Friday, 7 February 2020

माता सीता का वन गमन


श्रीराम चन्द्र केवल मात्र सीता का पति ही नही अपितु अयोध्या के अधिपति भी थे ऐसे में उसका यह दायित्व भी बनता था कि अयोध्या के प्रत्येक प्रजा सुख, समृद्ध ,संशयशील रहित  रहे तभी राजा अश्वमेघयज्ञ के अधिकारी होता है जिस राज्य में प्रजा दुःख,  ईर्ष्या, संशयशील हो उस राजा को यह अधिकार नही की वह अश्वमेघयज्ञादि कर स्वयं को चक्रवर्ती सम्राट घोषित करें अयोध्या का यह इतिहास रहा है कि इक्ष्वाकु कुल के  शाशन काल  में वैश्या,  चोर,मद्यप, जुआड़ी ,  नही था फिर श्रीरामचन्द्र जी के शाशनकाल में यदि प्रजा संशयशील हो तो राजा का यह नैतिक कर्तब्य बनता है कि उसका निवारण करें अन्यथा युगों युग की कीर्ति पर कंलक लग सकता है ।
अतः श्रीरामचन्द्र जी का सीता का वनगमन का निर्णय लेना धर्म सम्मत है ।
शास्त्रो में उपदिष्ट है कि

#यद्यदाचरति_श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो_जनः।
#स_यत्प्रमाणं_कुरुते_लोकस्तदनुवर्तते (गीता )

श्रेष्ठ पुरुष जैसा आचरण करता है अन्य लोग भी वैसा ही अनुकरण करते हैं वह पुरुष जो कुछ प्रमाण कर देता है लोग भी उसका अनुसरण करते हैं ।
ऐसे में अयोध्य्या में किसी ने राम और सीता के मध्य कोई प्रश्न उठाया तो उसका निवारण करना राजा का प्रथम कर्तब्य बन जाता है अन्यथा राज्य में व्यभिचार बढ़ने की सम्भवना बढ़ती है ।
माता जानकी के कुटिल विरोधी समाज ने भी लवकुश के कंठो से  श्रीरामकथा का गान सुन उनका भक्त हो कर पश्चाताप के अश्रुधाराओं से अपने कल्मषों को धो डाला यह राघवेन्द्र की नीति ही थी जिसके फलस्वरूप ये घटनाएं घटित हुई जो काम किसी दण्डबिधान और प्रोपोगेंडा से कभी सम्भव न था वही श्रीरामचन्द्र जी के नीतियों से ही सुसम्पन्न हुआ जो महर्षि बाल्मीकि के माध्यम से लवकुश द्वरा  जनता के समक्ष माता जानकी के पवित्रता और निर्मलता का ज्ञान कराया ।
माता जानकी श्रीरामचन्द्र की काया की छाया थी राम रूप भानु की प्रभा एवं रामरूप चन्द्र की चंद्रिका थी रामरूप ईश्वर की महाशक्ति रूपा की प्रकृति थी एवं आनंदसिन्धु श्रीराम की माधुर्यसार सर्वस्य की अधिष्ठात्री महालक्ष्मी थी वाहिरङ्ग दृष्टि से रामसीता का विप्रयोग सम्भव था परन्तु अंतरंग दृष्टि से तो यह विप्रयोग सम्भव ही नही था इस लोए लङ्का में जैसे सीता की छाया रह सकती थी वैसे ही सीता बनवास में भी  सीता की छाया ही थी वस्तुतः अमृत में मधुरिमा का पार्थक्य जैसे असम्भव है ठीक वैसे ही श्रीराम सीता का पार्थक्य असम्भव है ।

#अनन्या_हि_मया_सीता_भास्करेण_प्रभा_यथा ।(बाल्मीकि रामायण)

परन्तु स्नेह और प्रेम उद्वेग में राम ने कर्तब्य से बिचलित न होने की प्रतिज्ञा ले रखी थी वे किसी भी स्नेह ,दया या मोह, सुख के लोभ में पड़कर लोकाराधन प्रजारञ्जन के कार्य से कैसे बिमुख हो सकते थे और उन्होंने सीता का भी इसी में हित समझा और वह हुआ भी इस कठोरता का आश्रयण कोई बिना महर्षि बाल्मीकि का समागम नही हो सकता था सीता के सुपुत्र लवकुश इस प्रकार के संस्कारी ,विद्वान, बलवान,धनुष्मान,कीर्तिमान तथा प्रतिभावान नही बनते सीता का कष्ट राम का ही कष्ट था श्रीरामचन्द्र ने सीता को बनवास देकर स्वयं को कष्ट में डाला सीता के निर्मल ,निष्कंल्क परमपवित्र उज्ज्वल चरित्र संसार के सामने उपस्थित किया ।
श्रीराम ने अनन्त  अद्भुत अनुराग के साथ ही सीता को वनवास देकर सीता को भी अवसर दिया कि वो महर्षियों के मुखारविन्द से अध्यात्मचर्चा श्रवण कर सके और समाधिनिष्ठ होकर आध्यात्मिक उच्च स्थिति की पारमार्थ साधना में  प्रतिष्ठित हो इसप्रकार प्रजारंजन के साथ परमार्थ भी सम्पन्न हो ।उत्तराधिकारी लवकुश की उच्च स्थिति के लिए सीता का चरित्र उज्ज्वल निष्कलंक होना आवश्यक था राजमहलों में पालन पोषण एवं संस्कारो के अपेक्षा आरणक्य ऋषियों के आश्रम के पालनपोषण एवं संस्कार बहुत अधिक महत्वपूर्ण होता है इसलिए अपने उत्तराधिकारी पुत्रो का उत्कृष्ट संस्कार एवं उत्कृष्ट शक्तिशाली चरित्र का निर्माण हो सके इस कार्य मे सीता का वनवास अत्यधिक उपयोगी था ।


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