Sunday, 22 December 2024

राम ने बाली को धोखे से मारा :--

 


इस प्रकार के राग अलापने वाले कम्युनिष्ट वामपन्थी बिचारधारा से ग्रसित लोगो का एक ही लक्ष्य होता है ब्यभिचारी पुरुष एवं अपराधियो का पालनपोषण कर उसे पुष्ट बनाना JNU आज इसका जीत जागता उदाहरण है ।

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त्रेतायुग में श्रीरामचन्द्र के समकालीन प्रत्यक्षघटना के जो साक्षी बने वे वे मर्यादापुरुषोत्तम श्रीरामचन्द्र के बिषय में क्या कहते है  वह विचारणीय तथ्य है ।


●-महाराज दशरथ ---

■-अनुजातो हि मां सर्वैर्गुणैः श्रेष्ठो ममात्मजः (वा ०रा०बालकाण्ड)

■-तं चन्द्रमिव पुष्येण युक्तं धर्मभृतां वरम्।(वा०रा०बालकाण्ड )


●- अयोध्या जनपद के प्रजागण 


■-गुणान् गुणवतो देव देवकल्पस्य धीमतः।

धर्मज्ञः सत्यसंधश्च शीलवाननसूयकः।

क्षान्तः सान्त्वयिता श्लक्ष्णः कृतज्ञो विजितेन्द्रियः॥ 

मृदुश्च स्थिरचित्तश्च सदा भव्योऽनसूयकः।

प्रियवादी च भूतानां सत्यवादी च राघवः॥ (वा०रा०बालकाण्ड)


●-मायावी मारीच 


■-रामो विग्रहवान् धर्मः (वा० रा०अरण्यकाण्ड) 


●-माता जनकननन्दिनी 

■-मर्यादानां च लोकस्य कर्ता (३५/११)


■-धर्मात्मा भुवि विश्रुतः।     कुलीनो नयशास्त्रवित् (वा०रा०युद्धकाण्ड)


●- राक्षसराज रावण 

■--तं मन्ये राघवं वीरं नारायणमनामयम्॥(युद्धकाण्ड ७२/११)

●मंदोदरी 

रामो न मानुषः (युद्धकाण्ड १११/१६)


★स्वयं बाली श्रीरामचन्द्र के बिषय में क्या कहते है यह और भी महत्वपूर्ण है


■--रामः करुणवेदी च प्रजानां च हिते रतः(किष्किंधा काण्ड १७/१७)

■--क्षत्रियकुले जातः श्रुतवान् (किष्किंधा काण्ड १७/२७)

■-त्वं राघवकुले जातो धर्मवानिति विश्रुतः।(किष्किंधा काण्ड १७/२८)

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एक न्यायप्रिय राजा वही है जो देशकाल अनुरूप वेद विद्या में निष्णात, न्यायविद्या  धर्माधर्मानुरूप प्राणियों पर अनुग्रह निग्रह करता है ऐसा श्रुतिस्मृति से सिद्ध है 


■-सोऽरज्यत ततो राजन्योऽजायत (अथर्ववेद १५/८/१)


■-दमः शमः क्षमा धर्मो धृतिः सत्यं पराक्रमः। पार्थिवानां गुणा राजन् दण्डश्चाप्यपकारिषु॥ (किष्किंधा काण्ड १७/१९)


■-तं देशकालौ शक्तिं च विद्यां चावेक्ष्य तत्त्वतः ।

यथार्हतः संप्रणयेन्नरेष्वन्यायवर्तिषु । ।(मनुस्मृति ७/१६)

समीक्ष्य स धृतः सम्यक्सर्वा रञ्जयति प्रजाः ।(मनुस्मृति७/१९)


■-आन्वीक्षिकीं त्रयीं वार्त्तां दण्डनीतिं च पार्थिवः ।

तद्विद्यैस्तत्‌क्रियोपैतैश्चिन्तयेद्विनयान्वितः 

■-आन्वीक्षिक्यार्थविज्ञानं धर्म्माधर्मौ त्रयीस्थितौ ।

अर्थानर्थौ तु वार्त्तायां दण्डनीत्यां नयानयौ ।।(अग्निपुराण २३८./८-९ )


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त्रेतायुग श्रीरामचन्द्र के समकालीनआचार्यगण,भूपति,प्रजागण असुरगण वानरादि प्रत्यक्षदर्शियों द्वारा यह  सिद्ध होता है कि  श्रीरामचन्द्र  साक्षात धर्म स्वरूप, नीतिवान ,वेद विशारद, सर्वगुणसम्पन्न, देवताओ की भांति बुद्धि रखने वाला, धर्मात्मा न्यायशास्त्र का ज्ञाता गुणदोषानुरूप अनुग्रगन निग्रह करनेवाला समस्त प्रजाओ के हित करने वाला दयावान  स्वयं नारायण स्वरूप है 

इसके विपरीत 

अल्पज्ञ अल्पश्रुत भ्रान्तवादी वामपंथिय तथाकथित हिन्दू जो उस घटना के प्रत्यक्षदर्शी नही थे / है , वे आज तद्वत बिषयों को लेकर मर्यादापुरुषोत्तम श्रीरामचन्द्र पर दोषारोपण कर रहे है ।

की बाली को धोखे से मारा ।।

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अस्तु मर्यादापुरुषोत्तम श्रीरामचन्द्र के शाशनकाल में बाली दुराचारी ब्यभिचारी  अपराधी  पुरुष था ,  भगवान राम को बाली के पाप का दण्ड देना था उससे युद्ध करना नही बाली अपराधी था प्रतिद्वंदी नही दण्ड विधान और युद्ध धर्म दोनों में भेद है छिप कर मारना युद्ध में अधर्म है पर दण्ड बिधान के लिए नही युद्ध धर्म में तो निशस्त्र को मारना अधर्म है पर दण्ड देते समय इसका कोई मूल्य नही यदि राजा अपने राज्य के अपराधी को बिना अस्त्र दिए मरवा दे तो क्या कहा जायेगा ?

राजा ने धोखे से मरवा दिया ? 

बाली का जो अपराध था वह अति निंदनीय और समाज मे ब्यभिचार उतपन्न करने वाला था इस लिए श्रीरामचन्द्र ने उनको इस अतिनिन्दनीय कर्म  का दण्ड शास्त्रानुकूल ही दिया ।।


विद्वान राजा धर्म से भ्रष्ट हुए पुरुषों को दण्ड देता है और धर्मात्मा पुरुष का धर्मपूर्वक पालन करते हुए कामासक्त स्वेच्छाचारी पुरुषों के निग्रह में तत्पर रहते है ।

धर्म और काम तत्व को जानने वाले दुष्टों पर निग्रह और साधु पुरुषों पर अनुग्रह करने के लिए तत्पर रहते है ।


■-गुरुधर्मव्यतिक्रान्तं प्राज्ञो धर्मेण पालयन्

 भरतः कामयुक्तानां निग्रहे पर्यवस्थितः।। (वा०रा०४/१८/२४)


■-धर्मकामार्थतत्त्वज्ञो निग्रहानुग्रहे रतः॥(वा०रा०४/१८/७)


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श्रीरामचन्द्र के बाणों से बिंध जाने के पश्चात बाली श्रीरामचन्द्र से यह पूछता है कि 

हे राम आप ने यहाँ मेरा वध करके कौन सा गुण प्राप्त किया किस महान यश का उपार्जन किया ? 


■-कोऽत्र प्राप्तस्त्वया गुणः। यदहं युद्धसंरब्धस्त्वत्कृते निधनं गतः॥(किष्किंधा काण्ड १७/१६)


बाली के प्रश्नों को सुनकर मर्यादापुरुषोत्तम बाली के गुणदोषों को दर्शाते हैं ।


■--त्वं तु संक्लिष्टधर्मश्च कर्मणा च विगर्हितः।(वा०रा०४/१८/१२)

तदेतत् कारणं पश्य यदर्थं त्वं मया हतः। भ्रातुर्वर्तसि भार्यायां त्यक्त्वा धर्मं सनातनम्॥

अस्य त्वं धरमाणस्य सुग्रीवस्य महात्मनः। रुमायां वर्तसे कामात् स्नुषायां पापकर्मकृत्॥  तद् व्यतीतस्य ते धर्मात् कामवृत्तस्य वानर। भ्रातृभार्याभिमर्शेऽस्मिन् दण्डोऽयं प्रतिपादितः॥

नहि लोकविरुद्धस्य लोकवृत्तादपेयुषः। दण्डादन्यत्र पश्यामि निग्रहं हरियूथप॥  (वा०रा०४/१८/-१८१९-२०-२१)


बाली तुम्हारा कर्म सदा ही धर्म मे बाधा पहुँचानेवाला रहा तुम्हारे बुरे कर्म के कारण सत्पुरुषों में निन्दा का पात्र हुआ ।

बाली मैंने तुम्हें क्यो मारा इसका कारण सुनो और समझो तुम सनातन धर्म का त्याग करके अपने छोटे भाई की स्त्री से सहवास करते हो इस महामना सुग्रीव के जीते जी इसकी पत्नी रूमा का जो तुम्हारी पुत्रवधु के समान है कामवस उपभोग करते हो इस लिए तुम पापाचारी हो इस तरह तुम धर्मभ्रष्ट हो स्वेच्छाचारी हो गए हो और अपने छोटे भाई की स्त्री को गले लगाते हो तुम्हारे इसी अपराध के कारण तुम्हे दण्ड दिया गया ।जो लोकाचार से भ्रष्ट हो लोकविरुद्ध आचरण करता हो उसे रोकने और रास्ते पर लाने के लिए मैं दण्ड के सिवाय और कोई राह नही देखता ।


■-औरसीं भगिनीं वापि भार्यां वाप्यनुजस्य यः॥ 

 प्रचरेत नरः कामात् तस्य दण्डो वधः स्मृतः (वा०रा०४/१८/२२)


जो पुरुष अपनी कन्या बहन अथवा छोटे भाई के स्त्री के पास काम भावना से जाता है उसका वध करने ही उपयुक्त दण्ड माना गया है ।


●बाली दुराचारी ब्यभिचारी पाप कर्मों में सदा लिप्त  रहता था ऐसा 


बुद्धि के आठो अंगों से अलंकृत हनुमान कहता है कि बाली 

क्रूरकर्मा निर्दयी पापाचारी है 


■-तं क्रूरदर्शनं क्रूरं नेह पश्यामि वालिनम्॥  (कि०काण्ड २/१५)

पापकर्मणः (कि०काण्ड२/१६)

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दण्ड के यथोचित उपयोग प्रयोग से लोक में सत्य की प्रतिष्ठा होती है सत्य की प्रतिष्ठा से धर्म का उत्कर्ष होता है ।

लौकिक और वैदिक मर्यादाओं के संरक्षक तथा वर्णसंकर्ता एवं कर्मसंकर्ता के निरोधक मात्स्यन्यायका अवरोधक उपवीत सुशिक्षित अभिसिक्त अराजको के दमन तथा सज्जनों के संरक्षण में दक्ष विनयी शाशक ही राजा मान्य है ।


शैलेन्द्र सिंह

Tuesday, 17 December 2024

■-वृंदा विष्णु कथाप्रसंग भाग 2



■--पुराणे ही कथा दिव्य (महाभारत आदिपर्व 5/1)

■-सुदुर्लभा कथा प्रोक्ता पुराणेषु (ब्रह्मवैवर्तपुराण)

■-आख्यानं पुराणेषु सुगोप्यक्म् (ब्रह्मवैवर्तपुराण)


पुराणों की कथाएँ दिव्य हैं, जिनके कारण पुराणादि में आए दिव्य दिव्य पुराणों में ब्रह्माण्ड उत्पन्न होना स्वाभाविक है। मासूम रहता है क्यों की 


■--अक्षरग्रहादि परमोपजायमान वाक्यार्थज्ञानार्थमध्ययानं विधीयते


तत्सस्य विचारमन्तरेणासम्भवाध्यायन विधिनैवासार्थाद्विचारो विहित इति गुरुगृह एवस्थाय विचारयितव्यों धर्म: इस न्याय से गुरुमोखोच्चारणानुच्चारण सानिध्यता न प्राप्त होना ही मूल कारण है।

विष्णु वृन्दा.कथा की दिव्यता भी इसी प्रकार की है।


वृंदा माता लक्ष्मी स्वरूपा हैं तो शङ्खचूड़ भगवान विष्णु का, अंशांशी होने के कारण उनकी भेद दृष्टि ही मूर्खता का द्योतक है।


■--अंशांशिनोर्न भेदश्च ब्राह्मणवाह्निस्फुलिङ्गवत (ब्रह्मवैवर्त ब्रह्मखंड 17/37)


●--श्रीभगवानुवाच ।।

■- लक्ष्मी त्वं कल्याण गच्छ धर्मध्वजगृहं शुभे।।

अयोनिसम्भवा भूमौ तस्य कन्या भविष्यसि।। 

■-तत्रैव दैवदोषेन वृक्षत्वं च लभिष्यसि।।

मदनस्यासुरस्यैव शङ्खचूडस्य कामिनी।। (प्रकृतिखंड 6/45-46)

हे शुभुर्ति लक्ष्मी तुम पृथ्वी पर धारण करो धर्मध्वज के घर अपने अंश से अयोनिज कन्या हो कर प्रकट हो जाओ वहां मेरे अंश से उत्पन्न होने वाले शंखचूड़ की पत्नी उदय दैववश तुलसी वृक्ष का रूप धारण करोगी।

●-यही स्वयं वृंदा (तुलसी बात) श्रीमद्देवीभागवत पुराण और ब्रह्मवैवर्त पुराण में भी बताई गई है।

■--अहं च तुलसी गोपी गोलोकेऽहं स्थित पुरा।।

कृष्णप्रिया किङकारी च तदंशा तत्सखी प्रिया।।

■--सुदामा नाम गोपश्च श्रीकृष्णाङ्गसमुद्भवः।।

तदंशश्चातितेजस्वी चल्भज्जन्म भारते।। 

संप्राप्तं राधाशापद्दनुवंशसमुद्भवः।।

शङ्खचूड़ इति तख्यस्त्रैलाक्ये न च तत्परः।।

(प्रकृतिखंड 16/24 एवं 30-31 श्रीमद्भागवत पुराण 9/17)


जिस कथा प्रसंग में व्याभिचार का गंध तक नहीं, उसी कथा के बिषय में भ्रांतवादी, वामपंथी, समाजी अपनी कुबुद्धि से भगवान विष्णु पर दोषारोपण करते हैं।

स्वयं अपनी पत्नी में ही रमाना किस दृष्टि से व्यभिचार हुआ ??


इसके लिए तो भगवान कहते हैं।


■--जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं (गीता)


 भगवान के दिव्य कर्मों को सर्वसाधारण लोगों के समझ से परे है।

इसके लिए तो शास्त्र बार बार की घोषणा की गई है 


■-तद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत् समित्पणिः श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम्। (मुंडकोपनिषद्)  

■-आचार्यवान् पुरुषो वेदः(छान्दोग्य उपनिषद)


शैलेन्द्र सिंह

Friday, 28 June 2024

बालविवाह

 ■-- बालविवाह


सनातन वैदिक धर्म मे ऐसा कोई भी कुप्रथा नही जो सम्पूर्ण भूतसमुदाय के लिए अपकल्याणकारक  हो सनातन धर्म में तो मनुष्य ,पशु,पक्षी,पिपीलिका बृक्षलता आदी तक मे उसी परमेश्वर की कल्पना करने का जो आदेश दिया है वह विश्व के किसी और धर्मशास्त्रों के दृष्टिगोचर नही होता ।


■-सर्वं खल्विदं ब्रह्म (छान्दोग्य उपनिषद)

■-सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो (गीता)


जिस संस्कृति में समस्त भुसमुदाय में ईश्वर की कल्पना की गई हो वह संस्कृति कैसे किसी मानवी हितों के लिए अपकल्याणकारक हो सकता है 

सनातन धर्म से इतर अन्य मत मजहब पन्थ रिलीजन में आये हुए कुरीतियों को अध्यरोपित सनातन धर्म मे नही किया जा सकता


बालविवाह के नाम पर सनातन धर्म के प्रति वामपन्थियों ,सेक्युलरवादियों, मिशनिरिज द्वारा जो मिथ्या प्रचार प्रसार किया गया वह अप्रमाणिक होने के कारण अग्राह्य है ।।


सनातन संस्कृति व संस्कार  ईश्वरमूला होने से सद्मूला है, चिद्मूला है, आनन्दमूला है,


संस्कार का अर्थ है सजाना-संवारना, पूर्णता प्रदान करना।  इसके लिए उसके अन्दर दिव्य गुणों का आधान किया जाता है। 

 इसमें मुख्य 16 संस्कार हैं जिसके द्वारा मानव के मूल दिव्य, परिपूर्ण स्वरूप को प्रकट करने की चेष्टा की जाती है इन 16 संस्कारों में एक संस्कार है पाणिग्रहण का है पाणिग्रहण संस्कार को लेकर सनातन धर्म शास्त्र क्या है यह जानना भी आवश्यक है जिन्हें तद्वत बिषयों का ज्ञान नही वे ही सनातनधर्म संस्कारो पर घात किया करते है ।।


श्रुति कहता है कि मनु ने जो कहा वह भैषज (औषधि) है  और भैषज होने से समस्त मानवजाति के लिए ग्राह्य है 

■-यद् वै किञ्च मनुरवदत् तद् भेषजम् | ( तैत्तिरीय सं०२/२/१०/२) 

■-मनु र्वै यत् किञ्चावदत् तत् भेषज्यायै | (- ताण्ड्य-महाब्रा०२३/१६/१७)


तो महर्षि मनु ने पाणिग्रहण संस्कार के बिषय में क्या कहा ?


■--त्रिणि वर्षाण्युदिक्षेत कुमार्यार्तुमति सती |

ऊर्ध्वं तु कालादेतस्माद् विन्देता सदृशं पतिम् ||(मनुस्मृति  ९/९० )

ऋतुमती होने के तीन वर्ष तक प्रतीक्षा करें उसके पश्चात समान योग्य वर को वरण करें ठीक यही कथन महर्षि मनु  श्लोक संख्या ९३ में भी कहता है कि जब कन्या ऋतुमती हो जाय तभी उसका वरण करना चाहिए ।।

#कन्यां_ऋतुमतीं_हरन् (९/९३)और यदि न किया तो पाप के भागी होंगे  


महर्षि मनुप्रोक्त इस बिधान की पुष्टि बौधायन धर्मसूत्र वशिष्ठधर्म संहिता एवं महाभारत भी करता है 


■-त्रीणि वर्षाण्य् ऋतुमतीं यः कन्यां न प्रयच्छति ।(बौधायन धर्मसूत्र ४/१/१२)

■-कुमार्य्यृतुमती त्रिवर्षाण्युपासीतोर्द्धं (वशिष्ठ संहिता )


■-त्रीणि वर्षाण्युदीक्षेत कन्या ऋतुमती सती (महाभारत अनुशासन पर्व ४४/१६)


जिन बिषयों पर समस्त धर्माचार्य का मतैक्य  हो उस बिषय की प्रमाणिकता पर सन्देह कहाँ ?


सनातंधर्मसंस्कृति आर्यावर्त देशीय होने के कारण यह आचरण सम्पूर्ण भारतवर्ष के लिए मानवहितों को देखते हुए कल्याणकारी है क्यो की भारत मे एक कन्या का ऋतुगमन (पीरियड्स) 13 वर्ष के पश्चात ही देखा जाता है ऋतुगमन होने के तीन वर्ष पश्चात ही सनातनधर्म शास्त्रों ने विवाह का आदेश दिया है 13+3 अर्थात 16 वर्ष तक कि आयु सनातन धर्मशास्त्र निश्चित करता है 

बाल विवाह को लेकर सनातन धर्म शास्त्र में एक भी प्रमाण दृष्टिगोचर नही होता ।


शैलेन्द्र सिंह

Friday, 31 May 2024

- भगवन् विष्णु और वृंदा कथा भ्रमोच्छेदन ।।



■--पुराणे ही कथा दिव्या (महाभारत आदिपर्व ५/१)


पुराणों की कथाएं दिव्य है अतः परम्पराप्राप्त आचार्यो  की सानिध्यता न प्राप्त होने   के कारण पुराणादि में आये हुए दिव्य कथाओं  को लेकर भ्रम उतपन्न होना स्वाभाविक है क्यो की पुराणों की जो दिव्यता है वह सर्वसाधारण नही जिस कारण अल्पज्ञ अल्पश्रुत भ्रान्तवादियो का मत इन दिव्य कथाओं को लेकर भ्रमित रहता है क्यो की 

■--अक्षरग्रहणादि परम्परोपजायमान वाक्यार्थज्ञानार्थमध्ययनं विधीयते

ततस्तस्य विचारमन्तरेणाSसम्भवाध्ययनविधिनैवाSर्थाद्विचारो विहित इति गुरुगृह एवावस्थाय विचारयितव्यों धर्म: इस न्याय से गुरुमोखोच्चारणानुच्चारण सानिध्यता न प्राप्त होना ही कारण है ।


अब आते है विष्णु वृंदा कथा प्रसङ्ग पर 

इस प्रसङ्ग के दो भेद है 

■--प्रथम स्वयं वृंदा ने श्रीकृष्ण को पति के रूप में प्राप्त करने के लिए तप किया था जिसका फल उन्हें मिला 

■--द्वितीय :-- शङ्खचुड़ के आतंक से त्रस्त हो कर एवं माता पार्वती के पतिव्रत धर्म को नष्ट करने के कारण अवध्य शङ्खचुड़ (जलन्धर) का वध हुआ 

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प्रथम प्रसङ्ग :-- 


वृंदा कौन ? थी यह जानना भी अत्यंत आवश्यक है जितना कि आवश्यक यह बिषय 

वृंदा पूर्वजन्म में तुलसी नामक गोपिका थी जो स्वयं श्रीकृष्ण की अनुचरी उनकी अंशस्वरूपा थी 

अहं तु तुलसी गोपी गोलोकेऽहं स्थिता पुरा ॥ 

■-कृष्णप्रिया किंकरी च तदंशा तत्सखी प्रिया ।(श्रीमद् देवी भागवतम् ९/१७)

श्रीकृष्ण की अंशस्वरूवा होने के कारण वृंदा का श्रीकृष्ण के प्रति  विशेष अनुराग उतपन्न होना स्वभाविक था इस लिए वृंदा मन ही मन श्रीकृष्ण को पतिरूप में पाने की इच्छा करती थी और  श्रीकृष्ण को पतिरूप में पाने की इच्छा से कठिन तप भी किया था 


■-सर्वैर्निषिद्धा तपसे जगाम बदरीवनम् ।

तत्र देवाब्दलक्षं च चकार परमं तपः ॥ 

मनसा नारायणः स्वामी भवितेति च निश्चिता ।(श्रीमद् देवी भागवतम् ९/१७/१३-१४-१५)


वृंदा की यह मनोदशा को देख कर रास की अधिष्ठात्री देवी राधिका ने तुलसी (वृंदा) को शाप देती है कि तू मानव योनि को प्राप्त हो उसके पश्चात  श्रीकृष्ण ने तुलसी(वृंदा ) से कहा की हे तुलसी (वृंदा) तू भारतवर्ष में जन्म लेकर घोर तपस्या करके ब्रह्मा जी के वरदान से मेरे अंशस्वरूप चतुर्भुज विष्णु को पतिरूप में प्राप्त करोगी ।

तुलसी(वृंदा) दूसरे जन्म में घोर तप के बल से ब्रह्मा को प्रसन्न करता है

और उनसे वर मांगता है ।

■--अहं नारायणं कान्तं शान्तं सुन्दरविग्रहम् ॥ 

साम्प्रतं तं पतिं लब्धुं वरये त्वं च देहि मे (श्रीमद् देवी भागवतम् ९/१७/२७)


ब्रह्मा जी वृंदा की मनोदशा जान कर  वरदान देता है कि इस जन्म में सुदामा (शङ्ख चुड़) की पत्नी बनोगी और बाद में शांतस्वरूप नारायण को पति रूप में वरण करोगी 


■-अधुना तस्य पत्‍नी त्वं सम्भविष्यसि शोभने ॥ 

पश्चान्नारायणं शान्तं कान्तमेव वरिष्यसि । (देवी भागवतम् ९/१७)


अतः यह दोषारोपण करना ही व्यर्थ है कि विष्णु ने वृंदा के साथ अनाचार किया अस्तु स्वयं वृंदा ही विष्णु को पतिरूप में पाने की इच्छा से घोर तप किया था जिसका फल भी वृंदा को प्राप्त हुआ उस पर भी भगवन् विष्णु अपने मायाशक्ति के बल से ही वृंदा में अपने तेज का आधान किया था यहाँ माया शब्द से पाञ्चभौतिक स्थूल शरीर का कल्पना करना ही व्यर्थ है ।


■-गत्वा तस्यां मायया च वीर्याधानं चकार ह (श्रीमद् देवी भागवतम् ९/२३/१२)


श्रीहरि: के श्रीमुख से निकल हुआ यह वचन से यह प्रमाणित हो जाता है कि जो जो भक्त जिस जिस स्वरूप में भगवन् का चिन्तन करते है भगवन् उस उस रूप में उसको प्राप्त होता है 


ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्। (गीता)


अतः वृंदा ने जिस रूप में भगवन् का स्मरण कर तपस्या की थी वह फलीभूत हुई वृंदा का भगवन् विष्णु को पतिरूप में संकल्पना ही शङ्खचुड़ (जलन्धर) के वध का कारण बना ।


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दूसरा प्रसङ्ग :--


दैत्यराज शङ्खचुड़ देवताओं के साथ जो अन्याय किया उसका बखान दैत्यराज शङ्खचुड़ (जलन्धर)स्वयं अपने ही मुख से कहता है ।


■-अहमेव शङ्‌खचूडो देवविद्रावकारकः (श्रीमद्देवी भागवतम् ९/१८/६८)


★-देवताओं को संत्रस्त करनेवाला मैं ही शङ्खचुड़ हूँ । 


शङ्खचुड़ ने केवल देवताओं को संतप्त ही नही किया अपितु उनके अधिकार छीन कर उन्हें उनके राज्य से निष्कासित कर दर दर भिक्षुओं की भांति ठोकरे खाने के लिए मजबूर किया 


■-देवानामसुराणां च दानवानां च सन्ततम् ॥ 

गन्धर्वाणां किन्नराणां राक्षसानां च शान्तिदः ।

हृताधिकारा देवाश्च चरन्ति भिक्षुका यथा ॥ 

। (श्रीमद्देवी भागवतम् ९/१९/४४)


■-दैत्यराजेन तेनातिहन्यमानास्समंततः ।।

धैर्यं त्यक्त्वा पलायंत दिशो दश सवासवाः ।।(शिवपुराण रुद्रसंहिता युद्धखण्ड )

दैत्यायुधैः समाविद्धदेहा देवास्सवासवाः ।।

■-रणाद्विदुद्रुवुस्सर्वे भयव्याकुलमानसाः ।।

पलायनपरान्दृष्ट्वा हृषीकेशस्सुरानथ ।। (शिवपुराण रुद्रसंहिता युद्धखण्ड १७/१-२-)


★-इस भयवाह व्यकुलता से संतप्त हो समस्त देवगण कभी ब्रह्मा के सरण में जाते है तो कभी विष्णु के सरण में तो कभी शिव के सरण में ।

■-ते सर्वेऽतिविषण्णाश्च प्रजग्मुर्ब्रह्मणः सभाम् । (श्रीमद्देवी भागवतम् ९/१९/४४)

वैकुंठं प्रययुस्सर्वे पुरस्कृत्य प्रजापतिम् ।।

■-तुष्टुवुस्ते सुरा नत्वा सप्रजापतयोऽखिलाः ।।(शिवपुराण रुद्र०युद्ध० १६/२)

तस्योद्योगं तथा दृष्ट्वा गीर्वाणास्ते सवासवाः ।।

■-अलक्षितास्तदा जग्मुः कैलासं शंकरालयम् ।। (शिवपुराण रुद्र०युद्ध० २०/१४)


देवताओं के इस दीनता को को देख भगवन् शिव अपना दूत पुष्पदन्त को शङ्खचुड़ के पास भेजता है और विनम्रता से देवताओं के राज्य एवं उनका अधिकार वापस करने के लिए कहता है 


■-राज्यं देहि च देवानामधिकारं च साम्प्रतम् ॥ (श्रीमद्देवी भागवतम् ९/२०/२४ ॥)

★-भगवन् शङ्कर के दूत पुष्पदन्त ने शङ्खचुड़ से कहा कि 

देवताओं के राज्य तथा अधिकार उन्हें लौटा दो ।


■-देहि राज्यं च देवानां मत्प्रीतिं रक्ष भूमिप ।

सुखं स्वराज्ये त्वं तिष्ठ देवास्तिष्ठन्तु वै पदे ॥ 

॥(श्रीमद्देवी भागवतम् ९/२१/- ४२ )


हे राजन तुम देवताओं के राज्य वापस कर दो और मेरी प्रीति की रक्षा करो तुम अपने राज्य में सुख पूर्वक रहो और देवता अपने स्थान पर रहे प्राणियों में परस्पर विरोध नही होना चाहिए ।

यहाँ भगवन् शिव की विनम्रता।तो देखिए कि भगवन् शिव शङ्खचुड़ को उसके दुष्कृत्यो को सहन कर दैत्यराज के सामने विनम्र प्रार्थना कर रहे है कि देवताओं के राज्य एवं उनके अधिकार को वापस कर दो  परन्तु दैत्यराज तो दैत्यराज है अपने अहंकार मद में चूर कहाँ किसी की सुनने वाले दैत्यराज के मना करने पर भगवन् शिव और दैत्यराज शङ्खचुड़ के साथ घोर संग्राम हुआ जहाँ शङ्खचुड़ अजेय रहे उनके अजेय रहने का मुख्य कारण वृंदा का पतिव्रतधर्म का प्रभाव ही रहा जिस कारण वह अजेय बना रहा । और उसी रक्षा आवरण के बल पर देवताओं को संतप्त करता रहा ।


●- पतिव्रत धर्म के बिषय में 

माता पार्वती कहती है कि पतिव्रत धर्म से बढ़कर दूसरा कोई धर्म नही 


■-पातिव्रतसमो नान्यो धर्मोऽस्ति पृथिवीतले  (शिवमहापुराण रुद्र०युद्ध० २२/५२)


इसी पतिव्रत धर्म के प्रभाव के कारण माता सीता रावण को भस्मीभूत करने के लिए सावधान करता है इसी पतिव्रता धर्म के बल पर माता सीता के कहने पर अग्नि अपने उग्र प्रभाव को न दिखा कर  हनुमान को शीतलता का अनुभव करता है ।


यहाँ तक तो सब ठीक था दैत्यराज द्वारा देवताओं के अधिकार छीन लेने के पश्चात भी  कल्याणकारी शङ्कर शांतचित्त रह शंखचूड़ को देवताओं के अधिकार वापस करने के लिए विनम्रता भी करता है 

परन्तु जब शङ्खचुड़ ने माता पार्वती पर कुदृष्टि डाली और उनका पतिव्रत धर्म नष्ट करने को उद्धत हुआ तब शङ्कर प्रलयंकर बन कर उभरा और विष्णु की सहायता से शङ्खचुड़ का वध किया यदि भगवन् विष्णु ने इस मार्ग को न अपनाता तो न जाने कितने ही स्त्रियों पर अपनी कुदृष्टिडाल उनका पतिव्रत धर्म नष्ट किया होता ।


जलांधर भगवती का रूपस्मरण कर काम ज्वर से पीड़ित हो मोहित हुआ 


■-तद्रूपश्रवणादासीदनंगज्वरपीडितः ।।(शिवपुराण रुद्रसंहिता युद्धखण्ड १९/२)

 

शङ्खचुड़ ने  अपने दूत से कहा कि कैलाशपर्वत पर जाओ और शङ्कर से कहो ।

इस भुवन के भूपति स्वामी जब विद्यमान है तो तुम्हे स्त्रिरत्न जाया को हमे दे दो क्यो की रत्नभोगी हम है त्रिलोकी में जितने रत्न है वह सब मेरे यहाँ विद्यमान है चर अचर सब जगत् को तुम मेरे अधीन जानो 

इस लिए हे जटाधारी तुम अपनी स्त्री रत्न को मेरे निमित प्रदान करो ।


■-मन्नाथे भुवने योगिन्नोचिता गतिरीदृशी ।।

जायारत्नमतस्त्वं मे देहि रत्नभुजे निजम् ।।

यानियानि सुरत्नानि त्रैलोक्ये तानि संति मे ।।

मदधीनं जगत्सर्वं विद्धि त्वं सचराचरम् ।। (शिवपुराण रुद्रसंहिता युद्धखण्ड १९/९-१०)

■-एवं योगीन्द्र रत्नानि सर्वाणि विलसंति मे ।।(शिवपुराण रुद्रसंहिता युद्धखण्ड १९/१५)


जलन्धर कामवेग से तप्त हो कर वह अपनी मायाशक्ति के बल से दशभुजा तीन नेत्र जटाधारी रूप धारण कर महाबृषभ पर चढ़ कर साक्षात् रुद्र रूप में माता पार्वती के समक्ष उपस्थित हुआ ।


■-कामतस्स जगामाशु यत्र गौरी स्थिताऽभवत्।। ३७

दशदोर्दण्डपंचास्यस्त्रिनेत्रश्च जटाधरः ।।३८।।

महावृषभमारूढस्सर्वथा रुद्रसंनिभः ।।

■-आसुर्य्या मायया व्यास स बभूव जलंधरः । (शिवपुराण रुद्रसंहिता युद्धखण्ड २२/३७-३८-३९)


माता पार्वती को जब जलन्धर के इस दुष्कृत्यों का बोध हुआ तो वे भगवन् विष्णु को मन से स्मरण किया और विष्णु को अपने समीप पाया भगवन् विष्णु माता पार्वती से कहते है कि हे माते मुझे आप की कृपा से जलांधर का दुष्कृत्य का बोध हुआ आप आज्ञा दे मुझे क्या करना है 

 माता पार्वती कहती है  जलांधर ने मेरा पतिधर्म नष्ट करने का दुष्कृत्य किया है जलन्धर ने जिस मार्ग को खोल दिया है उसी का अनुसरण उचित है मेरी आज्ञा से उसका पतिव्रत धर्म नष्ट करो इसमें अब दोष न होगा अन्यथा वह दैत्य मारा न जाएगा ।


■-हृषीकेशं जगन्माता धर्मनीतिं सुशिक्षयन् ।। 

पार्वत्युवाच ।।

तेनैव दर्शितः पन्था बुध्यस्व त्वं तथैव हि ।।

तत्स्त्रीपातिव्रतं धर्मं भ्रष्टं कुरु मदाज्ञया ।।

■-नान्यथा स महादैत्यो भवेद्वध्यो रमेश्वर।। (शिवपुराण रुद्र० युद्ध० २२/४९-५०-५१)


जगन्माता पार्वती धर्मनीति सिखाती हुई विष्णु से बोली जो मार्ग दैत्य ने खोल दिये है उसी मार्ग का अनुकरण करो और वृंदा का पतिव्रत धर्म नष्ट करो इसमें कोई दोष नही  तभी यह दैत्यराज का वध होगा भगवन् विष्णु के सहयोग से ही भगवन् शङ्कर जलांधर के वध करने में सफल हुए ।


●-(विशेष- यहाँ प्रथम प्रसङ्ग के कथाओं को स्मरण कर लेना भी आवश्यक है वृंदा ने स्वयं विष्णु को पति रूप में पाने के लिए कामना की थी और उसके लिए घोर तपस्चर्या भी किया था और वृंदा की कामना ही इस हेतु का कारण बना )


माता पार्वती की यह धर्मनीति भी श्रुतिस्मृति से प्रमाणित है 


■--यथा ते तेषु वर्तेरन् । तथा तेषु वर्तेथाः (तैत्तरीय उपनिषद) 

■--यस्मिन्यथा वर्तते यो मनुष्य: स्तस्मिंस्तथा वर्तितव्यं स धर्मः ।

मायाचारो मायया वर्तितव्य; साध्वाचार साधुना प्रत्युदय (महाभारत उद्योग पर्व)


इस श्रुतिस्मृति न्याय से सिद्ध है कि जो जैसा आचरण करता है उनके साथ वैसा ही आचरण न्यायिक है ।  


शैलेन्द्र सिंह

Thursday, 22 February 2024

माता सीता और श्रीरामचन्द्र विवाह शंका समाधान



धर्मद्रोही वामपन्थी पँचमक्कार गैंग माता सीता की आयु पर प्रश्नचिन्ह तो खड़ा करते है परन्तु श्रीरामचन्द्र के आयु बिषय पर मौन हो जाते है इसे ही अर्धकुकूट न्याय कहा जाता है 

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अरण्यकाण्ड का का वह प्रसङ्ग जिस पर प्रश्नचिन्ह खड़ा किया जाता है ।


■●-उषित्वा द्वादश समा इक्ष्वाकूणां निवेशने। भुञ्जाना मानुषान् भोगान् सर्वकामसमृद्धिनी॥ तत्र त्रयोदशे वर्षे राजाऽमन्त्रयत प्रभुः। अभिषेचयितुं रामं समेतो राजमन्त्रिभिः (वा०रा०अरण्यकाण्ड ४७/४-५)

■●-मम भर्ता महातेजा वयसा पञ्चविंशकः॥ 

 अष्टादश हि वर्षाणि मम जन्मनि गण्यते।( वा०रा०अरण्यकाण्ड ४७/१०)

विवाह के पश्चात  बारह वर्षों तक इक्क्षवाकु वंशी महाराज दशरथ के महल में रह कर मैंने अपने पति के साथ सभी मानवोचित भोग भोगे  मैं वहाँ सदा मनोवांच्छित सुख सुविधाओं से सम्पन्न रही हूं ।

वनगमन के समय मेरे महातेजस्वी पति की आयु पच्चीस वर्ष की थी और उस समय मेरा जन्मकाल से लेकर वनगमन काल तक मेरी अवस्था वर्षगड़ना के अनुसार अठारह वर्ष की थी  !


■-- इन प्रसङ्गो से स्पष्ट प्रमाणित होता है कि जनकनन्दिनी का जब विवाह हुआ था तब उनकी आयु मात्र 6 वर्ष रही थी ।

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अब आते है जनकनन्दिनी माता सीता और मर्यादापुरुषोत्तम श्रीरामचन्द्र की विवाह सम्बन्धी विषयो पर ।

★-महर्षि विश्वामित्र सिद्धियां प्राप्त करने हेतु  यज्ञ का सम्पादन कर रहे थे और उस  यज्ञ को असुरों से रक्षण के लिए  महाराज दशरथ के राजमहल में गए और  श्रीरामचन्द्र को अपने साथ ले जाने को उद्धत हुए उस समय श्रीरामचन्द्र की आयु क्या थी यह महाराज दशरथ अपने श्रीमुख से कहते है ।


●- हे महर्षे मेरा यह कमलनयन श्रीरामचन्द्र  अभी पूरे १६ वर्ष का भी नही हुआ मैं इनमें राक्षसों से युद्ध करने की योग्यता भी नही देखता अतः आप मुझे ले चलिए एक बालक को नही 


■●-ऊनषोडशवर्षो मे रामो राजीवलोचनः ।

बालो ह्यकृतविद्यश्च न च वेत्ति बलाबलम् । (वा०रा० १/२०/२ & ७)


यहाँ महाराज दशरथ श्रीरामचन्द्र के आयु पर संकेत मात्र करते है कि श्रीरामचन्द्र अभी किशोरोवस्था तक भी नही पंहुचा है ।

तो प्रश्न उठता है कि श्रीरामचन्द्र की आयु क्या थी जब उनका माता जानकी के साथ जब विवाह हुआ था ।

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माता जानकी युद्धकाण्ड में कहती है कि 


■●--बालां बालेन सम्प्राप्तां भार्यां मां सहचारिणीम्॥(युद्धकाण्ड ३२/ २०


आप बाल्यकाल में ही मुझे पत्नी रूप में प्राप्त किया था तब मेरी भी अवस्था बाल्य रूप ही था ।


अतः जब माता जानकी का मर्यादापुरुषोत्तम श्रीरामचन्द्र के साथ पाणिग्रहण संस्कार हुआ था तब दोनों ही बालक बालिका थे ।

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●-मारीच श्रीरामचन्द्र से रावण के बिषय में कहते है ।


■-- श्रीरामचन्द्र जी जब विश्वामित्र के यज्ञ सिद्धि हेतु उनके यज्ञो की रक्षा हेतु धनुषबाण लिए खड़े थे उस समय श्रीरामचन्द्र के जवानी के लक्षण (चिन्ह) प्रकट नही हुए थे वे शोभाशाली बालक के रूप में दिखाई देते थे उस समय श्रीरामचन्द्र का उदीप्त तेज उस दण्डकारण्य की शोभा बढ़ाते हुए नवोदित बालचंद्र के समान दिख पड़ते थे ।


■●--अजातव्यञ्जनः श्रीमान् बालः श्यामः शुभेक्षणः (अरण्यकाण्ड )

■●-- रामो बालचन्द्र इवोदितः॥ (अरण्यकाण्ड ३८/१४-१५)

■●--बालोऽयमिति राघवम्। (अरण्यकाण्ड  ३८/१८)


यहाँ मारीच स्पष्ट रूप से कह रहे है कि जब दण्डकारण्य में श्रीरामचन्द्र विश्वामित्र के कार्यसिद्धि हेतु धनुषबाण लिए खड़े थे तब उनकी अवस्था नवोदितबालचन्द्र के सामान था ।

ठीक इसी अध्य्याय के श्लोक संख्या ६ में तो श्रीरामचन्द्र जी के स्पष्टरूप से  आयु का ही व्याखान किया है 


■●--ऊनद्वादशवर्षोऽयमकृतास्त्रश्च राघवः॥ (अरण्यकाण्ड ३८/६)


मारीच :-- रघुकुलनंदन श्रीराम की आयु अभी बारह वर्ष से भी कम है 


अब यहाँ यह तो यह सिद्ध हो गया कि जब जनकनन्दिनी जानकी के साथ श्रीरामचन्द्र के साथ पाणिग्रहण संस्कार हुआ था तब श्रीरामचन्द्र की  आयु १२ वर्ष से भी कम था ।


इस बिषय की सिद्धि अरण्यकाण्ड के उस प्रसङ्ग से भी प्रमाणित हो जाता है जहाँ माता जानकी कहती है विवाह के पश्चात १२ वर्षो तक महाराज दसरथ के महल में समस्त मानवोचित भोग भोगे और तेरहवे वर्ष में महाराज दशरथ ने श्रीरामचन्द्र का राज्यभिषेख करने का निर्णय लिया  यहाँ १२+१३ का योग करें तो २५ वर्ष का योग निकलता है जब श्रीरामचन्द्र का दण्डकारण्य मिला था ।


और माता सीता भी ठीक यही बात कह रही है कि 


■●-मम भर्ता महातेजा वयसा पञ्चविंशकः(अरण्यकाण्ड ४७/१०)


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■--विशेष

उषित्वा द्वादश समा इक्ष्वाकूणां निवेशने 

 भुञ्जाना मानुषान् भोगान् सर्वकामसमृद्धिनी(अरण्यकाण्ड४७/४-५)


अरण्यकाण्ड के इस श्लोक को लेकर वामपंथियों के पेट मे।सबसे ज्यादा दर्द उठता है अस्तु उनके कुमातो का खण्डन 


■●--बालां बालेन सम्प्राप्तां भार्यां (युद्धकाण्ड)


■●--अजातव्यञ्जनः श्रीमान् बालः श्यामः शुभेक्षणः (अरण्यकाण्ड)


■●--बालोऽयमिति राघवम्। (अरण्यकाण्ड  )


श्लोक से हो जाता है   बालक ,बालिकाओं में कामदेव की जागृति किशोरोवस्था के पश्चात ही होता है ।

अस्तु बालक बालिकाओं में काम वासना ढूढ़ना मूर्खता नही तो और क्या है ?  बिचार करे ।


#भुञ्जाना_मानुषान्_भोगान्_सर्वकामसमृद्धिनी  


से वही अर्थ ग्राह्य है जो समयानुकूल हो एक बालक ,बालिका को बाल्यकाल में क्या चाहिए ?? 

 बालक बालिका खिलौने गुड्डे गुड़िया ,पाकर ही स्वयं को धन्य समझने लगते है इस लिए तो यहाँ माता जानकी कहती है


 #भुञ्जाना_मानुषान्_भोगान्_सर्वकामसमृद्धिनी 


लेकिन वामपंथियों को क्या कहे नाम ही है वाम ,पन्थ अर्थात उल्टे रास्ते चलने वाला तो यहाँ भी वामपन्थी उल्टा अर्थ ही ग्रहण करता है 


एक बालक बालिका में सख्य सखा भाव का सम्बंध होता है काम पिपासा का नही जहाँ काम का वेग ही नही वहाँ काम का बिकार उतपन्न कैसे हो ??

उसका भी तो हेतु चाहिए न कि केवल मात्र दोषारोपण से ही बिषयों की सिद्धि हो जाय ??

यदि दोषारोपण मात्र से ही बिषयों की सिद्धि हो जाय तब तो न्यायिक व्यवस्था में ही दोष उतपन्न हो जाय जिसका परिहार सम्भव ही नही ।


इस लिए श्रुतिस्मृति का घोषवाक्य है ।


■●-आचार्यवान् पुरुषो  वेद । (छान्दोग्य उपनिषद)


■●--तद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत् समित्पाणि: श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम्  (मुंडकोपनिषद् ) 

■●-तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः (गीता)


वामपंथियों द्वारा उठाये गए प्रश्नों से विचलित न हो परम्पराप्राप्त आचार्यो के सानिध्य ग्रहण करें ।


उल्टे राह चलने वाले वामपन्थी आप को उल्टा मार्ग ही बतलायेंगे ।

आचार्यो के सानिध्य न प्राप्त होना एवं स्वाध्यायआदि अल्पता के कारण लोगो मे तद्वत बिषयों को लेकर भ्रम उतपन्न होना स्वाभाविक है ।


शैलेन्द्र सिंह

Monday, 12 February 2024

गौतम बुद्ध के गृहत्याग का सच भाग --२

 


सिद्धार्थ गौतम (बुद्ध ) के बिषय में गृहत्याग की जो कथाएं प्रचलित है वह बौद्ध भिक्षु अश्वघोष कृत बुद्ध चरित्र से है अश्वघोष प्रथम शताब्दी के अंत एवं द्वितीय शताब्दी के आरंभ में हुए थे ऐसा माना जाता है 


 अश्वघोष ने अपनी  बुद्ध चरित्र की  रचना महर्षि वाल्मीकि कृत रामायण ,का अनुकरण कर किया रामोपख्यान का  इंडोनेशिया ,थाईलैंड,मोरिशश ,म्यंमार,सहित समस्त एशियाई देशों में गहरा प्रभाव रहा है भारत मे तो श्रीराम भारतीयों के रोम रोम में बसते है जिस कारण अश्वघोष भी इससे अछूता न रहा ,

इसी प्रभाव के कारण ही अश्वघोष ने बुद्ध चरित्र में , रामोपाख्यान  का  अनुकरण किया ताकि भविष्य में बुद्ध की भी प्रसिद्धि श्रीरामचन्द्र की भांति ख्यापित किया जा सके  सिद्धार्थ गौतम को श्रीरामचन्द्र की भांति ख्यापित करने के पीछे अश्वघोष की उत्कट अभिलाषा ही सिद्धार्थ गौतम के मूल इतिहास को मिटा डाला और एक काल्पनिक गाथा रच डाला जो कालक्रम के प्रवाह में सत्य की भांति ख्यापित भी हुआ ।

बुद्ध के गृहत्याग बिषय पर मैं सदा से संसयशील रहा हूँ हो सकता है आप सब मेरे बिचारो से सहमत न हो परन्तु तद्गत बिषयों को लेकर मन्थन अवश्य किया जा सकता है ।


सिद्धार्थ गौतम के गृहत्याग के बिषय में जो कथाएं प्रचलित है मुझे वे निराधार लगते है ।

जरा जन्म मरण जैसे बिषयों के लेकर द्रवित हो गृह का त्याग कर तपस्या के लिए चल पड़े और निर्वाण को प्राप्त हुए ।

सिद्धार्थ गौतम के जीवनी पर लिखी गयी सबसे प्राचिन पुस्तक बुद्ध चरित्र है जो लगभग प्रथम शताब्दी में बौद्ध भिक्षु  अश्वघोष द्वारा रची गयी थी। 


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अश्वघोष कृत बुद्ध चरित्र में आये हुए प्रसङ्ग विचारणीय है 


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■-प्रसङ्ग संख्या ●--१


■--वयश्च कौमारमतीत्य मध्यं सम्प्राप्य बालः स हि राजसूनुः । अल्पैरहोभिर्बहुवर्षगम्या जग्राह विद्याः स्वकुलानुरूपाः ॥( २।२४)


■--नाध्यैष्ट दुःखाय परस्य विद्यां ज्ञानं शिवं यत्तु तदध्यगीष्ट । स्वाभ्यः प्रजाभ्यो हि यथा तथैव सर्वप्रजाभ्यः शिवमाशशंसे ॥ (२।३५)


■--आर्षाण्यचारीत्परमव्रतानि (२/४३)


सिद्धार्थ गैतम ने सास्त्रनुकूल समय पर उपनयन संस्कार से संकरित हो अपने कुल परम्परा के अनुरूप विद्या आदि का अध्यय किया था एवं ऋषियों सम्बंधित समस्त व्रत और तपो का भी पालन किया था कुशाग्र बुद्धि होने के कारण अल्पकाल में ही समस्त विद्याओं का अध्ययन पूर्ण कर चुका था ।

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■-प्रसङ्ग संख्या ●--२


अश्वघोष कृत बुद्ध चरित्र के  तृतीय सर्ग   श्लोक संख्या २८ से लेकर श्लोक संख्या ६० तक महत्वपूर्ण है  जहाँ किस हेतु से सिद्धार्थ गौतम ने गृहत्याग किया था ।


■●--सिद्धार्थ गौतम ने  बृद्ध ,रोग से ग्रसित रोगी ,एवं मृत ब्यक्ति को देख ब्याकुल हो उठा और गृह त्याग कर वन की ओर चल पड़ा ।

गौतम बुद्ध ने जब गृह त्याग किया था उस वक़्त तक उनका विवाह हो चुका था और एक पुत्र लाभ भी हुआ था अतः स्पष्ट है कि उनकी आयु अब लगभग 30 वर्ष की हो चली होगी ।


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समीक्षा :-- सिद्धार्थ गौतम का समयानुकूल उपनयन संस्कार होना ये दर्शाता है की वे उस कुल में जन्मे थे जो विशुद्ध वैदिक धर्मी थे ,अनादिकाल से आरही वंश परम्परा कुल परम्परा के अनुकूल ही सिद्धार्थ गौतम का संस्कार एवं अध्ययनादि हुआ था बड़े ही अल्पकाल में सिद्धार्थ गौतम अध्ययनादि को पूर्ण कर लिया था अश्वघोष ने द्वितीय सर्ग के  श्लोक संख्या २४ में  #अल्पैरहोभिर्बहुवर्षगम्याजग्राह विद्याः स्वकुलानुरूपाः

लिख कर स्पष्ट किया है साथ ही साथ द्वितीय सर्ग के श्लोक संख्या ४३ में पुनः इसकी पुष्टि की है ।

अब आगे आते है 

आत्म तत्व ,जन्म मृत्यु  ,जड़ चेतन आदि  बिषय को लेकर जितना बिषद उल्लेख वैदिक धर्म मे हुआ उतना उल्लेख विश्व के किसी भी साहित्य में नही है । अतः ऐसा सम्भव ही नही की सिद्धार्थ गौतम के अध्ययन काल मे इन जैसे प्रश्नों अथवा बिषयों का उल्लेख न हुआ हो अथवा उस कालखण्ड में किस बृद्ध अथवा रोगी अथवा मृत ब्यक्ति को न देखा हो ।

 श्रुतिस्मृति इतिहासपुराणादि षड्दर्शन जैसे समुच्चय ग्रन्थ आत्मतत्व का विवेचन करता है श्रुतियों में नचिकेता जैसा बालक भी यमराज से मृत्यु का रहस्य पूछता है मृत्यु के नाम से द्रवित नही होता तो पुराण जैसे अयाख्यानों में प्रह्लाद जैसा दृढ़भक्त बालक भी मृत्यु के नाम से विचलित न हो होलिका के  गोद मे बैठ जाता है अतः जिन बिषयों को लेकर बाल्यकाल में अध्ययन के समय होना चाहिए था वही संशय  युवास्था में होना और उससे द्रवित होकर गृहत्याग करना हास्यस्पद लगता है ।


शैलेन्द्र सिंह

Friday, 12 January 2024

■--मंदिर प्रसाद एक शास्त्रीय दृष्टिकोण

 ■-- मन्दिर प्रसाद एक शास्त्रीय दृष्टिकोण 



■-शिरस्त्वण्डं निगदितं कलशं मूर्धजं स्मृतं ॥

कण्ठं कण्ठमिति ज्ञेयं स्कन्धं वेदी निगद्येते ।

पायूपस्थे प्रणाले तु त्वक्सुधा परिकीर्तिता ॥

■-मुखं द्वारं भवेदस्य प्रतिमा जीव उच्यते ।

तच्छक्तिं पिण्डिकां विद्धि प्रकृतिं च तदाकृतिं ॥

निश्चलत्वञ्च गर्भोस्या अधिष्ठाता तु केशवः ।

■-एवमेव हरिः साक्षात्प्रासादत्वेन संस्थितः ॥(अग्निपुराण ६१/२३-२६)


मन्दिर का गुम्बज भाग ही देव् विग्रह का सिर है और कलश ही मन्दिर में प्रतिष्ठित देव् विग्रह  के बाल है मन्दिर का कण्ठ ही देव् विग्रह का कण्ठ है ,वेदी ही मंदिर में प्रतिष्ठित देव् विग्रह के स्कंध है नालियां ही देव् विग्रह के पायु और उपस्थ है मन्दिर का चूना ही मन्दिर में प्रतिष्ठित देव् विग्रह का चर्म है मन्दिर का द्वार ही देव् विग्रह का मुख है तथा मन्दिर की प्रतिमा ही मन्दिर प्रसाद का जीव है उसकी पिण्डिका ही शक्ति समझो तथा मन्दिर की आकृति ही मन्दिर की प्रकृति है निश्चलता ही उसका गर्भ होता है और उसके अधिष्ठाता भगवान केशव है इस तरह से भगवान श्रीहरि: स्वयं मन्दिर के रूप में स्थित होते है ।


शैलेन्द्र सिंह