वेदों में अवतारवाद !!
॥वेद में अवतारवाद है या नहीं इसके लिए अवतारवाद के प्रतिपादक कुछ मन्त्र यहाँ लिखें जाते हैं
प्रजपतिश्चरती गर्भे अंतरजायमानो बहुधा वि जायते !
तस्य योनिं परि पश्यन्ति धीरास्तास्मिन ह तस्थुभुवनानि विश्वाः!! (यजुर्वेद ३१ -१९ )
भावार्थ : प्रजाओं का पति भगवान् गर्भ के भीतर भी विचरता है ! वह स्वयं तो जन्मरहित है किन्तु अनेक प्रकार से जन्म ग्रहण करता है !
विद्वान पुरुष ही उसके उद्धव -स्थान को देखते एवं समझते हैं ! जिस समय वह आविर्भूत होता है उस समय सम्पूर्ण भुवन उसी के आधार अवस्थित रहते हैं अर्थात वह सर्वश्रेष्ठ नेता बनकर लोकों को चलाता है ! इस मन्त्र के अर्थ में अवतारवाद अत्यंत स्पष्ट है अब यद्यपि कोई विद्वान् इसका अन्य अर्थ करें तो प्रश्न यही होगा की उनका किया हुआ अर्थ ही क्यों प्रमाण माना जाए ! मन्त्र के अक्षरों से स्पष्ट निकलता हुआ हमारा अर्थ ही प्रमाण क्यों न माना जाए ! वस्तुतः बात यह है की वेद सर्वविज्ञान निधि है वह थोड़े अक्षरों में संकेत से कई अर्थों को प्रकशित कर देता है ! इसलिए बिना किसी खींच तान के इस मन्त्र से अवतारवाद बिलकुल स्पष्ट हो जाता है तब इस अर्थ को अप्रमाणिक करने का कोई कारण नहीं प्रतीत होता ! यदि कोई वैज्ञानिक अर्थ भी इस मन्त्र से स्पष्ट होता है तो वो भी मान लिया जाए किन्तु अवतारवाद का अर्थ ना मानने वेद में मूर्ति पूजा के प्रमाण
मा असि प्रमा असि प्रतिमा असि | [तैत्तीरिय प्रपा० अनु ० ५ ]
हे महावीर तुम इश्वर की प्रतिमा हो |
सह्स्त्रस्य प्रतिमा असि | [यजुर्वेद १५.६५]
हे परमेश्वर , आप सहस्त्रो की प्रतिमा [मूर्ति ] हैं |
अर्चत प्रार्चत प्रिय्मेधासो अर्चत | [रिग वेद अष्टक ६ अ ० ५ सू० ५८ मं० ८]
हे बुद्धिमान मनुष्यों उस प्रतिमा का पूजन करो,भली भांति पूजन करो |
ऋषि नाम प्रस्त्रोअसि नमो अस्तु देव्याय प्रस्तराय| [अथर्व ० १६.२.६ ]
हे प्रतिमा,, तू ऋषियों का पाषण है तुझ दिव्य पाषण के लिए नमस्कार
कोई कारण नहीं ! अन्य मन्त्र भी देखिये
त्वं स्त्री त्वं पुमनासी त्वं कुमार उत वा कुमारी (अथर्व -८ -२७ )
यहाँ परमात्मा की स्तुति है की आप स्त्री रूप भी है पुरुष रूप भी ! कुमार और कुमारी रूप भी आप होते है !
अब विचारने की बात यह है की परमात्मा अपने व्यापक स्वरुप में तो स्त्री , पुरुष , कुमार और कुमारी कुछ भी नहीं है ! ये रूप जो मन्त्र में वर्णित है ये अवतारों के ही रूप हो सकते है ! पुरुष रूप में राम , कृष्ण आदि अवतार प्रसिद्द ही है और स्त्री रूप से परमेश्वर के अवतारों का विस्तृत वर्णन दुर्गा सप्तशती में प्रसिद्द है ! व्यापक निराकार परमात्मा पुरुष रूप अथवा स्त्री रूप में इच्छानुसार कहीं भी प्रकट हो सकता है ! कुमारी रूप में अवतार भी वहां वर्णित है और कुमार रूप में वामनावतार प्रसिद्द है ही , जिसकी कथा विस्तार से शतपथ ब्राह्माण में प्राप्त होती है ! शिष्ट संप्रदाय में ब्राह्मण और मन्त्र दोनों ही वेद माने जाते हैं इसलिए शतपथ ब्राह्मण में प्रसिद्ध कथा को भी वेद का ही भाग कहना शिष्ट संप्रदाय द्वारा अनुमोदित है और कथा का संकेत मन्त्र में भी मिलता है !
इदं विष्णुर्वि चक्रमे त्रेधा नि दधे पदम् ! समूढ़मस्य पा सुरे !!(यजुर्वेद ५ -१५ )
अर्थात इन दृश्यमान लोको का विष्णु ने विक्रमण किया ! इनपर अपने चरण रखे अर्थात अपने चरणों से सारे लोको को नाप डाला !
वे लोक इनकी पाद धूलि में अंतर्गत हो गए !वामन अवतार की यह स्पष्ट कथा है ! यहाँ भी अर्थ का विभाग उपस्थित होने पर यही उत्तर होगा की मन्त्र के अक्षरों से स्पष्ट होता हुआ हमारा अर्थ क्यों ना माना जाए ! जो कथा ब्राह्मण और पुराणों में प्रसिद्द है उसके अनुकूल मन्त्र का अर्थ ना मानकर मनमाना अर्थ करना एक दुराग्रह पूर्ण कार्य होगा ! जो संप्रदाय ब्राह्मण भाग को वेद नहीं मानते वे भी ये तो मानते है की मन्त्रों के अर्थ ही भगवान् ने ऋषियों की बुद्धि में प्रकाशित किये है ! वे ही अर्थ ऋषियों ने लिखे है ! वे ही ब्राह्मण है और पुराण आदि भी वेदार्थ के विस्तार हैं ! यह उनमे ही वर्णित है ! इसी प्रकार मतस्यावतार और वराहावतार की कथा भी शत पथ आदि ब्राह्माणों में स्पष्ट मिलती है ! महाभारत के टीकाकार श्री नीलकंठ ने मन्त्र भागवत और मन्त्र रामायण नाम के दो छोटे निबंध भी लिखे हैं ! उसमें राम और कृष्ण की प्रत्येक लीला के प्रतिपादक वेद मन्त्र उद्धृत किये गए हैं , उन मन्त्रों से राम और कृष्ण के प्रत्येक चरित्र प्रकाशित होते हैं ! और वेद के रहस्य को प्रकाशित करने में ही जिन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन व्यतीत किया उन वेद के असाधारण विद्वान विद्या वाचस्पति श्री मधुसुदन ओझा जी ने भी गीता विज्ञान भाष्य के आचार्य काण्ड में उन मन्त्रों को दोहराया है ! इसलिए ये मन्त्र उन लीलाओं पर नहीं घटते ऐसा कहने का कोई साहस नहीं कर सकता ! इससे वेदों में अवतारवाद का होना अत्यंत स्पष्ट हो जाता है !
॥वेद में अवतारवाद है या नहीं इसके लिए अवतारवाद के प्रतिपादक कुछ मन्त्र यहाँ लिखें जाते हैं
प्रजपतिश्चरती गर्भे अंतरजायमानो बहुधा वि जायते !
तस्य योनिं परि पश्यन्ति धीरास्तास्मिन ह तस्थुभुवनानि विश्वाः!! (यजुर्वेद ३१ -१९ )
भावार्थ : प्रजाओं का पति भगवान् गर्भ के भीतर भी विचरता है ! वह स्वयं तो जन्मरहित है किन्तु अनेक प्रकार से जन्म ग्रहण करता है !
विद्वान पुरुष ही उसके उद्धव -स्थान को देखते एवं समझते हैं ! जिस समय वह आविर्भूत होता है उस समय सम्पूर्ण भुवन उसी के आधार अवस्थित रहते हैं अर्थात वह सर्वश्रेष्ठ नेता बनकर लोकों को चलाता है ! इस मन्त्र के अर्थ में अवतारवाद अत्यंत स्पष्ट है अब यद्यपि कोई विद्वान् इसका अन्य अर्थ करें तो प्रश्न यही होगा की उनका किया हुआ अर्थ ही क्यों प्रमाण माना जाए ! मन्त्र के अक्षरों से स्पष्ट निकलता हुआ हमारा अर्थ ही प्रमाण क्यों न माना जाए ! वस्तुतः बात यह है की वेद सर्वविज्ञान निधि है वह थोड़े अक्षरों में संकेत से कई अर्थों को प्रकशित कर देता है ! इसलिए बिना किसी खींच तान के इस मन्त्र से अवतारवाद बिलकुल स्पष्ट हो जाता है तब इस अर्थ को अप्रमाणिक करने का कोई कारण नहीं प्रतीत होता ! यदि कोई वैज्ञानिक अर्थ भी इस मन्त्र से स्पष्ट होता है तो वो भी मान लिया जाए किन्तु अवतारवाद का अर्थ ना मानने वेद में मूर्ति पूजा के प्रमाण
मा असि प्रमा असि प्रतिमा असि | [तैत्तीरिय प्रपा० अनु ० ५ ]
हे महावीर तुम इश्वर की प्रतिमा हो |
सह्स्त्रस्य प्रतिमा असि | [यजुर्वेद १५.६५]
हे परमेश्वर , आप सहस्त्रो की प्रतिमा [मूर्ति ] हैं |
अर्चत प्रार्चत प्रिय्मेधासो अर्चत | [रिग वेद अष्टक ६ अ ० ५ सू० ५८ मं० ८]
हे बुद्धिमान मनुष्यों उस प्रतिमा का पूजन करो,भली भांति पूजन करो |
ऋषि नाम प्रस्त्रोअसि नमो अस्तु देव्याय प्रस्तराय| [अथर्व ० १६.२.६ ]
हे प्रतिमा,, तू ऋषियों का पाषण है तुझ दिव्य पाषण के लिए नमस्कार
कोई कारण नहीं ! अन्य मन्त्र भी देखिये
त्वं स्त्री त्वं पुमनासी त्वं कुमार उत वा कुमारी (अथर्व -८ -२७ )
यहाँ परमात्मा की स्तुति है की आप स्त्री रूप भी है पुरुष रूप भी ! कुमार और कुमारी रूप भी आप होते है !
अब विचारने की बात यह है की परमात्मा अपने व्यापक स्वरुप में तो स्त्री , पुरुष , कुमार और कुमारी कुछ भी नहीं है ! ये रूप जो मन्त्र में वर्णित है ये अवतारों के ही रूप हो सकते है ! पुरुष रूप में राम , कृष्ण आदि अवतार प्रसिद्द ही है और स्त्री रूप से परमेश्वर के अवतारों का विस्तृत वर्णन दुर्गा सप्तशती में प्रसिद्द है ! व्यापक निराकार परमात्मा पुरुष रूप अथवा स्त्री रूप में इच्छानुसार कहीं भी प्रकट हो सकता है ! कुमारी रूप में अवतार भी वहां वर्णित है और कुमार रूप में वामनावतार प्रसिद्द है ही , जिसकी कथा विस्तार से शतपथ ब्राह्माण में प्राप्त होती है ! शिष्ट संप्रदाय में ब्राह्मण और मन्त्र दोनों ही वेद माने जाते हैं इसलिए शतपथ ब्राह्मण में प्रसिद्ध कथा को भी वेद का ही भाग कहना शिष्ट संप्रदाय द्वारा अनुमोदित है और कथा का संकेत मन्त्र में भी मिलता है !
इदं विष्णुर्वि चक्रमे त्रेधा नि दधे पदम् ! समूढ़मस्य पा सुरे !!(यजुर्वेद ५ -१५ )
अर्थात इन दृश्यमान लोको का विष्णु ने विक्रमण किया ! इनपर अपने चरण रखे अर्थात अपने चरणों से सारे लोको को नाप डाला !
वे लोक इनकी पाद धूलि में अंतर्गत हो गए !वामन अवतार की यह स्पष्ट कथा है ! यहाँ भी अर्थ का विभाग उपस्थित होने पर यही उत्तर होगा की मन्त्र के अक्षरों से स्पष्ट होता हुआ हमारा अर्थ क्यों ना माना जाए ! जो कथा ब्राह्मण और पुराणों में प्रसिद्द है उसके अनुकूल मन्त्र का अर्थ ना मानकर मनमाना अर्थ करना एक दुराग्रह पूर्ण कार्य होगा ! जो संप्रदाय ब्राह्मण भाग को वेद नहीं मानते वे भी ये तो मानते है की मन्त्रों के अर्थ ही भगवान् ने ऋषियों की बुद्धि में प्रकाशित किये है ! वे ही अर्थ ऋषियों ने लिखे है ! वे ही ब्राह्मण है और पुराण आदि भी वेदार्थ के विस्तार हैं ! यह उनमे ही वर्णित है ! इसी प्रकार मतस्यावतार और वराहावतार की कथा भी शत पथ आदि ब्राह्माणों में स्पष्ट मिलती है ! महाभारत के टीकाकार श्री नीलकंठ ने मन्त्र भागवत और मन्त्र रामायण नाम के दो छोटे निबंध भी लिखे हैं ! उसमें राम और कृष्ण की प्रत्येक लीला के प्रतिपादक वेद मन्त्र उद्धृत किये गए हैं , उन मन्त्रों से राम और कृष्ण के प्रत्येक चरित्र प्रकाशित होते हैं ! और वेद के रहस्य को प्रकाशित करने में ही जिन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन व्यतीत किया उन वेद के असाधारण विद्वान विद्या वाचस्पति श्री मधुसुदन ओझा जी ने भी गीता विज्ञान भाष्य के आचार्य काण्ड में उन मन्त्रों को दोहराया है ! इसलिए ये मन्त्र उन लीलाओं पर नहीं घटते ऐसा कहने का कोई साहस नहीं कर सकता ! इससे वेदों में अवतारवाद का होना अत्यंत स्पष्ट हो जाता है !
भाई कॉपी पेस्ट करना छोडो
ReplyDeleteऔर थोडा संस्कृत पढ़ना सीखो
इन मन्त्रो की इन आधी अधूरी पंक्तियों से कोई अवतारवाद नही दिखाई देता
इनको वेदों से जानने का प्रयास करे
और लोगों को उल्लू बनाना छोड़ देवे
तो आप कुछ गहराई से बताएं
DeleteBhai Shahab Tum bhi likho kuchh yese hi tark Sanskrit Mai Jo Tum janate ho ...bol Dene Matra se kya hota??????????
DeleteHm tumare wala hi example kyo mane iska arth ye b bilkul ho sakta h
Deleteअवतारवाद के प्रमाण
ReplyDeleteअवतारवाद का मूल यह है कि ईश्वर साकार रूप में प्रकट हो सकता है।
वेद की मान्यता यह है कि उन्हें ऋषियों के अंतःकरण
में ईश्वर के द्वारा प्रकट किया गया।
अर्थात ईश्वर अंतःकरण में विद्यमान होता है वो भी पूर्ण रूप से
साथ ही साथ वह अन्य जगहों पर भी पूर्ण रूप से सर्व व्यापक होता है।
इससे यह सिद्ध होता है कि ईश्वर एक जगह पूर्ण रूप से विद्यमान होने के साथ साथ सर्वव्यापक होता है।
और जब ईश्वर की इच्छा किसी आकार में पूर्ण रूप से व्यक्त होने की होती है तब वह साकार रूप धारण करके प्रकट हो जाता है।