Sunday, 22 December 2024

राम ने बाली को धोखे से मारा :--

 


इस प्रकार के राग अलापने वाले कम्युनिष्ट वामपन्थी बिचारधारा से ग्रसित लोगो का एक ही लक्ष्य होता है ब्यभिचारी पुरुष एवं अपराधियो का पालनपोषण कर उसे पुष्ट बनाना JNU आज इसका जीत जागता उदाहरण है ।

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त्रेतायुग में श्रीरामचन्द्र के समकालीन प्रत्यक्षघटना के जो साक्षी बने वे वे मर्यादापुरुषोत्तम श्रीरामचन्द्र के बिषय में क्या कहते है  वह विचारणीय तथ्य है ।


●-महाराज दशरथ ---

■-अनुजातो हि मां सर्वैर्गुणैः श्रेष्ठो ममात्मजः (वा ०रा०बालकाण्ड)

■-तं चन्द्रमिव पुष्येण युक्तं धर्मभृतां वरम्।(वा०रा०बालकाण्ड )


●- अयोध्या जनपद के प्रजागण 


■-गुणान् गुणवतो देव देवकल्पस्य धीमतः।

धर्मज्ञः सत्यसंधश्च शीलवाननसूयकः।

क्षान्तः सान्त्वयिता श्लक्ष्णः कृतज्ञो विजितेन्द्रियः॥ 

मृदुश्च स्थिरचित्तश्च सदा भव्योऽनसूयकः।

प्रियवादी च भूतानां सत्यवादी च राघवः॥ (वा०रा०बालकाण्ड)


●-मायावी मारीच 


■-रामो विग्रहवान् धर्मः (वा० रा०अरण्यकाण्ड) 


●-माता जनकननन्दिनी 

■-मर्यादानां च लोकस्य कर्ता (३५/११)


■-धर्मात्मा भुवि विश्रुतः।     कुलीनो नयशास्त्रवित् (वा०रा०युद्धकाण्ड)


●- राक्षसराज रावण 

■--तं मन्ये राघवं वीरं नारायणमनामयम्॥(युद्धकाण्ड ७२/११)

●मंदोदरी 

रामो न मानुषः (युद्धकाण्ड १११/१६)


★स्वयं बाली श्रीरामचन्द्र के बिषय में क्या कहते है यह और भी महत्वपूर्ण है


■--रामः करुणवेदी च प्रजानां च हिते रतः(किष्किंधा काण्ड १७/१७)

■--क्षत्रियकुले जातः श्रुतवान् (किष्किंधा काण्ड १७/२७)

■-त्वं राघवकुले जातो धर्मवानिति विश्रुतः।(किष्किंधा काण्ड १७/२८)

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एक न्यायप्रिय राजा वही है जो देशकाल अनुरूप वेद विद्या में निष्णात, न्यायविद्या  धर्माधर्मानुरूप प्राणियों पर अनुग्रह निग्रह करता है ऐसा श्रुतिस्मृति से सिद्ध है 


■-सोऽरज्यत ततो राजन्योऽजायत (अथर्ववेद १५/८/१)


■-दमः शमः क्षमा धर्मो धृतिः सत्यं पराक्रमः। पार्थिवानां गुणा राजन् दण्डश्चाप्यपकारिषु॥ (किष्किंधा काण्ड १७/१९)


■-तं देशकालौ शक्तिं च विद्यां चावेक्ष्य तत्त्वतः ।

यथार्हतः संप्रणयेन्नरेष्वन्यायवर्तिषु । ।(मनुस्मृति ७/१६)

समीक्ष्य स धृतः सम्यक्सर्वा रञ्जयति प्रजाः ।(मनुस्मृति७/१९)


■-आन्वीक्षिकीं त्रयीं वार्त्तां दण्डनीतिं च पार्थिवः ।

तद्विद्यैस्तत्‌क्रियोपैतैश्चिन्तयेद्विनयान्वितः 

■-आन्वीक्षिक्यार्थविज्ञानं धर्म्माधर्मौ त्रयीस्थितौ ।

अर्थानर्थौ तु वार्त्तायां दण्डनीत्यां नयानयौ ।।(अग्निपुराण २३८./८-९ )


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त्रेतायुग श्रीरामचन्द्र के समकालीनआचार्यगण,भूपति,प्रजागण असुरगण वानरादि प्रत्यक्षदर्शियों द्वारा यह  सिद्ध होता है कि  श्रीरामचन्द्र  साक्षात धर्म स्वरूप, नीतिवान ,वेद विशारद, सर्वगुणसम्पन्न, देवताओ की भांति बुद्धि रखने वाला, धर्मात्मा न्यायशास्त्र का ज्ञाता गुणदोषानुरूप अनुग्रगन निग्रह करनेवाला समस्त प्रजाओ के हित करने वाला दयावान  स्वयं नारायण स्वरूप है 

इसके विपरीत 

अल्पज्ञ अल्पश्रुत भ्रान्तवादी वामपंथिय तथाकथित हिन्दू जो उस घटना के प्रत्यक्षदर्शी नही थे / है , वे आज तद्वत बिषयों को लेकर मर्यादापुरुषोत्तम श्रीरामचन्द्र पर दोषारोपण कर रहे है ।

की बाली को धोखे से मारा ।।

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अस्तु मर्यादापुरुषोत्तम श्रीरामचन्द्र के शाशनकाल में बाली दुराचारी ब्यभिचारी  अपराधी  पुरुष था ,  भगवान राम को बाली के पाप का दण्ड देना था उससे युद्ध करना नही बाली अपराधी था प्रतिद्वंदी नही दण्ड विधान और युद्ध धर्म दोनों में भेद है छिप कर मारना युद्ध में अधर्म है पर दण्ड बिधान के लिए नही युद्ध धर्म में तो निशस्त्र को मारना अधर्म है पर दण्ड देते समय इसका कोई मूल्य नही यदि राजा अपने राज्य के अपराधी को बिना अस्त्र दिए मरवा दे तो क्या कहा जायेगा ?

राजा ने धोखे से मरवा दिया ? 

बाली का जो अपराध था वह अति निंदनीय और समाज मे ब्यभिचार उतपन्न करने वाला था इस लिए श्रीरामचन्द्र ने उनको इस अतिनिन्दनीय कर्म  का दण्ड शास्त्रानुकूल ही दिया ।।


विद्वान राजा धर्म से भ्रष्ट हुए पुरुषों को दण्ड देता है और धर्मात्मा पुरुष का धर्मपूर्वक पालन करते हुए कामासक्त स्वेच्छाचारी पुरुषों के निग्रह में तत्पर रहते है ।

धर्म और काम तत्व को जानने वाले दुष्टों पर निग्रह और साधु पुरुषों पर अनुग्रह करने के लिए तत्पर रहते है ।


■-गुरुधर्मव्यतिक्रान्तं प्राज्ञो धर्मेण पालयन्

 भरतः कामयुक्तानां निग्रहे पर्यवस्थितः।। (वा०रा०४/१८/२४)


■-धर्मकामार्थतत्त्वज्ञो निग्रहानुग्रहे रतः॥(वा०रा०४/१८/७)


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श्रीरामचन्द्र के बाणों से बिंध जाने के पश्चात बाली श्रीरामचन्द्र से यह पूछता है कि 

हे राम आप ने यहाँ मेरा वध करके कौन सा गुण प्राप्त किया किस महान यश का उपार्जन किया ? 


■-कोऽत्र प्राप्तस्त्वया गुणः। यदहं युद्धसंरब्धस्त्वत्कृते निधनं गतः॥(किष्किंधा काण्ड १७/१६)


बाली के प्रश्नों को सुनकर मर्यादापुरुषोत्तम बाली के गुणदोषों को दर्शाते हैं ।


■--त्वं तु संक्लिष्टधर्मश्च कर्मणा च विगर्हितः।(वा०रा०४/१८/१२)

तदेतत् कारणं पश्य यदर्थं त्वं मया हतः। भ्रातुर्वर्तसि भार्यायां त्यक्त्वा धर्मं सनातनम्॥

अस्य त्वं धरमाणस्य सुग्रीवस्य महात्मनः। रुमायां वर्तसे कामात् स्नुषायां पापकर्मकृत्॥  तद् व्यतीतस्य ते धर्मात् कामवृत्तस्य वानर। भ्रातृभार्याभिमर्शेऽस्मिन् दण्डोऽयं प्रतिपादितः॥

नहि लोकविरुद्धस्य लोकवृत्तादपेयुषः। दण्डादन्यत्र पश्यामि निग्रहं हरियूथप॥  (वा०रा०४/१८/-१८१९-२०-२१)


बाली तुम्हारा कर्म सदा ही धर्म मे बाधा पहुँचानेवाला रहा तुम्हारे बुरे कर्म के कारण सत्पुरुषों में निन्दा का पात्र हुआ ।

बाली मैंने तुम्हें क्यो मारा इसका कारण सुनो और समझो तुम सनातन धर्म का त्याग करके अपने छोटे भाई की स्त्री से सहवास करते हो इस महामना सुग्रीव के जीते जी इसकी पत्नी रूमा का जो तुम्हारी पुत्रवधु के समान है कामवस उपभोग करते हो इस लिए तुम पापाचारी हो इस तरह तुम धर्मभ्रष्ट हो स्वेच्छाचारी हो गए हो और अपने छोटे भाई की स्त्री को गले लगाते हो तुम्हारे इसी अपराध के कारण तुम्हे दण्ड दिया गया ।जो लोकाचार से भ्रष्ट हो लोकविरुद्ध आचरण करता हो उसे रोकने और रास्ते पर लाने के लिए मैं दण्ड के सिवाय और कोई राह नही देखता ।


■-औरसीं भगिनीं वापि भार्यां वाप्यनुजस्य यः॥ 

 प्रचरेत नरः कामात् तस्य दण्डो वधः स्मृतः (वा०रा०४/१८/२२)


जो पुरुष अपनी कन्या बहन अथवा छोटे भाई के स्त्री के पास काम भावना से जाता है उसका वध करने ही उपयुक्त दण्ड माना गया है ।


●बाली दुराचारी ब्यभिचारी पाप कर्मों में सदा लिप्त  रहता था ऐसा 


बुद्धि के आठो अंगों से अलंकृत हनुमान कहता है कि बाली 

क्रूरकर्मा निर्दयी पापाचारी है 


■-तं क्रूरदर्शनं क्रूरं नेह पश्यामि वालिनम्॥  (कि०काण्ड २/१५)

पापकर्मणः (कि०काण्ड२/१६)

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दण्ड के यथोचित उपयोग प्रयोग से लोक में सत्य की प्रतिष्ठा होती है सत्य की प्रतिष्ठा से धर्म का उत्कर्ष होता है ।

लौकिक और वैदिक मर्यादाओं के संरक्षक तथा वर्णसंकर्ता एवं कर्मसंकर्ता के निरोधक मात्स्यन्यायका अवरोधक उपवीत सुशिक्षित अभिसिक्त अराजको के दमन तथा सज्जनों के संरक्षण में दक्ष विनयी शाशक ही राजा मान्य है ।


शैलेन्द्र सिंह

Tuesday, 17 December 2024

■-वृंदा विष्णु कथाप्रसंग भाग 2



■--पुराणे ही कथा दिव्य (महाभारत आदिपर्व 5/1)

■-सुदुर्लभा कथा प्रोक्ता पुराणेषु (ब्रह्मवैवर्तपुराण)

■-आख्यानं पुराणेषु सुगोप्यक्म् (ब्रह्मवैवर्तपुराण)


पुराणों की कथाएँ दिव्य हैं, जिनके कारण पुराणादि में आए दिव्य दिव्य पुराणों में ब्रह्माण्ड उत्पन्न होना स्वाभाविक है। मासूम रहता है क्यों की 


■--अक्षरग्रहादि परमोपजायमान वाक्यार्थज्ञानार्थमध्ययानं विधीयते


तत्सस्य विचारमन्तरेणासम्भवाध्यायन विधिनैवासार्थाद्विचारो विहित इति गुरुगृह एवस्थाय विचारयितव्यों धर्म: इस न्याय से गुरुमोखोच्चारणानुच्चारण सानिध्यता न प्राप्त होना ही मूल कारण है।

विष्णु वृन्दा.कथा की दिव्यता भी इसी प्रकार की है।


वृंदा माता लक्ष्मी स्वरूपा हैं तो शङ्खचूड़ भगवान विष्णु का, अंशांशी होने के कारण उनकी भेद दृष्टि ही मूर्खता का द्योतक है।


■--अंशांशिनोर्न भेदश्च ब्राह्मणवाह्निस्फुलिङ्गवत (ब्रह्मवैवर्त ब्रह्मखंड 17/37)


●--श्रीभगवानुवाच ।।

■- लक्ष्मी त्वं कल्याण गच्छ धर्मध्वजगृहं शुभे।।

अयोनिसम्भवा भूमौ तस्य कन्या भविष्यसि।। 

■-तत्रैव दैवदोषेन वृक्षत्वं च लभिष्यसि।।

मदनस्यासुरस्यैव शङ्खचूडस्य कामिनी।। (प्रकृतिखंड 6/45-46)

हे शुभुर्ति लक्ष्मी तुम पृथ्वी पर धारण करो धर्मध्वज के घर अपने अंश से अयोनिज कन्या हो कर प्रकट हो जाओ वहां मेरे अंश से उत्पन्न होने वाले शंखचूड़ की पत्नी उदय दैववश तुलसी वृक्ष का रूप धारण करोगी।

●-यही स्वयं वृंदा (तुलसी बात) श्रीमद्देवीभागवत पुराण और ब्रह्मवैवर्त पुराण में भी बताई गई है।

■--अहं च तुलसी गोपी गोलोकेऽहं स्थित पुरा।।

कृष्णप्रिया किङकारी च तदंशा तत्सखी प्रिया।।

■--सुदामा नाम गोपश्च श्रीकृष्णाङ्गसमुद्भवः।।

तदंशश्चातितेजस्वी चल्भज्जन्म भारते।। 

संप्राप्तं राधाशापद्दनुवंशसमुद्भवः।।

शङ्खचूड़ इति तख्यस्त्रैलाक्ये न च तत्परः।।

(प्रकृतिखंड 16/24 एवं 30-31 श्रीमद्भागवत पुराण 9/17)


जिस कथा प्रसंग में व्याभिचार का गंध तक नहीं, उसी कथा के बिषय में भ्रांतवादी, वामपंथी, समाजी अपनी कुबुद्धि से भगवान विष्णु पर दोषारोपण करते हैं।

स्वयं अपनी पत्नी में ही रमाना किस दृष्टि से व्यभिचार हुआ ??


इसके लिए तो भगवान कहते हैं।


■--जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं (गीता)


 भगवान के दिव्य कर्मों को सर्वसाधारण लोगों के समझ से परे है।

इसके लिए तो शास्त्र बार बार की घोषणा की गई है 


■-तद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत् समित्पणिः श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम्। (मुंडकोपनिषद्)  

■-आचार्यवान् पुरुषो वेदः(छान्दोग्य उपनिषद)


शैलेन्द्र सिंह