Friday, 31 May 2024

- भगवन् विष्णु और वृंदा कथा भ्रमोच्छेदन ।।



■--पुराणे ही कथा दिव्या (महाभारत आदिपर्व ५/१)


पुराणों की कथाएं दिव्य है अतः परम्पराप्राप्त आचार्यो  की सानिध्यता न प्राप्त होने   के कारण पुराणादि में आये हुए दिव्य कथाओं  को लेकर भ्रम उतपन्न होना स्वाभाविक है क्यो की पुराणों की जो दिव्यता है वह सर्वसाधारण नही जिस कारण अल्पज्ञ अल्पश्रुत भ्रान्तवादियो का मत इन दिव्य कथाओं को लेकर भ्रमित रहता है क्यो की 

■--अक्षरग्रहणादि परम्परोपजायमान वाक्यार्थज्ञानार्थमध्ययनं विधीयते

ततस्तस्य विचारमन्तरेणाSसम्भवाध्ययनविधिनैवाSर्थाद्विचारो विहित इति गुरुगृह एवावस्थाय विचारयितव्यों धर्म: इस न्याय से गुरुमोखोच्चारणानुच्चारण सानिध्यता न प्राप्त होना ही कारण है ।


अब आते है विष्णु वृंदा कथा प्रसङ्ग पर 

इस प्रसङ्ग के दो भेद है 

■--प्रथम स्वयं वृंदा ने श्रीकृष्ण को पति के रूप में प्राप्त करने के लिए तप किया था जिसका फल उन्हें मिला 

■--द्वितीय :-- शङ्खचुड़ के आतंक से त्रस्त हो कर एवं माता पार्वती के पतिव्रत धर्म को नष्ट करने के कारण अवध्य शङ्खचुड़ (जलन्धर) का वध हुआ 

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प्रथम प्रसङ्ग :-- 


वृंदा कौन ? थी यह जानना भी अत्यंत आवश्यक है जितना कि आवश्यक यह बिषय 

वृंदा पूर्वजन्म में तुलसी नामक गोपिका थी जो स्वयं श्रीकृष्ण की अनुचरी उनकी अंशस्वरूपा थी 

अहं तु तुलसी गोपी गोलोकेऽहं स्थिता पुरा ॥ 

■-कृष्णप्रिया किंकरी च तदंशा तत्सखी प्रिया ।(श्रीमद् देवी भागवतम् ९/१७)

श्रीकृष्ण की अंशस्वरूवा होने के कारण वृंदा का श्रीकृष्ण के प्रति  विशेष अनुराग उतपन्न होना स्वभाविक था इस लिए वृंदा मन ही मन श्रीकृष्ण को पतिरूप में पाने की इच्छा करती थी और  श्रीकृष्ण को पतिरूप में पाने की इच्छा से कठिन तप भी किया था 


■-सर्वैर्निषिद्धा तपसे जगाम बदरीवनम् ।

तत्र देवाब्दलक्षं च चकार परमं तपः ॥ 

मनसा नारायणः स्वामी भवितेति च निश्चिता ।(श्रीमद् देवी भागवतम् ९/१७/१३-१४-१५)


वृंदा की यह मनोदशा को देख कर रास की अधिष्ठात्री देवी राधिका ने तुलसी (वृंदा) को शाप देती है कि तू मानव योनि को प्राप्त हो उसके पश्चात  श्रीकृष्ण ने तुलसी(वृंदा ) से कहा की हे तुलसी (वृंदा) तू भारतवर्ष में जन्म लेकर घोर तपस्या करके ब्रह्मा जी के वरदान से मेरे अंशस्वरूप चतुर्भुज विष्णु को पतिरूप में प्राप्त करोगी ।

तुलसी(वृंदा) दूसरे जन्म में घोर तप के बल से ब्रह्मा को प्रसन्न करता है

और उनसे वर मांगता है ।

■--अहं नारायणं कान्तं शान्तं सुन्दरविग्रहम् ॥ 

साम्प्रतं तं पतिं लब्धुं वरये त्वं च देहि मे (श्रीमद् देवी भागवतम् ९/१७/२७)


ब्रह्मा जी वृंदा की मनोदशा जान कर  वरदान देता है कि इस जन्म में सुदामा (शङ्ख चुड़) की पत्नी बनोगी और बाद में शांतस्वरूप नारायण को पति रूप में वरण करोगी 


■-अधुना तस्य पत्‍नी त्वं सम्भविष्यसि शोभने ॥ 

पश्चान्नारायणं शान्तं कान्तमेव वरिष्यसि । (देवी भागवतम् ९/१७)


अतः यह दोषारोपण करना ही व्यर्थ है कि विष्णु ने वृंदा के साथ अनाचार किया अस्तु स्वयं वृंदा ही विष्णु को पतिरूप में पाने की इच्छा से घोर तप किया था जिसका फल भी वृंदा को प्राप्त हुआ उस पर भी भगवन् विष्णु अपने मायाशक्ति के बल से ही वृंदा में अपने तेज का आधान किया था यहाँ माया शब्द से पाञ्चभौतिक स्थूल शरीर का कल्पना करना ही व्यर्थ है ।


■-गत्वा तस्यां मायया च वीर्याधानं चकार ह (श्रीमद् देवी भागवतम् ९/२३/१२)


श्रीहरि: के श्रीमुख से निकल हुआ यह वचन से यह प्रमाणित हो जाता है कि जो जो भक्त जिस जिस स्वरूप में भगवन् का चिन्तन करते है भगवन् उस उस रूप में उसको प्राप्त होता है 


ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्। (गीता)


अतः वृंदा ने जिस रूप में भगवन् का स्मरण कर तपस्या की थी वह फलीभूत हुई वृंदा का भगवन् विष्णु को पतिरूप में संकल्पना ही शङ्खचुड़ (जलन्धर) के वध का कारण बना ।


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दूसरा प्रसङ्ग :--


दैत्यराज शङ्खचुड़ देवताओं के साथ जो अन्याय किया उसका बखान दैत्यराज शङ्खचुड़ (जलन्धर)स्वयं अपने ही मुख से कहता है ।


■-अहमेव शङ्‌खचूडो देवविद्रावकारकः (श्रीमद्देवी भागवतम् ९/१८/६८)


★-देवताओं को संत्रस्त करनेवाला मैं ही शङ्खचुड़ हूँ । 


शङ्खचुड़ ने केवल देवताओं को संतप्त ही नही किया अपितु उनके अधिकार छीन कर उन्हें उनके राज्य से निष्कासित कर दर दर भिक्षुओं की भांति ठोकरे खाने के लिए मजबूर किया 


■-देवानामसुराणां च दानवानां च सन्ततम् ॥ 

गन्धर्वाणां किन्नराणां राक्षसानां च शान्तिदः ।

हृताधिकारा देवाश्च चरन्ति भिक्षुका यथा ॥ 

। (श्रीमद्देवी भागवतम् ९/१९/४४)


■-दैत्यराजेन तेनातिहन्यमानास्समंततः ।।

धैर्यं त्यक्त्वा पलायंत दिशो दश सवासवाः ।।(शिवपुराण रुद्रसंहिता युद्धखण्ड )

दैत्यायुधैः समाविद्धदेहा देवास्सवासवाः ।।

■-रणाद्विदुद्रुवुस्सर्वे भयव्याकुलमानसाः ।।

पलायनपरान्दृष्ट्वा हृषीकेशस्सुरानथ ।। (शिवपुराण रुद्रसंहिता युद्धखण्ड १७/१-२-)


★-इस भयवाह व्यकुलता से संतप्त हो समस्त देवगण कभी ब्रह्मा के सरण में जाते है तो कभी विष्णु के सरण में तो कभी शिव के सरण में ।

■-ते सर्वेऽतिविषण्णाश्च प्रजग्मुर्ब्रह्मणः सभाम् । (श्रीमद्देवी भागवतम् ९/१९/४४)

वैकुंठं प्रययुस्सर्वे पुरस्कृत्य प्रजापतिम् ।।

■-तुष्टुवुस्ते सुरा नत्वा सप्रजापतयोऽखिलाः ।।(शिवपुराण रुद्र०युद्ध० १६/२)

तस्योद्योगं तथा दृष्ट्वा गीर्वाणास्ते सवासवाः ।।

■-अलक्षितास्तदा जग्मुः कैलासं शंकरालयम् ।। (शिवपुराण रुद्र०युद्ध० २०/१४)


देवताओं के इस दीनता को को देख भगवन् शिव अपना दूत पुष्पदन्त को शङ्खचुड़ के पास भेजता है और विनम्रता से देवताओं के राज्य एवं उनका अधिकार वापस करने के लिए कहता है 


■-राज्यं देहि च देवानामधिकारं च साम्प्रतम् ॥ (श्रीमद्देवी भागवतम् ९/२०/२४ ॥)

★-भगवन् शङ्कर के दूत पुष्पदन्त ने शङ्खचुड़ से कहा कि 

देवताओं के राज्य तथा अधिकार उन्हें लौटा दो ।


■-देहि राज्यं च देवानां मत्प्रीतिं रक्ष भूमिप ।

सुखं स्वराज्ये त्वं तिष्ठ देवास्तिष्ठन्तु वै पदे ॥ 

॥(श्रीमद्देवी भागवतम् ९/२१/- ४२ )


हे राजन तुम देवताओं के राज्य वापस कर दो और मेरी प्रीति की रक्षा करो तुम अपने राज्य में सुख पूर्वक रहो और देवता अपने स्थान पर रहे प्राणियों में परस्पर विरोध नही होना चाहिए ।

यहाँ भगवन् शिव की विनम्रता।तो देखिए कि भगवन् शिव शङ्खचुड़ को उसके दुष्कृत्यो को सहन कर दैत्यराज के सामने विनम्र प्रार्थना कर रहे है कि देवताओं के राज्य एवं उनके अधिकार को वापस कर दो  परन्तु दैत्यराज तो दैत्यराज है अपने अहंकार मद में चूर कहाँ किसी की सुनने वाले दैत्यराज के मना करने पर भगवन् शिव और दैत्यराज शङ्खचुड़ के साथ घोर संग्राम हुआ जहाँ शङ्खचुड़ अजेय रहे उनके अजेय रहने का मुख्य कारण वृंदा का पतिव्रतधर्म का प्रभाव ही रहा जिस कारण वह अजेय बना रहा । और उसी रक्षा आवरण के बल पर देवताओं को संतप्त करता रहा ।


●- पतिव्रत धर्म के बिषय में 

माता पार्वती कहती है कि पतिव्रत धर्म से बढ़कर दूसरा कोई धर्म नही 


■-पातिव्रतसमो नान्यो धर्मोऽस्ति पृथिवीतले  (शिवमहापुराण रुद्र०युद्ध० २२/५२)


इसी पतिव्रत धर्म के प्रभाव के कारण माता सीता रावण को भस्मीभूत करने के लिए सावधान करता है इसी पतिव्रता धर्म के बल पर माता सीता के कहने पर अग्नि अपने उग्र प्रभाव को न दिखा कर  हनुमान को शीतलता का अनुभव करता है ।


यहाँ तक तो सब ठीक था दैत्यराज द्वारा देवताओं के अधिकार छीन लेने के पश्चात भी  कल्याणकारी शङ्कर शांतचित्त रह शंखचूड़ को देवताओं के अधिकार वापस करने के लिए विनम्रता भी करता है 

परन्तु जब शङ्खचुड़ ने माता पार्वती पर कुदृष्टि डाली और उनका पतिव्रत धर्म नष्ट करने को उद्धत हुआ तब शङ्कर प्रलयंकर बन कर उभरा और विष्णु की सहायता से शङ्खचुड़ का वध किया यदि भगवन् विष्णु ने इस मार्ग को न अपनाता तो न जाने कितने ही स्त्रियों पर अपनी कुदृष्टिडाल उनका पतिव्रत धर्म नष्ट किया होता ।


जलांधर भगवती का रूपस्मरण कर काम ज्वर से पीड़ित हो मोहित हुआ 


■-तद्रूपश्रवणादासीदनंगज्वरपीडितः ।।(शिवपुराण रुद्रसंहिता युद्धखण्ड १९/२)

 

शङ्खचुड़ ने  अपने दूत से कहा कि कैलाशपर्वत पर जाओ और शङ्कर से कहो ।

इस भुवन के भूपति स्वामी जब विद्यमान है तो तुम्हे स्त्रिरत्न जाया को हमे दे दो क्यो की रत्नभोगी हम है त्रिलोकी में जितने रत्न है वह सब मेरे यहाँ विद्यमान है चर अचर सब जगत् को तुम मेरे अधीन जानो 

इस लिए हे जटाधारी तुम अपनी स्त्री रत्न को मेरे निमित प्रदान करो ।


■-मन्नाथे भुवने योगिन्नोचिता गतिरीदृशी ।।

जायारत्नमतस्त्वं मे देहि रत्नभुजे निजम् ।।

यानियानि सुरत्नानि त्रैलोक्ये तानि संति मे ।।

मदधीनं जगत्सर्वं विद्धि त्वं सचराचरम् ।। (शिवपुराण रुद्रसंहिता युद्धखण्ड १९/९-१०)

■-एवं योगीन्द्र रत्नानि सर्वाणि विलसंति मे ।।(शिवपुराण रुद्रसंहिता युद्धखण्ड १९/१५)


जलन्धर कामवेग से तप्त हो कर वह अपनी मायाशक्ति के बल से दशभुजा तीन नेत्र जटाधारी रूप धारण कर महाबृषभ पर चढ़ कर साक्षात् रुद्र रूप में माता पार्वती के समक्ष उपस्थित हुआ ।


■-कामतस्स जगामाशु यत्र गौरी स्थिताऽभवत्।। ३७

दशदोर्दण्डपंचास्यस्त्रिनेत्रश्च जटाधरः ।।३८।।

महावृषभमारूढस्सर्वथा रुद्रसंनिभः ।।

■-आसुर्य्या मायया व्यास स बभूव जलंधरः । (शिवपुराण रुद्रसंहिता युद्धखण्ड २२/३७-३८-३९)


माता पार्वती को जब जलन्धर के इस दुष्कृत्यों का बोध हुआ तो वे भगवन् विष्णु को मन से स्मरण किया और विष्णु को अपने समीप पाया भगवन् विष्णु माता पार्वती से कहते है कि हे माते मुझे आप की कृपा से जलांधर का दुष्कृत्य का बोध हुआ आप आज्ञा दे मुझे क्या करना है 

 माता पार्वती कहती है  जलांधर ने मेरा पतिधर्म नष्ट करने का दुष्कृत्य किया है जलन्धर ने जिस मार्ग को खोल दिया है उसी का अनुसरण उचित है मेरी आज्ञा से उसका पतिव्रत धर्म नष्ट करो इसमें अब दोष न होगा अन्यथा वह दैत्य मारा न जाएगा ।


■-हृषीकेशं जगन्माता धर्मनीतिं सुशिक्षयन् ।। 

पार्वत्युवाच ।।

तेनैव दर्शितः पन्था बुध्यस्व त्वं तथैव हि ।।

तत्स्त्रीपातिव्रतं धर्मं भ्रष्टं कुरु मदाज्ञया ।।

■-नान्यथा स महादैत्यो भवेद्वध्यो रमेश्वर।। (शिवपुराण रुद्र० युद्ध० २२/४९-५०-५१)


जगन्माता पार्वती धर्मनीति सिखाती हुई विष्णु से बोली जो मार्ग दैत्य ने खोल दिये है उसी मार्ग का अनुकरण करो और वृंदा का पतिव्रत धर्म नष्ट करो इसमें कोई दोष नही  तभी यह दैत्यराज का वध होगा भगवन् विष्णु के सहयोग से ही भगवन् शङ्कर जलांधर के वध करने में सफल हुए ।


●-(विशेष- यहाँ प्रथम प्रसङ्ग के कथाओं को स्मरण कर लेना भी आवश्यक है वृंदा ने स्वयं विष्णु को पति रूप में पाने के लिए कामना की थी और उसके लिए घोर तपस्चर्या भी किया था और वृंदा की कामना ही इस हेतु का कारण बना )


माता पार्वती की यह धर्मनीति भी श्रुतिस्मृति से प्रमाणित है 


■--यथा ते तेषु वर्तेरन् । तथा तेषु वर्तेथाः (तैत्तरीय उपनिषद) 

■--यस्मिन्यथा वर्तते यो मनुष्य: स्तस्मिंस्तथा वर्तितव्यं स धर्मः ।

मायाचारो मायया वर्तितव्य; साध्वाचार साधुना प्रत्युदय (महाभारत उद्योग पर्व)


इस श्रुतिस्मृति न्याय से सिद्ध है कि जो जैसा आचरण करता है उनके साथ वैसा ही आचरण न्यायिक है ।  


शैलेन्द्र सिंह

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