Tuesday, 14 December 2021

#निरंकारी_मत_भञ्जन

 

#निरंकारी_भक्त :- हम इंसानों को भगवान का रूप मानते हैं और तुम्हें

इंसान के बनाये हुए मूर्ति में।


शैलेन्द्र सिंह :- अगर निरंकारी सत्र माने तो हमें हत्यारा,चोर,डंकु,

व्यवहार वाले मनुष्य को भी

भगवान फेलो दुनिया में ऐसा कोई ब्रह्माण्ड निर्माण कहा गया है

जो 24 नामांकित या एक सप्ताह या एक महीना पूरा वर्ष मिथ्या न

सिद्धांत हो या धार्मिक, सामाजिक रूप से ऐसा कोई कार्य न करता हो जो

धर्म विरोधी न हो ?

यदि मैं पूछता हूँ कि भगवान निर्दयी, चोर, हत्यारा, मिथ्यावादी आदि क्या हैं

आदि भी हो सकता है क्या ??तो आपका उत्तर ऐसा नहीं होगा

भगवान हैं तो सभी पापों से सभी का कल्याण हो सकता है

होता है. तो इससे अच्छा है कि हम श्रीहरि के विग्रह में ही भगवान हैं

कल्पना क्यों न करें विग्रह तो इन सभी दोषों से होता है अनुपयोगी कम से कम

आप इस पाप से तो बच जायेंगे कि चोर,डैंकू, बलात्कारी,ब्याभिचारी में आप

भगवान को न देखें, न देखें तानाशाही को, न देखें तानाशाही के रूप में।

भगवत वचन ही अनादि अक्षय भगवान का वाचक है।

शास्त्रों में भगवान के लक्षण षडैश्वर्य अभिलेख में बताए गए हैं

कलिकाल में असम्भव जान अवस्थित है।

समग्र ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान, और, वैराग्य, इन च: गुणों को धारण करने वाला

भगवत् वचन से वाच्य है अब इस कलिकाल में मनुष्य का क्या अर्थ है

इनसब को समर्थन देने वाला हो सकता है ??

स्वयं निरंकारी प्रमुख हरदेवसिंह भी इन छः को धारण करने वाले

हो क्यों की वे इन रहस्योद्घाटन से एक साधारण मनुष्य और सनातन बन सकते हैं

धर्मविद्रोही तभी रहे तो काल के हाथों म्लेच्छ देश में कार क्रांति में मारा गया।

उसे तो यह पुण्य भूमि भारत भी नियति न हो सका संपूर्ण शास्त्रो में भारत

कोओ देवता का नगरी माना जाता है।

जबकि हरदेश सिंह इस पुण्यभूमि भारत से इतर म्लेच्छ देश में कालकवलित हुए।

क्योंकि उसका कार्य ही धर्मविरुद्ध है उसके लिए यह पाप तो भोगना ही है

पड़ा ।

#ऐश्वर्यस्य_समग्रस्य_धम्मस्य_यशसः_श्रियः।

#ज्ञान_वैराग्ययोश्चैव_शान्नां_भाग_इतिङ्गना।(विष्णु पुराण)

शैलेन्द्र सिंह

Saturday, 11 December 2021

जाति जन्मना अथवा कर्मणा




ब्राह्मणत्वादि जाति जन्म के अनुसार है, गुण के अनुसार नहीं है, यह प्रत्यक्ष सिद्ध है । शास्त्रकारों के अनुसार गोत्व आदि जाति के समान ब्राह्मणत्वादि जाति भी प्रत्यक्षगम्य एवं जन्मगत है ।

 यदि ब्राह्मणत्वादि जाति को जन्मगत नहीं माना जाय तब दृष्टविरोध, शास्त्रविरोध, अन्योs-न्याश्रय, अव्यवस्था एवं एक साथ वृत्तिद्वय-विरोध आदि अनेक दोषों की सम्भावना है ।

ब्राह्मणत्वादि जाति जन्मगत है, यह प्रत्यक्षगम्य होने से उसका अपलाप करने पर दृष्ट-विरोध होगा । "अष्टवर्ष ब्राह्मणमुपनयीत'

आठ वर्ष के ब्राह्मण पुत्र को ब्राह्मण कह कर  उल्लेख किया गया है । यदि जन्मगत जाति न मानी जाय तो इसकी असङ्गति होगी

कारण, आठ वर्ष के बालकों में साधारणतया ब्राह्मणोचित किसी भी गुण की अभिव्यक्ति

नहीं होती है । क्षत्रिय एवं वैश्य के प्रसङ्ग में भी इसी प्रकार उपनयन को अवस्था का

निर्णय किया गया है । यदि जाति को जनम्मगत नहीं माना जाय तो इन शास्त्रवचनों के साथ विरोध होगा । ब्राह्मणत्वादि जाति का आचार से जन्म मानने पर अन्योsन्याश्रयदोष होगा, क्योंकि, जहाँ चारों वर्णों के आचारके विषय में उपदेश दिया गया है, वहाँ ब्राह्मणत्व जाति का परिचय देना शास्त्र का उद्देश्य नहीं था, किन्तु, आचार के

विधान में ही शास्त्र का तात्पर्य है | अतः, जो व्यक्ति ऐसे आचार से सम्पन्न है, वह ब्राह्मण है, इसमें शास्त्र का तात्पर्य नहीं है । क्योंकि धर्म के प्रतिपादन करने में हीशास्त्र का उद्देश्य है । ऐसी स्थिति में वैसा आचार करने पर ब्राह्मण होगा, और

ब्राह्मणत्व पूर्व से सिद्ध रहने पर ही वे आचार अनुष्ठेय होंगे, इस प्रकार वाहमणत्व एवं

आचार दोनों की उत्पत्ति परस्पर सापेक्ष होने से अन्योsन्याश्रय दोष है, क्योंकि,ब्राह्मणत्व आदि पूर्व से सिद्ध न रहे तो उसको उद्देश्य कर किसी आचार का विधान सम्भव ही नहीं है । जाति को जन्मगत न कहकर आचार जन्य मानने पर अव्यवस्था भी होगी, क्योंकि, एक ही व्यक्ति कमी सदाचार करता है एवं कभी दुराचार या कदाचार

करता है, अतः, सदाचार के समय वह ब्राह्मण और दूसरे ही क्षण कदाचार करने के

समय शूद्र होगा । इस प्रकार एकही व्यक्ति में ब्राह्मणत्वादि कभी भी व्यवस्थित नहीं

रहेगा, पुनः पुनः जाति का परिवर्तन होगा । ऐसी स्थिति में वह बराह्मण है या ब्राह्मणेतर

इसका प्रमाण देना संसार में दुर्लभ हो जायगा । फलतः, शास्त्रीय विधि के अनुष्ठान का

लोप हो जायेगा । इस प्रकार युगपत् वृत्तिद्वयका विरोध भी होगा, कारण, एकही व्यक्ति

एकही प्रयत्न से ऐसा काम कर सकता है कि जिसके फल स्वरूप किसी का अनिष्ट और किसी का इष्ट होगा ! इससे युगपत् परपीड़ा और परानुग्रह करने से उनमे शूद्रत्व एवं ब्रह्मणत्व दो विरुद्ध जातियों का एक साथ समावेश होगा । इत्यादि |

पूर्वप्रसङ्ग में जाति की दुर्जानता को लक्ष्य कर "नचेतद् विद्भुः" इत्यादि वाक्य में

उस विषय का अज्ञान कहा गया है । जाति दु्जेय है, कारण, गोत्वादि जाति के प्रत्यक्ष

में जैसे अनेक इतिकर्त व्यता या सहकारी रहते है, वैसे ही ब्राह्मणत्वादि जाति के प्रत्यक्ष

में भी उत्पादन कर्ता की जाति का स्मरण करना इतिकर्तव्यता या सहकारी है ।

उत्पादक कौन है, इसको जननी को छोड़कर कोई भी नहीं कह सकता हैं | स्त्रियों में

दुश्वरित्रा भी रहती हैं । इसलिए, पति ही सभी पुत्रों का जनक है, यह भी नहीं कहा जा

सकता है । क्योंकि, जारज रमणी जार से पुत्र की उत्पत्ति कर सकती है । पिता एवं माता की समान जातीयता ही जाति की विशुद्धि का कारण है, अन्यथा माता अन्य जाति

का और पिता दूसरा जाति का होने पर पुत्र की जाति अश्वतर के समान सङ्कर हो जायेगी। इस प्रकार वर्णसङ्करता जिससे न हो इसी लिए श्रुति कह रही है कि

"अप्रमत्ता रक्षत तन्तुमेनम्" हे रमणियो ? तुम सब असावधान न होकर अर्थात् यत्न-पूर्वक इस जाति तंतु की रक्षा करो क्यो की जाति का आश्रय स्वरूप ब्यक्ति का आसाङ्कर्य  यत् शुद्ध वर्ण तुम्हारे ही अधीन है इस प्रकार श्रुतियाँ स्त्रियों को ब्यभिचारिता रूप अपराध को जाति उच्छेद का कारण कह रही है अन्यथा जातितन्तु पितृपरम्परा क्रम से सनातन होने से निश्चित है