम्पन्न आप ही आप उत्तम ऐश्वर्य से सम्पन्न ब्रह्मा है विविध प्रकार के बुद्धि को धारण करने वाले आप मेघावी हो ।
नास्त्यन्तो विस्तरस्य मे[[गीता10/19 ]]
मेरे बिस्तार का अन्त नही ।
नान्तोऽस्ति मम दिव्यानां विभूतीनां परंतप।[[गीता 10/40]]
मेरी दिब्य बिभूतियों का अंत नही ।
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जिस परम परमात्मा की बिभूतियों का अंत ही नही है उस परमात्मा को शब्दों से ब्याख्या करना मात्र प्रयास ही हो सकता है ।
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