■--पुराणे ही कथा दिव्य (महाभारत आदिपर्व 5/1)
■-सुदुर्लभा कथा प्रोक्ता पुराणेषु (ब्रह्मवैवर्तपुराण)
■-आख्यानं पुराणेषु सुगोप्यक्म् (ब्रह्मवैवर्तपुराण)
पुराणों की कथाएँ दिव्य हैं, जिनके कारण पुराणादि में आए दिव्य दिव्य पुराणों में ब्रह्माण्ड उत्पन्न होना स्वाभाविक है। मासूम रहता है क्यों की
■--अक्षरग्रहादि परमोपजायमान वाक्यार्थज्ञानार्थमध्ययानं विधीयते
तत्सस्य विचारमन्तरेणासम्भवाध्यायन विधिनैवासार्थाद्विचारो विहित इति गुरुगृह एवस्थाय विचारयितव्यों धर्म: इस न्याय से गुरुमोखोच्चारणानुच्चारण सानिध्यता न प्राप्त होना ही मूल कारण है।
विष्णु वृन्दा.कथा की दिव्यता भी इसी प्रकार की है।
वृंदा माता लक्ष्मी स्वरूपा हैं तो शङ्खचूड़ भगवान विष्णु का, अंशांशी होने के कारण उनकी भेद दृष्टि ही मूर्खता का द्योतक है।
■--अंशांशिनोर्न भेदश्च ब्राह्मणवाह्निस्फुलिङ्गवत (ब्रह्मवैवर्त ब्रह्मखंड 17/37)
●--श्रीभगवानुवाच ।।
■- लक्ष्मी त्वं कल्याण गच्छ धर्मध्वजगृहं शुभे।।
अयोनिसम्भवा भूमौ तस्य कन्या भविष्यसि।।
■-तत्रैव दैवदोषेन वृक्षत्वं च लभिष्यसि।।
मदनस्यासुरस्यैव शङ्खचूडस्य कामिनी।। (प्रकृतिखंड 6/45-46)
हे शुभुर्ति लक्ष्मी तुम पृथ्वी पर धारण करो धर्मध्वज के घर अपने अंश से अयोनिज कन्या हो कर प्रकट हो जाओ वहां मेरे अंश से उत्पन्न होने वाले शंखचूड़ की पत्नी उदय दैववश तुलसी वृक्ष का रूप धारण करोगी।
●-यही स्वयं वृंदा (तुलसी बात) श्रीमद्देवीभागवत पुराण और ब्रह्मवैवर्त पुराण में भी बताई गई है।
■--अहं च तुलसी गोपी गोलोकेऽहं स्थित पुरा।।
कृष्णप्रिया किङकारी च तदंशा तत्सखी प्रिया।।
■--सुदामा नाम गोपश्च श्रीकृष्णाङ्गसमुद्भवः।।
तदंशश्चातितेजस्वी चल्भज्जन्म भारते।।
संप्राप्तं राधाशापद्दनुवंशसमुद्भवः।।
शङ्खचूड़ इति तख्यस्त्रैलाक्ये न च तत्परः।।
(प्रकृतिखंड 16/24 एवं 30-31 श्रीमद्भागवत पुराण 9/17)
जिस कथा प्रसंग में व्याभिचार का गंध तक नहीं, उसी कथा के बिषय में भ्रांतवादी, वामपंथी, समाजी अपनी कुबुद्धि से भगवान विष्णु पर दोषारोपण करते हैं।
स्वयं अपनी पत्नी में ही रमाना किस दृष्टि से व्यभिचार हुआ ??
इसके लिए तो भगवान कहते हैं।
■--जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं (गीता)
भगवान के दिव्य कर्मों को सर्वसाधारण लोगों के समझ से परे है।
इसके लिए तो शास्त्र बार बार की घोषणा की गई है
■-तद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत् समित्पणिः श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम्। (मुंडकोपनिषद्)
■-आचार्यवान् पुरुषो वेदः(छान्दोग्य उपनिषद)
शैलेन्द्र सिंह
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